Bhagwat Geeta Chapter 12 Hindi
सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय बारह
Bhagwat Geeta Chapter 12 Hindi
श्रीमद भागवत गीता (Bhagwat Geeta Chapter 12 Hindi) के अध्याय बारह को भक्तियोग के नाम से जाना जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता के बारह अध्याय (Bhagwat Geeta Chapter 12 Hindi) में भगवान श्री कृष्ण ने साकार और निराकार के उपासकों की उत्तमता का निर्णय का वर्णन किया है। भगवान प्राप्ति होने का उपाय के विषय में वर्णन मिलता है। श्रीमद्भगवद्गीता में जिस मनुष्य को भगवान प्राप्त हुए है उसके लक्षण का वर्णन है।
भगवद गीता हिंदू धर्म में एक पवित्र ग्रंथ है जिसमें भगवान कृष्ण और उनके मित्र अर्जुन के बीच एक वार्तालाप शामिल है। अर्जुन भगवान कृष्ण से (Bhagwat Geeta Chapter 12 Hindi) पूछता है कि कौन सा मार्ग बेहतर है: भगवान के व्यक्तिगत रूप की भक्ति का मार्ग, या अवैयक्तिक और निराकार निरपेक्षता का मार्ग।
भगवान कृष्ण उत्तर देते हैं कि दोनों मार्ग एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं, लेकिन अधिकांश लोगों के लिए भक्ति का मार्ग आसान होता है। वे बताते हैं कि जो लोग निराकार निरपेक्ष की पूजा आस्था और भक्ति के साथ करते हैं वे भी अंतिम लक्ष्य तक पहुँचते हैं, लेकिन यह अधिक कठिन मार्ग है।
भगवान कृष्ण एक भक्त के गुणों का वर्णन करते हैं, जिसमें विनम्रता, आत्म-संयम, अहिंसा, सच्चाई और हृदय की पवित्रता शामिल है। वह इस बात पर जोर देते हैं कि एक भक्त को सभी प्राणियों को समान रूप से देखना चाहिए और सभी के साथ दया और करुणा का व्यवहार करना चाहिए।
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय बारह (Bhagwat Geeta Chapter 12 Hindi) में अर्जुन भगवान श्री कृष्ण को प्रश्न करते हे की निरन्तर आपके भजन ध्यान और अतिश्रेष्ठ भाव से भजते हैं, उन दोनों प्रकार के भक्त में अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं?
Shrimad Bhagvat Geeta in English ~ श्रीमद् भगवदगीता in Hindi
श्रीमद भागवत गीता अध्याय भक्तियोग
अर्जुन उवाच
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥
arjuna uvaca
evan satatayukta ye bhaktastvan paryupasate.
yecapyaksaramavyaktan tesan ke yogavittamah৷৷12.1৷৷
भावार्थ : अर्जुन बोले- जो अनन्य प्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकार से निरन्तर आपके भजन-ध्यान में लगे रहकर आप सगुण रूप परमेश्वर को और दूसरे जो केवल अविनाशी सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म को ही अतिश्रेष्ठ भाव से भजते हैं- उन दोनों प्रकार के उपासकों में अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं?॥1॥
यहां एक क्लिक में पढ़ें- श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय
श्रीभगवानुवाच
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥
sri bhagavanuvaca
mayyavesya mano ye man nityayukta upasate.
sraddhaya parayopetaste me yuktatama matah৷৷12.2৷৷
भावार्थ : श्री भगवान बोले- मुझमें मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन-ध्यान में लगे हुए (अर्थात गीता अध्याय 11 श्लोक 55 में लिखे हुए प्रकार से निरन्तर मेरे में लगे हुए) जो भक्तजन अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त होकर मुझ सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं, वे मुझको योगियों में अति उत्तम योगी मान्य हैं॥2॥
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ॥
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥
ye tvaksaramanirdesyamavyaktan paryupasate.
sarvatragamacintyan ca kutasthamacalan dhruvam৷৷12.3৷৷
sanniyamyendriyagraman sarvatra samabuddhayah.
te prapnuvanti mameva sarvabhutahite ratah৷৷12.4৷৷
भावार्थ : परन्तु जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके मन-बुद्धि से परे, सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी, सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को निरन्तर एकीभाव से ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतों के हित में रत और सबमें समान भाववाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं॥3-4॥
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥
kleso.dhikatarastesamavyaktasaktacetasam.
avyakta hi gatirduhkhan dehavadbhiravapyate৷৷12.5৷৷
भावार्थ : उन सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म में आसक्त चित्तवाले पुरुषों के साधन में परिश्रम विशेष है क्योंकि देहाभिमानियों द्वारा अव्यक्तविषयक गति दुःखपूर्वक प्राप्त की जाती है॥5॥
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्नयस्य मत्पराः ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥
ye tu sarvani karmani mayi sannyasya matparah.
ananyenaiva yogena man dhyayanta upasate৷৷12.6৷৷
भावार्थ : परन्तु जो मेरे परायण रहने वाले भक्तजन सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्तियोग से निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं।॥6॥
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् ।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ॥
tesamahan samuddharta mrtyusansarasagarat.
bhavami naciratpartha mayyavesitacetasam৷৷12.7৷৷
भावार्थ : हे अर्जुन! उन मुझमें चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्यु रूप संसार-समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूँ॥7॥(Bhagwat Geeta Chapter 12 Hindi)
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥
mayyeva mana adhatsva mayi buddhin nivesaya.
nivasisyasi mayyeva ata urdhvan na sansayah৷৷12.8৷৷
भावार्थ : मुझमें मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा, इसके उपरान्त तू मुझमें ही निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है॥8॥
अथ चित्तं समाधातुं न शक्रोषि मयि स्थिरम् ।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ॥
atha cittan samadhatun na saknosi mayi sthiram.
abhyasayogena tato mamicchaptun dhananjaya৷৷12.9৷৷
भावार्थ : यदि तू मन को मुझमें अचल स्थापन करने के लिए समर्थ नहीं है, तो हे अर्जुन! अभ्यासरूप योग द्वारा मुझको प्राप्त होने के लिए इच्छा कर॥9॥
अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव ।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ॥
abhyase.pyasamartho.si matkarmaparamo bhava.
madarthamapi karmani kurvan siddhimavapsyasi৷৷12.10৷৷
भावार्थ : यदि तू उपर्युक्त अभ्यास में भी असमर्थ है, तो केवल मेरे लिए कर्म करने के ही परायण हो जा। इस प्रकार मेरे निमित्त कर्मों को करता हुआ भी मेरी प्राप्ति रूप सिद्धि को ही प्राप्त होगा॥10॥
अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः ।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ॥
athaitadapyasakto.si kartun madyogamasritah.
sarvakarmaphalatyagan tatah kuru yatatmavan৷৷12.11৷৷
भावार्थ : यदि मेरी प्राप्ति रूप योग के आश्रित होकर उपर्युक्त साधन को करने में भी तू असमर्थ है, तो मन-बुद्धि आदि पर विजय प्राप्त करने वाला होकर सब कर्मों के फल का त्याग कर॥11॥
यहां एक क्लिक में पढ़ें सरल गीता सार हिंदी मे
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धयानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥
sreyo hi jnanamabhyasajjnanaddhyanan visisyate.
dhyanatkarmaphalatyagastyagacchantiranantaram৷৷12.12৷৷
भावार्थ : मर्म को न जानकर किए हुए अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है, क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शान्ति होती है॥12॥
अर्जुन उवाच
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ॥
संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥
advesta sarvabhutanan maitrah karuna eva ca.
nirmamo nirahankarah samaduhkhasukhah ksami৷৷12.13৷৷
santustah satatan yogi yatatma drdhaniscayah.
mayyarpitamanobuddhiryo madbhaktah sa me priyah৷৷12.14৷৷
भावार्थ : जो पुरुष सब भूतों में द्वेष भाव से रहित, स्वार्थ रहित सबका प्रेमी और हेतु रहित दयालु है तथा ममता से रहित, अहंकार से रहित, सुख-दुःखों की प्राप्ति में सम और क्षमावान है अर्थात अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है तथा जो योगी निरन्तर संतुष्ट है, मन-इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए है और मुझमें दृढ़ निश्चय वाला है- वह मुझमें अर्पण किए हुए मन-बुद्धिवाला मेरा भक्त मुझे प्रिय है।
ईश्वर सबके लिए एक समान है। वह किसी को भी घृणित या अपना प्रिय नहीं मानता। जो लोग भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करते हैं, वे उनमें हैं और वे उनमें हैं। इसलिए अच्छे गुणों को प्राप्त करके, भक्त भगवान का प्रिय हो जाता है, और भगवान उसे आत्मज्ञान प्रदान करते हैं, और इसके द्वारा वह मोक्ष प्राप्त करता है। उनमें से प्रत्येक गुण को सभी साधकों द्वारा परिश्रमपूर्वक विकसित किया जाना चाहिए।
यदि भगवान की कृपा प्राप्त हो जाए तो सब कुछ प्राप्त हो जाता है, क्योंकि उनकी कृपा से सारी अज्ञानता क्षण भर में नष्ट हो जाती है। भगवान पूरी तरह से स्पष्ट हैं जब वह घोषणा करते हैं कि केवल वे ही भक्त उन्हें प्रिय हैं, जिनके पास उपर्युक्त गुण हैं।
साधक को इन गुणों के बारे में सोचना चाहिए और उन्हें अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाना चाहिए। पहला है किसी भी प्राणी के प्रति घृणा का कोई निशान न होना। इस आदेश का कोई अपवाद नहीं है. सभी प्राणियों के प्रति प्रेम और दयालु भावना एक भक्त का मूल गुण है।
भक्त को पूरी तरह संतुष्ट और प्रसन्न रहना चाहिए। असंतोष अपूर्णता का प्रतीक है. सभी परिस्थितियों में, भक्त को स्वयं और दुनिया के साथ पूरी तरह से आराम और शांति में रहना चाहिए।
आध्यात्मिक जीवन में दृढ़ विश्वास फिर से एक अनिवार्य गुण है। अधिकांश साधकों के साथ कठिनाई यह है कि जीवन के महत्वपूर्ण क्षणों में मन डगमगा जाता है। मन और बुद्धि को भगवान में लीन करना चाहिए। बुद्धि निर्णायक शक्ति है, यदि इसे मन से न जोड़ा जाए तो मन सैकड़ों शंकाओं और भय से विघटित हो जाता है। दृढ़ निर्णय और अटल विश्वास आवश्यक है।॥13-14॥
श्रीभगवानुवाच
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः॥
yasmannodvijate loko lokannodvijate ca yah.
harsamarsabhayodvegairmukto yah sa ca me priyah৷৷12.15৷৷
भावार्थ : जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेगादि से रहित है वह भक्त मुझको प्रिय है॥15॥
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥
anapeksah sucirdaksa udasino gatavyathah.
sarvarambhaparityagi yo madbhaktah sa me priyah৷৷12.16৷৷
भावार्थ : जो पुरुष आकांक्षा से रहित, बाहर-भीतर से शुद्ध चतुर, पक्षपात से रहित और दुःखों से छूटा हुआ है- वह सब आरम्भों का त्यागी मेरा भक्त मुझको प्रिय है॥16॥
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः॥
yo na hrsyati na dvesti na socati na kanksati.
subhasubhaparityagi bhakitamanyah sa me priyah৷৷12.17৷৷
भावार्थ : जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है- वह भक्तियुक्त पुरुष मुझको प्रिय है॥17॥
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः॥
samah satrau ca mitre ca tatha manapamanayoh.
sitosnasukhaduhkhesu samah sangavivarjitah৷৷12.18৷৷
भावार्थ : जो शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम है तथा सर्दी, गर्मी और सुख-दुःखादि द्वंद्वों में सम है और आसक्ति से रहित है॥18॥
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः॥
tulyanindastutirmauni santusto yenakenacit.
aniketah sthiramatirbhakitamanme priyo narah৷৷12.19৷৷
भावार्थ : जो निंदा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है- वह स्थिरबुद्धि भक्तिमान पुरुष मुझको प्रिय है॥19॥
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
श्रद्धाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः॥
ye tu dharmyamrtamidan yathoktan paryupasate.
sraddadhana matparama bhaktaste.tiva me priyah৷৷12.20৷৷
भावार्थ : परन्तु जो श्रद्धायुक्त (वेद, शास्त्र, महात्मा और गुरुजनों के तथा परमेश्वर के वचनों में प्रत्यक्ष के सदृश विश्वास का नाम ‘श्रद्धा’ है) पुरुष मेरे परायण होकर इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम प्रेमभाव से सेवन करते हैं, वे भक्त मुझको अतिशय प्रिय हैं॥20॥
यहां एक क्लिक में पढ़ें- भागवत गीता अध्याय तेरह हिंदी मे
अध्याय बारह संपूर्णम्