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Bhagavad Gita Chapter 4 Hindi

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Bhagavad Gita Chapter 4 Hindi

सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता अध्याय चार

Bhagavad Gita Chapter 4 Hindi

श्रीमद भागवत गीता का चौथा (Bhagavad Gita Chapter 4 Hindi) अध्याय ज्ञानकर्मसंन्यासयोग कहा गया हे। भगवद गीता का चौथा अध्याय ज्ञानकर्मसंन्यासयोग मे कर्म-विकर्म एवं अकर्म की व्याख्या, कर्म में अकर्मता-भाव, नैराश्य-सुख, यज्ञ की व्याख्या, फलसहित विभिन्न यज्ञों का वर्णन और ज्ञान की महिमा तथा अर्जुन को कर्म करने की प्रेरणा भगवान श्री कृष्ण द्वारा वर्णन कहा गया हे।

श्रीमद भागवत गीता के अध्याय चार (Bhagavad Gita Chapter 4 Hindi) मे भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को ज्ञानकर्मसंन्यासयोग के रूप मे वर्णन करते हुए समझाया गया हे।

यहां एक क्लिक में सम्पूर्ण ~ श्रीमद् भगवदगीता in Hindi

 

श्री भगवानुवाच

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥

sri bhagavanuvaca

iman vivasvate yogan proktavanahamavyayam.
vivasvan manave praha manuriksvakave.bravit৷৷4.1৷৷

भावार्थ : श्री भगवान बोले- मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा॥1॥

 

यहां एक क्लिक में पढ़ें- श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय

 

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥

evan paramparapraptamiman rajarsayo viduh.
sa kaleneha mahata yogo nastah parantapa৷৷4.2৷৷

भावार्थ : हे परन्तप अर्जुन! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना, किन्तु उसके बाद वह योग बहुत काल से इस पृथ्वी लोक में लुप्तप्राय हो गया॥2॥

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥

sa evayan maya te.dya yogah proktah puratanah.
bhakto.si me sakha ceti rahasyan hyetaduttamam৷৷4.3৷৷

भावार्थ : तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिए वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझको कहा है क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है अर्थात गुप्त रखने योग्य विषय है॥3॥

अर्जुन उवाच

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥

arjuna uvaca

aparan bhavato janma paran janma vivasvatah.
kathametadvijaniyan tvamadau proktavaniti৷৷4.4৷৷

भावार्थ : अर्जुन बोले- आपका जन्म तो अर्वाचीन-अभी हाल का है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है अर्थात कल्प के आदि में हो चुका था। तब मैं इस बात को कैसे समूझँ कि आप ही ने कल्प के आदि में सूर्य से यह योग कहा था?॥4॥

श्रीभगवानुवाच

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥

sri bhagavanuvaca

bahuni me vyatitani janmani tava carjuna.
tanyahan veda sarvani na tvan vettha parantapa৷৷4.5৷৷

भावार्थ : श्री भगवान बोले- हे परंतप अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं। उन सबको तू नहीं जानता, किन्तु मैं जानता हूँ॥5॥

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥

ajo.pi sannavyayatma bhutanamisvaro.pi san.
prakrtin svamadhisthaya sanbhavamyatmamayaya৷৷4.6৷৷

भावार्थ : मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ॥6॥

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥

yada yada hi dharmasya glanirbhavati bharata.
abhyutthanamadharmasya tada৷৷tmanan srjamyaham৷৷4.7৷৷

भावार्थ : हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ॥7॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥

paritranaya sadhunan vinasaya ca duskrtam.
dharmasansthapanarthaya sanbhavami yuge yuge৷৷4.8৷৷

भावार्थ : साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ॥8॥

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः ।
त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥

janma karma ca me divyamevan yo vetti tattvatah.
tyaktva dehan punarjanma naiti mameti so.rjuna৷৷4.9৷৷

भावार्थ : हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात निर्मल और अलौकिक हैं- इस प्रकार जो मनुष्य तत्व से जान लेता है, वह शरीर को त्याग कर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता, किन्तु मुझे ही प्राप्त होता है॥9॥

वीतरागभय क्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः ।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥

vitaragabhayakrodha manmaya mamupasritah.
bahavo jnanatapasa puta madbhavamagatah৷৷4.10৷৷

भावार्थ : पहले भी, जिनके राग, भय और क्रोध सर्वथा नष्ट हो गए थे और जो मुझ में अनन्य प्रेमपूर्वक स्थित रहते थे, ऐसे मेरे आश्रित रहने वाले बहुत से भक्त उपर्युक्त ज्ञान रूप तप से पवित्र होकर मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं।

इस अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने विभिन्न तरीकों से ज्ञान के गुणों का वर्णन किया है, जैसे तपस, यज्ञ, अग्नि, नौका और खड्ग । यहां ज्ञान को तप के रूप में वर्णित किया गया है, इस ज्ञान तप के लक्षण क्या हैं? इच्छा, भय और घृणा से मुक्ति, भगवान में गहन भक्ति और तल्लीनता, उनमें परम शरण की तलाश, – ये ज्ञान तप के पहलू हैं। इसका प्रभाव क्या है? प्रभु की प्राप्ति, पवित्रता के माध्यम से आत्म-साक्षात्कार ही पुरस्कार है।

इच्छा, भय और घृणा से मुक्त: सांसारिक वस्तुओं के प्रति लगाव, भय और घृणा, तीन सिर वाले राक्षस का निर्माण करते हैं जिन्हें मारकर नष्ट कर देना चाहिए। क्या यह कोई आसान काम है? उन्हें कैसे नष्ट करें? प्रभु रास्ता बताते हैं. वह कहते हैं, ‘मेरे बारे में सोचो, मुझमें मुक्त हो जाओ, मेरी शरण लो।’ यही शत्रु पर विजय पाने का उपाय है। जैसे-जैसे मनुष्य ज्ञान में अधिक से अधिक दृढ़ता प्राप्त करता है, ये बाधाएँ धीरे-धीरे मन से दूर हो जाती हैं, और उसी क्षण जब मन नष्ट हो जाता है, सर्वोच्च आत्म का एहसास होता है। जब मन का अस्तित्व समाप्त हो जाता है, तो आत्मा का बोध हो जाता है, और जब आत्मा का बोध हो जाता है, तो मन का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। इसलिए व्यक्ति को ज्ञान के दोनों पहलुओं का एक साथ अभ्यास करना चाहिए।॥10॥

ये यथा माँ प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥

(Bhagavad Gita Chapter 4 Hindi)

ye yatha man prapadyante tanstathaiva bhajamyaham.
mama vartmanuvartante manusyah partha sarvasah৷৷4.11৷৷

भावार्थ : हे अर्जुन! जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।

श्री कृष्ण कहते हैं कि वे हर किसी के साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं, जैसे वे उनके प्रति समर्पण करते हैं। जो लोग ईश्वर के अस्तित्व को नकारते हैं, वह उनसे कर्म के नियम के रूप में मिलता है – वह उनके दिलों में बैठता है, उनके कार्यों को नोट करता है, और परिणाम देता है। परन्तु ऐसे नास्तिक भी उनकी सेवा से विमुख नहीं हो सकते; वे धन, विलासिता, रिश्तेदारों, प्रतिष्ठा आदि जैसे विभिन्न रूपों में भगवान की भौतिक ऊर्जा, माया की सेवा करने के लिए बाध्य हैं।

दूसरी ओर, जो लोग अपना मन सांसारिक आकर्षणों से हटाकर भगवान को लक्ष्य और आश्रय के रूप में देखते हैं, वह उनकी देखभाल उसी तरह करते हैं जैसे एक माँ अपने बच्चे की देखभाल करती है।

श्री कृष्ण समर्पण करने वाली आत्माओं की सेवा करते हैं, उनके अनंत जन्मों के संचित कर्मों को नष्ट करके, माया के बंधनों को काटकर, भौतिक अस्तित्व के अंधेरे को दूर करके और दिव्य आनंद, दिव्य ज्ञान और दिव्य प्रेम प्रदान करते हैं। और जब भक्त भगवान से निःस्वार्थ प्रेम करना सीख जाता है, तो वह स्वेच्छा से स्वयं को उनके प्रेम का गुलाम बना लेता है।॥11॥

काङ्‍क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥

kanksantah karmanan siddhin yajanta iha devatah.
ksipran hi manuse loke siddhirbhavati karmaja৷৷4.12৷৷

भावार्थ : इस मनुष्य लोक में कर्मों के फल को चाहने वाले लोग देवताओं का पूजन किया करते हैं क्योंकि उनको कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि शीघ्र मिल जाती है॥12॥

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम् ॥

caturvarnyan maya srstan gunakarmavibhagasah.
tasya kartaramapi man viddhyakartaramavyayam৷৷4.13৷৷

भावार्थ : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- इन चार वर्णों का समूह, गुण और कर्मों के विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान॥13॥

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥

na man karmani limpanti na me karmaphale sprha.
iti man yo.bhijanati karmabhirna sa badhyate৷৷4.14৷৷

भावार्थ : कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिए मुझे कर्म लिप्त नहीं करते- इस प्रकार जो मुझे तत्व से जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता॥14॥

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।
कुरु कर्मैव तस्मात्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ॥

evan jnatva krtan karma purvairapi mumuksubhih.
kuru karmaiva tasmattvan purvaih purvataran krtam৷৷4.15৷৷

भावार्थ : पूर्वकाल में मुमुक्षुओं ने भी इस प्रकार जानकर ही कर्म किए हैं, इसलिए तू भी पूर्वजों द्वारा सदा से किए जाने वाले कर्मों को ही कर॥15॥

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः ।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥

kin karma kimakarmeti kavayo.pyatra mohitah.
tatte karma pravaksyami yajjnatva moksyase.subhat৷৷4.16৷৷

भावार्थ : कर्म क्या है? और अकर्म क्या है? इस प्रकार इसका निर्णय करने में बुद्धिमान पुरुष भी मोहित हो जाते हैं। इसलिए वह कर्मतत्व मैं तुझे भलीभाँति समझाकर कहूँगा, जिसे जानकर तू अशुभ से अर्थात कर्मबंधन से मुक्त हो जाएगा॥16॥

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥

karmano hyapi boddhavyan boddhavyan ca vikarmanah.
akarmanasca boddhavyan gahana karmano gatih৷৷4.17৷৷

भावार्थ : कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए और अकर्मण का स्वरूप भी जानना चाहिए तथा विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए क्योंकि कर्म की गति गहन है॥17॥

 

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ सरल गीता सार हिंदी मे

 

कर्मण्य कर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥

karmanyakarma yah pasyedakarmani ca karma yah.
sa buddhiman manusyesu sa yuktah krtsnakarmakrt৷৷4.18৷৷

भावार्थ : जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह योगी समस्त कर्मों को करने वाला है॥18॥

यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः ।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः ॥

yasya sarve samarambhah kamasankalpavarjitah.
jnanagnidagdhakarmanan tamahuh panditan budhah৷৷4.19৷৷

भावार्थ : जिसके सम्पूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म बिना कामना और संकल्प के होते हैं तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्नि द्वारा भस्म हो गए हैं, उस महापुरुष को ज्ञानीजन भी पंडित कहते हैं॥19॥

त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः ॥

tyaktva karmaphalasangan nityatrpto nirasrayah.
karmanyabhipravrtto.pi naiva kincitkaroti sah৷৷4.20৷৷

भावार्थ : जो पुरुष समस्त कर्मों में और उनके फल में आसक्ति का सर्वथा त्याग करके संसार के आश्रय से रहित हो गया है और परमात्मा में नित्य तृप्त है, वह कर्मों में भलीभाँति बर्तता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता॥20॥

निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥

nirasiryatacittatma tyaktasarvaparigrahah.
sariran kevalan karma kurvannapnoti kilbisam৷৷4.21৷৷

भावार्थ : जिसका अंतःकरण और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है और जिसने समस्त भोगों की सामग्री का परित्याग कर दिया है, ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीर-संबंधी कर्म करता हुआ भी पापों को नहीं प्राप्त होता॥21॥

यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वंद्वातीतो विमत्सरः ।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥

yadrcchalabhasantusto dvandvatito vimatsarah.
samah siddhavasiddhau ca krtvapi na nibadhyate৷৷4.22৷৷

भावार्थ : जो बिना इच्छा के अपने-आप प्राप्त हुए पदार्थ में सदा संतुष्ट रहता है, जिसमें ईर्ष्या का सर्वथा अभाव हो गया हो, जो हर्ष-शोक आदि द्वंद्वों से सर्वथा अतीत हो गया है- ऐसा सिद्धि और असिद्धि में सम रहने वाला कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी उनसे नहीं बँधता॥22॥

गतसङ्‍गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः ।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥

gatasangasya muktasya jnanavasthitacetasah.
yajnayacaratah karma samagran praviliyate৷৷4.23৷৷

भावार्थ : जिसकी आसक्ति सर्वथा नष्ट हो गई है, जो देहाभिमान और ममता से रहित हो गया है, जिसका चित्त निरन्तर परमात्मा के ज्ञान में स्थित रहता है- ऐसा केवल यज्ञसम्पादन के लिए कर्म करने वाले मनुष्य के सम्पूर्ण कर्म भलीभाँति विलीन हो जाते हैं॥23॥

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्रौ ब्रह्मणा हुतम् ।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥

brahmarpanan brahmahavirbrahmagnau brahmana hutam.
brahmaiva tena gantavyan brahmakarmasamadhina৷৷4.24৷৷

भावार्थ : जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात स्रुवा आदि भी ब्रह्म है और हवन किए जाने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्मरूप कर्ता द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म है- उस ब्रह्मकर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्त किए जाने योग्य फल भी ब्रह्म ही हैं॥24॥

दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते ।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ॥

daivamevapare yajnan yoginah paryupasate.
brahmagnavapare yajnan yajnenaivopajuhvati৷৷4.25৷৷

भावार्थ : दूसरे योगीजन देवताओं के पूजनरूप यज्ञ का ही भलीभाँति अनुष्ठान किया करते हैं और अन्य योगीजन परब्रह्म परमात्मारूप अग्नि में अभेद दर्शनरूप यज्ञ द्वारा ही आत्मरूप यज्ञ का हवन किया करते हैं।॥25॥

श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥

srotradinindriyanyanye sanyamagnisu juhvati.
sabdadinvisayananya indriyagnisu juhvati৷৷4.26৷৷

भावार्थ : अन्य योगीजन श्रोत्र आदि समस्त इन्द्रियों को संयम रूप अग्नियों में हवन किया करते हैं और दूसरे योगी लोग शब्दादि समस्त विषयों को इन्द्रिय रूप अग्नियों में हवन किया करते हैं॥26॥

सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥

sarvanindriyakarmani pranakarmani capare.
atmasanyamayogagnau juhvati jnanadipite৷৷4.27৷৷

भावार्थ : दूसरे योगीजन इन्द्रियों की सम्पूर्ण क्रियाओं और प्राणों की समस्त क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्म संयम योगरूप अग्नि में हवन किया करते हैं॥27॥

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥

dravyayajnastapoyajna yogayajnastathapare.
svadhyayajnanayajnasca yatayah sansitavratah৷৷4.28৷৷

भावार्थ : कई पुरुष द्रव्य संबंधी यज्ञ करने वाले हैं, कितने ही तपस्या रूप यज्ञ करने वाले हैं तथा दूसरे कितने ही योगरूप यज्ञ करने वाले हैं, कितने ही अहिंसादि तीक्ष्णव्रतों से युक्त यत्नशील पुरुष स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ करने वाले हैं॥28॥

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे ।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ॥
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति ।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ॥

(Bhagavad Gita Chapter 4 Hindi)

apane juhvati prana prane.panan tatha.pare.
pranapanagati ruddhva pranayamaparayanah৷৷4.29৷৷
apare niyataharah prananpranesu juhvati.
sarve.pyete yajnavido yajnaksapitakalmasah৷৷4.30৷৷

भावार्थ : दूसरे कितने ही योगीजन अपान वायु में प्राणवायु को हवन करते हैं, वैसे ही अन्य योगीजन प्राणवायु में अपान वायु को हवन करते हैं तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करने वाले प्राणायाम परायण पुरुष प्राण और अपान की गति को रोककर प्राणों को प्राणों में ही हवन किया करते हैं। ये सभी साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश कर देने वाले और यज्ञों को जानने वाले हैं॥29-30॥

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् ।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥

yajnasistamrtabhujo yanti brahma sanatanam.
nayan loko.styayajnasya kuto.nyah kurusattama৷৷4.31৷৷

भावार्थ : हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन! यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं। और यज्ञ न करने वाले पुरुष के लिए तो यह मनुष्यलोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक कैसे सुखदायक हो सकता है?॥31॥

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥

evan bahuvidha yajna vitata brahmano mukhe.
karmajanviddhi tansarvanevan jnatva vimoksyase৷৷4.32৷৷

भावार्थ : इसी प्रकार और भी बहुत तरह के यज्ञ वेद की वाणी में विस्तार से कहे गए हैं। उन सबको तू मन, इन्द्रिय और शरीर की क्रिया द्वारा सम्पन्न होने वाले जान, इस प्रकार तत्व से जानकर उनके अनुष्ठान द्वारा तू कर्म बंधन से सर्वथा मुक्त हो जाएगा॥32॥

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥

sreyandravyamayadyajnajjnanayajnah parantapa.
sarvan karmakhilan partha jnane parisamapyate৷৷4.33৷৷

भावार्थ : हे परंतप अर्जुन! द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है तथा यावन्मात्र सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं॥33॥

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ॥

tadviddhi pranipatena pariprasnena sevaya.
upadeksyanti te jnanan jnaninastattvadarsinah৷৷4.34৷৷

भावार्थ : उस ज्ञान को तू तत्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत् प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म तत्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे॥34॥

 

यहां एक क्लिक में पढ़ें- सम्पूर्ण सरल गीता सार बुक

 

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।
येन भुतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥

yajjnatva na punarmohamevan yasyasi pandava.
yena bhutanyasesena draksyasyatmanyatho mayi৷৷4.35৷৷

भावार्थ : जिसको जानकर फिर तू इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगा तथा हे अर्जुन! जिस ज्ञान द्वारा तू सम्पूर्ण भूतों को निःशेषभाव से पहले अपने में (गीता अध्याय 6 श्लोक 29 में देखना चाहिए।) और पीछे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में देखेगा।॥35॥

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥

api cedasi papebhyah sarvebhyah papakrttamah.
sarvan jnanaplavenaiva vrjinan santarisyasi৷৷4.36৷৷

भावार्थ : जिन्हें समस्त पापों का महापापी समझा जाता है, वे भी दिव्यज्ञान की नौका में बैठकर संसार रूपी सागर को पार करने में समर्थ हो सकते हैं।

ब्रह्मज्ञान की अच्छा को यहाँ और अधिक घोषित किया गया है। यहां तक ​​कि सबसे बड़ा पापी भी ज्ञान द्वारा स्वयं को सभी पापों से शुद्ध कर सकता है। दिव्य ज्ञान की एक चिंगारी से पापों के पहाड़ एक ही बार में जलकर राख हो जाते हैं। इसीलिए भगवान पापी की अत्यंत श्रेष्ठ परिभाषा देते हैं। यदि सबसे दुष्ट भी ज्ञान के बेड़े से सभी पापों को पार करने में सक्षम है, तो दूसरों को ज्ञान के माध्यम से अपनी मुक्ति के बारे में कोई संदेह नहीं होना चाहिए। यदि पश्चाताप हो और पाप न करने का दृढ़ संकल्प हो तो यह बहुत है।

पूर्व जन्मों में, अज्ञानतावश, मनुष्य ने कई प्रकार के पाप किए होंगे, लेकिन ज्ञान का प्रकाश आने पर वे सभी पाप साफ़ हो जायेंगे। वास्तव में मनुष्य के पापों की तुलना समुद्र से की गई है और ज्ञान को समुद्र से पार पाने के लिए उचित ही कहा गया है। हमारे पास पापियों के संत बन जाने के ऐसे उदाहरण हैं। वाल्मिकी का जीवन इसी बात को दर्शाता है।॥36॥

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥

(Bhagavad Gita Chapter 4 Hindi)

yathaidhansi samiddho.gnirbhasmasatkurute.rjuna.
jnanagnih sarvakarmani bhasmasatkurute tatha৷৷4.37৷৷

भावार्थ : क्योंकि हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देता है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है।

भगवान श्री कृष्ण कहते हे की ज्ञान से सभी पाप या कर्म नष्ट हो जाते हैं। जिस प्रकार आग में लकड़ी या कोयले के रूप में ईंधन को जलाकर राख बनाने की क्षमता होती है, उसी प्रकार ज्ञान कर्मों को पूरी तरह से नष्ट कर देता है।

जब कर्म नहीं होता तो जन्म नहीं होता और जब ज्ञान प्राप्त हो जाता है तो कर्म नहीं होता। पूर्व अज्ञान अवस्था में किए गए सभी कार्य अब अर्जित ज्ञान से नष्ट हो जाते हैं। परन्तु यह ज्ञान उत्तम होना चाहिए। जिस मनुष्य के पास ज्ञान है और जिसने आत्मा को जान लिया, उसके सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं।

यदि हम इन कर्मों का फल भोगकर उन्हें ख़त्म करने का प्रयास करते हैं, तो इसमें कई जन्म लगेंगे, और इस बीच एक अंतहीन प्रक्रिया में और कर्म जमा होते जायेंगे। लेकिन श्री कृष्ण ने अर्जुन को आश्वासन दिया कि ज्ञान हमारे कर्मों के ढेर को इसी जीवनकाल में जलाने की शक्ति रखता है। क्योंकि आत्मा और ईश्वर के साथ उसके संबंध का ज्ञान हमें उसके प्रति समर्पण की ओर ले जाता है।॥37॥

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥

na hi jnanena sadrsan pavitramiha vidyate.
tatsvayan yogasansiddhah kalenatmani vindati৷৷4.38৷৷

भावार्थ : इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है॥38॥

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥

sraddhavaollabhate jnanan tatparah sanyatendriyah.
jnanan labdhva paran santimacirenadhigacchati৷৷4.39৷৷

भावार्थ : जितेन्द्रिय, साधनपरायण और श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के- तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है।

श्री कृष्ण अब ज्ञान का परिचय देते हुए कहते है की सभी आध्यात्मिक सत्य तुरंत प्रतीपमान नहीं होते; उनमें से कुछ को पथ पर पर्याप्त ऊंचाई प्राप्त करने के बाद ही अनुभव किया जा सकता है। यदि हम केवल वही स्वीकार करते हैं जिसे हम वर्तमान में सत्यापित या समझ सकते हैं, तो हम उच्च आध्यात्मिक रहस्यों से वंचित रह जाएंगे। विश्वास हमें उस चीज़ को स्वीकार करने में मदद करता है जिसे हम वर्तमान में नहीं समझ सकते हैं।

विश्वास जितना बड़ा होगा सफलता उतनी जल्दी मिलेगी। साधक को गहरी आस्था के साथ निर्धारित साधना करनी चाहिए और यह निश्चित रूप से उसे आध्यात्मिक प्रकाश की ओर ले जाएगी।

हर कोई शांति और खुशी की तलाश में है। लेकिन यह उससे दूर है, वह इसे सांसारिक सुखों और संपत्ति में खोजता है। लेकिन वह उनमें यह नहीं पाता. इसलिए वह बेचैन और विचलित रहता है।॥39॥

अज्ञश्चश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥

ajnascasraddadhanasca sansayatma vinasyati.
nayan loko.sti na paro na sukhan sansayatmanah৷৷4.40৷৷

भावार्थ : विवेकहीन और श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है। ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है॥40॥

योगसन्नयस्तकर्माणं ज्ञानसञ्न्निसंशयम् ।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ॥

yogasannyastakarmanan jnanasanchinnasansayam.
atmavantan na karmani nibadhnanti dhananjaya৷৷4.41৷৷

भावार्थ : हे धनंजय! जिसने कर्मयोग की विधि से समस्त कर्मों का परमात्मा में अर्पण कर दिया है और जिसने विवेक द्वारा समस्त संशयों का नाश कर दिया है, ऐसे वश में किए हुए अन्तःकरण वाले पुरुष को कर्म नहीं बाँधते॥41॥

तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।
छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥

tasmadajnanasanbhutan hrtsthan jnanasina৷৷tmanah.
chittvainan sansayan yogamatisthottistha bharata৷৷4.42৷৷

भावार्थ : इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू हृदय में स्थित इस अज्ञानजनित अपने संशय का विवेकज्ञान रूप तलवार द्वारा छेदन करके समत्वरूप कर्मयोग में स्थित हो जा और युद्ध के लिए खड़ा हो जा॥42॥

 

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमद भागवत गीता का अध्याय पांच

 

चतुर्थ अध्याय संपूर्णम्

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