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Bhagavad Gita Chapter 9 Hindi

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Bhagavad Gita Chapter 9 Hindi

 

सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता अध्याय नौवाँ

Bhagavad Gita Chapter 9 Hindi

श्रीमद भागवत गीता के नौवाँ अध्याय (Bhagavad Gita Chapter 9 Hindi) को राजविद्याराजगुह्ययोग कहा गया हे। भागवत गीता के अध्याय नौवाँ (Bhagavad Gita Chapter 9 Hindi) मे भगवान श्री कृष्णा अर्जुन को परम गोपनीय ज्ञानोपदेश, उपासनात्मक ज्ञान, ईश्वर का विस्तार, जगत की उत्पत्ति का विषय के बारे में समझते हे। भगवान का अनादर करने वाले राक्षस प्रकृति वालों की निंदा और देवी प्रकृति वालों के भगवद् भजन का प्रकार का वर्णन हे। सफल मनोरथ और बिना कामना के किया जानेवाली उपासना का फल से भगवद भक्ति की महिमा का विस्तारपूर्ण कथन हे।

अगले दो अध्याय मे भगवान श्री कृष्ण ने कहा की सभी मनुष्य के लिए भक्ति सब से ऊपर हे, और योग प्राप्त करने का सरल मार्ग हे।

 

Shrimad Bhagvat Geeta in English ~ श्रीमद् भगवदगीता in Hindi

 

श्रीभगवानुवाच

इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे ।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥9.1॥

sri bhagavanuvaca

idan tu te guhyataman pravaksyamyanasuyave.
jnanan vijnanasahitan yajjnatva moksyase.subhat৷৷9.1৷৷

भावार्थ : श्री भगवान बोले- तुझ दोषदृष्टिरहित भक्त के लिए इस परम गोपनीय विज्ञान सहित ज्ञान को पुनः भली भाँति कहूँगा, जिसको जानकर तू दुःखरूप संसार से मुक्त हो जाएगा ॥1॥

 

यहां एक क्लिक में पढ़ें- श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय

 

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् ।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ॥9.2॥

rajavidya rajaguhyan pavitramidamuttamam.
pratyaksavagaman dharmyan susukhan kartumavyayam৷৷9.2৷৷

भावार्थ : यह विज्ञान सहित ज्ञान सब विद्याओं का राजा, सब गोपनीयों का राजा, अति पवित्र, अति उत्तम, प्रत्यक्ष फलवाला, धर्मयुक्त, साधन करने में बड़ा सुगम और अविनाशी है॥2॥

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप ।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥9.3॥

asraddadhanah purusa dharmasyasya parantapa.
aprapya man nivartante mrtyusansaravartmani৷৷9.3৷৷

भावार्थ : हे परंतप! इस उपयुक्त धर्म में श्रद्धारहित पुरुष मुझको न प्राप्त होकर मृत्युरूप संसार चक्र में भ्रमण करते रहते हैं॥3॥

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेषवस्थितः ॥9.4॥

maya tatamidan sarvan jagadavyaktamurtina.
matsthani sarvabhutani na cahan tesvavasthitah৷৷9.4৷৷

भावार्थ : मुझ निराकार परमात्मा से यह सब जगत् जल से बर्फ के सदृश परिपूर्ण है और सब भूत मेरे अंतर्गत संकल्प के आधार स्थित हैं, किंतु वास्तव में मैं उनमें स्थित नहीं हूँ॥4॥

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् ।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥9.5॥

na ca matsthani bhutani pasya me yogamaisvaram.
bhutabhrnna ca bhutastho mamatma bhutabhavanah৷৷9.5৷৷

भावार्थ : वे सब भूत मुझमें स्थित नहीं हैं, किंतु मेरी ईश्वरीय योगशक्ति को देख कि भूतों का धारण-पोषण करने वाला और भूतों को उत्पन्न करने वाला भी मेरा आत्मा वास्तव में भूतों में स्थित नहीं है॥5॥

यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान् ।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥9.6॥

yatha৷৷kasasthito nityan vayuh sarvatrago mahan.
tatha sarvani bhutani matsthanityupadharaya৷৷9.6৷৷

भावार्थ : जैसे आकाश से उत्पन्न सर्वत्र विचरने वाला महान् वायु सदा आकाश में ही स्थित है, वैसे ही मेरे संकल्प द्वारा उत्पन्न होने से संपूर्ण भूत मुझमें स्थित हैं, ऐसा जान॥6॥

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम् ।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ॥9.7॥

sarvabhutani kaunteya prakrtin yanti mamikam.
kalpaksaye punastani kalpadau visrjamyaham৷৷9.7৷৷

भावार्थ : हे अर्जुन! कल्पों के अन्त में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात् प्रकृति में लीन होते हैं और कल्पों के आदि में उनको मैं फिर रचता हूँ॥7॥

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥9.8॥

prakrtin svamavastabhya visrjami punah punah.
bhutagramamiman krtsnamavasan prakrtervasat৷৷9.8৷৷

भावार्थ : अपनी प्रकृति को अंगीकार करके स्वभाव के बल से परतंत्र हुए इस संपूर्ण भूतसमुदाय को बार-बार उनके कर्मों के अनुसार रचता हूँ॥8॥

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥9.9॥

na ca man tani karmani nibadhnanti dhananjaya.
udasinavadasinamasaktan tesu karmasu৷৷9.9৷৷

भावार्थ : हे अर्जुन! उन कर्मों में आसक्तिरहित और उदासीन के सदृश स्थित मुझ परमात्मा को वे कर्म नहीं बाँधते॥9॥

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरं ।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥9.10॥

maya.dhyaksena prakrtih suyate sacaracaram.
hetuna.nena kaunteya jagadviparivartate৷৷9.10৷৷

भावार्थ : हे अर्जुन! मुझ अधिष्ठाता के सकाश से प्रकृति चराचर सहित सर्वजगत को रचती है और इस हेतु से ही यह संसारचक्र घूम रहा है॥10॥

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥9.11॥

avajananti man mudha manusin tanumasritam.
paran bhavamajananto mama bhutamahesvaram৷৷9.11৷৷

भावार्थ : मेरे परमभाव को (गीता अध्याय 7 श्लोक 24 में देखना चाहिए) न जानने वाले मूढ़ लोग मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ संपूर्ण भूतों के महान् ईश्वर को तुच्छ समझते हैं अर्थात् अपनी योग माया से संसार के उद्धार के लिए मनुष्य रूप में विचरते हुए मुझ परमेश्वर को साधारण मनुष्य मानते हैं॥11॥

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः ।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ॥9.12॥

moghasa moghakarmano moghajnana vicetasah.
raksasimasurin caiva prakrtin mohinin sritah৷৷9.12৷৷

भावार्थ : वे व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म और व्यर्थ ज्ञान वाले विक्षिप्तचित्त अज्ञानीजन राक्षसी, आसुरी और मोहिनी प्रकृति को (जिसको आसुरी संपदा के नाम से विस्तारपूर्वक भगवान ने गीता अध्याय 16 श्लोक 4 तथा श्लोक 7 से 21 तक में कहा है) ही धारण किए रहते हैं॥12॥

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्यम् ॥9.13॥

mahatmanastu man partha daivin prakrtimasritah.
bhajantyananyamanaso jnatva bhutadimavyayam৷৷9.13৷৷

भावार्थ : परंतु हे कुन्तीपुत्र! दैवी प्रकृति के (इसका विस्तारपूर्वक वर्णन गीता अध्याय 16 श्लोक 1 से 3 तक में देखना चाहिए) आश्रित महात्माजन मुझको सब भूतों का सनातन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्य मन से युक्त होकर निरंतर भजते हैं॥13॥

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढ़व्रताः ।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥9.14॥

satatan kirtayanto man yatantasca drdhavratah.
namasyantasca man bhaktya nityayukta upasate৷৷9.14৷৷

भावार्थ : वे दृढ़ निश्चय वाले भक्तजन निरंतर मेरे नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करते हुए और मुझको बार-बार प्रणाम करते हुए सदा मेरे ध्यान में युक्त होकर अनन्य प्रेम से मेरी उपासना करते हैं॥14॥

ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ते यजन्तो मामुपासते।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्॥9.15॥

jnanayajnena capyanye yajanto mamupasate.
ekatvena prthaktvena bahudha visvatomukham৷৷9.15৷৷

भावार्थ : दूसरे ज्ञानयोगी मुझ निर्गुण-निराकार ब्रह्म का ज्ञानयज्ञ द्वारा अभिन्नभाव से पूजन करते हुए भी मेरी उपासना करते हैं और दूसरे मनुष्य बहुत प्रकार से स्थित मुझ विराट स्वरूप परमेश्वर की पृथक भाव से उपासना करते हैं।।15।।

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् ।
मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् ॥9.16॥

ahan kraturahan yajnah svadha.hamahamausadham.
mantro.hamahamevajyamahamagnirahan hutam৷৷9.16৷৷

भावार्थ : क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषधि मैं हूँ, मंत्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं ही हूँ॥16॥

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः ।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च ॥9.17॥

pita.hamasya jagato mata dhata pitamahah.
vedyan pavitramonkara rk sama yajureva ca৷৷9.17৷৷

भावार्थ : इस संपूर्ण जगत् का धाता अर्थात् धारण करने वाला एवं कर्मों के फल को देने वाला, पिता, माता, पितामह, जानने योग्य, पवित्र ओंकार तथा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ॥17॥

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् ।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥9.18॥

(Bhagavad Gita Chapter 9 Hindi)

gatirbharta prabhuh saksi nivasah saranan suhrt.
prabhavah pralayah sthanan nidhanan bijamavyayam৷৷9.18৷৷

भावार्थ : प्राप्त होने योग्य परम धाम, भरण-पोषण करने वाला, सबका स्वामी, शुभाशुभ का देखने वाला, सबका वासस्थान, शरण लेने योग्य, प्रत्युपकार न चाहकर हित करने वाला, सबकी उत्पत्ति-प्रलय का हेतु, स्थिति का आधार, निधान और अविनाशी कारण भी मैं ही हूँ॥18॥

तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च ।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥9.19॥

tapamyahamahan varsan nigrhnamyutsrjami ca.
amrtan caiva mrtyusca sadasaccahamarjuna ৷৷9.19৷৷

भावार्थ : मैं ही सूर्यरूप से तपता हूँ, वर्षा का आकर्षण करता हूँ और उसे बरसाता हूँ। हे अर्जुन! मैं ही अमृत और मृत्यु हूँ और सत्-असत् भी मैं ही हूँ॥19॥

 

यहां एक क्लिक में पढ़ें सरल गीता सार हिंदी मे

त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापायज्ञैरिष्ट्‍वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् ॥9.20॥

traividya man somapah putapapa
yajnairistva svargatin prarthayante.
te punyamasadya surendraloka-
masnanti divyandivi devabhogan৷৷9.20৷৷

भावार्थ : तीनों वेदों में विधान किए हुए सकाम कर्मों को करने वाले, सोम रस को पीने वाले, पापरहित पुरुष मुझको यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति चाहते हैं, वे पुरुष अपने पुण्यों के फलरूप स्वर्गलोक को प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं॥20॥

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालंक्षीणे पुण्य मर्त्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ॥9.21॥

te tan bhuktva svargalokan visalan
ksine punye martyalokan visanti.
eva trayidharmamanuprapanna
gatagatan kamakama labhante৷৷9.21৷৷

भावार्थ : वे उस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्यु लोक को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्ग के साधनरूप तीनों वेदों में कहे हुए सकामकर्म का आश्रय लेने वाले और भोगों की कामना वाले पुरुष बार-बार आवागमन को प्राप्त होते हैं, अर्थात् पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग में जाते हैं और पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक में आते हैं॥21॥

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥9.22॥

ananyasicantayanto man ye janah paryupasate.
tesan nityabhiyuktanan yogakseman vahamyaham৷৷9.22৷৷

भावार्थ : ऐसे लोग हैं जो सदैव जो मेरी पूजा करते हैं, और मेरी अनन्य भक्ति में लगे रहते हैं। जिनके मन सदैव मुझमें लीन रहते हैं, मैं उन्हें वह सब प्रदान करता हूँ जिसकी उन्हें कमी है और जो उनके पास पहले से ही है उसे सुरक्षित रखता हूँ।

यह भक्त के लिए भगवान का सुरक्षा का वादा है। वह उस भक्त की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते हैं, जो हमेशा उनके साथ जुड़ा रहता है।योग का अर्थ उन चीज़ों को सुरक्षित करना है जो पहले से ही भक्त के पास नहीं हैं। क्षेम का अर्थ है पहले से मौजूद चीजों का संरक्षण।सच्चे भक्त को उसके कल्याण के बारे में कोई भी चीज़ भयभीत नहीं कर सकती, क्योंकि भगवान ने स्वयं ही सारी ज़िम्मेदारी ले ली है।

भगवान अच्छी तरह से जानते हैं कि उनके भक्तों ने उन्हें अपना सब कुछ दे दिया है, और उनके पास अपना कुछ भी नहीं है। भक्त को जिन चीज़ों की आवश्यकता होती है, भगवान स्वयं उन्हें हर परिस्थिति में प्रदान करते हैं। सच्चे भक्त का भाव कैसा होना चाहिए? भगवान के सिवाय उसके मन में कोई अन्य विचार नहीं होना चाहिए।

आत्मज्ञान सबसे बड़ा वरदान है जो भगवान अपने भक्त को दे सकते हैं। व्यक्ति जो भी छोटी-मोटी साधना ईमानदारी से करता है, उसे भगवान द्वारा संरक्षित और मजबूत किया जाता है। यहां भगवान की दृढ़ और निरंतर स्मृति पर जोर दिया गया है।॥22॥

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥9.23॥

ye.pyanyadevata bhakta yajante sraddhaya.nvitah.
te.pi mameva kaunteya yajantyavidhipurvakam৷৷9.23৷৷

भावार्थ : हे अर्जुन! यद्यपि श्रद्धा से युक्त जो सकाम भक्त दूसरे देवताओं को पूजते हैं, वे भी मुझको ही पूजते हैं, किंतु उनका वह पूजन अविधिपूर्वक अर्थात् अज्ञानपूर्वक है॥23॥

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥9.24॥

ahan hi sarvayajnanan bhokta ca prabhureva ca.
na tu mamabhijananti tattvenatascyavanti te৷৷9.24৷৷

भावार्थ : क्योंकि संपूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूँ, परंतु वे मुझ परमेश्वर को तत्त्व से नहीं जानते, इसी से गिरते हैं अर्थात् पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं॥24॥

यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥9.25॥

yanti devavrata devan pitrnyanti pitrvratah.
bhutani yanti bhutejya yanti madyajino.pi mam৷৷9.25৷৷

भावार्थ : देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझको ही प्राप्त होते हैं। इसीलिए मेरे भक्तों का पुनर्जन्म नहीं होता ॥25॥

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥9.26॥

patran puspan phalan toyan yo me bhaktya prayacchati.
tadahan bhaktyupahrtamasnami prayatatmanah৷৷9.26৷৷

भावार्थ : जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूप से प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ॥26॥

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥9.27॥

yatkarosi yadasnasi yajjuhosi dadasi yat.
yattapasyasi kaunteya tatkurusva madarpanam৷৷9.27৷৷

भावार्थ : हे अर्जुन! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर॥27॥

शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्य से कर्मबंधनैः ।
सन्न्यासयोगमुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥9.28॥

(Bhagavad Gita Chapter 9 Hindi)

subhasubhaphalairevan moksyase karmabandhanaih.
sannyasayogayuktatma vimukto mamupaisyasi৷৷9.28৷৷

भावार्थ : इस प्रकार, जिसमें समस्त कर्म मुझ भगवान के अर्पण होते हैं- ऐसे संन्यासयोग से युक्त चित्तवाला तू शुभाशुभ फलरूप कर्मबंधन से मुक्त हो जाएगा और उनसे मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त होगा। ॥28॥

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥9.29॥

samo.han sarvabhutesu na me dvesyo.sti na priyah.
ye bhajanti tu man bhaktya mayi te tesu capyaham৷৷9.29৷৷

भावार्थ : मैं सब भूतों में समभाव से व्यापक हूँ, न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है, परंतु जो भक्त मुझको प्रेम से भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँ।

श्री कृष्ण कहते है कि वह सभी प्राणियों के लिए समान है, सभी साधकों को सावधानीपूर्वक ध्यान देना चाहिए। भगवान किसी प्राणी से घृणा नहीं करते, न ही कोई प्राणी उन्हें प्रिय है। उनकी कृपा सभी लोगों पर उमड़ रही है।

भगवान सभी प्राणियों के लिए एक समान हैं, फिर भी वे सभी उनके लिए एक समान नहीं हैं। घृणा और द्वेष लोगों को बुराई की ओर ले जाता है और यही बुराई दुख और कष्ट का कारण बनती है। कुछ प्रबुद्ध आत्माएं ऐसे विचारों और भावनाओं से बचती हैं और प्रेम और मित्रता का रवैया अपनाती हैं, ताकि वे जीवन का बेहतर आनंद उठा सकें। वे ईश्वर के निकट आते हैं और आनंद एवं सौभाग्य का अनुभव करते हैं।

भक्त को आश्वासन दिया जाता है कि भगवान उनमें हैं और वे उनमें हैं। यह साधक की भक्ति के कारण है। प्रभु ठंड के मौसम में आग की तरह है. जो जितना इसके करीब जाता है उसे उतनी ही गर्मी महसूस होती है। वह जितना दूर होता है, उसे उतनी ही अधिक ठंड महसूस होती है। यह प्राकृतिक नियम है. भगवान बहुत स्पष्ट रूप से कहते हैं कि वह अपने भक्तों के दिलों में रहते हैं जो प्रेम और भक्ति से उनकी पूजा करते हैं। ऐसा व्यक्ति ही भगवान का मंदिर होता है। वे स्वयं भगवान हैं क्योंकि भगवान उनमें प्रत्यक्ष रूप से प्रकट होते हैं।॥29॥

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥9.30॥

api cetsuduracaro bhajate mamananyabhak.
sadhureva sa mantavyah samyagvyavasito hi sah৷৷9.30৷৷

भावार्थ : यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है। अर्थात् उसने भली भाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है।

सबसे दुष्ट व्यक्ति होते हुए भी, यदि वह विश्वास और भक्ति के साथ भगवान की शरण लेता है, अपनी दुष्टता को त्यागने का प्रयास करता है, तो उसे एक धर्मी और पवित्र व्यक्ति माना जाना चाहिए। कारण यह है कि वह सही निर्णय पर पहुंच गया है कि परमात्मा ही एकमात्र वास्तविकता है और उसे इस परम सत्य की झलक मिल गयी है।

वह निरंतर भगवान का चिंतन कर रहा है और आत्मा के अलावा किसी अन्य चीज को नहीं छूता है। ऐसे व्यक्ति की बुराई ज्ञान की अग्नि में जल जाती है। इसलिए, किसी भी पापी को निराश नहीं होना चाहिए कि पाप का बोझ उसके सहन करने के लिए बहुत अधिक है। उसे सही निर्णय लेने दीजिए. उसे विश्वास और भक्ति के साथ भगवान की शरण लेने दें। वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है।

याद रखने वाली बात यह है कि किसी की अपनी कमजोरियों, अतीत और वर्तमान के सुस्त चिंतन से कुछ भी अच्छा नहीं हो सकता। उसे सकारात्मक रूप से कार्य करना चाहिए और यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि क्या सच है और क्या झूठ है। उसे स्वयं को ईश्वर के प्रति समर्पित कर देना चाहिए और उसी क्षण वह सभी बुराइयों से परे हो जाता है।

अज्ञानता की स्थिति में मनुष्य के मन में जो भी बुराई चिपक जाती है, वह सही निर्णय और दृढ़ संकल्प से दूर हो जाती है।॥30॥

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति ।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥9.31॥

ksipran bhavati dharmatma sasvacchantin nigacchati.
kaunteya pratijanihi na me bhaktah pranasyati৷৷9.31৷৷

भावार्थ : वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहने वाली परम शान्ति को प्राप्त होता है। हे अर्जुन! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता॥31॥

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु पापयोनयः ।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥9.32॥

man hi partha vyapasritya ye.pi syuh papayonayah.
striyo vaisyastatha sudraste.pi yanti paran gatim৷৷9.32৷৷

भावार्थ : हे अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि चाण्डालादि जो कोई भी हों, वे भी मेरे शरण होकर परमगति को ही प्राप्त होते हैं॥32॥

किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा ।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ॥9.33॥

kin punarbrahmanah punya bhakta rajarsayastatha.
anityamasukhan lokamiman prapya bhajasva mam৷৷9.33৷৷

भावार्थ : फिर इसमें कहना ही क्या है, जो पुण्यशील ब्राह्मण था राजर्षि भक्तजन मेरी शरण होकर परम गति को प्राप्त होते हैं। इसलिए तू सुखरहित और क्षणभंगुर इस मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर निरंतर मेरा ही भजन कर॥33॥

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण: ॥9.34॥

manmana bhava madbhakto madyaji man namaskuru.
mamevaisyasi yuktvaivamatmanan matparayanah৷৷9.34৷৷

भावार्थ : मुझमें मन वाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो, मुझको प्रणाम कर। इस प्रकार आत्मा को मुझमें नियुक्त करके मेरे परायण होकर तू मुझको ही प्राप्त होगा।

इस श्लोक में परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग स्पष्ट रूप से बताया गया है। साधक को अपनी सभी गतिविधियों को उस एक परम लक्ष्य की ओर केंद्रित करना चाहिए। उसे भगवान के बारे में सोचना चाहिए, उसके प्रति समर्पित होना चाहिए, उसके लिए बलिदान देना चाहिए और पूरे विश्वास और विनम्रता के साथ उसकी पूजा करनी चाहिए। उसे वचन, विचार और कर्म से भगवान की आराधना करनी चाहिए।

आमतौर पर मन कामुकता के दायरे में भटकता रहता है। इसे संसार से हटाकर आत्मा में केन्द्रित करना चाहिए। यह आत्मा के गौरवशाली गुणों का चिंतन करने से संभव है। इस तरह के चिंतन से भगवान के प्रति प्रेम और आराधना विकसित होती है।

इस प्रकार निरंतर आनंदमय और सर्वदा गौरवशाली आत्मा के बारे में सोचते हुए, मनुष्य खुद को सर्वोच्च के साथ एकजुट कर लेता है। वह पूरी भक्ति और विनम्रता के साथ उनकी पूजा करते हैं।॥34॥

 

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमद भागवत गीता का अध्याय दसवाँ

 

अध्याय नौवाँ संपूर्णम्

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