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Bhagavad Gita Chapter 15 in Hindi

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Bhagavad Gita Chapter 15 in Hindi

Shrimad Bhagvat Geeta in English ~ श्रीमद् भगवदगीता in Hindi

 

सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता ~ Bhagavad Gita Chapter 15 in Hindi

अध्याय पंद्रहवाँ पुरुषोत्तमयोग

 

श्रीमद भागवत गीता (Bhagavad Gita Chapter 15 in Hindi) के अध्याय पंद्रहवाँ को पुरुषोत्तमयोग के नाम से जाना जाता है। भागवत गीता के पंद्रहवाँ अध्याय में भगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को संसाररूपी अश्वत्वृक्ष का स्वरूप और भगवत्प्राप्ति का उपाय कहा गया है। इस अध्याय (Bhagavad Gita Chapter 15 in Hindi) में इश्वरांश जीव, जीव तत्व के ज्ञाता और अज्ञाता का वर्णन, प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप का वर्णन के साथ क्षर, अक्षर, पुरुषोत्तम का विश्लेषण कहा गया है।

इस अध्याय (Bhagavad Gita Chapter 15 in Hindi) में स्वंय भगवान श्री कृष्ण कहते हे की सबसे पवित्र ज्ञान है। जो कोई प्राणी इसे समझेगा वह दूरदर्शी हो जायेगा। इस अध्याय के पहले श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने कहा हे की जो कोई मनुष्य अश्वस्थ वृक्ष को जानता हे वह सब कुछ जनता है। इस वृक्ष की जेड ऊपर होती हैं जबकि इसकी शाखाएं नीचे होती हैं।

 

श्रीभगवानुवाच

ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ৷৷15.1৷৷

sri bhagavanuvaca
urdhvamulamadhahsakhamasvatthan prahuravyayam.
chandansi yasya parnani yastan veda sa vedavit৷৷15.1৷৷

भावार्थ : श्री भगवान ने कहा – हे अर्जुन! इस संसार को अविनाशी वृक्ष कहा गया है, जिसकी जड़ें ऊपर की ओर हैं और शाखाएँ नीचे की ओर तथा इस वृक्ष के पत्ते वैदिक स्तोत्र है, जो इस अविनाशी वृक्ष को जानता है वही वेदों का जानकार है। ৷৷15.1৷৷

 

यहां एक क्लिक में पढ़ें- श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय

अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः ।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ৷৷15.2৷৷

adhascordhvan prasrtastasya sakha
gunapravrddha visayapravalah.
adhasca mulanyanusantatani
karmanubandhini manusyaloke৷৷15.2৷৷

भावार्थ : इस संसार रूपी वृक्ष की समस्त योनियाँ रूपी शाखाएँ नीचे और ऊपर सभी ओर फ़ैली हुई हैं, इस वृक्ष की शाखाएँ प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा विकसित होती है, इस वृक्ष की इन्द्रिय-विषय रूपी कोंपलें है, इस वृक्ष की जड़ों का विस्तार नीचे की ओर भी होता है जो कि सकाम-कर्म रूप से मनुष्यों के लिये फल रूपी बन्धन उत्पन्न करती हैं৷৷15.2৷৷

 

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा ।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्‍गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा৷৷15.3৷৷

na rupamasyeha tathopalabhyate
nanto na cadirna ca sanpratistha.
asvatthamenan suvirudhamula-
masangasastrena drdhena chittva৷৷15.3৷৷

भावार्थ : इस संसार रूपी वृक्ष के वास्तविक स्वरूप का अनुभव इस जगत में नहीं किया जा सकता है क्योंकि न तो इसका आदि है और न ही इसका अन्त है और न ही इसका कोई आधार ही है, अत्यन्त दृड़ता से स्थित इस वृक्ष को केवल वैराग्य रूपी हथियार के द्वारा ही काटा जा सकता है৷৷15.3৷৷

 

ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः ।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी৷৷15.4৷৷

tatah padan tatparimargitavya
yasmingata na nivartanti bhuyah.
tameva cadyan purusan prapadye
yatah pravrttih prasrta purani৷৷15.4৷৷

भावार्थ : वैराग्य रूपी हथियार से काटने के बाद मनुष्य को उस परम-लक्ष्य (परमात्मा) के मार्ग की खोज करनी चाहिये, जिस मार्ग पर पहुँचा हुआ मनुष्य इस संसार में फिर कभी वापस नही लौटता है, फिर मनुष्य को उस परमात्मा के शरणागत हो जाना चाहिये, जिस परमात्मा से इस आदि-रहित संसार रूपी वृक्ष की उत्पत्ति और विस्तार होता है৷৷15.4৷৷

 

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषाअध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसञ्ज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्৷৷15.5৷৷

nirmanamoha jitasangadosa
adhyatmanitya vinivrttakamah.
dvandvairvimuktah sukhaduhkhasanjnai-
rgacchantyamudhah padamavyayan tat৷৷15.5৷৷

भावार्थ : जो मनुष्य मान-प्रतिष्ठा और मोह से मुक्त है तथा जिसने सांसारिक विषयों में लिप्त मनुष्यों की संगति को त्याग दिया है, जो निरन्तर परमात्म स्वरूप में स्थित रहता है, जिसकी सांसारिक कामनाएँ पूर्ण रूप से समाप्त हो चुकी है और जिसका सुख-दुःख नाम का भेद समाप्त हो गया है ऎसा मोह से मुक्त हुआ मनुष्य उस अविनाशी परम-पद (परम-धाम) को प्राप्त करता हैं৷৷15.5৷৷

 

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम৷৷15.6৷৷

na tadbhasayate suryo na sasanko na pavakah.
yadgatva na nivartante taddhama paraman mama৷৷15.6৷৷

भावार्थ : उस परम-धाम को न तो सूर्य प्रकाशित करता है, न चन्द्रमा प्रकाशित करता है और न ही अग्नि प्रकाशित करती है, जहाँ पहुँचकर कोई भी मनुष्य इस संसार में वापस नहीं आता है वही मेरा परम-धाम है৷৷15.6৷৷

 

श्रीभगवानुवाच

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति৷৷15.7৷৷

mamaivanso jivaloke jivabhutah sanatanah.
manahsasthanindriyani prakrtisthani karsati৷৷15.7৷৷

भावार्थ : हे अर्जुन! संसार में प्रत्येक शरीर में स्थित जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है, जो कि मन सहित छहों इन्द्रियों के द्वारा प्रकृति के अधीन होकर कार्य करता है৷৷15.7৷৷

 

शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्৷৷15.8৷৷

sariran yadavapnoti yaccapyutkramatisvarah.
grhitvaitani sanyati vayurgandhanivasayat৷৷15.8৷৷

भावार्थ : शरीर का स्वामी जीवात्मा छहों इन्द्रियों के कार्यों को संस्कार रूप में ग्रहण करके एक शरीर का त्याग करके दूसरे शरीर में उसी प्रकार चला जाता है जिस प्रकार वायु गन्ध को एक स्थान से ग्रहण करके दूसरे स्थान में ले जाती है৷৷15.8৷৷

 

श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च ।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते৷৷15.9৷৷

srotran caksuh sparsanan ca rasanan ghranameva ca.
adhisthaya manascayan visayanupasevate৷৷15.9৷৷

भावार्थ : इस प्रकार दूसरे शरीर में स्थित होकर जीवात्मा कान, आँख, त्वचा, जीभ, नाक और मन की सहायता से ही विषयों का भोग करता है৷৷15.9৷৷

 

उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् ।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः৷৷15.10৷৷

utkramantan sthitan vapi bhunjanan va gunanvitam.
vimudha nanupasyanti pasyanti jnanacaksusah৷৷15.10৷৷

भावार्थ : जीवात्मा शरीर का किस प्रकार त्याग कर सकती है, किस प्रकार शरीर में स्थित रहती है और किस प्रकार प्रकृति के गुणों के अधीन होकर विषयों का भोग करती है, मूर्ख मनुष्य कभी भी इस प्रक्रिया को नहीं देख पाते हैं केवल वही मनुष्य देख पाते हैं जिनकी आँखें ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित हो गयी हैं৷৷15.10৷৷

 

यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् ।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः৷৷15.11৷৷

yatanto yoginascainan pasyantyatmanyavasthitam.
yatanto.pyakrtatmano nainan pasyantyacetasah৷৷15.11৷৷

भावार्थ : योग के अभ्यास में प्रयत्नशील मनुष्य ही अपने हृदय में स्थित इस आत्मा को देख सकते हैं, किन्तु जो मनुष्य योग के अभ्यास में नहीं लगे हैं ऐसे अज्ञानी प्रयत्न करते रहने पर भी इस आत्मा को नहीं देख पाते हैं৷৷15.11৷৷

 

प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप का वर्णन
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् ।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्৷৷15.12৷৷

yadadityagatan tejo jagadbhasayate.khilam.
yaccandramasi yaccagnau tattejo viddhi mamakam৷৷15.12৷৷

भावार्थ : हे अर्जुन! जो प्रकाश सूर्य में स्थित है जिससे समस्त संसार प्रकाशित होता है, जो प्रकाश चन्द्रमा में स्थित है और जो प्रकाश अग्नि में स्थित है, उस प्रकाश को तू मुझसे ही उत्पन्न समझ৷৷15.12৷৷

 

गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा ।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः৷৷15.13৷৷

gamavisya ca bhutani dharayamyahamojasa.
pusnami causadhih sarvah somo bhutva rasatmakah৷৷15.13৷৷

भावार्थ : मैं ही प्रत्येक लोक में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सभी प्राणीयों को धारण करता हूँ और मैं ही चन्द्रमा के रूप से वनस्पतियों में जीवन-रस बनकर समस्त प्राणीयों का पोषण करता हूँ৷৷15.13৷৷

 

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः ।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्৷৷15.14৷৷

ahan vaisvanaro bhutva praninan dehamasritah.
pranapanasamayuktah pacamyannan caturvidham৷৷15.14৷৷

भावार्थ : मैं ही पाचन-अग्नि के रूप में समस्त जीवों के शरीर में स्थित रहता हूँ, मैं ही प्राण वायु और अपान वायु को संतुलित रखते हुए चार प्रकार के (चबाने वाले, पीने वाले, चाटने वाले और चूसने वाले) अन्नों को पचाता हूँ৷৷15.14৷৷

 

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टोमत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्योवेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ৷৷15.15৷৷

sarvasya cahan hrdi sannivisto
mattah smrtirjnanamapohanan ca.
vedaisca sarvairahameva vedyo
vedantakrdvedavideva caham৷৷15.15৷৷

भावार्थ : मैं ही समस्त जीवों के हृदय में आत्मा रूप में स्थित हूँ, मेरे द्वारा ही जीव को वास्तविक स्वरूप की स्मृति, विस्मृति और ज्ञान होता है, मैं ही समस्त वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ, मुझसे ही समस्त वेद उत्पन्न होते हैं और मैं ही समस्त वेदों को जानने वाला हूँ।

भगवान सभी प्राणियों के दिलों में मौजूद हैं। किसी को भी हताश महसूस करने की आवश्यकता नहीं है कि वह भगवान की उपस्थिति से वंचित है। सबसे बुरे पापी और बहिष्कृत लोग अपने बुरे तरीकों को त्यागकर और अपने भीतर भगवान की उपस्थिति को महसूस करके अपने जीवन को समृद्ध बना सकते हैं। यहां तक ​​कि सबसे बुरा पापी भी पूर्णता प्राप्त कर सकता है, अगर वह याद रखता है कि उसकी पृष्ठभूमि भी शक्तिशाली सार्वभौमिक भगवान है, और वह उसके साथ एक है।

भगवान, सभी के दिलों में बैठा है। वह सबके सबसे करीब है, यह कल्पना करना घोर मूर्खता है कि भगवान प्राणियों के साथ नहीं हैं, या उनसे बहुत दूर हैं। स्मृति, ज्ञान, स्मृति हानि, ये सभी मानसिक ऊर्जा के विभिन्न रूप हैं। भगवान मन की नींव हैं, और इसलिए ये सभी मानसिक स्थितियाँ स्वयं भगवान के कारण होती हैं। वह सूक्ष्मतम मानसिक प्रक्रियाओं का पर्यवेक्षक है और उससे कुछ भी छिपा नहीं रह सकता। इसलिए, प्रत्येक साधक को अपने मन में आने वाले विचारों के बारे में पूरी तरह से जागरूक होना चाहिए।

इस प्रकार मनुष्य से अपने दिव्य स्वभाव को महसूस करने और कमजोरी, नीचता और मनहूसियत के सभी विचारों को त्यागने का आग्रह करते हैं। वह मनुष्य के सभी कर्मों का गवाह है और यदि कोई गलत कार्य करता है तो वह दण्ड देने वाला भी है। इसलिए सोचते हुए, हर किसी को धार्मिकता और पूर्णता के उच्च स्तरों की ओर विकसित होना चाहिए।৷৷15.15৷৷

 

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ৷৷15.16৷৷

dvavimau purusau loke ksarascaksara eva ca.
ksarah sarvani bhutani kutastho.ksara ucyate৷৷15.16৷৷

भावार्थ : हे अर्जुन! संसार में दो प्रकार के ही जीव होते हैं एक नाशवान (क्षर) और दूसरे अविनाशी (अक्षर), इनमें समस्त जीवों के शरीर तो नाशवान होते हैं और समस्त जीवों की आत्मा को अविनाशी कहा जाता है৷৷15.16৷৷

 

उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः৷৷15.17৷৷

uttamah purusastvanyah paramatmetyudahrtah.
yo lokatrayamavisya bibhartyavyaya isvarah৷৷15.17৷৷

भावार्थ : परन्तु इन दोनों के अतिरिक्त एक श्रेष्ठ पुरुष है जिसे परमात्मा कहा जाता है, वह अविनाशी भगवान तीनों लोकों में प्रवेश करके सभी प्राणीयों का भरण-पोषण करता है৷৷15.17৷৷

 

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः৷৷15.18৷৷

yasmatksaramatito.hamaksaradapi cottamah.
ato.smi loke vede ca prathitah purusottamah৷৷15.18৷৷

भावार्थ : क्योंकि मैं ही क्षर और अक्षर दोनों से परे स्थित सर्वोत्तम हूँ, इसलिये इसलिए संसार में तथा वेदों में पुरुषोत्तम रूप में विख्यात हूँ৷৷15.18৷৷

 

यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ৷৷15.19৷৷

yo mamevamasammudho janati purusottamam.
sa sarvavidbhajati man sarvabhavena bharata৷৷15.19৷৷

भावार्थ : हे भरतवंशी अर्जुन! जो मनुष्य इस प्रकार मुझको संशय-रहित होकर भगवान रूप से जानता है, वह मनुष्य मुझे ही सब कुछ जानकर सभी प्रकार से मेरी ही भक्ति करता है৷৷15.19৷৷

 

इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ ।
एतद्‍बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत ৷৷15.20৷৷

iti guhyataman sastramidamuktan maya.nagha.
etadbuddhva buddhimansyatkrtakrtyasca bharata৷৷15.20৷৷

भावार्थ : हे निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार यह शास्त्रों का अति गोपनीय रहस्य मेरे द्वारा कहा गया है, हे भरतवंशी जो मनुष्य इस परम-ज्ञान को इसी प्रकार से समझता है वह बुद्धिमान हो जाता है और उसके सभी प्रयत्न पूर्ण हो जाते हैं৷৷15.20৷৷

 

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुन संवादे पुरुषोत्तमयोगो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥

भावार्थ : इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में पुरुषोत्तम-योग नाम का पंद्रहवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ ॥

 

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमद भागवत गीता का सोलहवाँ अध्याय

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