भक्तराज ध्रुव हिंदी में
भारतीय पुराणों में जब भी अटूट भक्ति और अदम्य साहस की बात होती है, तब भक्तराज ध्रुव (Bhaktaraj Dhruv) का नाम श्रद्धा से लिया जाता है। केवल छह वर्ष की आयु में ध्रुव ने जो तपस्या की, वह आज भी संसार के लिए प्रेरणा का स्रोत है। यह कथा बताती है कि सच्ची श्रद्धा और निष्ठा से भगवान स्वयं भक्त के सामने प्रकट हो जाते हैं।
यह पुस्तक भागवत पुराण, महाभारत और विष्णु पुराण जैसे ग्रंथों के आधार पर लिखी गई है। इसमें “भक्तराज ध्रुव” के जीवन की हर घटना को चरणबद्ध और भावनात्मक रूप में बताया गया है। पुस्तक पाँच मुख्य भागों में विभाजित है।
ध्रुव की कथा हमें यह सिखाती है कि सच्ची आस्था और निष्ठा से कोई भी असंभव लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। भक्ति का अर्थ भागना नहीं, बल्कि भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण और दृढ़ता है। ध्रुव की नन्ही उम्र में भी अटल भक्ति ने सिद्ध कर दिया कि भक्ति उम्र की नहीं, विश्वास की मांग करती है।
भक्तराज ध्रुव (Bhaktaraj Dhruv) का जीवन हमें यह प्रेरणा देता है कि जब दुनिया ठुकरा दे, तब भी भगवान के द्वार खुले रहते हैं। हर कठिनाई, हर अपमान, हर दुःख — हमें ईश्वर तक पहुँचाने का मार्ग बन सकता है। ध्रुव की तरह यदि हम भी दृढ़ निश्चय के साथ भगवान की ओर बढ़ें, तो जीवन का हर लक्ष्य स्वयं हमारी ओर चलेगा।
कथा की शुरुआत होती है राजा उत्तानपाद, उनकी दो रानियाँ — सुरुचि और सुनीति से। सुरुचि का पुत्र उत्तम, और सुनीति का पुत्र ध्रुव। जब सुरुचि ध्रुव को पिताजी की गोद में बैठने नहीं देती और उनका अपमान करती है, तब यह घटना उनके जीवन की भक्ति यात्रा का आरंभ बनती है। माता सुनीति ने ध्रुव को समझाया कि संसार में सच्चा सम्मान केवल भगवान की भक्ति से मिलता है। माता के आशीर्वाद से पाँच वर्षीय बालक ने अकेले वन की ओर यात्रा की — भगवान विष्णु के दर्शन हेतु।
“भक्तराज ध्रुव” (Bhaktaraj Dhruv) केवल एक धार्मिक कथा नहीं, बल्कि एक जीवंत प्रेरणा है। पुस्तक यह सिखाती है कि सच्चा सम्मान केवल भक्ति और निष्ठा से मिलता है। अपमान भी जीवन की दिशा बदल सकता है। जो भगवान में अटूट विश्वास रखता है, उसके जीवन में कोई असंभव नहीं। भक्ति, नीति और कर्म — तीनों का संगम ही पूर्णता है। पं. शांतनुविहारी द्विवेदी की लेखनी इसे अत्यंत सरल, प्रवाहपूर्ण और भावनात्मक रूप देती है, जिससे यह कथा केवल पढ़ी नहीं जाती — जी ली जाती है। यही वह क्षण था जब बालक ध्रुव ने निश्चय किया कि अब वे ऐसा स्थान प्राप्त करेंगे जो कभी डगमग न हो — “ध्रुव”।
“भक्तराज ध्रुव” (Bhaktaraj Dhruv) की कथा और यह पुस्तक दोनों ही हमें यह सिखाते हैं कि भक्ति में उम्र नहीं, दृढ़ विश्वास मायने रखता है। जब संसार ठुकरा दे, तब भी भगवान के द्वार खुले रहते हैं। ध्रुव की तरह अगर हम भी अपने लक्ष्य में अटल रहें, तो भगवान स्वयं मार्ग प्रशस्त करते हैं।


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