Chanakya Niti chapter 9 in Hindi

चाणक्य नीति : नौवां अध्याय | Chanakya Niti Chapter 9 In Hindi
चाणक्य नीति का नौवां अध्याय (Chanakya Niti chapter 9 in Hindi) जीवन के व्यवहार, संबंधों और बुद्धिमानी से किए गए कर्मों पर केंद्रित है। इस अध्याय में आचार्य चाणक्य हमें यह बताते हैं कि मनुष्य को किस प्रकार अपने आचरण, वाणी, मित्रता और दैनिक व्यवहार को संतुलित रखना चाहिए। यह अध्याय सिखाता है कि कौन-सा कार्य हमें उन्नति की ओर ले जाता है और कौन-सा कार्य विनाश का कारण बन सकता है।
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॥ अथ नवमोऽध्यायः ॥
जो ब्राह्मण धन की प्राप्ति के विचार से वेदों का अध्ययन करते हैं और
जो क्षुद्र अर्थात नीच मनुष्यों का अन्न खाते हैं, वे विषहीन सांप के
समान कुछ भी करने में असफल होते हैं।
मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान् विषवत् त्यज ।
क्षमाऽऽर्जवं दया शौचं सत्यं पीयूषवद् भज ॥
अर्थात:
यदि तू मुक्ति चाहता है तो बुरे व्यसनों और बुरी आदतों को विष के समान समझकर उनका त्याग कर दे तथा क्षमा, सरलता, दया, पवित्रता और सत्य को अमृत के समान ग्रहण कर। ॥1॥
आचार्य चाणक्य ने मुक्ति चाहने वालों को सलाह दी है कि विषयों को वे विष के समान छोड़ दें क्योंकि जिस तरह विष जीवन को समाप्त कर देता है, उसी तरह विषय भी प्राणी को ‘भोग’ के रूप में नष्ट करते रहते हैं। यहां विषय शब्द का अर्थ वस्तु नहीं बल्कि उसमें आसक्ति का होना है। इस प्रकार आचार्य की दृष्टि में विषयासक्ति ही मृत्यु है। लोग जिस अमृत की तलाश स्वर्ग में करते हैं, उसे आचार्य ने इन पांच गुणों में बताया है। इस श्लोक का उल्लेख ‘अष्टावक्र गीता’ में भी इसी रूप में जनक-अष्टावक्र संवाद के रूप में हुआ है। यहां चेत् अर्थात् यदि शब्द अत्यंत महत्वपूर्ण है। ऐसा कहने का तात्पर्य है कि यदि कोई मुक्त होने का संकल्प कर चुका है-वैसे प्रायः हम बंधन में आनंदित होते रहते हैं, बंधन में सुरक्षा महसूस करते हैं।
परस्परस्य मर्माणि ये भाषन्ते नराधमाः।
त एवं विलयं यान्ति वल्मीकोदरसर्पवत् ॥
अर्थात:
जो लोग एक-दूसरे के भेदों को प्रकट करते हैं, वे उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जैसे बांबी में फंसकर सांप नष्ट हो जाता है। ॥2॥
अपमानित करने के विचार से अपने मित्रों के रहस्यों को प्रकट करने वाले उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार बांबी में घुसा हुआ सांप बाहर नहीं निकल पाता और बांबी के अंदर ही दम घुटने से मर जाता है। ऐसे लोग न घर के रहते हैं, न घाट के।(Chanakya Niti chapter 9 in Hindi)
गन्धः सुवर्णे फलमिक्षुदण्डे नाऽकारि पुष्पं खलु चन्दनस्य।
विद्वान् धनाढ्यश्च नृपश्चिरायुः धातुः पुरा कोऽपि न बुद्धिदोऽभूत् ॥
अर्थात:
ब्रह्मा ने सोने में सुगंध और ईख के पौधे में फल उत्पन्न नहीं किए और निश्चय ही चंदन के वृक्ष में फूल भी पैदा नहीं होते, इसी तरह विद्वान व्यक्ति को अधिक धनी और राजा को अधिक लंबी आयु वाला नहीं बनाया। उससे ऐसा लगता है कि प्राचीनकाल में प्रभु को बुद्धि देने वाला कोई नहीं था। ॥3॥
श्रेष्ठ वस्तु को प्रत्येक व्यक्ति चाहता है। यही चाह उसे उस वस्तु से दूर कराती है, जिसे प्राप्त करने के लिए उसने कठोर श्रम किया है। क्योंकि उसमें भी उसे कमी नजर आने लगती है। ऐसे असमंजस की स्थिति को ही आचार्य ने यहां प्रस्तुत करने का प्रयास किया। यदि सोने में सुगंध भी होती, तो उसका मूल्य और भी बढ़ जाता। इस ‘यदि’ के संदर्भ में ही लोगों की ओर से आचार्य यहां सृष्टि रचयिता को उलाहना दे रहे हैं, उसकी बुद्धि को कोस रहे हैं। लेकिन यदि ऐसा हो जाता जैसी लोगों की चाह है, तो वैसा न होने की कामना लोग करते, क्या यह सच नहीं है?
सर्वोषधीनाममृता प्रधाना सर्वेषु सौख्येष्वशनं प्रधानम्।
सर्वेन्द्रियाणां नयनं प्रधानं सर्वेषु गात्रेषु शिरः प्रधानम् ॥
अर्थात:
सभी प्रकार की औषधियों में अमृत सबसे प्रमुख औषधि है। सुख देने वाले सब साधनों में भोजन सबसे प्रमुख है। मनुष्य की सभी इंद्रियों में आंखें सबसे प्रधान और श्रेष्ठ हैं तथा शरीर के सभी अंगों में मनुष्य का सिर सर्वश्रेष्ठ है। ॥4॥
कुछ व्यक्तियों ने इस श्लोक में आए हुए अमृता शब्द का अर्थ गिलोय से भी किया है। गिलोय का उपयोग अनेक रोगों के लिए किया जाता है, परंतु मूल अर्थ अमृत ही उचित है, क्योंकि अमृत भी एक प्रकार की औषधि है और अमृत से सभी को जीवन प्राप्त होता है।
मनुष्य के पास धन आदि सभी सुख के साधन हैं, परंतु जब तक वह भोजन नहीं करता तब तक उसे पूर्ण सुख प्राप्त नहीं होता, इसलिए भोजन को सब सुखों में प्रधान माना गया है। मनुष्य अनेक इंद्रियों से युक्त है- वह सुनता है, स्पर्श करता है, चखता है, अनुभूति करता है परंतु यदि वह देख नहीं सकता तो उसे इंद्रियों से पूर्ण सुख प्राप्त नहीं होता, इसलिए आंखों को सब इंद्रियों में प्रधान बताया गया है। इसी प्रकार शरीर के सभी अंगों में मनुष्य का सिर प्रधान है, उसी को सभी अंगों में श्रेष्ठ माना गया है। मस्तिष्क का महत्व सर्वविदित है।
यहां एक क्लिक में पढ़े ~ चाणक्य नीति : प्रथम अध्याय
दूतो न सञ्चरति खे न चलेच्च वार्ता
पूर्व न जल्पितमिदं न च संगमोऽस्ति ।
व्योम्नि स्थितं रविशशिग्रहणं प्रशस्तं
जानाति यो द्विजवरः स कथं न विद्वान् ॥
अर्थात:
आकाश में किसी दूत का जाना संभव नहीं और वहां किसी से किसी प्रकार की बातचीत भी नहीं हो सकती, परंतु जिस श्रेष्ठ ब्राह्मण ने आकाश में सूर्य और चंद्रमा के ग्रहण की बात बताई है, उसे विद्वान क्यों न माना जाए। ॥5॥
विद्यार्थी सेवकः पान्थः क्षुधाऽऽर्तो भयकातरः ।
भाण्डारी प्रतिहारी च सप्त सुप्तान् प्रबोधयेत् ॥
अर्थात:
विद्यार्थी, सेवक, मार्ग में चलने वाला पथिक, यात्री, भूख से पीड़ित, डरा हुआ व्यक्ति और भण्डार की रक्षा करने वाला द्वारपाल यदि अपने कार्यकाल में सो रहे हों, तो इन्हें जगा देना चाहिए। ॥6॥
यदि विद्यार्थी सोता रहेगा तो विद्या का अभ्यास कैसे करेगा। मालिक यदि सेवक को सोता देख लेगा तो उसे नौकरी से पृथक कर देगा। यदि यात्री रास्ते में सो जाएगा तो या तो उसकी चोरी हो जाएगी अथवा उसकी हत्या कर दी जाएगी। स्वप्न में यदि कोई प्यास या भूख से व्याकुल है, तो उसे जगाना ही उसकी समस्या का समाधान है। यही बात स्वप्न में डरे हुए व्यक्ति पर भी लागू होती है।
भण्डार के रक्षक तथा द्वारपाल सो रहे हों तो इन्हें जगा देना ठीक रहता है, क्योंकि इनके सोने से इनकी ही नहीं अनेक लोगों की हानि होती है। आचार्य के इस कथन को शास्त्र के उन आदेशों से जोड़कर देखना चाहिए, जिनमें यह कहा गया है कि सोते हुए व्यक्ति को उठाना नहीं चाहिए। निंद्रा शारीरिक और मानसिक विश्राम की वह अवस्था है जो प्राणी को संतुलन की समुचित व्यवस्था देती है।
इसी संदर्भ में पशु और वृक्षों को सोते हुए से न जगाने और रात्रि के समय स्पर्श न करने का निर्देश किया गया है।
अहिं नृपं च शार्दूलं किटिं च बालकं तथा।
परश्वानं च मूर्ख च सप्त सुप्तान् न बोधयेत् ॥
अर्थात:
सांप, राजा, बाघ, सूअर, बालक, दूसरे के कुत्ते और मूर्ख व्यक्ति को सोते में जगाना नहीं चाहिए। ॥7॥
यदि सोए हुए सांप को जगाएंगे तो वह काट खाएगा, इसी प्रकार सोते हुए राजा को जगाने पर वह क्रोधित होकर हत्या का आदेश दे सकता है। बाघ आदि हिंसक पशुओं को जगाने का क्या परिणाम हो सकता है, यह सब जानते हैं। सोते हुए बालक को जगाएंगे तो वह भी मुसीबत खड़ी कर देगा। इसी प्रकार दूसरे व्यक्ति के कुत्ते और मूर्ख मनुष्य को जगाना नहीं चाहिए। उनके सोते रहने में ही भला है।
अर्थाऽधीताश्च यैर्वेदास्तथा शूद्रान्नभोजिनाः।
ते द्विजाः किं करिष्यन्ति निर्विषा इव पन्नगाः ॥
अर्थात:
जो ब्राह्मण धन की प्राप्ति के विचार से वेदों का अध्ययन करते हैं और जो शूद्रों अर्थात नीच मनुष्यों का अन्न खाते हैं, वे विषहीन सांप के समान कुछ भी करने में असमर्थ होते हैं। ॥8॥
जो ब्राह्मण वेदों का अध्ययन कर उससे धन कमाते हैं अर्थात उस ज्ञान से पैसा बटोरते हैं और वे ब्राह्मण भी जो अपना पेट भरने के लिए शूद्रों के अधीन रहते हैं अर्थात नीच लोगों का अन्न खाते हैं, वे विषरहित सर्प के समान निरर्थक हैं। तेजहीन हो जाने के कारण ऐसे विद्वान ब्राह्मणों को संसार में किसी प्रकार का यश और सम्मान प्राप्त नहीं होता।
यस्मिन् रुष्टे भयं नास्ति तुष्टे नैव धनाऽऽगमः ।
निग्रहोऽनुग्रहो नास्ति स रुष्टः किं करिष्यति ॥
अर्थात:
जिसके नाराज होने पर किसी प्रकार का डर नहीं होता और जिसके प्रसन्न होने पर धन प्राप्ति की आशा नहीं होती, जो न दण्ड दे सकता है और न ही किसी प्रकार की दया प्रकट कर सकता है उसके नाराज होने पर किसी का कुछ नहीं बिगड़ता। ॥9॥(Chanakya Niti chapter 9 in Hindi)
निर्विषेणाऽपि सर्पेण कर्तव्या महती फणा।
विषमस्तु न चाप्यस्तु घटाटोपो भयंकरः ॥
अर्थात:
विषहीन सांप को भी अपना फन फैलाना चाहिए, उसमें विष है या नहीं, इस बात को कोई नहीं जानता? हां, उसके इस आडंबर से अथवा दिखावे से लोग भयभीत अवश्य हो सकते हैं। ॥10॥
प्रातर्भूतप्रसंगेन मध्याह्ने स्त्रीप्रसंगतः।
रात्रौ चौर्यप्रसंगेन कालो गच्छत्यधीमताम् ॥
अर्थात:
मूर्ख लोग अपना प्रातःकाल का समय जुआ खेलने में, दोपहर का समय स्त्री प्रसंग में और रात्रि का समय चोरी आदि में व्यर्थ करते हैं। ॥11॥
चाणक्य द्वारा प्रयुक्त मूर्ख और व्यर्थ शब्द यहां महत्वपूर्ण हैं। मूर्खा के बारे में ऐसा कहकर आचार्य ने संकेत किया है कि विद्वान अपना समय सद्कार्यों में व्यतीत करते हैं।
स्वहस्तग्रथिता माला स्वहस्तघृष्टचन्दनम्।
स्वहस्तलिखितं स्तोत्रं शक्रस्यापि श्रियं हरेत्॥
अर्थात:
अपने ही हाथ से गुंथी हुई माला, अपने हाथ से घिसा हुआ चंदन और अपने ही हाथ से लिखी हुई भगवान की स्तुति करने से मनुष्य इंद्र की धन-सम्पत्ति को भी वश में कर सकता है। ॥12॥
चाणक्य का भाव यह है कि धनवान व्यक्ति को भगवान की स्तुति करने के लिए किए जाने वाले उपायों को स्वयं अपने हाथ से करना चाहिए। दूसरों से करवाने से कोई लाभ नहीं होता।
इक्षुदण्डास्तिलाः क्षुद्राः कान्ता हेम च मेदिनी।
चन्दनं दधि ताम्बूलं मर्दनं गुणवर्धनम् ॥
अर्थात:
ईख, तिल, मूर्ख, छोटे आदमी, स्त्री, सोना, भूमि, चंदन और दही तथा पान इन्हें जितना मला जाएगा उतने ही इनके गुण बढ़ेंगे। ॥13॥
ईख और तिल आदि को जितना अधिक दबाएंगे उतना ही अधिक तेल और रस निकलेगा। सोने को भी जितना तपाया अथवा शुद्ध किया जाएगा, उसमें चमक और निखार आएगा। भूमि में जितना अधिक हल चलाया जाएगा उतना ही अधिक उससे अन्न की उत्पत्ति होगी। इसी प्रकार चंदन और दही आदि को जितना रगड़ेंगे और मथेंगे उतना ही उनके गुण में वृद्धि होती है। इसी प्रकार मूर्ख के मस्तिष्क पर भी जब जोर पड़ेगा तभी वह कुछ गुणों को ग्रहण कर सकेगा। यह बात उन जातियों और राष्ट्रों पर भी लागू होती है जो प्रमाद में डूबी हुई हैं तथा निकम्मी हो गई हैं। जिन्होंने संघर्ष किया, वो उन्नत और विकसित हैं।
दरिद्रता धीरतया विराजते कुवस्त्रता शुभ्रतया विराजते।
कदन्नता चोष्णतया विराजते कुरूपता शीलतया विराजते ॥
अर्थात:
दरिद्र अवस्था में यदि व्यक्ति धैर्य नहीं छोड़ता, तो निर्धनता कष्ट नहीं देती। साधारण वस्त्र को यदि साफ रखा जाए तो वह भी अच्छा लगता है। यदि सामान्य भोजन, जिसे पुष्टिकारक न माना जाए, भी ताजा और गर्म-गर्म खाया जाए तो अच्छा लगता है। इसी प्रकार सुशीलता आदि गुणों के होने पर कुरूपता बुरी नहीं लगती। ॥14॥
आचार्य के अनुसार व्यक्ति में यदि गुण हैं तो उसके दोषों की ओर कोई ध्यान नहीं देता। वस्त्र भले ही सस्ता हो, लेकिन स्वच्छ होना चाहिए। भोजन भले ही साधारण हो, किन्तु उचित ढंग से उसे यदि पकाया और परोसा जाए तो वह भी रुचिकर लगता है। अर्थ यह है कि व्यक्ति में गुणों की प्रधानता होनी चाहिए, दिखावे की नहीं।
(Chanakya Niti chapter 9 in Hindi) अध्याय का सार:
चाणक्य ने मनुष्य को जीवन का लक्ष्य बताते हुए कहा है कि जो व्यक्ति संसार से मुक्त होना चाहते हैं, उन्हें विषय-वासनाओं का त्याग विष के समान कर देना चाहिए अर्थात् बेहिचक। जो नीच मनुष्य दूसरों के प्रति घृणा के कारण कठोर बात बोलते हैं, वे नष्ट हो जाते हैं। कोई भी उनका सम्मान नहीं करता।
चाणक्य संसार की विचित्र धारणा को व्यक्त करते हुए बताते हैं कि सोने में सुगंध नहीं होती, ईख पर फल नहीं लगता, चंदन के वृक्ष पर फूल नहीं लगते, विद्वान व्यक्ति के पास धन नहीं होता और राजा को प्रायः अधिक आयु नहीं मिलती- ये बातें देखकर ऐसा लगता है कि परमेश्वर ने यह काम करते हुए बुद्धि का सहारा नहीं लिया। अर्थात् भूल तो किसी से भी हो सकती है। काश! परमात्मा ने ऐसा किया होता।
चाणक्य कहते हैं कि अमृत सबसे उत्तम औषधि होती है क्योंकि इससे मृत्यु, रोग से मुक्ति मिल जाती है। सबसे बड़ा सुख भोजन की प्राप्ति है, ज्ञानेंद्रियों में सबसे उत्तम आंख है और शरीर के अंगों में सबसे श्रेष्ठ मनुष्य का सिर है।
ब्राह्मण की विद्वत्ता बताते हुए चाणक्य का कथन है कि आकाश में कोई गया नहीं, सूर्य, चंद्रमा तक कोई पहुंचा नहीं, परंतु जिस विद्वान ब्राह्मण ने उनकी गति, उनके ग्रहण से संबंधित ज्ञान दिया है और भविष्यवाणी की है, उसे विद्वान मानने में संकोच नहीं करना चाहिए। अर्थात् पृथ्वी पर बैठे-बैठे जिसने इन आकाशीय घटनाओं का पूरी तरह से सही आकलन कर लिया, वह अवश्य सराहना के योग्य है।
चाणक्य ने अनेक स्थानों पर कहा है कि व्यक्ति को संसार में सतर्क होकर जीवन बिताना ताना चाहिए। विद्यार्थी, नौकर, यात्री और भूख से दुखी, डरा हुआ व्यक्ति व्र्या और द्वाररक्षक – इन्हें सदा जागते रहना चाहिए, यदि इन्हें सोता देखें तो इन्हें जगा दें लेकिन राजा, सांप, बाघ, जंगली सूअर और दूसरे का कुत्ता तथा मूर्ख व्यक्ति यदि सोए पड़े हों तो इन्हें जगाना नहीं चाहिए। ये सोए ही हितकारी हैं।(Chanakya Niti chapter 9 in Hindi)
इस अध्याय में आचार्य चाणक्य ने ब्राह्मणों के संबंध में कहा है कि उन्हें पतित लोगों से किसी प्रकार की सहायता नहीं लेनी चाहिए क्योंकि ऐसे लोगों के स्वार्थ भी तुच्छ ही होते हैं। समय आने पर उनकी पूर्ति में सहयोग करना और न करना दोनों ही स्थितियां दुविधावाली हैं। सहयोग करने पर नैतिकता की हानि होती है तथा न करने पर कृतघ्न होने का आभास होता है। आचार्य का कहना है कि मनुष्य को अपना वास्तविक स्वभाव नहीं छोड़ना चाहिए अर्थात यदि सांप विषरहित है तो भी उसे अपने पर आक्रमण करने वाले को डराने के लिए फन फैलाते रहना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि आडम्बर से भी दूसरे व्यक्तियों को प्रभावित किया जा सकता है। किसी संत द्वारा सर्प को दिया गया यह उपदेश सभी ने पढ़ा-सुना होगा कि फुफकारना जरूर चाहिए, भले ही डंसने का मन न हो।
मूर्खा को इस बात का ज्ञान नहीं होता कि किस समय कौन-सा कार्य किया जाए, वह प्रातःकाल ही जुआ आदि खेलने लगते हैं, दोपहर का समय भोग-विलास और रात्रि का समय चोरी आदि बुरे कामों में बिताते हैं। ये तीनों कार्य धर्म और कानून दोनों दृष्टि से निषिद्ध हैं। इनसे धन और सम्मान की हानि होती है। सबसे बढ़कर इनसे आत्मा का पतन होता है। चाणक्य का कहना है कि प्रभु की उपासना व्यक्ति को स्वयं करनी चाहिए। जिस प्रकार भूख-प्यास तभी शांत होती है, जब आप स्वयं भोजन खाते और पानी पीते हैं, उसी प्रकार आपके द्वारा किए गए शुभ कर्म-ईश्वर उपासना आदि तभी पूरी तरह से फल देता है, जब आप उसे स्वयं करें। व्यक्ति को कष्टों में धैर्य रखना चाहिए। धैर्य से कष्ट उतने दुखदायी प्रतीत नहीं होते जितने धैर्य न होने पर। अनुभव में तो यह भी आया है कि धैर्य दुख को कम ही नहीं करता बल्कि सुख को भी साथ के साथ उजागर कर देता है। ऐसे में दुख दुख रहता ही नहीं है। श्रीकृष्ण ने गीता में धैर्यशील को अमृतत्व का अधिकारी माना है-यो धीरः सः अमृतत्वाय कल्पते। इस प्रकार मनुष्य का सबसे सर्वाधिक महत्वपूर्ण गुण है धैर्य।
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