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Vedasara Shiva Stava

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वेदसार शिवस्तवः | Vedasara Shiva Stava

“वेदसार शिवस्तव” (Vedasara Shiva Stava) आदि शंकराचार्य द्वारा रचित एक अत्यंत पवित्र और दार्शनिक स्तुति है। इस स्तोत्र में भगवान शिव के परम तत्त्व, उनके निराकार, सर्वव्यापक और ब्रह्मस्वरूप रूप का गहन वर्णन मिलता है। यह केवल भक्ति का स्तोत्र नहीं है, बल्कि अद्वैत वेदांत के दर्शन का सार भी समाहित करता है।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ निर्वाण षटकम

वेदसार” शब्द का अर्थ है — वेदों का सार, अर्थात यह स्तोत्र वेदों में वर्णित शिव के अद्वैत स्वरूप का निचोड़ है। आदि शंकराचार्य ने इसमें शिव को न केवल सृष्टि के रचयिता और पालनकर्ता बताया है, बल्कि उस परम चेतना के रूप में भी प्रस्तुत किया है जो सबमें व्याप्त है।

वेदसार शिवस्तव (Vedasara Shiva Stava) स्तोत्र के प्रत्येक श्लोक में भक्तिभाव के साथ-साथ ज्ञान का भी अद्भुत समन्वय है, जहाँ शिव को परमात्मा, ब्रह्म, विश्वरूप, और द्वैत से परे बताया गया है। जो भी इस स्तोत्र का मनन करता है, वह केवल शिवभक्ति नहीं करता, बल्कि आत्मज्ञान के पथ पर अग्रसर होता है।

वेदसार शिवस्तवः

पशूनां पतिं पापनाशं परेशं गजेन्द्रस्य कृत्तिं वसानं वरेण्यम ।
जटाजूटमध्ये स्फुरद्गाङ्गवारिं महादेवमेकं स्मरामि स्मरारिम ॥१॥

महेशं सुरेशं सुरारातिनाशं विभुं विश्वनाथं विभूत्यङ्गभूषम ।
विरूपाक्षमिन्द्वर्कवह्निं त्रिनेत्रं सदानन्दमीडे प्रभुं पञ्चवक्त्रम ॥२॥

गिरीशं गणेशं गले नीलवर्णं गवेन्द्राधिरूढं गुणातीतरूपम ।
भवं भास्वरं भस्मना भूषिताङ्गं भवानीकळत्रं भजे पञ्चवक्त्रम ॥३॥

शिवाकान्त शंभो शशाङ्कार्धमौले महेशान शूलिन जटाजूटधारिन ।
त्वमेको जगद्व्यापको विश्वरूप प्रसीद प्रसीद प्रभो पूर्णरूप ॥४॥

परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं निरीहं निराकारमोङ्कारवेद्यम ।
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम ॥५॥

न भूमिर्न चापो न वह्निर्न वायुर्न चाकाशमास्ते न तन्द्रा न निद्रा ।
न ग्रीष्मो न शीतं न देशो न वेषो न यस्यास्ति मूर्तिस्त्रिमूर्तिं तमीडे ॥६॥

अजं शाश्वतं कारणं कारणानां शिवं केवलं भासकं भासकानाम ।
तुरीयं तमः पारमाद्यन्तहीनं प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम ॥७॥

नमस्ते नमस्ते विभो विश्वमूर्ते नमस्ते नमस्ते चिदानन्दमूर्ते !
नमस्ते नमस्ते तपोयोगगम्य नमस्ते नमस्ते श्रुतिज्ञानगम्य ॥८॥

प्रभो शूलपाणे विभो विश्वनाथ महादेव शंभो महेश त्रिनेत्र ।
शिवाकान्त शान्त स्मरारे पुरारे त्वदन्यो वरेण्यो न मान्यो न गण्यः ॥९॥

शंभो महेश करुणामय शूलपाणे गौरीपते पशुपते पशुपाशनाशिन ।
काशीपते करुणया जगदेतदेकस्त्वं हंसि पासि विदधासि महेश्वरोऽसि ॥१०॥

त्वत्तो जगद्भवति देव भव स्मरारे त्वय्येव तिष्ठति जगनमृड विश्वनाथ ।
त्वय्येव गच्छति लयं जगदेतदीश लिङ्गात्मकं हर चराचरविश्वरूपिन ॥११॥

इति श्रीमच्छंकराचार्यविरचितो वेदसारशिवस्तवः संपूर्णः ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ भूतनाथ अष्टकम्:

 

वेदसार शिवस्तवः(Vedasara Shiva Stava) हिन्दी अर्थ:

अर्थ: जो सम्पूर्ण प्राणियों के रक्षक हैं, पाप का ध्वंस करनेवाले हैं, परमेश्वर हैं, गजराज का चर्मपहने हुए हैं तथा श्रेष्ठ हैं और जिनके जटाजूट में श्रीगंगा जी खेल रहीं हैं उन एकमात्र कामारि श्रीमहादेवजी का मैं स्मरण करता हूँ॥१॥

अर्थ: चन्द्र, सूर्य और अग्नि तीनों जिनके नेत्र हैं उन विरूपनयन महेश्वर, देवेश्वर, देव-दुःखदलन, विभुं, विश्वनाथ, विभूति-भूषण, नित्यानन्द स्वरूप, पञ्चमुख भग्वानश्रीमहादेवजी की मैं स्तुति करता हूँ॥२॥

अर्थ: जो कैलाशनाथ हैं, गणनाथ हैं, नीलकण्ठ है॔, बैलपर चढे़ हुऐ हैं, अगणित रूपवाले हैं, संसार के आदिकारण हैं, प्रकाशस्वरूप हैं, शरीर पे भस्म लगाये हुऐ है और श्रीपार्वती जी जिनकी अर्धांगिनि हैं, उन पञ्चमुख महादेवजी को मैं भजता हूँ॥३॥

अर्थ: हे पार्वतीवल्लभ महादेव! हे चन्द्रशेखर! हे त्रिशूलिन! हे जटाजूटधारिन! हे विश्वरूप! एकमात्र आप ही जगत में व्यापक हैं। पूर्णरूप प्रभो! प्रसन्न होइये, प्रसन्न होइये॥४॥

अर्थ: जो परमात्मा हैं, एक हैं, जगत के आदिकारण हैं, इच्छारहित हैं, निराकार हैं और प्रणवद्वारा जानने योग्य हैं तथा जिनसे सम्पूर्ण विश्व की उत्पत्ति और पालन होता है और फिर जिनमें उसका लय हो जाता है उन प्रभु को मैं भजता हूँ॥५॥

अर्थ: जो न पृथ्वी हैं, न जल हैं, न अग्नि हैं, न वायु हैं और न आकाश हैं, न तन्द्रा हैं, न निद्रा हैं, न ग्रीष्म हैं और न शीत हैं, तथा जिनका न कोई देश है, न वेष है उन मूर्तिहीन त्रिमूर्ति की मैं स्तुति करता हूँ॥६॥

अर्थ: जो अजन्मा हैं, नित्य हैं, कारण के भी कारण हैं, कल्याणस्वरूप हैं, एक हैं, प्रकाशकों के भी प्रकाशक हैं, अवस्थात्रयसे विलक्षण हैं, अज्ञान से परे हैं, अनादि और अनन्त हैं उन परम-पावन अद्वैत-स्वरूप को मैं प्रणाम करता हूँ॥७॥

अर्थ: हे विश्वमूर्ते! हे विभो! आपको नमस्कार है, नमस्कार है, हे चिदानन्दमूर्ते! आपको नमस्कार है, नमस्कार है। हे तप तथा योगसे प्राप्तव्य प्रभो! आपको नमस्कार है, नमस्कार है। वेदवैद्य भगवन! आपको नमस्कार है, नमस्कार है॥८॥

अर्थ: हे प्रभो! हे त्रिशूलपाणे! हे विभो! हे विश्वनाथ! हे महादेव! हे शम्भो! हे महेश्वर! हे त्रिनेत्र! हे पार्वतीप्राणवल्लभ! हे शान्त! हे कामारे! हे त्रिपुरारे! तुम्हारे अतिरिक्त न कोई श्रेष्ठ है, न माननीय है और न गणनीय है॥९॥

अर्थ: हे शम्भो! हे महेश्वर! करूणामय! हे त्रिशूलिन! हे गौरीपते! हे पशुपते! हे पशुबन्धमोचन! हे काशीश्वर! एक तुम्हीं करूणावश इस जगत की उत्पत्ति, पालन और संहार करते हो; प्रभो! तुम ही इसके एकमात्र स्वामी हो॥१०॥

अर्थ: हे देव! हे शंकर! हे कन्दर्पदलन! हे शिव! हे विश्वनाथ! हे ईश्वर! हे हर! हे चराचरजगद्रूप प्रभो! यह लिंगस्वरूप समस्त जगत तुम्हीसे उत्पन्न होता है, तुम्हीमें स्थित रहता है और तुम्हीमें लय हो जाता है॥११॥

इति श्रीमच्छङकराचायॆ कृतो वेदसारशिवस्तवः सम्पूर्णः।

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