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Ek Mukhi Hanuman Kavach

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एकमुखी हनुमान कवच | Ek Mukhi Hanuman Kavach

हनुमान — शक्ति, भक्ति और सुरक्षा का ऐसा दिव्य स्वरूप जिनकी केवल स्मृति से ही शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक संकट दूर हो जाते हैं। वे न केवल राम के दूत हैं, बल्कि दीन-दुखियों के रक्षक, शत्रुओं के संहारक, और साधकों के अनन्य सहायक भी हैं। परंतु क्या आप जानते हैं कि श्री हनुमान जी का एक अत्यंत गोपनीय कवच भी है, जिसे “एकमुखी हनुमान कवच” (Ek Mukhi Hanuman Kavach) के नाम से जाना जाता है?

यहां एक क्लिक में पढ़िए ~ बजरंग बाण पाठ

“एकमुखी हनुमान कवच” (Ek Mukhi Hanuman Kavach) इतना शक्तिशाली और रहस्यमय है कि स्वयं भगवान शिव ने माता पार्वती को इसकी महिमा सुनाई थी। यह वही दिव्य ज्ञान है जिसे भगवान श्रीराम ने युद्धभूमि में विभीषण को सौंपा था, जब समस्त लंका भय और अशुभ शक्तियों से घिरी हुई थी। यह कवच किसी भी साधक के लिए एक वज्र कवच है – जो उसे भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र, ग्रहबाधा, नजर दोष, शत्रु बाधा, मानसिक तनाव, आकस्मिक दुर्घटनाएँ और युद्ध जैसे संकटों से बचाता है।

हनुमान जी के अनेक स्वरूप हैं — पंचमुखी, दशमुखी इत्यादि। परंतु ‘एकमुखी हनुमान’ उनके एकनिष्ठ भक्ति, एकाग्रता और एकसूत्रता के प्रतीक हैं। “एकमुखी हनुमान कवच” (Ek Mukhi Hanuman Kavach) में उनका एकमुख रूप दर्शाता है कि जो साधक अपने लक्ष्य (रामभक्ति) में एकनिष्ठ होता है, उसके लिए कोई भी शक्ति हानिकारक नहीं रह सकती।

हनुमान जी केवल संकटमोचक नहीं हैं, वे स्वयं शक्ति और शिवत्व के प्रकट रूप हैं। “एकमुखी हनुमान कवच” (Ek Mukhi Hanuman Kavach) वह दुर्लभ ब्रह्मास्त्र है जो साधक को अदृश्य बंधनों से मुक्त कर सकता है। यदि आप जीवन में निरंतर संकट, आकस्मिक विघ्न, या आध्यात्मिक दुर्बलता का अनुभव कर रहे हैं — तो यह कवच आपके लिए समाधान बन सकता है।

“एकमुखी हनुमान कवच” (Ek Mukhi Hanuman Kavach) प्रेम, श्रद्धा और नियम से पढ़ें — और अपने जीवन में हनुमान कृपा का स्पंदन स्वयं महसूस करें।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ उचित समय पर सही पाठ करें

एकमुखी हनुमान कवच (Ek Mukhi Hanuman Kavach)

एकदा सुखमासीनं शंकरं लोकशंकरम्,
प्रपच्छ गिरिजा कान्तं कर्पूरधवलं शिवं । १ ।
अर्थ:
एक बार कर्पूर के समान अत्यन्त शुभ्र वर्णमयी लोक कल्याणी सुखासन में बैठे शिवजी से पार्वती जी ने पूछा।

॥ पार्वत्युवाचः ॥
भगवन् देवदेवेश लोकनाथ जगत्प्रभो,
शोकाकुलानां लोकानां केन रक्षा भवेद्भव । २ ।
संग्रामे संकटे घोरे भूत प्रेतादि के भये,
दुः ख दावाग्नि संतप्तचेतसाँ दुः खभागिनाम् ।३ ।
अर्थ:
पार्वती जी ने पूछा- हे भगवन ! हे देव देवेश ! हे जगत के प्रभु ! युद्ध के संकट वाले समय, भूत-प्रेत पीड़ित हो जाने पर दुःख के भरमार हो जाने पर और शोकादि के बढ़ जाने पर सन्तप्त हृदयों की रक्षा किस प्रकार से होगी।

॥ महादेव उवाचः ॥
श्रणु देवि प्रवलक्ष्यामि लोकानाँ हितकाम्यया,
विभीषणाय रामेण प्रेम्णाँ दत्तं च यत्पुरा । ४ ।
अर्थ:
महादेव ने बताया- सुनो देवी! लोक के कल्याणार्थ भगवान राम ने विभीषण को जो-
कवच कपिनाथस्य वायुपुत्रस्य धीमतः,
गुह्यं तत्ते प्रवक्ष्यामि विशेषाच्छणु सुन्दरी । ५ ।
अर्थ:
वायु पुत्र कपिनाथ अर्थात् हनुमान का कवच बताया था वो अत्यन्त गोपनीय है। इस विशेष कवच को हे सुन्दरी श्रवण करो ।

॥ विनियोगः ॥
ॐ अस्य श्री हनुमान कवच स्तोत्र मन्त्रस्य श्री रामचंद्र ऋषिः
श्री वीरो हनुमान् परमात्माँ देवता, अनुष्टुप छन्दः, मारुतात्मज इति बीजम्,
अंजनीसुनुरीति शक्तिः, लक्ष्मण प्राणदाता इति जीवः, श्रीराम भक्ति रिति कवचम्,
लंकाप्रदाहक इति कीलकम् मम सकल कार्य सिद्धयर्थे जपे विनियोगः । ६ ।

॥ मन्त्रः ॥
ॐ ऐं श्रीं ह्राँ ह्रीं हूं हैं ह्रौं हंः । ७ ।
इस मन्त्र को यथाशक्ति जपें ।

।। करन्यासः ।।॥
ॐ ह्राँ अंगुष्ठाभ्यां नमः ।८ ।
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्याँ नमः । ९ ।
ॐ हूं मध्यमाभ्याँ नमः । १० ।
ॐ हैं अनामिकाभ्याँ नमः । ११ ।
ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्याँ नमः । १२ ।
ॐ ह्रः करतल करपृष्ठाभ्याँ नमः । १३ ।
॥ हृदयादिन्यास ॥
ॐ अंजनी सूतवे नमः, हृदयाय नमः । १४ ।
ॐ रुद्रमूर्तये नमः, शिरसे स्वाहा । १५ ।
ॐ वातात्मजाय नमः, शिखायं वषट । १६ ।
ॐ रामभक्तिरताय नमः, कवचाय हुम् । १७ ।
ॐ वज्र कवचाय नमः, नेत्रत्र्याय वौषट् । १८ ।
ॐ ब्रह्मास्त्र निवारणाय नमः, अस्त्राय फट् । १९ ।

॥ ध्यान ॥
ॐ ध्यायेद बालदिवाकर द्युतिनिभं देवारिदर्पापहं,
देवेन्द्र प्रमुख प्रशस्तयशसं देदीप्यमानं रुचा । २० ।
सुग्रीवादि समस्त वानरयुतं सुव्यक्ततत्वप्रियं,
संरक्त्तारूण लोचनं पवनजं पीताम्बरालंकतम् । २१ ।
अर्थ:
उदयकाल के सूर्य के समान कांति वाले, असुरों के गर्व का नाश करने वाले देवतादि प्रमुख उत्तम कीर्तिमयी, पूर्ण तेजस्वी, सुग्रीवादि वानर सहित, ब्रह्मतत्व को प्रत्यक्ष करने वाले, रक्त व अरुण नेत्रमयी, पीताम्बर से अलंकृत हनुमान जी का ध्यान करना चाहिये ।

उद्यन्मार्तण्ड कोटि प्रकट रुचि युतं चारुबीरासनस्थं,
मौंजी यज्ञोपवीताऽऽभरण रुचि शिखा शोभितं कुण्डलाढयम् । २२ ।
भक्तानामिष्टदम्नप्रणतमुनजनं वेदनादप्रमोदं,
ध्यायेद्देवं विधेय प्लवगकुलपति गोष्पदीभूतवर्धिम् । २३ ।
अर्थ:
उदयकाल के करोड़ों सूर्य समान कांतिमयी, वीरासन में शोभित अत्यन्त रुचि से मौंजी तथा यज्ञोपवीत को धारण करने वाले, कुण्डलों से सुशोभित, भक्तों की वाँछा पूर्ण करने में चतुर, वेदों के शब्द से अपार हर्षित होने वाले, वानरों के प्रमुख एवं अत्यधिक विस्तृत समुद्र को अचानक लांघ जाने वाले हनुमान जी का ध्यान करना चाहिए।

वज्राँङ्ग पिंगकेशाढ्यं स्वर्णकुण्डल मण्डितम्,
उद्यदक्षिण दोर्दण्डं हनुमन्तं विचिन्तये । २४ ।
स्फटिकाभं स्वर्णकान्ति द्विभुजं च कृताञ्जलिम्,
कुण्डलद्वय संशोभि मुखाम्भोजं हरिं भजे । २५ ।
अर्थ:
जिनका शरीर वज्र के समान कठोर है। केश पीले हैं। जिन्होंने स्वर्ण कुण्डल धारण किये हुए हैं। जिनका दाहिना हाथ ऊपर को उठा हुआ है। स्फटिक के समान कांतिमयी, स्वर्ण की भाँति देदीप्यमान, दो भुजामयी, जिन्होंने हाथों की अंजलि बना रखी है। ऐसे हनुमान जी का ध्यान करता हूँ।

यहां पढ़ें-” सुन्दरकाण्ड पाठ ” आपके सभी रोगों को दूर करने के लिए

।। हनुमान मन्त्र ।।
निम्नलिखित मन्त्र सावधानी से जपें-
ॐ नमो भगवते हनुमदाख्य रुद्राय सर्व दुष्ट जन मुख स्तम्भनं कुरु कुरु ॐ ह्रां ह्रीं हूँ ठं ठं ठं फट् स्वाहा, ॐ नमो हनुमते शोभिताननाय यशोऽलंकृताय अंजनी गर्भसम्भूताय रामलक्ष्मणनंदकाय कपि सैन्य प्राकाशय पर्वतोत्पाटनाय सुग्रीवसाह्य करणाय परोच्चाटनाय कुमार ब्रह्मचर्याय गम्भीर शब्दोदयाय ॐ ह्रां ह्रीं हूँ सर्व दुष्ट ग्रह निवारणाय स्वाहा ।

ॐ नमो हनुमते सर्व ग्राहन्भूत भविष्यद्वर्तमान दूरस्थ समीप स्थान् छिंधि छिंधि भिधि भिधि सर्व काल दुष्ट बुद्धिमुच्चाटयोच्चाटय परबलान क्षोभय क्षोभय मम सर्व कार्याणि साधय साधय ॐ ह्रां ह्रीं हूँ फट् देहि ॐ शिव सिद्धि ऊँ हाँ ह्रीं हूँ स्वाहा।

ॐ नमो हनुमते पर कृत यन्त्र मन्त्र पराहङ्कार भूत प्रेत पिशाच पर दृष्टि सर्व तर्जन चेटक विद्या सर्व ग्रह भयं निवारय निवारय, वध वध, पच पच, दल दल, विलय विलय सर्वाणिकुयन्त्राणि कुट्टय कुट्टय, ऊँ हाँ ह्रीं हूँ फट् स्वाहा।

ॐ नमो हनुमते पाहि पाहि ऐहि ऐहि सर्व ग्रह भूतानाँ शाकिनी डाकिनीनां विषमदुष्टानाँ सर्वेषामाकर्षय कर्षय, मर्दय मर्दय, छेदय छेदय, मृत्यून् मारय मारय, शोषय शोषय, प्रज्वल प्रज्वल, भूत मण्डल, पिशाच मण्डल, निरसनाय भूत ज्वर, प्रेत ज्वर, चातुर्थिक ज्वर, विष्णु ज्वर, महेश ज्वरं, छिन्धि छिन्धि, भिधि भिधि, अक्षि शूल, पक्ष शूल, शिरोऽभ्यंतर शूल, गुल्म शूल, पित्त शूल, ब्रह्म राक्षस कुल पिशाच कुलच्छेदनं कुरु प्रबल नाग कुल ।
विषं निर्विषं कुरु कुरु झटति झटति, ऊँ हाँ ह्रीं हूं फट् सर्व ग्रह निवारणाय स्वाहा । ॐ नमो हनुमते पवन पुत्राय वैश्वानर पाप दृष्टि, चोर, दृष्टि हनुमदाज्ञा स्फुर ॐ स्वाहा, ऊँ हाँ ह्रीं हूँ फट् घे घे स्वाहा।

॥ श्री राम उवाचः ॥
श्री राम ने कहा-
हनुमान पूर्वतः पातु दक्षिणे पवनात्मजः,
पातु प्रतीच्याँ रक्षोघ्नः पातु सागरपारगः । १ ।
उदीच्यामूर्ध्वगः पातु केसरी प्रिय नन्दनः,
अधस्ताद् विष्णु भक्तस्तु पातु मध्यं च पावनिः । २ ।
अवान्तर दिशः पातु सीता शोकविनाशकः,
लंकाविदाहकः पातु सर्वापद्भ्यो निरंतरम् । ३ ।
अर्थ:
पूर्व में हनुमान, दक्षिण में पवनात्मज, पश्चिम में रक्षोघ्न, उत्तर में सागर पारग, ऊपर से केसरी नन्दन, नीचे से विष्णु भक्त, मध्य में पावनि, अवान्तर दिशाओं सीता शोक विनाशक तथा समस्त मुसीबतों में लंका विदाहक मेरी रक्षा करें ।

सुग्रीव सचिवः पातु मस्तकं वायुनन्दनः,
भालं पातु महावीरो ध्रुवोंमध्ये निरन्तरम् । ४ ।
नेत्रेच्छायापहारी च पातु नः प्लवगेश्वरः,
कपोले कर्णमूले च पातु श्री राम किंकरः । ५ ।
नासाग्रमञ्जनीसूनु पातु वक्त्रं हरीश्वर,
वाचं रुद्रप्रिय पातु जिह्वा पिंगल लोचनः । ६ ।
अर्थ:
सचिव सुग्रीव मेरे मस्तक की, वायुनन्दन भाल की, महावीर भौंहों के मध्य की, छायापहारी नेत्रों की, प्लवगेश्वर कपोलों की, रामकिंकर कर्णमूल की, अंजनीसुत नासाग्र की, हरीश्वर सुख की, रुद्रप्रिय वाणी की तथा पिंगल लोचन मेरी जीभ की सर्वदा रक्षा करें।

पातु दन्तान फाल्गुनेष्टाश्चिबुकं दैत्यापादहा,
पातु कण्ठं च दैत्यारीः स्कन्धौ पातु सुरार्चितः । ७ ।
भुजौ पातु महातेजाः करौ तो चरणायुधः,
नखान नखायुधः पातु कुक्षि पातु कपीश्वरः ।८ ।
वक्षो मुद्रापहारी च पातु पार्श्वे भुजायुधः,
लंकाविभञ्जनः पातु पृष्ठदेशे निरन्तरम् । ९ ।
अर्थ:
फाल्गुनेष्ट मेरे दाँतों की, दैत्यापादहा चिबुक की, दैत्यारी कंठ की, सुरार्चित मेरे कन्धों की, महातेजा भुजाओं की, चरणायुध हाथों की, नखायुध नखों की, कपीश्वर कोख की, मुद्रापहारी वक्ष की, भुजायुध अगल-बगल की, लंकाविभंजन मेरी पीठ की सदा रक्षा करें।

वाभि च रामदूतस्तु कटिं पात्वनिलात्मजः,
गुह्यं पातु महाप्राज्ञो लिंग पातु शिव प्रियः । १० ।
ऊरु च जानुनी पातु लंका प्रासाद भज्जनः,
जंघे पातु कपिश्रेष्ठो गुल्फौ पातु महाबलः । ११ ।
अचलोद्धारकः पातु पादौ भाष्कर सन्निभः,
अङ्गान्यमित सत्त्वाढयः पातु पादाँगुलीस्तथा । १२ ।
अर्थ:
रामदूत नाभि की, नीलात्मज कमर की, महाप्राण गुदा की, शिवप्रिय लिंग की, लंका प्रासाद भंजन जानु एवं उरु की, कपिश्रेष्ठ जंघा की, महाबल गुल्फों की, अचलोद्धारक पैरों की, भाष्कर सन्त्रिया अंगों की, अमित सत्ताढव पांव वाली अंगुलियों की सर्वदा रक्षा करें।

सर्वाङ्गानि महाशूरः पातु रोमाणि चात्मवान्,
हनुमत्कवच यस्तु पठेद् विद्वान् विचक्षणः । १३ ।
स एव पुरुषश्रेष्ठो भुक्ति मुक्ति च विन्दति,
त्रिकालमेककालं वा पठेन्मासत्रयम् सदा । १४ ।
सर्वानरिपुनक्षणाजित्वा स पुमाश्रियमाप्नुयात्,
मध्यरात्रे जले स्थित्वा सप्तधारम् पठेद यदि । १५ ।
क्षयाऽपस्मार कुष्ठादि ताप ज्वर निवारणम् ।
अर्थ:
महाशूर सभी अंगों की, आत्मवान रोगों से सर्वदा रक्षा करें। जो विद्वान इस विचक्षण कवच का पाठ करता है वह भक्ति एवं मुक्ति को प्राप्त करता है। एक समय या तीनों समय प्रतिदिन जो साधक तीन मास तक इसका पाठ करता है वह क्षणमात्र में ही शत्रु वर्ग को जीत कर लक्ष्मी प्राप्त करता है। आधी रात के समय जल के मध्य स्थित होकर इसके सात पाठ करने से क्षय, अपस्मार, कुष्ठ तथा तिजारी का निवारण होता है।

अश्वत्थमूलेऽर्कवारे स्थित्वा पठति यः पुमान् । १६ ।
अचलाँ श्रियमाप्नोति संग्रामे विजयं तथा,
लिखित्वा पूजयेद यस्तु सर्वत्र विजयी भवेत् । १७ ।
यः करे धारयेन्नित्यं स पुमान् श्रियमाप्नुयात्,
विवादे द्यूतकाले च द्यूते राजकुले रणे । १८ ।
दशवारं पठेद् रात्रौ मिताहारो जितेन्द्रियः,
विजयं लभते लोके मानुषेषु नराधिपः । १९ ।
अर्थ:
रविवार के दिन अश्वत्थ वक्ष की जड़ के पास बैठकर इसका पाठ करने से संग्राम में विजय तथा अचल लक्ष्मी प्राप्त होती है। इसे लिखकर फिर इसकी पूजा करने पर सर्वत्र विजय मिलती है। इसे धारण करने से लक्ष्मी प्राप्त होती है। वाद-विवाद जुआ राज-घराने एवं युद्ध में इसके दश पाठ करने से विजय प्राप्त होती है।

यहां पढ़ें- “हनुमान चालीसा ” बुक

भूत प्रेत महादुर्गे रणे सागर सम्प्लवे,
सिंह व्याघ्रभये चोग्रे शर शस्त्रास्त्र पातने । २० ।
श्रृंखला बन्धने चैव काराग्रह नियन्त्रणे,
कायस्तोभे वह्नि चक्रे क्षेत्रे घोरे सुदारणे । २१ ।
शोके महारणे चैव बालग्रहविनाशनम्,
सर्वदा तु पठेन्नित्यं जयमाप्नुत्यसंशयम् । २२ ।
अर्थ:
भूत, प्रेत, महादुख, रण, सागर, सिंह, व्याघ्र, शस्त्रास्त्र के मध्य फंस जाने पर, जंजीरों से बाँधे जाने पर, कारागार में जाने पर, आग में फँसने, शरीर में पीड़ा होने, शोकादि व ब्रह्म ग्रह के निवारण के लिए इसे प्रतिदिन पढ़ना चाहिए।

भूर्जे व वसने रक्ते क्षीमे व ताल पत्रके,
त्रिगन्धे नाथ मश्यैव विलिख्य धारयेन्नरः । २३ ।
पञ्च सप्त त्रिलोहैर्वा गोपित कवचं शुभम्,
गले कटयाँ बाहुमूले कण्ठे शिरसि धारितम् । २४ ।
सर्वान् कामान् वाप्नुयात् सत्यं श्रीराम भाषितं । २५ !
अर्थ:
भोजपत्र, लाल रेशमी वस्त्र, ताड़पत्र पर इस कवच को त्रिगन्ध की स्याही से लिखकर इसे धारण करना चाहिए। पाँच, सात तथा तीन लोहे के मध्य रखकर गले पर, कमर पर, भुजा पर या सिर पर धारण करने से धारक की समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण होती हैं। यह श्री राम जी ने कहा है।

इति श्री ब्रह्माण्ड पुराणे श्री नारद एवं श्री अगस्त्य मुनि संवादे श्री राम प्रोक्तं एकमुखी हनुमत्कवचं सम्पूर्णम् ॥

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