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Mahabharata Adi Parva Chapter 37 to 41

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Mahabharata Adi Parva Chapter 37 to 41

॥ श्रीहरिः ॥

श्रीगणेशाय नमः 

॥ श्रीवेदव्यासाय नमः ॥

श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्व में (Adi Parva Chapter 37 to 41)

इस पोस्ट में श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्व अध्याय 37 से अध्याय 41 (Adi Parva Chapter 37 to 41) दिया गया है। इसमें माताके शापसे बचनेके लिये वासुकि आदि नागोंका परस्पर परामर्श कहा है। वासुकिकी बहिन जरत्कारुका जरत्कारु मुनिके साथ विवाह करनेका निश्चय और ब्रह्माजीकी आज्ञासे वासुकिका जरत्कारु मुनिके साथ अपनी बहिनको ब्याहनेके लिये प्रयत्नशील होने का वर्णन कहा गया है। जरत्कारुकी तपस्या, राजा परीक्षित् का उपाख्यान तथा राजाद्वारा मुनिके कंधेपर मृतक साँप रखनेके कारण दुःखी हुए कृशका शृंगीको उत्तेजित करने का वर्णन और शृंगी ऋषिका राजा परीक्षित् को शाप देना और शमीकका अपने पुत्रको शान्त करते हुए शापको अनुचित बताना है।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ संपूर्ण महाभारत हिंदी में

अध्याय सैंतीस

माताके शापसे बचनेके लिये वासुकि आदि नागोंका परस्पर परामर्श

सौतिरुवाच
मातुः सकाशात् तं शापं श्रुत्वा वै पन्नगोत्तमः ।
वासुकिश्चिन्तयामास शापोऽयं न भवेत् कथम् ৷৷ १ ৷৷
उग्रश्रवाजी कहते हैं- शौनक ! माता कद्रूसे नागोंके लिये वह शाप प्राप्त हुआ सुनकर नागराज वासुकिको बड़ी चिन्ता हुई। वे सोचने लगे ‘किस प्रकार यह शाप दूर हो सकता है’ ৷৷ १ ৷৷

ततः स मन्त्रयामास भ्रातृभिः सह सर्वशः ।
ऐरावतप्रभृतिभिः सर्वधर्मपरायणैः ৷৷ २ ৷৷
तदनन्तर उन्होंने ऐरावत आदि सर्वधर्मपरायण बन्धुओंके साथ उस शापके विषयमें विचार किया ৷৷ २ ৷৷

वासुकिरुवाच
अयं शापो यथोद्दिष्टो विदितं वस्तथानघाः ।
तस्य शापस्य मोक्षार्थ मन्त्रयित्वा यतामहे ৷৷ ३ ৷৷
सर्वेषामेव शापानां प्रतिघातो हि विद्यते ।
न तु मात्राभिशप्तानां मोक्षः क्वचन विद्यते ৷৷ ४ ৷৷
वासुकि बोले- निष्पाप नागगण ! माताने हमें जिस प्रकार यह शाप दिया है, वह सब आपलोगोंको विदित ही है। उस शापसे छूटनेके लिये क्या उपाय हो सकता है? इसके विषयमें सलाह करके हम सब लोगोंको उसके लिये प्रयत्न करना चाहिये। सब शापोंका प्रतीकार सम्भव है, परंतु जो माताके शापसे ग्रस्त हैं, उनके छूटनेका कोई उपाय नहीं है ৷৷ ३-४ ৷৷(Adi Parva Chapter 37 to 41)

अव्ययस्याप्रमेयस्य सत्यस्य च तथाग्रतः ।
शप्ता इत्येव मे श्रुत्वा जायते हृदि वेपथुः ৷৷ ५॥
अविनाशी, अप्रमेय तथा सत्यस्वरूप ब्रह्माजीके आगे माताने हमें शाप दिया है- यह सुनकर ही हमारे हृदयमें कम्प छा जाता है ৷৷ ५ ৷৷

नूनं सर्वविनाशोऽयमस्माकं समुपागतः ।
न होतां सोऽव्ययो देवः शपन्तीं प्रत्यषेधयत् ৷৷ ६ ৷৷
निश्चय ही यह हमारे सर्वनाशका समय आ गया है, क्योंकि अविनाशी देव भगवान् ब्रह्माने भी शाप देते समय माताको मना नहीं किया ৷৷ ६ ৷৷

तस्मात् सम्मन्त्रयामोऽद्य भुजङ्गानामनामयम् ।
यथा भवेद्धि सर्वेषां मा नः कालोऽत्यगादयम् ৷৷ ७ ৷৷
सर्व एव हि नस्तावद् बुद्धिमन्तो विचक्षणाः ।
अपि मन्त्रयमाणा हि हेतुं पश्याम मोक्षणे ৷৷ ८ ৷৷
यथा नष्टं पुरा देवा गुढमग्निं गुहागतम् ।
इसलिये आज हमें अच्छी तरह विचार कर लेना चाहिये कि किस उपायसे हम सभी नाग कुशलपूर्वक रह सकते हैं। अब हमें व्यर्थ समय नहीं गँवाना चाहिये। हमलोगोंमें प्रायः सब नाग बुद्धिमान् और चतुर हैं। यदि हम मिल-जुलकर सलाह करें तो इस संकटसे छूटनेका कोई उपाय ढूँढ़ निकालेंगे; जैसे पूर्वकालमें देवताओंने गुफामें छिपे हुए अग्निको खोज निकाला था ৷৷ ७-८ ৷৷

यथा स यज्ञो न भवेद् यथा वापि पराभवः ।
जनमेजयस्य सर्पाणां विनाशकरणाय वै ৷৷ ९ ৷৷
सर्पोंके विनाशके लिये आरम्भ होनेवाला जनमेजयका यज्ञ जिस प्रकार टल जाय अथवा जिस तरह उसमें विघ्न पड़ जाय, वह उपाय हमें सोचना चाहिये ৷৷ ९ ৷৷

सौतिरुवाच
तथेत्युक्त्वा ततः सर्वे काद्रवेयाः समागताः ।
समयं चक्रिरे तत्र मन्त्रबुद्धिविशारदाः ৷৷ १० ৷৷
उग्रश्रवाजी कहते हैं- शौनक ! वहाँ एकत्र हुए सभी कद्रूपुत्र ‘बहुत अच्छा’ कहकर एक निश्चयपर पहुँच गये, क्योंकि वे नीतिका निश्चय करनेमें निपुण थे ৷৷ १० ৷৷

एके तत्राब्रुवन् नागा वयं भूत्वा द्विजर्षभाः ।
जनमेजयं तु भिक्षामो यज्ञस्ते न भवेदिति ৷৷ ११ ৷৷
उस समय वहाँ कुछ नागोंने कहा- ‘हमलोग श्रेष्ठ ब्राह्मण बनकर जनमेजयसे यह भिक्षा माँगें कि तुम्हारा यज्ञ न हो’ ৷৷ ११ ৷৷(Adi Parva Chapter 37 to 41)

अपरे त्वब्रुवन् नागास्तत्र पण्डितमानिनः ।
मन्त्रिणोउस्य वयं सर्वे भविष्यामः सुसम्मताः ৷৷ १२ ৷৷
अपनेको बड़ा भारी पण्डित माननेवाले दूसरे नागोंने कहा- ‘हम सब लोग जनमेजयके विश्वासपात्र मन्त्री बन जायेंगे ৷৷ १२ ৷৷

स नः प्रक्ष्यति सर्वेषु कार्येष्वर्थविनिश्चयम् ।
तत्र बुद्धिं प्रदास्यामो यथा यज्ञो निवर्त्यति ৷৷ १३ ৷৷
‘फिर वे सभी कार्योंमें अभीष्ट प्रयोजनका निश्चय करनेके लिये हमसे सलाह पूछेंगे। उस समय हम उन्हें ऐसी बुद्धि देंगे, जिससे यज्ञ होगा ही नहीं ৷৷ १३ ৷৷

स नो बहुमतान् राजा बुद्धया बुद्धिमतां वरः ।
यज्ञार्थ प्रक्ष्यति व्यक्तं नेति वक्ष्यामहे वयम् ৷৷ १४ ৷৷
‘हम वहाँ बहुत विश्वस्त एवं सम्मानित होकर रहेंगे। अतः बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ राजा जनमेजय यज्ञके विषयमें हमारी सम्मति जाननेके लिये अवश्य पूछेंगे। उस समय हम स्पष्ट कह देंगे- ‘यज्ञ न करो’ ৷৷ १४ ৷৷

दर्शयन्तो बहून् दोषान् प्रेत्य चेह च दारुणान् ।
हेतुभिः कारणैश्चैव यथा यज्ञो भवेन्न सः ৷৷ १५ ৷৷
‘हम युक्तियों और कारणोंद्वारा यह दिखायेंगे कि उस यज्ञसे इहलोक और परलोकमें अनेक भयंकर दोष प्राप्त होंगे; इससे वह यज्ञ होगा ही नहीं ৷৷ १५ ৷৷

अथवा य उपाध्यायः क्रतोस्तस्य भविष्यति ।
सर्पसत्रविधानज्ञो राजकार्यहिते रतः ৷৷ १६ ৷৷
तं गत्वा दशतां कश्चिद् भुजङ्गः स मरिष्यति ।
तस्मिन् मृते यज्ञकारे क्रतुः स न भविष्यति ৷৷ १७ ৷৷
‘अथवा जो उस यज्ञके आचार्य होंगे, जिन्हें सर्पयज्ञकी विधिका ज्ञान हो और जो राजाके कार्य एवं हितमें लगे रहते हों, उन्हें कोई सर्प जाकर डॅस ले। फिर वे मर जायँगे। यज्ञ करानेवाले आचार्यके मर जानेपर वह यज्ञ अपने-आप बंद हो जायगा ৷৷ १६-१७ ৷৷

ये चान्ये सर्पसत्रज्ञा भविष्यन्त्यस्य चर्विजः ।
तांश्च सर्वान् दशिष्यामः कृतमेवं भविष्यति ৷৷ १८ ৷৷
‘आचार्यके सिवा दूसरे जो-जो ब्राह्मण सर्पयज्ञकी विधिको जानते होंगे और जनमेजयके यज्ञमें ऋत्विज बननेवाले होंगे, उन सबको हम डॅस लेंगे। इस प्रकार सारा काम बन जायगा’ ৷৷ १८ ৷৷

अपरे त्वब्रुवन् नागा धर्मात्मानो दयालवः ।
अबुद्धिरेषा भवतां ब्रह्महत्या न शोभनम् ৷৷ १९ ৷৷
यह सुनकर दूसरे धर्मात्मा और दयालु नागोंने कहा- ‘ऐसा सोचना तुम्हारी मूर्खता है। ब्रह्म-हत्या कभी शुभकारक नहीं हो सकती ৷৷ १९ ৷৷(Adi Parva Chapter 37 to 41)

सम्यक्सद्धर्ममूला वै व्यसने शान्तिरुत्तमा ।
अधर्मोत्तरता नाम कृत्स्नं व्यापादयेज्जगत् ৷৷ २० ৷৷
‘आपत्तिकालमें शान्तिके लिये वही उपाय उत्तम माना गया है जो भलीभाँति श्रेष्ठ धर्मके अनुकूल किया गया हो। संकटसे बचनेके लिये उत्तरोत्तर अधर्म करनेकी प्रवृत्ति तो सम्पूर्ण जगत्का नाश कर डालेगी’ ৷৷ २० ৷৷

अपरे त्वब्रुवन् नागाः समिद्धं जातवेदसम् ।
वर्षैर्निर्वापयिष्यामो मेघा भूत्वा सविद्युतः ৷৷ २१ ৷৷
इसपर दूसरे नाग बोल उठे- ‘जिस समय सर्पयज्ञके लिये अग्नि प्रज्वलित होगी, उस समय हम बिजलियोंसहित मेघ बनकर पानीकी वर्षाद्वारा उसे बुझा देंगे ৷৷ २१ ৷৷

सुग्भाण्डं निशि गत्वा च अपरे भुजगोत्तमाः ।
प्रमत्तानां हरन्त्वाशु विघ्न एवं भविष्यति ৷৷ २२ ৷৷
‘दूसरे श्रेष्ठ नाग रातमें वहाँ जाकर असावधानीसे सोये हुए ऋत्विजोंके सुक्, सुवा और यज्ञपात्र आदि शीघ्र चुरा लावें। इस प्रकार उसमें विघ्न पड़ जायगा ৷৷ २२ ৷৷

यज्ञे वा भुजगास्तस्मिञ्छतशोऽथ सहस्रशः ।
जनान् दशन्तु वै सर्वे नैवं त्रासो भविष्यति ৷৷ २३ ৷৷
‘अथवा उस यज्ञमें सभी सर्प जाकर सैकड़ों और हजारों मनुष्योंको डॅस लें; ऐसा करनेसे हमारे लिये भय नहीं रहेगा ৷৷ २३ ৷৷

अथवा संस्कृतं भोज्यं दूषयन्तु भुजङ्गमाः ।
स्वेन मूत्रपुरीषेण सर्वभोज्यविनाशिना ৷৷ २४ ৷৷
‘अथवा सर्पगण उस यज्ञके संस्कारयुक्त भोज्य पदार्थको अपने मल-मूत्रोंद्वारा, जो सब प्रकारकी भोजन-सामग्रीका विनाश करनेवाले हैं, दूषित कर दें’ ৷৷ २४ ৷৷

अपरे त्वब्रुवंस्तत्र ऋत्विजोऽस्य भवामहे ।
यज्ञविघ्नं करिष्यामो दीयतां दक्षिणा इति ৷৷ २५ ৷৷
वश्यतां च गतोऽसौ नः करिष्यति यथेप्सितम् ।
इसके बाद अन्य सर्पोंने कहा- ‘हम उस यज्ञमें ऋत्विज्ञ हो जायँगे और यह कहकर कि ‘हमें मुँहमाँगी दक्षिणा दो’ यज्ञमें विघ्न खड़ा कर देंगे। उस समय राजा हमारे वशमें पड़कर जैसी हमारी इच्छा होगी, वैसा करेंगे’ ৷৷ २५ ৷৷

अपरे त्वब्रुवंस्तत्र जले प्रक्रीडितं नृपम् ৷৷ २६ ৷৷
गृहमानीय बध्नीमः क्रतुरेवं भवेन्न सः ।
फिर अन्य नाग बोले- ‘जब राजा जनमेजय जल-क्रीड़ा करते हों, उस समय उन्हें वहाँसे खींचकर हम अपने घर ले आवें और बाँधकर रख लें। ऐसा करनेसे वह यज्ञ होगा ही नहीं’ – ৷৷ २६ ৷৷

अपरे त्वब्रुवंस्तत्र नागाः पण्डितमानिनः ৷৷ २७ ৷৷
दशामस्तं प्रगृह्याशु कृतमेवं भविष्यति ।
छिन्नं मूलमनर्थानां मृते तस्मिन् भविष्यति ৷৷ २८ ৷৷
इसपर अपनेको पण्डित माननेवाले दूसरे नाग बोल उठे- ‘हम जनमेजयको पकड़कर डॅस लेंगे।’ ऐसा करनेसे तुरंत ही सब काम बन जायगा। उस राजाके मरनेपर हमारे लिये अनर्थोकी जड़ ही कट जायगी ৷৷ २७-२८ ৷৷

एषा नो नैष्ठिकी बुद्धिः सर्वेषामीक्षणश्रवः ।
अथ यन्मन्यसे राजन् द्रुतं तत् संविधीयताम् ৷৷ २९ ৷৷
‘नेत्रोंसे सुननेवाले नागराज ! हम सब लोगोंकी बुद्धि तो इसी निश्चयपर पहुँची है। अब आप जैसा ठीक समझते हों, वैसा शीघ्र करें’ ৷৷ २९ ৷৷(Adi Parva Chapter 37 to 41)

इत्युक्त्वा समुदैक्षन्त वासुकिं पन्नगोत्तमम् ।
वासुकिश्चापि संचिन्त्य तानुवाच भुजङ्गमान् ৷৷ ३० ৷৷
यह कहकर वे सर्प नागराज वासुकिकी ओर देखने लगे। तब वासुकिने भी खूब सोच-विचारकर उन सर्पोंसे कहा- ৷৷ ३० ৷৷

नैषा वो नैष्ठिकी बुद्धिर्मता कर्तुं भुजङ्गमाः ।
सर्वेषामेव मे बुद्धिः पन्नगानां न रोचते ৷৷ ३१ ৷৷
‘नागगण! तुम्हारी बुद्धिने जो निश्चय किया है, वह व्यवहारमें लानेयोग्य नहीं है। इसी प्रकार मेरा विचार भी सब सर्पोको जँच जाय, यह सम्भव नहीं है ৷৷ ३१ ৷৷

किं तत्र संविधातव्यं भवतां स्याद्धितं तु यत् ।
श्रेयः प्रसाधनं मन्ये कश्यपस्य महात्मनः ৷৷ ३२ ৷৷
‘ऐसी दशामें क्या करना चाहिये, जो तुम्हारे लिये हितकर हो। मुझे तो महात्मा कश्यपजीको प्रसन्न करनेमें ही अपना कल्याण जान पड़ता है ৷৷ ३२ ৷৷

ज्ञातिवर्गस्य सौहार्दादात्मनश्च भुजङ्गमाः ।
न च जानाति मे बुद्धिः किंचित् कर्तुं वचो हि वः ৷৷ ३३ ৷৷
‘भुजंगमो ! अपने जाति-भाइयोंके और अपने हितको दृष्टिमें रखकर तुम्हारे कथनानुसार कोई भी कार्य करना मेरी समझमें नहीं आया ৷৷ ३३ ৷৷

मया हीदं विधातव्यं भवतां यद्धितं भवेत् ।
अनेनाहं भृशं तप्ये गुणदोषौ मदाश्रयौ ৷৷ ३४ ৷৷
‘मुझे वही काम करना है, जिसमें तुम लोगोंका वास्तविक हित हो। इसीलिये मैं अधिक चिन्तित हूँ; क्योंकि तुम सबमें बड़ा होनेके कारण गुण और दोषका सारा उत्तरदायित्व मुझपर ही है’ ৷৷ ३४ ৷৷

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि वासुक्यादिमन्त्रणे सप्तत्रिंशोऽध्यायः ৷৷ ३७ ৷৷
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें वासुकि आदि नागोंकी मन्त्रणा नामक सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ৷৷ ३७ ৷৷

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमहाभारतम् आदिपर्व प्रथमोऽध्यायः

अध्याय अड़तीस

वासुकिकी बहिन जरत्कारुका जरत्कारु मुनिके साथ विवाह करनेका निश्चय

सौतिरुवाच
सर्पाणां तु वचः श्रुत्वा सर्वेषामिति चेति च ।
वासुकेश्च वचः श्रुत्वा एलापत्रोऽब्रवीदिदम् ৷৷ १ ৷৷
उग्रश्रवाजी कहते हैं- शौनकजी ! समस्त सोंकी भिन्न-भिन्न राय सुनकर और अन्तमें वासुकिके वचनोंका श्रवण कर एलापत्र नामक नागने इस प्रकार कहा- ৷৷ १ ৷৷

न स यज्ञो न भविता न स राजा तथाविधः ।
जनमेजयः पाण्डवेयो यतोऽस्माकं महद् भयम् ৷৷ २ ৷৷
‘भाइयो ! यह सम्भव नहीं कि वह यज्ञ न हो तथा पाण्डववंशी राजा जनमेजय भी, जिससे हमें महान् भय प्राप्त हुआ है, ऐसा नहीं है कि हम उसका कुछ बिगाड़ सकें ৷৷ २ ৷৷

दैवेनोपहतो राजन् यो भवेदिह पूरुषः ।
स दैवमेवाश्रयते नान्यत् तत्र परायणम् ৷৷ ३ ৷৷
‘राजन् ! इस लोकमें जो पुरुष दैवका मारा हुआ है, उसे दैवकी ही शरण लेनी चाहिये। वहाँ दूसरा कोई आश्रय नहीं काम देता ৷৷ ३ ৷৷(Adi Parva Chapter 37 to 41)

तदिदं चैवमस्माकं भयं पन्नगसत्तमाः ।
दैवमेवाश्रयामोऽत्र शृणुध्वं च वचो मम ৷৷ ४ ৷৷
अहं शापे समुत्सृष्टे समश्रौषं वचस्तदा ।
मातुरुत्संगमारूढो भयात् पन्नगसत्तमाः ৷৷ ५ ৷৷
देवानां पन्नगश्रेष्ठास्तीक्ष्णास्तीक्ष्णा इति प्रभो ।
पितामहमुपागम्य दुःखार्तानां महाद्युते ৷৷ ६ ৷৷
‘श्रेष्ठ नागगण ! हमारे ऊपर आया हुआ यह भय भी दैवजनित ही है, अतः हमें दैवका ही आश्रय लेना चाहिये। उत्तम सर्पगण! इस विषयमें आपलोग मेरी बात सुनें। जब माताने सर्पोंको यह शाप दिया था, उस समय भयके मारे मैं माताकी गोदमें चढ़ गया था। पन्नगप्रवर महातेजस्वी नागराजगण! तभी दुःखसे आतुर होकर ब्रह्माजीके समीप आये हुए देवताओंकी यह वाणी मेरे कानोंमें पड़ी- ‘अहो! स्त्रियाँ बड़ी कठोर होती हैं, बड़ी कठोर होती हैं’ ৷৷ ४-६ ৷৷

देवा ऊचुः
का हि लब्ध्वा प्रियान् पुत्राञ्छपेदेवं पितामह ।
ऋते कद्रं तीक्ष्णरूपां देवदेव तवाग्रतः ৷৷ ७ ৷৷
देवता बोले- पितामह ! देवदेव! तीखे स्वभाववाली इस क्रूर कद्रूको छोड़कर दूसरी कौन स्त्री होगी जो प्रिय पुत्रोंको पाकर उन्हें इस प्रकार शाप दे सके और वह भी आपके सामने ৷৷ ७ ৷৷

तथेति च वचस्तस्यास्त्वयाप्युक्तं पितामह ।
एतदिच्छामि विज्ञातुं कारणं यन्न वारिता ৷৷ ८ ৷৷
पितामह ! आपने भी ‘तथास्तु’ कहकर कद्रूकी बातका अनुमोदन ही किया है; उसे शाप देनेसे रोका नहीं है। इसका क्या कारण है, हम यह जानना चाहते हैं ৷৷ ८ ৷৷

ब्रह्मोवाच
बहवः पन्नगास्तीक्ष्णा घोररूपा विषोल्बणाः ।
प्रजानां हितकामोऽहं न च वारितवांस्तदा ৷৷ ९ ৷৷
ब्रह्माजीने कहा- इन दिनों भयानक रूप और प्रचण्ड विषवाले क्रूर सर्प बहुत हो गये हैं (जो प्रजाको कष्ट दे रहे हैं)। मैंने प्रजाजनोंके हितकी इच्छासे ही उस समय कद्रूको मना नहीं किया ৷৷ ९ ৷৷(Adi Parva Chapter 37 to 41)

ये दन्दशूकाः क्षुद्राश्च पापाचारा विषोल्बणाः ।
तेषां विनाशो भविता न तु ये धर्मचारिणः ৷৷ १० ৷৷
जनमेजयके सर्पयज्ञमें उन्हीं सोंका विनाश होगा जो प्रायः लोगोंको हँसते रहते हैं, क्षुद्र स्वभावके हैं और पापाचारी तथा प्रचण्ड विषवाले हैं। किंतु जो धर्मात्मा हैं, उनका नाश नहीं होगा ৷৷ १० ৷৷

यन्निमित्तं च भविता मोक्षस्तेषां महाभयात् ।
पन्नगानां निबोधध्वं तस्मिन् काले समागते ৷৷ ११ ৷৷
वह समय आनेपर सर्पोंका उस महान् भयसे जिस निमित्तसे छुटकारा होगा, उसे बतलाता हूँ, तुम सब लोग सुनो ৷৷ ११ ৷৷

यायावरकुले धीमान् भविष्यति महानृषिः ।
जरत्कारुरिति ख्यातस्तपस्वी नियतेन्द्रियः ৷৷ १२ ৷৷
यायावरकुलमें जरत्कारु नामसे विख्यात एक बुद्धिमान् महर्षि होंगे। वे तपस्यामें तत्पर रहकर अपने मन और इन्द्रियोंको संयममें रखेंगे ৷৷ १२ ৷৷

तस्य पुत्रो जरत्कारोर्भविष्यति तपोधनः ।
आस्तीको नाम यज्ञं स प्रतिषेत्स्यति तं तदा ।
तत्र मोक्ष्यन्ति भुजगा ये भविष्यन्ति धार्मिकाः ৷৷ १३ ৷৷
उन्हींके आस्तीक नामका एक महातपस्वी पुत्र उत्पन्न होगा जो उस यज्ञको बंद करा देगा। अतः जो सर्प धार्मिक होंगे, वे उसमें जलनेसे बच जायेंगे ৷৷ १३ ৷৷

देवा ऊचुः
स मुनिप्रवरो ब्रह्मञ्जरत्कारुर्महातपाः ।
कस्यां पुत्रं महात्मानं जनयिष्यति वीर्यवान् ৷৷ १४ ৷৷
देवताओंने पूछा- ब्रह्मन् ! वे मुनिशिरोमणि महातपस्वी शक्तिशाली जरत्कारु किसके गर्भसे अपने उस महात्मा पुत्रको उत्पन्न करेंगे? ৷৷ १४ ৷৷

ब्रह्मोवाच
सनामायां सनामा स कन्यायां द्विजसत्तमः ।
अपत्यं वीर्यसम्पन्नं वीर्यवाञ्जनयिष्यति ৷৷ १५ ৷৷
ब्रह्माजीने कहा- वे शक्तिशाली द्विजश्रेष्ठ जिस ‘जरत्कारु’ नामसे प्रसिद्ध होंगे, उसी नामवाली कन्याको पत्नीरूपमें प्राप्त करके उसके गर्भसे एक शक्तिसम्पन्न पुत्र उत्पन्न करेंगे ৷৷ १५ ৷৷

वासुकेः सर्पराजस्य जरत्कारुः स्वसा किल ।
स तस्यां भविता पुत्रः शापान्नागांश्च मोक्ष्यति ৷৷ १६ ৷৷
सर्पराज वासुकिकी बहिनका नाम जरत्कारु है। उसीके गर्भसे वह पुत्र उत्पन्न होगा, जो नागोंको शापसे छुड़ायेगा ৷৷ १६ ৷৷(Adi Parva Chapter 37 to 41)

एलापत्र उवाच
एवमस्त्विति तं देवाः पितामहमथाब्रुवन् ।
उक्त्वैवं वचनं देवान् विरिञ्चिस्त्रिदिवं ययौ ৷৷ १७ ৷৷
एलापत्र कहते हैं- यह सुनकर देवता ब्रह्माजीसे कहने लगे- ‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो)। देवताओंसे ये सब बातें बताकर ब्रह्माजी ब्रह्मलोकमें चले गये ৷৷ १७ ৷৷

सोऽहमेवं प्रपश्यामि वासुके भगिनीं तव ।
जरत्कारुरिति ख्यातां तां तस्मै प्रतिपादय ৷৷ १८ ৷৷
भैक्षवद् भिक्षमाणाय नागानां भयशान्तये ।
ऋषये सुव्रतायैनामेष मोक्षः श्रुतो मया ৷৷ १९ ৷৷
अतः नागराज वासुके! मैं तो ऐसा समझता हूँ कि आप नागोंका भय दूर करनेके लिये कन्याकी भिक्षा माँगनेवाले, उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महर्षि जरत्कारुको अपनी जरत्कारु नामवाली यह बहिन ही भिक्षारूपमें अर्पित कर दें। उस शापसे छूटनेका यही उपाय मैंने सुना है ৷৷ १८-१९ ৷৷

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि एलापत्रवाक्ये अष्टत्रिंशोऽध्यायः ৷৷ ३८ ৷৷
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें एलापत्र-वाक्यसम्बन्धी अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ৷৷ ३८ ৷৷

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ उचित समय पर सही पाठ करें

एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः

ब्रह्माजीकी आज्ञासे वासुकिका जरत्कारु मुनिके साथ अपनी बहिनको ब्याहनेके लिये प्रयत्नशील होना

सौतिरुवाच
एलापत्रवचः श्रुत्वा ते नागा द्विजसत्तम ।
सर्वे प्रहृष्टमनसः साधु साध्वित्यथाब्रुवन् ৷৷ १ ৷৷
ततः प्रभृति तां कन्यां वासुकिः पर्यरक्षत ।
जरत्कारुं स्वसारं वै परं हर्षमवाप च ৷৷ २ ৷৷
उग्रश्रवाजी कहते हैं- द्विजश्रेष्ठ! एलापत्रकी बात सुनकर नागोंका चित्त प्रसन्न हो गया। वे सब-के-सब एक साथ बोल उठे- ‘ठीक है, ठीक है।’ वासुकिको भी इस बातसे बड़ी प्रसन्नता हुई। वे उसी दिनसे अपनी बहिन जरत्कारुका बड़े चावसे पालन-पोषण करने लगे ৷৷ १-२ ৷৷(Adi Parva Chapter 37 to 41)

ततो नातिमहान् कालः समतीत इवाभवत् ।
अथ देवासुराः सर्वे ममन्थुर्वरुणालयम् ৷৷ ३ ৷৷
तत्र नेत्रमभून्नागो वासुकिर्बलिनां वरः ।
समाप्यैव च तत् कर्म पितामहमुपागमन् ৷৷ ४ ৷৷
देवा वासुकिना सार्धं पितामहमथाब्रुवन् ।
भगवञ्छापभीतोऽयं वासुकिस्तप्यते भृशम् ৷৷ ५ ৷৷
तदनन्तर थोड़ा ही समय व्यतीत होनेपर सम्पूर्ण देवताओं तथा असुरोंने समुद्रका मन्थन किया। उसमें बलवानोंमें श्रेष्ठ वासुकि नाग मन्दराचलरूप मथानीमें लपेटनेके लिये रस्सी बने हुए थे। समुद्र-मन्थनका कार्य पूरा करके देवता वासुकि नागके साथ पितामह ब्रह्माजीके पास गये और उनसे बोले- ‘भगवन्! ये वासुकि माताके शापसे भयभीत हो
बहुत संतप्त होते रहते हैं ৷৷ ३-५ ৷৷

अस्यैतन्मानसं शल्यं समुद्धर्तुं त्वमर्हसि ।
जनन्याः शापजं देव ज्ञातीनां हितमिच्छतः ৷৷ ६ ৷৷
‘देव! अपने भाई-बन्धुओंका हित चाहनेवाले इन नागराजके हृदयमें माताका शाप काँटा बनकर चुभा हुआ है और कसक पैदा करता है। आप इनके उस काँटेको निकाल दीजिये ৷৷ ६ ৷৷

हितो ह्ययं सदास्माकं प्रियकारी च नागराट् ।
प्रसादं कुरु देवेश शमयास्य मनोज्वरम् ৷৷ ७ ৷৷
‘देवेश्वर ! नागराज वासुकि हमारे हितैषी हैं और सदा हमलोगोंके प्रिय कार्यमें लगे रहते हैं; अतः आप इनपर कृपा करें और इनके मनमें जो चिन्ताकी आग जल रही है, उसे बुझा दें’ ৷৷ ७ ৷৷

ब्रह्मोवाच
मयैव तद् वितीर्ण वै वचनं मनसामराः ।
एलापत्रेण नागेन यदस्याभिहितं पुरा ৷৷ ८ ৷৷
ब्रह्माजीने कहा- ‘देवताओ! एलापत्र नागने वासुकिके समक्ष पहले जो बात कही थी, वह मैंने ही मानसिक संकल्पद्वारा उसे दी थी (मेरी ही प्रेरणासे एलापत्रने वे बातें वासुकि आदि नागोंके सम्मुख कही थीं) ৷৷ ८ ৷৷

तत् करोत्वेष नागेन्द्रः प्राप्तकालं वचः स्वयम् ।
विनशिष्यन्ति ये पापा न तु ये धर्मचारिणः ৷৷ ९ ৷৷
ये नागराज समय आनेपर स्वयं तदनुसार ही कार्य करें। जनमेजयके यज्ञमें पापी सर्प ही नष्ट होंगे, किंतु जो धर्मात्मा हैं वे नहीं ৷৷ ९ ৷৷(Adi Parva Chapter 37 to 41)

उत्पन्नः स जरत्कारुस्तपस्युग्रे रतो द्विजः ।
तस्यैष भगिनीं काले जरत्कारुं प्रयच्छतु ৷৷ १० ৷৷
अब जरत्कारु ब्राह्मण उत्पन्न होकर उग्र तपस्यामें लगे हैं। अवसर देखकर ये वासुकि अपनी बहिन जरत्कारुको उन महर्षिकी सेवामें समर्पित कर दें ৷৷ १० ৷৷

एलापत्रेण यत् प्रोक्तं वचनं भुजगेन ह।
पन्नगानां हितं देवास्तत् तथा न तदन्यथा ৷৷ ११ ৷৷
देवताओ ! एलापत्र नागने जो बात कही है, वही सर्पोंके लिये हितकर है। वही बात होनेवाली है। उससे विपरीत कुछ भी नहीं हो सकता ৷৷ ११ ৷৷

सौतिरुवाच
एतच्छ्रुत्वा तु नागेन्द्रः पितामहवचस्तदा ।
संदिश्य पन्नगान् सर्वान् वासुकिः शापमोहितः ৷৷ १२ ৷৷
स्वसारमुद्यम्य तदा जरत्कारुमृषिं प्रति ।
सर्पान् बहूञ्जरत्कारी नित्ययुक्तान् समादधत् ৷৷ १३ ৷৷
उग्रश्रवाजी कहते हैं- ब्रह्माजीकी बात सुनकर शापसे मोहित हुए नागराज वासुकिने सब सपौँको यह संदेश दे दिया कि मुझे अपनी बहिनका विवाह जरत्कारु मुनिके साथ करना है। फिर उन्होंने जरत्कारु मुनिकी खोजके लिये नित्य आज्ञामें रहनेवाले बहुत-से सौँको नियुक्त कर दिया ৷৷ १२-१३ ৷৷

जरत्कारुर्यदा भार्यामिच्छेद् वरयितुं प्रभुः ।
शीघ्रमेत्य तदाख्येयं तन्नः श्रेयो भविष्यति ৷৷ १४ ৷৷
और यह कहा- ‘सामर्थ्यशाली जरत्कारु मुनि जब पत्नीका वरण करना चाहें, उस समय शीघ्र आकर यह बात मुझे सूचित करनी चाहिये। उसीसे हमलोगोंका कल्याण होगा’ ৷৷ १४ ৷৷(Adi Parva Chapter 37 to 41)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि जरत्कार्वन्वेषणे एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ৷৷ ३९ ৷৷
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें जरत्कारु मुनिका अन्वेषणविषयक उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ৷৷ ३९ ৷৷

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अध्याय चालीस

जरत्कारुकी तपस्या, राजा परीक्षित् का उपाख्यान तथा राजाद्वारा मुनिके कंधेपर मृतक साँप रखनेके कारण दुःखी हुए कृशका शृंगीको उत्तेजित करना

शौनक उवाच
जरत्कारुरिति ख्यातो यस्त्वया सूतनन्दन ।
इच्छामि तदहं श्रोतुं ऋषेस्तस्य महात्मनः ৷৷ १ ৷৷
किं कारणं जरत्कारोर्नामैतत् प्रथितं भुवि ।
जरत्कारुनिरुक्तिं त्वं यथावद् वक्तुमर्हसि ৷৷ २ ৷৷
शौनकजीने पूछा- सूतनन्दन ! आपने जिन जरत्कारु ऋषिका नाम लिया है, उन महात्मा मुनिके सम्बन्धमें मैं यह सुनना चाहता हूँ कि पृथ्वीपर उनका जरत्कारु नाम क्यों प्रसिद्ध हुआ? जरत्कारु शब्दकी व्युत्पत्ति क्या है? यह आप ठीक-ठीक बतानेकी कृपा करें ৷৷ १-२ ৷৷

सौतिरुवाच
जरेति क्षयमाहुर्वे दारुणं कारुसंज्ञितम् ।
शरीरं कारु तस्यासीत्तत् स धीमाञ्छनैः शनैः ৷৷ ३ ৷৷
क्षपयामास तीव्रेण तपसेत्यत उच्यते ।
जरत्कारुरिति ब्रह्मन् वासुकेर्भगिनी तथा ৷৷ ४ ৷৷
उग्रश्रवाजीने कहा- शौनकजी ! जरा कहते हैं क्षयको और कारु शब्द दारुणका वाचक है। पहले उनका शरीर कारु अर्थात् खूब हट्टा-कट्टा था। उसे परम बुद्धिमान् महर्षिने धीरे-धीरे तीव्र तपस्याद्वारा क्षीण बना दिया। ब्रह्मन् ! इसलिये उनका नाम जरत्कारु पड़ा। वासुकिकी बहिनके भी जरत्कारु नाम पड़नेका यही कारण था ৷৷ ३-४ ৷৷

एवमुक्तस्तु धर्मात्मा शौनकः प्राहसत् तदा ।
उग्रश्रवासमामन्त्र्य उपपन्नमिति ब्रुवन् ৷৷ ५ ৷৷
उग्रश्रवाजीके ऐसा कहनेपर धर्मात्मा शौनक उस समय खिलखिलाकर हँस पड़े और फिर उग्रश्रवाजीको सम्बोधित करके बोले- ‘तुम्हारी बात उचित है’ ৷৷ ५ ৷৷

शौनक उवाच
उक्तं नाम यथापूर्व सर्वं तच्छ्रुमतवानहम् ।
यथा तु जातो ह्यास्तीक एतदिच्छामि वेदितुम् ৷৷
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य सौतिः प्रोवाच शास्त्रतः ৷৷ ६ ৷৷
शौनकजी बोले-सूतपुत्र ! आपने पहले जो जरत्कारु नामकी व्युत्पत्ति बतायी है, वह सब मैंने सुन ली। अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि आस्तीक मुनिका जन्म किस प्रकार हुआ? शौनकजीका यह वचन सुनकर उग्रश्रवाजीने पुराणशास्त्रके अनुसार आस्तीकके जन्मका वृत्तान्त बताया ৷৷ ६ ৷৷(Adi Parva Chapter 37 to 41)

सौतिरुवाच
संदिश्य पन्नगान् सर्वान् वासुकिः सुसमाहितः ।
स्वसारमुद्यम्य तदा जरत्कारुमृषिं प्रति ৷৷ ७ ৷৷
उग्रश्रवाजी बोले-नागराज वासुकिने एकाग्रचित्त हो खूब सोच-समझकर सब सर्पोको यह संदेश दे दिया- ‘मुझे अपनी बहिनका विवाह जरत्कारु मुनिके साथ करना है’ ৷৷ ७ ৷৷

अथ कालस्य महतः स मुनिः संशितव्रतः ।
तपस्यभिरतो धीमान् स दारान् नाभ्यकाङ्क्षत ৷৷ ८ ৷৷
तदनन्तर दीर्घकाल बीत जानेपर भी कठोर व्रतका पालन करनेवाले परम बुद्धिमान् जरत्कारु मुनि केवल तपमें ही लगे रहे। उन्होंने स्त्रीसंग्रहकी इच्छा नहीं की ৷৷ ८ ৷৷

स तूवरतास्तपसि प्रसक्तः स्वाध्यायवान् वीतभयः कृतात्मा ।
चचार सर्वां पृथिवीं महात्मा न चापि दारान् मनसाध्यकाङ्क्षत ৷৷ ९ ৷৷
वे ऊध्र्वरता ब्रह्मचारी थे। तपस्यामें संलग्न रहते थे। नित्य नियमपूर्वक वेदोंका स्वाध्याय करते थे। उन्हें कहींसे कोई भय नहीं था। वे मन और इन्द्रियोंको सदा काबूमें रखते थे। महात्मा जरत्कारु सारी पृथ्वीपर घूम आये; किंतु उन्होंने मनसे कभी स्त्रीकी अभिलाषा नहीं की ৷৷ ९ ৷৷

ततोऽपरस्मिन् सम्प्राप्ते काले कस्मिंश्चिदेव तु ।
परिक्षिन्नाम राजासीद् ब्रह्मन् कौरववंशजः ৷৷ १० ৷৷
ब्रह्मन् ! तदनन्तर किसी दूसरे समयमें इस पृथ्वीपर कौरववंशी राजा परीक्षित् राज्य करने लगे ৷৷ १० ৷৷(Adi Parva Chapter 37 to 41)

यथा पाण्डुर्महाबाहुर्धनुर्धरवरो युधि ।
बभूव मृगयाशीलः पुरास्य प्रपितामहः ৷৷ ११ ৷৷
युद्धमें समस्त धनुर्धारियोंमें श्रेष्ठ उनके प्रपितामह महाबाहु पाण्डु जिस प्रकार पूर्वकालमें शिकार खेलनेके शौकीन हुए थे, उसी प्रकार राजा परीक्षित् भी थे ৷৷ ११ ৷৷

मृगान् विध्यन् वराहांश्च तरक्षन् महिषांस्तथा ।
अन्यांश्च विविधान् वन्यांश्चचार पृथिवीपतिः ৷৷ १२ ৷৷
महाराज परीक्षित् वराह, तरक्षु (व्याघ्रविशेष), महिष तथा दूसरे दूसरे नाना प्रकारके वनके हिंसक पशुओंका शिकार खेलते हुए वनमें घूमते रहते थे ৷৷ १२ ৷৷

स कदाचिन्मृगं विद्ध्वा बाणेनानतपर्वणा ।
पृष्ठतो धनुरादाय ससार गहने वने ৷৷ १३ ৷৷
एक दिन उन्होंने गहन वनमें धनुष लेकर झुकी हुई गाँठवाले बाणसे एक हिंसक पशुको बींध डाला और भागनेपर बहुत दूरतक उसका पीछा किया ৷৷ १३ ৷৷

यथैव भगवान् रुद्रो विद्ध्वा यज्ञमृगं दिवि ।
अन्वगच्छद् धनुष्पाणिः पर्यन्वेष्टुमितस्ततः ৷৷ १४ ৷৷
जैसे भगवान् रुद्र आकाशमें मृगशिरा नक्षत्रको बींध कर उसे खोजनेके लिये धनुष हाथमें लिये इधर-उधर घूमते फिरे, उसी प्रकार परीक्षित् भी घूम रहे थे ৷৷ १४ ৷৷

न हि तेन मृगो विद्धो जीवन् गच्छति वै वने ।
पूर्वरूपं तु तत्तूर्ण सोऽगात् स्वर्गगतिं प्रति ৷৷ १५ ৷৷
परिक्षितो नरेन्द्रस्य विद्धो यन्नष्टवान् मृगः ।
दूरं चापहृतस्तेन मृगेण स महीपतिः ৷৷ १६ ৷৷
उनके द्वारा घायल किया हुआ मृग कभी वनमें जीवित बचकर नहीं जाता था; परंतु आज जो महाराज परीक्षित्‌का घायल किया हुआ मृग तत्काल अदृश्य हो गया था, वह वास्तवमें उनके स्वर्गवासका मूर्तिमान् कारण था। उस मृगके साथ राजा परीक्षित् बहुत दूरतक खिंचे चले गये ৷৷ १५-१६ ৷৷

परिश्रान्तः पिपासार्त आससाद मुनिं वने ।
गवां प्रचारेष्वासीनं वत्सानां मुखनिःसृतम् ৷৷ १७ ৷৷
भूयिष्ठमुपयुञ्जानं फेनमापिबतां पयः ।
तमभिद्रुत्य वेगेन स राजा संशितव्रतम् ৷৷ १८ ৷৷
अपृच्छद् धनुरुद्यम्य तं मुनिं क्षुच्छ्रमान्वितः ।
भो भो ब्रह्मन्नहं राजा परीक्षिदभिमन्युजः ৷৷ १९ ৷৷
मया विद्धो मृगो नष्टः कच्चित् तं दृष्टवानसि ।
स मुनिस्तं तु नोवाच किंचिन्मौनव्रते स्थितः ৷৷ २० ৷৷
उन्हें बड़ी थकावट आ गयी। वे प्याससे व्याकुल हो उठे और इसी दशामें वनमें शमीक मुनिके पास आये। वे मुनि गौओंके रहनेके स्थानमें आसनपर बैठे थे और गौओंका दूध पीते समय बछड़ोंके मुखसे जो बहुत-सा फेन निकलता, उसीको खा-पीकर तपस्या करते थे। राजा परीक्षित्ने कठोर व्रतका पालन करनेवाले उन महर्षिके पास बड़े वेगसे आकर पूछा। पूछते समय वे भूख और थकावटसे बहुत आतुर हो रहे थे और धनुषको उन्होंने ऊपर उठा रखा था। वे बोले- ‘ब्रह्मन्! मैं अभिमन्युका पुत्र राजा परीक्षित् हूँ। मेरे बाणोंसे विद्ध होकर एक मृग कहीं भाग निकला है। क्या आपने उसे देखा है?’ मुनि मौन-व्रतका पालन कर रहे थे, अतः उन्होंने राजाको कुछ भी उत्तर नहीं दिया ৷৷ १७-२० ৷৷

तस्य स्कन्धे मृतं सर्प क्रुद्धो राजा समासजत् ।
समुत्क्षिप्य धनुष्कोट्या स चैनं समुपेक्षत ৷৷ २१ ৷৷
तब राजाने कुपित हो धनुषकी नोकसे एक मरे हुए साँपको उठाकर उनके कंधेपर रख दिया, तो भी मुनिने उनकी उपेक्षा कर दी ৷৷ २१ ৷৷

न स किंचिदुवाचैनं शुभं वा यदि वाशुभम् ।
स राजा क्रोधमुत्सृज्य व्यथितस्तं तथागतम् ।
दृष्ट्वा जगाम नगरमृषिस्त्वासीत् तथैव सः ৷৷ २२ ৷৷
उन्होंने राजासे भला या बुरा कुछ भी नहीं कहा। उन्हें इस अवस्थामें देख राजा परीक्षित्ने क्रोध त्याग दिया और मन-ही-मन व्यथित हो पश्चात्ताप करते हुए वे अपनी राजधानीको चले गये। वे महर्षि ज्यों-के-त्यों बैठे रहे ৷৷ २२ ৷৷

न हि तं राजशार्दूलं क्षमाशीलो महामुनिः ।
स्वधर्मनिरतं भूपं समाक्षिप्तोऽप्यधर्षयत् ৷৷ २३ ৷৷
राजाओंमें श्रेष्ठ भूपाल परीक्षित् अपने धर्मके पालनमें तत्पर रहते थे, अतः उस समय उनके द्वारा तिरस्कृत होनेपर भी क्षमाशील महामुनिने उन्हें अपमानित नहीं किया ৷৷ २३ ৷৷

न हि तं राजशार्दूलस्तथा धर्मपरायणम् ।
जानाति भरतश्रेष्ठस्तत एनमधर्षयत् ৷৷ २४ ৷৷
भरतवंशशिरोमणि नृपश्रेष्ठ परीक्षित् उन धर्मपरायण मुनिको यथार्थरूपमें नहीं जानते थे; इसीलिये उन्होंने महर्षिका अपमान किया ৷৷ २४ ৷৷(Adi Parva Chapter 37 to 41)

तरुणस्तस्य पुत्रोऽभूत् तिग्मतेजा महातपाः ।
शृङ्गी नाम महाक्रोधो दुष्प्रसादो महाव्रतः ৷৷ २५ ৷৷
मुनिके शृंगी नामक एक पुत्र था, जिसकी अभी तरुणावस्था थी। वह महान् तपस्वी, दुःसह तेजसे सम्पन्न और महान् व्रतधारी था। उसमें क्रोधकी मात्रा बहुत अधिक थी; अतः उसे प्रसन्न करना अत्यन्त कठिन था ৷৷ २५ ৷৷

स देवं परमासीनं सर्वभूतहिते रतम् ।
ब्रह्माणमुपतस्थे वै काले काले सुसंयतः ৷৷ २६ ৷৷
वह समय-समयपर मन और इन्द्रियोंको संयममें रखकर सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें तत्पर रहनेवाले, उत्तम आसनपर विराजमान आचार्यदेवकी सेवामें उपस्थित हुआ करता था ৷৷ २६ ৷৷

स तेन समनुज्ञातो ब्रह्मणा गृहमेयिवान् ।
सख्योक्तः क्रीडमानेन स तत्र हसता किल ৷৷ २७ ৷৷
संरम्भात् कोपनोऽतीव विषकल्पो मुनेः सुतः ।
उद्दिश्य पितरं तस्य यच्छ्रुत्वा रोषमाहरत् ।
ऋषिपुत्रेण धर्मार्थे कृशेन द्विजसत्तम ৷৷ २८ ৷৷
शृंगी उस दिन आचार्यकी आज्ञा लेकर घरको लौट रहा था। रास्तेमें उसका मित्र ऋषिकुमार कृश, जो धर्मके लिये कष्ट उठानेके कारण सदा ही कृश (दुर्बल) रहा करता था, खेलता मिला। उसने हँसते-हँसते शृंगी ऋषिको उसके पिताके सम्बन्धमें ऐसी बात बतायी, जिसे सुनते ही वह रोषमें भर गया। द्विजश्रेष्ठ! मुनिकुमार शृंगी क्रोधके आवेशमें आनेपर अत्यन्त तीक्ष्ण (कठोर) एवं विषके समान विनाशकारी हो जाता था ৷৷ २७-२८ ৷৷

कृश उवाच
तेजस्विनस्तव पिता तथैव च तपस्विनः ।
शवं स्कन्धेन वहति मा शृंगिन् गर्वितो भव ৷৷ २९ ৷৷
कृशने कहा- शृंगिन् ! तुम बड़े तपस्वी और तेजस्वी बनते हो, किंतु तुम्हारे पिता अपने कंधेपर मुर्दा सर्प ढो रहे हैं। अब कभी अपनी तपस्यापर गर्व न करना ৷৷ २९ ৷৷

व्याहरत्स्वृषिपुत्रेषु मा स्म किंचिद् वचो वद ।
अस्मद्विधेषु सिद्धेषु ब्रह्मवित्सु तपस्विषु ৷৷ ३० ৷৷
हम-जैसे सिद्ध, ब्रह्मवेत्ता तथा तपस्वी ऋषिपुत्र जब कभी बातें करते हों, उस समय तुम वहाँ कुछ न बोलना ৷৷ ३० ৷৷

क्व ते पुरुषमानित्वं क्व ते वाचस्तथाविधाः ।
दर्पजाः पितरं द्रष्टा यस्त्वं शवधरं तथा ৷৷ ३१ ৷৷
कहाँ है तुम्हारा पौरुषका अभिमान, कहाँ गयीं तुम्हारी वे दर्पभरी बातें? जब तुम अपने पिताको मुर्दा ढोते चुपचाप देख रहे हो ! ৷৷ ३१ ৷৷

पित्रा च तव तत् कर्म नानुरूपमिवात्मनः ।
कृतं मुनिजनश्रेष्ठ येनाहं भृशदुःखितः ৷৷ ३२ ৷৷
मुनिजनशिरोमणे ! तुम्हारे पिताके द्वारा कोई अनुचित कर्म नहीं बना था; इसलिये जैसे मेरे ही पिताका अपमान हुआ हो उस प्रकार तुम्हारे पिताके तिरस्कारसे में अत्यन्त दुःखी हो रहा हूँ ৷৷ ३२ ৷৷

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि परिक्षिदुपाख्याने चत्वारिंशोऽध्यायः ৷৷ ४० ৷৷
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें परीक्षित्-उपाख्यानविषयक चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ৷৷ ४० ৷৷

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इकतालीस अध्याय

शृंगी ऋषिका राजा परीक्षित् को शाप देना और शमीकका अपने पुत्रको शान्त करते हुए शापको अनुचित बताना

सौतिरुवाच
एवमुक्तः स तेजस्वी शृङ्गी कोपसमन्वितः ।
मृतधारं गुरुं श्रुत्वा पर्यतप्यत मन्युना ৷৷ १ ৷৷
उग्रश्रवाजी कहते हैं- शौनकजी! कृशके ऐसा कहनेपर तेजस्वी शृंगी ऋषिको बड़ा क्रोध हुआ। अपने पिताके कंधेपर मृतक (सर्प) रखे जानेकी बात सुनकर वह रोष और शोकसे संतप्त हो उठा ৷৷ १ ৷৷

स तं कृशमभिप्रेक्ष्य सूनृतां वाचमुत्सृजन् ।
अपृच्छत् तं कथं तातः स मेऽद्य मृतधारकः ৷৷ २ ৷৷
उसने कृशकी ओर देखकर मधुर वाणीमें पूछा- ‘भैया ! बताओ तो, आज मेरे पिता अपने कंधेपर मृतक कैसे धारण कर रहे हैं?’ ৷৷ २ ৷৷

कृश उवाच
राज्ञा परिक्षिता तात मृगयां परिधावता ।
अवसक्तः पितुस्तेऽद्य मृतः स्कन्धे भुजङ्गमः ৷৷ ३ ৷৷
कृशने कहा-तात ! आज राजा परीक्षित् अपने शिकारके पीछे दौड़ते हुए आये थे। उन्होंने तुम्हारे पिताके कंधेपर मृतक साँप रख दिया है ৷৷ ३ ৷৷

शृंग्युवाच
किं मे पित्रा कृतं तस्य राज्ञोऽनिष्टं दुरात्मनः ।
ब्रूहि तत् कृश तत्त्वेन पश्य मे तपसो बलम् ৷৷ ४ ৷৷
शृंगी बोला-कृश ! ठीक-ठीक बताओ, मेरे पिताने उस दुरात्मा राजाका क्या अपराध किया था? फिर मेरी तपस्याका बल देखना ৷৷ ४ ৷৷(Adi Parva Chapter 37 to 41)

कृश उवाच
स राजा मृगयां यातः परिक्षिदभिमन्युजः ।
ससार मृगमेकाकी विद्ध्वा बाणेन शीघ्रगम् ৷৷ ५ ৷৷
न चापश्यन्मृगं राजा चरंस्तस्मिन् महावने ।
पितरं ते स दृष्ट्वैव पप्रच्छानभिभाषिणम् ৷৷ ६ ৷৷
कृशने कहा-अभिमन्युपुत्र राजा परीक्षित् अकेले शिकार खेलने आये थे। उन्होंने एक शीघ्रगामी हिंसक मृग (पशु) को बाणसे बींध डाला; किंतु उस विशाल वनमें विचरते हुए राजाको वह मृग कहीं दिखायी न दिया। फिर उन्होंने तुम्हारे मौनी पिताको देखकर उसके विषयमें पूछा ৷৷ ५-६ ৷৷

तं स्थाणुभूतं तिष्ठन्तं क्षुत्पिपासाश्रमातुरः ।
पुनः पुनर्मृगं नष्टं पप्रच्छ पितरं तव ৷৷ ७ ৷৷
स च मौनव्रतोपेतो नैव तं प्रत्यभाषत ।
तस्य राजा धनुष्कोट्या सर्प स्कन्धे समासजत् ৷৷ ८ ৷৷
राजा भूख-प्यास और थकावटसे व्याकुल थे। इधर तुम्हारे पिता काठकी भाँति अविचल भावसे बैठे थे। राजाने बार-बार तुम्हारे पितासे उस भागे हुए मृगके विषयमें प्रश्न किया, परंतु मौन-व्रतावलम्बी होनेके कारण उन्होंने कुछ उत्तर नहीं दिया। तब राजाने धनुषकी नोकसे एक मरा हुआ साँप उठाकर उनके कंधेपर डाल दिया ৷৷ ७-८ ৷৷

शृङ्गिस्तव पिता सोऽपि तथैवास्ते यतव्रतः ।
सोऽपि राजा स्वनगरं प्रस्थितो गजसाह्वयम् ৷৷ ९ ৷৷
शृंगिन् ! संयमपूर्वक व्रतका पालन करनेवाले तुम्हारे पिता अभी उसी अवस्थामें बैठे हैं और वे राजा परीक्षित् अपनी राजधानी हस्तिनापुरको चले गये हैं ৷৷ ९ ৷৷

सौतिरुवाच
श्रुत्वैवमृषिपुत्रस्तु शवं कन्धे प्रतिष्ठितम् ।
कोपसंरक्तनयनः प्रज्वलन्निव मन्युना ৷৷ १० ৷৷
उग्रश्रवाजी कहते हैं- शौनकजी! इस प्रकार अपने पिताके कंधेपर मृतक सर्पके रखे जानेका समाचार सुनकर ऋषिकुमार शृंगी क्रोधसे जल उठा। कोपसे उसकी आँखें लाल हो गयीं ৷৷ १० ৷৷

आविष्टः स हि कोपेन शशाप नृपतिं तदा ।
वार्युपस्पृश्य तेजस्वी क्रोधवेगबलात्कृतः ৷৷ ११ ৷৷
वह तेजस्वी बालक रोषके आवेशमें आकर प्रचण्ड क्रोधके वेगसे युक्त हो गया था। उसने जलसे आचमन करके हाथमें जल लेकर उस समय राजा परीक्षित्को इस प्रकार शाप दिया ৷৷ ११ ৷৷

शृंग्युवाच
योऽसौ वृद्धस्य तातस्य तथा कृच्छ्रगतस्य ह ।
स्कन्धे मृतं समास्राक्षीत् पन्नगं राजकिल्बिषी ৷৷ १२ ৷৷
तं पापमतिसंक्रुद्धस्तक्षकः पन्नगेश्वरः ।
आशीविषस्तिग्मतेजा मद्वाक्यबलचोदितः ৷৷ १३ ৷৷
सप्तरात्रादितो नेता यमस्य सदनं प्रति ।
द्विजानामवमन्तारं कुरूणामयशस्करम् ৷৷ १४ ৷৷
शृंगी बोला-जिस पापात्मा नरेशने वैसे धर्म-संकटमें पड़े हुए मेरे बूढ़े पिताके कंधेपर मरा साँप रख दिया है, ब्राह्मणोंका अपमान करनेवाले उस कुरुकुलकलंक पापी परीक्षित्को आजसे सात रातके बाद प्रचण्ड तेजस्वी पन्नगोत्तम तक्षक नामक विषैला नाग अत्यन्त कोपमें भरकर मेरे वाक्यबलसे प्रेरित हो यमलोक पहुँचा देगा ৷৷ १२-१४ ৷৷

सौतिरुवाच
इति शप्त्वातिसंक्रुद्धः शृंगी पितरमभ्यगात् ।
आसीनं गोव्रजे तस्मिन् वहन्तं शवपन्नगम् ৷৷ १५ ৷৷
उग्रश्रवाजी कहते हैं- इस प्रकार अत्यन्त क्रोधपूर्वक शाप देकर शृंगी अपने पिताके पास आया, जो उस गोष्ठमें कंधेपर मृतक सर्प धारण किये बैठे थे ৷৷ १५ ৷৷

स तमालक्ष्य पितरं शृङ्गी स्कन्धगतेन वै ।
शवेन भुजगेनासीद् भूयः क्रोधसमाकुलः ৷৷ १६ ৷৷
कंधेपर रखे हुए मुर्दे साँपसे संयुक्त पिताको देखकर शृंगी पुनः क्रोधसे व्याकुल हो उठा ৷৷ १६ ৷৷(Adi Parva Chapter 37 to 41)

दुःखाच्चाश्रूणि मुमुचे पितरं चेदमब्रवीत् ।
श्रुत्वेमां धर्षणां तात तव तेन दुरात्मना ৷৷ १७ ৷৷
राज्ञा परिक्षिता कोपादशपं तमहं नृपम् ।
यथार्हति स एवोग्रं शापं कुरुकुलाधमः ।
सप्तमेऽहनि तं पापं तक्षकः पन्नगोत्तमः ৷৷ १८ ৷৷
वैवस्वतस्य सदनं नेता परमदारुणम् ।
तमब्रवीत् पिता ब्रह्मस्तथा कोपसमन्वितम् ৷৷ १९ ৷৷
वह दुःखसे आँसू बहाने लगा। उसने पितासे कहा- ‘तात! उस दुरात्मा राजा परीक्षित्के द्वारा आपके इस अपमानकी बात सुनकर मैंने उसे क्रोधपूर्वक जैसा शाप दिया है, वह कुरुकुलाधम वैसे ही भयंकर शापके योग्य है। आजके सातवें दिन नागराज तक्षक उस पापीको अत्यन्त भयंकर यमलोकमें पहुँचा देगा।’ ब्रह्मन् ! इस प्रकार क्रोधमें भरे हुए पुत्रसे उसके पिता शमीकने कहा ৷৷ १७-१९ ৷৷

शमीक उवाच
न मे प्रियं कृतं तात नैष धर्मस्तपस्विनाम् ।
वयं तस्य नरेन्द्रस्य विषये निवसामहे ৷৷ २० ৷৷
न्यायतो रक्षितास्तेन तस्य शापं न रोचये ।
सर्वथा वर्तमानस्य राज्ञो ह्यस्मद्विधैः सदा ৷৷ २१ ৷৷
क्षन्तव्यं पुत्र धर्मो हि हतो हन्ति न संशयः ।
यदि राजा न संरक्षेत् पीडा नः परमा भवेत् ৷৷ २२ ৷৷
शमीक बोले- वत्स ! तुमने शाप देकर मेरा प्रिय कार्य नहीं किया है। यह तपस्वियोंका धर्म नहीं है। हमलोग उन महाराज परीक्षित्के राज्यमें निवास करते हैं और उनके द्वारा न्यायपूर्वक हमारी रक्षा होती है। अतः उनको शाप देना मुझे पसंद नहीं है। हमारे-जैसे साधु पुरुषोंको तो वर्तमान राजा परीक्षित्के अपराधको सब प्रकारसे क्षमा ही करना चाहिये। बेटा! यदि धर्मको नष्ट किया जाय तो वह मनुष्यका नाश कर देता है, इसमें संशय नहीं है। यदि राजा रक्षा न करे तो हमें भारी कष्ट पहुँच सकता है ৷৷ २०-२२ ৷৷

न शक्नुयाम चरितुं धर्म पुत्र यथासुखम् ।
रक्ष्यमाणा वयं तात राजभिर्धर्मदृष्टिभिः ৷৷ २३ ৷৷
चरामो विपुलं धर्म तेषां भागोऽस्ति धर्मतः ।
सर्वथा वर्तमानस्य राज्ञः क्षन्तव्यमेव हि ৷৷ २४ ৷৷
पुत्र ! हम राजाके बिना सुखपूर्वक धर्मका अनुष्ठान नहीं कर सकते। तात! धर्मपर दृष्टि रखनेवाले राजाओंके द्वारा सुरक्षित होकर हम अधिक-से-अधिक धर्मका आचरण कर पाते हैं। अतः हमारे पुण्यकर्मोंमें धर्मतः उनका भी भाग है। इसलिये वर्तमान राजा परीक्षित्के अपराधको तो क्षमा ही कर देना चाहिये ৷৷ २३-२४ ৷৷

परिक्षित्तु विशेषेण यथास्य प्रपितामहः ।
रक्षत्यस्मांस्तथा राज्ञा रक्षितव्याः प्रजा विभो ৷৷ २५ ৷৷
हैं। परीक्षित् तो विशेषरूपसे अपने प्रपितामह युधिष्ठिर आदिकी भाँति हमारी रक्षा करते शक्तिशाली पुत्र ! प्रत्येक राजाको इसी प्रकार प्रजाकी रक्षा करनी चाहिये ৷৷ २५ ৷৷

तेनेह क्षुधितेनाद्य श्रान्तेन च तपस्विना ।
अजानता कृतं मन्ये व्रतमेतदिदं मम ৷৷ २६ ৷৷
वे आज भूखे और थके-माँदे यहाँ आये थे। वे तपस्वी नरेश मेरे इस मौन-व्रतको नहीं जानते थे; मैं समझता हूँ इसीलिये उन्होंने मेरे साथ ऐसा बर्ताव कर दिया ৷৷ २६ ৷৷

अराजके जनपदे दोषा जायन्ति वै सदा ।
उद्धृत्तं सततं लोकं राजा दण्डेन शास्ति वै ৷৷ २७ ৷৷
जिस देशमें राजा न हो वहाँ अनेक प्रकारके दोष (चोर आदिके भय) पैदा होते हैं। धर्मकी मर्यादा त्यागकर उच्छृंखल बने हुए लोगोंको राजा अपने दण्डके द्वारा शिक्षा देता है ৷৷ २७ ৷৷

दण्डात् प्रतिभयं भूयः शान्तिरुत्पद्यते तदा ।
नोद्विग्नश्चरते धर्म नोद्विग्नश्चरते क्रियाम् ৷৷ २८ ৷৷
दण्डसे भय होता है, फिर भयसे तत्काल शान्ति स्थापित होती है। जो चोर आदिके भयसे उद्विग्न है, वह धर्मका अनुष्ठान नहीं कर सकता। वह उद्विग्न पुरुष यज्ञ, श्राद्ध आदि शास्त्रीय कर्मोंका आचरण भी नहीं कर सकता ৷৷ २८ ৷৷

राज्ञा प्रतिष्ठितो धर्मो धर्मात् स्वर्गः प्रतिष्ठितः ।
राज्ञो यज्ञक्रियाः सर्वा यज्ञाद् देवाः प्रतिष्ठिताः ৷৷ २९ ৷৷
राजासे धर्मकी स्थापना होती है और धर्मसे स्वर्गलोककी प्रतिष्ठा (प्राप्ति) होती है। राजासे सम्पूर्ण यज्ञकर्म प्रतिष्ठित होते हैं और यज्ञसे देवताओंकी प्रतिष्ठा होती है ৷৷ २९ ৷৷

देवाद् वृष्टिः प्रवर्तेत वृष्टेरोषधयः स्मृताः ।
ओषधिभ्यो मनुष्याणां धारयन् सततं हितम् ৷৷ ३० ৷৷
मनुष्याणां च यो धाता राजा राज्यकरः पुनः ।
दशश्रोत्रियसमो राजा इत्येवं मनुरब्रवीत् ৷৷ ३१ ৷৷
देवताके प्रसन्न होनेसे वर्षा होती है, वर्षासे अन्न पैदा होता है और अन्नसे निरन्तर मनुष्योंके हितका पोषण करते हुए राज्यका पालन करनेवाला राजा मनुष्योंके लिये विधाता (धारण-पोषण करनेवाला) है। राजा दस श्रोत्रियके समान है, ऐसा मनुजीने कहा है ৷৷ ३०-३१ ৷৷

तेनेह क्षुधितेनाद्य श्रान्तेन च तपस्विना ।
अजानता कृतं मन्ये व्रतमेतदिदं मम ৷৷ ३२ ৷৷
वे तपस्वी राजा यहाँ भूखे-प्यासे और थके-मॉदे आये थे। उन्हें मेरे इस मौन-व्रतका पता नहीं था, इसलिये मेरे न बोलनेसे रुष्ट होकर उन्होंने ऐसा किया है ৷৷ ३२ ৷৷

कस्मादिदं त्वया बाल्यात् सहसा दुष्कृतं कृतम् ।
न ह्यर्हति नृपः शापमस्मत्तः पुत्र सर्वथा ৷৷ ३३ ৷৷
तुमने मूर्खतावश बिना विचारे क्यों यह दुष्कर्म कर डाला? बेटा! राजा हमलोगोंसे शाप पानेके योग्य नहीं हैं ৷৷ ३३ ৷৷(Adi Parva Chapter 37 to 41)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि परिक्षिच्छापे एकचत्वारिंशोऽध्यायः ৷৷ ४१ ৷৷
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें परीक्षित्-शापविषयक इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ৷৷ ४१ ৷৷

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