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Nirvana Shatakam

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Nirvana Shatakam

छः श्लोकों में आत्मा, मोक्ष और शिवत्व का रहस्य

निर्वाण षट्कम् (Nirvana Shatakam), जिसे आत्म षट्कम् भी कहा जाता है, आदि शंकराचार्य द्वारा रचित एक गहन दार्शनिक स्तोत्र है। इसमें आत्मा की सर्वोच्च स्थिति — निर्वाण या आत्म-साक्षात्कार — का सुंदर वर्णन किया गया है। “षट्कम्” का अर्थ है ‘छः श्लोकों का समूह’। इन छह श्लोकों में आत्मा को शरीर, मन, इंद्रियाँ, अहंकार, धर्म, पाप, जाति, परिवार, सुख-दुख, यहाँ तक कि मुक्ति जैसी सभी सांसारिक और आध्यात्मिक पहचान से परे बताया गया है।

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निर्वाण षट्कम् का मूल भाव यह है कि हमारी सच्ची पहचान शरीर, मन, बुद्धि, अहंकार या सामाजिक भूमिका नहीं है, बल्कि शुद्ध आत्मा (चैतन्य) है, जो सर्वत्र व्याप्त, निराकार, नित्य, और आनंदस्वरूप है। हमारी सच्ची पहचान शरीर, मन, इंद्रियों, या व्यक्तित्व से नहीं है, बल्कि हम शुद्ध चेतना हैं — जो न जन्म लेती है, न मरती है, न बंधन में बंधती है, और न ही मुक्ति की आकांक्षा करती है।

मैं शरीर नहीं हूँ — शरीर नश्वर है, लेकिन आत्मा शाश्वत है।
मैं मन, बुद्धि, अहंकार नहीं हूँ — ये सभी परिवर्तनशील हैं, लेकिन आत्मा अचल है।
मैं न कोई भाव, न वासना, न कर्म का फल हूँ — आत्मा कर्मों से परे है।
मैं किसी जाति, धर्म, रिश्ते या सामाजिक भूमिका से नहीं जुड़ा हूँ — आत्मा सार्वभौमिक है।
मैं ही शिव हूँ — शिव का अर्थ यहाँ ‘चैतन्य’, ‘शुद्ध सत्ता’, ‘शांति’ और ‘आनंद’ है।

यह रचना आत्मबोध का एक शक्तिशाली साधन है, जो अहंकार को भंग कर व्यक्ति को उसके शुद्ध अस्तित्व से परिचित कराती है।

निर्वाण षट्कम् (Nirvana Shatakam) की रचना का श्रेय भारत के महान अद्वैत वेदांताचार्य आदि शंकराचार्य (Adi Shankaracharya, 8वीं शताब्दी) को दिया जाता है। यह रचना उनके जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना से जुड़ी हुई है। जब आदि शंकराचार्य मात्र आठ वर्ष के थे, वे ज्ञान की खोज में घर छोड़कर हिमालय की ओर चल पड़े। वहाँ उन्हें महान योगी गुरु गोविंदपादाचार्य मिले, जो शंकर के परमगुरु गौड़पादाचार्य के शिष्य थे।

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जब गुरु गोविंदपाद ने शंकर से पूछा तुम कौन हो? तब शंकर ने शरीर, नाम, रूप, जाति आदि से इतर अपनी सच्ची आत्म-परिचय देते हुए छह श्लोकों में उत्तर दिया — जो आज “निर्वाण षट्कम्” के नाम से जाना जाता है। शंकराचार्य ने अद्वैत वेदांत का प्रचार करते हुए बताया कि आत्मा और ब्रह्म अलग नहीं, एक ही हैं।

निर्वाण षट्कम् (Nirvana Shatakam) इसी ज्ञान की सशक्त प्रस्तुति है — निराकार, निर्विकार, निरंजन आत्मा ही शिव है। निर्वाण षट्कम् आत्मा की उस स्थिति की घोषणा है जो शरीर, मन और संसार से परे है। यह हमें याद दिलाता है कि हमारी सच्ची पहचान सीमित नाम-रूप नहीं, बल्कि असीम और अनंत शिवस्वरूप आत्मा है।

 

Nirvana Shatakam । निर्वाण षटकम

मनोबुद्ध्यहंकार चित्तानि नाहं
न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे ।
न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥ 1 ॥

अर्थ: मैं न तो मन हूं, न बुद्धि, न अहंकार, न ही चित्त हूं। मैं न तो कान हूं, न जीभ, न नासिका, न ही नेत्र हूं। मैं न तो आकाश हूं, न धरती, न अग्नि, न ही वायु हूं। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।

न च प्राणसंज्ञो न वै पंचवायुः,
न वा सप्तधातुः न वा पञ्चकोशः ।
न वाक्पाणिपादौ न चोपस्थपायु,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥ 2 ॥

अर्थ: मैं न प्राण हूं, न ही पंच वायु हूं। मैं न सात धातु हूं, और न ही पांच कोश हूं। मैं न वाणी हूं, न हाथ हूं, न पैर, न ही उत्‍सर्जन की इन्द्रियां हूं। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।

न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ,
मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः ।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षः,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥ 3 ॥

अर्थ: न मुझे घृणा है, न लगाव है, न मुझे लोभ है, और न मोह। न मुझे अभिमान है, न ईर्ष्या। मैं धर्म, धन, काम एवं मोक्ष से परे हूं। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।

न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं,
न मन्त्रो न तीर्थो न वेदा न यज्ञ ।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥ 4 ॥

अर्थ: मैं पुण्य, पाप, सुख और दुख से विलग हूं। मैं न मंत्र हूं, न तीर्थ, न ज्ञान, न ही यज्ञ। न मैं भोजन(भोगने की वस्‍तु) हूं, न ही भोग का अनुभव, और न ही भोक्ता हूं। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।

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न मे मृत्युशंका न मे जातिभेदः,
पिता नैव मे नैव माता न जन्मः ।
न बन्धुर्न मित्रं गुरूर्नैव शिष्यः,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥ 5 ॥

अर्थ: न मुझे मृत्यु का डर है, न जाति का भेदभाव। मेरा न कोई पिता है, न माता, न ही मैं कभी जन्मा था मेरा न कोई भाई है, न मित्र, न गुरू, न शिष्य,। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं।

अहं निर्विकल्पो निराकार रूपो,
विभुत्वाच सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम् ।
न चासङ्गतं नैव मुक्तिर्न मेयः,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥ 6 ॥

अर्थ: मैं निर्विकल्प हूं, निराकार हूं। मैं चैतन्‍य के रूप में सब जगह व्‍याप्‍त हूं, सभी इन्द्रियों में हूं। न मुझे किसी चीज में आसक्ति है, न ही मैं उससे मुक्त हूं,। मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि‍, अनंत शिव हूं।

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