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न्यायशास्त्र हिंदी में

महर्षि गौतम के द्वारा न्यायशास्त्र (Nyaya Shastra in Hindi) की रचना की गयी है, तत्वज्ञान का जो साधन होता है, वह शास्त्र नाम से कहा हुआ है । छः भारतीय शास्त्रों में न्यायशास्त्र का अपना विशिष्ट स्थान रखता है। महर्षि गौतम का एक अपर नाम अक्षपाद भी है। शोध पत्र में महर्षि गौतम के द्वारा न्यायशास्त्र की रचना का संक्षिप्त वर्णन करने का मौलिक प्रयास है। इस शास्त्र में प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन आदि षोडश पदार्थों को स्वीकार किया गया है, और इन पदार्थों के यथार्थ ज्ञान से निःश्रेयसाधिगम अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है।

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न्यायशास्त्र (Nyaya Shastra in Hindi) में सोलह पदार्थ हैं और जिनका ज्ञान मोक्ष – लाभ के लिए अनुकूल है। और वे पदार्थ हैं- प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रह स्थान। इन पदार्थों के तत्व ज्ञान से मोक्ष का लाभ होता है। तथा सूत्र है, ” प्रमाण- प्रमेय – संशय-प्रयोजन- – दृष्टान्त – सिद्धान्त- अवयव – तर्क निर्णय-वाद – जप्ल – वितण्डा- हेत्वाभास-छल-जपति-निग्रह स्थानानां तत्वज्ञानान्नि श्रेयसाधिगम् । “ इन पदार्थों को छोड़कर वाच्यता, अवच्छेदकता इत्यादि अनन्त पदार्थ न्याय में प्रतिपादित और व्यवहृत है। अतः स्वीकार किये जाते हैं। अतः नैयायिक अनियत पदार्थवादी हैं।

महर्षि गौतम के विषय में यहाँ उल्लेख करना योग्य है कि वे शास्त्रों के स्मरण में निरन्तर मग्न रहते थे, बाहरी दुनिया में रहते हुए भी ये दुनिया से तटस्थ रहते थे, एक बार अपने विचार में मग्न होकर चले जा रहे थे और अचानक एक जल विहीन कुआँ में गिर पड़े, वहाँ भी महर्षि गौतम शास्त्र का चिन्तन अविरत चलता रहा। अचानक से इनको वहाँ किसी व्यक्ति ने प्रभु प्रेरणा से कुए से निकाला और इस्वर कृपा से इनको ये आशीर्वाद प्राप्त हुआ कि अब इन महर्षि के चरणों में शास्त्र शक्ति आ गयी जिसके गुण से अक्षपाद विश्रुत हो गया ।

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न्याय शब्द का अर्थ “प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्याय:” अर्थात् प्रमाणों के द्वारा अर्थ की परीक्षा को न्याय कहते है, न्यायशास्त्र (Nyaya Shastra in Hindi) को तर्कशास्त्र के नाम से भी जानते है। ‘न्याय’ शब्द से उन वाक्यों के समुदाय को भी कहा जाता है जो अन्य पुरुष को अनुमान के माध्यम से किसी विषय का बोध कराने के उद्देश्य से प्रयुक्त किये जाते हैं । वात्स्यायन ने उसे ‘परमन्याय’ कह कर वाद, जल्प, वितण्डारूप विचारों का मूल एवं तत्त्वनिर्णय का आधार बताया है।

प्राचीन न्याय में प्रमेयों का प्राधान्य होता है। भाषा सरल और सुबोध है। यहाँ विषय के प्रतिपादन का कौशल स्थूल है। प्राचीन न्याय का प्रधान प्रतिपक्ष बौद्ध सम्प्रदाय है। नव्य न्याय में प्रमाणों का प्राधान्य दिखता है। वैसे ही नव्य न्याय के प्रामाणिक ग्रन्थ तत्वचिन्तामणि में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द चार खण्ड होते हैं। यहाँ प्रकारता, विशेष्यता, प्रतियोगिता, अनुयोगिता, अवच्छेदकता इत्यादि पारिभाषिक पदों के प्रयोग के बाहुल्य से भाषा का काठिन्य होता है। यहाँ विषय प्रतिपादन कौशल सूक्ष्म है । भा-सर्वज्ञ कृत न्यायसार को अवलम्बित करके मध्य न्याय का आरम्भ होता है। मध्य न्याय में वैशेषिक सिद्धान्त न्याय शास्त्र के परिपूरक सिद्धान्त के रूप में गृहीत नहीं है। मध्य न्याय का मुख्य प्रतिपक्ष बौद्ध सम्प्रदाय और जैन सम्प्रदाय हैं।

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