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पराशर स्मृति हिंदी में

हिंदू धर्म के विशाल ग्रंथों में “स्मृति” का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। स्मृति-ग्रंथ वे हैं जो वेदों के सिद्धांतों को समाज के व्यवहारिक जीवन में लागू करने की दिशा बताते हैं।
इन ग्रंथों में धर्म, नीति, आचार-विचार, सामाजिक नियम, विवाह, शिक्षा, दान, प्रायश्चित्त और न्याय – जीवन के हर पहलू का समावेश होता है। महर्षि पराशर द्वारा रचित “पराशर स्मृति” (Parashara Smriti in Hindi) इन्हीं स्मृतियों में सबसे अधिक विशिष्ट मानी जाती है।

यह स्मृति विशेष रूप से कलियुग के धर्म और आचार के लिए रची गई है। जहाँ मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति या नारद स्मृति जैसे ग्रंथ अन्य युगों (सत्य, त्रेता और द्वापर) के धर्म बताते हैं, वहीं पराशर स्मृति कलियुग के मनुष्यों को यह सिखाती है कि कठिन परिस्थितियों में भी धर्म का पालन किस प्रकार किया जाए।

महर्षि पराशर ने कहा था —
“कलो पाराशराः स्मृताः”
अर्थात्‌: कलियुग में धर्म के लिए पराशर स्मृति ही प्रमाण मानी जाएगी।
इस ग्रंथ का उद्देश्य केवल धार्मिक सिद्धांतों को दोहराना नहीं था, बल्कि धर्म को समय और समाज के अनुसार व्यावहारिक रूप देना था।

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महर्षि पराशर की यह स्मृति (Parashara Smriti in Hindi) कुल बारह अध्यायों और लगभग पाँच सौ बानवे (592) श्लोकों में विभाजित है। इस ग्रंथ में समाज, धर्म और आचार से जुड़े नियमों को क्रमबद्ध और सुगम भाषा में प्रस्तुत किया गया है। मुख्य रूप से इसमें दो प्रमुख विषयों पर गहन चर्चा की गई है।

आचार:
इसमें व्यक्ति के जीवन के दैनिक कर्तव्य, शुचिता (शुद्धता), ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र — इन चार वर्णों के आचरण, गृहस्थ के दायित्व, अतिथि-सत्कार, दान, व्रत, यज्ञ, स्नान, जप, पूजा आदि के नियम बताए गए हैं। इसका उद्देश्य यह समझाना है कि धर्म केवल पूजा में नहीं, बल्कि सदाचार और व्यवहार में बसता है।

प्रायश्चित्त:
यह भाग उन स्थितियों का वर्णन करता है जब मनुष्य गलती, पाप या अधर्म कर बैठता है। महर्षि पराशर बताते हैं कि ऐसे समय में व्यक्ति को शुद्धि और आत्मशांति के लिए कौन-से प्रायश्चित्त करने चाहिए। उन्होंने कर्म के दोष से मुक्ति के अनेक उपाय बताए हैं, जैसे – उपवास, दान, जप, प्रार्थना और आत्मसंयम।

महर्षि पराशर ने इस ग्रंथ को पूरी तरह कलियुग की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर तैयार किया है। इसलिए उन्होंने आचार-विचार को सरल, मानवोचित और समयानुकूल बनाया, ताकि धर्म पालन हर व्यक्ति के लिए संभव रहे।

महर्षि पराशर का उद्देश्य केवल धार्मिक ग्रंथ लिखना नहीं था, बल्कि उन्होंने इस स्मृति के माध्यम से मानव जीवन को धर्म के अनुरूप व्यवस्थित करने का प्रयास किया।
जब कलियुग का आरंभ हुआ, तब समाज में धार्मिक अनुशासन, सत्य, दया, संयम और आचार का पतन होने लगा।

लोगों में वेदों और प्राचीन धर्मशास्त्रों को समझने और पालन करने की क्षमता कम हो गई थी। इसी स्थिति को देखकर महर्षि पराशर ने इस स्मृति की रचना की, ताकि कलियुग के लोगों के लिए धर्म का सरल, व्यवहारिक और युगानुकूल रूप प्रस्तुत किया जा सके।

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महर्षि पराशर ने इस स्मृति को लिखकर यह सन्देश दिया कि धर्म केवल पूजा-पाठ नहीं, बल्कि जीवन के हर छोटे कार्य में सत्य, शुद्धता और करुणा का समावेश है। उन्होंने धर्म को युगानुकूल, सरल और सर्वसुलभ बनाकर मानवता को दिशा दी। इसलिए पराशर स्मृति को कलियुग की सबसे उपयोगी स्मृति कहा गया है।

पराशर स्मृति (Parashara Smriti in Hindi) केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि मानव जीवन की नैतिक और सामाजिक संहिता है। महर्षि पराशर ने इसमें यह सिखाया कि धर्म का पालन कठिन तप या कर्मकांडों से नहीं, बल्कि सदाचार, सत्य और आत्मसंयम से होता है। इस प्रकार, पराशर स्मृति कलियुग के मनुष्यों के लिए एक ऐसा प्रकाशस्तंभ है, जो जीवन को संतुलित, नैतिक और आध्यात्मिक दिशा देता है।

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