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Rudra Samhita Khand-3

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Rudra Samhita Khand-3

श्रीरुद्र संहिता तृतीय खण्ड अध्याय 1 से 10 तक
Rudra Samhita Khand-3 Chapter 1 to 10

शिवपुराण की श्रीरुद्र संहिता का यह तृतीय खण्ड के अध्याय 1 से 10 (Rudra Samhita Khand-3 Chapter 1 to 10) में देवी सती के आत्मदाह के पश्चात् उनके पार्वती रूप में पुनर्जन्म की अद्भुत कथा वर्णित है। यह कथा न केवल देवी के पुनर्जन्म का वर्णन करती है, बल्कि भक्ति, तपस्या और ईश्वर-प्रेम की गहराई को भी उजागर करती है। देवताओं की प्रार्थना और हिमालय-मैना की तपस्या से प्रसन्न होकर स्वयं जगदम्बा दुर्गा ने हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लेने का वर दिया, ताकि शिव और शक्ति का पुनः मिलन हो सके।

इस खण्ड में हिमालय और मैना के विवाह से लेकर देवी पार्वती के जन्म तक की संपूर्ण दिव्य घटनाएँ विस्तारपूर्वक बताई गई हैं। चैत्र मास की नवमी तिथि को, मृगशिरा नक्षत्र में, जब देवी ने जन्म लिया, तब सम्पूर्ण सृष्टि में आनंद और शांति की लहर दौड़ गई। यही जन्म आगे चलकर शिव-पार्वती के दिव्य मिलन और सृष्टि के संतुलन की आधारशिला बना। यह कथा हमें यह संदेश देती है कि सच्ची भक्ति और अडिग तपस्या से ईश्वर अवश्य प्रसन्न होते हैं।(Rudra Samhita Khand-3 Chapter 1 to 10)

सम्पूर्ण शिव महापुराण हिंदी में

पहला अध्याय

हिमालय विवाह

नारद जी ने पूछा- हे पितामह ! अपने पिता दक्ष के यज्ञ में अपने शरीर का त्याग करने के बाद जगदंबा सती देवी कैसे हिमालय की पुत्री के रूप में जन्मीं? उन्होंने किस प्रकार महादेव जी को पुनः पति रूप में प्राप्त किया? हे प्रभु! मुझ पर कृपा कर, मेरे इन प्रश्नों के उत्तर देकर मेरी जिज्ञासा शांत कीजिए। ब्रह्माजी उत्तर देते हुए बोले- हे मुनिश्रेष्ठ नारद ! उत्तर दिशा की ओर हिमवान नामक विशाल पर्वत है। यह पर्वत तेजस्वी और समृद्ध है तथा दो रूपों में प्रसिद्ध है- पहला स्थावर और दूसरा जंगम। उस पर्वत पर रत्नों की खान है। इस पर्वत के पूर्वी और पश्चिमी भाग समुद्र से लगे हुए हैं। हिमवान पर्वत पर अनेक प्रकार के जीव-जंतु निर्भय होकर निवास करते हैं। हिम के विशाल भंडार पर्वत की शोभा बढ़ाते हैं। अनेक देवता, ऋषि-मुनि और सिद्ध पुरुष उस पर्वत पर निवास करते हैं। हिमवान पर्वत पवित्र और पावन है। अनेक ज्ञानियों और साधु-संतों की तपस्या इस स्थान पर सफल हुई है। भगवान शिव को यह पर्वत अत्यंत प्रिय है क्योंकि इस पर प्रकृति का हर रंग देखने को मिलता है।

एक बार की बात है, गिरिवर हिमवान ने अपने कुल की परंपरा को आगे बढ़ाने तथा धर्म की वृद्धि कर अपने पितरों को संतुष्ट करने के लिए विवाह करने के विषय में सोचा। जब हिमवान ने विवाह करने का पूरा मन बना लिया तब वे देवताओं के पास गए और उन देवताओं से बड़े संकोच के साथ अपने विवाह करने की इच्छा बताई। तब देवता प्रसन्न होकर अपने पितरों के पास गए और प्रणाम कर एक ओर खड़े हो गए। तब पितरों ने देवताओं के आने का कारण पूछा।

इस पर देवताओं ने कहा- हे पितरो ! आपकी सबसे बड़ी पुत्री मैना मंगल स्वरूपिणी है। आप मैना का विवाह गिरिराज हिमवान से कर दें। इस विवाह से सभी को लाभ होगा। सबका मंगल होगा तथा साथ ही हमारे कुल में जन्मी इन कन्याओं में से कम से कम एक तो शाप-मुक्त हो जाएगी।

तब पितरों ने थोड़ा विचार करने के बाद इस विवाह की स्वीकृति प्रदान कर दी। पितरों ने प्रसन्नतापूर्वक बहुत बड़ा उत्सव रचाया और अपनी पुत्री मैना के साथ हिमवान का विवाह कर दिया। विवाह उत्सव में श्रीहरि विष्णु सहित सभी देवी-देवता सम्मिलित हुए थे। विवाहोपरांत सभी देवता प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने लोक को चले गए। हिमवान भी मैना के साथ अपने लोक को प्रस्थान कर गए।(Rudra Samhita Khand-3 Chapter 1 to 10)

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दूसरा अध्याय

पूर्व कथा

नारद जी बोले- हे पितामह ! अब आप मैना की उत्पत्ति के बारे में बताइए। साथ ही कन्याओं को दिए शाप के बारे में मुझे बताकर, मेरी शंका का समाधान कीजिए।
नारद जी के ये प्रश्न सुनकर ब्रह्माजी मुस्कुराए और बोले- हे नारद ! मेरे पुत्र दक्ष की साठ हजार पुत्रियां हुईं। जिनका विवाह कश्यपादि महर्षियों से हुआ। उनमें स्वधा नाम वाली कन्या का विवाह पितरों के साथ हुआ था। उनकी तीन पुत्रियां हुईं। वे बड़ी सौभाग्यशाली और साक्षात धर्म की मूर्ति थीं। उनमें पहली कन्या का नाम मैना, दूसरी का धन्या और तीसरी का कलावती था। ये तीनों कन्याएं पितरों की मानस पुत्रियां थीं अर्थात उनके मन से प्रकट हुई थीं। इन तीनों का जन्म माता की कोख से नहीं हुआ था। ये संपूर्ण जगत की वंदनीया हैं। इनके नामों का स्मरण और कीर्तन करके मनुष्य को सभी मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है। ये तीनों सारे जगत में मनुष्य एवं देवताओं से प्रेरित होती हैं। इनको ‘लोकमाताएं’ नाम से भी जाना जाता है। मुनिश्वर! एक बार मैना, धन्या और कलावती तीनों बहनें श्वेत द्वीप में विष्णुजी के दर्शन करने के लिए गईं। वहां बहुत से लोग एकत्रित हो गए थे। उस स्थान पर मेरे पुत्र सनकादिक भी आए हुए थे। सबने विष्णुजी की बहुत स्तुति की। सभी सनकादिक को देखकर उनके स्वागत के लिए खड़े हो गए परंतु ये तीनों बहनें उनके स्वागत के लिए खड़ी नहीं हुईं। उन्हें शिवजी की माया ने मोहित कर दिया था। तब इन बहनों के इस बुरे व्यवहार से वे क्रोधित हो गए और उन्होंने इन बहनों को शाप दे दिया। सनकादिक मुनि बोले कि तुम तीनों बहनों ने अभिमानवश खड़े होकर मेरा अभिवादन नहीं किया, इसलिए तुम सदैव स्वर्ग से दूर हो जाओगी और मनुष्य के रूप में ही पृथ्वी पर रहोगी। तुम तीनों मनुष्यों की ही स्त्रियां बनोगी।

तीनों साध्वी बहनों ने चकित होकर ऋषि का वचन सुना। तब अपनी भूल स्वीकार करके वे तीनों सिर झुकाकर सनकादिक मुनि के चरणों में गिर पड़ीं और उनकी अनेकों प्रकार से स्तुति करने लगीं। उन्होंने अनेकों प्रकार से क्षमायाचना की। तीनों कन्याएं, मुनिवर को प्रसन्न करने हेतु उनकी प्रार्थना करने लगीं। वे बोलीं कि हम मूर्ख हैं, जो हमने आपको प्रणाम नहीं किया। अब हम पर कृपा कर हमें स्वर्ग को पुनः प्राप्त करने का कोई उपाय बताइए। तब सनकादिक मुनि बोले- हे पितरो की कन्याओ! हिमालय पर्वत हिम का आधार है। तुममें सबसे बड़ी मैना हिमालय की पत्नी होगी और इसकी कन्या का नाम पार्वती होगा। दूसरी कन्या धन्या, राजा जनक की पत्नी होगी और इसके गर्भ से महालक्ष्मी के साक्षात स्वरूप देवी सीता का जन्म होगा। इसी प्रकार तीसरी पुत्री कलावती राजा वृषभानु को पति रूप में प्राप्त करेगी और राधा की माता होने का गौरव प्राप्त करेगी। तत्पश्चात मैना व हिमालय अपनी पुत्री पार्वती के वरदान से कैलाश पद को प्राप्त करेंगे। धन्या और उनके पति राजा सीरध्वज जनक देवी सीता के पुण्यस्वरूप के कारण बैकुण्ठधाम को प्राप्त करेंगे। वृषभानु और कलावती अपनी पुत्री राधा के साथ गोलोक में जाएंगे। पुण्यकर्म करने वालों को निश्चय ही सुख की प्राप्ति होती है, इसलिए सदैव सत्य मार्ग पर आगे बढ़ना चाहिए। तुम पितरों की कन्या होने के कारण स्वर्ग भोगने के योग्य हो परंतु मेरा शाप भी अवश्य फलीभूत होगा। परंतु जब तुमने मुझसे क्षमा मांगी है, तो मैं तुम्हारे शाप के असर को कुछ कम अवश्य कर दूंगा।(Rudra Samhita Khand-3 Chapter 1 to 10)

धरती पर अवतीर्ण होने के पश्चात तुम साधारण मनुष्यों की भांति ही रहोगी, परंतु विवाह के पश्चात जब तुम्हें संतान की प्राप्ति हो जाएगी और तुम्हारी कन्याओं को यथायोग्य वर मिल जाएंगे और उनका विवाह हो जाएगा अर्थात तुम अपनी सभी जिम्मेदारियों को पूर्ण कर लोगी, तब भगवान श्रीहरि विष्णु के दर्शनों से तुम्हारा कल्याण हो जाएगा। मैना की पुत्री पार्वती कठिन तप के द्वारा शिव की प्राणवल्लभा बनेंगी। धन्या की पुत्री सीता दशरथ नंदन श्रीरामचंद्र जी को पति रूप में प्राप्त करेंगी। कलावती की पुत्री राधा श्रीकृष्ण के स्नेह में बंधकर उनकी प्रिया बनेंगी। यह कहकर मुनि सनकादिक वहां से अंतर्धान हो गए। तत्पश्चात पितरों की तीनों कन्याएं शाप से मुक्त होकर अपने धाम को चली गईं।

तीसरा अध्याय

देवताओं का हिमालय के पास जाना

नारद जी बोले- हे ब्रह्माजी! हे महामते ! आपने अपने श्रीमुख से मैना के पूर्व जन्म की कथा कही, जो कि अद्भुत व अलौकिक थी। भगवन्! अब आप मुझे यह बताइए कि पार्वती जी मैना से कैसे उत्पन्न हुईं और उन्होंने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को किस प्रकार पति रूप में प्राप्त किया।

ब्रह्माजी बोले- हे नारद ! मैना और हिमवान के विवाह पर बहुत उत्सव मनाया गया। विवाह के पश्चात वे दोनों अपने घर पहुंचे। तब हिमालय और मैना सुखपूर्वक अपने घर में निवास करने लगे। तब श्रीहरि अन्य देवताओं को अपने साथ लेकर हिमालय के पास गए। सब देवताओं को अपने राजदरबार में आया देखकर हिमालय बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने सभी देवताओं को प्रणाम कर उनकी स्तुति की। वे भक्तिभाव से उनका आदर-सत्कार करने लगे। वे देवताओं की सेवा करके अपने को धन्य मान रहे थे। मुने! हिमालय दोनों हाथ जोड़कर उनके सामने खड़े हो गए और बोले- भगवन्! आप सबको एक साथ अपने घर आया देखकर मैं प्रसन्न हूं। सच कहूं तो आज मेरा जीवन सफल हो गया है। आज मैं धन्य हो गया हूं। मेरा राज्य और मेरा पूरा कुल आपके दर्शन मात्र से ही धन्य हो गया। आज मेरा तप, ज्ञान और सभी कार्य सफल हो गए हैं। भगवन्! आप मुझे अपना सेवक समझें और मुझे आज्ञा दें कि मैं आपकी क्या सेवा करूं? मुझे बताइए कि मेरे योग्य क्या सेवा है?

गिरिराज हिमालय के ये वचन सुनकर देवतागण प्रसन्नतापूर्वक बोले- हे हिमालय ! हे गिरिराज ! देवी जगदंबा उमा ही प्रजापति दक्ष के यहां उनकी कन्या सती के रूप में प्रकट हुईं। घोर तपस्या करने के बाद उन्होंने शिवजी को पति रूप में प्राप्त किया, परंतु अपने पिता दक्ष के यज्ञ में वे अपने पति का अपमान सह न सकीं और उन्होंने योगाग्नि में अपना शरीर भस्म कर दिया। यह सारी कथा तो आप भी जानते ही हैं। अब देवी जगदंबा पुनः धरती पर अवतरित होकर शिवजी की अर्द्धांगिनी बनना चाहती हैं। हे हिमालय ! हम सभी यह चाहते हैं कि देवी सती पुनः आपके घर में अवतरित हों।
श्रीविष्णु जी की यह बात सुनकर हिमालय बहुत प्रसन्न हुए और आदरपूर्वक बोले-भगवन्! यह मेरे लिए बड़े सौभाग्य की बात है कि देवी मेरे घर-आंगन को पवित्र करने के लिए मेरी पुत्री के रूप में प्रकट होंगी। तब हिमालय अपनी पत्नी के साथ और देवताओं को लेकर देवी जगदंबा की शरण में गए। उन्होंने देवी का स्मरण किया और श्रद्धापूर्वक उनकी स्तुति करने लगे।

देवता बोले- हे जगदंबे ! हे उमे! हे शिवलोक में निवास करने वाली देवी। हे दुर्गे! हे महेश्वरी ! हम सब आपको भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं। आप परम कल्याणकारी हैं। आप पावन और शांतिस्वरूप आदिशक्ति हैं। आप ही परम ज्ञानमयी शिवप्रिया जगदंबा हैं। आप इस संसार में हर जगह व्याप्त हैं। सूर्य की तेजस्वी किरण आप ही हैं। आप ही अपने तेज से इस संसार को प्रकाशित करती हैं। आप ही जगत का पालन करती हैं। आप ही गायत्री, सावित्री और सरस्वती हैं। आप धर्मस्वरूपा और वेदों की ज्ञाता हैं। आप ही प्यास और आप ही तृप्ति हैं। आपकी पुण्यभक्ति भक्तों को निर्मल आनंद प्रदान करती है। आप ही पुण्यात्माओं के घर में लक्ष्मी के रूप में और पापियों के घर में दरिद्रता और निर्धनता बनकर निवास करती हैं। आपके दर्शनों से शांति प्राप्त होती है। आप ही प्राणियों का पोषण करती हैं तथा पंचभूतों के सारतत्व से तत्वस्वरूपा हैं। आप ही नीति हैं और सामवेद की गीति हैं। आप ही ऋग्वेद और अथर्वेद की गति हैं। आप ही मनुष्यों के नाक, कान, आंख, मुंह और हृदय में विराजमान होकर उनके घर में सुखों का विस्तार करती हैं। हे देवी जगदंबा ! इस संपूर्ण जगत के कल्याण एवं पालन के लिए हमारी पूजा स्वीकार करके आप हम पर प्रसन्न हों।(Rudra Samhita Khand-3 Chapter 1 to 10)

इस प्रकार जगज्जननी सती-साध्वी देवी जगदंबा उमा की अनेकों बार स्तुति करके सभी देवता उनके साक्षात दर्शनों के लिए दोनों हाथ जोड़कर खड़े हो गए।

चौथा अध्याय

देवी जगदंबा के दिव्य स्वरूप का दर्शन

ब्रह्माजी बोले- हे नारद ! देवताओं के द्वारा की गई स्तुति से प्रसन्न होकर दुखों का नाश करने वाली जगदंबा देवी दुर्गा उनके सामने प्रकट हो गईं। वे अपने दिव्य रत्नजड़ित रथ पर बैठी हुई थीं। उनका मुख करोड़ों सूर्य के तेज के समान चमक रहा था। उनका गौर वर्ण दूध के समान उज्ज्वल था। उनका रूप अतुल्य था। रूप में उनकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती थी। वे सभी गुणों से युक्त थ थीं। दुष्टों का संहार करने के कारण वे ही चण्डी कहलाती हैं। वे अपने भक्तों के सभी दुखों और पीड़ाओं का निवारण करती हैं। देवी जगदंबा पूरे संसार की माता हैं। वे ही प्रलयकाल में समस्त दुष्टों को उनके बंधु-बांधवों सहित घोर निद्रा में सुला देती हैं। वही देवी उमा इस संसार का उद्धार करती हैं। उनके मुखमण्डल का तेज अद्भुत है। इस तेज के कारण उनकी ओर देख पाना भी संभव नहीं है। तब उनके अमृत दर्शनों की इच्छा लेकर श्रीहरि सहित सभी ने स्तुति की। तब उनके अमृतमय स्वरूप को देखा।

उनके अद्भुत स्वरूप के दर्शनों से सभी देवता आनंदित होकर बोले- हे महादेवी! हे जगदंबा ! हम आपके दास हैं। आपकी शरण में हम बहुत आशा से आए हैं। कृपा करके हमारे आने के उद्देश्य को समझकर हमारे मनोरथ को पूर्ण कीजिए। हे देवी! पहले आप प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में प्रकट होकर रुद्रदेव की पत्नी बनीं और ब्रह्माजी व अन्य देवताओं के दुखों को दूर किया। अपने पिता के यज्ञ में अपने पति का अपमान देखकर स्वेच्छा से अपने शरीर का त्याग कर दिया। इससे रुद्रदेव बड़े दुखी हैं। वे अत्यंत शोकाकुल हो गए हैं। साथ ही आपके यहां चले आने से देवताओं की जो इच्छा थी वह भी अधूरी रह गई है। इसलिए हे जगदंबिके! आप पृथ्वीलोक पर पुनः अवतार लेकर रुद्रदेव को पति रूप में पाइए ताकि इस लोक का कल्याण हो सके और सनत्कुमार मुनि का कथन भी पूर्ण हो सके। हे भगवती ! आप हम सब पर ऐसी ही कृपा करें ताकि हम सभी प्रसन्न हो जाएं तथा महादेव जी भी पुनः सुखी हो जाएं, क्योंकि आपसे वियोग होने के कारण वे अत्यंत दुखी हैं। कृपा करके हमारे सभी कष्टों और दुखों को दूर करें।

हे नारद ! ऐसा कहकर सभी देवता पुनः भगवती की आराधना करने लगे। तत्पश्चात हाथ जोड़कर चुपचाप खड़े हो गए। तब उनकी अनन्य स्तुति से देवी उमा को बहुत प्रसन्नता हुई। तब देवी शिवजी का स्मरण करते हुए बोलीं- हे हरे ! हे ब्रह्माजी! तथा समस्त देवताओ और ऋषि-मुनियो ! मैं तुम्हारी आराधना से बहुत प्रसन्न हूं। अब तुम सभी अपने-अपने निवास स्थानों पर जाओ और सुखपूर्वक वहां पर निवास करो। मैं निश्चय ही अवतार लेकर हिमालय-मैना की पुत्री के रूप में प्रकट होऊंगी, क्योंकि मैं अच्छे से जानती हूं कि जब से मैंने दक्ष के यज्ञ की अग्नि में अपना शरीर त्यागा है तब से मेरे पति त्रिलोकीनाथ महादेव जी भी निरंतर कालाग्नि में जल रहे हैं। उन्हें हर समय मेरी ही चिंता रहती है। वे हर समय यह सोचते हैं कि उनके क्रोध के कारण ही मैं उनका अपमान देखकर वापिस नहीं आई और मैंने वहीं अपना शरीर त्याग दिया। यही कारण है कि उन्होंने अलौकिक वेश धारण कर लिया है और सदैव योग में ही लीन रहते हैं। अपनी प्राणप्रिया का वियोग वे सहन नहीं कर सके हैं। इसलिए उनकी भी यही इच्छा है कि मैं पुनः पृथ्वी पर अवतीर्ण हो जाऊं ताकि हमारा मिलन पुनः संभव हो सके। महादेव जी की इच्छा मेरे लिए सदैव सर्वोपरि है। अतः मैं अवश्य ही हिमालय-मैना की पुत्री के रूप में अवतार लूंगी।(Rudra Samhita Khand-3 Chapter 1 to 10)

इस प्रकार देवताओं को बहुत आश्वासन देकर देवी जगदंबा वहां से अंतर्धान हो गईं। तत्पश्चात श्रीहरि व अन्य देवताओं का मन प्रसन्नता और हर्ष से खिल उठा। वे उस स्थान को, जहां देवी ने दर्शन दिए थे, अनेकों बार नमस्कार कर अपने-अपने धाम को चले गए।

 

पांचवां अध्याय

मैना-हिमालय का तप व वरदान प्राप्ति

नारद जी ने पूछा- हे विधाता ! देवी के अंतर्धान होने के बाद जब सभी देवता अपने-अपने धाम को चले गए तब आगे क्या हुआ? हे भगवन्! कृपा करके मुझे आगे की कथा भी सुनाइए।

ब्रह्माजी बोले- हे मुनिश्रेष्ठ नारद ! जब देवी जगदंबा वहां सभी देवताओं और हिमालय को आश्वासन देकर अपने लोक को चली गईं, तब श्रीहरि विष्णु ने मैना और हिमालय को देवी जगदंबा को प्रसन्न करने के लिए उनकी स्तुति करने के लिए कहा। साथ ही देवी का भक्तिपूर्वक चिंतन करने और उनकी भक्तिभावना से तपस्या करने का उपदेश देकर सभी देवताओं सहित विष्णुजी भी अपने बैकुण्ठ लोक को चले गए। तत्पश्चात मैना और हिमालय दोनों सदैव देवी जगदंबा के अमृतमयी और कल्याणमयी स्वरूप का चिंतन करते और उनकी आराधना में ही मग्न रहते थे। मैना देवी की कृपादृष्टि पाने के लिए शिवजी सहित उनकी आराधना करती थीं। वे ब्राह्मणों को दान देतीं और उन्हें भोजन कराती थीं। मन में देवी दुर्गा को पुत्री रूप में पाने की इच्छा लिए हिमालय और मैना ने चैत्रमास से आरंभ कर सत्ताईस वर्षों तक देवी की पूजा अर्चना नियमित रूप से की। मैना अष्टमी तिथि व्रत रखकर नवमी को लड्डू, खीर, पीठी, शृंगार और विभिन्न प्रकार के पुष्पों से उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास करतीं। उन्होंने गंगा के किनारे दुर्गा देवी की मूर्ति बना रखी थी। वे सदैव उसकी नियम से पूजा करती थीं। मैना देवी की निराहार रहकर पूजा करतीं। कभी जल पीकर, कभी हवा से ही व्रत को पूरा करतीं। सत्ताईस वर्षों तक नियमपूर्वक भक्तिभावना से जगदंबा दुर्गा की आराधना करने के पश्चात वे प्रसन्न हो गईं। तब देवी जगदंबा ने मैना और हिमालय को अपने साक्षात दर्शन दिए।
देवी जगदंबा बोलीं- हे गिरिराज हिमालय और महारानी मैना! मैं तुम दोनों की तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। इसलिए जो तुम्हारी इच्छा हो वह वरदान मांग सकते हो। हे हिमालय प्रिया मैना ! तुम्हारी तपस्या और व्रत से मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। इसलिए मैं तुम्हें मनोवांछित फल प्रदान करूंगी। सो, जो इच्छा हो कहो। तब मैना देवी दुर्गा को भक्तिभावना से प्रणाम करके बोलीं- देवी जगदंबिके! आपके प्रत्यक्ष दर्शन करके मैं धन्य हो गई। हे देवी। मैं आपके स्वरूप को प्रणाम करती हूं। हे माते! हम पर प्रसन्न होइए।

मैना के वचनों को सुनकर देवी दुर्गा को बहुत संतोष हुआ और उन्होंने मैना को गले से लगा लिया। देवी के गले लगते ही मैना को ज्ञान की प्राप्ति हो गई। तब वे देवी जगदंबा से कहने लगीं- इस जगत को धारण करने वाली! लोकों का पालन करने वाली ! तथा मनोवांछित फलों को देने वाली देवी! मैं आपको प्रणाम करती हूं। आप ही इस जगत में आनंद का संचार करती हैं। आप ही माया हैं। आप ही योगनिद्रा हैं। आप अपने भक्तों के शोक और दुखों को दूर करती हैं। आप ही अपने भक्तों को अज्ञानता के अंधेरों से निकालकर उन्हें ज्ञान रूपी तेज प्रदान करती हैं। भला मैं तुच्छ स्त्री कैसे आपकी महिमा का वर्णन कर सकती हूं। आप आकार रहित तथा अदृश्य हैं। आप शाश्वत शक्ति हैं। आप परम योगिनी हैं और इच्छानुसार नारी रूप में धरती पर अवतार लेती हैं। आप ही पृथ्वीलोक पर चारों ओर फैली प्रकृति हैं। ब्रह्म के स्वरूप को अपने वश में करने वाली विद्या आप ही हैं। हे जगदंबा माता! आप मुझ पर प्रसन्न होइए। आप ही यज्ञ में अग्नि के रूप में प्रज्वलित होती हैं। माता! आप ही सूर्य की किरणों को प्रकाश प्रदान करने वाली शक्ति हैं। चंद्रमा की शीतलता भी आप ही हैं। ऐसी महान और मंगलकारी देवी जगदंबा का मैं स्तवन करती हूं। माते! मैं आपकी वंदना करती हूं। संपूर्ण जगत का पालन करने वाली और जगत का कल्याण करने वाली शक्ति भी आप ही हैं। आप ही श्रीहरि की माया हैं। हे दुर्गा मां! आप ही इच्छानुसार रूप धारण करके इस संसार की रचना, पालन और संहार करती हैं। हे देवी! मैं आपको नमस्कार करती हूं। कृपा करके हम पर प्रसन्न होइए।

ब्रह्माजी बोले- हे नारद! मैना द्वारा भक्तिभाव से की गई स्तुति को सुनकर देवी बोलीं कि मैना तुम अपना मनोवांछित वर मांग लो। तुम्हारे द्वारा मांगी गई वस्तु मैं अवश्य प्रदान करूंगी। मेरे लिए कोई भी वस्तु अदेय नहीं है।

देवी जगदंबा के इन वचनों को सुनकर मैना बहुत खुश हुईं और बोलीं- हे शिवे ! आपकी जय हो। हे जगदंबिके! आप ही ज्ञान प्रदान करती हैं। आप ही सबको मनोवांछित वस्तु प्रदान करती हैं। हे देवी! मैं आपसे वरदान मांगती हूं। हे माते! आप मुझे सौ पुत्र प्रदान करें जो बलशाली और पराक्रमी हों, जिनकी आयु लंबी हो। तत्पश्चात मेरी एक पुत्री हो, जो साक्षात आपका ही रूप हो। हे देवी! आप सारे संसार में पूजित हैं तथा सभी गुणों से संपन्न और आनंद देने वाली हैं। हे माता! आप ही सभी कार्यों की सिद्धि करने वाली हैं। हे भगवती। देवताओं के कार्यों को पूरा करने के लिए आप रुद्रदेव की पत्नी होइए और इस संसार को अपनी कृपा से कृतार्थ करने के लिए मेरी पुत्री बनकर जन्म लीजिए।
मैना के कहे वचनों को सुनकर देवी भगवती मुस्कुराने लगीं। तब सबके मनोरथों को पूर्ण करने वाली देवी मुस्कुराते हुए बोलीं- मैना ! मैं तुम्हारी भक्तिभाव से की गई तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। मैं तुम्हारे द्वारा मांगे गए वरदानों को अवश्य ही पूर्ण करूंगी। सर्वप्रथम मैं तुम्हें सौ बलशाली पुत्रों की माता होने का वर प्रदान करती हूं। उन सौ पुत्रों में से सबसे पहले जन्म लेने वाला पुत्र सबसे अधिक शक्तिशाली और बलशाली होगा। तत्पश्चात मैं स्वयं तुम्हारी पुत्री के रूप में तुम्हारे गर्भ से जन्म लूंगी। तब मैं देवताओं के हित का कल्याण करूंगी।

ऐसा कहकर जगत जननी, परमेश्वरी देवी जगदंबा वहां से अंतर्धान हो गईं। तब महेश्वरी से अपने द्वारा मांगा गया अभीष्ट फल पाकर देवी मैना खुशी से झूम उठीं। तत्पश्चात वे अपने घर चली गईं। घर जाकर मैना ने अपने पति हिमालय को भी अपनी तपस्या की पूर्णता और वरदानों की प्राप्ति के बारे में बताया। जिसे सुनकर हिमालय बहुत प्रसन्न हुए। तब वे दोनों अपने भाग्य की सराहना करने लगे। तत्पश्चात, कुछ समय बाद मैना को गर्भ ठहरा।(Rudra Samhita Khand-3 Chapter 1 to 10)

धीरे-धीरे समय व्यतीत होता गया। समय पूर्ण होने पर मैना ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम मैनाक रखा गया। पुत्र प्राप्ति की सूचना मिलने पर हिमालय हर्ष से उद्वेलित हो गए और उन्होंने अपने नगर में बहुत बड़ा उत्सव किया। इसके बाद हिमालय के यहां निन्यानवे और पुत्रों ने जन्म लिया। सौ पुत्रों में मैनाक सबसे बड़ा और बलशाली था। उसका विवाह नाग कन्याओं से हुआ। जब इंद्र देव पर्वतों पर क्रोध करके उनके पंखों को काटने लगे तो मैनाक समुद्र की शरण में चला गया। उस समय पवनदेव ने इस कार्य में मैनाक की सहायता की। वहां उसकी समुद्र से मित्रता हो गई। मैनाक पर्वत ही अपने बाद प्रकटे सभी पर्वतों में पर्वतराज कहलाता है।

 

छठा अध्याय

पार्वती जन्म

ब्रह्माजी कहते हैं- हे नारद ! तत्पश्चात हिमालय और मैना देवी भगवती और शिवजी के चिंतन में लीन रहने लगे। उसके बाद जगत की माता जगदंबिका अपना कथन सत्य करने के लिए अपने पूर्ण अंशों द्वारा पर्वतराज हिमालय के हृदय में आकर विराजमान हुईं। उस समय उनके शरीर में अद्भुत एवं सुंदर प्रभा उतर आई। वे तेज से प्रकाशित हो गए और आनंदमग्न हो देवी का ध्यान करने लगे। तब उत्तम समय में गिरिराज हिमालय ने अपनी प्रिया मैना के गर्भ में उस अंश को स्थापित कर दिया। मैना ने हिमालय के हृदय में विराजमान देवी के अंश से गर्भ धारण किया। देवी जगदंबा के गर्भ में आने से मैना की शोभा व कांति निखर आई और वे तेज से संपन्न हो गईं। तब उन्हें देखकर हिमालय बहुत प्रसन्न रहने लगे। जब देवताओं सहित श्रीहरि और मुझे इस बात का ज्ञान हुआ तो हमने देवी जगदंबिका की बहुत स्तुति की और सभी अपने-अपने धाम को चले गए। धीरे-धीरे समय बीतता गया। दस माह पूरे हो जाने के पश्चात देवी शिवा ने मैना के गर्भ से जन्म ले लिया। जन्म लेने के पश्चात देवी शिवा ने मैना को अपने साक्षात रूप के दर्शन कराए। देवी के जन्म दिवस वाले दिन बसंत ऋतु के चैत्र माह की नवमी तिथि थी। उस समय आधी रात को मृगशिरा नक्षत्र था। देवी के जन्म से सारे संसार में प्रसन्नता छा गई। मंद-मंद हवा चलने लगी। सारा वातावरण सुगंधित हो गया। आकाश में बादल उमड़ आए और हल्की-हल्की फुहारों के साथ पुष्प वर्षा होने लगी। तब मां जगदंबा के दर्शन हेतु विष्णुजी और मेरे सहित सभी देवी-देवता गिरिराज हिमालय के घर पहुंचे। देवी के दर्शन कर सबने दिव्यरूपा महामाया मंगलमयी जगदंबिका माता की स्तुति की। तत्पश्चात सभी देवता अपने-अपने धाम को चले गए।

स्वयं माता जगदंबा को पुत्री रूप में पाकर हिमालय और मैना धन्य हो गए। वे अत्यंत आनंद का अनुभव करने लगे। देवी के दिव्य रूप के दर्शन से मैना को उत्तम ज्ञान की प्राप्ति हो गई। तब मैना देवी से बोली- हे जगदंबा! हे शिवा! हे महेश्वरी! आपने मुझ पर बड़ी कृपा की, जो अपने दिव्य स्वरूप के दर्शन मुझे दिए। हे माता! आप तो परम शक्ति हैं। आप तीनों लोकों की जननी हैं और देवताओं द्वारा आराध्य हैं। हे देवी! आप मेरी पुत्री रूप में आकर शिशु रूप धारण कर लीजिए।

मैना की बात सुनकर देवी मुस्कुराते हुए बोलीं- मैना! तुमने मेरी बड़ी सेवा की है। तुम्हारी भक्ति भावना से प्रसन्न होकर ही मैंने तुम्हें वर मांगने के लिए कहा था और तुमने मुझे अपनी पुत्री बनाने का वर मांग लिया था। तब मैंने ‘तथास्तु’ कहकर तुम्हें अभीष्ट फल प्रदान किया था। तत्पश्चात मैं अपने धाम चली गई थी। उस वरदान के अनुसार आज मैंने तुम्हारे गर्भ से जन्म ले लिया है। तुम्हारी इच्छा का सम्मान करते हुए मैंने तुम्हें अपने दिव्य रूप के दर्शन दिए। अब आप दोनों दंपति मुझे अपनी पुत्री मानकर मेरा लालन-पालन करो और मुझसे स्नेह रखो। मैं पृथ्वी पर अदभुत लीलाएं करूंगी तथा देवताओं के कार्यों को पूरा करूंगी। बड़ी होकर मैं भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त कर उनकी पत्नी बनकर इस जगत का उद्धार करूंगी।(Rudra Samhita Khand-3 Chapter 1 to 10)

ऐसा कहकर जगतमाता देवी जगदंबा चुप हो गईं। तब देखते ही देखते देवी भगवती नन्हे शिशु के रूप में परिवर्तित हो गईं।

 

सातवां अध्याय

पार्वती का नामकरण

ब्रह्माजी बोले- हे मुनिश्रेष्ठ नारद ! मैना के सामने जब देवी जगदंबिका ने शिशु रूप धारण किया तो वे सामान्य बच्चे की भांति रोने लगीं। उनका रोना सुनकर सभी स्त्रियां और पुरुष, जो उस समय वहां उपस्थित थे, प्रसन्न हो गए। उस श्यामकांति वाली नीलकमल के समान शोभित उस परम तेजस्वी सुंदर कन्या को देखकर गिरिराज हिमालय बहुत प्रसन्न हुए। तब शुभ मुहूर्त में हिमालय ने अपनी पुत्री का नाम रखने के बारे में सोचा। उस समय मैना और हिमालय बहुत प्रसन्न थे। तब देवी के गुणों और सुशीलता को देखकर उनका नाम ‘पार्वती’ रखा गया। चंद्रमा की कला की तरह हिमालय पुत्री धीरे-धीरे बड़ी होने लगी। उसके अंग-प्रत्यंग चंद्रमा की कला एवं बिंब के समान अत्यंत शोभायमान होने लगे। गिरिजा अपनी सहेलियों के साथ खेलती थीं। पार्वती अपनी सखियों के साथ कभी गंगा की रेत से घर बनातीं तो कभी कंदुक क्रीड़ा करतीं। खेलती-खेलती वे बड़ी होने लगीं। जब वे शिक्षा के योग्य हो गईं, तो आचार्यों ने उन्हें विभिन्न धर्मशास्त्रों का उपदेश देना प्रारंभ किया। उससे उन्हें अपने पूर्व जन्म की सभी बातें स्मरण हो आईं। मुने ! इस प्रकार मैंने शिवा की लीला का वर्णन तुमसे किया है।

एक समय की बात है तुम शिवलीला से प्रेरित होकर हिमालय के घर गए। हे नारद ! तुम शिवतत्व के ज्ञाता हो और उनकी विभिन्न लीलाओं को समझते हो। तुम्हें आया हुआ देखकर हिमालय-मैना ने तुम्हें प्रसन्नतापूर्वक नमस्कार किया तथा खूब आदर-सत्कार किया। तत्पश्चात हिमालय ने अपनी पुत्री पार्वती को बुलाया और उससे तुम्हारे चरणों में प्रणाम कराया। फिर स्वयं भी बार-बार नमस्कार करने लगे और बोले- हे मुनियों में श्रेष्ठ नारद। हे ब्रह्मा पुत्र नारद ! आप परम ज्ञानी हैं। आप सदैव सबका उपकार करते हैं। आप भूत, भविष्य और वर्तमान जानते हैं। आप परोपकारी और दयालु हैं। कृपया मेरी कन्या का भाग्य बताएं और मुझे यह भी बताएं कि मेरी बेटी किसकी सौभाग्यवती पत्नी होगी?

नारद ! हिमालय के ऐसे प्रश्न सुनकर तुमने पार्वती का हाथ देखा और उसके मुख मंडल को देखकर कहना शुरू किया। हे गिरिराज और मैना! आपकी यह पुत्री चंद्रमा की कला की तरह शोभित हो रही है। यह समस्त शुभ लक्षणों से युक्त है। इसका भाग्य बड़ा प्रबल है। यह अपने पति के लिए सुखदायिनी होगी। साथ ही अपने माता-पिता के यश और कीर्ति को बढ़ाएगी। यह परम साध्वी और संसार की स्त्रियों में सर्वश्रेष्ठ होगी। इसका पति योगी, नग्न, निर्गुण, कामवासना से रहित, माता-पिता हीन, अभिमान से रहित, पवित्र एवं साधु वेषधारी होगा। इस बात को सुनकर मैना और हिमालय दोनों दुखी हो गए। पार्वती देवी सोचने लगीं कि मुनि नारद की बात हमेशा सत्य होती है। जो लक्षण नारद जी ने बताए हैं वे सभी तो शिवजी में विद्यमान हैं। भगवान शिव को अपना भावी पति मानकर पार्वती मन ही मन हर्ष से खिल उठीं और शिवजी के चरणों का चिंतन करने लगीं। तब हिमालय बड़े दुखी स्वर से बोले कि हे नारद। अपनी पुत्री के भावी पति के विषय में जानकर मैं बहुत दुखी हूं। आप कृपया मेरी पुत्री को बचाने का कोई मार्ग सुझाएं।

गिरिराज हिमालय के ये वचन सुनकर हे नारद तुमने कहा- गिरिराज, मेरी कही बात सर्वथा सच होगी क्योंकि हाथ की रेखाएं ब्रह्माजी द्वारा लिखीं जाती हैं और कभी भी झूठ नहीं हो सकतीं। इस रेखा का फल तो अवश्य मिलेगा किंतु ऐसा होने पर भी पार्वती सुखपूर्वक रहे इस हेतु पार्वती का विवाह भगवान शिव से कर दें। भगवान शिव में ये सभी गुण हैं। महादेव जी में ये अशुभ लक्षण भी शुभ हो जाते हैं। इसलिए गिरिराज, तुम बिना विचार किए अपनी कन्या का विवाह भगवान शिव से कर दो। वे सबके ईश्वर हैं तथा निर्विकार, सामर्थ्यवान और अविनाशी हैं किंतु ऐसा होना इतना सरल नहीं है। पार्वती-शिव विवाह तभी संभव हो सकता है, जब किसी तरह भगवान शिव प्रसन्न हो जाएं। भगवान शंकर को प्रसन्न करने और वश में करने का सबसे सरल और उत्तम साधन है यदि आपकी पुत्री भगवान शिव की अनन्य भक्ति भाव से तपस्या करे तो सब ठीक हो जाएगा। पार्वती भगवान शिव को पति के रूप में प्राप्त करेंगी। वे सदैव भगवान शिव के अनुसार ही कार्य करेंगी क्योंकि वे उत्तम व्रत का पालन करने वाली महासाध्वी हैं। वे अपने माता-पिता के सुख को बढ़ाने वाली हैं।

हे गिरिराज हिमालय ! भगवान शिव और शिवा का प्रेम तो अलौकिक है। ऐसा प्रेम न तो किसी का हुआ है और ना ही होगा। भगवान शिव इनके अलावा और किसी स्त्री को अपनी पत्नी नहीं बनाएंगे। हिमालय ! शिव-शिवा को एकाकार होकर देवताओं की सिद्धि के लिए अनेक कार्य करने हैं। आपकी पुत्री को पत्नी रूप में प्राप्त करके ही भगवान अर्द्धनारीश्वर होंगे। आपकी पुत्री पार्वती भगवान शिव की तपस्या से उन्हें संतुष्ट कर उनकी अर्द्धांगिनी बन जाएंगी।

मुनि नारद ! तुम्हारे इन वचनों को सुनकर हिमालय बोले- हे मुनिश्रेष्ठ नारद ! भगवान शिव सभी प्रकार की इच्छाओं का त्याग करके अपने मन को संयम में रखकर नित्य तपस्या करते हैं। उनका ध्यान सदैव परमब्रह्म में लगा रहता है। भला वे अपने मन को कैसे योग से हटाकर मोह-माया के बंधनों में फंसने हेतु विवाह करेंगे। जो भगवान शिव अविनाशी, प्रकृति से परे, निर्गुण, निराकार और दीपक की लौ की तरह प्रकाशित हैं और सदैव परमब्रह्म के प्रकाशपुंज को तलाशते हैं, वे कैसे मेरी पुत्री से विवाह करने पर राजी होंगे। मेरी जानकारी के अनुसार भगवान शिव ने बहुत पहले अपनी पत्नी सती के सामने यह प्रतिज्ञा की थी कि वे उनके अलावा किसी और को पत्नी रूप में कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे। अब जब सती ने अपने शरीर को त्याग दिया है, तो वे किसी और स्त्री को कैसे ग्रहण करेंगे? यह सुनकर आपने कहा, गिरिराज! आपको इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए। तुम्हारी कन्या ही पूर्व जन्म में दक्ष की पुत्री सती थी और शिवजी की प्राणप्रिया थी। अपने पिता दक्ष द्वारा अपने पति का अनादर देखकर लज्जित होकर सती ने योगाग्नि में अपने को भस्म कर दिया था। अब वही देवी जगदंबा, जो पहले सती के रूप में अवतरित हुई थीं, अब पार्वती के रूप में तुम्हारी पुत्री बनी हैं। इसलिए तुम्हें पार्वती के विषय में चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। देवी पार्वती ही भगवान शिव की पत्नी होंगी।(Rudra Samhita Khand-3 Chapter 1 to 10)

तुम्हारी बातें सुनकर गिरिराज हिमालय और उनकी पत्नी मैना व उनके पुत्रों को बहुत संतोष हुआ और उनके सभी संदेह और शंकाएं पूर्णतः दूर हो गए। पास ही बैठी पार्वती ने भी अपने पूर्व जन्म की कथा के विषय में सुना। भगवान शिव को अपना पति जानकर देवी पार्वती लज्जा से सिर झुकाकर बैठ गईं। मैना और हिमालय ने उनके सिर पर हाथ फेरकर उन्हें अनेक आशीर्वाद दिए। तत्पश्चात पार्वती को तपस्या के विषय में बताकर नारद आप वहां से अंतर्धान हो गए। आपके जाने के बाद मैना और हिमालय बहुत प्रसन्न हुए।

 

आठवां अध्याय

मैना और हिमालय की बातचीत

ब्रह्माजी बोले- हे नारद! तुम्हारे स्वर्गलोक जाने के पश्चात कुछ समय तक सबकुछ ऐसे ही चलता रहा। एक दिन मैना अपने पति हिमालय के पास गई और उन्हें प्रणाम कर उनसे कहने लगी-

हे प्राणनाथ! उस दिन जब देवर्षि नारद हमारे यहां पधारे थे और पार्वती का हाथ देखकर उसके विषय में अनेक बातें बता गए थे, तब मैंने उनकी बातों पर ध्यान दिया था। अब पार्वती बड़ी हो रही है। मेरी आपसे विनम्र प्रार्थना है कि आप उसके विवाह के लिए सुयोग्य व सुंदर वर की खोज शुरू कर दें। जिसके साथ हमारी पुत्री पार्वती सुख से अपना जीवन व्यतीत कर सके। वह शुभ लक्षणों वाला तथा कुलीन होना चाहिए क्योंकि मुझे अपनी पुत्री अपने प्राणों से भी अधिक प्यारी है। मैं सिर्फ पुत्री का सुख चाहती हूं।
यह कहकर मैना की आंखों में आंसू आ गए और वे अपने पति के चरणों में गिर पड़ीं। तत्पश्चात हिमालय ने पत्नी मैना को प्रेमपूर्वक उठाया और उन्हें समझाने लगे। वे बोले-हे देवी! तुम व्यर्थ की चिंता त्याग दो। मुनि नारद की बात कभी झूठ नहीं हो सकती। यदि तुम पार्वती को सुखी देखना चाहती हो तो उसे भगवान शिव की तपस्या के लिए प्रेरित करो। यदि शिवजी प्रसन्न हो गए तो वे स्वयं ही पार्वती का पाणिग्रहण कर लेंगे। तब सबकुछ शुभ ही होगा। सभी अनिष्ट और अशुभ लक्षणों का नाश होगा। भगवान शंकर सदा मंगलकारी हैं। इसलिए तुम पार्वती को शिवजी की कृपादृष्टि प्राप्त करने के लिए तपस्या करने की शिक्षा दो।

हिमालय की बात सुनकर मैना प्रसन्नतापूर्वक अपनी पुत्री पार्वती को तपस्या के लिए कहने उनके पास चली गई।

 

नवां अध्याय

पार्वती का स्वप्न

ब्रह्माजी बोले- हे मुनिश्रेष्ठ नारद ! जब मैना पार्वती के पास पहुंचीं तो उन्हें देखकर सोचने लगीं कि मेरी पुत्री तो कोमल और नाजुक है। यह सदैव राजसी ठाठ-बाट में रही है। दुख और कष्टों को सहना तो दूर की बात है इनके बारे में भी यह सर्वथा अनजान है। पार्वती को उन्होंने बड़े ही लाड़ और प्यार से पाला है। तब कैसे मैं अपनी प्रिय पुत्री को कठोर तपस्या करने के लिए प्रेरित कर सकती हूं? यही सब सोचकर मैना अपनी पुत्री से तपस्या के लिए कुछ नहीं बोल सकीं। तब अपनी माता के चिंतित चेहरे को देखकर साक्षात जगदंबा का अवतार धारण करने वाली देवी पार्वती यह जान गईं कि उनकी माताजी क्या कहना चाहती हैं? तब सबकुछ जानने वाली देवी भगवती का साक्षात स्वरूप पार्वती बोलीं- हे माता ! आप यहां कब आईं? आप बैठिए। माता, पिछली रात्रि के ब्रह्ममुहूर्त में मैंने एक स्वप्न देखा है। उसके विषय में मैं आपको बताती हूं। मेरे सपने में एक दयालु और तपस्वी ब्राह्मण आए। जब मैंने उन्हें हाथ जोड़कर नमस्कार किया तो वे मुस्कुराते हुए बोले कि तुम अवश्य ही भगवान शिव शंकर की प्राणवल्लभा बनोगी। इसलिए उन्हें प्रसन्न करने के लिए उनकी प्रेमपूर्वक तपस्या करो।

यह सुनकर मैना ने अपनी पुत्री के सिर पर प्रेम से हाथ फेरा और अपने पति हिमालय को वहां बुलाया। हिमालय के आने पर मैना ने पार्वती के सपने के बारे में उनको बताया। तब उनके मुख से पुत्री के सपने के विषय में जानकर हिमालय बहुत प्रसन्न हुए। तब वे अपनी पत्नी से बोले-प्रिय मैना ! मैंने भी पिछली रात को एक सपना देखा था। मैंने अपने सपने में एक बड़े उत्तम तपस्वी को देखा। वे नारद मुनि द्वारा बताए गए सभी लक्षणों से युक्त थे। वे उत्तम तपस्वी मेरे नगर में तपस्या करने के लिए आए थे। उन्हें देखकर मुझे बहुत खुशी हुई। मैं अपनी पुत्री पार्वती को साथ लेकर उनके दर्शनों के लिए उनके पास पहुंचा। तब मुझे ज्ञात हुआ कि वे नारद जी के बताए हुए वर भगवान शिव ही हैं। तब मैंने पार्वती को उनकी सेवा करने का उपदेश दिया परंतु उन्होंने मेरी बात नहीं मानी। तभी वहां सांख्य और वेदांत पर विवाद छिड़ गया। तत्पश्चात उनकी आज्ञा पाकर पार्वती वहीं रहकर भक्तिपूर्वक उनकी सेवा करने लगीं। हे प्रिये! यही मेरा सपना था जिसे देखकर मुझे अत्यंत प्रसन्नता हुई। मैं सोचता हूं कि हमें कुछ समय तक इस सपने के सच होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। ऐसा कहकर हिमालय और मैना उस उत्तम सपने के सच होने की प्रतीक्षा करने लगे।

दसवां अध्याय

भौम-जन्म

ब्रह्माजी बोले- नारद ! भगवान शिव का यश परम पावन, मंगलकारी, भक्तिवर्द्धक और उत्तम है। दक्ष-यज्ञ से वे अपने निवास कैलाश पर्वत पर वापस आ गए थे। वहां आकर भगवान शिव अपनी पत्नी सती के वियोग से बहुत दुखी थे। उनका मन देवी सती का स्मरण कर रहा था और वे उन्हें याद करके व्याकुल हो रहे थे। तब उन्होंने अपने सभी गणों को वहां पर बुलाया और उनसे देवी सती के गुणों और उनकी सुशीलता का वर्णन करने लगे। फिर गृहस्थ धर्म को त्यागकर वे कुछ समय तक सभी लोकों में सती को खोजते हुए घूमते रहे। इसके बाद वापस कैलाश पर्वत पर आ गए क्योंकि उन्हें कहीं भी सती का दर्शन नहीं हो सका था। तब अपने मन को एकाग्र करके वे समाधि में बैठ गए। भगवान शिव इसी प्रकार बहुत लंबे समय तक समाधि लगाकर बैठे रहे। असंख्य वर्ष बीत गए। समाधि के परिश्रम के कारण उनके मस्तक से पसीने की बूंद पृथ्वी पर गिरी और वह बूंद एक शिशु में परिवर्तित हो गई। उस बालक का रंग लाल था। उसकी चार भुजाएं थीं। उसका रूप मनोहर था। वह बालक दिव्य तेज से संपन्न अनोखी शोभा पा रहा था। वह प्रकट होते ही रोने लगा। उसे देखकर संसारी मनुष्यों की भांति शिवजी उसके पालन-पोषण का विचार करके व्याकुल हो गए। उसी समय डरी हुई एक सुंदर स्त्री वहां आई। उसने उस बालक को अपनी गोद में उठा लिया और उसका मुख चूमने लगीं। तब उन्होंने उसे दूध पिलाकर उस बालक के रोने को शांत किया। फिर वह उसे खिलाने लगी। वह स्त्री और कोई नहीं स्वयं पृथ्वी माता थीं।(Rudra Samhita Khand-3 Chapter 1 to 10)

संसार की सृष्टि करने वाले, सबकुछ जानने वाले महादेव जी यह देखकर हंसने लगे। वह पृथ्वी को पहचान चुके थे। वे पृथ्वी से बोले- हे धरिणी ! तुम इस पुत्र का प्रेमपूर्वक पालन करो। यह शिशु मेरे पसीने की बूंद से प्रकट हुआ है। हे वसुधा! यद्यपि यह बालक मेरे पसीने से उत्पन्न हुआ है परंतु इस जगत में यह तुम्हारे ही पुत्र के रूप में जाना जाएगा। यह परम गुणवान और भूमि देने वाला होगा। यह मुझे भी सुख देने वाला होगा। हे देवी! तुम इसका धारण करो।

नारद ! यह कहकर भगवान शिव चुप हो गए। उनका दुखी हृदय थोड़ा शांत हो गया था। उधर शिवजी की आज्ञा का पालन करते हुए पृथ्वी अपने पुत्र को साथ लेकर अपने निवास स्थान पर चली गईं। बड़ा होकर यह बालक ‘भौम’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। युवा होने पर भौम काशी गया। वहां उसने बहुत लंबे समय तक भगवान शिव की सेवा-आराधना की। तब भगवान शंकर की कृपादृष्टि पाकर भूमि पुत्र भौम दिव्यलोक को चले गए।

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