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यजुर्वेद हिंदी में

चार वेदो मे द्वितीय वेद के रूप में प्रसिद्ध यजुर्वेद (Yajurv veda hindi) हे। जिस की रचना ऋग्वेदीय ऋचाओं के मिश्रण से हुई मानी जाती है, क्योंकि ऋग्वेद के 663 मंत्र यजुर्वेद में भी पाए जाते हे। फिर भी नहीं कहा जा सकता है कि दोनों एक ही ग्रंथ है। ऋग्वेद के मंत्र पद्यात्मक हैं, जबकि यजुर्वेद के गद्यात्मक–’गद्यात्मको यजुः साथ ही अनेक मंत्र ऋग्वेद से मिलते-जुलते भी हैं।

यजुर्वेद (Yajurv veda hindi) एक पद्धति ग्रंथ है, जो पौरोहित्य प्रणाली में यज्ञ आदि कर्मकाण्ड संपन्न कराने के लिए संकलित हुआ था। इसीलिए आज भी विभिन्न संस्कारों एवं कर्मकाण्ड के अधिकतर मंत्र यजुर्वेद के ही होते हैं। यज्ञ आदि कर्मों से संबंधित होने के कारण यजुर्वेद कि तुलना में अधिक लोकप्रिय रहा है। यजुर्वेद की 101 शाखाएं बताई गई हैं, किंतु मुख्य दो शाखाएं ही अधिक प्रसिद्ध हे, कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुर्वेद, इन्हें क्रमानुसार तैत्तिरीय और वाजसनेयी संहिता भी कहा जाता हे। इन में से तैत्तिरीय संहिता कि तुलना में अधिक पुरानी मानी जाती है, वैसे दोनों में एक ही सामग्री है। हां, कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुर्वेद के क्रम में कुछ अंतर है। शुक्ल यजुर्वेद कि तुलना में अधिक क्रमबद्ध हे। इस में कुछ ऐसे भी मंत्र हैं, जो कृष्ण यजुर्वेद में नहीं हे।

यजुर्वेद (Yajurv veda hindi) दो संहिताओं में कब और कैसे विभाजित हो गया यह तो प्रामाणिक रूप में उपलब्ध नहीं है, हां, इस संदर्भ में एक रोचक कथा अवश्य प्रचलित है कहा जाता है कि वेदव्यास के शिष्य वैशंपायन के 27 शिष्य थे। उन में से सर्वाधिक बुद्धिमान थे याज्ञवल्क्य। एक बार वैशंपायन ने किसी यज्ञ के लिए अपने सभी शिष्यों को आमंत्रित किया था। उन शिष्य में से कुछ शिष्य कर्मकाण्ड में सम्पूर्ण कुशल नहीं थे।
इसलिये याज्ञवल्क्य ने उन अकुशल शिष्यों का साथ देने से मना कर दिया था। इस से शिष्यों में आपसी विवाद होने लगा। तब वैशंपायन ने जो विद्या याज्ञवल्क्य को सिखाई थी वो याज्ञवल्क्य से वापस अपनी सिखाई हुई विद्या वापस मंगली। याज्ञवल्क्य ने भी आवेश में आकर तुरंत यजुर्वेद का वमन कर दिया। विद्या के कण कृष्ण वर्ण के रक्त से सने हुए थे।

यह देख कर दूसरे शिष्यों ने तीतर बन कर उन कणों को चुग लिया. इन शिष्यों द्वारा विकसित होने वाली यजुर्वेद की शाखा तैत्तिरीय संहिता कहलाई.. इस घटना के बाद याज्ञवल्क्य ने सूर्य की उपासना की और उन से पुनः यजुर्वेद प्राप्त किया. सूर्य ने बाज (अश्व) बन कर याज्ञवल्क्य को यजुर्वेद की शिक्षा दीक्षा दी थी, इसलिए यह शाखा वाजसनेयी कहलाई।

यह कहानी कितनी सच है और कितनी झूठ, यह बता पाना असंभव है. कुछ विद्वान् इसे कपोलकल्पित कहते हैं और कुछ मिथ. कुछ भी हो, इतना निश्चित है कि यजुर्वेद ज्ञान (वेद) की वह शाखा (भाग) है, जिस में कर्मकाण्ड का वर्चस्व है, जिस के बल पर धर्म के धंधेबाजों ने सदियों से जनसामान्य को बेवकूफ बना कर स्वार्थ साधे और आज भी यही हो रहा है।

आज जब देश में संस्कृत के ज्ञाताओं की संख्या जो गिने जाने योग्य रह गई है, उन में भी वैदिक संस्कृत जानने वाले तो और भी कम तब यह आवश्यक हो गया है कि अन्य वेदों (वैदिक ग्रंथों ) के साथसाथ यजुर्वेद का भी सरल हिंदी में अनुवाद प्रस्तुत किया जाए, ताकि साधारण पाठक भी समझ सकें कि यज्ञ, सामाजिक संस्कार आदि कर्मकाण्ड की वर्णन महत्ता निश्चित करने वाले इस वेद के मंत्रों का वास्तविक अर्थ और अभिप्राय क्या है?

कारण यह है कि आरंभ से ही यजुर्वेद को कर्मकाण्ड से संबद्ध माना गया है, इसलिए लगभग सभी प्राचीन आचार्यों ने इस के मंत्रों के अर्थ कर्मकाण्ड के संदर्भ में ही किए हैं इन आचार्यों में उवट ( 1040 ई.) और महीधर (1588 ई.) के भाष्य प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं, जिन्होंने शुक्ल यजुर्वेद पर भाष्य लिखे थे। वे भाष्य आज भी उपलब्ध और विभिन्न विद्वानों द्वारा स्वीकृत हैं. यहां तक कि आचार्य उवट का भाष्य देख कर ही आचार्य सायण ने भी यजुर्वेद के भाष्य पर अपनी कलम नहीं चलाई है।

यजुष’ शब्द का अर्थ है- ‘यज्ञ’। यर्जुवेद मूलतः कर्मकाण्ड ग्रन्थ है। इसकी रचना कुरुक्षेत्र में मानी जाती है। यजुर्वेद में आर्यो की धार्मिक एवं सामाजिक जीवन की झांकी मिलती है। इस ग्रन्थ से पता चलता है कि आर्य ‘सप्त सैंधव’ से आगे बढ़ गए थे और वे प्राकृतिक पूजा के प्रति उदासीन होने लगे थे। यर्जुवेद के मंत्रों का उच्चारण ‘अध्वुर्य’ नामक पुरोहित करता था। इस वेद में अनेक प्रकार के यज्ञों को सम्पन्न करने की विधियों का उल्लेख है। यह गद्य तथा पद्य दोनों में लिखा गया है। गद्य को ‘यजुष’ कहा गया है। यजुर्वेद का अन्तिम अध्याय ईशावास्य उपनिषयद है, जिसका सम्बन्ध आध्यात्मिक चिन्तन से है। उपनिषदों में यह लघु उपनिषद आदिम माना जाता है क्योंकि इसे छोड़कर कोई भी अन्य उपनिषद संहिता का भाग नहीं है।

 

यजुर्वेद के दो मुख्य भाग है :-

1 शुक्ल यजुर्वेद
2 कृष्ण यजुर्वेद

 

यजुर्वेद की अन्य विशेषताएँ :-

यजुर्वेद (Yajurv veda hindi) गद्यात्मक हैं।
यज्ञ में कहे जाने वाले गद्यात्मक मन्त्रों को ‘यजुस’ कहा जाता है।
यजुर्वेद के पद्यात्मक मन्त्र ऋग्वेद या अथर्ववेद से लिये गये है।
इनमें स्वतन्त्र पद्यात्मक मन्त्र बहुत कम हैं।
यजुर्वेद में यज्ञों और हवनों के नियम और विधान हैं।
यह ग्रन्थ कर्मकाण्ड प्रधान है।
यदि ऋग्वेद की रचना सप्त-सिन्धु क्षेत्र में हुई थी तो यजुर्वेद की रचना कुरुक्षेत्र के प्रदेश में हुई थी।
इस ग्रन्थ से आर्यों के सामाजिक और धार्मिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है।
वर्ण-व्यवस्था तथा वर्णाश्रम की झाँकी भी इसमें है।
यजुर्वेद में यज्ञों और कर्मकाण्ड का प्रधान है।

 

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