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Amogha Shiv Kavach in Hindi

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Amogha Shiv Kavach in Hindi

अमोघ शिव कवच भगवान शिव की दिव्य कृपा का कवच | Amogha Shiv Kavach

यह अमोघ शिव कवच (Amogha Shiv Kavach) परम गोपनीय, परम पूज्य, समस्त पापों का नाश करने वाला, समस्त दुर्भाग्यों और विघ्नों का नाश करने वाला, परम पवित्र, विजयदायक और समस्त विपत्तियों का नाश करने वाला माना जाता है। यह परम कल्याणकारी और समस्त भयों का नाश करने वाला है। इसके प्रभाव से, अल्पायु और मृत्यु के निकट स्थित अत्यंत रोगी मनुष्य भी शीघ्र स्वास्थ्य और दीर्घायु प्राप्त करता है।

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धन के अभाव से ग्रस्त मनुष्य की समस्त दरिद्रता दूर हो जाती है और उसे सुख और वैभव की प्राप्ति होती है। पापी महापाप से मुक्त हो जाता है और जो निष्काम मनुष्य इसे भक्तिपूर्वक धारण करता है, उसे मृत्यु के पश्चात दुर्लभ मोक्ष की प्राप्ति होती है। महर्षि ऋषभ ने इसका उपदेश देकर एक संकटग्रस्त राजा को मुक्ति प्रदान की थी। अमोघ शिव कवच(Amogha Shiv Kavach) श्री स्कंद पुराण के ब्रह्मोत्तर खंड में है।

सनातन धर्म की परंपरा में भगवान शिव को भोलेनाथ कहा गया है — जो केवल भक्ति से प्रसन्न होकर अपने भक्तों को अमोघ वरदान देते हैं। उनकी कृपा अनंत है, लेकिन जीवन के संकट, अदृश्य बाधाएँ और मानसिक अशांति से रक्षा के लिए शिव स्तोत्र और कवचों का पाठ अत्यंत प्रभावशाली माना गया है। “अमोघ शिव कवच” एक ऐसा ही दिव्य स्तोत्र है। जिसका नियमित पाठ साधक को दृश्य और अदृश्य दोनों संकटों से सुरक्षा प्रदान करता है।

अमोघ शिव कवच (Amogha Shiv Kavach) केवल शब्द नहीं, एक आध्यात्मिक शक्ति कवच है जो भय, शोक, रोग, शत्रु और दुर्भाग्य को दूर करता है और साधक को भगवान शिव की दिव्य ऊर्जा से जोड़ता है। यह कवच न केवल धार्मिक साधना का अंग है, बल्कि एक ऐसा रक्षात्मक आत्मिक कवच है जो जीवन को शांत, सुरक्षित और शिवमय बना देता है।

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सर्वप्रथम विनियोग त्यागकर ऋष्यदिन्यास, करण्यास और हृदयादि अंगन्यास करके भगवान शिव का ध्यान करें। तत्पश्चात कवच का पाठ करें।

अमोघ शिव कवच | Amogha Shiv Kavach

अस्य श्रीशिवकवचस्तोत्रमन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः,
अनुष्टुप् छन्दः, श्रीसदाशिवरुद्रो देवता, ह्रीं शक्तिः,
वं कीलकम्, श्रीं ह्रीं क्लीं बीजम्,
सदाशिवप्रीत्यर्थे शिवकवचस्तोत्रजपे विनियोगः ।

ऋष्यादिन्यासः
ॐ ब्रह्मर्षये नमः शिरसि । अनुष्टुप् छन्दसे नमः, मुखे।
श्रीसदाशिवरुद्रदेवतायै नमः, हृदि। ह्रीं शक्तये नमः, नमः, पादयोः ।
कीलकाय नमः, नाभौ। वं श्रीं ह्रीं क्लीमिति बीजाय नमः, गुह्ये।
विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ।

अथ करन्यासः
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ ह्रीं रां सर्वशक्तिधाम्ने ईशानात्मने अङ्‌गुष्ठाभ्यां नमः।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ नं रीं नित्यतृप्तिधाम्ने तत्पुरुषात्मने तर्जनीभ्यां स्वाहा।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ में रूं अनादिशक्तिधाम्ने अघोरात्मने मध्यमाभ्यां वषट् ।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ शिं रैं स्वतन्त्रशक्तिधाम्ने वामदेवात्मने अनामिकाभ्यां हुम्।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ वां रौं अलुप्तशक्तिधाम्ने सद्योजातात्मने कनिष्ठिकाभ्यां वौषट् ।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ यं रः अनादिशक्तिधाम्ने सर्वात्मने करतलकरपृष्ठाभ्यां फट् ।

हृदयादि अङ्ग न्यासः
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ ह्रीं रां सर्वशक्तिधाम्ने ईशानात्मने हृदयाय नमः ।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ नं रीं नित्यतृप्तिधाम्ने तत्पुरुषात्मने शिरसे स्वाहा।
वषट्। ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ में रूं अनादिशक्तिधाम्ने अघोरात्मने शिखायै
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ शिं रैं स्वतन्त्रशक्तिधाम्ने वामदेवात्मने कवचाय हुम्।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ वां रौं अलुप्तशक्तिधाम्ने सद्योजातात्मने नेत्रत्रयाय वौषट् ।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ यं रः अनादिशक्तिधाम्ने सर्वात्मने अस्त्राय फट्।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ भूतनाथ अष्टकम्:

अथ ध्यानम्
वज्रदंष्ट्रं त्रिनयनं कालकण्ठमरिंदमम् ।
सहस्त्रकरमप्युग्रं वन्दे शम्भुमुमापतिम् ॥
अर्थ:
जिनकी दाढ़ें वज्रके समान हैं, जो तीन नेत्र धारण करते हैं, जिनके कण्ठमें हलाहल-पानका नील चिह्न सुशोभित होता है, जो शत्रुभाव रखनेवालोंका दमन करते हैं, जिनके सहस्रों कर (हाथ अथवा किरणें) हैं तथा जो अभक्तोंके लिये अत्यन्त उग्र हैं, उन उमापति शम्भुको मैं प्रणाम करता हूँ।

ऋषभ उवाच
अथापरं निःशेषपापौघहरं सर्वपुराणगुह्यं पवित्रम् ।
जयप्रदं सर्वविपद्विमोचनं वक्ष्यामि शैवं कवचं हिताय ते॥
अर्थ:
ऋषभजी कहते हैं- जो सम्पूर्ण पुराणोंमें गोपनीय कहा गया है, समस्त पापोंको हर लेनेवाला है, पवित्र, जयदायक तथा सम्पूर्ण विपत्तियोंसे छुटकारा दिलानेवाला है, उस सर्वश्रेष्ठ शिवकवचका मैं तुम्हारे हितके लिये उपदेश करूँगा।

नमस्कृत्य महादेवं विश्वव्यापिनमीश्वरम् ।
वक्ष्ये शिवमयं वर्म सर्वरक्षाकरं नृणाम् ॥ १ ॥
अर्थ:
मैं विश्वव्यापी ईश्वर महादेवजीको नमस्कार करके मनुष्योंकी सब प्रकारसे रक्षा करनेवाले इस शिवस्वरूप कवचका वर्णन करता हूँ ॥ १॥

शुचौ देशे समासीनो यथावत्कल्पितासनः ।
जितेन्द्रियो जितप्राणश्चिन्तयेच्छिवमव्ययम् ॥ २ ॥
अर्थ:
पवित्र स्थानमें यथायोग्य आसन बिछाकर बैठे। इन्द्रियोंको अपने वशमें करके प्राणायामपूर्वक अविनाशी भगवान् शिवका चिन्तन करे ॥ २ ॥

हृत्पुण्डरीकान्तरसंनिविष्टं स्वतेजसा व्याप्तनभोऽवकाशम् ।
अतीन्द्रियं सूक्ष्ममनन्तमाद्यं ध्यायेत् परानन्दमयं महेशम् ॥ ३ ॥
अर्थ:
‘परमानन्दमय भगवान् महेश्वर हृदय-कमलके भीतरकी कर्णिकामें विराजमान हैं, उन्होंने अपने तेजसे आकाशमण्डलको व्याप्त कर रखा है। वे इन्द्रियातीत, सूक्ष्म, अनन्त एवं सबके आदिकारण हैं।’ इस तरह उनका चिन्तन करे ॥ ३ ॥

ध्यानावधूताखिलकर्मबन्ध-श्चिरं चिदानन्दनिमग्नचेताः ।
षडक्षरन्याससमाहितात्मा शैवेन कुर्यात् कवचेन रक्षाम् ॥४॥
अर्थ:
इस प्रकार ध्यानके द्वारा समस्त कर्मबन्धनका नाश करके चिदानन्दमय भगवान् सदाशिवमें अपने चित्तको चिरकालतक लगाये रहे। फिर षडक्षरन्यासके द्वारा अपने मनको एकाग्र करके मनुष्य निम्नांकित शिवकवचके द्वारा अपनी रक्षा करे ॥ ४॥

मां तन्नाम पातु संसारकूपे देवोऽखिलदेवतात्मा पतितं दिव्यं गभीरे।
वरमन्त्रमूलं धुनोतु मे सर्वमघं हृदिस्थम् ॥ ५॥
अर्थ:
‘सर्वदेवमय महादेवजी गहरे संसार-कूपमें गिरे हुए मुझ असहायकी रक्षा करें। उनका दिव्य नाम जो उनके श्रेष्ठ मन्त्रका मूल है, मेरे हृदयस्थित समस्त पापोंका नाश करे ॥५॥

सर्वत्र मां रक्षतु विश्वमूर्ति-ज्योतिर्मयानन्दघनश्चिदात्मा।
अणोरणीयानुरुशक्तिरेकः यो स ईश्वरः पातु भयादशेषात् ॥ ६ ॥
अर्थ:
सम्पूर्ण विश्व जिनकी मूर्ति है, जो ज्योतिर्मय आनन्दघनस्वरूप चिदात्मा हैं; वे भगवान् शिव मेरी सर्वत्र रक्षा करें। जो सूक्ष्मसे भी अत्यन्त सूक्ष्म हैं, महान् शक्तिसे सम्पन्न हैं, वे अद्वितीय ‘ईश्वर’ महादेवजी सम्पूर्ण भयोंसे मेरी रक्षा करें ॥ ६ ॥

भूस्वरूपेण बिभर्ति विश्वं पायात् स भूमेर्गिरिशोऽष्टमूर्तिः ।
योऽपां स्वरूपेण नृणां करोति संजीवनं सोऽवतु मां जलेभ्यः ॥ ७॥
अर्थ:
जिन्होंने पृथ्वीरूपसे इस विश्वको धारण कर रखा है, वे अष्टमूर्ति ‘गिरिश’ पृथ्वीसे मेरी रक्षा करें। जो जलरूपसे जीवोंको जीवनदान दे रहे हैं, वे ‘शिव’ जलसे मेरी रक्षा करें ॥ ७॥

कल्पावसाने भुवनानि दग्ध्वा सर्वाणि यो नृत्यति भूरिलीलः ।
स कालरुद्रोऽवतु मां दवाग्ने-र्वात्यादिभीतेरखिलाच्च तापात् ॥८॥
अर्थ:
अर्थ:जो विशद लीलाविहारी ‘शिव’ कल्पके अन्तमें समस्त भुवनोंको दग्ध करके (आनन्दसे) नृत्य करते हैं, वे ‘कालरुद्र’ भगवान् दावानलसे, आँधी-तूफानके भयसे और समस्त तापोंसे मेरी रक्षा करें ॥ ८ ॥(Amogha Shiv Kavach)

प्रदीप्तविद्युत्कनकावभासो विद्यावराभीतिकुठारपाणिः।
चतुर्मुखस्तत्पुरुषस्त्रिनेत्रः प्राच्यां स्थितं रक्षतु मामजस्त्रम् ॥ ९ ॥
अर्थ:
प्रदीप्त विद्युत् एवं स्वर्णके सदृश जिनकी कान्ति है, विद्या, वर और अभय (मुद्राएँ) तथा कुल्हाड़ी जिनके कर कमलोंमें सुशोभित हैं, चतुर्मुख त्रिलोचन हैं, वे भगवान् ‘तत्पुरुष’ पूर्व दिशामें निरन्तर मेरी रक्षा करें ॥ ९ ॥

कुठारवेदा‌ङ्कुशपाशशूल कपालढक्काक्षगुणान् दधानः ।
चतुर्मुखो नीलरुचिस्त्रिनेत्रः पायादघोरो दिशि दक्षिणस्याम् ॥ १०॥
अर्थ:
जिन्होंने अपने हाथोंमें कुल्हाड़ी, वेद, अंकुश, फंदा, त्रिशूल, कपाल, डमरू और रुद्राक्षकी मालाको धारण कर रखा है तथा जो चतुर्मुख हैं, वे नीलकान्ति त्रिनेत्रधारी भगवान् ‘अघोर’ दक्षिण दिशामें मेरी रक्षा करें ॥ १० ॥

कुन्देन्दुशङ्खस्फटिकावभासो वेदाक्षमालावरदाभयाङ्कः
त्र्यक्षश्चतुर्वक्त्र उरुप्रभावः सद्योऽधिजातोऽवतु मां प्रतीच्याम् ॥ ११॥
अर्थ:
कुन्द, चन्द्रमा, शंख और स्फटिकके समान जिनकी उज्ज्वल कान्ति है, वेद, रुद्राक्षमाला, वरद और अभय (मुद्राओं) से जो सुशोभित हैं, वे महाप्रभावशाली चतुरानन एवं त्रिलोचन भगवान ‘सद्योजात’ पश्चिम दिशामें मेरी रक्षा करें ॥ ११ ॥

वराक्षमालाभयटङ्कहस्तः सरोजकिञ्जल्कसमानवर्णः
त्रिलोचनश्चारुचतुर्मुखो मां पायादुदीच्यां दिशि वामदेवः ॥ १२॥
अर्थ:
जिनके हाथोंमें वर एवं अभय (मुद्राएँ), रुद्राक्षमाला और टाँकी विराजमान हैं तथा कमलकिंजल्कके सदृश जिनका गौर वर्ण है, वे सुन्दर चार मुखवाले त्रिनेत्रधारी भगवान् ‘वामदेव’ उत्तर दिशामें मेरी रक्षा करें ॥ १२ ॥

वेदाभयेष्टा‌ङ्कुशपाशटङ्क-कपालढक्काक्षकशूलपाणिः।
सितद्युतिः पञ्चमुखोऽवतान्मा- मीशान ऊर्ध्वं परमप्रकाशः ॥ १३ ॥
अर्थ:
जिनके कर कमलोंमें वेद, अभय और वर (मुद्राएँ), अंकुश, टाँकी, फंदा, कपाल, डमरू, रुद्राक्षमाला और त्रिशूल सुशोभित हैं, जो श्वेत आभासे युक्त हैं, वे परम प्रकाशरूप पंचमुख भगवान् ‘ईशान’ मेरी ऊपरसे रक्षा करें ॥ १३ ॥

मूर्द्धानमव्यान्मम चन्द्रमौलि र्भालं ममाव्यादथ भालनेत्रः ।
नेत्रे ममाव्याद् भगनेत्रहारी नासां सदा रक्षतु विश्वनाथः ॥ १४ ॥
अर्थ:
भगवान् ‘चन्द्रमौलि’ मेरे सिरकी,’ भालनेत्र’ मेरे ललाटकी,’ भगनेत्रहारी’ मेरे नेत्रोंकी और ‘विश्वनाथ’ मेरी नासिकाकी सदा रक्षा करें ॥ १४ ॥

पायाच्छ्रुती मे श्रुतिगीतकीर्तिः कपोलमव्यात् सततं कपाली।
वक्त्रं सदा रक्षतु पञ्चवक्त्रो जिह्वां सदा रक्षतु वेदजिह्वः ॥ १५ ॥
अर्थ:
‘श्रुतिगीतकीर्ति’ मेरे कानोंकी, ‘कपाली’ निरन्तर मेरे कपोलोंकी, ‘पंचमुख’ मुखकी तथा ‘वेदजिह्व’ जीभकी रक्षा करें ॥ १५ ॥(Amogha Shiv Kavach)

कण्ठं गिरीशोऽवतु पाणिद्वयं पातु नीलकण्ठः पिनाकपाणिः ।
धर्मबाहु- दोर्मूलमव्यान्मम र्वक्षःस्थलं दक्षमखान्तकोऽव्यात् ॥ १६ ॥
अर्थ:
‘नीलकण्ठ’ महादेव मेरे गलेकी, ‘पिनाकपाणि’ मेरे दोनों हाथोंकी, ‘धर्मबाहु’ दोनों कंधोंकी तथा ‘दक्षयज्ञविध्वंसी’ मेरे वक्षःस्थलकी रक्षा करें ॥ १६ ॥

ममोदरं पातु मध्यं गिरीन्द्रधन्वा ममाव्यान्मदनान्तकारी ।
हेरम्बतातो मम पातु नाभिं पायात् कटी धूर्जटिरीश्वरो मे ॥ १७॥
अर्थ:
‘गिरीन्द्रधन्वा’ मेरे पेटकी, ‘कामदेवके नाशक’ मध्यदेशकी, ‘गणेशजीके पिता’ मेरी नाभिकी तथा ‘धूर्जट’ मेरी कटिकी रक्षा करें ॥ १७ ॥

ऊरूद्वयं पातु कुबेरमित्रो जानुद्वयं मे जगदीश्वरोऽव्यात् ।
जङ्घायुगं पुङ्गवकेतुरव्यात् पादौ ममाव्यात् सुरवन्द्यपादः ॥ १८ ॥
अर्थ:
‘कुबेरमित्र’ मेरी दोनों जाँघोंकी, ‘जगदीश्वर’ दोनों घुटनोंकी, ‘पुंगवकेतु’ दोनों पिंडलियोंकी और ‘सुरवन्द्यचरण’ मेरे पैरोंकी सदैव रक्षा करें ॥ १८ ॥

महेश्वरः पातु दिनादियामे मां मध्ययामेऽवतु वामदेवः ।
त्र्यम्बकः पातु तृतीययामे वृषध्वजः पातु दिनान्त्ययामे ॥ १९ ॥
अर्थ:
‘महेश्वर’ दिनके पहले पहरमें मेरी रक्षा करें। ‘वामदेव’ मध्य पहरमें मेरी रक्षा करें। ‘त्र्यम्बक’ तीसरे पहरमें और ‘वृषभध्वज’ दिनके अन्तवाले पहरमें मेरी रक्षा करें ॥ १९ ॥

पायान्निशादौ शशिशेखरो मां गङ्गाधरो रक्षतु मां निशीथे।
गौरीपतिः पातु निशावसाने मृत्युञ्जयो रक्षतु सर्वकालम् ॥ २० ॥
अर्थ:
‘शशिशेखर’ रात्रिके आरम्भमें, ‘गंगाधर’ अर्धरात्रिमें, ‘गौरीपति’ रात्रिके अन्तमें और ‘मृत्युंजय’ सर्वकालमें मेरी रक्षा करें ॥ २०॥

अन्तःस्थितं रक्षतु शङ्करो मां स्थाणुः सदा पातु बहिःस्थितं माम् ।
तदन्तरे पातु पतिः पशूनां सदाशिवो रक्षतु मां समन्तात् ॥ २१ ॥
अर्थ:
‘शंकर’ घरके भीतर रहनेपर मेरी रक्षा करें। ‘स्थाणु’ बाहर रहनेपर मेरी रक्षा करें, ‘पशुपति’ बीचमें मेरी रक्षा करें और ‘सदाशिव’ सब ओर मेरी रक्षा करें ॥ २१ ॥

तिष्ठन्तमव्याद्भुवनैकनाथः पायाद् व्रजन्तं प्रमथाधिनाथः ।
वेदान्तवेद्योऽवतु मां निषण्णं मामव्ययः पातु शिवः शयानम् ॥ २२ ॥
अर्थ:
‘भुवनैकनाथ’ खड़े होनेके समय, ‘प्रमथनाथ’ चलते समय, ‘वेदान्तवेद्य’ बैठे रहनेके समय और ‘अविनाशी शिव’ सोते समय मेरी रक्षा करें ॥ २२ ॥

मार्गेषु मां रक्षतु नीलकण्ठः शैलादिदुर्गेषु पुरत्रयारिः ।
अरण्यवासादिमहाप्रवासे पायान्मृगव्याध उदारशक्तिः ॥ २३ ॥
अर्थ:
‘नीलकण्ठ’ रास्तेमें मेरी रक्षा करें। ‘त्रिपुरारि’ शैलादि दुर्गोंमें और उदारशक्ति ‘मृगव्याध’ वनवासादि महान् प्रवासोंमें मेरी रक्षा करें ॥ २३ ॥

कल्पान्तकाटोपपटुप्रकोपः स्फुटाट्टहासोच्चलिताण्डकोशः ।
घोरारिसेनार्णवदुर्निवार-महाभयाद् रक्षतु वीरभद्रः ॥ २४॥
अर्थ:
जिनका प्रबल क्रोध कल्पोंका अन्त करनेमें अत्यन्त पटु है, जिनके प्रचण्ड अट्टहाससे ब्रह्माण्ड काँप उठता है, वे ‘वीरभद्रजी’ समुद्रके सदृश भयानक शत्रुसेनाके दुर्निवार महान् भयसे मेरी रक्षा करें ॥ २४॥

पत्त्यश्वमातङ्गघटावरूथ-सहस्त्रलक्षायुतकोटिभीषणम्।
अक्षौहिणीनां छिन्द्यान्मृडो शतमाततायिनां घोरकुठारधारया ॥ २५ ॥
अर्थ:
भगवान् ‘मृड’ मुझपर आततायीरूपसे आक्रमण करनेवालोंकी हजारों, दस हजारों, लाखों और करोड़ों पैदलों, घोड़ों और हाथियोंसे युक्त अति भीषण सैकड़ों अक्षौहिणी सेनाओंका अपनी घोर कुठारधारसे भेदन करें ॥ २५ ॥

निहन्तु दस्यून् प्रलयानलार्चि-ज्वलत् त्रिशूलं त्रिपुरान्तकस्य ।
शार्दूलसिंहर्क्षवृकादिहिंस्त्रान् संत्रासयत्वीशधनुः पिनाकम् ॥ २६ ॥
अर्थ:
भगवान् ‘त्रिपुरान्तक ‘का प्रलयाग्निके समान ज्वालाओंसे युक्त जलता हुआ त्रिशूल मेरे दस्युदलका विनाश कर दे और उनका पिनाक धनुष चीता, सिंह, रीछ, भेड़िया आदि हिंस्र जन्तुओंको संत्रस्त करे ॥ २६ ॥

दुःस्वप्नदुश्शकुन दुर्गतिदौर्मनस्य-दुर्भिक्षदुर्व्यसनदुस्सहदुर्यशांसि
उत्पाततापविषभीतिमसङ्ग्रहार्ति-व्याधींश्च नाशयतु मे जगतामधीशः ॥ २७॥
अर्थ:
वे जगदीश्वर मेरे बुरे स्वप्न, बुरे शकुन, बुरी गति, मनकी दुष्ट भावना, दुर्भिक्ष, दुर्व्यसन, दुस्सह अपयश, उत्पात, संताप, विषभय, दुष्ट ग्रहोंकी पीड़ा तथा समस्त रोगोंका नाश करें ॥ २७ ॥

ॐ नमो भगवते सदाशिवाय सकलतत्त्वात्मकाय सकलतत्त्वविहाराय सकललोकैककर्ते सकललोकैकभत्रै सकललोकैकहर्ने सकललोकैकगुरवे सकललोकैकसाक्षिणे सकलनिगमगुह्याय सकलवरप्रदाय सकलदुरितार्त्तिभञ्जनाय सकलजगदभयंकराय सकललोकैकशङ्कराय शशाङ्कशेखराय शाश्वतनिजाभासाय निर्गुणाय निरुपमाय नीरूपाय निराभासाय निरामयाय निष्प्रपञ्चाय निष्कल‌ङ्काय निर्द्वन्द्वाय निस्सङ्गाय निर्मलाय निर्गमाय नित्यरूपविभवाय निरुपमविभवाय निराधाराय नित्यशुद्धबुद्धपरिपूर्णसच्चिदान-दाद्वयाय परमशान्तप्रकाशतेजोरूपाय जय जय महारुद्र महारौद्र भद्रावतार दुःखदावदारण महाभैरव कालभैरव कल्पान्तभैरव कपालमालाधर खट्‌वाङ्गखङ्गचर्मपाशाङ्कुशडमरुशूलचापबाणगदाशक्तिभिन्दिपाल- तोमरमुसलमुद्गरपट्टिशपरशुपरिघभुशुण्डीशतघ्नीचक्राद्यायुधभीषणकर सहस्त्रमुख दंष्ट्राकराल विकटाट्टहासविस्फारितब्रह्माण्डमण्डलनागेन्द्रकुण्डल नागेन्द्रहार नागेन्द्रवलय नागेन्द्रचर्मधर मृत्युञ्जय त्र्यम्बक त्रिपुरान्तक विरूपाक्ष विश्वेश्वर विश्वरूप वृषभवाहन विषभूषण विश्वतोभुख सर्वतो रक्ष रक्ष मां ज्वल ज्वल महामृत्युभयमपमृत्युभयं नाशय नाशय रोगभयमुत्सादयोत्सादय विषसर्पभयं शमय शमय चोरभयं मारय मारय मम शत्रूनुच्चाटयोच्चाटय शूलेन विदारय विदारय कुठारेण भिन्धि भिन्धि खड्गेन छिन्धि छिन्धि खट्‌वा‌ङ्गेन विपोथय विपोथय मुसलेन निष्पेषय निष्पेषय बाणैः संताडय संताडय रक्षांसि भीषय भीषय भूतानि विद्रावय विद्रावय कूष्माण्डवेतालमोरीगणब्रह्मराक्षसान् संत्रासय संत्रासय मामभयं कुरु कुरु वित्रस्तं मामाश्वासयाश्वासय नरकभयान्मामुद्धारयोद्धारय संजीवय संजीवय क्षुत्तृड्भ्यां मामाप्याययाप्यायय दुःखातुरं मामानन्दयानन्दय शिवकवचेन मामाच्छादयाच्छादय त्र्यम्बक सदाशिव नमस्ते नमस्ते नमस्ते ।

अर्थ:
ॐ का अर्थ है, जिनके रूप ही संपूर्ण सार हैं, जो सभी सारों में विचरण करते हैं, जो सभी लोकों के एकमात्र कर्ता और सभी लोकों के एकमात्र पालनकर्ता हैं, जो सभी लोकों के एकमात्र संहारक हैं, सभी लोकों के एकमात्र शिक्षक हैं, सभी लोकों के एकमात्र साक्षी हैं, जो जगत को सुरक्षा प्रदान करते हैं, सभी लोकों के एकमात्र कल्याणकारी हैं, चंद्रमा का मुकुट धारण करते हैं, अपने शाश्वत प्रकाश से चमकते हैं, निर्गुण, तुलना रहित, निराकार, प्रतिबिंब रहित, उपचारक, दिखावा रहित, दोष रहित, द्वैत रहित, संगति रहित, शुद्ध, गतिहीन। भगवान सदाशिव को नमस्कार है, जो नित्य शुद्ध, बुद्ध, पूर्ण, सच्चे आनंद में सघन, अद्वितीय और परम शांत, प्रकाशमान, तेजस्वी हैं। हे महारुद्र, महारौद्र, भद्रावतार, कष्ट-दावाग्नि-विदरन, महाभैरव, कालभैरव, कल्पान्तभैरव, कपालभाति! हे खट्वांग, तलवार, ढाल, जाल, अंकुश, डफ, त्रिशूल, धनुष, बाण, गदा, शक्ति, भिन्दिपाल, तोमर, मूसल, मुद्गर, पट्टिश, परशु, परिघ, भुशुण्डि, शतघ्नी और चक्र आदि आयुधों वाले भयानक हाथों के स्वामी! हे सहस्र मुख और विषदंतों वाले भयानक, भयंकर गर्जना से विशाल ब्रह्माण्ड का विस्तार करने वाले, नागेन्द्र वासुकि को कुण्डल, हार, कंगन और ढाल के रूप में धारण करने वाले, मृत्युंजय, त्रिनेत्र, त्रिपुरानाशक, भयानक नेत्रों वाले, मुखवाले शंकर! आपकी जय हो, जय हो! आप सब ओर से मेरी रक्षा करें, मेरी रक्षा करें। प्रज्वलित होइए, प्रज्वलित होइए। मेरे महामृत्यु के भय और अमरता के भय को नष्ट कर दीजिए, नष्ट कर दीजिए। (बाह्य और आंतरिक) रोग और भय को जड़ से मिटा दो, जड़ से मिटा दो। विष और सर्प के भय को शांत करो, उन्हें शांत करो। चोरों के भय को मार डालो, उन्हें मार डालो। मेरे (काम, क्रोध, लोभ आदि इंद्रियों और शरीर के आंतरिक और बाह्य पाप कर्मों) को बढ़ाओ, बढ़ाओ; त्रिशूल से छेदो; कुल्हाड़ी से काट डालो; तलवार से छेदो; तलवार से नष्ट करो, नष्ट करो; भालों से पीसो, बाणों से पीसो, बाणों से छेदो, बांधो। (आप मेरा उल्लंघन करने वाले राक्षसों को भय दिखाते हैं), भय दिखाते हैं। भूतों को भगा दो, उन्हें भगा दो। कूष्मांडा, वेताल, मारिस और ब्रह्मराक्षसों को डराओ, डराओ। मुझे सुरक्षा दो, मुझे सुरक्षा दो। मुझे विश्वास दिलाओ, मुझे विश्वास दिलाओ, जो बहुत भयभीत है। मुझे नरक के भय से बचाओ, मुझे बचाओ। मुझे जीवन दो, मुझे जीवन दो। मेरी भूख और प्यास दूर करके मुझे पिलाओ, मुझे पिलाओ। आपकी जय हो, आपकी जय हो। मुझे प्रसन्न करो, मुझे प्रसन्न करो। मुझे शिव के कवच से ढक दो, मुझे ढक दो। त्र्यम्बक सदाशिव! नमस्ते, नमस्ते, नमस्ते।

ऋषभ उवाच
इत्येतत्कवचं शैवं वरदं व्याहृतं मया।
सर्वबाधाप्रशमनं रहस्यं सर्वदेहिनाम् ॥ २८ ॥
अर्थ:
ऋषभजी कहते हैं- इस प्रकार यह वरदायक शिवकवच मैंने कहा है। यह सम्पूर्ण बाधाओंको शान्त करनेवाला तथा समस्त देहधारियोंके लिये गोपनीय रहस्य है ॥ २८ ॥

यः सदा धारयेन्मर्त्यः शैवं कवचमुत्तमम् ।
न तस्य जायते क्वापि भयं शम्भोरनुग्रहात् ॥ २९ ॥
अर्थ:
जो मनुष्य इस उत्तम शिवकवचको सदा धारण करता है, उसे भगवान् शिवके अनुग्रहसे कभी और कहीं भी भय नहीं होता ॥ २९ ॥

क्षीणायुर्मृत्युमापन्नो महारोगहतोऽपि वा।
सद्यः सुखमवाप्नोति दीर्घमायुश्च विन्दति ॥ ३० ॥
अर्थ:
जिसकी आयु क्षीण हो चली है, जो मरणासन्न हो गया है अथवा जिसे महान् रोगोंने मृतक-सा कर दिया है, वह भी इस कवचके प्रभावसे तत्काल सुखी हो जाता और दीर्घायु प्राप्त कर लेता है ॥ ३० ॥(Amogha Shiv Kavach)

सर्वदारिद्र्यशमनं सौमङ्गल्यविवर्धनम् ।
यो धत्ते कवचं शैवं स देवैरपि पूज्यते ॥ ३१ ॥
अर्थ:
शिवकवच समस्त दरिद्रताका शमन करनेवाला और सौमंगल्यको बढ़ानेवाला है, जो इसे धारण करता है, वह देवताओंसे भी पूजित होता है ॥ ३१ ॥

महापातकसंघातैर्मुच्यते चोपपातकैः ।
देहान्ते शिवमाप्नोति शिववर्मानुभावतः ॥ ३२ ॥
अर्थ:
इस शिवकवचके प्रभावसे मनुष्य महापातकोंके समूहों और उपपातकोंसे भी छुटकारा पा जाता है तथा शरीरका अन्त होनेपर शिवको पा लेता है ॥ ३२ ॥

त्वमपि श्रद्धया वत्स शैवं कवचमुत्तमम् ।
धारयस्व मया दत्तं सद्यः श्रेयो ह्यवाप्स्यसि ॥ ३३ ॥
अर्थ:
वत्स ! तुम भी मेरे दिये हुए इस उत्तम शिवकवचको श्रद्धापूर्वक धारण करो, इससे तुम शीघ्र और निश्चय ही कल्याणके भागी होओगे ॥ ३३ ॥

इति श्रीस्कान्दे महापुराणे एकाशीतिसाहस्त्रयां तृतीये ब्रह्मोत्तरखण्डे अमोघशिवकवचं सम्पूर्णम् ।

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