loader image

स्वस्तिक (Swasti Mantra Or Swastivachan) का महत्व अर्थ सहित हिंदी में

blog
स्वस्तिक (Swasti Mantra Or Swastivachan) का महत्व अर्थ सहित हिंदी में

स्वस्तिक मंत्र (Swasti Mantra Or Swastivachan) महत्व:-

स्वस्तिक मंत्र (Swasti Mantra Or Swastivachan) शुभ और शांति के लिए पूर्ण रुप से युक्त होता है। स्वस्तिक मंत्र अर्थ स्वस्ति = सु + अस्ति = कल्याण होता है।

स्वस्तिक में एक दूसरे को काटती हुई दो सीधी रेखाएँ होती हैं, जो आगे चलकर मुड़ जाती हैं। इसके बाद भी ये रेखाएँ अपने सिरों पर थोड़ी और आगे की तरफ मुड़ी होती हैं। स्वस्तिक की यह आकृति दो प्रकार की हो सकती है। प्रथम स्वस्तिक (Swasti Mantra Or Swastivachan), जिसमें रेखाएँ आगे की ओर इंगित करती हुई हमारे दायीं ओर मुड़ती हैं। इसे ‘स्वस्तिक’ कहते हैं। यही शुभ चिह्न है, जो हमारी प्रगति की ओर संकेत करता है।स्वस्तिक को ऋग्वेद की ऋचा में सूर्य का प्रतीक माना गया है और उसकी चार भुजाओं को चार दिशाओं की उपमा दी गई है।

सिद्धान्तसार नामक ग्रन्थ में उसे विश्व ब्रह्माण्ड का प्रतीक चित्र माना गया है। उसके मध्य भाग को विष्णु की कमल नाभि और रेखाओं को ब्रह्माजी के चार मुख, चार हाथ और चार वेदों के रूप में निरूपित किया गया है। अन्य ग्रन्थों में चार युग, चार वर्ण, चार आश्रम एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार प्रतिफल प्राप्त करने वाली समाज व्यवस्था एवं वैयक्तिक आस्था को जीवन्त रखने वाले संकेतों को स्वस्तिक (Swasti Mantra Or Swastivachan) में ओत-प्रोत बताया गया है। स्वास्तिक की चार रेखाओं को जोडऩे के बाद मध्य में बने बिंदु को भी विभिन्न मान्यताओं द्वारा परिभाषित किया जाता है।

स्वस्तिक (Swasti Mantra Or Swastivachan) मंत्र का उच्चारण करने से हृदय और मन का मिलन होता हैं। स्वस्तिक मंत्र (Swastik Mantra) को पढ़ते हुए दर्भ से जल के छींटे डाले जाते है, और यह भी यह भी मान्यता है कि यह जल परस्पर में होनेवाला क्रोध और वैमनस्य को शांत कर देता है। ‘स्वस्तिवाचन’ को स्वस्ति मंत्र का पाठ कहा जाता है। किसी भी शुभ कार्य जैसे : गृहनिर्माण, गृहप्रवेश, षोडश संस्कार, यात्रा आदि के आरंभ में स्वस्तिक मंत्र का उच्चारण किया जाता है। जिससे शुभ कार्य निर्विघ्न सम्पन्न होता है।

स्वस्तिक (Swasti Mantra Or Swastivachan) मंत्र का प्रयोग किसी भी पूजा अनुष्ठान में प्रारंभ में किया जाना वाला मंत्र है। स्वस्तिक मंत्र को पढ़ने के पश्चात दसों दिशाओं में अभिमंत्रित जल का छींटे डाले जाते है। स्वस्तिक मंत्र में स्वस्ति शब्द ला चार बार प्रयोग किया गया है, इसलिए चार बार मंगल और शुभ की कामना से भगवान श्री गणेश का आवाहन किया गया है।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री गणेश स्तोत्र

स्वस्तिक मंत्र (Swasti Mantra Or Swastivachan)

ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ।
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्ताक्ष्यों अरिष्टनेमिः ।
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।

(Swasti Mantra Or Swastivachan)अर्थ:
हे महान कीर्ति वाले इन्द्र देव हमारा मंगल करो, सारे संसार के ज्ञानस्वरूप पूषादेव हमारा कल्याण करो। जिसका हथियार अटूट है, ऐसे भगवान विष्णु के वाहन गरुड़जी हमारा मंगल करो। भगवान बृहस्पति हमारा कल्याण करो।

स्वस्तिक मंत्र शुभ और शांति के लिए प्रयुक्त होता है। स्वस्ति सु + अस्ति = कल्याण हो । ऐसा माना जाता है कि इससे हृदय और मन मिल जाते हैं। मंत्रोच्चार करते हुए दर्भ से जल के छींटे डाले जाते है। तथा यह माना जाता है कि यह जल पारस्परिक क्रोध और वैमनस्य को शांत कर रहा है। स्वस्ति मंत्र का पाठ करने की क्रिया ‘स्वस्तिवाचन’ कहलाती है।

यह मंत्र किसी भी शुभ कार्य जैसे गृहनिर्माण, गृहप्रवेश, षोडश संस्कार, यात्रा आदि के आरंभ में बोला जाता है, जिससे सभी कार्य निर्विघ्न सम्पन्न होते है।

दूर्वा का महत्त्व:-

दूर्वा को संस्कृत में दूर्वा, अनंता, गौरी, अमृता, शतपर्वा, भार्गवी, महोषधि आदि नमो से जाना जाता है। दूर्वा औषधीय गुणों से युक्त एक प्रकार की पवित्र घास है, जिसे ‘दूब’ भी कहा जाता है। विघ्नहर्ता भगवान गणेश की पूजा में दूर्वा का प्रयोग विशेष रूप से किया जाता है।

दूर्वा का उपयोग हिंदू धर्म में विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों और समारोहों में किया जाता है। माना जाता है कि पूजा में दुर्वा का उपयोग करने से मनोकामना पूर्ति, संतुष्टि, समृद्धि और अच्छा स्वास्थ्य जैसे विभिन्न लाभ होते हैं।

भगवान श्री गणेश को दूर्वा अर्पण करते समय इस मंत्र को पढ़े
“श्री गणेशाय नमः दूर्वांकुरान् समर्पयामि”

पुराणों के अनुसार देवताओं और दानवों ने अमृत प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन किया तब मंदराचल पर्वत को भगवान विष्णु ने अपने हाथों से उठाकर जांघ पर रख लिया था। तेजी से मंदराचल पर्वत घूमने लगा तो उसकी रगड़ से भगवान विष्णु की जांघ से रोम उखड़कर समुद्र में गिर गई।

समुद्र की लहरों ने भगवान विष्णु की इस रोमों को उछाल कर धरती पर गिरा दिया। यही रोम सुंदर शुभ हरे रंग की दूर्वा के रूप में उत्पन्न हो गई थी। समुद्र मंथन से निकला अमृत का कलश देवताओं ने दूर्वा पर रखा था। अमृत की कुछ बूंदे दूर्वा पर गिर ने से शुभ हरे रंग की दूर्वा अमर हो गई। तब से दूर्वा देवताओं के लिए पूजनीय हो गई।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय

पान का पत्ता:-

पान का पत्ता ताजगी, समृद्धि और सम्मान का प्रतीक है। पुराणों में स्कंद पुराण के अनुसार देवताओं और दानवो द्वारा अमृत के लिए किये गए समुद्र मंथन के दौरान पान का पत्ता देवताओं द्वारा प्राप्त किया गया था। इसलिए पूजा, अनुष्ठान आदि शुभ कार्य में पान के पत्ते का उपयोग किया जाता है। पान का पत्ता जब भी देवी-देवताओ को अर्पण किया जाये तो यह सम्मान का प्रतिक माना जाता है।

हिंदू धर्म में पान के पत्ते को शुभ एवम धार्मिक कार्यो में विशेष रूप से प्रयोग किया जाता है। हिंदू पवित्र पेड़ों और पौधों, जिसमें दूर्वा घास, तुलसी, बिल्व, आदि के साथ सुपारी या पान समान महत्व रखता है। इसलिए भगवान की पूजा में नैवेद्यम के बाद, ताम्बूलम को चढ़ाया जाता है। हिन्दू धर्म में पान के पत्ते का उपयोग आध्यात्मिक और स्वास्थ्य दोनों कारणों से पूजा-विधि में होता है। भारत में पान के पत्ते को क्षेत्रीय भाषाओं में पान, नागवे, वेट्टा या वेटिला आदि नमो से जाना जाता है।

तुलसी का महत्व:

पुराणों और शास्त्रों के अनुसार भगवान की पूजा में तुलसी को विशेष महत्व दिया गया है। भगवान श्री कृष्णा और भगवान विष्णु की पूजा में तुलसी दल ना हो तो पूजा पूरी नहीं होती है।

हिन्दू धर्म ग्रंथो के अनुसार तुलसी के पौधे में माता लक्ष्मी का वास रहता है। तुलसी भगवान विष्णु को बहुत ही प्रिय होती है इसलिए तुलसी को हरिप्रिय कहा गया है। तुलसी के तीन प्रकार कृष्ण तुलसी, सफेद तुलसी और राम तुलसी है। इस में सर्वप्रिय कृष्ण तुलसी को माना जाता है। तुलसी के पत्तों और मंजरी को पूजा में भगवान को अर्पित किया जाता है।

सनातन धर्म में व्यक्ति के मुत्यु होने पर पार्थिव शरीर के मुँह में गगांजल के साथ तुलसी के पत्ते रखे जाते है, जिससे दिवगंत आत्मा को शांति मिलती है । वेदों – शास्त्रों में तुलसी के पौधे को बहुत ही पवित्र माना गया है । प्रतिदिन तुलसी की पूजा करने से घर में समृद्धि आती है साथ ही आर्थिक परेशानियाँ भी कम हो जाती है ।

तिलक मंत्र महत्व:-

केशवानन्नत गोविन्द बाराह पुरूषोत्तम ।
पुण्यं यशस्यमायुष्यं तिलकं मे प्रसीदतु ॥

कान्ति लक्ष्मीं धृतिं सौख्यं सौभाग्यमतुलं बलम् ।
ददातु चन्दनं नित्यं सततं धारयाम्यहम् ॥

पूजा-पाठ के दोरान तिलक लगाने का बहोत विशेष महत्व रहा है। शास्त्रों की मान्यता के अनुसार मनुष्य के मस्तक के मध्य में स्वयं भगवान विष्णु निवास करते है। तिलक ठीक मस्तक के मध्य स्थान पर लगाया जाता है। तिलक लगवाते समय सदैव बैठकर और हमारा हाथ सिर के ऊपर रखना चाहिए, क्योकि सकारात्मक उर्जा हमारे शीर्ष चक्र पर एकत्र हो और विचार सकारात्मक हों।

धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि नित्य कार्य से निवृत्त होकर तिलक लगाकर ही देवी- देवताओं का पूजन करना चाहिए। हिन्दू धर्म में तिलक लगाना सिर्फ परंपरा ही नहीं, परन्तु तिलक धर्म का प्रतीक भी है। शास्त्रों में कहा गया हे की तिलक लगाना बहुत पवित्र और लाभकारी है। आमतौर पर तिलक माथे पर ही लगाया जाता है, परन्तु गले, छाती और भुजाओं पर भी तिलक का महत्व रहा है।

स्नाने दाने जपे होमो देवता पितृकर्म च।
तत्सर्वं निष्फलं यान्ति ललाटे तिलकं विना॥

भावार्थ:
तिलक के बिना तीर्थ स्नान, जप कर्म, दानकर्म, यज्ञ होमादि, पितर हेतु श्राद्ध कर्म तथा देवो का पुजनार्चन कर्म ये सभी कर्म तिलक न करने से निष्फल होतग हैं।

तिलक के प्रकार
1) कुमकुम
2) केशर
3) चंदन
4) भस्म

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ सरल गीता सार हिंदी मे

अक्षत का महत्व:-

अक्षत (चावल) का अर्थ होता है, जिसको कोई क्षति न हुई हो जो टूटा न हो, अक्षत को हम चावल भी कहते है। अक्षतपूर्णता का प्रतिक है और अक्षत को पूजा में चढ़ाने से हमारी पूजा इस अक्षत की तरह परिपूर्ण हो जाती है। पूजा-पाठ में अक्षत का उपयोग हिन्दू धर्म में प्रमुख होता है।

पूजा में अक्षत यानि चावल चढ़ाने का उल्लेख पुराणों में मिलता है। पुराणों में अक्षत का उपयोग पूजा में शुभ और महत्वपूर्ण कहा गया है। हिन्दू धर्म में भगवान को पूजा में अक्षत चढ़ाने की परम्परा सदियों पुरानी और निरंतर चली आ रही है।

अक्षत का रंग सफ़ेद होता है, और संपूर्णता और संपन्नता प्रतिक कहा गया है। अक्षत चढ़ाकर भगवान से प्रार्थना करके कहा जाता हे की, कार्य पूर्ण रूप से और शांति के साथ निर्वघ्न सम्पन्न हो जाएं। पूजा में उपयोग में लेने वाले अक्षत खंडित (टूटे) न हो इस बात का विशेष ध्यान रखें ओर निश्चित रूप से स्वच्छ होने चाहिए।

माथे पर तिलक लगाते समय अक्षत का प्रयोग किया जाता है। अक्षत शांति का प्रतीक हे, इसलिए तिलक और अक्षत लगाने से मनुष्य ऊर्जा और एकाग्रता के साथ अपने कार्य कर सकता है।

आम के पत्ते पूजा में महत्व:

सनातन धर्म में आम, पीपल, बड़, गूलर एवं पाकड़ के पत्तों को पंचपल्लव कहा जाता है। मांगलिक कार्य जैसे विवाह, गृह- प्रवेश या अन्य कोई पूजा-पाठ मे आम के पत्ते एवं उनसे बनी बंदरवार अत्यंत शुभकारी मानी जाती है । यह वजह है कि घर में होने वाले प्रत्येक पूजन में मंत्रोच्चारण के दौरान आम के पत्तो से ही आचमन क्रिया की जाती है ।

धार्मिक मान्यता के अनुसार आम हनुमान जी का प्रिय फल है इसलिए जहाँ आम के पत्ते होते है वहाँ हनुमान जी अपनी विशेष कृपा बनाए रखते है साथ ही शुभ कार्य निर्वघ्न सम्पन्न होता है । वैज्ञानिक अवधारणा है कि आम के पत्ते के उपयोग से सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है ।

करवा का महत्व:-

मिट्टी का करवा पंच तत्व भूमि, आकाश, वायु, जल, अग्नि का प्रतीक माना जाता है । भारतीय संस्कृति में पानी को ही परब्रह्म माना गया है, क्योंकि जल ही सब जीवों की उत्पत्ति का केंद्र है।

इस तरह मिट्टी के करवे से पानी पिलाकर पति-पत्नी अपने रिश्ते में पंच तत्व और परमात्मा दोनों को साक्षी बनाकर अपने दाम्पत्य जीवन को सुखी बनाने की कामना करते है ।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~  नित्य कर्म पूजा प्रकाश हिंदी में

मौली मंत्र महत्व:-

येन बध्दो बली राजा दानवेन्दो महाबलः ।
तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल ॥

‘मौली’ का वैदिक नाम उप मणिबंध है इसका शाब्दिक अर्थ ‘सबसे ऊपर’ ऐसा होता है। मौली को शास्त्रों के मुताबिक रक्षा सूत्र और कलावा भी कहते है । मौली मंत्र उच्चारण के साथ बांधने से तिनों देव ब्रह्मा, विष्णु और महेश के साथ सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती तीनों देवियों की कृपा होती है।

शास्त्रों के अनुसार मनुष्य को मौली का एक एक धागा और उसका रंग शक्ति प्रदान करता है । मौली न केवल बांधने से परन्तु इस से बनाई गई वस्तुओं को भी घर में रखने सकारात्मकता आती है।

मौली को बांधने का विधान यह हे की, पुरुषों एवं अविवाहित कन्याओं के दाएं हाथ में और विवाहित महिलाओं के बांधने का विधान है। ऐसी मान्यताएं कहती की, हिसाब किताब की पुस्तक, तिजोरी और चाबी के छल्ले जैसी जगहों पर मौली बांधने लाभकारक होता है।

सुपारी का महत्व:-

सुपारी का महत्व:-

हिंदू धर्म में पूजा-पाठ और धार्मिक अनुष्ठान में सुपारी का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। सुपारी के बिना पूजा प्रारंभ ही नहीं हो सकती है। धर्म ग्रंथो के अनुसार सुपारी को गणेशजी का प्रतीक स्वरूप माना जाता है, और जीवंत देव का स्थान प्राप्त है, यदि हमारे पास भगवान की प्रतिमा ना हो, तो सुपारी उनके स्थान पर रखी जाती है।

यह जरूर ध्यान देने योग्य बात है कि, सुपारी बड़ी और गोल खाने वाली होती है, और छोटी और शीर्ष पर शिखर जैसे आकार की सुपारी पूजा की होती है।

 

यह भी पढ़े

शिव पुराण हिंदी में

प्रश्नोपनिषद हिंदी में

शिव तांडव स्तोत्र हिंदी में

श्रीमद्भगवद्गीता हिंदी में

श्री रामचरितमानस हिंदी में

शिव पंचाक्षर स्तोत्र

Share
0

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Share
Share