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Garga Samhita Mathurakhand Chapter 6 to 10

Garga Samhita
Garga Samhita Mathurakhand Chapter 6 to 10

॥ श्रीहरिः ॥

ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते

श्रीगणेशाय नमः

Garga Samhita Mathurakhand Chapter 6 to 10
श्री गर्ग संहिता के श्रीमथुराखण्ड अध्याय 6 से 10 तक

श्री गर्ग संहिता के श्रीमथुराखण्ड छठे (Mathurakhand Chapter 6 to 10) अध्याय में सुदामा माली और कुब्जापर कृपा; धनुर्भङ्ग तथा मथुरा की स्त्रियों पर श्रीकृष्ण के मधुर-मोहन रूप का प्रभाव वर्णन, सातवाँ अध्याय में मल्ल-क्रीड़ा-महोत्सवकी तैयारी; रङ्गद्वारपर कुवलयापीड़का वध तथा श्रीकृष्ण और बलरामका चाणूर और मुष्टिकके साथ मल्लयुद्धमें प्रवृत्त होना। आठवाँ अध्याय अध्याय में चाणूर-मुष्टिक आदि मल्लों का तथा कंस और उसके भाइयों का वध का वर्णन कहा है। नवाँ अध्याय में श्रीकृष्ण द्वारा वसुदेव-देवकी की बन्धन से मुक्ति; श्रीकृष्ण और बलराम का गुरुकुल में विद्याध्ययन तथा गुरुदक्षिणा के रूप में गुरु के मरे हुए पुत्र को यमलोक से लाकर लौटाना; श्रीअक्रूर को हस्तिनापुर भेजना तथा कुब्जा का मनोरथ पूर्ण करना और दसवाँ अध्याय में धोबी, दर्जी और सुदामा माली के पूर्व जन्म का परिचय दिया गया है।

यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक

छठा अध्याय

सुदामा माली और कुब्जापर कृपा; धनुर्भङ्ग तथा मथुराकी स्त्रियोंपर श्रीकृष्णके मधुर-मोहन रूपका प्रभाव

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर ग्वालबालोंसहित नन्दनन्दन श्रीकृष्ण और बलराम सुदामा नामवाले एक मालीके घर गये, जो फूलोंके गजरे बनाया करता था। उन दोनों भाइयोंको देखते ही माली उठकर खड़ा हो गया। उसने हाथ जोड़कर नमस्कार किया और फूलके सिंहासनपर बिठाकर गद्गद वाणीमें कहा ॥ १-२ ॥

सुदामा बोला- देव! यहाँ आपके शुभागमनसे मेरा कुल तथा घर दोनों धन्य हो गये। मैं ऐसा समझता हूँ कि मेरी माताके कुलकी सात पीढ़ियाँ, पिताके कुलकी सात पीढ़ियाँ तथा पत्नीके कुलकी भी सात पीढ़ियाँ वैकुण्ठलोकमें चली गयीं। आप दोनों परिपूर्णतम परमेश्वर हैं और भूतलका भार उतारनेके लिये इस यदुकुलमें अवतीर्ण हुए हैं। मुझ दीनातिदीन- के घर आये हुए आप दोनों भाइयोंको नमस्कार है। आप परात्पर जगदीश्वर हैं ॥ ३-४ ॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर मालीने पुष्यनिर्मित सुन्दर हार और भ्रमरोंकी गुंजारसे निनादित मकरन्द (इत्र, फुलेल आदि) निवेदन करके प्रणाम किया। बलरामसहित भगवान् श्रीहरिने उस पुष्प-राशिको धारण करके निकटवर्ती गोपोंको भी दिया और हँसते हुए मुखसे उस मालीसे बोले- ‘सुदामन् ! मेरे चरणारविन्दोंमें सदा तुम्हारी गुरुतर भक्ति बनी रहे, मेरे भक्तोंका सङ्ग प्राप्त हो और इसी जन्ममें तुम्हें मेरे स्वरूपकी प्राप्ति हो जाय।’ तदनन्तर बलदेवजीने भी इसे उसके कुलमें निरन्तर बढ़नेवाली लक्ष्मी प्रदान की। राजन् ! फिर वे दोनों भाई वहाँसे उठकर दूसरी गलीमें गये। वहाँ मार्गमें एक कमलनयनी कामिनी जा रही थी। उसके हाथोंमें चन्दनका अनुलेप-पात्र था। अवस्थामें वह युवती थी, किंतु शरीरसे कुबड़ी दिखायी देती थी। माधवने उससे पूछा ॥ ५-९॥

श्रीभगवान् बोले- सुन्दरी ! तुम कौन हो और किसकी प्रिया हो ? किसके लिये यह चन्दन ले जा रही हो? हम दोनोंको भी यह चन्दन दो, इससे शीघ्र ही तुम्हारा कल्याण होगा ॥ १० ॥

सैरन्ध्री बोली- सुन्दर-शिरोमणे! मैं कंसकी दासी हूँ। महामते ! मेरा नाम कुब्जा है। मेरे हाथका घिसा हुआ चन्दन भोजराज कंसको बहुत प्रिय है। अबतक तो मैं कंसकी ही दासी रही हूँ, किंतु इस समय आपके सामने उपस्थित हूँ। हाथीके शुण्डदण्डकी भाँति जो आपके ये बलिष्ठ भुजदण्ड हैं, इनमें मेरा मन लग गया है। आप दोनों भाइयोंको छोड़कर दूसरा कौन ऐसा पुरुष है, जो इस चन्दनानुलेपके योग्य हो। आप दोनों भाइयोंके समान सुन्दर रूप तो त्रिभुवनमें कहीं नहीं है॥ ११-१३॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! हर्षसे भरी हुई कुब्जाने उन दोनों भाइयोंके लिये खिग्ध अनुलेपन प्रदान किया। उस अङ्गरागसे वे दोनों बन्धु-बलराम और श्रीकृष्ण बड़ी शोभा पाने लगे। व्रजके अन्य बालकोंने भी थोड़ा-थोड़ा वह दिव्य चन्दन ग्रहण किया। कुब्जा तीन जगहसे टेढ़ी थी। श्रीकृष्णने उसे तत्काल सीधी करनेका विचार किया। उन सर्वव्यापी परमेश्वरने अपने चरणोंद्वारा उसके पैरोंके अग्रभागको दबाकर उत्तान हाथकी दो अङ्गुलियोंसे उसकी ठोढ़ी पकड़ ली और लोगोंके देखते-देखते उसके तीन जगहसे टेढ़े शरीरको उचका दिया। फिर तो वह उसी समय छड़ीके समान देहवाली, अत्यन्त रूप-सौन्दर्यसे सम्पन्न तन्वङ्गी तरुणी हो गयी और अपनी दीप्तिसे रम्भाको भी तिरस्कृत-सी करने लगी। उसके हृदयमें कामभावका उदय हुआ और उससे विह्वल हो उस पवित्र मुस्कानवाली सैरन्ध्रीने श्रीहरिका वस्त्र पकड़कर इस प्रकार कहा ॥ १४-१७ ॥

सैरन्ध्री बोली- सुन्दरप्रवर! अब तुम शीघ्र ही मेरे घर चलो; निश्चय ही मैं तुम्हें छोड़ नहीं सकूँगी। तुम तो सबके मनकी जाननेवाले हो; मुझपर कृपा करो। रसिकशेखर ! मानद ! तुमने मेरे मनको बड़े वेगसे मथ डाला है॥ १८ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तब सब गोप ‘अहो! यह क्या!’- परस्पर यों कहते हुए ताली पीट-पीटकर हँसने लगे। बलरामजी भी बड़े गौरसे यह सब देख रहे थे। उस सुन्दरीके अपने घर चलने- के लिये प्रार्थना करनेपर भगवान् श्रीहरिने यह उत्तम बात कही ॥ १९ ॥

श्रीभगवान् बोले- अहो! यह मथुरापुरी अत्यन्त धन्य है, जहाँ बड़े सौम्य स्वभावके लोग निवास करते हैं, जो अपरिचित राहगीरोंको भी अपने घर बुला ले जाते हैं। सुन्दरी। मैं घूम-फिरकर पुरीका दर्शन करके तुम्हारे घर आऊँगा ॥ २० ॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! स्नेहमयी वाणीद्वारा यों कहकर श्रीकृष्णने उसके हाथसे अपने दुपट्टेका छोर खींच लिया और राजमार्गपर आगे बढ़ते हुए उन्हें कुछ धनी वैश्य दिखायी दिये। उन उत्तम बुद्धिवाले वैश्योंने पान, फूल, इत्र, दूध और फल आदिद्वारा श्रीहरिका पूजन करके उन्हें उत्तम आसनपर बिठाया और उनके चरणोंमें प्रणाम किया ॥ २१-२२ ॥

वैश्य बोले- देव! यदि यहाँ आपका राज्य स्थापित हो जाय तो आप हम आत्मीयजनोंका सदा ध्यान रखें; हम आपकी प्रजा हैं। प्रायः राज्य मिल जानेपर कोई किसीका स्मरण नहीं करता ॥ २३ ॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! तब अच्युतने सुन्दर मन्द मुस्कराहटके साथ उन वैश्योंसे पूछा- ‘ धनुषका स्थान कौन है?’ किंतु वे वैश्य बड़े चालाक थे। उन्हें धनुषके तोड़ दिये जानेकी आशङ्का हुई, इसलिये वे भगवान को उसका स्थान नहीं बता रहे थे। किंतु उनके रूप, गुण और माधुर्यसे मोहित जो अन्य मथुरावासी थे, वे उन्हें धनुष दिखानेकी इच्छासे बोले- ‘कुमार! आइये, देखिये वह धनुष’ ॥ २४-२५ ॥

तब उनके दिखाये हुए मार्गसे श्रीकृष्णने धनुष- शालामें प्रवेश किया। वे मथुरावासी समवयस्क पुर- बालकोंके साथ मैत्रीभावकी स्थापना भी करते जाते थे। वह धनुष सुनहरे बेल-बूटोंसे चित्रित था। उसकी लंबाई सात ताड़के बराबर थी। वह देखनेमें इन्द्रधनुष- सा जान पड़ता था। वह इतना अधिक भारी था कि पाँच हजार मनुष्य एक साथ मिलकर ही उसे एक स्थानसे दूसरे स्थानपर ले जा सकते थे। उसका निर्माण आठ धातुओंसे हुआ था। वह कठोर धनुष एक लाख भारके समान भारी था और चतुर्दशी तिथि- को पुरवासियोंद्वारा पूजित हो यज्ञमण्डपमें स्थापित किया गया था। पूर्वकालमें भृगुकुलनन्दन परशुरामजी- ने राजा यदुको वह धनुष दिया था। माधव श्रीकृष्णने उसे देखा; वह कुंडली मारकर बैठे हुए शेषनागके समान प्रतीत होता था। लोग मना करते रह गये, किंतु श्रीकृष्णने हठपूर्वक उस धनुषको उठा लिया और पुरवासियोंके देखते-देखते खेल-खेलमें उसके ऊपर प्रत्यञ्चा चढ़ा दी ॥ २६-३० ॥

राजन् ! फिर श्रीहरिने अपने भुजदण्डोंसे उस धनुषको कानतक खींचा और जैसे हाथी ईखके डंडेको तोड़ डालता है, उसी प्रकार उसको बीचसे खण्डित कर दिया। टूटते हुए उस धनुषकी टंकार बिजलीकी गड़गड़ाहटके समान प्रतीत हुई। इससे ‘भूः ‘आदि सात लोकों तथा सातों पातालोंसहित सारा ब्रह्माण्ड गूँज उठा, दिग्गज विचलित हो गये, तारे टूटने लगे, भूखण्ड-मण्डल काँप उठा, पृथ्वीपर रहनेवाले लोगोंके कान तत्काल बहरे से हो गये। वह शब्द दो घड़ीतक कंसके हृदयको विदीर्ण करता रहा। उस धनुषकी रक्षा करनेवाले आततायी असुर अत्यन्त कुपित होकर उठे और श्रीकृष्णको पकड़ लेनेकी इच्छासे परस्पर कहने लगे- ‘बाँध लो इसे।’ उन्हें सशस्त्र आक्रमण करते देख बलराम और श्रीकृष्णने धनुषके दोनों टुकड़े लेकर उन दुर्मद दैत्योंको बड़े वेगसे पीटना आरम्भ किया। धनुष-खण्डोंके अत्यन्त प्रबल प्रहारसे कितने ही वीर तत्काल मूच्छित हो गये, किन्हींके पाँव टूटे, किन्हींके नख फूटे और कितनोंहीके कंधे एवं बाहुदण्ड खण्डित हो गये। इस प्रकार पाँच हजार दैत्यवीर भूमिपर प्राणशून्य होकर सो गये। समस्त मथुरा- वासियोंमें हलचल मच गयी। बहुत से लोग उस घटनाको देखनेके लिये दौड़े आये। नगरीमें सब ओर कोलाहल होने लगा और वहाँके लोगोंके मनमें बड़ा भारी भय समा गया। भोजराज कंसके सभामण्डपका छत्र अकस्मात् टूटकर गिर पड़ा ॥ ३१-३८ ॥

नरेश्वर! ग्वाल-बालों तथा बलरामजीके साथ श्रीकृष्ण संध्याके समय धनुषशालासे नन्दराजके निकट आ गये, मानो वे अत्यन्त डर गये हों। गोविन्दका वह अद्भुत सुन्दर रूप देखकर मथुरापुरीकी वनिताएँ विशेषरूपसे मोहित हो गयीं। उनके वस्त्र खिसक गये, गूँथी हुई चोटियाँ ढीली पड़ गयीं, हृदयमें प्रेमजनित पीड़ा जाग उठी और वे अपनी सखियोंसे परस्पर इस प्रकार कहने लगीं ॥ ३९-४० ॥

पुरस्त्रियाँ बोलीं- सखियो! करोड़ों कामदेवों की कान्ति धारण किये श्रीहरि बड़ी उतावलीके साथ मथुरापुरीमें स्वच्छन्द विचरने लगे हैं और जिन किन्हीं युवतियोंने उन्हें देखा है, उन हम जैसी सभी स्त्रियोंके समस्त अङ्गोंमें वे अनङ्ग बनकर समाविष्ट हो गये हैं ॥ ४१ ॥

कुछ चतुरा स्त्रियोंने कहा- क्या इस पुरीमें ऐसी क्रूर स्त्रियाँ नहीं हैं, जो अनङ्गमोहन श्रीकृष्णके सारे अङ्गको घूर घूरकर देखती हैं? हम सब उन परमानन्दमय सर्वाङ्गसुन्दर श्रीकृष्णको भर आँख नहीं निहारतीं? सखी! किसीके किसी एक ही अङ्गमें सौन्दर्य माधुर्य दिखायी देता है और वहीं हमारे नेत्र पतंगके समान टूट पड़ते हैं; परंतु जो सर्वाङ्गसुन्दर एवं मनोहर हैं, उन्हें केवल नेत्रसे पूर्णतया कैसे देखा जा सकता है? नन्दनन्दनका अङ्ग अङ्ग सुन्दर है; उसमें जहाँ-जहाँ भी दृष्टि पड़ती है, वहीं वहीं परम सुख पाकर वहाँ-वहाँसे लौटनेका नाम नहीं लेती। वे लावण्यके महासागर हैं। उनमें हमारा चित्त किस तरह लगा है, मानो उसीमें डूब गया हो ॥ ४२-४४॥

मिथिलेश्वर! नगरकी जिन स्त्रियोंने दिनमें व्रजराजनन्दनको देखा, उन्होंने स्वप्नमें भी उन्हींका दर्शन किया। फिर जिन्होंने रासमण्डलमें उनके साथ रासलीला की, वे गोपाङ्गनाएँ उनके मधुर मनोहर रूपका कैसे निरन्तर स्मरण न करें ॥ ४५ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीमथुराखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्च संवादमें ‘मथुरादर्शन’ नामक छठा अध्याय पूरा हुआ ॥ ६ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय

सातवाँ अध्याय

मल्ल-क्रीड़ा-महोत्सवकी तैयारी; रङ्गद्वारपर कुवलयापीड़का वध तथा श्रीकृष्ण और बलरामका चाणूर और मुष्टिकके साथ मल्लयुद्धमें प्रवृत्त होना

नारदजी कहते हैं- राजन् । रजकके मस्तकका छेदन, धनुषका भञ्जन तथा रक्षकोंके वधका समाचार सुनकर कंसको बड़ा भय हुआ। तत्काल उसके सामने अपशकुन प्रकट हुए। उसके बायें अङ्ग फड़कने लगे, उसे स्वप्नमें अपना अङ्ग-भङ्ग दिखायी देने लगा। इससे दैत्योंके राजा कंसको रातभर नींद नहीं आयी। उसने स्वप्नमें यह भी देखा था कि वह प्रेतोंसे घिरा हुआ है। उसके सारे शरीरमें तेल मला गया है तथा वह नंगधड़ंग जपाकुसुमकी माला पहिने भैंसेपर चढ़कर दक्षिण दिशाकी ओर जा रहा है॥ १-३॥

प्रातःकाल उठकर उसने कार्यकर्ताओंको बुलवाया और उन्हें मल्लक्रीड़ा महोत्सव प्रारम्भ करनेकी आज्ञा दी। सभामण्डपके सामने ही विशाल प्राङ्गणसे युक्त स्थानपर रङ्गभूमिकी रचना की गयी। वहाँ सोनेके खंभे लगाये गये, सुनहरे चंदोवे ताने गये और उनमें मोतियोंकी लड़ियाँ लटका दी गयीं। नरेश्वर! सुन्दर सोपानों और सुवर्णमय मञ्चोंसे वह रङ्गभूमि बड़ी शोभा पाने लगी। राजाके लिये रत्नमय सुन्दर मञ्च स्थापित किया गया। उसपर इत्र लगाया गया। उस मञ्चपर इन्द्रका सिंहासन लगा दिया गया। उसके ऊपर सुन्दर बिछावन और तकिये सुसज्जित कर दिये गये। चन्द्रमण्डलके समान मनोहर दिव्य छत्र तथा हीरेकी बनी हुई मूठवाले हंसकी सी आभासे युक्त व्यजन और चामरोंसे सुशोभित विश्वकर्माद्वारा रचित वह दस हाथ ऊँचा सिंहासन बड़ा ही चित्ताकर्षकथा। उसपर आरूढ़ हो राजा कंस पर्वत शिखरपर बैठे हुए सिंहके समान शोभा पा रहा था। वहाँ गायकोंद्वारा गीत गाये जाने लगे, वाराङ्गनाएँ नृत्य करने लगीं और मृदङ्ग, पटह, ताल, भेरी तथा आनक आदि बाजे बजने लगे ॥४-१०॥

राजन् ! छोटे-छोटे मण्डलोंके शासक नरेश तथा नगर और जनपदके निवासी बड़े लोग पृथक् पृथक् मञ्चपर बैठकर मल्लयुद्ध देख रहे थे। चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल और तोशल आदि पहलवान व्यायामोपयोगी मुद्गरोंसे युक्त हो परस्पर युद्धका अभ्यास कर रहे थे। कंसके द्वारा बुलाये गये नन्दराज आदि गोप मस्तक झुकाये राजाको उत्तम भेंट अर्पित करके एक-एक मञ्चका आश्रय ले बैठ गये। नरेश्वर। वहाँ यदुराज कंसके लिये बाणासुर, जरासंध और नरकासुरके नगरसे भी उपहार आये। अन्य जो शम्बर आदि भूपाल थे, उनके पाससे भी बहुत-सी भेंट-सामग्रियाँ आर्थी ॥ ११-१४ ॥

तदनन्तर मायासे बालकरूप धारण किये बलराम और श्रीकृष्ण दोनों भाई मल्लोंके खेल देखनेके लिये उस रङ्गशालामें आये। रङ्गमण्डपके द्वारपर कुवलयापीड़ नामक हाथी खड़ा था, जिसके कुम्भस्थलपर गोमूत्रमें सने हुए सिन्दूर और कस्तूरीसे पत्र-रचना की गयी थी। रत्नमय कुण्डलोंसे मण्डित उस महामत्त गजराजके गण्डस्थलसे मद झर रहा था। द्वारपर हाथीको खड़ा देख श्रीकृष्णने महावतसे गम्भीर वाणीमें कहा- ‘अरे! इस गजराजको दूर हटा ले और मेरी इच्छाके अनुसार मार्ग दे दे। नहीं तो तुझको और तेरे हाथीको अभी भूतलपर मार गिराऊँगा’ ॥ १५-१८ ॥(Mathurakhand Chapter 6 to 10)

तब कुपित हुए महावतने सम्पूर्ण दिशाओंमें जोर-जोरसे चिग्घाड़ते हुए उस मतवाले हाथीको नन्दनन्दनपर आक्रमण करनेके लिये आगे बढ़ाया। गजराजने तत्काल ही श्रीहरिको सूँड़से पकड़कर उठा लिया। परंतु अपना भार अधिक बढ़ाकर श्रीहरि उसकी पकड़से बाहर निकल गये। जैसे वृन्दावनके निकुओंमें श्रीहरि इधर-उधर लुकते-छिपते थे, उसी प्रकार इधर-उधर घूमकर वे कुवलयापीड़के पैरोंके बीचमें छिप गये। हाथीने अपनी सूँड़ बढ़ाकर उन्हें पकड़ लिया, किंतु उसकी सूँड़को दोनों हाथोंसे दबाकर श्रीहरि पीछेकी ओरसे निकल गये। तब हाथीने बगलकी दिशामें घूमकर उन्हें पकड़नेकी चेष्टा की, किंतु माधव उसके मस्तकपर मुक्केसे प्रहार करके आगेकी ओर भागे। विदेहराज। उस गजराजने भागते हुए श्रीहरिका पीछा किया। उस समय मथुरापुरीमें कोहराम मच गया। फिर श्रीहरि चक्कर देकर इधर पीछेकी ओर निकल आये। उधर महाबली बलदेवने, जैसे गरुड सर्पको पकड़ते हैं, उसी प्रकार अपने बाहुदण्डोंसे उसकी पूँछ पकड़कर उसे पीछेकी ओर खींचा। तब हँसते हुए भगवान् श्रीकृष्णने अपने दोनों हाथोंसे बलपूर्वक उसकी सूँड़ पकड़कर उसी तरह आगेकी ओर खींचना आरम्भ किया, जैसे मनुष्य कूएँसे रस्सीको खींचता है। नृपेश्वर! उन दोनों भाइयोंके आकर्षणसे वह हाथी व्याकुल हो उठा। तब सात महावत बलपूर्वक उस हाथीपर चढ़ गये। साथ ही दूसरे महावत भी श्रीकृष्णका वध करनेके लिये तीन सौ हाथी वहाँ ले आये। महावतोंके अङ्कुशकी चोट करनेसे कुपित हुआ वह मतवाला हाथी पुनः श्रीकृष्णकी ओर झपटा। तब बलदेवजीके देखते-देखते साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णने उसकी सूँड़ पकड़ ली और इधर-उधर घुमाकर उसे उसी प्रकार पृथ्वीपर दे मारा, जैसे कोई बालक कमण्डलु पटक दे। उसपर चढ़े हुए सातों महावत इधर-उधर दूर जा गिरे और वहाँ जुटे हुए साधु- पुरुषोंके देखते-देखते वह हाथी प्राणशून्य हो गया। विदेहराज ! उसके शरीरसे एक ज्योति निकली और श्रीघनश्याममें विलीन हो गयी ॥ १९-३१ ॥

महाबली बलराम और श्रीकृष्णने उस हाथीके दोनों दाँत उखाड़ लिये और जैसे दो सिंहके बच्चे बहुत-से मृगोंका संहार कर डालें, उसी प्रकार समस्त महावतोंको मौतके घाट उतार दिया। हाथीके मारे जानेपर जो अन्य महावत बचे थे, वे सब इधर-उधर भागकर उसी प्रकार छिप गये, जैसे वर्षाकाल व्यतीत हो जानेपर बादल जहाँ-के-तहाँ विलीन हो जाते हैं। इस प्रकार कुवलयापीड़का वध करके पसीनेकी बूँदों और हाथीके मदसे अङ्कित हुए बलराम और श्रीकृष्ण, दोनों बन्धु गोपों तथा शेष दर्शनार्थियोंके मुखसे अपनी जय-जयकार सुनते हुए बड़ी उतावलीके साथ रङ्गशालामें प्रविष्ट हुए। उस समय उन दोनोंके मुख अधिक परिश्रमके कारण लाल हो गये थे, उनके हाथोंमें हाथीके दाँत थे। वे दोनों दिशाओंमें एक साथ चलनेवाले अनिल और अनलकी भाँति बड़े वेगसे रङ्गभूमिमें पहुँचे। उस समय मल्लोंने उन्हें महामल्ल समझा और नरोंने नरेन्द्र। नारियोंने उन्हें कामदेव माना और गोपगणोंने व्रजका स्वामी। पिताकी दृष्टिमें वे पुत्र जान पड़े और दुष्टोंको दण्डधारी यमराजके समान प्रतीत हुए। कंसने उनको अपनी मृत्यु समझा और ज्ञानी पुरुषोंने उन्हें विराट् ब्रह्मके रूपमें देखा। उस समय बलरामके साथ रङ्गशालामें गये हुए श्रीकृष्णको योगिशिरोमणि महात्मा पुरुषोंने परमतत्त्वके रूपमें अनुभव किया। सभी तरहके लोगोंने अपनी पृथक्- पृथक् भावनाके अनुसार उन परिपूर्णदेव श्रीहरिको विभिन्न रूपोंमें देखा और समझा ॥ ३२-३७ ॥(Mathurakhand Chapter 6 to 10)

हाथीको मारा गया सुनकर और उन महाबली बन्धुओंको देखकर मनस्वी कंस मन-ही-मन भयभीत हो उठा तथा मञ्चॉपर बैठे हुए दूसरे दूसरे लोग मन- ही-मन हर्षसे उल्लसित हो उठे और जैसे चन्द्रमाको देखकर चकोर सुखी होते हैं, उसी प्रकार वे उन्हें – देखकर परमानन्दमें निमग्न हो गये। नगरके लोग अत्यन्त उत्सुक हो एक-दूसरेके कान-से-कान सटाकर परस्पर कहने लगे- ‘ये दोनों वसुदेवनन्दन साक्षात् परमपुरुष परमेश्वर हैं। अहो! व्रजमण्डल अत्यन्त रमणीय एवं श्रेष्ठ है, जहाँ ये साक्षात् माधव विचरते रहे हैं और जिनका आज दुर्लभ दर्शन पाकर हम सर्वतो- भावसे कृतार्थ हो रहे हैं॥ ३८-४० ॥

नारदजी कहते हैं- मैथिल ! जब पुरवासी लोग इस प्रकार बात कर रहे थे और भाँति-भाँतिके बाजे बज रहे थे, उस समय चाणूरने बलराम और श्रीकृष्ण- दोनोंके पास जाकर कहा ॥ ४१ ॥

चाणूर बोला- हे राम ! हे कृष्ण! आप दोनों बड़े बलवान् हैं, अतः महाराजके सामने अपने बलका प्रदर्शन करते हुए युद्ध कीजिये। यदुकुलतिलक महाराज कंस यदि इस युद्धसे प्रसन्न हो गये तो आपलोगोंकी और हमारी कौन-कौन-सी भलाई नहीं होगी ? (अर्थात् सब होगी) ॥ ४२ ॥(Mathurakhand Chapter 6 to 10)

श्रीभगवान ने कहा- राजाके कृपा-प्रसादसे तो हमारी पहलेसे ही बहुत भलाई हो रही है। किंतु इतना ध्यान रखो कि हमलोग बालक हैं; अतः समान बलवाले बालकोंके साथ ही हमारा युद्ध होगा, किसी बलवान के साथ नहीं। इसकी यथोचित व्यवस्था होनी चाहिये, यहाँ अधर्म-युद्ध कदापि न होने पाये ॥ ४३ ॥

चाणूरने कहा-न तो आप बालक हैं और न बलरामजी ही किशोर हैं। आप साक्षात् बलवानोंमें भी बलिष्ठ हैं; क्योंकि सहस्र मतवाले हाथियोंका बल धारण करनेवाले कुवलयापीड़को आप दोनोंने खिलवाड़में ही मार डाला है॥ ४४ ॥

नारदजी कहते हैं- राजन् । चाणूरकी ऐसी बात सुनकर अघमर्दन भगवान् श्रीकृष्ण चाणूरके साथ और बलवान् बलरामजी मुष्टिकके साथ मल्लयुद्ध करने लगे। वे एक-दूसरेके भुजदण्डोंको दोनों भुजाओंसे पकड़कर अपनी ओर खींचते और पीछे ढकेलते थे। लोगोंके देखते-देखते वे दोनों भाई विजयकी इच्छासे लड़नेवाले दो हाथियोंकी भाँति अपने शत्रुओंसे भिड़ गये। साक्षात् श्रीहरिने चाणूरके शरीरको दोनों हाथोंसे उठाकर उसके देहभारको उसी प्रकार तौला, जैसे ब्रह्माजी पुण्यात्माओंके पुण्यभारको तौला करते हैं। फिर महावीर चाणूरने भगवान् श्रीहरिको एक ही हाथसे उसी प्रकार लीलापूर्वक उठा लिया, जैसे नागराज शेष भूमण्डलको अपने एक ही फनपर धारण करते हैं। माधवने अपनी भुजाओंके वेगसे चाणूरकी गर्दन और कमरमें हाथ लगाकर उसे उठा लिया और सहसा पृथ्वीपर दे मारा। एक ओर श्रीकृष्ण और चाणूर तथा दूसरी ओर बलराम और मुष्टिक एक दूसरेको हाथों, घुटनों, पैरों, भुजाओं, छातियों, अङ्गुलियों और मुक्कोंसे मारने लगे। बलराम और श्रीकृष्णके मुखोंपर परिश्रमजनित पसीनेकी बूँदें देखकर दयासे द्रवित हो उस समय महलकी खिड़कियोंके पास बैठी हुई राजरानियाँ आपसमें कहने लगीं ॥ ४५-५१ ॥(Mathurakhand Chapter 6 to 10)

स्त्रियाँ बोलीं- अहो! राजाके मौजूद रहते उनके सामने सभामें यह बहुत बड़ा अधर्म हो रहा है। कहाँ तो वज्रके समान सुदृढ़ शरीरवाले वे दोनों पहलवान और कहाँ फूलके सदृश सुकुमार बलराम और कृष्ण। अहो! हम मथुरापुरवासियोंका कैसा अभाग्य है कि हमें आज इतने दिनों बाद इनका दर्शन भी हुआ तो युद्धके अवसरपर। वनवासी गोपोंका महान् सौभाग्य अत्यन्त धन्यवादके योग्य है, जिन्हें रास-रसके साथ श्रीकृष्ण- बलरामका दर्शन होता आ रहा है। सखियो ! आश्चर्यकी बात तो यह है कि इस दुष्ट-चित्त राजाके रहते हुए कोई भी कुछ कहनेको समर्थ नहीं हो सकता। इसलिये हमारे पुण्यके बलसे ये दोनों बन्धु शीघ्र ही अपने शत्रुओंपर विजय प्राप्त करें ॥ ५२-५४॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीमधुराखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘मल्लयुद्धका वर्णन नामक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥७॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री राम चालीसा

आठवाँ अध्याय

चाणूर-मुष्टिक आदि मल्लोंका तथा कंस और उसके भाइयोंका वध

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् । नन्दराजका चित्त करुणासे द्रवित हो रहा था। उनकी ओर ध्यान देकर तथा वनिताओंके मनोरथको याद करके श्रीहरिने शत्रुओंको मार डालनेका संकल्प मनमें लेकर बलपूर्वक युद्ध आरम्भ किया ॥ १ ॥

चाणूरको भुजदण्डोंसे उठाकर श्रीकृष्णने बलपूर्वक अकस्मात् आकाशमें उसी प्रकार फेंक दिया, जैसे हवाने उखड़े हुए कमलको सहसा उड़ा दिया हो। आकाशसे नीचे मुँह किये वह पृथ्वीपर इतने वेगसे गिरा, मानो कोई तारा टूट पड़ा हो। फिर उठकर चाणूरने श्रीकृष्णको जोरसे एक मुक्का मारा। उसके मुक्केकी मारसे परात्पर भगवान् श्रीकृष्ण विचलित नहीं हुए। उन्होंने तत्काल चाणूरको उठाकर पृथ्वीपर पटक दिया। चाणूरके दाँत टूट गये। वह मदोन्मत्त मल्ल क्रोधसे तमतमा उठा। मैथिल! उसने श्रीकृष्णकी छातीपर दोनों हाथोंसे मुक्के मारे। नरेश्वर। तब दोनों हाथोंसे उसके दोनों हाथ पकड़कर साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णने कंसके आगे उसे घुमाना आरम्भ किया और सबके देखते-देखते पृथ्वीपर उसी प्रकार दे मारा, जैसे किसी बालकने कमण्डलु पटक दिया हो। श्रीकृष्णके इस प्रहारसे चाणूर मल्लका मस्तक फट गया। राजन् ! वह रक्त वमन करता हुआ तत्काल मर गया ॥ २-७॥

इसी प्रकार महाबली बलदेवने रणदुर्गम मल्ल मुष्टिकके पैरको मुट्ठीसे पकड़कर आकाशमें घुमाया और जैसे गरुड सर्पको पटक दे, उसी प्रकार उसे पृथ्वीपर दे मारा। फिर तो मुष्टिक मुँहसे खून उगलता हुआ कालके गालमें चला गया। तत्पश्चात् कूटको सामने आया देख महाबली बलदेवने एक ही मुक्केसे उसी प्रकार मार गिराया, जैसे देवराज इन्द्रने वज्रसे किसी पर्वतको धराशायी कर दिया हो। राजन्! जैसे गरुड अपनी तीखी चोंचसे नागको घायल कर देता है, उसी प्रकार सामने आये हुए शलको नन्दनन्दन ने लातसे मार गिराया। फिर तोशलको पकड़कर श्रीकृष्णने उसे बीचसे ही चीर डाला और जैसे हाथी किसी पेड़की डालीको तोड़ फेंके, उसी प्रकार उसे कंसके मञ्चके सामने फेंक दिया। ये सब मल्ल अखाड़ेमें गिराये जाते ही मौतके मुखमें चले गये और उनके शरीरसे निकली हुई ज्योतियाँ सत्पुरुषोंके देखते-देखते भगवान् वैकुण्ठ (श्रीकृष्ण) में समा गयीं ॥८-१३॥(Mathurakhand Chapter 6 to 10)

इस प्रकार बलराम और श्रीकृष्णके द्वारा अनेक मल्लोंके मारे जानेपर शेष मल्ल भयसे व्याकुल हो प्राण बचानेकी इच्छासे भाग खड़े हुए। तदनन्तर श्रीदामा आदि अपने मित्र गोपोंको खींचकर माधवने उनके साथ समस्त सज्जनोंके सामने मल्लयुद्धका खेल आरम्भ किया। किरीट और कुण्डलधारी बलराम तथा श्रीकृष्णको ग्वाल-बालोंके साथ रङ्गभूमिमें विहार करते देख समस्त पुरवासी विस्मयसे चकित हो उठे। कंसके सिवा अन्य सब लोगोंके मुँहसे ‘जय हो! जय हो’ की बोली निकलने लगी। सब ओरसे साधुवाद सुनायी देने लगा और नगारे बज उठे। अपनी पराजय देख कंस अत्यन्त क्रोधसे भर गया और बाजे बंद करनेकी आज्ञा देकर फड़कते हुए अधरोंसे बोला ॥ १४-१८॥

कंसने कहा-वसुदेवके दोनों पुत्र खोटी बुद्धि और खोटे विचारवाले हैं। इन दोनोंको हठात् और शीघ्र मेरे नगरसे निकाल दो। व्रजवासियोंका सारा धन हर लो और दुर्बुद्धि नन्दको सहसा कैद कर लो। आज मेरे दुर्बुद्धि पिता शूरपुत्र उग्रसेनका भी मस्तक तुरंत काट लो, काट लो। पृथ्वीपर जहाँ-कहीं भी और यहाँ भी जो-जो वृष्णिवंशी यादव मिल जायँ, उन सबको देवताओंके अंशसे उत्पन्न समझकर मार डालो ॥ १९-२० ॥

नारदजी कहते हैं- जब कंस इस प्रकार बढ़- बढ़कर बातें बना रहा था, उस समय यदुनन्दन श्रीकृष्ण सहसा क्रोधसे भर गये और उछलकर उसके मञ्चके ऊपर चढ़ गये। अपनी मूर्तिमान् मृत्युको आता देख कंस तुरंत उठकर खड़ा हो गया और उस मदमत्त नरेशने श्रीकृष्णको डाँट बताते हुए ढाल तलवार हाथमें ले ली। श्रीकृष्णने ढाल तलवार लिये हुए कंसको सहसा दोनों हाथोंसे उसी प्रकार पकड़ लिया, जैसे पक्षिराज गरुडने अपनी चोंचके दो भागोंद्वारा किसी विषधर सर्पको दबा लिया हो। कंसके हाथसे तलवार छूटकर गिर गयी। ढाल भी दूर जा पड़ी। वह बलवान् वीर बल लगाकर श्रीकृष्णकी भुजाओंके बन्धनसे उसी प्रकार निकल गया, जैसे पुण्डरीक नाग गरुडकी चोंचसे छूट निकला हो ॥ २१-२४॥

वे दोनों बलवान् वीर उस मञ्चपर वेगसे एक- दूसरेको रौंदते हुए उसी प्रकार सुशोभित हुए, जैसे पर्वतके शिखरपर दो सिंह परस्पर जूझते हुए शोभा पा रहे हों। कंस बलपूर्वक उछलकर सौ हाथ ऊपर आकाशमें चला गया। फिर श्रीकृष्णने भी उछलकर उसे इस प्रकार पकड़ लिया, मानो एक बाज पक्षीने दूसरे बाज पक्षीको आकाशमें धर दबोचा हो। उस प्रचण्ड दैत्यपुंगव कंसको भुजदण्डोंसे पकड़कर तीनों लोकोंका बल धारण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने चारों ओर घुमाना आरम्भ किया। फिर रोषसे भरकर उन्होंने कंसको आकाशसे उस मञ्चपर ही दे मारा। मञ्चके स्तम्भ-दण्ड उसी प्रकार टूट गये, जैसे बिजली गिरनेसे वृक्ष टूट जाता है। आकाशसे नीचे गिरनेपर भी वज्रतुल्य अङ्गङ्गेवाला कंस मन-ही-मन किंचित् व्याकुल होकर सहसा उठ गया और महात्मा श्रीकृष्ण- के साथ युद्ध करने लगा। भगवान् गोविन्दने पुनः उसे बाहुदण्डॉद्वारा उठाकर मञ्चपर फेंक दिया और उसकी छातीपर चढ़कर माधवने उसका मुकुट उतार लिया। फिर तुरंत उसके केश पकड़कर स्वयं श्रीहरिने उसे मञ्चसे रङ्गभूमिमें उसी प्रकार पटक दिया, जैसे किसीने शैल-शिखरसे किसी भारी शिलाखण्डको नीचे गिरा दिया हो। फिर सबके आधारभूत, अनन्त-पराक्रमी, आदि-अन्तरहित, सनातन भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं भी उसके ऊपर वेगसे कूद पड़े ॥ २५-३२॥(Mathurakhand Chapter 6 to 10)

राजन् ! इस प्रकार उन दोनोंके गिरनेसे वहाँका भूमण्डल सहसा थालीकी भाँति गहरा हो गया और दो घड़ीतक धरती काँपती रही। नरेश्वर। श्रीकृष्णने उस मरे हुए भोजराजके शवको सबके देखते-देखते वहाँकी भूमिपर उसी प्रकार घसीटा, जैसे सिंहने मरे हुए गजराजको खींचा हो। नरेश्वर! उस समय इधर-उधर दौड़ते हुए भूपालोंका हाहाकार सुनायी देने लगा। महाबली कंसने वैर-भावसे देवेश्वर श्रीकृष्णका भजन करके उसी प्रकार उनका सारूप्य प्राप्त कर लिया, जैसे कीड़ा भृङ्गीके चिन्तनसे उसीका रूप ग्रहण कर लेता है ॥ ३३-३५ ॥

कंसको धराशायी हुआ देख उसके आठ महाबली भाई सुहुत, सृष्टि, न्यग्रोध, तुष्टिमान्, राष्ट्रपालक, सुनामा, कङ्क और शङ्कु – क्रोधसे ओष्ठ फड़फड़ाते हुए ढाल और तलवार ले युद्ध करनेके लिये श्रीकृष्णपर टूट पड़े। उन्हें आते देख रोहिणीनन्दन बलरामने मुद्रर हाथमें लेकर उसी प्रकार उनके निकट हुंकार किया, जैसे सिंह मृगोंको देखकर दहाड़ता है। मिथिलेश्वर ! उस हुंकारसे ही उनपर इतना भय छा गया कि उनके हाथोंसे शस्त्र उसी प्रकार गिर पड़े, जैसे डंडा मारनेसे आमके फल गिरते हैं। निःशस्त्र होनेपर भी उन महावीरोंने बलरामको चारों ओरसे मुक्कोंद्वारा मारना आरम्भ किया-ठीक उसी तरह जैसे हाथी किसी पर्वतको अपनी सूँड़से इधर-उधरसे पीटते हों। बलरामजीने सृष्टि और सुनामाको मुद्ररसे मार डाला, न्यग्रोधको भुजाओंके वेगसे धराशायी कर दिया और कङ्कको बायें हाथसे मार गिराया। माधवने शङ्क, सुहुत और तुष्टिमान् को बायें पैरसे कुचल दिया तथा राष्ट्रपालको दाहिने पैरके आघातसे कालके गालमें भेज दिया। इस प्रकार आँधीके उखाड़े हुए वृक्षोंकी भाँति वे आठों वीर सहसा धराशायी हो गये। विदेहराज! उन सबकी ज्योति भगवान्में लीन हो गयी ॥ ३६-४३ ॥(Mathurakhand Chapter 6 to 10)

देवताओंकी दुन्दुभियाँ बजने लगीं। उस समय चारों ओर जय-जयकार होने लगी। देवतालोग उसी क्षण नन्दनवनके फूलोंकी वर्षा करने लगे। विद्याधरियाँ और गन्धर्वाङ्गनाएँ हर्षसे विह्वल हो नृत्य करने लगीं। विद्याधर, गन्धर्व और किंनर भगवान का यश गाने लगे। ब्रह्मा आदि देवता, मुनि और सिद्ध विमानों- द्वारा भगवान्का दर्शन करनेके लिये आये। वे वैदिक मन्त्रोंका पाठ करते हुए दिव्य वाणीद्वारा बलराम और श्रीकृष्ण दोनों भाइयोंकी स्तुति करने लगे ॥ ४४-४६ ॥

तदनन्तर कंसकी अस्ति-प्राप्ति आदि रानियाँ हाथोंसे छाती पीटती हुई महलसे बाहर निकलीं और प्राप्त हुए वैधव्यके दुःखसे दुःखी हो विलाप करने लगीं ॥ ४७ ॥

स्त्रियाँ बोलीं- हा नाथ! हे युद्धपते! हे महाबली वीर! तुम कहाँ चले गये? तुम तो त्रिभुवन- विजयी तथा साक्षात् देवताओंके लिये भी दुर्जय वीर थे। तुमने निर्दय होकर अपनी बहिनके नवजात बच्चों- की हत्या की थी और दस दिनसे कम और अधिक उम्रवाले दूसरे-दूसरे बालकोंका भी बलपूर्वक वध कर डाला; उसी घोर पापके कारण तुम ऐसी दशाको प्राप्त हुए हो ॥ ४८-५० ॥(Mathurakhand Chapter 6 to 10)

नारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार अनुसे भीगे मुखवाली दीन-दुःखी राजपत्नियोंको धीरज बँधाकर लोक-भावन भगवान्ने यमुनाके तटपर श्रीखण्ड-चन्दनसे युक्त चिताएँ बनवायीं और मारे गये मामाओंकी पारलौकिक क्रियाएँ करवाकर सबको समझाया ॥ ५१-५२॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीमधुराखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘कंसका वध’ नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़िए ~ अध्यात्म रामायण

नवाँ अध्याय

श्रीकृष्ण द्वारा वसुदेव-देवकी की बन्धन से मुक्ति; श्रीकृष्ण और बलराम का गुरुकुल में विद्याध्ययन तथा गुरुदक्षिणा के रूप में गुरु के मरे हुए पुत्र को यमलोक से लाकर लौटाना; श्रीअक्रूर को हस्तिनापुर भेजना तथा कुब्जा का मनोरथ पूर्ण करना

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् । तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम साक्षात् वृष्णिवंशियोंसे घिरे हुए देवकी और वसुदेवके समीप गये। नरेश्वर। अपने दोनों पुत्रोंको देखकर उन दोनोंके बन्धन उसी प्रकार स्वतः ढीले पड़ गये, जैसे गरुडको आया देख नागपाशके बन्धन स्वतः खुल जाते हैं॥१-२॥

बलरामसहित श्रीहरिने माता-पिता को अपने प्रभावके ज्ञानसे सम्पन्न देख तत्काल अपनी माया फैला दी, जो बलपूर्वक जगत्‌को मोह लेनेवाली है। बलराम और कृष्ण मेरे पुत्र हैं, यह जानकर वसुदेवजी मोहसे व्याकुल हो गये और आँसू बहाते हुए देवकीके साथ सहसा उठकर उन्होंने दोनों पुत्रोंको हृदयसे लगा लिया। तब वृष्णिवंशियोंसे घिरे हुए श्रीहरिने उन दोनोंको आश्वासन दे अपने नाना उग्रसेनको मधुराका राजा बना दिया। कंसके भयसे दूसरे देशोंमें भगे हुए यादवोंको बुलाकर भगवान्ने प्रेमपूर्वक उन्हें यदुपुरीमें कुटुम्बसहित रहनेके लिये स्थान दिया। गोपगणोंके साथ अपने घरको जानेके लिये उद्यत नन्दराजको प्रणाम करके बलरामसहित श्रीकृष्णने उन्हें अपनी मायासे मोहित-सा करते हुए कहा- ‘तात ! अब आप इसी मथुरापुरीमें निवास कीजिये। यदि आपके मनमें यहाँसे जानेकी इच्छा उठ खड़ी हुई हो, तो जाइये। मैं भी यदुवंशियोंकी व्यवस्था करके भैया बलरामके साथ आपके पास आ जाऊँगा’ ॥ ३-८ ॥(Mathurakhand Chapter 6 to 10)

नारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार बलराम और श्रीकृष्णके द्वारा पूजित एवं सम्मानित नन्दराज वसुदेवजीको हृदयसे लगाकर प्रेमातुर हो व्रजको चले गये। वसुदेवजीने श्रीकृष्णके जन्म-नक्षत्रपर जो पहले दस लाख गोदान करनेका संकल्प किया था, उसे पूरा करनेके लिये उतनी गौओंको वस्त्र और मालाओंसे अलंकृत करके ब्राह्मणोंको दे दिया। फिर धर्मज्ञ वसुदेवने गर्गाचार्यको बुलाकर श्रीकृष्ण और बलभद्रका विधिवत् यज्ञोपवीत-संस्कार करवाया। तदनन्तर समस्त विद्याओंका अध्ययन करनेके लिये उद्यत हो परमेश्वर बलराम और श्रीकृष्ण साधारण जनोंकी भाँति गुरु सांदीपनिके पास आये। गुरुकी उत्तम सेवा करके दोनों माधवोंने थोड़े ही समयमें सारी विद्याएँ पढ़ लीं और वे दोनों समस्त विद्वानोंके शिरोमणि हो गये। तत्पश्चात् वे दोनों भाई हाथ जोड़कर गुरुजीको दक्षिणा देनेके लिये उद्यत हुए। उस समय उन ब्राह्मण गुरुने उन दोनोंसे दक्षिणामें अपने मरे हुए पुत्रको माँगा। तब वे दोनों भाई सुनहरे साज-सामानोंसे युक्त रथपर आरूढ़ हो, मन- इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए प्रभास तीर्थमें समुद्रके निकट गये। दोनों ही भयानक पराक्रमी थे। उन्हें आया जान समुद्र तत्काल काँप उठा और रनोंकी उत्तम भेंट ले आकर, दोनों हाथ जोड़ उनके चरणप्रान्तमें पड़ गया। उससे भगवान्ने कहा- ‘तुम मेरे गुरुदेवके पुत्रको शीघ्र ही लौटा दो। तुमने अपनी प्रचण्ड लहरोंके घटाटोपसे उस ब्राह्मण-बालकका अपहरण कर लिया था’ ॥ ९-१७॥

समुद्र बोला- भगवन् ! देवदेवेश्वर ! मैंने उस ब्राह्मण-बालकका अपहरण नहीं किया है। उसका हरण तो शङ्खरूपधारी असुर पञ्चजनने किया है। वह बलिष्ठ दैत्यराज सदा मेरे उदरमें निवास करता है। देव। वह देवताओंके लिये भी भयकारक है, अतः आपको उसे जीत लेना चाहिये ॥ १८-१९ ॥

नारदजी कहते हैं- समुद्रके यों कहनेपर भगवान् श्रीकृष्णने अपनी कमरमें दृढ़तापूर्वक वस्त्र बाँध लिया और वे भयंकर शब्द करनेवाले उस समुद्रमें बड़े वेगसे कूद पड़े। विदेहराज! त्रिलोकीका भार धारण करनेवाले श्रीकृष्णके कूदनेसे वह समुद्र इस प्रकार अत्यन्त काँपने लगा, मानो वज्रकूट गिरिके द्वारा उसे मथ डाला गया हो। तब वीर पञ्चजन दैत्य युद्ध करनेके लिये सहसा श्रीकृष्णके सामने आया। उसने माधवपर अपना शूल चला दिया, किंतु उस शूलको हाथमें लेकर श्रीकृष्णने उसीके द्वारा उसपर आघात किया। उस आघातसे मूच्छित हो वह समुद्रमें गिर पड़ा। फिर सहसा उठकर कुछ व्याकुलचित्त हुए पञ्चजनने देवेश्वर श्रीहरिको इस प्रकार अपने मस्तक्से मारा, मानो किसी सर्पने पक्षिराज गरुडपर अपने फनसे प्रहार किया हो। तब साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीहरिने कुपित होकर बड़े वेगसे उसके मस्तकपर मुक्का मारा। श्रीकृष्णके मुक्केकी मारसे तत्काल उसके प्राणपखेरू उड़ गये। विदेहराज ! उसके शरीरसे निकली हुई ज्योति घनश्याम श्रीकृष्णमें लीन हो गयी। इस प्रकार पञ्चजनको मारकर और उसके शरीरसे उत्पन्न शङ्खको साथ ले, वे श्रीकृष्ण सहसा महासागरसे निकले और रथपर आ बैठे ॥२०-२७ ॥(Mathurakhand Chapter 6 to 10)

तदनन्तर मनोहर बलराम और श्रीकृष्ण वायुके समान वेगशाली रथके द्वारा यमराजकी विशाल पुरी संयमनीमें गये। वहाँ उन्होंने मेघ गर्जनाके समान भयंकर लोक-प्रचण्ड पाञ्चजन्यकी ध्वनि सब ओर फैला दी। उसे सुनकर सभासदॉसहित यमराज काँप उठे। यमपुरीके चौरासी लाख नरकोंमें पड़े हुए पापियोंमेंसे जिन-जिनके कानोंमें वह ध्वनि पड़ी, वे सब-के-सब मोक्ष पा गये। यमराज उसी क्षण पूजा और उपहारकी सामग्री लेकर श्रीकृष्ण-बलरामके चरणप्रान्तमें आ गिरे। वे उनके तेजसे पराभूत हो गये थे, अतः हाथ जोड़कर बोले ॥ २८-३१॥

यमराजने कहा- हे हरे! हे कृपासिन्धो! हे महाबली बलराम ! आप दोनों असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति तथा परिपूर्णतम परमेश्वर हैं। आप दोनों देवता पुराण-पुरुष, सबसे महान्, सर्वेश्वर तथा सम्पूर्ण जगत्के लोगोंके अधीश्वर हैं। आज भी आप दोनों सबके ऊपर विराजमान हैं। परमेश्वरो ! आप अपनी वाणीद्वारा हमें आज्ञा दें कि हमें क्या सेवा करनी है ॥ ३२-३३ ॥

श्रीभगवान् बोले- महामते लोकपाल यम! मेरे गुरुपुत्रको ले आओ और मेरी वाणीका आदर करते हुए कहीं भी न्यायोचित रीतिसे राज्य करो ॥ ३४ ॥
नारदजी कहते हैं- राजन् ! उसी समय यमराजने गुरुपुत्रको ले आकर श्रीकृष्णके हाथमें सौंप दिया। फिर साक्षात् श्रीहरि उसे लेकर अवन्तिकापुरीमें आये और उन्होंने श्रीगुरुको उनका वह शिशुपुत्र समर्पित कर दिया। फिर गुरुके आशीर्वादसे सम्भावित हो, उन दोनों भाइयोंने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और वे रथपर चढ़कर मथुरापुरीमें आ गये। वहाँ यदुवंशियोंने उनका बड़ा सम्मान किया ॥ ३५-३६ ॥

एक दिन समस्त कारणोंके भी कारण श्रीकृष्ण अपने भक्त पाण्डवोंका स्मरण करते हुए बलरामजीके साथ अक्रूरके घर गये। नरेश्वर। अक्रूर सहसा उठकर खड़े हो गये और बड़ी प्रसन्नताके साथ उन्हें हृदयसे लगाकर, षोडश उपचारोंद्वारा उनका पूजन करके हाथ जोड़ सामने खड़े हो गये। उनका मनोरथ पूर्ण हो चुका था। उन्होंने प्रेमानन्दके आँसू बहाते हुए उनसे कहा ॥ ३७-३९ ॥(Mathurakhand Chapter 6 to 10)

अक्रूर बोले- प्रभुओ ! जिन्होंने मार्गमें, मैंने जो कुछ कहा या सोचा था, वह सब पूर्ण कर दिया, उन्हीं आप दोनों-बलराम और श्रीकृष्णको मेरा नित्य बारंबार नमस्कार है। आप दोनों समस्त लोकोंमें सर्वाधिक सुन्दर हैं। जन-भूषणोंमें भी उत्तम हैं। सम्पूर्ण जगत्‌को बाहर और भीतरसे भी प्रकाशित करनेवाले हैं। इस समय गौ, ब्राह्मण, साधु, वेद, धर्म तथा देवताओंकी रक्षाके लिये आप दोनों यदुकुलमें अवतीर्ण हुए हैं। परिपूर्ण तेजस्वी आप दोनों परमेश्वर कंसादि दैत्योंका विनाश करनेके लिये गोलोकधामसे भारतवर्षके भूमण्डलमें पधारे हैं। मैं नित्य- निरन्तर आप दोनोंको प्रणाम करता हूँ ॥ ४०-४२ ॥

श्रीभगवान् बोले- आप हमारे बड़े-बूढ़े गुरुजन और धैर्यवान् हैं। मैं आपके आगे बालक हूँ। महामते ! संत पुरुष कभी अपनी बड़ाई नहीं करते। दानपते ! पाण्डवोंका कुशल समाचार जाननेके लिये आप शीघ्र हस्तिनापुर जाइये और वहाँ उन सबसे मिल-जुलकर लौट आइये ॥ ४३-४४ ॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! उस समय अक्रूरसे यों कहकर समस्त कार्योंका सम्पादन करनेवाले भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण बलरामजीके साथ वसुदेवजीके भवनमें लौट आये। उधर अक्रूर कौरवेन्द्रपुरी हस्तिनापुरमें जाकर पाण्डवोंसे मिले और पुनः वहाँसे लौटकर उन्होंने श्रीकृष्णसे सारा समाचार कह सुनाया ॥ ४५-४६ ॥

अकूरने कहा- भगवन् ! पाण्डव लोग कौरवोंके दिये हुए दुःख भोग रहे हैं। आप दोनोंके सिवा दूसरा कोई भी उनकी सहायता करनेवाला नहीं है। पाण्डुके मर जानेपर पृथाके सभी पुत्र आप दोनोंके चरणारविन्दोंमें ही चित्त लगाये बैठे हैं॥ ४७ ॥(Mathurakhand Chapter 6 to 10)

नारदजी कहते हैं- राजन् ! अक्रूरजीके मुखसे यह समाचार सुनकर भगवान् श्रीकृष्णने कौरवोंका आधा राज्य बलपूर्वक पाण्डवोंको दे दिया। तदनन्तर अपनी कही हुई बातको याद करके भगवान् श्रीकृष्ण उद्धवको साथ ले कुब्जाके महामङ्गलसंयुक्त भवनमें गये। श्रीहरिको आया देख परमरूपवती कुब्जाने तुरंत ही भक्तिभावसे पाद्य आदि उपचार समर्पित करके अपने प्राणवल्लभका पूजन किया। कुब्जाके उत्तम भवनकी दीवारोंमें सोने और रत्न जड़े गये थे। उस रूपवती रमणीके साथ श्रीहरि उसी प्रकार शोभित हुए, जैसे वैकुण्ठधाममें रमाके साथ रमापति विष्णु शोभा पाते हैं। राजन् ! साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं जिस सैरन्ध्रीके पति हो गये, उसका महान् तप कैसा आश्चर्यजनक है। विदेहराज! वहाँ लीलासे मानव- शरीर धारण करनेवाले भगवान् श्रीहरि आठ दिनोंतक टिके रहकर नवें दिन वसुदेवजीके भवनमें लौट आये। विदेहनरेश! मथुरामें इस प्रकार जो श्रीकृष्णका चरित्र है, वह समस्त पापोंको हर लेनेवाला, पुण्यदायक तथा आयुकी वृद्धिका उत्तम साधन है। वह मनुष्योंको चारों पदार्थ देनेवाला तथा श्रीकृष्णको भी वशमें कर लेनेवाला है। तुमने जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने तुमसे कह सुनाया। अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ४८-५५॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीमथुराखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्च संवादमें ‘यदुसौख्य’ नामक नवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ९॥

यहां पढ़ें ~ सम्पूर्ण श्री गर्ग संहिता

दसवाँ अध्याय

धोबी, दर्जी और सुदामा माली के पूर्व जन्म का परिचय

बहुलाश्वने पूछा- देवर्षे! आपके मुखसे मैंने भगवान् श्रीकृष्णके पावन चरित्रका श्रवण किया, किंतु पुनः अधिकाधिक सुननेकी इच्छा हो रही है। जैसे प्यासा प्राणी जलकी इच्छा करता है, उसी तरह मेरा मन आज श्रीकृष्ण-चरित्रको सुनना चाहता है। आपने कंसके जन्म-कर्मोंका वर्णन किया और मैंने सुना। केशी आदि बड़े-बड़े दैत्योंके पूर्वजन्मकी बातें भी मैंने सुनीं। अब यह जानना चाहता हूँ कि अहो ! जिसकी महती ज्योति श्रीकृष्णमें लीन हुई, वह धोबी पूर्वजन्ममें कौन था? और श्रीहरिने उसका वध क्यों किया ? ॥ १-३ ॥

नारदजीने कहा- विदेहराज ! त्रेतायुगकी बात है, अयोध्यापुरीमें श्रीरामचन्द्रजी राज्य करते थे। उनके राज्यकालमें प्रजाकी मनोवृत्ति एवं दुःख-सुख जाननेके लिये गुप्तचर घूमा करते थे। एक दिन उन गुप्तचरोंके सुनते हुए किसी धोबीने अपनी भार्यासे कहा-‘तू दुष्टा है और दूसरेके घरमें रहकर आयी है; इसलिये अब तुझे मैं नहीं रखूँगा। स्त्रीके लोभी राजा राम भले ही सीताको रख लें, किंतु मैं तुझे नहीं स्वीकार करूँगा।’ इस प्रकार बहुत से लोगोंके मुखसे आक्षेपयुक्त बात सुनकर श्रीराघवेन्द्रने लोकापवादके भयसे सहसा सीताको वनमें त्याग दिया। रघुकुल- तिलक श्रीरामने उस धोबीको दण्ड देनेकी इच्छा नहीं की। वही द्वापरके अन्तमें मथुरापुरीमें फिर धोबी ही हुआ। उसने सीताके प्रति जो कुवाच्य कहा था, उस दोषकी शान्तिके लिये श्रीहरिने स्वयं ही उसका वध किया, तथापि उन श्रीकरुणानिधिने उस धोबीको मोक्ष प्रदान किया। राजन् ! दयालु श्रीकृष्णचन्द्रका यह परम अद्भुत चरित्र मैंने तुमसे कहा। अब पुनः क्या सुनना चाहते हो ? ॥४-९ ॥

बहुलाश्वने पूछा- मुनिश्रेष्ठ ! पूर्वजन्ममें वह दर्जी कौन था, जिसे भगवान् श्रीकृष्णने अपना सारूप्य प्रदान किया ? ॥ १० ॥

श्रीनारदजीने कहा- राजन् । पहले मिथिला- पुरीमें एक दर्जी था, जो भगवान् श्रीहरिके प्रति भक्तिभाव रखता था। उसने श्रीरामके विवाहके समय राजा सीरध्वज जनककी आज्ञासे श्रीराम और लक्ष्मणके दूलह-वेषके लिये महीन डोरोंसे कपड़े सीये थे। वह वस्त्र सीनेकी कलामें अत्यन्त कुशल था। राजन् ! करोड़ों कामदेवोंके समान लावण्यवाले सुन्दर श्रीराम और लक्ष्मणको देखकर वह महामनस्वी दर्जी मोहित हो गया था। उसने मन-ही-मन यह इच्छा की कि मैं कभी अपने हाथोंसे इनके अङ्गोंमें वस्त्र पहिनाऊँ। श्रीरघुनाथजी सर्वज्ञ हैं। उन्होंने मन-ही-मन उसे वर दे दिया कि ‘द्वापरके अन्तमें भारतीय व्रज- मण्डलमें तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा।’ श्रीरामचन्द्रजीके वरदानसे वही यह दर्जी मधुरामें प्रकट हुआ था, जिसने उन दोनों बन्धुओंकी वेष-रचना करके उनका सारूप्य प्राप्त कर लिया ॥ ११-१६ ॥(Mathurakhand Chapter 6 to 10)

बहुलाश्वने पूछा- ब्रह्मन् ! सुदामा मालीने, जिसके घरमें परम मनोहर बलराम और श्रीकृष्ण स्वयं पधारे थे, कौन-सा पुण्य किया था? बताइये ॥ १७ ॥

नारदजीने कहा- राजन् ! राजराज कुबेरका एक परम रमणीय सुन्दर वन है, जो चैत्ररथ-वनके नामसे प्रसिद्ध है। उसमें फूल लगानेवाला एक माली था, जो हेममालीके नामसे पुकारा जाता था। वह भगवान् विष्णुके भजनमें तत्पर, शान्त, दानशील तथा महान् सत्सङ्गी था। उसने भगवान् श्रीकृष्णकी प्राप्तिके लिये देवताओंकी पूजा की। पाँच हजार वर्षांतक प्रतिदिन तीन सौ कमल पुष्प लेकर वह भगवान् शंकरके आगे रखता और उन्हें प्रणाम करता था। एक समय करुणानिधि त्रिनेत्रधारी भगवान् शंकर उसके ऊपर अत्यन्त प्रसन्न हो बोले- ‘परम बुद्धिमान् मालाकार । तुम इच्छानुसार वर माँगो।’ तब हेम- मालीने हाथ जोड़कर महादेवजीको नमस्कार किया और परिक्रमा करके उनके सामने खड़ा हो मस्तक झुकाकर कहा ॥ १८-२२ ॥

हेममाली बोला- भगवन् ! परिपूर्णतम प्रभु श्रीकृष्ण कभी मेरे घर पधारें और मैं इन नेत्रोंसे उनका प्रत्यक्ष दर्शन करूँ ऐसी मेरी इच्छा है। आपके वरदानसे मेरी यह अभिलाषा पूर्ण हो ॥ २३ ॥

श्रीमहादेवजीने कहा- महामते ! द्वापरके अन्तमें भारतवर्षकी मथुरापुरीमें तुम्हारा यह मनोरथ सफल होगा, इसमें संशय नहीं है॥ २४॥(Mathurakhand Chapter 6 to 10)

नारदजी कहते हैं- राजन् ! महादेवजीके वरदानसे वह महामना हेममाली ही द्वापरके अन्तमें सुदामा माली हुआ था। इसीलिये साक्षात् बलराम और श्रीकृष्ण भगवान् शिवकी वाणी सत्य करनेके लिये उसके घर पधारे थे। अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ २५-२६ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीमथुराखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘धोबी, दर्जी और सुदामा मालीका उपाख्यान’ नामक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १०॥

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