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Garga Samhita Golok khand Chapters 1 to 5

Garga Samhita
Garga Samhita Golok khand Chapters 1 to 5

।। श्रीहरिः ॥

ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते

गर्ग संहिता गोलोकखण्ड पहले अध्याय से पांचवे अध्याय तक (Golok khand Chapters 1 to 5)

श्रीगर्ग संहिता

(गोलोकखण्ड)

गर्ग ऋषि द्वारा रचित श्री गर्ग संहिता में गोलोकखण्ड के प्रथम अध्याय में शौनक-गर्ग-संवादः राजा बहुलाश्वके पूछनेपर नारदजीके द्वारा अवतार-भेदका निरूपण किया गया है। दूसरे अध्याय में ब्रह्मादि देवोंद्वारा गोलोकधाम का दर्शन का वर्णन किया है। तीसरे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण के श्री विग्रह में श्री विष्णु आदिका प्रवेश; देवताओं द्वारा भगवान की स्तुति; भगवान का अवतार लेने का निश्चयः श्रीराधा की चिन्ता और भगवान का उन्हें सान्त्वना-प्रदान कारन है। चौथे अध्याय में नन्द आदिके लक्षण; गोपीयूथका परिचय; श्रुति आदि के गोपीभाव की प्राप्ति में कारणभूत पूर्वप्राप्त वरदानों का विवरण दिया गया है। और पांचवे अध्याय में भिन्न-भिन्न स्थानों तथा विभिन्न वर्गों की स्त्रियों के गोपी होने के कारण एवं अवतार-व्यवस्थाका वर्णन दिया गया है।(Golok khand Chapters 1 to 5)

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पहला अध्याय

शौनक-गर्ग-संवाद; राजा बहुलाश्वके पूछनेपर नारदजीके द्वारा अवतार-भेदका निरूपण

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ।।
शरद्विकचपङ्कजश्रियमतीवविद्वेषकं मिलिन्दमुनिसेवितं कुलिशकंजचिह्नावृतम् ।
स्फुरत्कनकनूपुरं दलितभक्ततापत्रयं चलद्युतिपदद्वयं हृदि दधामि राधापतेः ।।
वदनकमलनिर्यद् यस्य पीयूषमाद्यं पिबति जनवरोऽयं पातु सोऽयं गिरं मे।
बदवनविहारः सत्यवत्याः कुमारः प्रणतदुरितहारः शार्गधन्वावतारः ।।

‘भगवान नारायण, नरश्रेष्ठ नर, देवी सरस्वती तथा महर्षि व्यासको नमस्कार करनेके पश्चात् जय (श्रीहरि- की विजय-गाथासे पूर्ण इतिहास-पुराण) का उच्चारण करना चाहिये। मैं भगवान् श्रीराधाकान्तके उन युगल चरणकमलोंको अपने हृदयमें धारण करता हूँ, जो शरद्ॠतुके प्रफुल्लित कमलोंकी शोभाको अत्यन्त नीचा दिखानेवाले हैं, मुनिरूपी भ्रमरोंके द्वारा जिनका निरन्तर सेवन होता रहता है, जो वज्र और कमल आदिके चिह्नोंसे विभूषित हैं, जिनमें सोनेके नूपुर चमक रहे हैं और जिन्होंने भक्तोंके त्रिविध तापका सदा ही नाश किया तथा जिनसे दिव्य ज्योति छिटक रही है। जिनके मुख-कमलसे निकली हुई आदि-कथारूपी सुधाका बड़भागी मनुष्य सदा पान करता रहता है, वे बदरीवनमें विहार करनेवाले, प्रणतजनोंका ताप हरनेमें समर्थ, भगवान् विष्णुके अवतार सत्यवती कुमार श्रीव्यासजी मेरी वाणीकी रक्षा करें – उसे दोषमुक्त करें’ । १-३ ॥

एक समयकी बात है, ज्ञानिशिरोमणि परमतेजस्वी मुनिवर गर्गजी, जो योगशास्त्रके सूर्य हैं, शौनकजीसे मिलनेके लिये नैमिषारण्यमें आये। उन्हें आया देख मुनियोंसहित शौनकजी सहसा उठकर खड़े हो गये और उन्होंने पाद्य आदि उपचारोंसे विधिवत् उनकी पूजा की । ४-५ ॥(Golok khand Chapters 1 to 5)

शौनकजीने कहा- साधुपुरुषोंका सब ओर विचरण धन्य है; क्योंकि वह गृहस्थ-जनोंको शान्ति प्रदान करनेका हेतु कहा गया है। मनुष्योंके भीतरी अन्धकारका नाश महात्मा ही करते हैं, न कि सूर्य। भगवन् ! मेरे मनमें यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई है कि भगवान्के अवतार कितने प्रकारके हैं। आप कृपया इसका निवारण कीजिये ।। ६-७ ॥

श्रीगर्गजी कहते हैं – ब्रह्मन् ! भगवान्के गुणानुवादसे सम्बन्ध रखनेवाला आपका यह प्रश्न बहुत ही उत्तम है। यह कहने, सुनने और पूछने- वाले – तीनोंके कल्याणका विस्तार करनेवाला है। इसी प्रसङ्गमें एक प्राचीन इतिहासका कथन किया जाता है, जिसके श्रवणमात्रसे बड़े-बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं। पहलेकी बात है, मिथिलापुरीमें बहुलाश्व नामसे विख्यात एक प्रतापी राजा राज्य करते थे। वे भगवान् श्रीकृष्णके परम भक्त, शान्तचित्त एवं अहंकारसे रहित थे। एक दिन मुनिवर नारदजी आकाशमार्गसे उत्तरकर उनके यहाँ पधारे। उन्हें उपस्थित देखकर राजाने आसनपर बिठाया और भलीभाँति उनकी पूजा करके हाथ जोड़कर उनसे इस प्रकार पूछा ॥ ८-११॥

श्रीजनकजी बोले – महामते ! जो भगवान् अनादि, प्रकृतिसे परे और सबके अन्तर्यामी ही नहीं, आत्मा हैं, वे शरीर कैसे धारण करते हैं ? (जो सर्वत्र व्यापक है, वह शरीरसे परिच्छिन्न कैसे हो सकता है ?) यह मुझे बतानेकी कृपा करें ॥ १२ ॥(Golok khand Chapters 1 to 5)

नारदजीने कहा- गौ, साधु, देवता, ब्राह्मण और वेदोंकी रक्षाके लिये साक्षात् भगवान् श्रीहरि अपनी लीलासे शरीर धारण करते हैं। [अपनी अचिन्त्य लीलाशक्तिसे ही वे देहधारी होकर भी व्यापक बने रहते हैं। उनका वह शरीर प्राकृत नहीं, चिन्मय है।] जैसे नट अपनी मायासे मोहित नहीं होता और दूसरे लोग मोहमें पड़ जाते हैं, वैसे ही अन्य प्राणी भगवान्की माया देखकर मोहित हो जाते हैं, किंतु परमात्मा मोहसे परे रहते हैं- इसमें लेशमात्र भी संशय नहीं है ।। १३-१४ ।।

श्रीजनकजीने पूछा – मुनिवर ! संतोंकी रक्षाके लिये भगवान् विष्णुके कितने प्रकारके अवतार होते हैं ? यह मुझे बतानेकी कृपा करें ।। १५ ।

श्रीनारदजी बोले – राजन् ! व्यास आदि मुनियोंने अंशांश, अंश, आवेश, कला, पूर्ण और परिपूर्णतम – ये छः प्रकारके अवतार बताये हैं। इनमेंसे छठा – परिपूर्णतम अवतार साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं। मरीचि आदि ‘अंशांशावतार’, ब्रह्मा आदि ‘अंशावतार’, कपिल एवं कूर्म प्रभृति ‘कलावतार’ और परशुराम आदि ‘आवेशावतार’ कहे गये हैं। नृसिंह, राम, श्वेतद्वीपाधिपति हरि, वैकुण्ठ, यज्ञ और नर-नारायण – ये ‘पूर्णावतार’ हैं एवं साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण ही ‘परिपूर्णतम’ अवतार हैं। असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति वे प्रभु गोलोकधाममें विराजते हैं। जो भगवान्के दिये सृष्टि आदि कार्यमात्रके अधिकारका पालन करते हैं, वे ब्रह्मा आदि ‘सत्’ (सत्स्वरूप भगवान्) के अंश हैं। जो उन अंशोंके कार्यभारमें हाथ बटाते हैं, वे ‘अंशांशावतार’ के नामसे विख्यात हैं। परम बुद्धिमान् नरेश ! भगवान् विष्णु स्वयं जिनके अन्तःकरणमें आविष्ट हो, अभीष्ट कार्यका सम्पादन करके फिर अलग हो जाते हैं, राजन् ! ऐसे नानाविध अवतारोंको ‘आवेशावतार’ समझो। जो प्रत्येक युगमें प्रकट हो, युगधर्मको जानकर, उसकी स्थापना करके, पुनः अन्तर्धान हो जाते हैं, भगवान्के उन अवतारोंको ‘कलावतार’ कहा गया है। जहाँ चार व्यूह प्रकट हों-जैसे श्रीराम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न एवं वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध, तथा जहाँ नौ रसोंकी अभिव्यक्ति देखी जाती हो एवं जहाँ बल-पराक्रमकी भी पराकाष्ठा दृष्टिगोचर होती हो, भगवान्के उस अवतारको ‘पूर्णावतार’ कहा गया है। जिसके अपने तेजमें अन्य सम्पूर्ण तेज विलीन हो जाते हैं, भगवान्के उस अवतारको श्रेष्ठ विद्वान् पुरुष साक्षात् ‘परिपूर्णतम’ बताते हैं। जिस अवतारमें पूर्णका पूर्ण लक्षण दृष्टिगोचर होता है और मनुष्य जिसे पृथक्- पृथक् भावके अनुसार अपने परम प्रिय रूपमें देखते हैं, वही यह साक्षात् ‘परिपूर्णतम’ अवतार है। [इन सभी लक्षणोंसे सम्पन्न] स्वयं परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं, दूसरा नहीं; क्योंकि श्रीकृष्णने एक कार्यके उद्देश्यसे अवतार लेकर अन्यान्य करोड़ों कार्योंका सम्पादन किया है। जो पूर्ण, पुराण पुरुषोत्तमोत्तम एवं परात्पर पुरुष परमेश्वर हैं, उन साक्षात् सदानन्दमय, कृपानिधि, गुणोंके आकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी मैं शरण लेता हूँ। * यह सुनकर राजा हर्षमें भर गये। उनके शरीरमें रोोमाञ्च हो आया। वे प्रेमसे विह्वल हो गये और अश्रुपूर्ण नेत्रोंको पोंछकर नारदजीसे यों बोले ॥ १६-२८ ॥(Golok khand Chapters 1 to 5)

राजा बहुलाश्वने पूछा- महर्षे ! साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र सर्वव्यापी चिन्मय गोलोकधामसे उतरकर जो भारतवर्षके अन्तर्गत द्वारकापुरीमें विराज रहे हैं- इसका क्या कारण है ? ब्रह्मन् ! उन भगवान् श्रीकृष्णके सुन्दर बृहत् (विशाल या ब्रह्मस्वरूप) गोलोकधामका वर्णन कीजिये। महामुने ! साथ ही उनके अपरिमेय कार्योंको भी कहनेकी कृपा कीजिये। मनुष्य जब तीर्थयात्रा तथा सौ जन्मोंतक उत्तम तपस्या करके उसके फलस्वरूप सत्सङ्गका सुअवसर पाता है, तब वह भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको शीघ्र प्राप्त कर लेता है। कब मैं भक्तिरससे आर्द्रचित्त हो मनसे भगवान् श्रीकृष्णके दासका भी दासानुदास होऊँगा ? जो सम्पूर्ण देवताओंके लिये भी दुर्लभ है, वे परब्रह्म परमात्मा आदिदेव भगवान् श्रीकृष्ण मेरे नेत्रोंके समक्ष कैसे होंगे ?* ॥ २९-३२ ॥

श्रीनारदजी बोले – नृपश्रेष्ठ ! तुम धन्य हो, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके अभीष्ट जन हो और उन श्रीहरिके परम प्रिय भक्त हो। तुम्हें दर्शन देनेके लिये ही वे भक्तवत्सल भगवान् यहाँ अवश्य पधारेंगे। ब्रह्मण्यदेव भगवान् जनार्दन द्वारकामें रहते हुए भी तुम्हें और ब्राह्मण श्रुतदेवको याद करते रहते हैं। अहो ! इस लोकमें संतोंका कैसा सौभाग्य है ! ॥ ३३- ३४ ॥(Golok khand Chapters 1 to 5)

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘श्रीकृष्णमाहात्य का वर्णन’ नामक पहला अध्याय पूरा हुआ ॥ १ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ रघुवंशम् महाकाव्य प्रथमः सर्गः

दूसरा अध्याय

ब्रह्मादि देवोंद्वारा गोलोकधाम का दर्शन

श्रीनारदजी कहते हैं – जो जीभ पाकर भी कीर्तनीय भगवान् श्रीकृष्णका कीर्तन नहीं करता, वह दुर्बुद्धि मनुष्य मोक्षकी सीढ़ी पाकर भी उसपर चढ़नेकी चेष्टा नहीं करता। राजन् ! अब इस वाराहकल्पमें धराधामपर जो भगवान् श्रीकृष्णका पदार्पण हुआ है और यहाँ उनकी जो-जो लीलाएँ हुई हैं, वह सब मैं तुमसे कहता हूँ, सुनो। बहुत पहलेकी बात है- दानव, दैत्य, आसुर-स्वभावके मनुष्य और दुष्ट राजाओंके भारी भारसे अत्यन्त पीड़ित हो, पृथ्वी गौका रूप धारण करके, अनाथकी भाँति रोती-बिलखती हुई अपनी आन्तरिक व्यथा निवेदन करनेके लिये ब्रह्माजीकी शरणमें गयी। उस समय उसका शरीर काँप रहा था। वहाँ उसकी कष्टकथा सुनकर ब्रह्माजीने उसे धीरज बँधाया और तत्काल समस्त देवताओं तथा शिवजीको साथ लेकर वे भगवान् नारायणके वैकुण्ठ- धाममें गये। वहाँ जाकर ब्रह्माजीने चतुर्भुज भगवान् विष्णुको प्रणाम करके अपना सारा अभिप्राय निवेदन किया। तब लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु उन उद्विग्न देवताओं तथा ब्रह्माजीसे इस प्रकार बोले * ॥ १-६ ॥

श्रीभगवान्ने कहा- ब्रह्मन् ! साक्षात् भगवान्श्री कृष्ण ही अगणित ब्रह्माण्डोंके स्वामी, परमेश्वर, अखण्डस्वरूप तथा देवातीत हैं। उनकी लीलाएँ अनन्त एवं अनिर्वचनीय हैं। उनकी कृपाके बिना यह कार्य कदापि सिद्ध नहीं होगा, अतः तुम उन्हींके अविनाशी एवं परम उज्ज्वल धाममें शीघ्र जाओ ॥ ७॥

श्रीब्रह्माजी बोले- प्रभो ! आपके अतिरिक्त कोई दूसरा भी परिपूर्णतम तत्त्व है, यह मैं नहीं जानता। यदि कोई दूसरा भी आपसे उत्कृष्ट परमेश्वर है, तो उसके लोकका मुझे दर्शन कराइये ॥ ८॥(Golok khand Chapters 1 to 5)

श्रीनारदजी कहते हैं – ब्रह्माजीके इस प्रकार कहनेपर परिपूर्णतम भगवान् विष्णुने सम्पूर्ण देवताओंसहित ब्रह्माजीको ब्रह्माण्ड-शिखरपर विराजमान गोलोकधामका मार्ग दिखलाया। वामनजीके पैरके बायें अँगूठेसे ब्रह्माण्डके शिरोभागका भेदन हो जानेपर जो छिद्र हुआ, वह ‘ब्रह्मद्रव’ (नित्य अक्षय नीर) से परिपूर्ण था। सब देवता उसी मार्गसे वहाँके लिये नियत जलयानद्वारा बाहर निकले। वहाँ ब्रह्माण्डके ऊपर पहुँचकर उन सबने नीचेकी ओर उस ब्रह्माण्डको कलिङ्गबिम्ब (तूंबे) की भाँति देखा। इसके अतिरिक्त अन्य भी बहुत-से ब्रह्माण्ड उसी जलमें इन्द्रायण-फलके सदृश इधर-उधर लहरोंमें लुढ़क रहे थे। यह देखकर सब देवताओंको विस्मय हुआ। वे चकित हो गये। वहाँसे करोड़ों योजन ऊपर आठ नगर मिले, जिनके चारों ओर दिव्य चहारदीवारी शोभा बढ़ा रही थी और झुंड-के-झुंड रत्नादिमय वृक्षोंसे उन पुरियोंकी मनोरमता बढ़ गयी थी। वहीं ऊपर देवताओंने विरजानदीका सुन्दर तट देखा, जिससे विरजाकी तरंगें टकरा रही थीं। वह तटप्रदेश उज्ज्वल रेशमी वस्त्रके समान शुभ्र दिखायी देता था। दिव्य मणिमय सोपानोंसे वह अत्यन्त उद्भासित हो रहा था। तटकी शोभा देखते और आगे बढ़ते हुए वे देवता उस उत्तम नगरमें पहुँचे, जो अनन्तकोटि सूर्योकी ज्योतिका महान् पुञ्ज जान पड़ता था। उसे देखकर देवताओंकी आँखें चौंधिया गयीं। वे उस तेजसे पराभूत हो जहाँ-के-तहाँ खड़े रह गये। तब भगवान् विष्णुकी आज्ञाके अनुसार उस तेजको प्रणाम करके ब्रह्माजी उसका ध्यान करने लगे। उसी ज्योतिके भीतर उन्होंने एक परम शान्तिमय साकार धाम देखा। उसमें परम अद्भुत, कमलनालके समान धवल-वर्ण हजार मुखवाले शेषनागका दर्शन करके सभी देवताओंने उन्हें प्रणाम किया। राजन् ! उन शेषनागकी गोदमें महान् आलोकमय लोकवन्दित गोलोकधामका दर्शन हुआ, जहाँ धामाभिमानी देवताओंके ईश्वर तथा गणनाशीलोंमें प्रधान कालका भी कोई वश नहीं चलता। वहाँ माया भी अपना प्रभाव नहीं डाल सकती। मन, चित्त, बुद्धि, अहंकार, सोलह विकार तथा महत्तत्त्व भी वहाँ प्रवेश नहीं कर सकते हैं; फिर तीनों गुणोंके विषयमें तो कहना ही क्या है ! वहाँ कामदेवके समान मनोहर रूप-लावण्य- शालिनी, श्यामसुन्दरविग्रहा श्रीकृष्णपार्षदा द्वारपाल- का कार्य करती थीं। देवताओंको द्वारके भीतर जानेके लिये उद्यत देख उन्होंने मना किया ॥ ९-२० ॥

तब देवता बोले- हम सभी ब्रह्मा, विष्णु, शंकर नामके लोकपाल और इन्द्र आदि देवता हैं। भगवान् श्रीकृष्णके दर्शनार्थ यहाँ आये हैं ॥ २१ ॥(Golok khand Chapters 1 to 5)

श्रीनारदजी कहते हैं – देवताओंकी बात सुनकर उन सखियोंने, जो श्रीकृष्णकी द्वारपालिकाएँ थीं, अन्तःपुरमें जाकर देवताओंकी बात कह सुनायीं। तब एक सखी, जो शतचन्द्रानना नामसे विख्यात थी, जिसके वस्त्र पीले थे और जो हाथमें बेंतकी छड़ी लिये थी, बाहर आयी और उनसे उनका अभीष्ट प्रयोजन पूछा ॥ २२-२३ ।।

शतचन्द्रानना बोली – यहाँ पधारे हुए आप सब देवता किस ब्रह्माण्डके निवासी हैं, यह शीघ्र बताइये। तब मैं भगवान् श्रीकृष्णको सूचित करनेके लिये उनके पास जाऊँगी ।। २४ ।।(Golok khand Chapters 1 to 5)

देवताओंने कहा – अहो ! यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है, क्या अन्यान्य ब्रह्माण्ड भी हैं? हमने तो उन्हें कभी नहीं देखा। शुभे ! हम तो यही जानते हैं कि एक ही ब्रह्माण्ड है, इसके अतिरिक्त दूसरा कोई है ही नहीं ॥ २५॥

शतचन्द्रानना बोली- ब्रह्मदेव! यहाँ तो विरजा नदीमें करोड़ों ब्रह्माण्ड इधर-उधर लुढ़क रहे हैं। उनमें भी आप जैसे ही पृथक् पृथक् देवता वास करते हैं। अरे ! क्या आपलोग अपना नाम-गाँवतक नहीं जानते ? जान पड़ता है-कभी यहाँ आये नहीं हैं; अपनी थोड़ी-सी जानकारीमें ही हर्षसे फूल उठे हैं। जान पड़ता है, कभी घरसे बाहर निकले ही नहीं। जैसे गूलरके फलोंमें रहनेवाले कीड़े जिस फलमें रहते हैं, उसके सिवा दूसरेको नहीं जानते, उसी प्रकार आप-जैसे साधारण जन जिसमें उत्पन्न होते हैं, एकमात्र उसीको ‘ब्रह्माण्ड’ समझते हैं ॥ २६-२८ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं – राजन् ! इस प्रकार उपहासके पात्र बने हुए सब देवता चुपचाप खड़े रहे, कुछ बोल न सके। उन्हें चकित से देखकर भगवान् विष्णुने कहा ॥ २९ ॥

श्रीविष्णु बोले- जिस ब्रह्माण्डमें भगवान्पृ श्निगर्भका सनातन अवतार हुआ है तथा त्रिविक्रम (विराट्-रूपधारी वामन) के नखसे जिस ब्रह्माण्डमें विवर बन गया है, वहीं हम निवास करते हैं ।॥ ३० ॥(Golok khand Chapters 1 to 5)

श्रीनारदजी कहते हैं – भगवान् विष्णुकी यह बात सुनकर शतचन्द्राननाने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और स्वयं भीतर चली गयी। फिर शीघ्र ही आयी और सबको अन्तःपुरमें पधारनेकी आज्ञा देकर वापस चली गयी। तदनन्तर सम्पूर्ण देवताओंने परमसुन्दर धाम गोलोकका दर्शन किया। वहाँ ‘गोवर्धन’ नामक गिरिराज शोभा पा रहे थे। गिरिराजका वह प्रदेश उस समय वसन्तका उत्सव मनानेवाली गोपियों और गौओंके समूहसे घिरा था, कल्पवृक्षों तथा कल्पलताओंके समुदायसे सुशोभित था और रास- मण्डल उसे मण्डित (अलंकृत) कर रहा था। वहाँ श्यामवर्णवाली उत्तम यमुना नदी स्वच्छन्द गतिसे बह रही है। तटपर बने हुए करोड़ों प्रासाद उसकी शोभा बढ़ाते हैं तथा उस नदीमें उतरनेके लिये वैदूर्यमणिकी सुन्दर सीढ़ियाँ बनी है वहाँ दिव्य वृक्षों और लताओंसे भरा हुआ ‘वृन्दावन’ अत्यन्त शोभा पा रहा है; भाँति-भाँतिके विचित्र पक्षियों, भ्रमरों तथा वंशीवटके कारण वहाँकी सुषमा और बढ़ रही है। वहाँ सहस्त्रदल कमलोंके सुगन्धित परागको चारों ओर पुनः पुनः बिखेरती हुई शीतल वायु मन्द गतिसे बह रही है। वृन्दावनके मध्यभागमें बत्तीस वनोंसे युक्त एक ‘निज निकुञ्ज’ है। चहारदीवारियाँ और खाइयाँ उसे सुशोभित कर रही हैं। उसके आँगनका भाग लाल वर्णवाले अक्षयवटोंसे अलंकृत है। पद्मरागादि सात प्रकारकी मणियोंसे बनी दीवारें तथा आँगनके फर्श बड़ी शोभा पाते हैं। करोड़ों चन्द्रमाओंके मण्डलकी छवि धारण करनेवाले चैदोवे उसे अलंकृत कर रहे हैं तथा उनमें चमकीले गोले लटक रहे हैं। फहराती हुई दिव्य पताकाएँ एवं खिले हुए फूल मन्दिरों एवं मार्गोंकी शोभा बढ़ाते हैं। वहाँ भ्रमरोंके गुञ्जारव संगीतकी सृष्टि करते हैं। तथा मत्त मयूरों और कोकिलोंके कलरव सदा श्रवणगोचर होते हैं। वहाँ बालसूर्यके सदृश कान्तिमान् अरुण-पीत कुण्डल धारण करनेवाली ललनाएँ शत-शत चन्द्रमाओंके समान गौरवर्णसे उद्भासित होती हैं। स्वच्छन्द गतिसे चलनेवाली वे सुन्दरियाँ मणिरत्नमय भित्तियोंमें अपना मनोहर मुख देखती हुई वहाँक रलजटित आँगनोंमें भागती फिरती हैं। उनके गलेमें हार और बाँहोंमें केयूर शोभा देते हैं। नूपुरों तथा करधनीकी मधुर झनकार वहाँ गूँजती रहती है। वे गोपाङ्गनाएँ मस्तकपर चूड़ामणि धारण किये रहती हैं। वहाँ द्वार द्वारपर कोटि-कोटि मनोहर गौओंके दर्शन होते हैं। वे गौएँ दिव्य आभूषणोंसे विभूषित हैं और श्वेत पर्वतके समान प्रतीत होती हैं। सब-की-सब दूध देनेवाली तथा नयी अवस्थाकी हैं। सुशीला, सुरुचा तथा सगुणवती हैं। सभी सवत्सा और पीली पूँछकी हैं। ऐसी भव्य रूपवाली गौएँ वहाँ सब ओर विचर रही हैं। उनके घंटों तथा मञ्जीरोंसे मधुर ध्वनि होती रहती है। किङ्किणीजालोंसे विभूषित उन गौओंके सींगोंमें सोना मढ़ा गया है। वे सुवर्ण-तुल्य हार एवं मालाएँ धारण करती हैं। उनके अङ्गोंसे प्रभा छिटकती रहती है। सभी गौएँ भिन्न-भिन्न रंगवाली हैं-कोई उजली, कोई काली, कोई पीली, कोई लाल, कोई हरी, कोई ताँबेके रंगकी और कोई चितकबरे रंगको हैं। किन्हीं किन्हींका वर्ण धुँए-जैसा है। बहुत-सी कोयलके समान रंगवाली हैं। दूध देनेमें समुद्रकी तुलना करनेवाली उन गायोंक शरीरपर तरुणियोंक करचिह्न शोभित हैं, अर्थात् युवतियोंके हाथोंके रंगीन छापे दिये गये हैं। हिरनके समान छलाँग भरनेवाले बछड़ोंसे उनकी अधिक शोभा बढ़ गयी है। गायोंके झुंडमें विशाल शरीरवाले साँड़ भी इधर-उधर घूम रहे हैं। उनकी लंबी गर्दन और बड़े-बड़े सींग हैं। उन साँड़ोंको साक्षात् धर्मधुरंधर कहा जाता है। गौओंकी रक्षा करनेवाले चरवाहे भी अनेक हैं। उनमेंसे कुछ तो हाथमें बेंतकी छड़ी लिये हुए हैं। और दूसरोंके हाथोंमें सुन्दर बाँसुरी शोभा पाती है। उन सबके शरीरका रंग श्यामल है। वे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी लीलाएँ ऐसे मधुर स्वरोंमें गाते हैं कि उसे सुनकर कामदेव भी मोहित हो जाता है ॥ ३१-४८ ।।(Golok khand Chapters 1 to 5)

इस ‘दिव्य निज निकुञ्ज’ को सम्पूर्ण देवताओंन प्रणाम किया और भीतर चले गये। वहाँ उन्हें हजार दलवाला एक बहुत बड़ा कमल दिखायी पड़ा। वह ऐसा सुशोभित था, मानो प्रकाशका पुञ्ज हो। उसके ऊपर एक सोलह दलका कमल है तथा उसके ऊपर भी एक आठ दलवाला कमल है। उसके ऊपर चमचमाता हुआ एक ऊँचा सिंहासन है। तीन सीढ़ियोंसे सम्पन्न वह परम दिव्य सिंहासन कौस्तुभ- मणियोंसे जटित होकर अनुपम शोभा पाता है। उसीपर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र श्रीराधिकाजीके साथ विराजमान हैं। ऐसी झाँकी उन समस्त देवताओंको मिली। वे युगलरूप भगवान् मोहिनी आदि आठ दिव्य सखियोंसे समन्वित तथा श्रीदामा प्रभृति आठ गोपालोंके द्वारा सेवित है। उनके ऊपर हंसके समान सफेद रंगवाले पंखे झले जा रहे हैं और हीरोंसे बनी मूँठवाले चैवर डुलाये जा रहे हैं। भगवान्की सेवामें करोंड़ो ऐसे छत्र प्रस्तुत हैं, जो कोटि चन्द्रमाओंकी प्रभासे तुलित हो सकते हैं। भगवान् श्रीकृष्णके वामभागमें विराजित श्रीराधिकाजीसे उनकी बायीं भुजा सुशोभित है। भगवान्ने स्वेच्छापूर्वक अपने दाहिने पैरको टेढ़ा कर रखा है। वे हाथमें बाँसुरी धारण किये हुए हैं। उन्होंने मनोहर मुसकानसे भरे मुखमण्डल और भुकुटि-विलाससे अनेक कामदेवोंको मोहित कर रखा है। उन श्रीहरिकी मेषके समान श्यामल कान्ति है। कमल-दलकी भाँति बड़ी विशाल उनकी आँखें हैं। घुटनोंतक लंबी बड़ी भुजाओंवाले वे प्रभु अत्यन्त पीले वस्त्र पहने हुए हैं। भगवान् गलेमें सुन्दर वनमाला धारण किये हुए है, जिसपर वृन्दावनमें विचरण करनेवाले मतवाले भ्रमरोंकी गुंजार हो रही है। पैरोंमें घुँघरू और हाथोंमें कङ्कणकी छटा छिटका रहे हैं। अति सुन्दर मुसकान मनको मोहित कर रही है। श्रीवत्सका चिह्न, बहुमूल्य रत्नोंसे बने हुए किरीट, कुण्डल, बाजूबंद और हार यथास्थान भगवान्- की शोभा बढ़ा रहे हैं। भगवान् श्रीकृष्णके ऐसे दिव्य दर्शन प्राप्तकर सम्पूर्ण देवता आनन्दके समुद्रमें गोता खाने लगे। अत्यन्त हर्षके कारण उनकी आँखोंसे आँसुओंकी धारा बह चली। तब सम्पूर्ण देवताओंने हाथ जोड़कर विनीत-भावसे उन परम पुरुष श्रीकृष्ण चन्द्रको प्रणाम किया ।। ४९-५७ ॥(Golok khand Chapters 1 to 5)

इस प्रकार श्रीगर्ग संहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘श्रीगोलोकधामका वर्णन’ नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ २ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ सनातन धर्म में कितने शास्त्र-षड्दर्शन हैं।

तीसरा अध्याय

भगवान् श्रीकृष्णके श्रीविग्रहमें श्रीविष्णु आदिका प्रवेश; देवताओंद्वारा भगवान्की स्तुति; भगवान्का अवतार लेनेका निश्चयः श्रीराधाकी चिन्ता और भगवान्का उन्हें सान्त्वना-प्रदान

श्रीजनकजीने पूछा – मुने ! परात्पर महात्मा भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन प्राप्तकर सम्पूर्ण देवताओंने आगे क्या किया, मुझे यह बतानेकी कृपा करें ॥ १ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं –राजन् ! उस समय सबके देखते-देखते अष्ट भुजाधारी वैकुण्ठाधिपति भगवान् श्रीहरि उठे और साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णके श्रीविग्रहमें लीन हो गये। उसी समय कोटि सूर्योक समान तेजस्वी, प्रचण्ड पराक्रमी पूर्णस्वरूप भगवान् नृसिंहजी पधारे और भगवान् श्रीकृष्णके तेजमें वे भी समा गये। इसके बाद सहस्त्र भुजाओंसे सुशोभित, श्वेतद्वीपके स्वामी विराट् पुरुष, जिनके शुभ्र रथमें सफेद रंगके लाख घोड़े जुते हुए थे, उस रथपर आरूढ़ होकर वहाँ आये। उनके साथ श्रीलक्ष्मीजी भी थीं। वे अनेक प्रकारके अपने आयुधोंसे सम्पन्न थे। पार्षदगण चारों ओरसे उनकी सेवामें उपस्थित थे। वे भगवान् भी उसी समय श्रीकृष्णके श्रीविग्रहमें सहसा प्रविष्ट हो गये। फिर वे पूर्णस्वरूप कमललोचन भगवान् श्रीराम स्वयं वहाँ पधारे। उनके हाथमें धनुष और बाण थे तथा साथमें श्रीसीताजी और भरत आदि तीनों भाई भी थे। उनका दिव्य रथ दस करोड़ सूर्योक समान प्रकाशमान था। उसपर निरन्तर चॅवर डुलाये जा रहे थे। असंख्य वानरयूथपति उनकी रक्षाके कार्यमें संलग्न थे। उस रथके एक लाख चक्कोंसे मेघोंकी गर्जनाके समान गम्भीर ध्वनि निकल रही थी। उसपर लाख ध्वजाएँ फहरा रही थीं। उस रथमें लाख घोड़े जुते हुए थे। वह रथ सुवर्णमय था। उसीपर बैठकर भगवान् श्रीराम वहाँ पधारे थे। वे भी श्रीकृष्णचन्द्रके दिव्य विग्रहमें लीन हो गये। फिर उसी समय साक्षात् यज्ञनारायण श्रीहरि वहाँ पधारे, जो प्रलयकालकी जाज्वल्यमान अग्निशिखाके समान उद्भासित हो रहे थे। देवेश्वर यज्ञ अपनी धर्मपत्नी दक्षिणाके साथ ज्योतिर्मय रथपर बैठे दिखायी देते थे । वे भी उस समय श्यामविग्रह भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें लीन हो गये। तत्पश्चात् साक्षात् भगवान् नर-नारायण वहाँ पधारे। उनके शरीरकी कान्ति मेघके समान श्याम थी। उनके चार भुजाएँ थीं, नेत्र विशाल थे और वे मुनिके वेषमें थे। उनके सिरका जटा-जूट कौंधती हुई करोड़ों बिजलियोंके समान दीप्तिमान् था। उनका दीप्तिमण्डल सब ओर उद्भासित हो रहा था। दिव्य मुनीन्द्रमण्डलोंसे मण्डित वे भगवान् नारायण अपने अखण्डित ब्रह्मचर्यसे शोभा पाते थे। राजन् ! सभी देवता आश्चर्ययुक्त मनसे उनकी ओर देख रहे थे ।; किंतु वे भी श्यामसुन्दर भगवान् श्रीकृष्णमें तत्काल लीन हो गये। इस प्रकारके विलक्षण दिव्य दर्शन प्राप्तकर सम्पूर्ण देवताओंको महान् आश्चर्य हुआ। उन सबको यह भलीभाँति ज्ञात हो गया कि परमात्मा श्रीकृष्णचन्द्र स्वयं परिपूर्णतम भगवान् हैं। तब वे उन परमप्रभुकी स्तुति करने लगे ।। २- १४ ॥(Golok khand Chapters 1 to 5)

देवता बोले- जो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र पूर्णपुरुष, परसे भी पर, यज्ञोंके स्वामी, कारणके भी परम कारण, परिपूर्णतम परमात्मा और साक्षात् गोलोकधामके अधिवासी हैं, इन परम पुरुष श्रीराधावरको हम सादर नमस्कार करते हैं। योगेश्वर लोग कहते हैं कि आप परम तेजःपुञ्ज हैं; शुद्ध अन्तःकरणवाले भक्तजन ऐसा मानते हैं कि आप लीलाविग्रह धारण करनेवाले अवतारी पुरुष हैं; परंतु हमलोगोंने आज आपके जिस स्वरूपको जाना है, वह अद्वैत – सबसे अभिन्न एक अद्वितीय है; अतः आप महत्तम तत्त्वों एवं महात्माओंके भी अधिपति हैं; आप परब्रह्म परमेश्वरको हमारा नमस्कार है। कितने विद्वानोंने व्यञ्जना, लक्षणा और स्फोटद्वारा आपको जानना चाहा; किंतु फिर भी वे आपको पहचान न सके; क्योंकि आप निर्दिष्ट भावसे रहित हैं। अतः मायासे निर्लेप आप निर्गुण ब्रह्मकी हम शरण ग्रहण करते हैं। किन्हींने आपको ‘ब्रह्म’ माना है, कुछ दूसरे लोग आपके लिये ‘काल’ शब्दका व्यवहार करते हैं। कितनोंकी ऐसी धारणा है कि आप शुद्ध ‘प्रशान्त’ स्वरूप हैं तथा कतिपय मीमांसक लोगोंने तो यह मान रखा है कि पृथ्वीपर आप ‘कर्म’ रूपसे विराजमान हैं। कुछ प्राचीनोंने ‘योग’ नामसे तथा कुछने ‘कर्ता’ के रूपमें आपको स्वीकार किया है। इस प्रकार सबकी परस्पर विभिन्न ही उक्तियाँ हैं। अतएव कोई भी आपको वस्तुतः नहीं जान सका। (कोई भी यह नहीं कह सकता कि आप यही हैं, ‘ऐसे ही’ हैं।) अतः आप (अनिर्देश्य, अचिन्त्य, अनिर्वचनीय) भगवान्की हमने शरण ग्रहण की है। भगवन् ! आपके चरणोंकी सेवा अनेक कल्याणोंको देनेवाली है। उसे छोड़कर जो तीर्थ, यज्ञ और तपका आचरण करते हैं, अथवा ज्ञानके द्वारा जो प्रसिद्ध हो गये हैं; उन्हें बहुत-से विघ्नोंका सामना करना पड़ता है; वे सफलता प्राप्त नहीं कर सकते। भगवन् । अब हम आपसे क्या निवेदन करें, आपसे तो कोई भी बात छिपी नहीं है; क्योंकि आप चराचरमात्रके भीतर विद्यमान हैं। जो शुद्ध अन्तःकरणवाले एवं देहबन्धनसे मुक्त हैं, वे (हम विष्णु आदि) देवता भी आपको नमस्कार ही करते हैं। ऐसे आप पुरुषोत्तम भगवान्को हमारा प्रणाम है। जो श्रीराधिकाजीके हृदयको सुशोभित करनेवाले चन्द्रहार हैं, गोपियोंके नेत्र और जीवनके मूल आधार हैं तथा ध्वजाकी भाँति गोलोकधामको अलंकृत कर रहे हैं, वे आदिदेव भगवान् आप संकटमें पड़े हुए हम देवताओंकी रक्षा करें, रक्षा करें। भगवन्! आप वृन्दावनके स्वामी हैं, गिरिराजपति भी कहलाते हैं। आप व्रजके अधिनायक हैं, गोपालके रूपमें अवतार धारण करके अनेक प्रकारकी नित्य विहार-लीलाएँ करते हैं। श्रीराधिकाजीके प्राणवल्लभ एवं श्रुतिधरोंके भी आप स्वामी हैं। आप ही गोवर्धनधारी हैं, अब आप धर्मके भारको धारण करनेवाली इस पृथ्वीका उद्धार करनेकी कृपा करें * ॥ १५-२२ ॥

नारदजी कहते हैं- इस प्रकार स्तुति करनेपर गोकुलेश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र प्रणाम करते हुए देवताओंको सम्बोधित करके मेघके समान गम्भीर वाणीमें बोले – ॥ २३ ॥

श्रीकृष्ण भगवान्ने कहा- ब्रह्मा, शंकर एवं (अन्य) देवताओ! तुम सब मेरी बात सुनो। मेरे आदेशानुसार तुमलोग अपने अंशोंसे देवियोंके साथ यदुकुलमें जन्म धारण करो। मैं भी अवतार लूँगा और मेरे द्वारा पृथ्वीका भार दूर होगा। मेरा वह अवतार यदुकुलमें होगा और मैं तुम्हारे सब कार्य सिद्ध करूँगा। वेद मेरी वाणी, ब्राह्मण मुख और गौ शरीर है। सभी देवता मेरे अङ्ग हैं। साधुपुरुष तो हृदयमें वास करनेवाले मेरे प्राण ही हैं। अतः प्रत्येक युगमें जब दम्भपूर्ण दुष्टोंद्वारा इन्हें पीड़ा होती है और धर्म, यज्ञ तथा दयापर भी आघात पहुँचता है, तब मैं स्वयं अपने आपको भूतलपर प्रकट करता हूँ ॥ २४-२७॥

श्रीनारदजी कहते हैं- जिस समय जगत्पति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र इस प्रकार बातें कर रहे थे, उसी क्षण ‘अब प्राणनाथसे मेरा वियोग हो जायगा’ यह समझकर श्रीराधिकाजी व्याकुल हो गयीं और दावानलसे दग्ध लताकी भाँति मूच्छित होकर गिर पड़ीं। उनके शरीरमें अश्रु, कम्प, रोमाञ्च आदि सात्त्विक भावोंका उदय हो गया॥ २८॥

श्रीराधिकाजीने कहा- आप पृथ्वीका भार उतारनेके लिये भूमण्डलपर अवश्य पधारें; परंतु मेरी एक प्रतिज्ञा है, उसे भी सुन लें-प्राणनाथ ! आपके चले जानेपर एक क्षण भी मैं यहाँ जीवन धारण नहीं कर सकूँगी। यदि आप मेरी इस प्रतिज्ञापर ध्यान नहीं दे रहे हैं तो मैं दुबारा भी कह रही हूँ। अब मेरे प्राण अधरतक पहुँचनेको अत्यन्त विह्वल हैं। ये इस शरीरसे वैसे ही उड़ जायँगे, जैसे कपूरके धूलिकण ॥ २९-३० ॥

श्रीभगवान् बोले – राधिके! तुम विषाद मत करो। मैं तुम्हारे साथ चलूँगा और पृथ्वीका भार दूर करूँगा। मेरे द्वारा तुम्हारी बात अवश्य पूर्ण होगी ॥ ३१ ॥

श्रीराधिकाजीने कहा- (परंतु) प्रभो! जहाँ वृन्दावन नहीं है, यमुना नदी नहीं है और गोवर्धन पर्वत भी नहीं है, वहाँ मेरे मनको सुख नहीं मिलता ॥ ३२ ॥

नारदजी कहते हैं- (श्रीराधिकाजीके इस प्रकार कहनेपर) भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अपने धामसे चौरासी कोस भूमि, गोवर्धन पर्वत एवं यमुना नदीको भूतलपर भेजा। उस समय सम्पूर्ण देवताओंके साथ ब्रह्माजीने परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णको बार-बार प्रणाम करके कहा ॥ ३३-३४॥

श्रीब्रह्माजीने पूछा- भगवन्! मेरे लिये कौन स्थान होगा ? आप कहाँ पधारेंगे? तथा ये सम्पूर्ण देवता किन गृहोंमें रहेंगे और किन-किन नामोंसे इनकी प्रसिद्धि होगी ? ॥ ३५ ॥

श्रीभगवान्ने कहा- मैं स्वयं वसुदेव और देवकीके यहाँ प्रकट होऊँगा। मेरे कलास्वरूप ये ‘शेष’ रोहिणीके गर्भसे जन्म लेंगे – इसमें संशय नहीं है। साक्षात् ‘लक्ष्मी’ राजा भीष्मकके घर पुत्रीरूपसे उत्पन्न होंगी। इनका नाम ‘रुक्मिणी’ होगा और ‘पार्वती’ ‘जाम्बवती’ के नामसे प्रकट होंगी। यज्ञपुरुषकी पत्नी ‘दक्षिणा देवी’ वहाँ ‘लक्ष्मणा’ नाम धारण करेंगी। यहाँ जो ‘विरजा’ नामकी नदी है, वही ‘कालिन्दी’ नामसे विख्यात होगी। भगवती ‘लज्जा’ का नाम ‘भद्रा’ होगा। समस्त पापोंका प्रशमन करनेवाली ‘गङ्गा’ ‘मित्रविन्दा’ नाम धारण करेगी। जो इस समय ‘कामदेव’ हैं, वे ही रुक्मिणीके गर्भसे ‘प्रद्युम्न’ रूपमें उत्पन्न होंगे। प्रद्युम्नके घर तुम्हारा अवतार होगा। उस समय तुम्हें ‘अनिरुद्ध’ कहा जायगा, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। ये ‘वसु’ जो ‘द्रोण’ के नामसे प्रसिद्ध हैं, व्रजमें ‘नन्द’ होंगे और स्वयं इनकी प्राणप्रिया ‘धरा देवी’ ‘यशोदा’ नाम धारण करेंगी। ‘सुचन्द्र’ ‘वृषभानु’ बनेंगे तथा इनकी सहधर्मिणी ‘कलावती’ धराधामपर ‘कीर्ति’ के नामसे प्रसिद्ध होंगी। फिर उन्हींके यहाँ इन श्रीराधिकाजीका प्राकट्य होगा। मैं व्रजमण्डलमें गोपियोंके साथ सदा रासविहार करूँगा ।। ३६-४१ ॥(Golok khand Chapters 1 to 5)

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व-संवादमें ‘भूतलपर अवतीर्ण होनेके उद्योगका वर्णन’ नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ ३ ॥

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चौथा अध्याय

नन्द आदिके लक्षण; गोपीयूथका परिचय; श्रुति आदिके गोपीभावकी प्राप्तिमें कारणभूत पूर्वप्राप्त वरदानोंका विवरण

भगवान्ने कहा – ब्रह्मन् ! ‘सुबल’ और ‘श्रीदामा’ नामके मेरे सखा नन्द तथा उपनन्दके घरपर जन्म धारण करेंगे। इसी प्रकार और भी मेरे सखा है, जिनके नाम ‘स्तोककृष्ण’, ‘अर्जुन’ एवं ‘अंशु’ आदि हैं, वे सभी नौ नन्दोंके यहाँ प्रकट होंगे। व्रजमण्डलमें जो छः वृषभानु हैं, उनके गृहमें विशाल, ऋषभ, तेजस्वी, देवप्रस्थ और वरूथप नामके मेरे सखा अवतीर्ण होंगे ॥-१-२ ॥

श्रीब्रह्माजीने पूछा – देवेश्वर ! किसे ‘नन्द’ कहा जाता है और किसे ‘उपनन्द’ तथा ‘वृषभानु’ के क्या लक्षण हैं ? ॥ ३ ॥

श्रीभगवान् कहते हैं – जो गोशालाओंमें सदा गौओंका पालन करते रहते हैं एवं गो-सेवा ही जिनकी जीविका है, उन्हें मैंने ‘गोपाल’ संज्ञा दी है। अब तुम उनके लक्षण सुनो। गोपालोंके साथ नौ लाख गायोंके स्वामीको ‘नन्द’ कहा जाता है। पाँच लाख गौओंका स्वामी ‘उपनन्द’ पदको प्राप्त करता है। ‘वृषभानु’ नाम उसका पड़ता है, जिसके अधिकारमें दस लाख गौएँ रहती हैं, ऐसे ही जिसके यहाँ एक करोड़ गौओंकी रक्षा होती है, वह ‘नन्दराज’ कहलाता है। पचास लाख गौओंके अध्यक्षकी ‘वृषभानुवर’ संज्ञा है। ‘सुचन्द्र’ और ‘द्रोण’ – ये दो ही व्रजमें इस प्रकारके सम्पूर्ण लक्षणोंसे सम्पन्न गोपराज बनेंगे और मेरे दिव्य व्रजमें सुन्दर वस्त्र धारण करनेवाली शतचन्द्रानना गोप- सुन्दरियोंके सौ यूथ होंगे ॥ ४-८ ॥

श्रीब्रह्माजीने कहा – भगवन् ! आप दीनजनोंके बन्धु और जगत्के कारण (प्रकृति) के भी कारण हैं। प्रभो ! अब आप मेरे समक्ष यूथके सम्पूर्ण लक्षणोंका वर्णन कीजिये ॥ ९ ॥

श्रीभगवान् बोले- ब्रह्माजी ! मुनियोंने दस कोटिको एक ‘अर्बुद’ कहा है। जहाँ दस अर्बुद होते हैं। उसे ‘यूथ’ कहा जाता है। यहाँकी गोपियोंमें कुछ गोलोकवासिनी हैं, कुछ द्वारपालिका हैं, कुछ शृङ्गार-साधनोंकी व्यवस्था करनेवाली हैं और कुछ शय्या सँवारनेमें संलग्न रहती हैं। कई तो पार्षदकोटिमें आती और कुछ गोपियाँ श्रीवृन्दावनकी देख-रेख किया करती हैं। कुछ गोपियोंका गोवर्धन गिरिपर निवास है। कई गोपियाँ कुञ्जवनको सजाती-सँवारती हैं तथा बहुतेरी गोपियाँ मेरे निकुञ्जमें रहती हैं। इन सबको मेरे व्रजमें पधारना होगा। ऐसे ही यमुना-गङ्गाके भी यूथ हैं। इसी प्रकार रमा, मधुमाधवी, विरजा, ललिता, विशाखा एवं मायाके यूथ होंगे। ब्रह्माजी! इसी प्रकार मेरे व्रजमें आठ, सोलह और बत्तीस सखियोंके भी यूथ होंगे। पूर्वके अनेक युगोंमें जो श्रुतियाँ, मुनियोंकी पत्नियाँ, अयोध्याकी महिलाएँ, यज्ञमें स्थापित की हुई सीता, जनकपुर एवं कोसलदेशकी निवासिनी सुन्दरियाँ तथा पुलिन्दकन्याएँ थीं तथा जिनको मैं पूर्ववर्ती युग- युगमें वर दे चुका हूँ, वे सब मेरे पुण्यमय व्रजमें गोपी- रूपमें पधारेंगी और उनके भी यूथ होंगे । १० – १७ ।।

श्रीब्रह्माजीने पूछा – पुरुषोत्तम ! इन स्त्रियोंने कौन-सा पुण्य-कार्य किया है तथा इन्हें कौन-कौन-से वर मिल चुके हैं, जिनके फलस्वरूप ये व्रजमें निवास करेंगी ? कारण, आपका वह स्थान तो योगियोंके लिये भी दुर्लभ है ।। १८ ।।

श्रीभगवान् बोले- पूर्वकालमें श्रुतियोंन श्वेतद्वीपमें जाकर वहाँ मेरे स्वरूपभूत भूमा (विराट् पुरुष या परब्रह्म) का मधुर वाणीमें स्तवन किया। तब सहस्त्रपाद विराट् पुरुष प्रसन्न हो गये और बोले ॥ १९ ॥

श्रीहरिने कहा- श्रुतियो ! तुम्हें जो भी पानेकी इच्छा हो, वह वर माँग लो। जिनके ऊपर मैं स्वयं प्रसन्न हो गया, उनके लिये कौन-सी वस्तु दुर्लभ है ? ॥ २० ॥

श्रुतियाँ बोलीं- भगवन् ! आप मन-वाणीसे नहीं जाने जा सकते; अतः हम आपको जाननेमें असमर्थ हैं। पुराणवेत्ता ज्ञानीपुरुष यहाँ जिसे केवल ‘आनन्दमात्र’ बताते हैं, अपने उसी रूपका हमें दर्शन कराइये । प्रभो ! यदि आप हमें वर देना चाहते हों तो यही दीजिये ॥ २१ ॥

श्रुतियोंकी ऐसी बात सुनकर भगवान्ने उन्हें अपने दिव्य गोलोकधामका दर्शन कराया, जो प्रकृतिसे परे है। वह लोक ज्ञानानन्दस्वरूप, अविनाशी तथा निर्विकार है। वहाँ ‘वृन्दावन’ नामक वन है, जो कामपूरक कल्पवृक्षोंसे सुशोभित है। मनोहर निकुञ्जोंसे सम्पन्न वह वृन्दावन सभी ऋतुओंमें सुखदायी है। वहाँ सुन्दर झरनों और गुफाओंसे सुशोभित ‘गोवर्धन’ नामक गिरि है। रत्न एवं धातुओंसे भरा हुआ वह श्रीमान् पर्वत सुन्दर पक्षियोंसे आवृत है। वहाँ स्वच्छ जलवाली श्रेष्ठ नदी ‘यमुना’ भी लहराती है। उसके दोनों तट रत्नोंसे बँधे हैं। हंस और कमल आदिसे वह सदा व्याप्त रहती है। वहाँ विविध रास-रङ्गसे उन्मत्त गोपियोंका समुदाय शोभा पाता है। उसी गोपी- समुदायके मध्यभागमें किशोर वयसे सुशोभित भगवान् श्रीकृष्ण विराजते हैं। उन श्रुतियोंको इस प्रकार अपना लोक दिखाकर भगवान् बोले- ‘कहो, तुम्हारे लिये अब क्या करूँ ? तुमने मेरा यह लोक तो देख ही लिया, इससे उत्तम दूसरा कोई वर नहीं है’ ।। २२-२७ ॥(Golok khand Chapters 1 to 5)

श्रुतियोंने कहा – प्रभो ! आपके करोड़ों कामदेवोंके समान मनोहर श्रीविग्रहको देखकर हममें कामिनी-भाव आ गया है और हमें आपसे मिलनेकी उत्कट इच्छा हो रही है! हम विरह-ताप-संतप्त है- इसमें संदेह नहीं है। अतः आपके लोकमें रहनेवाली गोपियाँ आपका सङ्ग पानेके लिये जैसे आपकी सेवा करती हैं, हमारी भी वैसी ही अभिलाषा है ॥ २८-२९ ॥

श्रीहरि बोले – श्रुतियो ! तुमलोगोंका यह मनोरथ दुर्लभ एवं दुर्घट है; फिर भी मैं इसका भलीभाँति अनुमोदन कर चुका हूँ, अतः वह सत्य होकर रहेगा। आगे होनेवाली सृष्टिमें जब ब्रह्मा जगत्‌की रचनामें संलग्न होंगे, उस समय सारस्वत- कल्प बीतनेपर तुम सभी श्रुतियाँ व्रजमें गोपियाँ होओगी। भूमण्डलपर भारतवर्षमें मेरे माथुरमण्डलके अन्तर्गत वृन्दावनमें रासमण्डलके भीतर मैं तुम्हारा प्रियतम बनूँगा। तुम्हारा मेरे प्रति सुदृढ़ प्रेम होगा, जो सब प्रेमोंसे बढ़कर है। तब तुम सब श्रुतियाँ मुझे पाकर सफल-मनोरथ होओगी ।। ३०-३३ ॥

श्रीभगवान् कहते हैं – ब्रह्माजी ! पूर्व कल्प- में मैंने वर दे दिया है, उसीके प्रभावसे वे श्रुतियाँ व्रजमें गोपियाँ होंगी। अब अन्य गोपियोंके लक्षण सुनो ॥ ३४ ॥

त्रेतायुगमें देवताओंकी रक्षा और राक्षसोंका संहार करनेके लिये मेरे स्वरूपभूत महापराक्रमी श्रीरामचन्द्रजी अवतीर्ण हुए थे। कमललोचन श्रीरामने सीताके स्वयंवरमें जाकर धनुष तोड़ा और उन जनकनन्दिनी श्रीसीताजीके साथ विवाह किया। ब्रह्माजी ! उस अवसरपर जनकपुरकी स्त्रियाँ श्रीरामको देखकर प्रेमविह्वल हो गयीं। उन्होंने एकान्तमें उन महाभागसे अपना अभिप्राय प्रकट किया- ‘राघव ! आप हमारे परम प्रियतम बन जायें।’ तब श्रीरामने कहा ‘सुन्दरियो ! तुम शोक मत करो। द्वापरके अन्तमें मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूँगा। तुमलोग परम श्रद्धा और भक्तिके साथ तीर्थ, दान, तप, शौच एवं सदाचारका भलीभाँति पालन करती रहो। तुम्हें व्रजमें गोपी होनेका सुअवसर प्राप्त होगा।’ इस प्रकार वर देकर धनुर्धारी करुणानिधि श्रीरामने अयोध्याके लिये प्रस्थान कर दिया। उस समय मार्गमें अपने प्रतापसे उन्होंने भृगुकुलनन्दन परशुरामजीको परास्त कर दिया था। कोसल-जनपदकी स्त्रियोंने भी राजपथसे जाते हुए उन कमनीय-कान्ति रामको देखा। उनकी सुन्दरता कामदेवको मोहित कर रही थी। उन स्त्रियोंने श्रीरामको मन-ही-मन पतिके रूपमें वरण कर लिया। उस समय सर्वज्ञ श्रीरामने उन समस्त स्त्रियोंको मन-ही-मन वर दिया- ‘तुम सभी ब्रजमें गोपियाँ होओगी और उस समय मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूँगा ॥ ३५-४२ ।।(Golok khand Chapters 1 to 5)

फिर सीता और सैनिकोंक साथ रघुनाथजीव अयोध्या पधारे। यह सुनकर अयोध्यामें रहनेवाली स्त्रियाँ उन्हें देखनेके लिये आयीं। श्रीरामको देखकर उनका मन मुग्ध हो गया। वे प्रेमसे विह्वल हो मूर्च्छित-सी हो गयीं। फिर वे श्रीरामके व्रतमें परायण होकर सरयूके तटपर तपस्या करने लगीं। तब उनके सामने आकाशवाणी हुई – ‘द्वापरके अन्तमें यमुनाके किनारे वृन्दावनमें तुम्हारे मनोरथ पूर्ण होंगे, इसमें संदेह नहीं है ॥ ४३-४५ ॥

जिस समय श्रीरामने पिताकी आज्ञासे दण्डकवन- की यात्रा की, सीता तथा लक्ष्मण भी उनके साथ थे और वे हाथमें धनुष लेकर इधर-उधर विचर रहे थे। वहीं बहुत-से मुनि थे। उनकी गोपाल-वेषधारी भगवान्के स्वरूपमें निष्ठा थी। रासलीलाके निमित्त वे भगवान्का ध्यान करते थे। उस समय श्रीरामकी युवा अवस्था थी – वे हाथमें धनुष-बाण धारण किये हुए थे। जटाओंके मुकुटसे उनकी विचित्र शोभा थी। अपने आश्रमपर पधारे हुए श्रीराममें उन मुनियोंका ध्यान लग गया। (वे ऋषिलोग गोपाल-वेषधारी भगवान्‌के उपासक थे) अतः दूसरे ही स्वरूपमें आये हुए श्रीरामको देखकर सबके मनमें अत्यन्त आश्चर्य हो गया। उनकी समाधि टूट गयी और देखा तो करोड़ों कामदेवोंके समान सुन्दर श्रीराम दृष्टिगोचर हुए। तब वे बोल उठे- ‘अहो ! आज हमारे गोपालजी वंशी एवं बेंतके बिना ही पधारे हैं।’ इस प्रकार मन-ही- मन विचारकर सबने श्रीरामको प्रणाम किया और उनकी उत्तम स्तुति करने लगे । ४६ – ५० ।।

तब श्रीरामने कहा – ‘मुनियो ! वर माँगो ।’ यह सुनकर सभीने एक स्वरसे कहा- ‘जिस भाँति सीता आपके प्रेमको प्राप्त हैं, वैसे ही हम भी चाहते हैं ॥ ५१ ॥

श्रीराम बोले – यदि तुम्हारी ऐसी प्रार्थना हो कि जैसे भाई लक्ष्मण हैं, वैसे ही हम भी आपके भाई बन जायें, तब तो आज ही मेरेद्वारा तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण हो सकती है; किंतु तुमने तो ‘सीता’ के समान होनेका वर माँगा है। अतः यह वर महान् कठिन और दुर्लभ है; क्योंकि इस समय मैंने एकपत्नी-व्रत धारण कर रखा है। मैं मर्यादाकी रक्षामें तत्पर रहकर ‘मर्यादापुरुषोत्तम’ भी कहलाता हूँ। अतएव तुम्हें मेरे वरका आदर करके द्वापरके अन्तमें जन्म धारण करना होगा और वहीं मैं तुम्हारे इस उत्तम मनोरथको पूर्ण करूँगा ।। ५२-५४ ।।(Golok khand Chapters 1 to 5)

इस प्रकार वर देकर श्रीराम स्वयं पञ्चवटी पधारे। वहाँ पर्णकुटीमें रहकर वनवासकी अवधि पूरी करने लगे। उस समय भीलोंकी स्त्रियोंने उन्हें देखा। उनमें मिलनेकी उत्कट इच्छा उत्पन्न होनेके कारण वे प्रेमसे विह्वल हो गयीं। यहाँतक कि श्रीरामके चरणोंकी धूल मस्तकपर रखकर अपने प्राण छोड़नेकी तैयारी करने लगीं। उस समय श्रीराम ब्रह्मचारीके वेषमें वहाँ आये और इस प्रकार बोले- ‘स्त्रियो ! तुम व्यर्थ ही प्राण त्यागना चाहती हो; ऐसा मत करो। द्वापरके शेष होनेपर वृन्दावनमें तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा।’ इस – प्रकारका आदेश देकर श्रीरामका वह ब्रह्मचारी रूप वहीं अन्तर्हित हो गया । ५५-५८ ॥

तत्पश्चात् श्रीरामने सुग्रीव आदि प्रधान वानरोंकी सहायतासे लङ्कामें जाकर रावण-प्रभृति राक्षसोंको परास्त किया। फिर सीताको पाकर पुष्पक विमान- द्वारा अयोध्या चले गये। राजाधिराज श्रीरामने लोकापवादके कारण सीताको वनमें छोड़ दिया। अहो ! भूमण्डलपर दुर्जनोंका होना बहुत ही दुःखदायी है। जब-जब कमललोचन श्रीराम यज्ञ करते थे, तब-तब विधिपूर्वक सुवर्णमयी सीताकी प्रतिमा बनायी जाती थी। इसलिये श्रीराम-भवनमें यज्ञ-सीताओंका एक समूह ही एकत्र हो गया। वे सभी दिव्य चैतन्य- घनस्वरूपा होकर श्रीरामके पास गयीं। उस समय श्रीरामने उनसे कहा- ‘प्रियाओ ! मैं तुम्हें स्वीकार नहीं कर सकता।’ वे सभी प्रेमपरायणा सीता-मूर्तियाँ दशरथनन्दन श्रीरामसे कहने लगीं- ‘ऐसा क्यों ? हम तो आपकी सेवा करनेवाली हैं। हमारा नाम भी मिथिलेशकुमारी सीता है और हम उत्तम व्रतका आचरण करनेवाली सतियाँ भी हैं; फिर हमें आप ग्रहण क्यों नहीं करते ? यज्ञ करते समय हम आपकी अर्धाङ्गनी बनकर निरन्तर कार्योंका संचालन करती रही हैं। आप धर्मात्मा और वेदके मार्गका अवलम्बन करनेवाले हैं, यह अधर्मपूर्ण बात आपके श्रीमुखसे कैसे निकल रही है ? यदि आप स्त्रीका हाथ पकड़कर उसे त्यागते हैं तो आपको पापका भागी होना पड़ेगा’ ।। ५९-६५ ॥

श्रीराम बोले – सतियो ! तुमने मुझसे जो बात कही है, वह बहुत ही उचित और सत्य है। परंतु मैंने ‘एकपत्नीव्रत’ धारण कर रखा है? सभी लोग मुझे ‘राजर्षि’ कहते हैं। अतः नियमको छोड़ भी नहीं सकता। एकमात्र सीता ही मेरी सहधर्मिणी है। इसलिये तुम सभी द्वापरके अन्तमें श्रेष्ठ वृन्दावनमें पधारना, वहीं तुम्हारी मनःकामना पूर्ण करूँगा ।। ६६-६७ ॥

भगवान् श्रीहरिने कहा- ब्रह्मन् ! वे यज्ञ-सीता ही व्रजमें गोपियाँ होंगी। अन्य गोपियोंका भी लक्षण सुनो ॥ ६८ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत भगवद् ब्रह्म-संवादमें ‘अवतारके उद्योगविषयक प्रश्नका वर्णन’ नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ ॥ ४ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ रामोपासना अगस्त्य संहिता

पाँचवाँ अध्याय

भिन्न-भिन्न स्थानों तथा विभिन्न वर्गोंकी स्त्रियोंके गोपी होनेके कारण एवं अवतार-व्यवस्थाका वर्णन

भगवान् श्रीहरि कहते हैं – वैकुण्ठमें विराजने वाली रमादेवीकी सहचरियाँ, श्वेतद्वीपकी सखियाँ, भगवान् अजित (विष्णु) के चरणोंके आश्रित ऊर्ध्व- वैकुण्ठमें निवास करनेवाली देवियाँ तथा श्रीलोकाचलपर्वतपर रहनेवाली, समुद्रसे प्रकटित श्रीलक्ष्मीकी सखियाँ – ये सभी भगवान् कमलापति- के वरदानसे व्रजमें गोपियाँ होंगी। पूर्वकृत विविध पुण्योंके प्रभावसे कोई दिव्य, कोई अदिव्य और कोई सत्त्व, रज, तम-तीनों गुणोंसे युक्त देवियाँ व्रजमण्डलमें गोपियाँ होगीं ।॥ १- ३३ ॥

रुचिके यहाँ पुत्ररूपसे अवतीर्ण, द्युलोकपति रुचिरविग्रह भगवान् यज्ञको देखकर देवाङ्गनाएँ प्रेम-रसमें निमग्न हो गयीं। तदनन्तर वे देवलजीके उपदेशसे हिमालय पर्वतपर जाकर परम भक्तिभावसे तपस्या करने लगीं। ब्रह्मन् ! वे सब मेरे व्रजमें जाकर गोपियाँ होंगी ।। ४-५॥

भगवान् धन्वन्तरि जब इस भूतलपर अन्तर्धान हुए, उस समय सम्पूर्ण ओषधियाँ अत्यन्त दुःखमें डूब गयीं और भारतवर्षमें अपनेको निष्फल मानने लगीं। फिर सबने सुन्दर स्त्रीका वेष धारण करके तपस्या आरम्भ की। चार युग व्यतीत होनेपर भगवान् श्रीहरि उनपर अत्यन्त प्रसन्न हुए और बोले- ‘तुम सब वर माँगो।’ यह सुनकर स्त्रियोंने उस महान् वनमें जब आँखें खोलीं, तब उन श्रीहरिका दर्शन करके वे सब- की-सब मोहित हो गयीं और बोलीं- ‘आप हमारे पतितुल्य आराध्यदेव होनेकी कृपा करें’ ।। ६-८ ॥

भगवान् श्रीहरि बोले – ओषधिस्वरूपा स्त्रियो ! द्वापरके अन्तमें तुम सभी लतारूपसे वृन्दावनमें रहोगी और वहाँ रासमें मैं तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करूँगा ॥ ९ ॥

श्रीभगवान् कहते हैं – ब्रह्मन् ! भक्तिभावसे परिपूर्ण वे बड़भागिनी वराङ्गनाएँ वृन्दावनमें ‘लता- गोपी’ होंगी। इसी प्रकार जालंधर नगरकी स्त्रियाँ वृन्दापति भगवान् श्रीहरिका दर्शन करके मन-ही-मन संकल्प करने लगीं- ‘ये साक्षात् श्रीहरि हम सबके स्वामी हों।’ उस समय उनके लिये आकाशवाणी हुई – ‘तुम सब शीघ्र ही रमापतिकी आराधना करो; फिर वृन्दाकी ही भाँति तुम भी वृन्दावनमें भगवान्की प्रिया गोपी होओगी ।’ मत्स्यावतारके समय मत्स्यविग्रह श्रीहरिको देखकर समुद्रकी कन्याएँ मुग्ध हो गयी थीं। श्रीमत्स्यभगवान्के वरदानसे वे भी व्रजमें गोपियाँ होंगी ॥ १०-१४ ॥

मेरे अंशभूत राजा पृथु बड़े प्रतापी थे। उन महाराजने सम्पूर्ण शत्रुओंको जीतकर पृथ्वीसे सारी अभीष्ट वस्तुओंका दोहन किया था। उस समय बर्हिष्मती नगरीमें रहनेवाली बहुत-सी स्त्रियाँ उन्हें देखकर मुग्ध हो गयीं और प्रेमसे विह्वल हो अत्रिजीके पास जाकर बोली- ‘महामुने । समस्त राजाओंमें श्रेष्ठ महाराजा पृथु बड़े ही पराक्रमी हैं। ये किस प्रकारसे हमारे पति होंगे? यह बतानेकी कृपा कीजिये’ ।। १५-१६ ॥

अक्रिजीने कहा- तुम सब शीघ्र ही आज इस गौको दुहो। यह सम्पूर्ण पदार्थोंको धारण करनेवाली धारणामयी धरणी देवी है। तुम्हारे सारे मनोरथोंको- चाहे वे समुद्रके समान अगाध, अपार एवं दुर्गम ही क्यों न हों अवश्य पूर्ण कर देंगी ॥ १७ ॥

ब्रह्मन् ! तब उन स्त्रियोंने मनको दोहन-पात्र बनाकर अपने मनोरथोंका दोहन किया। इसी कारणसे वे सब-की-सब वृन्दावनमें गोपियाँ होंगी। बहुत-सी श्रेष्ठ अप्सराएँ, जिनका रूप अत्यन्त मनोहर था और जो कामदेवकी सेनाएँ थीं, भगवान् नारायण ऋषिको मोहित करनेके लिये गन्धमादन पर्वतपर गयीं। परंतु उन्हें देखकर वे भी अपनी सुध-बुध खो बैठीं। उनके मनमें भगवान्को पति बनानेकी इच्छा उत्पन्न हो गयी। तब सिद्धतपस्वी नारायण मुनिने कहा- ‘तुम ब्रजमें गोपियाँ होओगी और वहीं तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा’ ।। १८-२० ।।

ब्रह्मन् । सुतल देशकी स्त्रियाँ भगवान् वामनको देखकर उन्हें पानेके लिये उत्कट इच्छा प्रकट करने लगीं। फिर तो उन्होंने तपस्या आरम्भ कर दी। अतः वे भी वृन्दावनमें गोपियाँ होंगी। जिन नागराज- कन्याओंने शेषावतार भगवान्को देखकर उन्हें पुति बनानेकी इच्छासे उनकी सेवा-समाराधना की है, वे सब बलदेवजीके साथ रासविहार करनेके लिये ब्रजमें उत्पन्न होंगी ।। २१-२२ ॥

कश्यपजी वसुदेव होंगे। परम पूजनीया अदिति देवकीके रूपमें अवतार लेंगी। प्राण नामक वसु शूरसेन और ‘ध्रुव’ नामक वसु देवक होंगे। ‘वसु’ नामके जो वसु हैं, उनका उद्धवके रूपमें प्राकट्य होगा। दयापरायण दक्ष प्रजापति अक्रूरके रूपमें अवतार लेंगे। कुबेर हदीक नामसे और जलके स्वामी वरुण कृतवर्मा नामसे प्रसिद्ध होंगे। पुरातन राजा प्राचीनबर्हि गद एवं मरुत देवता उग्रसेन बनेंगे। उन उग्रसेनको मैं विधानतः राजा बनाऊँगा और उनकी भलीभांति रक्षा करूँगा। भक्त राजा अम्बरीष युयुधान और भक्तप्रवर प्रह्लाद सात्यकिके नामसे प्रकट होंगे। क्षीरसागर शंतनु होगा। वसुओंमें श्रेष्ठ द्रोण साक्षात् भीष्मपितामहके रूपमें उत्पन्न होंगे। दिवोदास शलके रूपमें एवं भग नामके सूर्य धृतराष्ट्रके रूपमें अवतीर्ण होंगे। पूषा नामसे विख्यात देवता पाण्डु होंगे। सत्पुरुषोंमें आदर पानेवाले धर्मराज ही राजा युधिष्ठिरके रूपमें अवतार लेंगे। वायु देवता महान् पराक्रमी भीमसेनके तथा स्वायम्भुव मनु अर्जुनके वेषमें प्रकट होंगे। शतरूपाजी सुभद्रा होंगी और सूर्यनारायण कर्णके रूपसे अवतार लेंगे। अश्विनीकुमार नकुल एवं सहदेव होंगे। धाता महान् बलशाली बाह्रीक नामसे विख्यात होंगे। अग्निदेवता महान् प्रतापी द्रोणाचार्यके रूपमें अवतार लेंगे। कलिका अंश दुर्योधन होगा। चन्द्रमा अभिमन्युके रूपमें अवतार लेंगे। पृथ्वीपर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा साक्षात् भगवान् शंकरका रूप होगा। इस प्रकार तुम सब देवता मेरी आज्ञाके अनुसार अपने अंशों और स्त्रियोंके साथ यदुवंशी, कुरुवंशी तथा अन्यान्य वंशोंके राजाओंके कुलमें प्रकट होओ। पूर्व समयमें मेरे जितने अवतार हो चुके हैं, उनकी रानियाँ रमाका अंश रही हैं। वे भी मेरी रानियोंमें सोलह हजारकी संख्यामें प्रकट होंगी ॥ २३-३२ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! कमलासन – ब्रह्मासे यों कहकर भगवन् श्रीहरिने दिव्यरूपधारिणी – भगवती योगमायासे कहा ॥ ३३ ॥

भगवान् श्रीहरि बोले- महामते ! तुम देवकी- के सातवें गर्भको खींचकर उसे वसुदेवकी पत्नी रोहिणीके गर्भमें स्थापित कर दो। वे देवी कंसके डरसे व्रजमें नन्दके घर रहती है। साथ ही तुम भी ऐसे अलौकिक कार्य करके नन्दरानीके गर्भसे प्रकट हो जाना ।। ३४-३५ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- परमश्रेष्ठ राजन् ! भगवान् श्रीकृष्णके वचन सुनकर सम्पूर्ण देवताओं- के साथ ब्रह्माजीने परात्पर भगवान् श्रीकृष्णको प्रणाम किया और अपने वचनोंद्वारा पृथ्वीदेवीको धीरज दे, वे अपने धामको चले गये। मिथिलेश्वर जनक ! तुम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको साक्षात् परिपूर्णतम परमात्मा समझो। कंस आदि दुष्टोंका विनाश करनेके लिये ही ये इस धराधामपर पधारे हैं। शरीरमें जितने रोएँ हैं, उतनी जिह्वाएँ हो जायें, तब भी भगवान्श्री कृष्णके असंख्य महान् गुणोंका वर्णन नहीं किया जा सकता। महाराज। जिस प्रकार पक्षीगण अपनी शक्तिके अनुसार ही आकाशमें उड़ते हैं, वैसे ही ज्ञानीजन भी अपनी मति एवं शक्तिके अनुसार ही भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी दिव्य लीलाओंका गायन करते हैं ।। ३६-३९ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘अवतार-व्यवस्थाका वर्णन’ नामक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खण्ड अध्याय छ: से अध्याय दस तक

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