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रुद्राष्टाध्यायी हिंदी में

रुद्राष्टाध्यायी (Rudrashtadhyayi in Hindi) के प्रथम अध्याय में कुल 10 श्लोक है तथा सर्वप्रथम गणेशावाहन मंत्र है, प्रथम अध्याय में शिवसंकल्पसुक्त है। द्वितीय अध्याय में कुल 22 वैदिक श्लोक हैं जिनमें पुरुसुक्त (मुख्यत: 16 श्लोक) है। इसी प्रकार आदित्य सुक्त तथा वज्र सुक्त भी सम्मिलित हैं। पंचम अध्याय में परम् लाभदायक रुद्रसुक्त है, इसमें कुल 66 श्लोक हैं। सप्तम अध्याय में 7 श्लोकों की अरण्यक श्रुति है प्रायश्चित्त हवन आदि में इसका उपयोग होता है। अष्टम अध्याय को नमक-चमक भी कहते हैं जिसमें 24 श्लोक हैं।

रुद्राष्टाध्यायी (Rudrashtadhyayi in Hindi) यजुर्वेद का अंग है और वेदों को ही सर्वोत्तम ग्रंथ बताया गया है। वेद शिव के ही अंश है वेद: शिव: शिवो वेद:। भगवान शिव तथा विष्णु भी एकांश हैं तभी दोनो को हरिहर कहा जाता है, हरि अर्थात् नारायण हर अर्थात् महादेव वेद और नारायण भी एक हैं वेदो नारायण: साक्षात् स्वयम्भूरिति शुश्रुतम्।

जिस प्रकार दूध से मक्खन निकालते हैं उसी प्रकार जनकल्याणार्थ शुक्लयजुर्वेद से रुद्राष्टाध्यायी का भी संग्रह हुआ है। यह रुद्रानुष्ठान प्रवृत्ति मार्ग से निवृत्ति मार्ग को प्राप्त करने में समर्थ है। इसमें ब्रह्म (शिव) के निर्गुण और सगुण दोनों रूपों का वर्णन हुआ है। जहाँ लोक में इसके जप, पाठ तथा अभिषेक आदि साधनों से भगवद्भक्ति, शांति, पुत्र पौत्रादि वृद्धि, धन धान्य की सम्पन्नता और स्वस्थ जीवन की प्राप्ति होती है; वहीं परलोक में सद्गति एवं मोक्ष भी प्राप्त होता है। वेद के ब्राह्मण ग्रंथों में, उपनिषद, स्मृति तथा कई पुराणों में रुद्राष्टाध्यायी तथा रुद्राभिषेक की महिमा का वर्णन है।

इस प्रकार साधन-पूजनकी दृष्टिसे ‘रुद्राष्टाध्यायी’ (Rudrashtadhyayi in Hindi) का विशेष महत्व है। प्राय: कुछ लोगों में यह धारणा है कि मूलरूपसे वेदमन्त्र पुण्यप्रदायक हैं, अतः इन मन्त्रोंका केवल पाठ और श्रवणमात्र ही आवश्यक है। वेदार्थ एवं वेदके गम्भीर तत्वोंसे वे विद्वान् प्राय: अनभिज्ञ रहते हैं। वास्तव में उनकी यह धारणा उचित नहीं है। वैदिक विद्वानों को ‘वेद’ के अर्थ एवं उनके तत्त्वोंसे पूर्णतः परिचित होना चाहिये। प्राचीन ग्रन्थोंमें भी वेदार्थ एवं वेद-तत्त्वार्थ की बड़ी महिमा गायी गयी है।

 

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