श्री योगचिन्तामणिः और व्यवहार ज्योतिष
श्री योगचिन्तामणिः (Shri Yoga Chintamani) फलित ज्योतिष में विद्यमान योगों का संकलन ग्रन्थ हैं। यह ग्रन्थ श्री नाना जोशी के सुपुत्र ज्योतिषशास्त्र के विद्वान वामन जोशी के द्वारा रचित है। अनुभूतिप्रद शास्त्र की रचना के लिए जिस विशद अनुभूति की आवश्यकता होती है वह इस ग्रन्थ में दिखाई देता है। श्री वामन जोशी अनुभवी, लोकप्रसिद्ध, सिद्ध और संस्कृत साहित्य के अनेक विधाओं के निपुण विद्वान हैं।
श्रीयोगचिन्तामणि (Shri Yoga Chintamani) ग्रन्थ में लगभग 150 योगों का विवेचन बहुत ही सरल ढंग से किया गया है। इतने योगों के विवेचन से ग्रन्थ का नाम योगचिन्तामणि सार्थक होगया है। विद्वान सम्पादक ने संस्कृत एवं हिन्दी व्याख्या कर सभी के लिए स्वीकार करने योग्य कर दिया है। इससे इस ग्रन्थ की उपयोगिता बढ गई है।
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ज्योतिष शास्त्र में जितनी संख्या भावज ग्रन्थों की है उतनी संख्या योगज ग्रन्थों की नहीं है अतः श्री योगचिन्तामणि ग्रन्थ योगज ग्रन्थों में जातकालंकार की तरह प्रसिद्ध है। इस ग्रन्थ में योगों के नाम और योग्यतानुरूप उनकी संज्ञा आश्चर्यचकित कर देने वाली है। ग्रन्थ कार विद्वान शास्त्रीय पुरुष हैं जिन्होंने विषय वस्तु को बिना किसी उपक्रम के मंगलाचरण के बाद प्रस्तुत किया है। गणेश, ब्रह्म, विष्णु, महेश, श्री सूर्यादिनवग्रह और अपने इष्टदेवता श्रीहरि (विष्णु) को प्रणाम करते उन्होंने समस्त ज्योतिष शास्त्र के प्रश्नो के उत्तर में इस ग्रन्थ की रचना कि है।
योगचिन्तामणि (Shri Yoga Chintamani) ग्रन्थ में सौ से अधिक सुन्दर योगों का ज्ञात कराना है । ये योग विषय की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व के हैं। इनमें से कुछ ऐसे भी योग हैं जिनका ज्ञान अन्य महत्त्वपूर्ण फलित ग्रन्थों में पहले भी हो चुका है। एक सौ एकसठ श्लोकों में वर्णित ‘योगचिन्तामणि’ ग्रन्थ में एक श्लोक मंगलाचरण के लिए तथा तीन श्लोक पूर्वजवर्णन में लिखे गये हैं। विषय से सम्बन्धित एक सौ सत्तावन श्लोक इसमें उपनिबद्ध हैं, जिनमें शताधिक महत्त्वपूर्ण योगों की स्थापना है।
लेखक ने बहुत मेहनत से विषयों का संग्रह करके उन्हें श्लोकबद्ध किया है। कहीं- कहीं पर कुछ नवीन विषयों को प्रस्तुत करके ग्रन्थ में नवीनता लाने का सफल प्रयास किया है। उदाहरण हेतु कुछ अंश यहाँ उद्धृत हैं। इस ग्रन्थ में केमद्रुम योग का वर्णन करते हुए कहा गया है की-
लाभेशो यदि भाग्यगः खलयुतः शुक्रे च नीचं गते
मार्तण्डश्च विधुन्तुदश्च धनगौ केमद्रुमो दुःखदः ।
चेन्मूढौ धनलाभपौ नवमगे भौमे धनेऽगौ च वा
धर्मेशो दिननीचगश्च यदि वा क्षीणेन्दुपापैर्युतः ।।
अर्थात् (1) लाभेश पापयुक्त होकर यदि नवम भाव में स्थित हो, शुक्र अपनी नीच राशि में हो तथा सूर्य और राहु द्वितीय भाव में स्थित हों तो दुःख दायक केमद्रुम योग होता है । (2) धनेश और लाभेश मूढावस्था में हों, भौम नवम भाव में तथा राहु धन भाव में स्थित हों तो केमद्रुम योग होता है। (3) नवमेश नीचराशिगत हो तथा क्षीण चन्द्रमा पापग्रहों से युक्त हो तो केमद्रुम योग होता है।