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Garga Samhita Ashwamedh Khand Chapter 11 to 15

Garga Samhita
Garga Samhita Ashwamedh Khand Chapter 11 to 15

श्रीहरिः
ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते

Garga Samhita Ashwamedh Khand Chapter 11 to 15 |
श्री गर्ग संहिता के अश्वमेधखण्ड अध्याय 11 से 15 तक

श्री गर्ग संहिता में अश्वमेधखण्ड (Ashwamedh Khand Chapter 11 to 15) के ग्यारहवें अध्याय में ऋत्विजोंका वरण-पूजन; श्यामकर्ण अश्वका आनयन और अर्चन; ब्राह्मणोंको दक्षिणादान; अश्वके भालदेशमें बँधे हुए स्वर्णपत्रपर गर्गजीके द्वारा उग्रसेनके बल-पराक्रमका उल्लेख तथा अनिरुद्धको अश्वकी रक्षाके लिये आदेश देना का वर्णन है। बारहवाँ अध्याय में अश्वमोचन तथा उसकी रक्षाके लिये सेनापति अनिरुद्धका विजयाभिषेक वर्णन है। तेरहवाँ अध्याय में अनिरुद्धका अन्तःपुरसे आज्ञा लेकर अश्वकी रक्षाके लिये प्रस्थान; उनकी सहायताके लिये साम्बका कृतप्रतिज्ञ होना; लक्ष्मणाका उन्हें सम्मुख युद्धके लिये प्रोत्साहन देना; श्रीकृष्णके भाइयों और पुत्रोंका भी श्रीकृष्णकी आज्ञासे प्रस्थान करना तथा यादवोंकी चतुरङ्गिणी सेनाका विस्तृत वर्णन कहा गया है। चौदहवाँ अध्याय में अनिरुद्धका सेनासहित अश्वकी रक्षाके लिये प्रयाण; माहिष्मतीपुरीके राजकुमारका अश्वको बाँधना तथा अनिरुद्धका राजा इन्द्रनीलसे युद्धके लिये उद्यत होना और पंद्रहवाँ अध्याय अनिरुद्ध और साम्बका शौर्य; माहिष्मती-नरेशपर इनकी विजय वर्णन कहा है।

यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक

ग्यारहवाँ अध्याय

ऋत्विजोंका वरण-पूजन; श्यामकर्ण अश्वका आनयन और अर्चन; ब्राह्मणोंको
दक्षिणादान; अश्वके भालदेशमें बँधे हुए स्वर्णपत्रपर गर्गजीके द्वारा उग्रसेनके
बल-पराक्रमका उल्लेख तथा अनिरुद्धको अश्वकी रक्षाके लिये आदेश

श्रीगर्गजी कहते हैं- तदनन्तर सुधर्मा-सभामें वासुदेवसे प्रेरित हो राजा उग्रसेनने वहाँ पधारे हुए ऋत्विजोंको मस्तक झुकाकर प्रणाम करके प्रसन्न किया और विधिवत् उन सबका वरण किया। पराशर, व्यास, देवल, च्यवन, असित, शतानन्द, गालव, याज्ञवल्क्य, बृहस्पति, अगस्त्य, वामदेव, मैत्रेय, लोमश, कवि (शुक्राचार्य), मैं (गर्ग), क्रतु, जैमिनि, वैशम्पायन, पैल, सुमन्तु, कण्व, भृगु, परशुराम, अकृतव्रण, मधुच्छन्दा, वीतिहोत्र, कवष, धौम्य, आसुरि, जाबालि, वीरसेन, पुलस्त्य, पुलह, दुर्वासा, मरीचि, एकत, द्वित्, त्रित, अङ्गिरा, नारद, पर्वत, कपिलमुनि, जातूकर्ण्य, उतथ्य, संवर्त, ऋष्यशृङ्ग, शाण्डिल्य, प्राड्विपाक, कहोड, सुरत, मुनु, कच, स्थूलशिरा, स्थूलाक्ष, प्रति-मर्दन, बकदाल्भ्य, कौण्डिन्य, रैभ्य, द्रोण, कृप, प्रकटाक्ष, यवक्रीत, वसुधन्वा, मित्रभू, अपान्तरतमा, दत्तात्रेय, महामुनि मार्कण्डेय, जमदग्नि, कश्यप, भरद्वाज, गौतम, अत्रि, मुनि वसिष्ठ, विश्वामित्र, पतञ्जलि, कात्यायन, पाणिनि और वाल्मीकि आदि ऋत्विजोंका यादवराज उग्रसेनने पूजन किया। नरेश्वर! वे सभी निमन्त्रित ऋत्विज बड़े प्रसन्न होकर राजासे बोले ॥ १-११॥

मुनियोंने कहा- देव-दावन-वन्दित महाराज उग्रसेन ! तुम यज्ञ आरम्भ करो। श्रीकृष्णकी कृपासे वह अवश्य पूर्ण होगा ॥ १२ ॥

उन महर्षियोंका यह वचन सुनकर अन्धककुलके स्वामी राजा उग्रसेनकी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ संतुष्ट हो गयीं। उन्होंने यज्ञकी सारी सामग्री एकत्र की। तदनन्तर ब्राह्मणोंने सोनेके हलोंसे यज्ञकी भूमि जोती तथा पिण्डारक तीर्थके समीप विधिपूर्वक राजाको यज्ञकी दीक्षा दी। चार योजनतककी विशाल भूमिको जोतकर राजाने वहाँ यज्ञके लिये मण्डप बनवाये। योनि और मेखलासे युक्त मध्यकुण्डका निर्माण करके उसमें विधिपूर्वक अग्निकी स्थापना की। वज्रनाभ! मेरे कहनेसे राजा उग्रसेनने अनेक रत्नोंसे विभूषित और ध्वजा- पताकाओंसे मण्डित सभामण्डप बनवाया। उस सभाभवनको देखकर श्रीकृष्णने अपने पुत्रसे कहा ॥ १३-१७॥(Ashwamedh Khand Chapter 11 to 15)

श्रीकृष्ण बोले- प्रद्युम्न ! मेरी बात सुनो और सुनकर तत्काल उसका पालन करो। जाओ, शस्त्रधारी शूरवीरोंके साथ यत्नपूर्वक अश्वमेधीय अश्वको यहाँ ले आओ ॥ १८ ॥

श्रीगर्गजी कहते हैं- श्रीहरिका यह आदेश सुनकर धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ प्रद्युम्न ‘बहुत अच्छा’ कहकर घोड़ा लानेके लिये घुड़सालमें गये। नरेश्वर! तदनन्तर श्रीकृष्णने उस अश्वकी रक्षाके लिये अपने पुत्र भानु और साम्ब आदिको अश्वशालामें भेजा। अश्वशालामें जाकर बलवान् रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्रने सोनेकी साँकलोंमें बँधे हुए सहस्रों श्यामकर्ण अश्व देखकर उनमेंसे एक यज्ञके योग्य अश्वको अपने हाथसे हँसते हुए अनायास ही बन्धनमुक्त कर दिया। बन्धनसे छूटनेपर वह अश्व धीरे-धीरे अश्वशालासे बाहर निकला। उसका मुख लाल, पूँछ पीली और कान श्यामवर्णके थे। मुक्ताफलोंकी मालाओंसे सुशोभित वह दिव्य अश्व अत्यन्त मनोहर दिखायी देता था। वह श्वेत छत्रसे युक्त और चामरोंसे अलंकृत था। उसके आगे, पीछे और बीचमें उपस्थित श्रीहरिके पुत्र उस अश्वराजकी उसी प्रकार सेवा करते थे, जैसे समस्त देवता श्रीहरिकी। अन्यान्य मण्डलेश्वरोंसे भी सुरक्षित हुआ वह अश्व भूतलको अपनी टापोंसे खोदता हुआ सभामण्डपके पास आया। राजन् ! श्यामकर्ण अश्वको वहाँ आया देख राजा उग्रसेनने प्रसन्न होकर मुझे आवश्यक विधिका सम्पादन करनेके लिये भेजा। तब मैंने रानी रुचिमतीसहित महाराज उग्रसेनको योग्य आसनपर बिठाकर पिण्डारक तीर्थमें धर्मके अनुसार समस्त प्रयोग करवाया। राजा उग्रसेन चैत्रमासकी पूर्णिमाको मृगचर्म धारण किये यज्ञके लिये दीक्षित हुए। राजन् ! उन्होंने मेरी आज्ञासे ‘असिपत्र-व्रत’ का नियम लिया। नरेश्वर! मैं यादवेन्द्रकुलका पूर्वगुरु होनेके कारण उस यज्ञमें समस्त ब्राह्मणोंका आचार्य बनाया गया ॥ १९-३० ॥

तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से समस्त ब्राह्मण वेदमन्त्रों का उच्चारण करते हुए अपने-अपने आसनपर बैठे। उन सबने गणेश आदि देवताओंका पृथक् पृथक् पूजन किया। राजन् ! फिर सब मुनियोंने अश्वकी स्थापना करके उसपर केसर, चन्दन, फूल माला और चावल चढ़ाये, धूप निवेदित किये। सुधा- कुण्डलिका आदिका नैवेद्य लगाया और आरती आदि- के द्वारा उस अश्वकी विधिपूर्वक पूजा करके राजाको दानके लिये प्रेरित किया। उनका यह आदेश सुनकर उग्रसेनने शीघ्रतापूर्वक पहले मुझे धनका दान किया। एक लाख घोड़े, एक हजार हाथी, दो हजार रथ, एक लाख दुधारू गाय और सौ भार सुवर्ण- इतनी दक्षिणा राजाने मुझको दी। राजन् ! तदनन्तर निमन्त्रित ब्राह्मणोंको महाराज उग्रसेनने जो शास्त्रोक्त दक्षिणा दी, उसका वर्णन सुनो। प्रत्येकको एक हजार घोड़े, दो सौ हाथी, दो सौ रथ और बीस भार सुवर्ण- इतनी दक्षिणा दी गयी। तत्पश्चात् जो अनिमन्त्रित ब्राह्मण आये थे, उनको नमस्कार करके राजाने विधिपूर्वक एक हाथी, एक रथ, एक गौ, एक भार सुवर्ण और एक घोड़ा-इतनी दक्षिणा प्रत्येक ब्राह्मणके लिये दी ॥ ३१-३९॥

इस प्रकार दान करके घोड़ेके ललाटपर, जो कुङ्कुम आदिके कारण अत्यन्त कमनीय दिखायी देता था, राजाने सोनेका पत्र बाँधा। उस पत्रपर मैंने सभामण्डपमें समस्त यादवोंके समक्ष महाराज उग्रसेनके बढ़े-चढ़े बल-पराक्रम तथा प्रतापका इस प्रकार उल्लेख किया ॥ ४०-४१ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 11 to 15)

“चन्द्रवंशके अन्तर्गत यदुकुलमें राजा उग्रसेन विराजमान हैं, जिनके आदेशका इन्द्र आदि देवता भी अनुसरण करते हैं। भक्तपालक भगवान् श्रीकृष्ण जिनके सहायक हैं और उन्हींकी भक्तिसे बँधकर वे श्रीहरि सदा द्वारकापुरीमें निवास करते हैं। उन्हींकी आज्ञासे चक्रवर्ती राजाधिराज उग्रसेन अपने यशका विस्तार करनेके लिये हठात् अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान करते हैं। उन्होंने ही यह अश्वोंमें श्रेष्ठ शुभलक्षण-सम्पत्र श्यामकर्ण घोड़ा छोड़ा है। इस अश्वके रक्षक हैं, श्रीकृष्णके पौत्र अनिरुद्ध, जिन्होंने ‘वृक’ दैत्यका वध किया था। वे हाथी, घोड़े, रथ और पैदल-वीरोंकी चतुरङ्गिणी सेनाओंके साथ हैं। इस भूतलपर जो-जो राजा राज्य करते हैं और अपनेको शूरवीर मानते हैं, वे इस स्वर्णपत्रशोभित अश्वमेधीय अश्वको अपने बलसे रोकें। धर्मात्मा अनिरुद्ध अपने बाहुबल और पराक्रमसे हठपूर्वक अनायास ही राजाओंद्वारा पकड़े गये इस अश्वको छुड़ा लेंगे। जो धनुर्धर नरेश इस अश्वको नहीं पकड़ सकें, वे अनिरुद्धजीके चरणोंमें प्रणाम करके सकुशल लौट जायें” ॥ ४२-४८ ॥

जब इस प्रकार स्वर्णपत्रपर लिख दिया गया, तब श्रेष्ठ यदुवंशी वीरोंने शङ्ख बजाये। झाँझ, मृदङ्ग, नगाड़े और गोमुख आदि बाजे बज उठे। गन्धर्वगण श्रीकृष्ण और बलदेवके मङ्गलमय चरित्रोंका गान करने लगे और अप्सराएँ भी वहाँ आनन्दविभोर होकर नृत्य करने लगीं। तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्णने अत्यन्त प्रसन्न होकर यादवराज उग्रसेनके सामने ही वहाँ खड़े हुए प्रद्युम्नकुमार अनिरुद्धको उस यज्ञ सम्बन्धी अश्वके सर्वथा संरक्षणका आदेश दिया ॥ ४९-५१॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधचरित्र सुमेरुमें ‘अश्वका पूजन’
नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ११॥

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बारहवाँ अध्याय

अश्वमोचन तथा उसकी रक्षाके लिये सेनापति अनिरुद्धका विजयाभिषेक

श्रीगगंजी कहते हैं- तदनन्तर राजा उग्रसेनने द्वारकापुरीमें, जिसके ऊपर विधिपूर्वक चामर बंधे हुए थे, उस अश्वका पूजन करके वेदमन्त्रोंके उद्घोषके साथ उसे छोड़ा। वह अश्वराज भी सुधाकुण्डलिका (इमरती या जलेबी आदि) खाकर, सोनेकी मालाओं तथा कुङ्कुमसे सुशोभित हो उस स्थानसे निकला। उस अश्वकी रक्षाके लिये उद्यत हुए वृकहन्ता अनिरुद्धसे राजाधिराज उग्रसेनने अश्वरक्षाके विषयमें आदरपूर्वक कहा ॥ १-३॥(Ashwamedh Khand Chapter 11 to 15)

श्रीउग्रसेन बोले- श्रीकृष्णपौत्र प्रद्युम्नकुमार ! तुमने अश्वकी रक्षाके लिये स्वेच्छासे जो बात कही थी, उसे शीघ्र पूर्ण करो। पहले मेरे राजसूय यज्ञके समय तुम्हारे पिता प्रद्युम्नने पृथ्वीपर विजय पायी थी। तुम उन्हींके महान् बलवान् एवं शूरवीर पुत्र हो। तुमने शकुनिके भाई महादैत्य वृकका वध किया था। समस्त राजाओंको जीता था और भीष्मको भी युद्धमें संतुष्ट कर दिया था। अहो! चन्द्रमा और ब्रह्माजी जिनके भीतर विलीन हो गये, उनकी महिमाका क्या वर्णन किया जाय। इसीलिये समस्त ऋषि-मुनि तुम्हें ‘परिपूर्ण’ कहते हैं। अतः तुम वीर-सेनासे घिरे हुए आगे बढ़ो और समस्त राजाओंसे अश्वमेधीय अश्वकी रक्षा करो। जो बालक, रथहीन, भयभीत, शरणागत, दीनचित्त, सुप्त, प्रमत्त और उन्मत्त हो, उन्हें युद्धमें न मारना। प्रद्युम्ननन्दन ! श्रीकृष्णके प्रतापसे तुम्हारा मार्ग निर्विघ्न हो और तुम घोड़े तथा सेनाके साथ पुनः यहाँ सकुशल लौट आओ ॥४-१० ॥

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजाकी यह उत्तम बात सुनकर अनिरुद्ध बोले- ‘बहुत अच्छा’। फिर उन्होंने अश्वकी रक्षाके लिये चित्तको एकाग्र किया। तदनन्तर उन ब्राह्मण ऋत्विजोंने श्रीकृष्णचन्द्रकी आज्ञासे तत्काल अनिरुद्धको मन्त्रपाठपूर्वक स्नान करवाया और प्रसन्नतापूर्वक उनकी अर्चना की। अनिरुद्धका तिलक करके राजाने उन्हें विधिपूर्वक भेंट दी और युद्धके लिये एक खड्ग हाथमें दिया। शूरसेनने उन्हें रत्नोंकी माला दी। वसुदेवजीने दो कुण्डल प्रदान किये। बलरामने कवच और श्रीहरिने चक्र दिये। प्रद्युम्नने अनिरुद्धको श्रीकृष्णका दिया हुआ धनुष प्रदान किया। राजेन्द्र ! इतना ही नहीं, उन्होंने अपने दोनों तरकस भी दे दिये, जिनमें कभी बाण समाप्त नहीं होते थे। भगवान् शंकरने अपने त्रिशूलसे एक दूसरा त्रिशूल उत्पन्न करके दे दिया। उद्धवने किरीट और देवकने पीताम्बर दिया। वरुणने नागपाश तथा शक्तिधारी स्कन्दने शक्ति दी। वायुदेवने दो दिव्य व्यजन भेंट किये। यमराजने अपना दण्ड दे दिया। कुबेरने हीरेका हार और अर्जुनने परिघ अर्पित किया। भद्रकालीने एक भारी गदा दी। सूर्यदेवने एक माला भेंट की। पृथ्वीदेवीने दो योगमयी पादुकाएँ दीं। गणेशजीने दिव्य कमल प्रदान किया। अक्रूरने विजयदायक दक्षिणावर्त शङ्ख दिया। द्वारकामें देवराज इन्द्रने अनिरुद्धको एक विजयशील महादिव्य रत्नमय रथ प्रदान किया, जो मनके समान वेगशाली था। उस रथका निर्माण साक्षात् विश्वकर्माने किया था। उसमें एक हजार घोड़े जुते हुए थे। एक हजार पहिये लगे थे। वह सुवर्णसे सम्पन्न था। ब्रह्माण्डके बाहर और भीतर सर्वत्र उसकी गति थी। वह छत्रसे सुशोभित था। उसमें स्वर्णनिर्मित सैकड़ों ध्वजा पताकाएँ शोभा दे रही थीं। उससे मेघकी गर्जनाके समान उद्घोष होता था। उस रथमें घंटों और मंजीरोंकी ध्वनि व्याप्त थी। उस समय शङ्ख और दुन्दुभियाँ बज उठीं। झाँझ और वीणा आदि भी बजने लगे। मृदङ्गोंके शब्द और वंशीके मधुर रागोंके साथ जय-जयकारकी ध्वनि सब ओर छा गयी। वेद-मन्त्रोंका घोष होने लगा। लावा, फूल और मोतियोंकी वर्षा होने लगी। देवतालोग अनिरुद्धके ऊपर दिव्य पुष्प बरसाने लगे ॥ ११-२४॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘अनिरुद्धका विजयाभिषेक’
नामक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १२॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ छान्दोग्य उपनिषद हिंदी में

तेरहवाँ अध्याय

अनिरुद्धका अन्तःपुरसे आज्ञा लेकर अश्वकी रक्षाके लिये प्रस्थान; उनकी सहायताके
लिये साम्बका कृतप्रतिज्ञ होना; लक्ष्मणाका उन्हें सम्मुख युद्धके लिये प्रोत्साहन देना;
श्रीकृष्णके भाइयों और पुत्रोंका भी श्रीकृष्णकी आज्ञासे प्रस्थान करना
तथा यादवोंकी चतुरङ्गिणी सेनाका विस्तृत वर्णन

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर गुरुजनोंको नमस्कार करके अनिरुद्ध देवकी, रोहिणी, रुक्मिणी, सत्यभामा तथा अन्य सम्पूर्ण श्रीहरि- वल्लभाओंसे आज्ञा लेनेके लिये अन्तः पुरमें गये। वहाँ उन सबकी आज्ञा ले, अपनी माता रति तथा रुक्मवती- को प्रणाम करके उनसे बोले- ‘मैं अश्वकी रक्षा करनेके लिये जाता हूँ। इसके लिये महाराजने मुझे आज्ञा दी है। मेरे साथ अन्य बहुत-से यदुवंशी वीर जा रहे हैं’ ॥१-२॥

राजन् ! अनिरुद्धका यह कथन सुनकर माताओंने उन्हें हृदयसे लगा लिया और गद्दकण्ठसे उन प्रणत प्रद्युम्नकुमारको जानेकी आज्ञा देते हुए आशीर्वाद प्रदान किया। माताओंको नमस्कार करके वे अपनी पत्नियोंके महलोंमें गये। अपने पतिको आया देखकर ऊषा आदि तीनों पत्नियोंने उनका समादर किया। परंतु विरहकी सम्भावनासे उन सबका मन उदास हो गया। अनिरुद्ध उन प्यारी पल्लियोंको आश्वासन दे राजसभामें लौट आये ॥ ३-५ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 11 to 15)

राजेन्द्र ! उसके बाद यज्ञ सम्बन्धी अश्वकी रक्षाके लिये यात्राके निमित्त ऋषि-मुनियोंने अनिरुद्धके उद्देश्यसे मङ्गलपाठ किया। फिर वे समस्त महर्षियों, गुरुजनों, महाराज उग्रसेन, शूरसेन, वसुदेव, बलराम, श्रीकृष्ण, अपने पिता प्रद्युम्न तथा अन्यान्य पूजनीय यादवोंको प्रणाम करके समस्त नागरिकोंद्वारा पूजित हुए। नरेश्वर! उन्होंने हाथोंमें धनुषबाण लिये, अँगुलियोंमें गोधाके चर्मसे बने हुए दस्ताने पहन लिये, कवच- कुण्डल धारण किये और पैरोंमें जूते पहनकर सिंहके समान पराक्रमी महावीर अनिरुद्धने ढाल, तलवार, किरीट एवं शक्ति ले, सोनेके बने हुए आभूषण धारण किये। फिर वे इन्द्रके दिये हुए दिव्य रथके द्वारा अपनी पुरीसे बाहर निकले। उस समय गाजे- बाजेकी आवाज और वेदमन्त्रोंके घोषके साथ यात्रा करते हुए अनिरुद्धपर चारों ओरसे चंवर डुलाये जा रहे थे। समस्त पुरवासी उनकी इस यात्राको देख रहे थे ॥ ६-११॥

तदनन्तर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने उनके साथ जानेके लिये उद्धव आदि मन्त्री तथा भोज, वृष्णि, अन्धक, मधु, शूरसेन और दशार्णकुलमें उत्पत्र वीर योद्धा भेजे। तदनन्तर राजा उग्रसेनने यदुवंशी वीरोंको सम्बोधित करके पूछा- ‘यादवो! बताओ, युद्धमें अनिरुद्धकी सहायता करनेके लिये कौन जायगा ?’ उग्रसेनकी यह बात सुनकर जाम्बवतीकुमार साम्बने सबके देखते-देखते राजाको नमस्कार करके यह बात कही ॥ १२-१४॥

साम्ब बोले- राजेन्द्र। मैं महासमरमें सदा संनद्ध रहकर शत्रुओंसे अनिरुद्धकी रक्षा एवं सहायता करूँगा। यदि समराङ्गणमें मैं इनकी रक्षा न करूँ तो महाराज। उस दशामें मुझ सत्यवादीकी यह प्रतिज्ञा सुन लीजिये ‘मनुष्य त्याग देनेयोग्य दशमीविद्धा एकादशीका व्रत करके जिस गतिको प्राप्त होता है, मुझे भी निश्चय वही गति मिले। गोहत्यारों और ब्रह्महत्यारों- की जो गति होती है, वही गति यदि मैं यह रक्षणकार्य न कर सकूँ, तो मेरी भी हो’ ॥ १५-१८ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 11 to 15)

श्रीगर्गजी कहते हैं- ऐसी बात कहकर साम्ब वहाँसे अन्तःपुरमें गये। वहाँ माता जाम्बवतीको प्रणाम करके उन्होंने सारा अभिप्राय निवेदन किया। उनकी बात सुनकर माताने विरहकी अनुभूति करके बेटेको हृदयसे लगा लिया और आशीर्वाद दिया। तदनन्तर समस्त माताओंको नमस्कार करके वे पत्नीके घरमें गये। उन्हें आते देख शुभलक्षणा लक्ष्मणा बैठनेके लिये आसन दे आँसुओंसे कण्ठ अवरुद्ध हो जानेके कारण कुछ भी नहीं बोली। साम्बने उसे आश्वासन दे अपना अभिप्राय कह सुनाया। सुनकर विरहकी सम्भावनासे खिनचित्त हो वह पतिसे बोली ॥ १९-२२ ॥

लक्ष्मणाने कहा- पतिदेव! आपको अनिरुद्ध- के अश्वकी सदा रक्षा करनी चाहिये। आप युद्धका अवसर आये तो सम्मुख होकर युद्ध करें। रणभूमिसे कभी विमुख न हों। आपके सहस्रों भाई हैं और उन सबकी सहस्रों मानवती स्त्रियाँ हैं। नाथ! यदि युद्धमें आपकी पराजय सुनकर वे आपकी प्रियतमा होनेके कारण मेरी ओर देखकर मुस्करा देंगी तो उस समय दुःखके कारण मेरी मृत्यु हो जायगी ॥ २३-२५ ॥

लक्ष्मणाकी यह बात सुनकर साम्ब हँसते हुए अपनी प्राणवल्लभासे बोले ॥ २५ ॥

साम्बने कहा- भद्रे ! युद्धभूमिमें मेरा सामना करनेके लिये यदि सारी त्रिलोकी उमड़ आये तो भी तुम सुनोगी कि मैंने उन सबका विदलन (संहार) कर दिया है। शुभे! यदि शूरवीर साम्ब रणभूमिसे विमुख हो जाय तो वह अपने पापसे वेद और ब्राह्मणोंका निन्दक माना जाय। उस दशामें मैं फिर तुम्हारे इस चन्द्रोपम मुखका दर्शन नही करूँगा ॥ २६-२८॥

श्रीगर्गजी कहते हैं- इस प्रकार अपनी पहली प्रियाको आश्वासन दे साम्बने दूसरी प्रियाको भी धीरज बँधाया। फिर वे अभिमन्यु और सुभद्रासे मिलकर घरसे निकले। धनुष और तलवार ले यात्राके लिये सुसज्जित साम्ब रथपर बैठे और यादवोंसे घिरे हुए उस उपवनमें गये, जहाँ अनिरुद्ध विद्यमान थे। तदनन्तर श्रीकृष्णने अपने गद आदि समस्त भाइयोंको और भानु तथा दीप्तिमान् आदि सभी पुत्रोंको भेजा। वे सब-के-सब शौर्यसम्पन्न और युद्धकुशल थे। उन्होंने धनुष धारण करके कवच बाँध लिया और चतुरङ्गिणी सेनाके साथ करोड़ोंकी संख्यामें वे नगरसे बाहर निकले। उनके दिव्य रथ ताल, हंस, मीन, मयूर और सिंहके चिह्नवाले ध्वजोंसे सुशोभित थे। उन रथोंका अङ्ग प्रत्यङ्ग सुवर्णमण्डित था। प्रत्येक रथमें चार-चार घोड़े जुते थे। वे सभी रथ बहुत ऊँचे और देवताओंके विमानोंके समान सुशोभित थे। उनमें छत्र और चैवर लगे हुए थे। उन रथोंके ऊपर सोनेके कलश थे, जो सूर्यके समान चमक रहे थे। उनमें जालीदार बन्दनवारें लगायी गयी थीं। ऐसे रथोंद्वारा श्रीकृष्णके सभी पुत्र कुशस्थलीसे बाहर निकले ॥ २९-३४॥

राजन् । तदनन्तर सोनेके हौदोंसे सुशोभित हाथी निकले, जिनके मुखपर गोमूत्र, सिन्दूर और कस्तूरीसे पत्ररचना की गयी थी। वे हाथी अञ्जन, कोयले और सजल जलधरोंके समान काले थे। सबके गण्डस्थलसे मद झर रहे थे। उनके श्वेत दाँत कमलकी नालके समान जान पड़ते थे। मृगद्वीपजातिके हाथी अत्यन्त ऊँचे होनेके कारण पर्वताकार दिखायी देते थे। उनके घंटे बज रहे थे और वे अत्यन्त उद्भट जान पड़ते थे। ऐरावतकुलमें उत्पन्न हाथी श्वेत वर्णके थे। उनके तीन- तीन शुण्डदण्ड और चार-चार दाँत थे। उन सबको भगवान् श्रीकृष्ण भौमासुरकी राजधानीसे लाये थे। वे सब-के-सब पुरीसे बाहर निकले। एक लाख हाथी ऐसे थे, जिनकी पीठपर ध्वज फहरा रहे थे और उनके ऊपर एक लाख दुन्दुभियाँ रखी गयी थीं। लाख हाथी ऐसे थे, जिनपर कोई महावत नहीं बैठे थे। वे भी सुनहरी झूलोंसे अलंकृत थे। तदनन्तर एक करोड़ गजराज ऐसे निकले, जिनके ऊपर शूरवीर योद्धा सवार थे। जैसे समुद्रमें मगर विचरते हैं, उसी प्रकार उस सेनामें वे गजराज इधर-उधर घूमते विराज रहे थे। वे अपने शुण्डदण्डोंसे गुल्मोंको उखाड़कर आकाशमें फेंकते थे और मदकी धारासे पृथ्वीको भिगोते हुए पैरोंके आघातसे उसे कम्पित-सी कर रहे थे। अपने मस्तकोंकी टक्करसे महलों, दुर्गों और पर्वतशिखरों को भी वे धराशायी करनेमें समर्थ थे। वे महाबली गजराज शत्रुओंकी सारी सेनाको कुचल देनेवाले थे। उनपर पड़ी हुई झूलें नीली, पीली, काली, सफेद और लाल थीं। वे सोनेकी साँकलोंसे युक्त थे और बड़ी शोभा पाते थे ॥ ३५-४३ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 11 to 15)

राजन् । तत्पश्चात् जिन्हें नारदजीने अश्वशालामें देखा था, वे सभी अश्व सोनेके हारोंसे अलंकृत हो नगरसे बाहर निकले। कोई घोड़े बड़े चञ्चल थे, किन्हींका वर्ण धुएँके रंगका था और वे देखनेमें बड़े मनोहर थे। किन्हींके रंग काले और किन्हींके श्याम थे। कोई-कोई कमलके समान कान्तिवाले थे। उन सबके कंधे बड़े सुन्दर थे। कुछ घोड़े दूधके समान सफेद थे। कितने ही पानीके समान प्रतीत होते थे। किन्हींकी कान्ति हल्दीके समान पीली थी। कोई केसरिया रंगके थे और कुछ घोड़े पलाशके फूलके समान लाल थे। किन्हींके अङ्ग चितकबरे थे और किन्हींके स्फटिकमणिके समान स्वच्छ। वे सभी मनके समान वेगशाली थे। कोई हरे, कोई ताँबेके समान रंगवाले, कोई कुसुम्भकी-सी कान्तिवाले और कोई तोतेकी पाँखके समान प्रभावाले थे। कोई वीरबहूटीके समान लाल, कोई गौर और कोई पूर्ण चन्द्रमाके समान उज्ज्वल थे। वे सभी अश्व दिव्य थे। किन्हींके अङ्ग सिन्दूरके समान रंगवाले थे। कोई प्रज्वलित अग्नि और कोई बाल सूर्यके समान कान्तिमान् थे। राजन् ! ये घोड़े सभी देशोंसे द्वारकापुरी में श्रीकृष्णके प्रतापसे आये थे। वे सभी उस दिन यात्राके लिये निकले ॥ ४४-४९ ॥

श्रीकृष्णकी अश्वशालामें जो घोड़े विद्यमान थे, वे वैकुष्ठवासी तथा श्वेतद्वीपनिवासी थे। उनमेंसे कोई मयूरके समान कान्तिवाले थे और कोई नील- कण्ठके समान। किन्हींके वर्ण बिजलीके समान दीप्तिमान् थे और किन्हींके गरुडके समान। वे सभी अश्व दिव्य पंखोंसे अलंकृत थे। उनकी शिखाओंमें मणि प्रकाशित होती थी। वे श्वेत चामरोंसे अलंकृत थे। मुक्ताफलोंकी मालाओं तथा लाल रंगके वस्त्रोंसे विभूषित थे। उन सबका सुवर्णसे शृङ्गार किया गया था। उनकी पूँछ और मुखपट्टसे दिव्य प्रभा फैल रही थी। वे सर्वाङ्गसुन्दर दिव्य अश्व सहस्त्रोंकी संख्यामें बाहर निकले ॥ ५०-५३ ॥

नरेश्वर ! श्रीकृष्णके ये अश्व अपने पैरोंसे भूमिका स्पर्श नहीं करते थे। वे वायु और मनके समान वेगशाली, चञ्चल और मनोहर थे। राजन् ! वे पानीके बबूलोंपर चल सकते थे, कच्चे सूतोंपर दौड़ सकते थे। कितने ही ऐसे थे, जो मकड़ीके जालों और पारदपर भी चलनेमें समर्थ थे। नृपेश्वर । वे समुद्रोंके जलपर भी निराधार चलते देखे जाते थे। राजन्। कुछ म्लेच्छ देशोंमें उत्पन्न अश्व भी वहाँ मौजूद थे, जो उस यात्रामें पुरीसे बाहर निकले। राजन् । उनमें कोटि-कोटि अश्व ऐसे थे, जो प्रतिदिन सौ योजन अविराम गतिसे दौड़ सकते थे। नरेश्वर! भगवान् श्रीकृष्णके घोड़े गड्डे, दुर्गम भूमि, नदी, ऊँचे-ऊँचे महल तथा पर्वत आदिको भी लाँघ जाते थे। उन सभी घोड़ोंपर वीर योद्धा सवार थे ॥ ५४-५७ ॥

इसके बाद द्वारकापुरीसे समस्त पैदल सैनिक बाहर निकले। वे धनुष और कवचसे सुसज्जित शूरवीर तथा महान् बल-पराक्रमसे सम्पन्न थे। उनके कद ऊँचे थे। ढाल और तलवार धारण किये वे योद्धा लोहेके कवचसे मण्डित थे। हाथीके समान इष्ट-पुष्ट शरीरवाले थे और युद्धमें बहुत-से शत्रुओंपर विजय पानेकी शक्ति रखते थे, इस प्रकार पुरीसे बाहर निकली हुई यादवोंकी उस विशाल सेनाको देखकर देवता, दैत्य और मनुष्य सबको महान् विस्मय हुआ ॥५८-६०॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘यादव-सेनाका निर्गमन’
नामक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ गीतावली हिंदी में

चौदहवाँ अध्याय

अनिरुद्धका सेनासहित अश्वकी रक्षाके लिये प्रयाण; माहिष्मतीपुरीके राजकुमारका
अश्वको बाँधना तथा अनिरुद्धका राजा इन्द्रनीलसे युद्धके लिये उद्यत होना

श्रीगर्गजी कहते हैं- नरेश्वर । तदनन्तर राजा उग्रसेनकी आज्ञासे अनिरुद्धसे मिलनेके लिये वसुदेव, बलराम, श्रीकृष्ण, प्रद्युम्न तथा अन्य सब यादव रथों- द्वारा नगरसे बाहर निकले। वहाँ जाकर उन्होंने सेनासे घिरे हुए अनिरुद्धको देखा। भगवान् श्रीकृष्णने पहले राजसूय यज्ञके अवसरपर प्रद्युम्रको जिस नीतिका उपदेश दिया था, वही सारी नीति उस समय अनिरुद्धसे कह सुनायी ॥ १-३॥

राजन् ! भगवान श्रीकृष्णका वह उपदेश सुनकर अनिरुद्ध आदि समस्त यादवोंने प्रसन्नतापूर्वक उसे शिरोधार्य किया। तत्पश्चात् मुनिवर गर्ग, अन्यान्य मुनिवृन्द वसुदेव, बलराम, श्रीकृष्णचन्द्र तथा प्रद्युम्नको अनिरुद्धने प्रणाम किया। वसुदेव, बलराम, श्रीकृष्ण और प्रद्युम्न आदि यादव अनिरुद्धको शुभाशीर्वाद देकर रथोंद्वारा पुरीमें लौट आये। नरेश्वर। अनिरुद्धका अश्व देश-देशमें गया; किंतु श्रीकृष्णके भयसे कोई भूपाल उसे पकड़नेका साहस न कर सके। जहाँ-जहाँ वह घोड़ा गया, वहाँ- वहाँ सैनिकोंसहित अनिरुद्ध उसके पीछे शत्रुओंको जीतनेके लिये गये ॥४-८ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 11 to 15)

इस प्रकार विभिन्न राज्योंका अवलोकन करता हुआ अनिरुद्धका वह अश्व नर्मदाके तटपर विराजमान माहिष्मतीपुरीको गया। उस पुरीमें चारों वर्णोंके लोग भरे थे और वह प्रस्तरनिर्मित दुर्गसे मण्डित थी। भगवान् शंकरके गगनचुम्बी मन्दिर उस पुरीकी शोभा बढ़ाते थे। पाँच योजन विस्तृत माहिष्मतीपुरी राजा इन्द्रनीलसे परिपालित थी। शाल, ताल, तमाल, वट, बिल्व और पीपल आदि वृक्ष उसकी श्रेयवृद्धि कर रहे थे। बहुत- से पोखरे और बावड़ियाँ वहाँ शोभा पाती थीं, जिनमें पक्षी कलरव करते थे। ऐसी नगरीको वहाँके उपवनमें पहुँचकर अश्वने देखा। राजा इन्द्रनीलके बलवान् पुत्रका नाम नीलध्वज था। वह सहस्रों वीरोंके साथ शिकार खखेलनेके लिये पुरीसे बाहर निकला ॥ ९-१३॥

उस राजकुमारने भालमें बँधे हुए पत्रके साथ श्यामकर्ण घोड़ेको देखा, जो फूलोंसे भरे उपवनमें कदम्बके नीचे खड़ा था। उसकी अङ्ग कान्ति गायके दूधकी भाँति श्वेत थी। अनेक चामरोंसे अलंकृत वह अश्व वहाँ घूमता हुआ आ गया था। उसके शरीरपर स्त्रियोंके कुङ्कुमलिप्त हाथोंके छाप शोभा दे रहे थे तथा वह मोतीकी मालाओंसे मण्डित था। उस घोड़ेको देख राजकुमार नीलध्वजने अपने वाहनसे उतरकर बड़े हर्षके साथ खेल-खेलमें ही उसके सिरका बाल पकड़ लिया। उसके भालमें यादवराज उग्रसेनने जो पत्र लगा दिया था, उसको राजकुमार पढ़ने लगा। उसमें लिखा था-‘द्वारकाके अधिपति, राजा उग्रसेन समस्त शूरवीरोंके शिरोमणि हैं। उनके समान महायशस्वी और चक्रवर्ती राजा दूसरा कोई नहीं है। उन्होंने पत्रसहित इस अश्वराजको स्वतन्त्र विचरनेके लिये छोड़ा है। अनिरुद्ध इसका पालन करते हैं। जो राजा अपनेको सबल समझते हों, वे इसे पकड़ें; अन्यथा अनिरुद्धके चरणोंमें प्रणाम करके लौट जाय।’ यह अभिप्राय देखकर राजकुमार क्रोधसे बोल उठा-‘क्या अनिरुद्ध ही धनुर्धर हैं? हमलोग धनुर्धर नहीं हैं? मेरे पिताजीके रहते हुए कौन इस प्रकार वीरताका गर्व कर सकता है?’ ॥ १४-२० ॥

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! ऐसा कहकर राजकुमार घोड़ेको लेकर राजाके पास गया और उसने पिताके आगे उस घोड़ेका वृत्तान्त कह सुनाया। पुत्रका वचन सुनकर महाबली महामानी शिवभक्त राजा नीलने अपने पुत्रसे इस प्रकार कहा ॥ २१-२२ ॥

इन्द्रनील बोले- बेटा! पहले क्रतुश्रेष्ठ राजसूयके अवसरपर समर्थ होते हुए मैंने अपने कुबुद्धि मन्त्रीके कहनेसे प्रद्युम्नको कुछ भेंट दे दी थी। अब पुनः घोड़ेकी रक्षा करता हुआ अनिरुद्ध आ धमका है। अहो! दैवबल कैसा अद्भुत है? उससे कौन-सा उलट-फेर नहीं हो सकता है? अभी थोड़े ही दिन हुए द्वारिकामें वृष्णिवंशी बढ़ गये। अतः आज मैं अनिरुद्ध आदि समस्त यादवोंको परास्त करूँगा। उस मानीको श्यामकर्ण अश्व कदापि नहीं लौटाऊँगा। मैंने भक्ति- भावसे भगवान् शंकरको संतुष्ट किया है। वे युद्धमें मेरी रक्षा करेंगे ॥ २३-२६ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 11 to 15)

ऐसा कहकर माहिष्मतीपुरीके वीरनरेशने सोनेकी रस्सीसे घोड़ेको बाँध लिया और सेनासहित जाकर युद्ध करनेका निश्चय किया। नरेश्वर। इतनेमें ही घोड़ेको देखते हुए सौ अक्षौहिणी सेनाके साथ अनिरुद्ध नर्मदाके तटपर आ पहुँचे। राजन् । साम्ब, मधु, बृहद्वाहु, चित्रभानु, वृक, अरुण, संग्रामजित्, सुमित्र, दीप्तिमान्, भानु, वेदबाहु, पुष्कर, श्रुतदेव, सुनन्दन, विरूप, चित्रबाहु, न्यग्रोध तथा कवि-ये अनिरुद्धके सहायक भी वहाँ आ गये। गद, सारण, अक्रूर, कृतवर्मा, उद्धव और युयुधान नामवाले सात्यकि- ये सब वृष्णिवंशी शूरवीर भी अनिरुद्धकी सहायता करनेके लिये आ पहुँचे। वे भोज, वृष्णि तथा अन्धक आदि यादव नर्मदाके तटपर खड़े हो श्यामकर्ण अश्व- को न देखनेके कारण बड़े आश्चर्यमें पड़े और आपसमें इस प्रकार कहने लगे ‘मित्रो। महाराज उग्रसेनके पत्रसहित अश्वको कौन ले गया, जिससे वह श्यामकर्ण अश्व यहाँ हमें दिखायी नहीं देता है? पहले राजसूय यज्ञके अवसरपर मानव, दैत्य और देवताओंने तथा नौ खण्डोंके अधिपतियोंने भी परास्त होकर जिनके लिये भेंट दी थी, उन्हींके प्रचण्ड शासनका तिरस्कार करके जिस कुबुद्धि नरेशने अभिमानवश अश्वका अपहरण किया है, वह चोर है। उसे चोरीका दण्ड मिलना चाहिये।’ सबके मुँहसे यही बात सुनकर और सामने पुरीकी ओर देखकर रुक्मवतीनन्दन अनिरुद्ध मन्त्रि- प्रवर उद्धवसे बोले ॥ २७-३७॥

अनिरुद्धने कहा- नर्मदा नदीके तट पर यह किस राजाकी नगरी शोभा पाती है? मालूम होता है कि हमारा अश्व अवश्य इसी नगरीमें गया है॥ ३८ ॥

अनिरुद्धका यह वचन सुनकर श्रीकृष्ण-सखा उद्धव अत्यन्त प्रसन्न होकर बोले ॥ ३९ ॥

उद्धवने कहा- यह राजा इन्द्रनीलकी नगरी है और इसका शुभ नाम ‘माहिष्मतीपुरी’ है। इसमें रहने- वाले सभी वर्णोंक लोग भगवान् महेश्वरके पूजनमें रत रहते हैं। वृष्णिकुलवल्लभ । इस राजाने पूर्वकालमें नर्मदाके तटपर बारह वर्षोंतक नर्मदेश्वरकी पूजा की थी। उनके षोडशोपचार पूजनसे भगवान् शिव प्रसन्न हो गये और उन्हें दर्शन देकर वर माँगनेके लिये प्रेरित करने लगे। भगवान् शिवका वचन सुनकर माहिष्मतीपुरीके पालक नरेशने हाथ जोड़ गद्गद वाणीमें उन रुद्रदेवसे कहा- ‘ईशान! आप सम्पूर्ण जगत्के गुरु तथा नर्मदेश्वर हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप सकाम पुरुषोंके कामनापूरक कल्पवृक्ष हैं। महेश्वर। आप दाता हैं। मैं आपसे यह वर चाहता हूँ कि आप सदा देवता, दैत्य और मनुष्योंसे प्राप्त होनेवाले भयसे मेरी रक्षा करें।’ राजाकी यह बात सुनकर भगवान् शंकरने प्रसन्न हो ‘तथास्तु’ कह दिया। राजेन्द्र! ऐसा कहकर वे वहाँसे अन्तर्धान हो गये। कन्दर्पनन्दन। इस कारण भगवान् रुद्रके वरसे प्रभावित वह शूरवीर नरेश युद्ध किये बिना तुम्हें अश्व नहीं लौटायेगा ॥ ४०-४७ ॥

उद्धवजीका यह कथन सुनकर बलवान् अनिरुद्धने समस्त यादवोंके समक्ष धैर्यपूर्वक कहा ॥ ४८ ॥

अनिरुद्ध बोले- मन्त्रिप्रवर। सुनिये, आपने यह बताया है कि इस राजाके सहायक साक्षात् भगवान शिव हैं। परंतु जैसे इनपर शिवकी कृपा है, उसी प्रकार मेरे ऊपर भगवान् श्रीकृष्ण कृपा रखते हैं॥ ४९ ॥

ऐसा कहकर यादवोंसहित वीर रुक्मवती- कुमारने अश्वको बन्धनसे मुक्त करनेके लिये राजा इन्द्रनीलको जीतनेका विचार किया। जब प्रद्युम्रप्रकुमार अनिरुद्ध कवच बाँधकर खड़े हुए तब समस्त यादव- योद्धा परिघ, खड्ग, गदा, धनुष और फरसे लेकर युद्धके लिये संनद्ध हो गये ॥ ५०-५१॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘अनिरुद्धका प्रयाण’
नामक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १४॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री राम चालीसा

पंद्रहवाँ अध्याय

अनिरुद्ध और साम्बका शौर्य; माहिष्मती-नरेशपर इनकी विजय

श्रीगर्गंजी कहते हैं- तदनन्तर इन्द्रनीलका पुत्र महाबली नीलध्वज तीन अक्षौहिणी सेना साथ लेकर यादवोंको जीतनेके लिये अपने नगरसे बाहर निकला। वह अपने पिताजीकी बात सुनकर यदुवंशियोंके प्रति अत्यन्त रोषसे भरा था। उस राजकुमारको आया देख श्रीकृष्ण-पौत्र अनिरुद्ध धनुष हाथमें लेकर अकेले ही उसके साथ युद्ध करनेके लिये गये, मानो इन्द्र वृत्रासुरपर विजय पानेके लिये प्रस्थित हुए हों। संग्राम- भूमिमें जाकर अनिरुद्ध शत्रुओंके ऊपर तत्काल बाण- समूहोंकी वर्षा करने लगे। इससे उन सबके हृदयमें त्रास छा गया। फिर तो नीलध्वजके समस्त सैनिक भयभीत हो रणभूमिसे भागने लगे और प्रद्युम्रकुमारने विजयसूचक अपना शङ्ख बजाया ॥ १-४॥

अपनी सेनाको भागती देख बलवान् नीलध्वज धनुष टंकारता हुआ शीघ्र ही संग्राममण्डलमें आया। उसने धनुषकी प्रत्यञ्चासे अपनी सेनाको पुनः युद्धमें लौटनेके लिये प्रेरित किया। अनिरुद्धको शत्रुओंके बीचमें घिरा हुआ देख साम्बके रोषकी सीमा न रही। वे एक अक्षौहिणी सेनासे घिरे रोषपूर्वक धनुष टंकारते हुए वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने बीस बाणोंसे नीलध्वजको और पाँच-पाँच बाणोंसे रथों, हाथियों, घोड़ों और पैदलोंको घायल कर दिया। साम्बके बाणोंकी चोट खाकर वे सब-के-सब धराशायी हो गये। हाथीके ऊपर हाथी, रथोंके ऊपर रथ, घोड़ोंपर घोड़े और पैदल मनुष्योंपर मनुष्य गिरने लगे। क्षणभरमें वहाँकी भूमिपर रक्तकी धारा बह चली। हाथी, घोड़े, रथ और पैदल छिन्न-भिन्न होकर वहाँ पड़े थे ॥५-१०॥(Ashwamedh Khand Chapter 11 to 15)

राजन् ! फिर अपनी सेनामें भगदड़ मची हुई देख नीलध्वज जिसके मनमें यादवोंको जीतनेकी बड़ी इच्छा थी, धनुष लेकर बाणोंकी वर्षा करता हुआ शत्रु-सेनाके सम्मुख आया। राजन् । युद्धस्थलमें पहुँचकर रोषसे भरे हुए उस राजकुमारने दस बाणोंसे साम्बके धनुषको उसी तरह काट दिया, जैसे कोई दुर्वचन द्वारा प्रेम सम्बन्धको छिन्न-भिन्न कर दे। बलवान् इन्द्रनील- कुमारने चार बाणोंसे साम्बके चारों घोड़े मार दिये, दो बाणोंसे उनके रथकी ध्वजा काट गिरायी, सौ बाणोंसे रथकी धज्जियाँ उड़ा दीं और एक बाणसे सारथिको कालके गालमें भेज दिया ॥ ११-१३ ॥

इस प्रकार साम्बको रथहीन करके राजकुमार नीलध्वजने पुनः सामने आयी हुई साम्बकी सेनाको बाणोंसे घायल करना आरम्भ किया। इतनेमें ही नीलध्वजकी सारी सेना भी लौट आयी और युद्ध- स्थलमें यादवोंकी विशाल वाहिनीको तीखे बाणोंसे घायल कर दिया। फिर तो रणक्षेत्रमें दोनों सेनाओंके बीच घमासान युद्ध होने लगा। खड्ग, परिघ, बाण, गदा और तीखी शक्तियोंद्वारा उभयपक्षके सैनिक परस्पर प्रहार करने लगे। साम्ब दूसरे रथपर आरूढ़ हो सुदृढ़ धनुषपर प्रत्यञ्ज्ञा चढ़ाकर रणक्षेत्रमें आये। वे बड़े बलवान् थे। उन्होंने सौ बाण मारकर नीलध्वजके रथको चूर-चूर कर दिया। मानद नरेश ! उसका धनुष भी कट गया, तब उस रथहीन राजकुमारने गदा उठाकर क्रुद्ध हो युद्धस्थलमें बड़े वेगसे साम्बपर धावा किया। उसी समय साम्ब भी सहसा रथसे उतरकर गदा लिये नीलध्वजका सामना करनेके लिये रोषपूर्वक आगे बढ़े। साम्बको आया देख राजकुमारने उनपर गदासे चोट की, परंतु फूलकी मालासे चोट करनेपर जैसे हाथी विचलित नहीं होता उसी प्रकार साम्ब उस प्रहारसे विचलित न हो सके। तदनन्तर साम्बने अपनी गदासे राजकुमारपर आघात किया। उनके उस प्रहारसे राजकुमार रणभूमिमें गिर पड़ा और मूच्छित हो गया। फिर तो उसके सैनिक हाहाकार करते हुए भाग चले ॥ १४-२१ ॥

तब अत्यन्त क्रोधसे भरे हुए राजा इन्द्रनील स्वयं युद्धके लिये आये। उनके साथ दो अक्षौहिणी सेना थी और वे अपने धनुषसे बाणोंकी वर्षा कर रहे थे। उन्हें आया देख बलवान् धनुर्धर वीर श्रीकृष्णकुमार मधुने अपने बाणोंकी मारसे इन्द्रनीलको रथहीन कर दिया। साथ ही अर्जुनके प्रिय शिष्य युयुधान सात्यकिने समराङ्गणमें आयी हुई इन्द्रनीलकी सेनाको अपने बाणोंद्वारा उसी प्रकार क्षत-विक्षत कर दिया जैसे किसीने कटुवचनोंसे मित्रताको छिन्न-भिन्न कर दिया हो। तदनन्तर यादवोंके छोड़ देनेपर राजा इन्द्रनील माहिष्मतीपुरीको लौट गये। वे दुःखसे व्याकुल हो रहे थे। उन्होंने पुरीमें पहुँचकर अपने स्वामी भगवान् शिवका स्मरण किया। तब भगवान् शिवने उन्हें परम उत्तम साक्षात् दर्शन देकर उनसे सारा वृत्तान्त पूछा। शिवजीकी बात सुनकर राजाने उनके समक्ष सारा वृत्तान्त निवेदन किया। इस प्रकार इन्द्रनीलका कथन सुनकर प्रमथोंके स्वामी भगवान् शिव बोले ॥ २२-२७॥

शिवने कहा- राजेन्द्र । तुम शोक न करो। मेरा वरदान भी मिथ्या नहीं होगा। देवता, दैत्य और मनुष्य सब मिलकर भी तुम्हें जीतनेमें समर्थ नहीं हैं। महाराज! ये जो श्रीकृष्णके पुत्र हैं; ये उन्हींके अंशसे उत्पन्न हुए हैं। ये न तो देवता हैं, न दैत्य हैं और न मनुष्य ही हैं। नरेश्वर। इनसे पराजित होनेके कारण तुम मनमें दुःखी न होओ। भूपाल ! तुम्हें श्रीकृष्णका अपराध नहीं करना चाहिये। राजन् ! इसलिये तुम शीघ्र ही विधिपूर्वक इन समागत यादव वीरोंको अश्वमेधका घोड़ा लौटा दो; इससे तुम्हारा भला होगा ॥ २८-३१॥

– ऐसा कहकर भगवान् रुद्र अदृश्य हो गये। उनके मुखसे जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्णका माहात्म्य जानकर राजाको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे यज्ञका घोड़ा बहुत-से रत्न, सौ भार सुवर्ण, एक हजार मतवाले हाथी, एक लाख घोड़े और दस हजार रथ लेकर नीलध्वजके साथ जहाँ अनिरुद्ध थे, वहाँ उन्हें नमस्कार करनेके लिये गये। राजाके साथ और भी बहुत से लोग थे। अनिरुद्धके निकट जाकर राजाने विधिपूर्वक सारी वस्तुएँ निवेदित कीं और प्रणाम करके इस प्रकार कहा ॥ ३२-३५ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 11 to 15)

इन्द्रनील बोले- श्रीकृष्ण, बलराम और महात्मा प्रद्युम्नको नमस्कार है। यदुकुलतिलक अनिरुद्धको बारंबार नमस्कार है। दैत्यसूदन! मुझे आज्ञा दीजिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ ॥ ३६३ ॥

तब अनिरुद्धने उनसे कहा- नृपश्रेष्ठ! आप मेरे साथ रहकर मेरे इस अश्वको एक मित्रका अश्व मानकर शत्रुओंके हाथसे इसकी रक्षा कीजिये ॥ ३७ ॥

श्रीगर्गजी कहते हैं- नरेश्वर! अनिरुद्धकी यह बात सुनकर राजाने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनकी बात मान ली और नीलध्वजको राज्य देकर स्वयं यादव- सेनाके साथ जानेका निश्चय किया ॥ ३८-३९ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘अनिरुद्धकी विजयका वर्णन’
नामक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १५ ॥

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