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Garga Samhita Madhuryakhand Chapter 1 to 5

Garga Samhita
Garga Samhita Madhuryakhand Chapter 1 to 5

॥ श्रीहरिः ॥

ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते

श्रीसरस्वत्यै नमः

Garga Samhita Madhuryakhand Chapter 1 to 5
श्री गर्ग संहिता के माधुर्यखण्ड अध्याय 1 से 5 तक

श्री गर्ग संहिता के माधुर्यखण्ड (Madhuryakhand Chapter 1 to 5) पहले अध्याय में श्रुतिरूपा गोपियों का वृत्तान्त, उनका श्रीकृष्ण और दुर्वासामुनिकी बातों में संशय तथा श्रीकृष्णद्वारा उसका निराकरण कहा गया है। दूसरे अध्याय में ऋषिरूपा गोपियों का उपाख्यान- वङ्गदेशके मङ्गल-गोपकी कन्याओं का नन्दराज के व्रजमें आगमन तथा यमुनाजी के तटपर रासमण्डल में प्रवेश वर्णन है। तीसरे अध्याय में मैथिली रूपा गोपियों का आख्यान; चीरहरण लीला और वरदान प्राप्ति का वर्णन कहा गया है। चौथे अध्याय में कोसलप्रान्तीय स्त्रियोंका व्रजमें गोपी होकर श्रीकृष्णके प्रति अनन्यभावसे प्रेम करना और पांचवे अध्याय में अयोध्या वासिनी गोपियों के आख्यान के प्रसङ्ग में राजा विमल की संतान के लिये चिन्ता तथा महामुनि याज्ञवल्क्य द्वारा उन्हें बहुत-सी पुत्री होनेका विश्वास दिलाया गया है।

यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक

श्री गर्ग संहिता माधुर्यखण्ड

पहला अध्याय

श्रुतिरूपा गोपियोंका वृत्तान्त, उनका श्रीकृष्ण और दुर्वासामुनिकी बातोंमें संशय तथा श्रीकृष्णद्वारा उसका निराकरण

अतसीकुसुमोपमेयकान्तिर्यमुनाकूलकदम्बमूलवर्ती ।
नवगोपवधूविलासशाली वनमाली वितनोतु मङ्गलानि ॥

‘जिनकी अङ्गकान्तिको अलसीके फूलकी उपमा दी जाती है, जो यमुनाकूलवर्ती कदम्बवृक्षके मूलभागमें विद्यमान हैं तथा नूतन गोपाङ्गनाओंके साथ लीला- विलास करते हुए अत्यन्त शोभा पा रहे हैं, वे वनमाली श्रीकृष्ण मङ्गलका विस्तार करें’ ॥१॥

परिकरीकृतपीतपटं हरिं शिखिकिरीटनतीकृतकन्धरम् ।
लकुटवेणुकरं चलकुण्डलं पटुतरं नटवेषधरं भजे ॥

‘जिन्होंने पीताम्बरकी फेंट बाँध रखी है, जिनके मस्तकपर मोरपंखका मुकुट सुशोभित है और गर्दन एक ओर झुकी हुई है, जो लकुटी और वंशी हाथमें लिये हुए हैं और जिनके कानोंमें चञ्चल कुण्डल झलमला रहे हैं, उन परम पटु, नटवेषधारी श्रीकृष्णका मैं भजन (ध्यान) करता हूँ ॥२॥

बहुलाश्वने पूछा – मुने ! श्रुतिरूपा आदि गोपियोंने, जो पूर्वप्रदत्तवरके अनुसार पहले ही व्रजमें प्रकट हो चुकी थीं, किस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रका साहचर्य पाकर अपना मनोरथ पूर्ण किया था? महाबुद्धे ! गोपाल श्रीकृष्णचन्द्रका चरित्र परम अद्भुत है, इसे कहिये; क्योंकि आप परापरवेत्ताओंमें सबसे श्रेष्ठ हैं ॥ ३-४ ॥(Madhuryakhand Chapter 1 to 5)

श्रीनारदजीने कहा- विदेहराज ! श्रुतिरूपा जो गोपियाँ थीं, वे शेषशायी भगवान् विष्णुके पूर्वकथित वरसे व्रजवासी गोपोंके उत्तम कुलमें उत्पन्न हुईं। उन सबने वृन्दावनमें परम कमनीय नन्दनन्दनका दर्शन करके उन्हें वररूपमें पानेकी इच्छासे वृन्दावनेश्वरी वृन्दादेवीकी समाराधना की। वृन्दाके दिये हुए वरसे भक्तवत्सल भगवान् श्रीहरि उनके ऊपर शीघ्र प्रसन्न हो गये और प्रतिदिन उनके घरोंमें रासक्रीड़ाके लिये जाने लगे। नरेश्वर! एक दिन रातमें दो पहर बीत जानेपर भगवान् श्रीकृष्ण रासके लिये उनके घर गये। उस समय उत्कण्ठित गोपियोंने उन परम प्रभुका अत्यन्त भक्ति- भावसे पूजन करके मधुर वाणीमें पूछा ॥५-९॥

गोपियाँ बोलीं- अघनाशन श्रीकृष्ण ! जैसे चकोरी चन्द्रदर्शनके लिये उत्सुक रहती है, उसी प्रकार हम गोपाङ्गनाएँ आपसे मिलनेको उत्कण्ठित रहती हैं। अतः आप हमारे घरमें शीघ्र क्यों नहीं आये ? ॥ १० ॥

श्रीभगवान्ने कहा- प्रियाओ! जो जिसके हृदयमें वास करता है, वह उससे दूर कभी नहीं रहता। देखो न, सूर्य तो आकाशमें है और कमल भूमिपर; फिर भी वह उन्हें देखते ही खिल उठता है (वह सूर्यको अपने अत्यन्त निकटस्थ अनुभव करता है)। प्रियाओ ! आज मेरे साक्षात् गुरु भगवान् दुर्वासामुनि भाण्डीर- वनमें पधारे हैं। उन्हींकी सेवाके लिये मैं चला गया था। गुरु ब्रह्मा हैं, गुरु विष्णु हैं, गुरु भगवान् महेश्वर हैं और गुरु साक्षात् परम ब्रह्म हैं। उन श्रीगुरुको मेरा नमस्कार है। अज्ञानरूपी रतौंधीसे अंधे हुए मनुष्यकी दृष्टिको जिन्होंने ज्ञानाञ्जनकी शलाकासे खोल दिया है, उन श्रीगुरुदेवको नमस्कार है। अपने गुरुको मेरा स्वरूप ही समझना चाहिये और कभी उनकी अवहेलना नहीं करनी चाहिये। गुरु सम्पूर्ण देवताओंके स्वरूप होते हैं। अतः साधारण मनुष्य समझकर उनकी सेवा नहीं करनी चाहिये। हे प्रियाओ! मैं उनका पूजन करके तथा उनके चरणकमलोंमें प्रणाम करके तुम्हारे घर देरीसे पहुँचा हूँ ॥ ११-१६ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन्! श्रीकृष्णका यह उत्तम वचन सुनकर समस्त गोपाङ्गनाओंको बड़ा विस्मय हुआ। वे हाथ जोड़कर सिर झुकाकर श्रीकृष्ण- से बोलीं ॥ १७ ॥

गोपियोंने कहा- प्रभो! यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है। आप स्वयं परिपूर्णतम परमेश्वरके भी गुरु दुर्वासामुनि हैं, यह जानकर हमारा मन उनके दर्शनके लिये उत्सुक हो उठा है। देव! परमेश्वर!! आज रातके दो पहर बीत जानेपर उनका दर्शन हमें कैसे प्राप्त हो सकता है। बीचमें विशाल नदी यमुना प्रतिबन्धक बनकर खड़ी है; अतः देव! बिना किसी नावके यमुनाजीको पार करना कैसे सम्भव होगा ? ॥१८-२० ॥(Madhuryakhand Chapter 1 to 5)

श्रीभगवान् बोले- प्रियाओ! यदि तुमलोगों- को अवश्य ही वहाँ जाना है तो यमुनाजीके पास पहुँचकर मार्ग प्राप्त करनेके लिये इस प्रकार कहना- ‘यदि श्रीकृष्ण बालब्रह्मचारी और सब प्रकारके दोषोंसे रहित हैं तो सरिताओंमें श्रेष्ठ यमुनाजी! हमारे लिये मार्ग दे दो।’ यह बात कहनेपर यमुना तुम्हें स्वतः मार्ग दे देंगी। उस मार्गसे तुम सभी व्रजाङ्गनाएँ सुखपूर्वक चली जाना ॥ २१-२३ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उनका यह वचन सुनकर सभी गोपियाँ अलग-अलग विशाल पात्रोंमें छप्पन भोग लेकर यमुनाजीके तटपर गयीं और सिर झुकाकर उन्होंने श्रीकृष्णकी कही हुई बात दुहरा दी। मैथिलेश्वर! फिर तो तत्काल यमुनाजीने उन गोपियोंके लिये मार्ग दे दिया। उस मार्गसे सभी गोपियाँ अत्यन्त विस्मित हो, भाण्डीर-वटके पास पहुंचीं। वहाँ उन्होंने दुर्वासामुनिकी परिक्रमा की और उनके आगे बहुत-सी भोजन सामग्री रखकर उनका दर्शन किया। फिर सब- की-सब कहने लगीं- ‘मुने। पहले मेरा अन्न ग्रहण कीजिये, पहले मेरा अन्न भोजन कीजिये।’ इस तरह परस्पर विवाद करती हुई गोपियाँका भक्तिसूचक भाव जानकर मुनिश्रेष्ठ दुर्वासाने यह विमल वचन कहा ॥ २४-२८ ॥

मुनि बोले- गोपियो ! मैं कृतकृत्य परमहंस हूँ, निष्क्रिय हूँ। इसलिये तुमलोग अपना-अपना भोजन अपने ही हाथोंसे मेरे मुँहमें डाल दो ॥ २९ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन्! यों कहकर जब उन्होंने अपना मुँह फैलाया, तब सभी गोपियोंने अत्यन्त हर्षके साथ अपने-अपने छप्पन भोगोंको उनके मुँहमें एक साथ ही डालना आरम्भ किया। अन्न डालती हुई उन गोपियोंके देखते-देखते मुनीश्वर दुर्वासा क्षुधासे पीड़ितकी भाँति उन समस्त भोगोंको, जो करोड़ों भारसे कम न थे, चट कर गये। गोपियाँ आश्चर्यचकित हो एक- दूसरीकी ओर देखने लगीं। नृपश्रेष्ठ। इस तरह उनके सारे बर्तन खाली हो गये। तत्पश्चात् उन परम शान्त और भक्तवत्सल मुनिको विस्मित हुई सभी गोपियोंने पूर्णमनोरथ होकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा ॥ ३०-३३ ॥

गोपियोंने कहा- मुने! यहाँ आनेसे पूर्व श्रीकृष्णकी कही हुई बात दुहराकर मार्ग मिल जानेसे यमुनाजीको पार करके हमलोग आपके समीप दर्शन- की शुभ इच्छा लेकर यहाँ आ गयी थीं। अब इधरसे हम कैसे जायेंगी, यह महान् संदेह हमारे मनमें हो गया है! अतः आप ही ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे मार्ग हलका हो जाय ॥ ३४-३५ ॥

मुनि बोले- गोपियो ! तुम सब यहाँसे सुखपूर्वक चली जाओ। जब यमुनाजीके किनारे पहुँचो, तब मार्गके लिये इस प्रकार कहना- ‘यदि दुर्वासामुनि इस भूतलपर केवल दुर्वाका रस पीकर रहते हों, कभी अन्न और जल न लेकर व्रतका पालन करते हों तो सरिताओंकी शिरोमणि यमुनाजी! हमें मार्ग दे दो।’ ऐसी बात कहनेपर यमुनाजी तुम्हें स्वतः मार्ग दे देंगी ॥ ३६-३८ ॥(Madhuryakhand Chapter 1 to 5)

श्रीनारदजी कहते हैं- नरेश्वर! यह सुनकर गोपियाँ उन मुनिपुंगवको प्रणाम करके यमुनाके तटपर आयीं और मुनिकी बतायी हुई बात कहकर नदी पार हो श्रीकृष्णके पास आ पहुँचीं। वे मङ्गलधामा गोपियाँ इस यात्राके विचित्र अनुभवसे विस्मित थीं। तदनन्तर रासमें गोपाङ्गनाओंने श्रीकृष्णकी ओर देखकर अपने मनमें उठे हुए संदेहको उनसे पूछा। एकान्तमें श्रीहरिने उन सबका मनोरथ पूर्ण कर दिया था ॥ ३९-४१ ॥

गोपियाँ बोलीं- प्रभो! हमने दुर्वासा मुनिका दर्शन उनके सामने जाकर किया है; किंतु आप दोनोंके वचनोंको सुनकर उनकी सत्यताके सम्बन्धमें हमारे मनमें संदेह उत्पन्न हो गया है। जैसे गुरुजी असत्यवादी हैं, उसी तरह चेलाजी भी मिथ्यावादी हैं- इसमें संशय नहीं है। अघनाशन! आप तो गोपियोंके उपपति और बचपनसे ही रसिक हैं, फिर आप बाल-ब्रह्मचारी कैसे हुए यह हमें स्पष्ट बताइये; और हमारे सामने बहुत- सा अन्न (भार-के-भार छप्पन भोग) खा जानेवाले ये दुर्वासामुनि केवल दूर्वाका रस पीकर रहनेवाले कैसे हैं? व्रजेश्वर! हमारे मनमें यह भारी संदेह उठा है।॥४२-४४३॥

श्रीभगवान्ने कहा- गोपियो ! मैं ममता और अहंकारसे रहित, सबके प्रति समान भाव रखने- वाला, सर्वव्यापी, सबसे उत्कृष्ट, सदा विषमताशून्य तथा प्राकृत गुणोंसे रहित हूँ इसमें संशय नहीं है। तथापि जो भक्त मेरा जिस प्रकार भजन करते हैं, उनका उसी प्रकार मैं भी भजन करता हूँ। इसी प्रकार ज्ञानी साधु-महात्मा भी सदा विषम भावनासे रहित होते हैं। योगयुक्त विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह कर्मोंमें आसक्त हुए अज्ञानीजनोंमें बुद्धि-भेद न उत्पन्न करे। उनसे सदा समस्त कर्मोंका सेवन ही कराये। जिस पुरुषके सभी समारम्भ (आयोजन) कामना और संकल्पसे शून्य होते हैं, उनके सारे कर्म ज्ञानरूपी अग्रिमें दग्ध हो जाते हैं (अर्थात् उनके लिये वे कर्म बन्धनकारक नहीं होते)। ऐसे पुरुषको ज्ञानीजन पण्डित (तत्त्वज्ञ) कहते हैं। जिसके मनमें कोई कामना नहीं है, जिसने चित्त और बुद्धिको अपने वशमें कर रखा है तथा जो समस्त संग्रह-परिग्रह छोड़ चुका है, वह केवल शरीर-निर्वाह-सम्बन्धी कर्म करता हुआ किल्विष (कर्मजनित शुभाशुभ फल) को नहीं प्राप्त होता। इस संसारमें ज्ञानके समान पवित्र दूसरी कोई वस्तु नहीं है। योगसिद्ध पुरुष समयानुसार स्वयं ही अपने-आपमें उस ज्ञानको प्राप्त कर लेता है। जो समस्त कर्मोंको ब्रह्मार्पण करके आसक्ति छोड़कर कर्म करता है, वह पापसे उसी प्रकार लिप्त नहीं होता, जैसे कमलका पत्र जलसे। इसलिये दुर्वासामुनि तुम सबके हित साधनमें तत्पर होकर बहुत खानेवाले हो गये। स्वतः उन्हें कभी भोजनकी इच्छा नहीं होती। वे केवल परिमित दूर्वारसका ही आहार करते हैं ॥ ४५-५२॥

श्रीनारदजी कहते हैं- मैथिलेश्वर! श्रीकृष्णका यह वचन सुनकर समस्त गोपियोंका संशय नष्ट हो गया। वे श्रुतिरूपा गोपाङ्गनाएँ ज्ञानमयी हो गयीं ॥५३ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व-संवादमें ‘श्रुतिरूपा गोपियोंका उपाख्यान’ नामक पहला अध्याय पूरा हुआ ॥ १ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ सनातन धर्म में कितने शास्त्र-षड्दर्शन हैं।

दूसरा अध्याय

ऋषिरूपा गोपियोंका उपाख्यान- वङ्गदेशके मङ्गल-गोपकी कन्याओंका नन्दराजके
व्रजमें आगमन तथा यमुनाजीके तटपर रासमण्डलमें प्रवेश

श्रीनारदजी कहते हैं- मैथिल ! अब तुम ऋषिरूपा गोपियोंकी कथा सुनो। वह सब पापोंको हर लेनेवाली, परम पावन तथा श्रीकृष्णके प्रति भक्ति- भावकी वृद्धि करनेवाली है। वङ्गदेशमें मङ्गल नामसे प्रसिद्ध एक महामनस्वी गोप था, जो लक्ष्मीवान्, शास्त्रज्ञान से सम्पन्न तथा नौ लाख गौओंका स्वामी था। मिथिलेश्वर! उसके पाँच हजार पत्नियाँ थीं। किसी समय दैवयोगसे उसका सारा धन नष्ट हो गया। चोरोंने उसकी गौओंका अपहरण कर लिया। कुछ गौओंको उस देशके राजाने बलपूर्वक अपने अधिकारमें कर लिया। इस प्रकार दीनता प्राप्त होनेपर मङ्गल-गोप बहुत दुःखी हो गया। उन्हीं दिनों श्रीरामचन्द्रजीके वरदानसे स्त्रीभावको प्राप्त हुए दण्डकारण्यके निवासी ऋषि उसकी कन्याएँ हो गये। उस कन्या-समूहको देखकर दुःखी गोप मङ्गल और भी दुःखमें डूब गया और आधि-व्याधिसे व्याकुल रहने लगा। उसने मन- ही-मन इस प्रकार कहा ॥ १-६ ॥

मङ्गल बोला- क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? कौन मेरा दुःख दूर करेगा? इस समय मेरे पास न तो लक्ष्मी है, न ऐश्वर्य है, न कुटुम्बीजन हैं और न कोई बल ही है। हाय! धनके बिना इन कन्याओंका विवाह कैसे होगा? जहाँ भोजनमें भी संदेह हो, वहाँ धनकी कैसी आशा ? दीनता तो थी ही। काकतालीय न्यायसे कन्याएँ भी इस घरमें आ गयीं। इसलिये किसी धनवान् और बलवान् राजाको ये कन्याएँ अर्पित करूँगा, तभी इन कन्याओंको सुख मिलेगा ॥७-९३ ॥(Madhuryakhand Chapter 1 to 5)

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार उन कन्याओंकी कोई परवा न करके उसने अपनी ही बुद्धिसे ऐसा निश्चय कर लिया और उसीपर डटा रहा। उन्हीं दिनों मथुरा मण्डल से एक गोप उसके यहाँ आया। वह तीर्थयात्री था। उसका नाम था जय। वह बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ और वृद्ध था। उसके मुखसे मङ्गलने नन्दराजके अद्भुत वैभवका वर्णन सुना। दीनतासे पीड़ित मङ्गलने बहुत सोच-विचारकर अपनी चारु- लोचना कन्याओंको नन्दराजके व्रजमण्डलमें भेज दिया। नन्दराजके घरमें जाकर वे रत्नमय भूषणोंसे विभूषित कन्याएँ उनके गोष्ठमें गौओंका गोबर उठानेका काम करने लगीं। वहाँ सुन्दर श्रीकृष्णको देखकर उन कन्याओंको अपने पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण हो आया और वे श्रीकृष्णकी प्राप्तिके लिये नित्य यमुनाजीकी सेवा-पूजा करने लगीं। तदनन्तर एक दिन श्यामल अङ्गोंवाली विशाललोचना यमुनाजी उन सबको दर्शन दे, वर-प्रदान करनेके लिये उद्यत हुईं। उन गोपकन्याओंने यह वर माँगा कि ‘व्रजेश्वर नन्दराजके पुत्र श्रीकृष्ण हमारे पति हों।’ तब ‘तथास्तु’ कहकर यमुना वहीं अन्तर्धान हो गयीं। वे सब कन्याएँ वृन्दावनमें कार्तिक पूर्णिमाकी रातको रासमण्डलमें पहुंचीं। वहाँ श्रीहरिने उनके साथ उसी तरह विहार किया, जैसे देवाङ्गनाओंके साथ देवराज इन्द्र किया करते हैं॥१०-१७ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘ऋषिरूपा गोपियाँका उपाख्यान’ नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥२॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ चाणक्य नीति प्रथम अध्याय

तीसरा अध्याय

मैथिलीरूपा गोपियोंका आख्यान; चीरहरणलीला और वरदान-प्राप्ति

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! मिथिलेश्वर ! अब मिथिलादेशमें उत्पन्न गोपियोंका आख्यान सुनो। यह दशाश्वमेध-तीर्थपर स्रानका फल देनेवाला और भक्ति-भावको बढ़ानेवाला है। श्रीरामचन्द्रजीके वरसे जो नौ नन्दोंके घरोंमें उत्पन्न हुई थीं, वे मैथिलीरूपा गोपकन्याएँ परम कमनीय नन्दनन्दनका दर्शन करके मोहित हो गयीं। उन्होंने मार्गशीर्षके शुभ मासमें कात्यायनीका व्रत किया और उनकी मिट्टीकी प्रतिमा बनाकर वे षोडशोपचारसे उसकी पूजा करने लगीं। अरुणोदयकी वेलामें वे प्रतिदिन एक साथ भगवान्के गुण गाती हुई आर्ती और श्रीयमुनाजीके जलमें स्नान करती थीं। एक दिन वे व्रजाङ्गनाएँ अपने वस्त्र यमुनाजीके किनारे रखकर उनके जलमें प्रविष्ट हुई और दोनों हाथोंसे जल उलीचकर एक-दूसरीको भिगोती हुई जल-विहार करने लगीं। प्रातःकाल भगवान् श्यामसुन्दर वहाँ आये और तुरंत उन सबके वस्त्र लेकर कदम्बपर आरूढ़ हो चोरकी तरह चुपचाप बैठ गये। राजन् ! अपने वस्त्रोंको न देखकर वे गोपकन्याएँ बड़े विस्मयमें पड़ीं तथा कदम्बपर बैठे हुए श्यामसुन्दरको देखकर लजा गयीं और हँसने लगीं। तब वृक्षपर बैठे हुए श्रीकृष्ण उन गोपियोंसे कहने लगे-‘तुम सब लोग यहाँ आकर अपने अपने कपड़े ले जाओ, अन्यथा मैं नहीं दूंगा।’ राजन् ! तब वे गोपकन्याएँ शीतल जलके भीतर खड़ी-खड़ी हँसती हुई लज्जासे मुँह नीचे किये बोलीं ॥१-९॥(Madhuryakhand Chapter 1 to 5)

गोपियोंने कहा- हे मनोहर नन्दनन्दन ! हे गोपरन! हे गोपाल-वंशके नूतन हंस! हे महान् पीड़ाको हर लेनेवाले श्रीश्यामसुन्दर ! तुम जो आज्ञा करोगे, वही हम करेंगी। तुम्हारी दासी होकर भी हम यहाँ वस्त्रहीन होकर कैसे रहें? आप गोपियोंके वस्त्र लूटनेवाले और माखनचोर हैं। व्रजमें जन्म लेकर भी बड़े रसिक हैं। भय तो आपको छू नहीं सका है। हमारा वस्त्र हमें लौटा दीजिये; नहीं तो हम मथुरा- नरेशके दरबारमें आपके द्वारा इस अवसरपर की गयी बड़ी भारी अनीतिकी शिकायत करेंगी ॥ १०-११॥

श्रीभगवान् बोले- सुन्दर मन्दहास्यसे सुशोभित होनेवाली गोपाङ्गनाओ! यदि तुम मेरी दासियाँ हो तो इस कदम्बकी जड़के पास आकर अपने वस्त्र ले लो। नहीं तो मैं इन सब वस्त्रोंको अपने घर उठा ले जाऊँगा। अतः तुम अविलम्ब मेरे कथनानुसार कार्य करो ॥ १२ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन्। तब वे सब व्रजवासिनी गोपियाँ अत्यन्त काँपती हुई जलसे बाहर निकलीं और आनत-शरीर हो, हाथोंसे योनिको ढककर शीतसे कष्ट पाते हुए श्रीकृष्णके हाथसे दिये गये वस्त्र लेकर उन्होंने अपने अङ्गोंमें धारण किये। इसके बाद श्रीकृष्णको लजीली आँखोंसे देखती हुई वहाँ मोहित हो खड़ी रहीं। उनके परम प्रेमसूचक अभिप्रायको जानकर मन्द-मन्द मुस्कराते हुए श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण उनपर चारों ओरसे दृष्टिपात करके इस प्रकार बोले ॥१३-१५ ॥

श्रीभगवान्ने कहा- गोपाङ्गनाओ! तुमने मार्गशीर्ष मासमें मेरी प्राप्तिके लिये जो कात्यायनी व्रत किया है, वह अवश्य सफल होगा- इसमें संशय नहीं है। परसों दिनमें वनके भीतर यमुनाके मनोहर तटपर मैं तुम्हारे साथ रास करूँगा, जो तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करनेवाला होगा ॥ १६-१७ ॥(Madhuryakhand Chapter 1 to 5)

यों कहकर परिपूर्णतम श्रीहरि जब चले गये, तब आनन्दोल्लाससे परिपूर्ण हो मन्दहासकी छटा बिखेरती हुई वे समस्त गोप-बालाएँ अपने घरोंको गयीं ॥ १८ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘मैथिलीरूपा गोपियोंका उपाख्यान’ नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ ॥३॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ अगस्त्य संहिता

चौथा अध्याय

कोसलप्रान्तीय स्त्रियोंका व्रजमें गोपी होकर श्रीकृष्णके प्रति अनन्यभावसे प्रेम करना

श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! अब कोसल-प्रदेशकी गोपिकाओंका वर्णन सुनो। यह श्रीकृष्ण-चरितामृत समस्त पापोंका नाश करनेवाला तथा पुण्य-जनक है। कोसलप्रान्त की स्त्रियाँ श्रीरामके वरसे व्रजमें नौ उपनन्दोंके घरोंमें उत्पन्न हुईं और व्रजके गोपजनोंके साथ उनका विवाह हो गया। वे सब-की-सब रत्नमय आभूषणोंसे विभूषित थीं। उनकी अङ्गकान्ति पूर्ण चन्द्रमाकी चाँदनीके समान थी। वे नूतन यौवनसे सम्पन्न थीं। उनकी चाल हंसके समान थी और नेत्र प्रफुल्ल कमलदलके समान विशाल थे। वे पद्मिनी जातिकी नारियाँ थीं। उन्होंने कमनीय महात्मा नन्द-नन्दन श्रीकृष्णके प्रति जारधर्मके अनुसार उत्तम, सुदृढ़ तथा सबसे अधिक स्नेह किया ॥ १-४॥

व्रजकी गलियोंमें माधव मुस्कराकर पीताम्बर छीनकर और आँचल खींचकर उनके साथ सदा हास परिहास किया करते थे। वे गोपबालाएँ जब दही बेचनेके लिये निकलतर्ती तो ‘दही लो, दही लो’- यह कहना भूलकर ‘कृष्ण लो, कृष्ण लो’ कहने लगती थीं। श्रीकृष्णके प्रति प्रेमासक्त होकर वे कुञ्जमण्डलमें घूमा करती थीं। आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, नक्षत्र-मण्डल, सम्पूर्ण दिशा, वृक्ष तथा जनसमुदायोंमें भी उन्हें केवल कृष्ण ही दिखायी देते थे। प्रेमके समस्त लक्षण उनमें प्रकट थे। श्रीकृष्णने उनके मन हर लिये थे। वे सारी व्रजाङ्गनाएँ आठों सात्त्विक भावोंसे सम्पन्न थीं ॥५-८॥(Madhuryakhand Chapter 1 to 5)

प्रेमने उन सबको परमहंसों (ब्रह्मनिष्ठ महात्माओं) की अवस्थाको पहुँचा दिया था। नरेश्वर! वे कान्तिमती गोपाङ्गनाएँ श्रीकृष्णके आनन्दमें ही मन हो व्रजकी गलियोंमें विचरा करती थीं। उनमें जड-चेतनका भान नहीं रह गया था। वे जड, उन्मत्त और पिशाचोंकी भाँति कभी मौन रहतीं और कभी बहुत बोलने लगती थीं। वे लाज और चिन्ताको तिलाञ्जलि दे चुकी थीं। इस प्रकार कृतार्थ होकर जो श्रीकृष्णमें तन्मय हो रही थीं, वे गोपाङ्गनाएँ बलपूर्वक खींचकर श्रीकृष्णके मुखार- विन्दको चूम लेती थीं। राजन्। उनके तपका मैं क्या वर्णन करूँ? जो सारे लोक-व्यवहार एवं मर्यादा मार्गको तिलाञ्जलि देकर हृदय तथा इन्द्रिय आदिके द्वारा पूर्ण परब्रह्म वासुदेवमें अविचल प्रेम करती थीं; जो रास-क्रीडामें श्रीकृष्णके कंधोंपर अपनी बाँहे रखकर, प्रेमसे विगलितचित्त हो श्रीकृष्णको पूर्णतया अपने वशमें कर चुकी थीं; उनकी तपस्याका अपने सहस्रमुखोंसे वर्णन करनेमें नागराज शेष भी समर्थ नहीं हैं। विदेहराज ! न्याय-वैशेषिक आदि दर्शनोंके तत्त्वज्ञोंमें श्रेष्ठतम महात्मा योग-सांख्य और शुभ- कर्मद्वारा जिस पदको प्राप्त करते हैं, वही पद केवल भक्ति-भावसे उपलब्ध हो जाता है। आदिदेव श्रीहरि केवल भक्तिसे ही वशमें होते हैं, निश्चय ही इस विषयमें सदा गोपियाँ ही प्रमाण हैं। उन्होंने कभी सांख्य और योगका अनुष्ठान नहीं किया, तथापि केवल प्रेमसे ही वे भगवत्स्वरूपताको प्राप्त हो गयीं ॥ ९-१५॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘कोसलप्रान्तीय गोपिकाओंका आख्यान’ नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ ॥ ४॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ सुश्रुत संहिता

पाँचवाँ अध्याय

अयोध्यावासिनी गोपियोंके आख्यानके प्रसङ्गमें राजा विमलकी संतानके लिये चिन्ता तथा महामुनि याज्ञवल्क्यद्वारा उन्हें बहुत-सी पुत्री होनेका विश्वास दिलाना

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन्! अब अयोध्या- वासिनी गोपियोंका वर्णन सुनो, जो चारों पदार्थोंको देनेवाला तथा साक्षात् श्रीकृष्णकी प्राप्ति करानेवाला सर्वोत्कृष्ट साधन है ॥१॥

मिथिलेश्वर! सिन्धुदेशमें चम्पका नामसे प्रसिद्ध एक नगरी थी, जिसमें धर्मपरायण विमल नामक राजा हुए थे। वे कुबेरके समान कोषसे सम्पन्न तथा सिंहके समान मनस्वी थे। वे भगवान् विष्णुके भक्त और प्रशान्तचित्त महात्मा थे। वे अपनी अविचल भक्तिके कारण मूर्तिमान् प्रह्लाद-से प्रतीत होते थे। उन भूपालके छः हजार रानियाँ थीं। वे सब-की-सब सुन्दर रूपवाली तथा कमलनयनी थीं, परंतु भाग्यवश वे वन्ध्या हो गयीं। राजन् ! ‘मुझे किस पुण्यसे उत्तम संतानकी प्राप्ति होगी?’ – ऐसा विचार करते हुए राजा विमलके बहुत वर्ष व्यतीत हो गये ॥ २-५ ॥(Madhuryakhand Chapter 1 to 5)

एक दिन उनके यहाँ मुनिवर याज्ञवल्क्य पधारे। राजाने उनको प्रणाम करके उनका विधिवत् पूजन किया और फिर उनके सामने वे विनीतभावसे खड़े हो गये। नृपतिशिरोमणि राजाको चिन्तासे आकुल देख सर्वज्ञ, सर्ववित् तथा शान्तस्वरूप महामुनि याज्ञवल्क्यने उनसे पूछा ॥ ६-७ ॥

याज्ञवल्क्य बोले- राजन् ! तुम दुर्बल क्यों हो गये हो ? तुम्हारे हृदयमें कौन-सी चिन्ता खड़ी हो गयी है ? इस समय तुम्हारे राज्यके सातों अङ्गोंमें तो कुशल- मङ्गल ही दिखायी देता है? ॥८॥

विमलने कहा – ब्रह्मन्। आप अपनी तपस्या एवं दिव्यदृष्टिसे क्या नहीं जानते हैं? तथापि आपकी आज्ञाका गौरव मानकर मैं अपना कष्ट बता रहा हूँ। मुनिश्रेष्ठ ! मैं संतानहीनताके दुःखसे चिन्तित हूँ। कौन-सा तप और दान करूँ, जिससे मुझे संतानकी प्राप्ति हो ॥ ९-१०॥

श्रीनारदजी कहते हैं- विमलकी यह बात सुनकर याज्ञवल्क्यमुनिके नेत्र ध्यानमें स्थित हो गये। वे मुनिश्रेष्ठ भूत और वर्तमानका चिन्तन करते हुए दीर्घकालतक ध्यानमें मग्न रहे ॥११॥

याज्ञवल्क्य बोले- राजेन्द्र ! इस जन्ममें तो तुम्हारे भाग्यमें पुत्र नहीं है, नहीं है, परंतु नृपश्रेष्ठ ! तुम्हें पुत्रियाँ करोड़ोंकी संख्यामें प्राप्त होंगी ॥१२॥

राजाने कहा- मुनीन्द्र ! पुत्रके बिना कोई भी इस भूतलपर पूर्वजोंके ऋणसे मुक्त नहीं होता। पुत्रहीनके घरमें सदा ही व्यथा बनी रहती है। उसे इस लोक या परलोकमें कुछ भी सुख नहीं मिलता ॥ १३ ॥

याज्ञवल्क्य बोले- राजेन्द्र ! खेद न करो। भविष्यमें भगवान् श्रीकृष्णका अवतार होनेवाला है। तुम उन्हींको दहेजके साथ अपनी सब पुत्रियाँ समर्पित कर देना। नृपश्रेष्ठ! उसी कर्मसे तुम देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंके ऋणसे छूटकर परममोक्ष प्राप्त कर लोगे ॥ १४-१५ ॥(Madhuryakhand Chapter 1 to 5)

श्रीनारदजी कहते हैं- महामुनिका यह वचन सुनकर उस समय राजाको बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने महर्षि याज्ञवल्क्यसे पुनः अपना संदेह पूछा ? ॥ १६ ॥

राजा बोले- मुनीश्वर ! कितने वर्ष बीतनेपर किस देशमें और किस कुलमें साक्षात् श्रीहरि अवतीर्ण होंगे? उस समय उनका रूप-रंग क्या होगा ? ॥ १७ ॥

याज्ञवल्क्य बोले – महाबाहो। इस द्वापरयुगके जो अवशेष वर्ष हैं, उन्हींमें तुम्हारे राज्यकालसे एक सौ पंद्रह वर्ष व्यतीत होनेपर यादवपुरी मथुरामें यदुकुलके भीतर भाद्रपदमास, कृष्णपक्ष, बुधवार, रोहिणी नक्षत्र, हर्षण योग, वृषलग्र, वव करण और अष्टमी तिथिमें आधी रातके समय चन्द्रोदय-कालमें, जब कि सब कुछ अन्धकारसे आच्छन्न होगा, वसुदेव-भवनमें देवकीके गर्भसे साक्षात् श्रीहरिका आविर्भाव होगा- ठीक उसी तरह जैसे यज्ञमें अरणि-काष्ठसे अग्निका प्राकट्य होता है। भगवान्के वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न होगा। उनकी अङ्गकान्ति मेघके समान श्याम होगी। वे वनमालासे अलंकृत और अतीव सुन्दर होंगे। पीताम्बरधारी, कमलनयन तथा अवतारकालमें चतुर्भुज होंगे। तुम उन्हें अपनी कन्याएँ देना। तुम्हारी आयु अभी बहुत है। तुम उस समयतक जीवित रहोगे, इसमें संशय नहीं है॥ १८-२२ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘अयोध्यावासिनी गोपाङ्गनाओंका उपाख्यान’ नामक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५॥

यहां पढ़े श्री गर्ग संहिता के माधुर्यखण्ड छठे अध्याय से ग्यारहवाँ अध्याय तक

 

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