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Garga Samhita Madhuryakhand Chapter 20 to 24

Garga Samhita
Garga Samhita Madhuryakhand Chapter 20 to 24

॥ श्रीहरिः ॥

ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते

श्रीसरस्वत्यै नमः

Garga Samhita Madhuryakhand Chapter 20 to 24 |
श्री गर्ग संहिता के माधुर्यखण्ड अध्याय 20 से 24 तक

श्री गर्ग संहिता के माधुर्यखण्ड बीसवाँ अध्याय से चौबीसवाँ (Madhuryakhand Chapter 20 to 24) अध्याय में बलदेवजी के हाथ से प्रलम्बासुर का वध तथा उस के पूर्वजन्म का परिचय, दावानल से गौओं और ग्वालों का छुटकारा तथा विप्रपत्नियों को श्री कृष्ण का दर्शन, श्री कृष्ण का नन्दराज को वरुणलोक से ले आना और गोप-गोपियों को वैकुण्ठधाम का दर्शन कराना, अम्बिका वन में अजगर से नन्दराज की रक्षा तथा सुदर्शन नामक विद्याधर का उद्धार और अरिष्टासुर और व्योमासुर का वध तथा माधुर्यखण्ड का उपसंहार कहा गया है।

यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक

बीसवाँ अध्याय

बलदेवजीके हाथसे प्रलम्बासुरका वध तथा उसके पूर्वजन्मका परिचय

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार यमुनाजीका सहस्त्रनामस्तोत्र सुनकर वीरभूप-शिरोमणि मांधाता सौभरिमुनिको नमस्कार करके अयोध्यापुरीको चले गये। यह मैंने तुमसे गोपियोंके शुभ चरित्रका वर्णन किया, जो महान् पापोंको हर लेनेवाला और पुण्यप्रद है। बताओ और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ १-२ ॥

बहुलाश्व बोले- ब्रह्मन् ! मैंने आपके मुखसे गोपियोंके चरित्रका उत्तम वर्णन सुना। साथ ही यमुनाके पञ्चाङ्गका भी श्रवण किया, जो बड़े-बड़े पातकोंका नाश करनेवाला है। साक्षात् गोलोकके अधिपति भगवान् श्रीकृष्णने बलरामजीके साथ व्रजमण्डलमें आगे कौन-कौन-सी मनोहर लीलाएँ कीं, यह बताइये ॥ ३-४ ॥

श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! एक दिन श्रीबलराम और ग्वाल-बालोंके साथ अपनी गौएँ चराते हुए श्रीकृष्ण भाण्डीरवनमें यमुनाजीके तटपर बालोचित खेल खेलने लगे। बालकोंसे वाह्य- वाहनका खेल करवाते हुए श्रीकृष्ण मनोहर गौओंकी देख-भाल करते हुए वनमें विहार करते थे। (इस खेलमें कुछ लड़के वाहन घोड़ा आदि बनते और कुछ उनकी पीठपर सवारी करते थे।) उस समय वहाँ कंसका भेजा हुआ असुर प्रलम्ब गोपरूप धारण करके आया। दूसरे ग्वाल-बाल तो उसे न पहचान सके, किंतु भगवान् श्रीकृष्णसे उसकी माया छिपी न रही। खेलमें हारनेवाला बालक जीतनेवालेको पीठपर चढ़ाता था; किंतु जब बलरामजी जीत गये, तब उन्हें कोई भी पीठपर चढ़ानेको तैयार नहीं हुआ। उस समय प्रलम्बासुर ही उन्हें भाण्डीरवनसे यमुनातटतक अपनी पीठपर चढ़ाकर ले जाने लगा। एकनिश्चित स्थान था, जहाँ ढोकर ले जानेवाला बालक अपनी पीठपर चढ़े हुए बालकको उतार देता था; परंतु प्रलम्बासुर उतारनेके स्थानपर पहुँचकर भी उन्हें उतारे बिना ही मथुरातक ले जानेको उद्यत हो गया। उसने बादलोंकी घोर घटाकी भाँति भयानक रूप धारण कर लिया और विशाल पर्वतके समान दुर्गम हो गया। उस दैत्यकी पीठपर बैठे हुए सुन्दर बलरामजीके कानोंमें कान्तिमान् कुण्डल हिल रहे थे। ऐसा जान पड़ता था, मानो आकाशमें पूर्ण चन्द्रमा उदित हुए हों अथवा मेघोंकी घटामें बिजली चमक रही हो। उस भयानक दैत्यको देखकर महाबली बलदेवजीको बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने उसके मस्तकपर कसके एक मुक्का मारा, मानो इन्द्रने किसी पर्वतपर वज्रका प्रहार किया हो। उस दैत्यका मस्तक वज्रसे आहत पहाड़की तरह फट गया और वह सहसा पृथ्वीको कम्पित करता हुआ धराशायी हो गया। उसके शरीरसे एक विशाल ज्योति निकली और बलरामजीमें विलीन हो गयी। उस समय देवता बलरामजीके ऊपर नन्दनवनके फूलोंकी वर्षा करने लगे। नृपेश्वर! पृथ्वीपर और आकाशमें भी जय-जयकार होने लगी। राजन् ! इस प्रकार श्रीबलदेवजीके परम अद्भुत चरित्रका मैंने तुम्हारे समक्ष वर्णन किया, अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥५-१४ ॥

बहुलाश्वने पूछा- मुने ! वह रण-दुर्मद दैत्य प्रलम्ब पूर्वजन्ममें कौन था? और बलदेवजीके हाथसे उसकी मुक्ति क्यों हुई ? ॥ १५ ॥(Madhuryakhand Chapter 20 to 24)

श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! यक्षराज कुबेरने अपने सुन्दर वनमें भगवान् शिवकी पूजाके लिये फुलवारी लगा रखी थी और इधर-उधर यक्षोंको तैनात करके उन फूलोंकी रक्षाका प्रबन्ध करवाया था; तथापि उस पुष्पवाटिकाके सुन्दर एवं चमकीले फूल लोग तोड़ लिया करते थे। इससे कुपित हो बलवान् यक्षराज कुबेरने यह शाप दिया- ‘जो यक्ष इस फुलवारीके फूल लेंगे अथवा दूसरे भी जो देवता और मनुष्य आदि फूल तोड़नेका अपराध करेंगे, वे – सब सहसा मेरे शापसे भूतलपर असुर हो जायेंगे।’ एक दिन हूहू नामक गन्धर्वका बेटा ‘विजय’ तीर्थभूमियोंमें विचरता तथा मार्गमें भगवान् विष्णुके गुणोंको गाता हुआ चैत्ररथ वनमें आया। उसके हाथमें वीणा थी। बेचारा गन्धर्व शापकी बातको नहीं जानता था, अतः उसने वहाँसे कुछ फूल ले लिये। फूल लेते ही वह गन्धर्वरूपको त्यागकर असुर हो गया। फिर तो वह तत्काल महात्मा कुबेरकी शरणमें गया और नमस्कार करके दोनों हाथ जोड़कर धीरे-धीरे शापसे छूटनेके लिये प्रार्थना करने लगा। राजेन्द्र ! तब उसपर प्रसन्न होकर कुबेरने भी वर दिया- ‘मानद! तुम भगवान् विष्णुके भक्त तथा शान्त-चित्त महात्मा हो, इसलिये शोक न करो। द्वापरके अन्तमें भाण्डीर-वनमें यमुनाके तटपर बलदेवजीके हाथसे तुम्हारी मुक्ति होगी, इसमें संदेह नहीं है’॥ १६-२३ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! हूहूका पुत्र वह विजयनामक गन्धर्व ही महान् असुर प्रलम्ब हुआ और कुबेरके वरसे उसको परम मोक्षकी प्राप्ति हुई ॥ २४ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व-संवादमें ‘प्रलम्ब-वध’ नामक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२०॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ रामोपासना अगस्त्य संहिता

इक्कीसवाँ अध्याय

दावानलसे गौओं और ग्वालोंका छुटकारा तथा विप्रपत्नियोंको श्रीकृष्णका दर्शन

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर श्रीबलरामसहित समस्त ग्वाल-बाल खेलमें आसक्त हो गये। उधर सारी गौएँ घासके लोभसे विशाल वनमें प्रवेश कर गयीं। उनको लौटा लानेके लिये ग्वाल- बाल बहुत बड़े मूँजके वनमें जा पहुँचे। वहाँ प्रलयाग्निके समान महान् दावानल प्रकट हो गया। उस समय गौऑसहित समस्त ग्वाल-बाल एकत्र हो बलरामसहित श्रीकृष्णको पुकारने लगे और भयसे आर्त हो, उनकी शरण ग्रहण कर ‘बचाओ, बचाओ !’ यों कहने लगे। अपने सखाओंके ऊपर अग्निका महान् भय देखकर योगेश्वरेश्वर श्रीकृष्णने कहा- ‘डरो मत; अपनी आँखें बंद कर लो।’ नरेश्वर! जब गोपोंने ऐसा कर लिया, तब देवताओंके देखते-देखते भगवान् गोविन्ददेव उस भयकारक अग्निको पी गये। इस प्रकार उस महान् अग्निको पीकर ग्वालों और गौओंको साथ ले श्रीहरि यमुनाके उस पार अशोकवनमें जा पहुँचे। वहाँ भूखसे पीड़ित ग्वाल-बाल बलरामसहित श्रीकृष्णसे हाथ जोड़कर बोले- ‘प्रभो! हमें बहुत भूख सता रही है।’ तब भगवान्ने उनको आङ्गिरस- यज्ञमें भेजा। वे उस श्रेष्ठ यज्ञमें जाकर नमस्कार करके निर्मल वचन बोले ॥१-८ ॥

गोपोंने कहा- ब्राह्मणो! ग्वाल-बालों और बलरामजीके साथ व्रजराजनन्दन श्रीकृष्ण गौएँ चराते हुए इधर आ निकले हैं, उन सबको भूख लगी है। अतः आप सखाओंसहित उन मदनमोहन श्रीकृष्णके लिये शीघ्र ही अन्न प्रदान करें ॥ ९॥

श्रीनारदजी कहते हैं- नरेश्वर। ग्वाल-बालोंकी वह बात सुनकर वे ब्राह्मण कुछ नहीं बोले। तब ग्वाल-बाल निराश लौट गये और आकर बलराम- सहित श्रीकृष्णसे इस प्रकार बोले ॥ १० ॥

गोपोंने कहा- सखे ! तुम व्रजमण्डलमें ही अधीश बने हुए हो। गोकुलमें ही तुम्हारा बल चलता है और नन्दबाबाके आगे ही तुम कठोर दण्डधारी बने हुए हो। प्रचण्ड सूर्यके समान तेजस्वी तुम्हारा प्रकाशमान दण्ड निश्चय ही मथुरापुरीमें अपना प्रभाव नहीं प्रकट करता ॥ ११ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तब श्रीहरिने उन ग्वाल-बालोंको पुनः यज्ञकर्ता ब्राह्मणोंकी पत्नियोंके पास भेजा। तब वे पुनः यज्ञशालामें गये और उन ब्राह्मण-पत्नियोंको नमस्कार करके वे श्रीकृष्णके भेजे हुए ग्वाल हाथ जोड़कर बोले ॥ १२ ॥

गोपोंने कहा- ब्राह्मणी देवियो ! ग्वाल-बालों और बलरामजीके साथ गाय चराते हुए श्रीव्रजराज- नन्दन कृष्ण इधर आ गये हैं, उन्हें भूख लगी है। सखाओंसहित उन मदनमोहनके लिये आपलोग शीघ्र ही अन्न प्रदान करें ॥ १३ ॥(Madhuryakhand Chapter 20 to 24)

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीकृष्णका शुभागमन सुनकर उन समस्त विप्रपत्नियोंके मनमें उनके दर्शनकी लालसा जाग उठी। उन्होंने विभिन्न पात्रोंमें भोजनकी सामग्री रख लीं और तत्काल लोक-लाज छोड़कर वे श्रीकृष्णके पास चली गयीं। रमणीय अशोकवनमें यमुनाके मनोरम तटपर विप्र- पत्नियोंने श्रीहरिका अद्भुत रूप जैसा सुना था, वैसा ही देखा। दर्शन पाकर वे सब परमानन्दमें उसी प्रकार निमग्न हो गयीं, जैसे योगीजन तुरीय ब्रह्मका साक्षात्कार करके आनन्दित हो उठते हैं॥ १४-१६ ॥

श्रीभगवान् बोले- विप्रपत्त्रियो! धन्य हो, जो मेरे दर्शनके लिये यहाँतक चली आयीं; अब शीघ्र ही घर लौट जाओ। ब्राह्मणलोग तुमपर कोई संदेह नहीं करेंगे। तुम्हारे ही प्रभावसे तुम्हारे पतिदेवता ब्राह्मणलोग तत्काल यज्ञका फल पाकर निर्मल हो, तुम्हारे साथ प्रकृतिसे परे विद्यमान परमधाम गोलोकको चले जायेंगे ॥ १७-१८ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- तब श्रीहरिको नमस्कार करके वे सब स्त्रियाँ यज्ञशालामें चली आर्यों, उन्हें देखकर सब ब्राह्मणोंने अपने-आपको धिक्कारा। वे कंसके डरसे स्वयं श्रीकृष्णको देखनेके लिये नहीं जा सके थे ॥ १९-२०॥

मैथिल! ग्वाल-बालों और बलरामजीके साथ वह अन्न खाकर श्रीकृष्ण गौओंको चराते हुए मनोहर वृन्दावनमें चले गये ॥ २१ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘दावानलसे गौओं और ग्वालोंका छुटकारा तथा विप्रपत्नियोंको श्रीकृष्णका दर्शन’ नामक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २१ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ गीतावली हिंदी में

बाईसवाँ अध्याय

श्रीकृष्णका नन्दराजको वरुणलोकसे ले आना और गोप-गोपियोंको
वैकुण्ठधामका दर्शन कराना

श्रीनारदजी कहते हैं- एक दिनकी बात है, नन्दराज एकादशीका व्रत करके द्वादशीको निशीथ- कालमें ही ग्वालोंके साथ यमुना-स्नानके लिये गये और जलमें उतरे। वहाँ वरुणका एक सेवक उन्हें पकड़कर वरुण-लोकमें ले गया। मैथिलेश्वर! उस समय ग्वालोंमें कुहराम मच गया; तब उन सबको आश्वासन दे भगवान् श्रीहरि वरुणपुरीमें पधारे और उन्होंने सहसा उस पुरीके दुर्गको भस्म कर दिया। करोड़ों सूर्योके समान तेजस्वी श्रीहरिको अत्यन्त कुपित हुआ देख वरुणने तिरस्कृत होकर उन्हें नमस्कार किया और उनकी परिक्रमा करके हाथ जोड़कर कहा ॥ १-४ । ॥(Madhuryakhand Chapter 20 to 24)

वरुण बोले- श्रीकृष्णचन्द्रको नमस्कार है। परिपूर्णतम परमात्मा तथा असंख्य ब्रह्माण्डोंका भरण पोषण करनेवाले गोलोकपतिको नमस्कार है। चतुर्व्यहके रूपमें प्रकट तेजोमय श्रीहरिको नमस्कार है। सर्वतेजः स्वरूप आप परमेश्वरको नमस्कार है। सर्वस्वरूप आप परब्रह्म परमात्माको नमस्कार है। मेरे किसी मूर्ख सेवकने यह पहली बार आपकी अवहेलना की है; उसके लिये आप मुझे क्षमा करें। परेश! भूमन् ! मैं आपकी शरणमें आया हूँ; आप मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ॥५-७॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! यह सुनकर प्रसन्न हुए भगवान् श्रीकृष्ण नन्दजीको जीवित लेकर अपने बन्धुजनोंको सुख प्रदान करते हुए व्रजमण्डलमें लौट आये। नन्दराजके मुखसे श्रीहरिके उस प्रभावको सुनकर गोपी और गोप-समुदाय नन्दनन्दन श्रीकृष्णसे बोले- ‘प्रभो! यदि आप लोकपालोंसे पूजित साक्षात् भगवान् हैं तो हमें शीघ्र ही उत्तम वैकुण्ठ- लोकका दर्शन कराइये।’ तब उन सबको लेकर श्रीकृष्ण वैकुण्ठधाममें गये और वहाँ उन्होंने ज्योतिर्मण्डलके मध्यमें विराजमान अपने स्वरूपका उन्हें दर्शन कराया। उनके सहस्त्र भुजाएँ थीं, किरीट और कटक आदि आभूषणोंसे उनका स्वरूप और भी भव्य दिखायी देता था। वे शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म और वनमालासे सुशोभित थे। असंख्य कोटि सूर्योके समान तेजस्वी स्वरूपसे वे शेषनागकी शय्यापर पौढ़े थे। चॅवर डुलाये जानेसे उनकी आभा और भी दिव्य जान पड़ती थी। ब्रह्मा आदि देवता उनकी सेवामें लगे थे। उस समय भगवान्‌के गदाधारी पार्षदोंने उन गोपगणोंको सीधे करके उनसे प्रणाम करवाकर उन्हें प्रयत्नपूर्वक दूर खड़ा किया और उन्हें चकित-सा देख वे पार्षद बोले- ‘अरे वनचरो! चुप हो जाओ। यहाँ वक्तृता न दो, भाषण न करो। क्या तुमने श्रीहरिकी सभा कभी नहीं देखी है? यहीं सबके प्रभु देवाधिदेव साक्षात् भगवान् स्थित होते हैं और वेद उनके गुण गाते हैं।’ इस प्रकार शिक्षा देनेपर वे गोप हर्षसे भर गये और चुपचाप खड़े हो गये। अब वे मन-ही-मन कहने लगे- ‘अरे! यह ऊँचे सिंहासनपर बैठा हुआ हमारा श्रीकृष्ण ही तो है। हम समीप खड़े हैं, तो भी हमें नीचे खड़ा करके ऊँचे बैठ गया है और हमसे क्षणभरके लिये बाततक नहीं करता। इसलिये व्रजसे बढ़कर न कोई श्रेष्ठ लोक है और न उससे बढ़कर दूसरा कोई सुखदायक लोक है; क्योंकि व्रजमें तो यह हमारा भाई रहा है और इसके साथ हमारी परस्पर बातचीत होती रही है।’ राजन् ! इस प्रकार कहते हुए उन गोपोंके साथ परिपूर्णतम प्रभु भगवान् श्रीहरि व्रजमें लौट आये ॥ ८-१९ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘नन्द आदिका वैकुण्ठदर्शन’ नामक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २२ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ स्तोत्ररत्नावली हिंदी में

तेईसवाँ अध्याय

अम्बिकावनमें अजगरसे नन्दराजकी रक्षा तथा सुदर्शन नामक विद्याधरका उद्धार

नारदजी कहते हैं- नरेश्वर। एक समय वृषभानु और उपनन्द आदि गोपगण रत्नोंसे भरे हुए छकड़ोंपर सवार होकर अम्बिकावनमें आये। वहाँ भगवती भद्रकाली और भगवान् पशुपतिका विधिपूर्वक पूजन करके उन्होंने ब्राह्मणोंको दान दिया और रातको वहीं नदीके तटपर सो गये। वहाँ रातमें एक सर्प निकला और उसने नन्दका पैर पकड़ लिया। नन्द अत्यन्त भयसे विह्वल हो ‘कृष्ण कृष्ण’ पुकारने लगे। नरेश्वर ! उस समय ग्वाल-बालोंने जलती हुई लकड़ियाँ लेकर उसीसे उस अजगरको मारना शुरू किया, तो भी उसने नन्दका पाँव उसी तरह नहीं छोड़ा, जैसे मणिधर साँप अपनी मणिको नहीं छोड़ता। तब लोकपावन भगवान्- ने उस सर्पको तत्काल पैरसे मारा। पैरसे मारते ही वह सर्पका शरीर त्यागकर कृतकृत्य विद्याधर हो गया। उसने श्रीकृष्णको नमस्कार करके उनकी परिक्रमा की और हाथ जोड़कर कहा ॥१-५३॥(Madhuryakhand Chapter 20 to 24)

सुदर्शन बोला- प्रभो! मेरा नाम सुदर्शन है, मैं विद्याधरोंका मुखिया हूँ। मुझे अपने बलका बड़ा घमंड था और मैंने अष्टावक्र मुनिको देखकर उनकी हँसी उड़ायी थी। तब उन्होंने मुझे शाप दे दिया- ‘दुर्मते! तू सर्प हो जा।’ माधव ! उनके उस शापसे आज मैं आपकी कृपासे मुक्त हुआ हूँ। आपके चरण- कमलोंके मकरन्द एवं परागके कणोंका स्पर्श पाकर मैं सहसा दिव्य पदवीको प्राप्त हो गया। जो भूतलका भूरि-भार-हरण करनेके लिये यहाँ अवतीर्ण हुए हैं, उन भगवान् भुवनेश्वरको बारंबार नमस्कार है॥ ६-८ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णको नमस्कार करके वह विद्याधर सब प्रकारके उपद्रवोंसे रहित वैष्णवलोकको चला गया। उस समय श्रीकृष्णको परमेश्वर जानकर नन्द आदि गोप बड़े विस्मित हुए। फिर वे शीघ्र ही अम्बिकावनसे व्रजमण्डलको चले गये। इस प्रकार मैंने तुमसे श्रीकृष्णके शुभ चरित्रका वर्णन किया, जो पुण्यप्रद तथा सर्वपापहारी है। अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ९-११ ॥(Madhuryakhand Chapter 20 to 24)

बहुलाश्व बोले- अहो! श्रीकृष्णचन्द्रका चरित्र अत्यन्त अद्भुत है, उसे सुनकर मेरा मन पुनः उसे सुनना चाहता है। देवर्षिसत्तम! व्रजेश्वर परमात्मा श्रीहरिने व्रज-मण्डलमें आगे चलकर कौन-सी लीला की ? ॥ १२-१३ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत ‘सुदर्शनोपाख्यान’ नामक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २३ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ सूर्य सिद्धांत हिंदी में

चौबीसवाँ अध्याय

अरिष्टासुर और व्योमासुर का वध तथा माधुर्यखण्डका उपसंहार

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! एक दिन गोवर्धनके आस-पास बलरामसहित भगवान् श्रीकृष्ण आँखमिचौनीका खेल खेलने लगे जिसमें कोई चोर बनता है और कोई रक्षक। वहाँ व्योमासुर नामक दैत्य आया। उस खेलमें कुछ लड़के भेड़ बनते थे और कोई चोर बनकर उन भेड़ोंको ले जाकर कहीं छिपाता था। व्योमासुरने भेड़ बने हुए बहुत-से गोप-बालकोंको बारी-बारीसे ले जाकर पर्वतकी कन्दरामें रखा और एक शिलासे उसका द्वार बंद कर दिया। वह मयासुरका महान् बलवान् पुत्र था। यह तो सचमुच चोर निकला, यह जानकर भगवान् मधुसूदनने उसे दोनों भुजाओंद्वारा पकड़ लिया और पृथ्वीपर दे मारा। उस समय दैत्य मृत्युको प्राप्त हो गया और उसके शरीरसे निकला हुआ प्रकाशमान तेज दसों दिशाओंमें घूमकर श्रीकृष्णमें लीन हो गया। उस समय स्वर्गमें और पृथ्वीपर जय- जयकारकी ध्वनि होने लगी। देवता लोग परम आनन्दमें मग्न होकर फूल बरसाने लगे ॥१-६ ॥(Madhuryakhand Chapter 20 to 24)

बहुलाश्वने पूछा- मुने ! यह व्योम नामक असुर पूर्वजन्ममें कौन-सा पुण्यात्मा मनुष्य था, जिसने श्याम घनमें बिजलीकी भाँति श्रीकृष्णमें विलय प्राप्त किया ॥ ७ ॥

नारदजी बोले- राजन् ! काशीमें भीमरथ नामसे प्रसिद्ध एक राजा थे, जो सदा दान पुण्यमें लगे रहते थे। वे यज्ञकर्ता, दूसरोंको मान देनेवाले, धनुर्धर तथा विष्णु-भक्तिपरायण थे। वे राज्यपर अपने पुत्रको बिठाकर स्वयं मलयाचलपर चले गये और वहाँ तपस्या आरम्भ करके एक लाख वर्षतक उसीमें लगे रहे। उनके आश्रममें एक समय महर्षि पुलस्त्य शिष्योंके साथ आये। उनको देखकर भी वे मानी राजर्षि न तो उठकर खड़े हुए और न उनके सामने प्रणत ही हुए। तब पुलस्त्यने उन्हें शाप दे दिया’ ओ महादुष्ट भूपाल ! तू दैत्य हो जा।’ तदनन्तर राजा जब उनके चरणोंमें पड़कर शरणागत हो गये, तब दीनवत्सल मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्यने उनसे कहा-‘द्वापरके अन्तमें मथुरा जनपदके पवित्र व्रजमण्डलमें साक्षात् यदुवंशराज श्रीकृष्णके बाहुबलसे तुम्हें ऐसी मुक्ति प्राप्त होगी, – जिसकी योगीलोग अभिलाषा रखते हैं- इसमें संशय नहीं है’ ॥८-१३॥

श्रीनारदजी कहते हैं- विदेहराज! वही यह राजा भीमरथ मय दैत्यका पुत्र हुआ और श्रीकृष्णके बाहुबेगसे मोक्षको प्राप्त हुआ। एक दिन गोपबालकोंके बीचमें महाबली दैत्य अरिष्ट आया। वह अपने सिंहनादसे पृथ्वी और आकाशको गुँजा रहा था और सींगोंसे पर्वतीय तटोंको विदीर्ण कर रहा था। उसे देखते ही गोपियाँ, गोप तथा गौओंके समुदाय भयसे इधर- उधर भागने लगे। दैत्योंके नाशक भगवान् श्रीकृष्णने उन सबको अभय देते हुए कहा- ‘डरो मत।’ माधवने उसके सींग पकड़ लिये और उसे पीछे ढकेल दिया। उस राक्षसने भी श्रीकृष्णको ढकेलकर दो योजन पीछे कर दिया। तब श्रीकृष्णने उसकी पूँछ पकड़ ली और बाहुवेगसे घुमाते हुए उसे उसी प्रकार पृथ्वीपर पटक दिया, जैसे छोटा बालक कमण्डलुको फेंक दे। अरिष्ट फिर उठा। क्रोधसे उसके नेत्र लाल हो रहे थे। उस महादुष्ट वीरने सींगोंसे लाल पत्थर उखाड़कर मेघकी भाँति गर्जना करते हुए श्रीकृष्णके ऊपर फेंका। श्रीकृष्णने उस प्रस्तरको पकड़कर उलटे उसीपर दे मारा। उस शिलाखण्डके प्रहारसे वह मन-ही-मन कुछ व्याकुल हो उठा। उसने अपने सींगोंके अग्रभागको पृथ्वीपर पीटना आरम्भ किया, इससे पृथ्वीके भीतरसे पानी निकल आया। तब श्रीकृष्णने उसके सींग पकड़कर बार-बार घुमाते हुए उसे पृथ्वीपर उसी प्रकार दे मारा, जैसे हवा कमलको उठाकर फेंक देती है। उसी समय वह वृषभका रूप त्यागकर ब्राह्मणशरीर- धारी हो गया और श्रीकृष्णके चरणारविन्दोंमें प्रणाम करके गद्गद वाणीमें बोला ॥ १४-२३ ॥

ब्राह्मणने कहा- भगवन्! मैं बृहस्पतिका शिष्य द्विजश्रेष्ठ वरतन्तु हूँ। मैं बृहस्पतिजीके समीप पढ़ने गया था। उस समय उनकी ओर पाँव फैलाकर उनके सामने बैठ गया था। इससे वे मुनि रोषपूर्वक बोले-‘तू मेरे आगे बैलकी भाँति बैठा है, इससे गुरुकी अवहेलना हुई है; अतः दुर्बुद्धे! तू बैल हो जा।’ माधव ! उस शापसे मैं वङ्गदेशमें बैल हो गया। असुरोंके सङ्गमें रहनेसे मुझमें असुरभाव आ गया था। अब आपके प्रसादसे मैं शाप और असुरभावसे मुक्त हो गया। आप श्रीकृष्णको नमस्कार है। आप भगवान् वासुदेवको प्रणाम है। प्रणतजनोंके केशका नाश करनेवाले आप गोविन्ददेवको बारंबार नमस्कार है॥ २४-२८ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर श्रीहरिको नमस्कार करके बृहस्पतिके साक्षात् शिष्य वरतन्तु भुवनको प्रकाशित करते हुए विमानसे दिव्यलोकको चले गये। इस प्रकार मैंने अद्भुत माधुर्यखण्डका तुमसे वर्णन किया, जो सब पापोंको हर लेनेवाला, पुण्य दायक तथा श्रीकृष्णकी प्राप्ति करानेवाला उत्तम साधन है। जो सदा इसका पाठ करते हैं, उनकी समस्त कामनाओंको यह देनेवाला है। और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ २९-३१ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘व्योमासुर और अरिष्टासुरका वध’ नामक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २४॥

 

॥ माधुर्यखण्ड सम्पूर्ण ॥

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