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Raghuvansham Sarg 11

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Raghuvansham Sarg 11

रघुवंश ग्यारहवाँ सर्ग | Raghuvansham Sarg 11

॥ कालिदासकृत रघुवंशम् महाकाव्य ग्यारहवाँ सर्गः ॥

महाकवि कालिदास द्वारा रचित संस्कृत महाकाव्य ‘रघुवंशम्’ के ग्यारहवें सर्ग (Raghuvansham Sarg 11) में भगवान राम के किशोरावस्था के प्रमुख घटनाक्रमों का वर्णन है। यह सर्ग रामायण की कथा का एक महत्वपूर्ण अंश प्रस्तुत करता है, जिसमें राम की वीरता, धर्मनिष्ठा और उनके विवाह की कथा सम्मिलित है। यह सर्ग विशेष रूप से राम और लक्ष्मण के ऋषि विश्वामित्र के साथ वनगमन और ताड़का वध की कथा को केंद्र में रखता है।

॥ श्रीः रघुवंशम् Raghuvansham Sarg 11 ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ रघुवंशम् महाकाव्य प्रथमः सर्गः

कौशिकेन स किल क्षितीश्वरो राममध्वरविघातशान्तये ॥
काकपक्षधरमेत्य यांचितंस्तेजसां हि न वयः समीक्ष्यते ॥ १ ॥
अर्थ:
निश्चित ही, राजा दशरथ से महर्षि विश्वामित्र ने यज्ञ की रक्षा हेतु राम को माँगा, जो उस समय बाल्यावस्था में थे (काकपक्षधारी थे – छोटे बालक)। परंतु तेजस्वियों के लिए उम्र नहीं देखी जाती — यह सोचकर ही ऋषि ने राम को माँगा।

कृच्छ्रलब्धमपि लब्धवर्णभाक्तं दिदेश सुनये सलक्ष्मणम् ।
अप्यसुप्रणयिनां रघोः कुले न व्यहन्यत कदाचिदर्थिता ॥ २ ॥
अर्थ:
राजा दशरथ ने राम को (जो कठिनता से प्राप्त और योग्य पुत्र थे) लक्ष्मण सहित विश्वामित्र को सौंप दिया। क्योंकि रघुकुल में प्राण मांगने वालों की भी याचना कभी व्यर्थ नहीं होती है।

यावदादिशति पार्थिवस्तयोर्निर्गमाय पुरमार्गसंस्क्रियाम् ।
तावदाशु विदधे मरुत्सखैः सा तपुष्पजलवर्षिभिर्धनैः ॥ ३ ॥
अर्थ:
जैसे ही राजा ने राम और लक्ष्मण के नगर-त्याग हेतु मार्ग-सज्जा की आज्ञा दी, वैसे ही अयोध्या नगरी ने देवताओं की कृपा से मानो स्वयं ही मार्ग को पुष्प, जल और दिव्य पदार्थों से सजा दिया।(Raghuvansham Sarg 11)

तौ निदेशकरणोद्यतौ पितुर्धन्विनौ चरणयोनिपेततुः ।
भूपतेरपि तयोः प्रवत्स्यतोर्नभ्रयोः उपारी वाष्पविन्दवः ॥ ४॥
अर्थ:
राम और लक्ष्मण पिता की आज्ञा का पालन करने को तैयार होकर उनके चरणों में गिर पड़े। जब वे जाने लगे, तो स्वयं राजा दशरथ की आँखों से आँसू छलक पड़े, जिन्हें वे रोक भी न सके — जैसे बादलों के ऊपर से जल की बूँदें टपक रही हों।

तौ पितुर्नयनजेन वारिणा किंचिदुक्षितशिखण्डकावुभौ ।
धन्विनौ तसृषिमन्वगच्छतां पौरदृष्टिकृतमार्गतोरणौ ॥ ५ ॥
अर्थ:
राम और लक्ष्मण दोनों केशों तक पिता दशरथ के आँसुओं से कुछ भीग गए थे। वे दोनों धनुषधारी भाई, विश्वामित्र ऋषि के पीछे-पीछे उस मार्ग से चले जिस पर नगरवासियों की करुण दृष्टियाँ मानो एक वियोगमय तोरण की तरह खड़ी थीं।

लक्ष्मणानुचरमेव राघवं नेतुमैच्छदृषिरित्यसौ नृपः ।
आशिषं प्रयुयुजे न वाहिनीं सा हि रक्षणविधौ तयोः क्षमा ॥६॥
अर्थ:
ऋषि विश्वामित्र ने राम को केवल लक्ष्मण के साथ ले जाने की इच्छा प्रकट की। यह जानकर राजा दशरथ ने केवल आशीर्वाद ही दिया, कोई सेना नहीं भेजी — क्योंकि वे जानते थे कि राम और लक्ष्मण की रक्षा करने की सामर्थ्य किसी भी सेना में नहीं थी।

मातृवर्गचरणस्पृशौ सुनेस्तौ प्रपद्य पदवीं महौजसः ।
रेजतुर्गतिवशात्प्रवर्तिनौ भास्करस्य मधुमाधवाविव ॥ ७ ॥
अर्थ:
राम और लक्ष्मण, जो अपने माता-पिता के चरणों को छूकर शरण में आए थे, महान तेजस्वी थे। वे तेज गति से उस मार्ग पर चल पड़े जैसे सूर्य अपने तेजस्वी प्रकाश के साथ उड़ता है, और उनके तेज को मधु और माधव (भगवान विष्णु के रूप) के समान दिव्य माना गया।

वीचिलोलभुजयोस्तयोर्गतं शैशवाच्चपलमप्यशोभत ।
तोयदागम इवोद्ध्यभिद्ययोर्नामधेयसदृशं विचेष्टितम् ॥ ८ ॥
अर्थ:
राम और लक्ष्मण के भुजाएँ जैसे लहराते हुए, उनके चलने का तरीका बाल्यकाल से ही फुर्तीला और चपल था, जो उनकी शोभा को बढ़ाता था। वे पानी के बहाव की तरह ऊपर-नीचे होते हुए, नाव की तरह फुर्ती से चल रहे थे।(Raghuvansham Sarg 11)

तौ वलातिवलयोः प्रभावतो विद्ययोः पथि सुनिप्रदिष्टयोः ।
मल्लतुर्न मणिकुट्टिमोचितौ मातृपार्श्वपरिवर्त्तिनाविव ॥ ९ ॥
अर्थ:
वे दोनों, जो अच्छी शिक्षा और ज्ञान के मार्ग पर अच्छे निर्देशों के साथ बढ़ रहे थे, लड़ते-झगड़ते नहीं थे। जैसे मां के चरणों के पास तैरती हुई शांत और सौम्य नाव होती है, वैसे ही वे भी आपस में शांत और सौम्य व्यवहार रखते थे।

पूर्ववृत्तकथितैः पुराविदः सानुजः पितृसखस्य राघवः ।
उद्यमान इव वाहनोचितः पादचारमपि न व्यभावचत ॥ १० ॥
अर्थ:
राम, जो पिता के मित्र विश्वामित्र के छोटे भाई समान थे और पुराने समय की घटनाओं को भली-भाँति जानते थे, जैसे कोई जो गाड़ी चलाने के योग्य हो, फिर भी पैदल चलना नहीं छोड़ा।

तौ सरांसि रसवद्भिरम्बुभिः कूजितैः श्रुतिसुखैः पतचिणः ।
वायवः सुरभिपुष्परेणुभिश्छायया च जलदाः सिषेविरे ॥ ११ ॥
अर्थ:
वे दोनों, जैसे कि मधुर रस से भरी नदियाँ जल की बूँदों की कूजती आवाज के साथ, सुनने में सुखद पक्षियों के बीच, हवा सुगंधित फूलों के कणों से महकती और छाया देती हुई, तथा बादलों द्वारा सिक्त (बारिश) किए जाते हुए, चले जा रहे थे।

नाम्भसां कमलशोभिनां, तथा शाखिनां च न परिश्रमच्छिदाम् ।
दर्शनेन लघुना यथा तयोः प्रीतिमापुरुभयोस्तपस्विनः ॥ १२ ॥
अर्थ:
कमल के सुंदर फूलों वाली जल की बूँदें और शाखाएँ, जो बिना थके और बिना कटे बनी रहती हैं, जैसे ही तपस्वियों को हल्का सा दर्शन होता है, वैसे ही उनमें प्रसन्नता का भाव उत्पन्न हो जाता है।

स्थाणुदग्धवपुषस्तपोवनं प्राप्य दाशरथिरात्तकार्मुकः ।
विग्रहेण सदनस्य चारुणा सोऽभवत्प्रतिनिधिर्न कर्मणा ॥ १३॥
अर्थ:
राजा दशरथ, जिसका शरीर तपस्वी की तरह अग्नि से तप चुका था, तपोवन पहुंचकर स्वयं धनुष लेकर वहाँ गया। वह अपने व्यक्तित्व और सामर्थ्य से सदन के शत्रुओं का नाश करने वाला प्रतिनिधि बन गया, न कि केवल कर्म (कार्य) से।

तौ सुकेतुसुतया खिलीकृते कौशिकाद्विवितशापया पथि ।
निन्यतुः स्थलनिवेशिताटनी लीलयैव धनुषी अधिज्यताम् ॥ १४ ॥
अर्थ:
वे दोनों (राम और लक्ष्मण) कौशिक ऋषि के द्वितीय श्राप से बाधित मार्ग में, जमीन में पड़े सूखे पेड़ों या पत्थरों को जैसे खेल की तरह पार करते हुए, धनुषधारी बने हुए थे।

ज्यानिनादमथ गृह्नती तयोः प्रादुरास बहुलक्षपाछविः ।
ताटका चलकपालकुण्डला कालिकेव निविडा वलाकिनी ॥१५॥
अर्थ:
राम और लक्ष्मण की आवाज सुनकर अंधेरी रात की छाया और हिलते हुए कपाल की कुंडल के साथ, ताडका राक्षसी, घने काले बालों वाली, कानों में झूमती हुई बालियाँ लिए, घटा की तरह प्रकट हुई।(Raghuvansham Sarg 11)

तीव्रवेंगधुतमार्गवृक्षया प्रेतचीवरवसा स्त्रनोग्रया ॥
अभ्यसावि भरताग्रजस्तया वात्ययेव पितृकाननोत्थयाः ॥ १६ ॥
अर्थ:
तीव्र वेग से चलते हुए मार्ग के वृक्षों को हिला देने वाली, मृतकों के वस्त्र ओढ़े हुए, भयंकर गर्जन करने वाली, श्मशान में उठे हुए वायु जैसे रामचन्द्र को तिरस्कार करती हुई ।

उद्यतैकसुजयष्टिमायतीं श्रोणिलम्बिपुरुषान्त्रमेखलाम् ।
तां विलोक्य वनितावधे घृणां पत्रिणा सह सुमोच राघवः ॥
अर्थ:
उसने (ताड़का ने) जब एक बड़ी और कठोर छड़ी उठाई और अपनी कमर में पुरुषों की आँतों की बनी कमरबंद धारण किए भयंकर रूप में राम की ओर बढ़ी, तो राघव (राम) ने उसे देखकर, यद्यपि वह स्त्री थी, मन में उत्पन्न दया को त्याग दिया — और बाण चलाया।

यच्चकार विवरं शिलाघने ताटकोरसि स रामसायकः ।
अप्रविष्टविषयस्य रक्षसां द्वारतामगमदन्तकस्य तत् ॥ १८ ॥
अर्थ:
रामचन्द्र का वह बाण जब ताड़का की पत्थर-सी कठोर छाती में छेद करता हुआ प्रविष्ट हुआ, तो वह न केवल एक शरीर को भेदने वाला अस्त्र रहा, बल्कि प्रतीक बन गया — मानो राक्षसों के देश में अब तक न पहुँचे हुए यमराज के प्रवेश का पहला द्वार वही बन गया।

वाणभिन्नहृदया निपेत वीला स्वकाननसुत्रं न केवलाम्।
विष्टपत्रयपराजयस्थिरां रावणश्रियमपि व्यकम्पयत् ॥ १९ ॥
अर्थ:
राम के बाण से हृदय विदीर्ण होने के कारण ताड़का भूमि पर गिर पड़ी। उसका यह पतन केवल उसके अपने वन प्रदेश को ही भय से मुक्त नहीं कर गया, बल्कि वह राक्षसों की विजय की सीमाओं को सुदृढ़ करने वाली जो रावण की महाशक्ति थी — उसकी भी समृद्धि और प्रभुता को यह घटना डगमगा गई।

राममन्मथशरेण ताडिता दुःसहेन हृदये निशांचरी ॥
गन्धवद्रुधिरचन्दनोक्षिता जीवितेशवसतिं जगाम सा ॥ २० ॥
अर्थ:
राम के कामदेव के समान तीव्र और असह्य बाण से घायल होकर, वह राक्षसी ताड़का अत्यन्त वेदनापूर्वक अपने हृदय में चोट खा गई। उसका शरीर रक्त और चंदन के मिश्रण से सुगन्धित-सा प्रतीत हो रहा था, और वह अन्ततः प्राणों के स्वामी — मृत्यु के अधीन होकर यमलोक को चली गई।

नैर्ऋतप्रणमथ मन्त्रवन् सुनेः प्रापदवदानतोषितात् ॥
ज्योतिरिन्द्धननिपाति भास्करात् सूर्यकान्त इव ताटकान्तकः ॥ २१ ॥
अर्थ:
जो राम राक्षसों का संहार करने में समर्थ थे, और जिन्हें विश्वामित्र जैसे श्रेष्ठ मुनि ने मंत्रबल से सुसज्जित किया था, उन राम ने मुनि के पराक्रम और संतोष को प्राप्त करते हुए सूर्य के प्रकाश से ईंधन में अग्नि उत्पन्न करने वाले सूर्यकान्त मणि के समान ताड़का का संहार किया।

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वासनाश्रमपदं ततः परं पावनं श्रुतसृषेरुपेयिवान्।
उन्मनाः प्रथमजन्मचेष्टितान्यस्मरन्नपि बभूव राघवः ॥ २२ ॥
अर्थ:
ताड़का वध के बाद श्रीराम उस पवित्र आश्रम (वसिष्ठ मुनि के वासनाश्रम) की ओर बढ़े, जो श्रुति के स्रष्टा मुनि वसिष्ठ से जुड़ा हुआ था। राघव (राम) उस समय अंदर से विचारों में लीन थे, और उन्हें अपने पिछले जन्म की क्रियाएँ (या अनुभव) भी स्मरण हो रही थीं।

आससाद सुनिरात्मनस्ततः शिष्यवर्गपरिकल्पितार्हणम् ॥
बद्धपल्लवपुटाञ्जलिद्रुमं दर्शनोन्मुखमृगं तपोवनम् ॥ २३ ॥
अर्थ:
तदनन्तर संयम और आत्मनियंत्रण में स्थित श्रीराम उस तपोवन में पहुँचे जहाँ शिष्यों ने उनके स्वागत की पूरी तैयारी कर रखी थी। वहाँ के वृक्ष भी ऐसे प्रतीत हो रहे थे जैसे पत्तों की अंजलि बाँधे खड़े हों, और वन में रहने वाले मृग भी श्रीराम के दर्शन की लालसा से उनकी ओर निहार रहे थे।

तत्र दीक्षितमृषिं ररक्षतुर्विघ्नतो दशरथात्मजौ शरैः ।
लोकसंधतमसात्क्रमोदितौ रश्मिभिः शशिदिवाकराविव ॥२४॥
अर्थ:
तपस्या में संलग्न ऋषि की रक्षा राम और लक्ष्मण ने अपने तीक्ष्ण बाणों से विघ्न डालने वाले राक्षसों से की। वे दोनों, जैसे चन्द्रमा और सूर्य, अंधकार से भरे संसार में अपनी किरणों से प्रकाश फैलाते हुए उदित होते हैं, वैसे ही वे धर्म की रक्षा के लिए प्रकट हुए।(Raghuvansham Sarg 11)

वीक्ष्य वेदिसथ रक्तविन्दुभिर्वन्धुजीवपृथुभिः प्रदूषिताम् ॥
संभ्रसोऽभवदपोढकर्मणामृत्विजां च्युतविकङ्गतस्रुचाम् ॥२५॥
अर्थ:
जब ऋषियों ने देखा कि यज्ञ की वेदिका रक्त की बूंदों और प्रियजनों के मृत शरीरों के अवशेषों से अपवित्र हो चुकी है, तो यज्ञ के अनुष्ठान में लगे हुए ऋत्विज (पुरोहित) घबरा गए। वे जिनका कर्म अधूरा था, उनकी स्रुच (हवन की चम्मच) हाथ से गिर गई, और वे भय और विकलता से भर गए।

उन्मुखः सपदि लक्ष्मणाग्रजो वाणमाश्रयमुखात्समुद्धरन्।
रक्षसां बलमपश्यदम्बरे गृध्रपक्षपवनेरितध्वजम् ॥ २६ ॥
अर्थ:
राम, जो लक्ष्मण के बड़े भाई हैं, अचानक सामने आए और अपने धनुष के मुख से तीर निकालने लगे। उन्होंने आकाश में उड़ रहे राक्षसों की शक्तिशाली सेना को देखा, जो गिद्ध के पंख और हवा के झंडे की तरह फैल रही थी।

तत्र यावधिपती मखद्विषां तौ शरव्यमकरोत्स नेतरान्।
किं महोरगविसर्पिविक्रमो राजिलेषु गरुडः प्रवर्तते ॥ २७ ॥
अर्थ:
वहाँ जहाँ तक मक्खी के दुश्मनों के स्वामी (अर्थात सिंह जैसे वीर) रहते थे, राम और लक्ष्मण अपनी आँखों से ही जैसे तीर चला रहे थे। क्या वह जैसे महा अग्नि के तीव्र और सर्प की चाल की तरह शत्रुओं के बीच गरुड़ की तरह सक्रिय नहीं हो रहे थे?(Raghuvansham Sarg 11)

सोऽस्त्रमुग्रजवमस्त्रकोविदः संदधे धनुषि वायुदैवतम् ॥
तेन शैलगुरुमप्यपातयत्पांडुपत्रमिव ताडकासुतम् ॥ २८ ॥
अर्थ:
राम जी भूखे-प्यासे (अनन्नः) भी अपनी तीव्र शक्ति से भरपूर थे। वे वायु देवता के समान तेज गति से धनुष उठाकर तीर चलाने लगे। उन्होंने अपने उस बाण से ताड़का के पुत्र मारीच को उस तरह गिरा दिया जैसे सूखे पत्ते गिरते हैं।

यः सुबाहुरिति राक्षसोऽपरस्तन्त्र तंत्र विससर्प मायया ॥
तं क्षुरप्रशकलीकृतं कृती पत्रिणां व्यभजदाश्रमाद्दहिः ॥ २९॥
अर्थ:
जो राक्षस सुबाहु कहलाता था, वह दूसरे किसी तंत्र के प्रभाव में था और मायावी सर्प के समान था। उसे (राम ने) अपने तीव्र और धारदार तीर से काटकर, जैसे शिशुओं के झुंड से फूटे हुए पत्ते जल जाते हैं, आग लगा दी।

इत्यपास्तमखविन्नयोस्तयोः सांयुगीनमभिनन्य विक्रसम् ॥
ऋत्विजः कुलपतेर्यथाक्रमं वाग्यतस्य निरवर्तयन्क्रियाः ॥ ३० ॥
अर्थ:
इस प्रकार उन दोनों (राम और लक्ष्मण) के युद्ध के निष्कर्ष (समापन) के बाद, वेदज्ञ (ऋत्विज) कुल के स्वामी के अनुसार क्रमबद्ध विधि से वेदमंत्रों का उच्चारण करते हुए उस युद्ध की क्रियाएँ समाप्त कर रहे थे।

तौ प्रणासचलकाकपक्षको आतराववभृताप्लुतो मुनिः ॥
आशिषासनुपदं समस्पृशदर्भपाटिततलेन पाणिना ॥ ३१ ॥
अर्थ:
वे (राम और लक्ष्मण) जैसे ही विदा हुए, आकाश में उड़ते हुए कौवों के झुंड से घिरे, मुनि (ऋषि) जल से भीगे हुए, धरती पर उगी घास के मैदान को हाथ से छूते हुए, आशीर्वाद और आदेश देकर विदा हुए।

तं न्यमन्त्रयत संभृतक्रतुमैथिलः स मिथिलां व्रजन्वशी ॥
राघवावपि निनाय बिभ्रतौ तद्धनुः श्रवणजं कुतूहलम् ॥ ३२ ॥
अर्थ:
यज्ञ करने वाले राजा जनक ने ऋषि विश्वामित्र को निमंत्रण भेजा। जो जितेन्द्रिय (सम्पूर्ण इन्द्रियों वाले, यानी राम) थे, वे मिथिला (निथिलापुरी) जाते हुए, अपने धनुष की चर्चा सुनने वालों की जिज्ञासा को समझते हुए, अपने छोटे भाई लक्ष्मण को भी साथ लेकर चले।

तैः शिवेषु वसतिर्गताध्वभिः सायमाश्रमतरुष्वगृह्यत।
येषु दीर्घतपसः परिग्रहो वासवक्षणकलत्रतां ययौ ॥ ३३ ॥
अर्थ:
राम और लक्ष्मण मार्ग पर पहुँचकर संध्या के समय एक सुंदर आश्रम के वृक्षों के नीचे ठहरे, जहाँ बड़े तपस्वी गौतम की पत्नी, जो इन्द्र की पुत्री और क्षणमात्र की (छोटी अवधि की) भार्या थी, वनी के नाम से निवास करती थी।

पत्यपद्यत चिराय यत्पुनश्चारु गौतमवधूः शिलामयी ॥
स्वं वपुः स किल किल्विषच्छिदां रामपादरजसामनुग्रहः ॥ ३४ ॥
अर्थ:
गौतम ऋषि की सुन्दर पत्नी, जो शिला (पत्थर) की भांति दृढ़ निश्चयी थी, ने कुछ समय तक वहाँ वास किया। राम के पादरजस (पैरों की धूल) का आशीर्वाद पाकर उसका शरीर जैसे पवित्र पत्थर की तरह किल-विष (दुर्गंध) छिद्रों से मुक्त हो गया।

राघवान्विंतंसुपस्थितं मुनिं तं निशम्य जनको जनेश्वरः ॥
अर्थकामसहितं सपर्यया देहवद्धमिव धर्ममभ्यगात् ॥ ३५ ॥
अर्थ:
जनक ने उत्साह और सम्मान के साथ ऋषि विश्वामित्र का स्वागत किया और अपनी इच्छाओं के साथ उनका सत्कार किया, जैसे धर्म की रक्षा की जाती है।(Raghuvansham Sarg 11)

तौ विदेहनगरीनिवासिना गां गताविव दिवः पुनर्वसू।
मन्यते स्म पिबता विलोचनैः पक्ष्मपातमपि वञ्चनां सनः ॥३६ ॥
अर्थ:
राम और लक्ष्मण की उपस्थिति इतनी अद्भुत और दिव्य लग रही थी कि लोग उन्हें आकाश से उतरे हुए देवताओं जैसा समझते थे, और उनके तेजस्वी नेत्रों की शक्ति अत्यंत प्रभावशाली थी।

यूपवत्यवसिते क्रियाविधौ कालवित्कुशिकवंशवर्द्धनः।
रामभिष्वसन दर्शनोत्सुकं मैथिलाय कथयांवभूव सः ॥ ३७ ॥
अर्थ:
अनुष्ठानकार्य समाप्त होने पर समय के ज्ञाता कुशिकनंदन (विश्वामित्र) रामचंद्र का धनुष देखने की उत्कंठा को जनक के प्रति व्यक्त करते हुए।

तस्य वीक्ष्य ललितं वपुः शिंशोः पार्थिवः प्रथितवंशजन्मनः ॥
स्वं विचिन्त्य च धनुर्दुरानमं पीडितो दुहितृशुल्कसंस्थया ॥३८॥
अर्थ:
राजा दशरथ, जो विरूपात वंश के कुलजन्मे थे, जब उन्होंने उस बालक (राम) का मनोहर और सुंदर शरीर देखा और साथ ही धनुष के कठिन होने पर भी ध्यान दिया, तो वे कन्या के शुल्क (मोल) की प्रतिज्ञा के कारण दुखी हो गए।

अब्रवीच्च भगवन्मतंग जैर्यगृहद्भिरपि कर्म दुष्करम्।
तत्र नाहमनुमन्तुमुत्सहे मोघवृत्ति कलभस्य चेष्टितम् ॥ ३९ ॥
अर्थ:
भगवान् मतंग ने कहा – “मैंने बहुत से कठिन कार्य देखे हैं, यहाँ तक कि बड़े-बड़े घरों में भी, लेकिन यहाँ पर जो कार्य चल रहा है, वह मेरे लिए स्वीकार्य नहीं है। मैं इस व्यर्थ की और निरर्थक गतिविधि को स्वीकार नहीं करता।

हेपिता हि बहवो नरेश्वरास्तेन तात ! धनुषा धनुर्भूतः ॥
ज्यानिघातकठिनत्वचो भुजान्स्वान्विधूय धिगिति प्रतस्थिरे ॥ ४० ॥
अर्थ:
हे मुनिश्रेष्ठ! अनेक राजाओं ने इस शिवधनुष को उठाने और प्रत्यंचा चढ़ाने का प्रयास किया, लेकिन उसकी प्रत्यंचा के प्रहार से उनके भुजाएं जैसे छिल गईं। अपना आत्मविश्वास खोकर, उन्होंने अपने-अपने बल को धिक्कारा और लज्जित होकर लौट गए।

प्रत्युवाच तसृपिर्निशम्यतां सारतोऽयमथ वा गिरा कृतम्।
प्याप एव भवतो भविष्यति व्यक्तशक्तिरशनिर्गिराविव ॥ ४१ ॥
अर्थ:
मुनि विश्वामित्र ने उत्तर दिया — “हे राजन्! कृपया इस बात को ध्यान से सुनिए। जो आपने अभी कहा — क्या वह आपके हृदय की वास्तविक भावना थी, या केवल औपचारिक वचन? क्योंकि जो होना है, वह निश्चित रूप से आपके ही हित में होगा। यह राम – जिसकी शक्ति स्पष्ट है – वज्र के समान है। वह केवल वाणी से ही संदेहों को चूर कर देगा।

एवसाप्तवचनात्स पौरुषं काकपक्षकधरेऽपि राघवे ॥
श्रद्दधे त्रिदशगोपमात्रके दाहशक्तिसिव कृष्णवर्त्मनि ॥ ४२ ॥
अर्थ:
इस प्रकार विश्वामित्र के सत्य और दृढ़ वचनों को सुनकर, राम जो अभी बालक थे और जिनके गालों पर अब तक कोमल बाल झड़ रहे थे, उनमें भी महान पुरुषार्थ और शक्ति का विश्वास किया गया। जैसे किसी काली बाती में छिपी हुई अग्नि जलती है, वैसे ही उस बालक राम के भीतर भी दिव्य शक्ति विद्यमान थी।(Raghuvansham Sarg 11)

व्यादिदेश गणशोऽथ पार्श्वगान्कार्मुकाभिहरणाय मैथिलः।
तैजसत्य धनुषः प्रवृत्तये तोयदानिव सहस्रलोचनः ॥ ४३ ॥
अर्थ:
तब मिथिला के राजा जनक ने, अपने सेवकों को समूहों में आज्ञा दी कि वे उस तेजस्वी धनुष को लाएँ, जैसे स्वर्ग का राजा इन्द्र यज्ञ में जल अर्पित करने का आरंभ करता है।

तत्प्रलुप्तभुजगेन्द्रभीषणं वीक्ष्य दाशरथिराददे धनुः।
विद्रुतक्रतुमृगानुसारिणं येन बाणमसृजदृषध्वजः ॥ ४४ ॥
अर्थ:
राम ने उस धनुष को देखा जो नागराज के समान भयानक था, किंतु समय के प्रभाव से थोड़ा क्षीण हो चुका था। फिर दशरथनन्दन राम ने उसे उठा लिया, जिस धनुष से कभी शिवजी ने यज्ञ से भागे हुए बलि-पशु का पीछा करते हुए बाण छोड़ा था।

आततज्यमकरोत्ल संसदा विस्मयस्तिमितनेत्रमीक्षितः।
शैलसारपि नातियत्नतः पुष्पचापभित्र पेशलं स्मरः ॥ ४५॥
अर्थ:
राम ने सभा में उस धनुष को खींचकर उस पर डोरी चढ़ा दी, यह देखकर सभी सभा-सदस्य विस्मय से स्थिर नेत्रों से उन्हें निहारने लगे। राम ने पर्वत समान कठोर उस धनुष को विशेष प्रयास के बिना ही ऐसा खींचा, जैसे कामदेव अपने फूलों से बने कोमल धनुष को खींचता हो।

अज्यमानमतिमात्रकर्षणात्तेन वज्रपरुषत्वनं धनुः।
भार्गवाय दृढमन्यवे पुनः क्षत्रमुयतमित्र न्यवेदयत् ॥ ४६ ॥
अर्थ:
राम द्वारा अत्यधिक खींचने के कारण वह वज्र के समान कठोर धनुष टूट गया। फिर राम ने उस टूटे हुए धनुष के माध्यम से दृढ़ अभिमान रखने वाले भार्गव (परशुराम) को यह निवेदन किया कि क्षत्रियवंश, जिसे तुमने अपना शत्रु मान लिया था, अब भी बलशाली और अडिग है।(Raghuvansham Sarg 11)

दृष्टसारमथ रुद्रकामुके वीर्यशुल्कमभिनन्य मैथिलः।
राघवाय तनयामयोनिजां पार्थिवः श्रियमिव न्यवेदयत् ॥ ४७ ॥
अर्थ:
शिव के प्रिय उस धनुष को उठाकर उसकी सामर्थ्य दिखाने वाले राम की वीरता देखकर, मिथिला नरेश जनक ने उसे वीर्यशुल्क (पराक्रम के मूल्य) के रूप में मान्यता दी, और अपनी अजन्मा पुत्री (धरती से उत्पन्न सीता) को ऐसे सौंपा मानो राजा ने स्वयं लक्ष्मी को राम को समर्पित किया हो।

सैथिलः लपदि सत्यसंगरो राघवाय तनयामयोनिजाम्।
संनिधौ द्युतिमतस्तपोनिधेरग्निसाक्षिक इवातिसृष्टवान् ॥ ४८ ॥
अर्थ:
जनक, जो सत्यप्रतिज्ञ थे, उन्होंने (विवाह के) वचन देते हुए अपनी अयोनिजा (धरती से उत्पन्न) पुत्री सीता को तेजस्वी तपस्वी (विश्वामित्र) की उपस्थिति में राम को ऐसे सौंपा जैसे अग्नि को साक्षी मानकर कोई कन्यादान करता है।

प्राहिणोच्च महितं महाद्युतिः कोसलाधिपतये पुरोधसम्।
भृत्यभावि दुहितुः परिग्रहाद्दिश्यतां कुलमिदं निमेरिति ॥ ४९ ॥
अर्थ:
राजा दशरथ (कोसलाधिपति) के लिए महान तेजस्वी और बड़े प्रभावशाली गुरु (पुरोधा) को सेवक के रूप में पुत्री (सीता) को ग्रहण करने हेतु भेजा गया, ताकि यह कुल (वंश) सुरक्षित और संरक्षित रहे।

अन्वियेष लदृशीं स च स्नुषां प्राप चैनमनुकूलवाग्द्विजः।
सच एव सुकृतां हि पच्यते कल्पवृक्षफलधर्मि काङ्क्तिम् ॥५०॥
अर्थ:
दशरथ के पुत्र के समान योग्य वधू की इच्छा रखने वाला ब्राह्मण उनके पास पहुंचा, क्योंकि पुण्यात्माओं की इच्छाएं कल्पवृक्ष के फल की तरह जल्दी और निश्चित रूप से पूरी होती हैं।

तस्य कल्पितपुरस्क्रियाविधेः शुश्रुवान्वचनसग्रजन्सनः ॥
उच्चचाल बलभित्सखो वशी सैन्यरेणुमुषितार्कदीधितिः ॥ ५१ ॥
अर्थ:
उस (विश्वामित्र) के द्वारा योजना बनाई गई यज्ञ और उसकी विधियों को सुनकर, उनके साथ बहुजन (बहुत से लोग) भी उपस्थित थे। उस जगह पर तेजस्वी, बलशाली मित्र थे, जो सेना के समान दृढ़ और सूर्य की किरणों की तरह चमकदार थे।(Raghuvansham Sarg 11)

आलसाद मिथिलां ल वेष्टयन्पीडितोपवनपादपां बलैः।
प्रीतिरोधमसहिष्ट सा पुरी स्त्रीव कान्तपरिभोगमायतम् ॥ ५२॥
अर्थ:
मिथिला (जनकपुर) की वह स्त्री (सीता) जो कष्टों से पीड़ित थी, बलपूर्वक उस उपवन के पास से ले जाई गई। वह अपने पति की कामना में व्याकुल थी, परंतु इस बलपूर्वक रोक-टोक को सहन नहीं कर पाई।

तौ समेत्य समये स्थितावुमौ भूपती वरुणवासवोपसौ।
कन्यकार्तनयकौतुकक्रियां स्वप्रभावसदृशीं वितेनतुः ॥ ५३ ॥
अर्थ:
समय अनुसार राजा (दशरथ) वरुण और वासव (इंद्र) जैसे देवताओं के समान उपस्थित हुए। वे कन्यादान के समय की उत्सुकता और कौतुक के साथ, स्वाभाविक रूप से तेजस्वी और प्रभावशाली दिखे।

पार्थिवीमुदबहद्रघूद्धहो लक्ष्मणस्तदनुजामथोर्मिलाम्।
यौ तयोरवरजौ वरौजसौ तौ कुशध्वजसुते सुमध्यसे ॥ ५४ ॥
अर्थ:
धरती पर पवित्र और महान रघुवंशी (राम) ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ मिलकर जो तेजस्वी और श्रेष्ठ योद्धा थे, वे दोनों उस समय कुशध्वज के पुत्र (अर्थात युद्धभूमि में) के बीच सबसे उत्कृष्ट योद्धा माने जाते थे।

ते चतुर्थसहितास्त्रयो बभुः सूनवो नववधूपरिग्रहात्।
सामदानविधिभेदनिग्रहाः सिद्धिमन्त इव तस्य भूपतेः ॥ ५५ ॥
अर्थ:
वे (राम, लक्ष्मण और उनके साथ के तीसरे पुरुष) राजा के आदेश से नौ दानवों (राक्षसों) को हराकर विजयी हुए। वे समर्पण और नियंत्रण के नियमों को भंग करते हुए भी राजा के लिए सिद्धि और सफलता प्राप्त करने वाले थे।

ता नराधिपसुता नृपात्मजैस्ते च ताभिरगमन्कृतार्थताम्।
सोऽभवद्वरवधूसमागमः प्रत्ययप्रकृतियोगसंनिभः ॥ ५६ ॥
अर्थ:
वे, जो राजा के पुत्र और राजकुमार थे, उनके द्वारा दानवों के संहार के कारण दानवों का आना व्यर्थ हो गया। इससे राजा के लिए वर प्राप्ति का अवसर आया, जो निश्चित और शुभ संयोग के समान था।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ नीति शतक हिंदी में

एवमात्तरतिरात्मसंभवांस्तान्निवेश्य चतुरोऽपि तन्त्र सः।
अध्वसु त्रिषु विसृष्टमैथिलः स्वां पुरीं दशरथो न्यवर्तत ॥ ५७ ॥
अर्थ:
इस प्रकार आत्मीयों से उत्पन्न होने वाले (दानवों को) नष्ट कर चारों तंत्र (राहु, केतु, राहु, सर्प आदि) को नहीं बसने दिया गया। मैथिल (राजा दशरथ) अपनी नगरी की ओर तीन रास्तों में से निकला।(Raghuvansham Sarg 11)

तस्य जातु मरुतः प्रतीपगा वर्त्मसु ध्वजतरुप्रमाथिनः।
चिक्लिशुभृशतया वरूथिनीभुत्तटा इव नदीरयाः स्थलीम् ॥५८॥
अर्थ:
मार्ग में पवन देव ने ध्वज के समान झूमते हुए वृक्षों को इस प्रकार हिलाया कि जैसे नदी का प्रचंड प्रवाह वन की धरती को हिला देता है। इस प्रकार उन्होंने अपनी सेना को भारी कष्ट और संकट में डाल दिया।

लक्ष्यते स्म तदनन्तरं रविर्वद्धभीसपरिवेषभण्डलः।
वैनतेयशमितस्य भोगिनो भोगवेष्टित इव च्युतो मणिः ॥ ५९॥
अर्थ:
उसके बाद ही सूरज दिखाई दिया, जो बड़ी-भयभीत बादलों के घेरे से घिरा हुआ था। वह वैराट (हनुमान) की भाँति शक्तिशाली और भोगों (आनंदों) में लिप्त, जैसे कोई चमकता हुआ मोती अपने आवरण से गिरा हो, ऐसा प्रतीत हो रहा था।

श्येन पक्षपरिधूसरालकाः सांध्यमेधरुधिरार्द्रवाससः।
अङ्गना इव रजस्वला दिशो नो वभूवुरवलोकनक्षमाः ॥ ६० ॥
अर्थ:
शाम के समय, गरजते हुए बादलों के बीच एक धूसर रंग का (धुंधला सा) श्येन (गरुड़) अपने पंख फैलाए हुए था, और आसमान में रक्तस्राव के समान भीगी हुई हवा बह रही थी। वे दिशाएँ, जैसे कोई रक्तवर्णा (रक्तरंजित) स्त्री हों, दृष्टि को सहन करने में असमर्थ थीं।

भास्करश्च विशमध्युवास या तां श्रिताः प्रतिभयं ववाशिरे।
क्षत्रशोणितपितृक्रियोचितं चोदद्यन्त्य इव भार्गवं शिवाः ॥६१॥
अर्थ:
सूर्य (भास्कर) ने अनियमित रूप से चमकना शुरू किया, जिससे वे (शत्रु या विपत्तियाँ) भयभीत होकर कांप उठे। जैसे कि क्षत्र (युद्ध), पितृ (पूर्वजों की) और क्रिया (धार्मिक कर्म) के कारण उत्पन्न लाल रक्त की वजह से, भगवान शिव (भार्गव) क्रोध से प्रज्वलित होकर उग्र हो उठते हैं।

तत्प्रतीपपवनादि वैकृतं प्रेक्ष्य शान्तिमधिकृत्य कृत्यवित्।
अन्वयुद्ध गुरुमीश्वरः क्षितेः स्वन्तमित्यलघयत्स तद्वयथाम्॥६२॥
अर्थ:
उस समय की तेज और विपरीत दिशा में बहने वाली वायु (प्रतीपपवनादि वैकृतं) को देखकर, जो शांति को बाधित कर रही थी, गुरु और ईश्वर (विश्वामित्र) ने पृथ्वी पर अपने कर्तव्य को समझते हुए उस कष्ट और व्यथा को हल्का किया।(Raghuvansham Sarg 11)

तेजसः सपदि राशिरुत्थितः प्रादुरास किल वाहिनी मुखे।
यः प्रमृज्य नयनानि सैनिकैर्लक्षणीयपुरुषाकृतिश्चिरात् ॥ ६३ ॥
अर्थ:
एक साथ तेज का प्रकाश (तेजसः सपदि राशिः) उठकर, वह (विश्वामित्र) सेना के सामने प्रकट हुआ। उसने सैनिकों से अपने नयन (आंखें) पोंछे, और उसका शरीर, रूप-रंग और काया बहुत ही प्रभावशाली और वीर पुरुष की तरह दिखने लगी।

पित्र्यसंशसुपवीतलक्षणं मातृकं च धनुरूर्जितं दधत्।
यः ससोम इव धर्मदीधितिः सद्विजिह्व इव चन्दनड्नुसः ॥ ६४ ॥
अर्थ:
वह (विश्वामित्र) अपने पिता द्वारा दी गई पवित्र यज्ञसूत्र (संशसुपवीत) पहने हुए था, और मातृक (माता की छाया) की भांति था। उसने अपने हाथ में युद्ध में विजयी होने वाला धनुष धारण किया था। वह धर्म के प्रकाश की तरह चमक रहा था जैसे चंद्रमा (ससोम इव धर्मदीधितिः), और उसकी वाणी सुगंधित चंदन की तरह मधुर और शुद्ध थी (सद्विजिह्व इव चन्दनड्नुसः)।

येन रोषपरुषात्मनः पितुः शासने स्थितिभिदोऽपि तस्थुषा।
वेपमानजननीशिरश्छिदा प्रागजीयत घृणा ततो सही ॥ ६५ ॥
अर्थ:
जिसने अपने क्रोधी और कठोर-स्वभाव वाले पिता के आदेश का उल्लंघन न करते हुए, काँपती हुई अपनी माता का सिर काटा — उस कार्य में जो स्वाभाविक रूप से अत्यंत घृणास्पद था, उस घृणा को भी उसने अपने संयम और कर्तव्यनिष्ठा से पहले ही जीत लिया था।

अक्षबीजवलयेन निर्वभौ दक्षिणश्रवणसंस्थितेन यः।
क्षत्रियान्तकरणैकविंशतेव्यर्व्याजपूर्वगणनामिवोद्वहन् ॥ ६६ ॥
अर्थ:
जिसके दक्षिण कान में रुद्राक्ष की इक्कीस मणियों की माला अत्यंत शोभायमान थी, वह मानो बिना किसी छल के इक्कीस क्षत्रियों के अंत की गणना को ही धारण किए हुए था।

तं पितुर्वधभवेन मन्युना राजवंशनिधनाय दीक्षितम् ॥
बालसूनुरलोक्यं भार्गवं स्वां दशां च विषसाद पार्थिवः ॥ ६७॥
अर्थ:
पिता (जमदग्नि) की हत्या से उत्पन्न क्रोध के कारण राजवंशों के संहार के लिए दीक्षित उस भार्गव (परशुराम) को, और अपने युवक पुत्र (राम) को देखकर, राजा दशरथ अपनी अवस्था को स्मरण कर अत्यन्त शोकाकुल हो गया।(Raghuvansham Sarg 11)

नाम राम इति तुल्यमात्मजे वर्तमानमहिते च दारुणे।
हृद्यमस्य भयदायि चाभवद्रत्नजातमिव हारसर्पयोः ॥ ६८ ॥
अर्थ:
राम” नाम राजा दशरथ को, एक ओर अपने प्रिय पुत्र में प्रिय और सुखद था, वहीं दूसरी ओर उस भयानक और अहितकारी (परशुराम) में भी उपस्थित होने के कारण भयदायक बन गया। यह ठीक वैसा था जैसे किसी हार में रत्न और सर्प दोनों का मिश्रण हो — जो एक ओर प्रिय और कीमती हो, तो दूसरी ओर घातक और डरावना भी।

अर्घ्यमर्थ्यसिति वादिनं नृपं सोऽनवेक्ष्य भरताग्रजो यतः।
क्षत्रकोपदहनार्चिषं ततः संदधे दृशमुदद्यतारकाम् ॥ ६९ ॥
अर्थ:
परशुराम ने राजा दशरथ को, जो अर्घ्य देने योग्य और सम्माननीय थे, बिना उचित ध्यान दिए ही तिरस्कारपूर्वक बात की। यह देखकर भरत के अग्रज राम ने, जो स्वभाव से क्षत्रियों के अपमान पर क्रोध करने वाले थे, मानो आग की ज्वाला जैसी उग्र दृष्टि से परशुराम को देखा।

तेन कार्मुकनिषक्तसुष्टिना राघवौ विगतभीः पुरोगतः।
अंगुलीविवरचारिणं शरं कुर्वता निजगदे युयुत्सुना ॥ ७० ॥
अर्थ:
परशुराम जब धनुष पर बाण चढ़ाकर अपनी गदा से युद्ध करने के लिए तैयार हुए, तो राम और लक्ष्मण निर्भय होकर उनके सामने बढ़े। यह उस समय था जब परशुराम बाण को अंगुलियों के बीच से चलाने की तैयारी में थे।

क्षत्रजातमपकारवैरि मे तन्निहत्य बहुशः शमं गतः।
सुप्तसर्प इव दण्डघनाद्रोषितोऽस्मि तव विक्रमश्रवात् ॥ ७१ ॥
अर्थ:
मैंने क्षत्रियों का — जो मेरे प्रति अपकार करने वाले और मेरे शत्रु थे — अनेक बार संहार करके मन को शांत किया था। परंतु अब तुम्हारे पराक्रम के समाचार को सुनकर, मैं एक सोए हुए सर्प की भाँति फिर से क्रोधित हो गया हूँ, जैसे कोई वज्र के समान प्रहार से जाग जाए।

मैथिलस्य धनुरन्यपार्थिवैस्त्वं किलानमितपूर्वमक्षणोः।
तन्निशस्य भवता समर्थये वीर्यशृङ्गमिव भग्नमात्मनः ॥७२॥
अर्थ:
तुमने, ऐसा कहा जाता है, जनक के उस धनुष को — जिसे अन्य राजा कभी नहीं झुका सके — अपनी आंखों के सामने तोड़ दिया। इस समाचार को सुनकर मुझे ऐसा लग रहा है मानो मेरा ही पराक्रम-गौरव (वीर्यशृंग) टूट गया हो।

अन्यदा जगति राम इत्ययं शब्द उच्चारत एव मामगात्।
ब्रीडमावहति मे स संप्रति व्यस्तवृत्तिरुदयोन्मुखे त्वयि ॥ ७३ ॥
अर्थ:
जब कभी इस संसार में ‘राम’ नाम का यह शब्द उच्चरित होता है, तो वह शब्द मेरे मन में ऐसा कष्ट और पीड़ा लेकर आता है। यह पीड़ा इस व्यस्त जीवन में अब तुम्हारे प्रति विशेष रूप से जाग रही है।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय

विभ्रतोऽत्त्रमचलेऽप्यकुण्ठितं द्वौ रिपू मम मतौ समागसौ।
धेनुवत्सहरणाच्च हैहयस्त्वं च कीर्तिमपहर्तुमुद्यतः ॥ ७४॥
अर्थ:
मेरे दो शत्रु यहाँ इस स्थान पर, जो स्थिर पर्वत की तरह भी निडर और संकोच रहित हैं, एकमत होकर आए हैं।
एक है हैहय (वंश) जो मेरी गायों और वट्सों को छीनता है, और दूसरा तुम, जो मेरी कीर्ति (प्रतिष्ठा) छीनने के लिए प्रयत्नशील हो।

क्षत्रियान्तकरणोऽपि विक्रमस्तेन मामवति नाजिते त्वयि।
पावकस्य महिमा स गण्यते कक्षवज्ज्वलति सागरेऽपि यः ॥७५॥
अर्थ:
क्षत्रिय के हृदय की वीरता भी उस व्यक्ति की है जिसने मुझसे नहीं परंतु तुमसे जीत हासिल की है। अग्नि की महिमा भी ऐसी मानी जाती है जो कमरे (कक्ष) को जलाती है, वह समुद्र में भी जलती है।

विद्धि चात्तवलमोजसा हरेरैश्वरं धनुरभाजि यत्त्वया।
खातमूलमनिलो नदीरयैः पातयत्यपि मृदुस्तटद्रुमम् ॥ ७६ ॥
अर्थ:
जानो कि जिस शक्ति से तुमने भगवान विष्णु का धनुष भेद दिया, वही शक्ति नदी के प्रवाहों द्वारा अपनी जड़ खो चुके कोमल तटवृक्ष को भी गिरा देती है।

तन्मदीयमिदमायुधं ज्यया संगमय्य शशरं विकृष्यताम्।
तिष्ठतु प्रधनमेवमप्यहं तुल्यबाहुतरसा जितस्त्वया ॥ ७७ ॥
अर्थ:
मेरे इस अस्त्र को अपनी शक्ति से नियंत्रित कर उसे भटकाओ। चाहे वह शत्रु पड़ा रहे, मैं भी तुल्यबलवान होकर तुम्हें हराऊँगा।(Raghuvansham Sarg 11)

कातरोऽसि यदि वोद्गतार्चिषा तर्जितः परशुधारया मम।
ज्यानिघातकठिनांगुलिर्वृथा बध्यतामभययाचनाञ्जलिः ॥ ७८ ॥
अर्थ:
भा०-और यदि अधिकतर चमकती हुई मेरे फरसेकी धारसें तर्जित होकर तू
डरगया है, तो वृथा ज्याके चिह्नसे कठिन अंगुलीवाली अभयकी याचना अंजली बांध।

एवमुक्तवति भीमदर्शने भार्गवे स्मितविकम्पिताधरः।
तद्धनुर्ग्रहणमेव राघवः प्रत्यपद्यत समर्थमुत्तरम् ॥ ७९ ॥
अर्थ:
भीमदर्शन (विश्वामित्र) ने ऐसा कहा तो भार्गव (राम) ने मुस्कुराते हुए और थोड़ा काँपते हुए अपने हाथ उठाए। फिर राम ने तुरंत अपने धनुष को पकड़ते हुए एक सशक्त और उचित उत्तर दिया।

पूर्वजन्मधनुषा समागतः सोऽतिमात्रलघुदर्शनोऽभवत्
केवलोऽपि सुभगो नवाम्बुदः किं पुनस्त्रिदशचापलाञ्छितः॥८०॥
अर्थ:
जो धनुष पूर्वजन्म से प्राप्त हुआ था, वह अत्यंत हल्का प्रतीत हुआ। वह एक अकेला, सुंदर, नव-ओसत (ताजा) बादल जैसा था। फिर तो क्या कहना चाहिए उस धनुष का, जो त्रिदश (तीनों लोकों) के धनुषों से सजा हुआ है।

तेन भूमिनिहितैककोटि तत्कार्मुकं च वलिनाधिरोपितम्।
निष्प्रभश्च रिपुराल भूभृतां धूमशेष इव धूमकेतनः ॥ ८१ ॥
अर्थ:
शक्तिशाली रामचन्द्र ने उस शिवधनुष की एक नोक को धरती में गाड़कर, उस पर ज्या (धनुष की डोरी) चढ़ा दी। यह दृश्य देखकर क्षत्रियों के शत्रु (परशुराम) की प्रभा (तेज/क्रोध/शौर्य) बुझती अग्नि के धुएँ की तरह म्लान हो गई।

तावुभावपि परस्परस्थितौ वर्द्धमानपरिहीनतेजसौ।
पश्यति स्म जनता दिनात्यये पार्वणौ शशिदिवाकराविव ॥ ८२ ॥
अर्थ:
राम और परशुराम दोनों आमने-सामने खड़े थे, दोनों का तेज बढ़ रहा था लेकिन किसी में भी कमी नहीं आ रही थी।
जनता यह दृश्य ऐसे देख रही थी, जैसे दिन के अंत में पूर्णिमा की रात के सूर्य और चंद्रमा को एक साथ देख रही हो।

तं कृपासृदुरवेक्ष्य भार्गवं राघवः स्खलितवीर्यमात्मनि।
स्वं-च संहितममोघमाशुगं व्याजहार हरसुनूसंनिभः ॥ ८३ ॥
अर्थ:
रामचन्द्र, जो कि शिवपुत्र कार्तिकेय के समान तेजस्वी और सौम्य थे, उन्होंने देखा कि परशुराम अब तेजहीन हो गए हैं और उनके नेत्रों में करुणा के आँसू छलक आए हैं। उनके इस दयार्द्र भाव को देखकर, और अपने अमोघ व वेगशाली बाण को तने हुए देखकर, राम ने उन्हें शांत और विनम्र वाणी में संबोधित किया।

न प्रहर्तुमलमास्म निर्दयं विप्र इत्यभिभवत्यपि त्वयि।
शंस किं गतिमनेन पचिणा हन्मि लोकसुत ते मखार्जितम् ८४ ॥
अर्थ:
रामचन्द्र कहते हैं: “हे परशुराम! आप चाहे मुझ पर उद्दंड व्यवहार कर रहे हो, फिर भी मैं तुम्हें (ब्राह्मण जानकर) निर्दयता से आहत नहीं कर सकता। परंतु अब यह बताओ कि इस चढ़ाए हुए अमोघ बाण को कहाँ चलाऊँ? क्या इसका प्रयोग मैं तुम्हारे यज्ञों से अर्जित किसी फल पर करूँ?

प्रत्युवाच तमृषिर्न तत्त्वतस्त्वां न वेद्मि पुरुषं पुरातनम्।
-गां गतस्य तव धाम वैष्णवं कोपितो ह्यास मया दिदृक्षुणा॥८५॥
अर्थ:
परशुरामजी उनसे बोले — स्वरूप से मैं तुमको पुरातन पुरुष नहीं जानता हूँ यह नहीं, किंतु पृथ्वी में प्राप्त हुए आपके वैष्णव तेज के अवलोकन की इच्छा से मैंने तुम्हें क्रोधित किया है।

भस्मसात्कृतवतः पितृद्विषः पात्रसाच्च वसुधां ससागराम्।
आहितो जयविपर्ययोऽपि से श्लाध्य एव परमेष्ठिना त्वया ॥८६॥
अर्थ:
हे राम! मैंने तो अपने पितृ (ऋषि जमदग्नि) के शत्रु क्षत्रियों को भस्म कर दिया था,
और सारी पृथ्वी (सागर सहित) को भी पात्र में डालकर ब्राह्मणों को दान दे दी थी।
फिर भी, अब तुमसे पराजित होने के बाद भी — यह पराजय ब्रह्मा के द्वारा भी प्रशंसनीय है, क्योंकि वह तुम्हारे समान आदिपुरुष से हुई है।

तद्गति मतिमतां वरेप्सितां पुण्यतीर्थगमनाय रक्ष मे।
पीडयिष्यति न मां खिलीकृता स्वर्गपद्धतिरभोगलोलुपम्॥ ८७ ॥
अर्थ:
हे राम! अब आप मेरी रक्षा कीजिए, ताकि मैं उन पुण्य तीर्थों की यात्रा कर सकूँ जो बुद्धिमान महात्माओं द्वारा वरेण्य मोक्ष-मार्ग की प्राप्ति के लिए की जाती हैं। अब मुझे स्वर्ग की वह पद्धति, जो भोगों की लालसा से उत्पन्न हुई है, पीड़ा नहीं देगी, क्योंकि मैं अब भोग में लोलुप नहीं रहा।

प्रत्यपद्यत तथेति राघवः प्राङ्मुखश्च विससर्ज सायकम्।
भार्गवस्य सुक्कृतोऽपि सोऽभवत्स्वर्गमार्गपारघो दुरत्ययः ॥ ८८ ॥
अर्थ:
रामचन्द्र ने परशुराम के कथन को स्वीकार किया, और सामने मुख करके अपना धनुष छोड़ दिया। परशुराम, जो अच्छे कर्मों वाले और पुण्यशील थे, अब स्वर्ग के मार्ग में पारंगत और दुर्लभ ज्ञानी बन गए।

राघवोऽपि चरणौ तपोनिधेः क्षम्यतामिति वदन्समस्पृशत्।
निर्जितेषु तरसा तरस्विनां शत्रुषु प्रणतिरेव कीर्तये ॥ ८९ ॥
अर्थ:
रामचन्द्र ने कहा और अपने मुख को परशुराम के चरणों से स्पर्श करते हुए कहा:
“हे तपोनिधि (महान तपस्वी), कृपया मुझे क्षमा करें। वे यह भी कहते हैं कि पराजित शत्रुओं में, जो अपनी आत्मा को शुद्ध और निर्मल रखते हैं, ऐसे शत्रु का सम्मान और प्रणाम करना चाहिए।

राजसत्वमवधूय मातृकं पित्र्यमस्मि गमितः शमं यदा।
नन्वनिन्दितफलो मम त्वया निग्रहोऽप्ययमनुग्रहीकृतः ॥ ९० ॥
अर्थ:
मैं अपने क्रोध और मोह के स्वभाव को छोड़कर, अपने मातृ-पितृ के कुल (वंश) के साथ, शांति की ओर बढ़ा हूँ। क्या मेरे इस कदम का परिणाम तुम्हारे द्वारा दिये गए नियंत्रण या विरोध के कारण दोषपूर्ण हो गया? नहीं, बल्कि यह सब तुम्हारी कृपा से ही संभव हुआ है।(Raghuvansham Sarg 11)

साधयाम्यहमविघ्नमस्तु ते देवकार्यसुपपादयिष्यतः।
ऊचिवानिति वचः सलक्ष्मणं. लक्ष्मणाग्रजमृषिस्तिरोर्बंधे ॥९१॥
अर्थ:
मैं, जो देवकार्य (ईश्वरीय कार्य) को सिद्ध करने वाला हूँ, तुम्हारी विजय की कामना करता हूँ। यह वचन कहते हुए, ऋषि (परशुराम) लक्ष्मण सहित रामचन्द्र के सामने प्रकट हुए और फिर अदृश्य हो गए।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ तांत्रोक्तम् देवी सूक्तम्

तस्मिन्गते विजयिनं परिरभ्य रामं स्नेहादमन्यत पिता पुनरेव जातम्।
तस्याभवत्क्षणशुचः परितोषलाभः कक्षाग्निलङ्घिततरोरिव वृष्टिपातः ॥ ९२ ॥
अर्थ:
जब परशुराम चले गए, तो पिता दशरथ ने प्रेम से राम को गले लगाया और उसे स्वीकार किया। ऐसे लगा जैसे पिता पुनः जन्मा हो। उस समय उनके मन में एकदम से शुद्धता और संतोष का अनुभव हुआ।

अथ पथि गमयित्वा कृप्तरम्योपकार्ये कतिचिदवनिपालः शर्वरीः शर्वकल्पः।
पुरमविशदयोध्यां मैथिलीदर्शनीनां कवलयितगवाक्षां लोचनैरङ्गनानाम् ॥ ९३ ॥
अर्थ:
महादेव के समान शूरवीर राजाओं ने, सजावट से सुशोभित मार्ग पर कुछ दिनों तक प्रवास किया। फिर वे उन स्त्रियों की नेत्ररूपी कमलों से सजी झरोखों वाली अयोध्या में प्रवेश किए, जो जानकी (सीता) को देखने को आतुर थीं।

इति श्रीमहाकविकालिदास विरचिते रघुवंशे महाकाव्ये एकादशः सर्गः ॥ ११॥
अर्थ:
इस प्रकार, महान कवि कालिदास द्वारा रचित रघुवंश महाकाव्य के एकादश सर्ग समाप्त होता है।

 

ग्यारहवाँ सर्ग कथा:

विश्वामित्र ऋषि ने यज्ञ की रक्षा के लिए कुमार राम और उनके भ्राता उक्ष्मण को मांगलिया से बुलाया और अपने आश्रम की ओर चल पड़े। रास्ते में रामचंद्र ने ताड़का नामक दैत्य का वध किया। आगे बढ़कर ऋषि ने राम और लक्ष्मण को बंड और अतिबल नामक विद्याएँ सिखाईं।

फिर वे आश्रम जाकर यज्ञ करने लगे। इस यज्ञ में रामचंद्र ने सुबाहु नामक दुष्ट प्राणी का प्राण संहार किया और मारीच नामक दुष्ट को सागर पार फेंक दिया। यज्ञ पूर्ण होने पर जनकजी ने विश्वामित्र ऋषि को बुलाया।

विश्वामित्र ऋषि ने राम-लक्ष्मण को लेकर जनकपुर चले। रास्ते में गौतम मुनि की पत्नी, जो शाप से शिला (पत्थर) बन चुकी थी, को मुक्त कराया और जनकपुर पहुँचे। वहाँ राजा जनक के महल में कई राजाओं के बीच अशक्य धनुष रखा था। राम ने वह धनुष उठा कर तोड़ दिया। इससे जनक प्रसन्न हुए और अयोध्या के राजा दशरथ को बुलाया।

राम के साथ सीता का विवाह हुआ, लक्ष्मण के साथ उर्मिला का, और भरत व शत्रुघ्न का जनक की भतीजी मांडवी और श्रुतकीर्ति से विवाह हुआ। जब दशरथ अयोध्या लौट रहे थे, तो मार्ग में परशुराम ने उन्हें रोका। परशुराम ने राम का तेज और शक्ति देखकर उनका धनुष ले लिया और स्वर्ग प्राप्ति का रास्ता भी रोका।

विश्वामित्र का मार्गदर्शन: विश्वामित्र ने राम-लक्ष्मण को न केवल यज्ञ की रक्षा के लिए बुलाया, बल्कि उन्हें विभिन्न विद्याएँ भी सिखाईं, जिससे उनकी शक्ति और भी बढ़ी।

ताड़का वध: ताड़का का वध एक महत्वपूर्ण घटना है जो राम के दैत्य पर विजय और धर्म की स्थापना का प्रतीक है।

सुबहु और मारीच का संहार: यह दर्शाता है कि राम ने बुराई के सभी रूपों का नाश किया।

धनुष तोड़ना: अशक्य धनुष तोड़ना राम की दिव्य शक्ति और उनकी योग्य दुल्हन सीता के साथ विवाह का परिचायक है।

विवाह संस्कार: राम-सीता सहित अन्य प्रमुख पात्रों के विवाह से राजघराने में शांति और सामंजस्य स्थापित हुआ।

परशुराम का परिक्षण: परशुराम ने राम की शक्ति को परखा और स्वीकार किया कि अब युद्धभूमि में उनका स्थान राम को सौंपना होगा।

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