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Shri Gayatri Kavacham in Hindi

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Shri Gayatri Kavacham in Hindi

श्री गायत्री कवचम् | Shri Gayatri Kavacham

श्री गायत्री कवचम् (Gayatri Kavacham) एक दिव्य कवचम है जिसे स्वयं भगवान विष्णु ने देवर्षि नारद को कहा था और इस कवच की रचना महर्षि वेद व्यास ने की थी। श्री गायत्री कवचम् का उल्लेख श्रीमद् भागवतम पुराण के 12वें स्कंदम में किया गया है। भगवान श्रीमन नारायण देवर्षि नारद को श्री गायत्री कवचम् (Gayatri Kavacham) की महिमा और माँ गायत्री की पूजा से प्राप्त भक्ति के बारे में कहा गया हैं।

श्री गायत्री कवच (Gayatri Kavacham) पुण्य, पवित्र, पापों का नाश करने वाला तथा रोगों को दूर करने वाला है। जो विद्वान् तीनों काल इस गायत्री कवच का पाठ करते हैं, उनका संपूर्ण मनोरथ सिद्ध हो जाता है। गायत्री कवच के नित्य पाठ से मनुष्य संपूर्ण शास्त्रों के तत्त्व का ज्ञाता एवं वेदज्ञ हो जाता है और उसे संपूर्ण यज्ञों के फलों की प्राप्ति होती है तथा अंत में वो ब्रह्मपद को प्राप्त करता है तथा उसे चारों पुरुषार्थ अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति अनायास ही हो जाती है।’

आदि महर्षियों को इस परिस्थिति का स्पष्ट आभास था कि आगे चलकर मानव की प्रकृति मलिन, अस्थिर और संशयशील हो जाएगी, सामाजिक नियमों के प्रति आस्था डिग जाएगी और भौतिक जीवन की जटिलता उसे साधना पथ पर अग्रसर नहीं होने देगी। इसलिए उन्होंने अनेक समस्याओं के समाधान हेतु कवच आदि को साधना का सहजसाध्य और सर्वकालिक सिद्धिप्रद उपाय घोषित कर दिया था। यही कारण है कि गायत्री की साधना उपासना तब भी महत्त्वपूर्ण थी और आज भी उसका महत्त्व प्रभाव अक्षुण्ण है। श्री गायत्री कवच (Gayatri Kavacham) गायत्री साधना का महत्त्वपूर्ण अंग है।

श्री गायत्री कवचम् (Gayatri Kavacham) में माँ गायत्री की स्तुति, मंत्र, और उनकी शक्तियों का वर्णन है। इस कवच का पाठ करने से व्यक्ति को भय, संकट, और अन्य अनिष्टों से मुक्ति प्राप्त होती है। यह कवच गायत्री देवी की कृपा को प्राप्त करने का एक अच्छा और प्रभावी उपाय माना जाता है।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ गायत्री मंत्र का अर्थ हिंदी में

श्री गायत्री कवचम्

विनियोग :

ॐ अस्य श्रीगायत्री – कवचस्य ब्रह्मा विष्णु रुद्रा ऋषयः, ऋग् यजुः सामाऽथर्वाणि छन्दांसि, परब्रह्म स्वरूपिणी गायत्रीदेवता, भूः बीजम्, भुवः शक्तिः, स्वाहा कीलकम्, श्रीगायत्रीप्रीत्यर्थं जपे विनियोगः ।

अर्थ:
अपने दाहिने हाथ में जल लेकर, ‘ॐ अस्य श्रीगायत्रीकवचस्य’ से आरंभ कर, ‘जपे विनियोगः’ तक मंत्र पढ़कर भूमि पर जल छोड़ दें (मंत्रार्थ इस प्रकार है- इस गायत्री कवच के ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र ऋषि हैं; ऋग्, यजुः, साम तथा अथर्व छंद हैं, परब्रह्मस्वरूपिणी गायत्री देवता हैं; भूः बीज है, भुवः शक्ति है, स्वाहा कीलक् है, गायत्री की प्रीति के लिए इसका पाठ करना चाहिए)।

ध्यान :

वर्णास्त्रां कुण्डिकाहस्तां शुद्ध निर्मल ज्योतिषीम् ।
सर्वतत्त्वमयीं वन्दे गायत्रीं वेदमातरम् ॥
मुक्ता विद्रुम हेम नील धवलच्छायैर्मुखैस्त्रीक्षणै।
र्युक्तामिन्दु निबद्ध रत्नमुकुटां तत्वार्थ वर्णात्मिकाम्।
गायत्रीं वरदाऽभयाऽङ्कुश कशां शूलं कपालं गुणं।
शङ्ख चक्रमथारविन्दयुगलं हस्तैर्वहन्तीं भजे ॥

अर्थ:
संपूर्ण वर्णों के स्वरूप वाली, कुण्डिका को धारण करने वाली, शुद्ध, निर्मल ज्योति स्वरूप वाली, संपूर्ण तत्त्वों से विराजमान, वेदमाता गायत्री की मैं वंदना करता हूं। मोती, मूंगा, स्वर्ण, नील तथा स्वच्छ छाया वाले मुख से जो सुशोभित हैं तथा स्त्रियोचित संपूर्ण मंगलों से जो युक्त हैं और रत्नजटित चंद्रकला से जो सुशोभित हैं, जो वर्णस्वरूप हैं तथा ब्रह्मस्वरूपिणी हैं। जिनके हाथों में वर, अभय, अंकुश, कशा, शूल, कपाल, धनुष, शंख, चक्र तथा कमल का जोड़ा सुशोभित हो रहा है, ऐसी गायत्री देवी का मैं ध्यान करता हूं।

कवच :

ॐ गायत्री पूर्वतः पातु सावित्री पातु दक्षिणे।
ब्रह्मविद्या च मे पश्चादुत्तरे मां सरस्वती ॥1॥
अर्थ:
गायत्री पूर्व दिशा में, सावित्री दक्षिण दिशा में, महाविद्या पश्चिम दिशा में तथा सरस्वती उत्तर दिशा में हमारी रक्षा करें।

पावकीं मे दिशं रक्षेत् पावकोज्वलशालिनी।
यातुधानीं दिशं रक्षेद्यातुधान गणार्दिनी ॥2॥
अर्थ:
अग्नि के समान देदीप्यमान देवी अग्निकोण में, यातुधानों का नाश करने वाली नैऋत्यकोण में हमारी रक्षा करें।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ दस महाव‍िद्याएं कौन कौन सी हैं?

पावमानीं दिशं रक्षेत् पवमान विलासिनी।
दिशं रौद्रीमवतु मे रुद्राणी रुद्ररूपिणी ॥3॥
अर्थ:
वायु के समान विलास करने वाली देवी वायव्यकोण में, रुद्ररूपिणी भगवती रुद्राणी ईशानकोण में हमारी रक्षा करें।

ऊर्ध्वं ब्रह्माणि मे रक्षेदधस्ताद् वैष्णवी तथा।
एवं दश दिशो रक्षेत् सर्वतो भुवनेश्वरी ॥4॥
अर्थ:
ब्रह्माणी ऊपर तथा वैष्णवी नीचे की ओर हमारी रक्षा करें। भुवनेश्वरी सभी स्थानों में हमारी रक्षा करें। इस प्रकार उपर्युक्त सभी देवियां दस दिशाओं में रक्षा करें।

ब्रह्मास्त्र स्मरणादेव वाचां सिद्धिः प्रजायते।
ब्रह्मदण्डश्च मे पातु सर्वशस्वाऽस्त्र भक्षकः ॥5॥
ब्रह्मशीर्षस्तथा पातु शत्रूणां वधकारकः ।
सप्तव्याहृतयः पान्तु सर्वदा बिन्दुसंयुताः ॥6॥
अर्थ:
संपूर्ण शास्त्रों का विनाश करने वाले ब्रह्मदण्ड से हमारी रक्षा करे। शत्रुओं का वध करने वाला ब्रह्मशीर्ष हमारी रक्षा करे। विसर्ग के सहित सप्रणव व्याहृतियां सर्वदा हमारी रक्षा करें।

वेदमाता च मां पातु सरहस्या सदेवता।
देवीसूक्तां सदा पातु सहस्त्राक्षरदेवता ॥7॥
चतुष्षष्टिकलाविद्या दिव्याद्या पातु देवता।
बीजशक्तिश्च मे पातु पातु विक्रमदेवता ॥8॥
अर्थ:
स-रहस्या एवं स-दैवता तथा वेदमाता हमारी रक्षा करें, जिसके सहस्राक्षर देवता हैं, वह देवीसूक्त हमारी रक्षा करे। चतुःषष्टि कलासमेत दिव्य विद्या हमारी रक्षा करे। बीज-शक्ति हमारी रक्षा करे। विक्रमदेवता हमारी रक्षा करे।

तत्पदं पातु मे पादौ जड्डे मे सवितुः पदम् ।
वरेण्यं कटिदेशं तु नाभिं भर्गस्तथैव च ॥9॥
अर्थ:
‘तत्’ पद पैर की रक्षा करे, ‘सवितुः’ पद जंघे की, ‘वरेण्यं’ कटि देश की तथा ‘भर्ग’ पद नाभिस्थान की रक्षा करे।

देवस्य मे तु हृदयं धीमहीति गलं तथा ।
धियो मे पातु जिह्वायां यः पदं पातु लोचने ॥10॥
अर्थ:
‘देवस्य’ हृदय की, ‘धीमहि’ गले की, ‘धियः’ जिह्वा की, ‘यः’ पद नेत्र की रक्षा करे।

ललाटे नः पदं पातु मूर्द्धानं मे प्रचोदयात्।
तद्वर्णः पातु मूर्द्धानं सकारः पातु भालकम् ॥11॥
अर्थ:
‘नः’ ललाट की, ‘प्रचोदयात्’ शिर की रक्षा करे। ‘ततः’ वर्ण मूर्धा की तथा ‘स’ वर्ण भाल को रक्षा करे।

चक्षुषी मे विकारस्तु श्रोत्रं रक्षेत्तु कारकः ।
नासापुटे वकारो मे रेकारस्तु कपोलयोः ॥12॥
अर्थ:
‘वि’ वर्ण दोनों चक्षुओं की, ‘तु’ वर्ण दोनों कान की, ‘व’ नासापुटों की, ‘रे’ वर्ण कपोलों की रक्षा करे।

णिकारस्त्वधरोष्ठे च यकारस्तूर्ध्व ओष्ठके।
आस्यामध्ये भकारस्तु गोंकारस्तु कपोलयोः ॥13॥
अर्थ:
‘ण’ वर्ण अधरोष्ठ की, ‘य’ ऊपर के होंठ की, ‘भ’ वर्ण मुख के मध्य में, ‘र्गो’ दोनों कपोलों की रक्षा करें।

देकारः कण्ठदेशे च वकारः स्कन्धदेशयोः ।
स्यकारो दक्षिणं हस्तं धीकारो वामहस्तकम् ॥14॥
मकारो हृदयं रक्षेद् हिकारो जठरं तथा ।
धिकारो नाभिदेशं तु योकारस्तु कटिद्वयम् ॥15॥
अर्थ:
‘दे’ कण्ठदेश की, ‘व’ स्कंधदेश की, ‘स्य’ दाहिने हाथ की, ‘धी’ बाएं हाथ की रक्षा करे। ‘मं’ हृदय की, ‘हि’ जठर की, ‘धि’ नाभिस्थान की, ‘यो’ दोनों कटि भाग की रक्षा करे।

गुह्यं रक्षतु योकार ऊरू में नः पदाक्षरम्।
प्रकारो जानुनी रक्षेच्चोकारो जङ्घदेशयोः ॥16॥
दकारो गुल्फदेशं तु यात्कारः पादयुग्मकम् ।
जातवेदेति गायत्री त्र्यम्बकेति दशाक्षरा ॥17॥
अर्थ:
‘यो’ गुह्यांग की, ‘नः’ पद एवं अक्षर दोनों उरु, ‘प्र’ दोनों घुटनों की, ‘चो’ दोनों जंघा की रक्षा करे। ‘द’ गुल्फ की, ‘यात्’ दोनों पैरों का रक्षा करे।

सर्वतः सर्वदा पातु आपो ज्योतीति षोडशी।
इदं तु कवचं दिव्यं बाधा शत विनाशकम् ॥18॥
चतुष्षष्टिकलाविद्या सकलैश्वर्य सिद्धिदम् ।
जपारम्भे च हृदयं जपान्ते कवचं पठेत् ॥19॥
अर्थ:
यह गायत्री का कवच सैकड़ों बाधाओं को नष्ट करने वाला है, चौंसठ कलाओं तथा समस्त ऐश्वर्य को देने वाला है। गायत्री जप के आरंभ में गायत्री- हृदय तथा जप के अंत में गायत्री कवच का पाठ करना चाहिए।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री ललितासहस्रनाम स्तॊत्रम्

स्त्री गो ब्राह्मण मित्रादि द्रोहाद्यखिल पातकैः।
मुच्यते सर्वपापेभ्यः परं ब्रह्माधि गच्छति ॥20॥
अर्थ:
स्त्रीवध, गोवध, ब्राह्मणवध तथा मित्रद्रोह आदि पापों को नष्ट करने वाला है। गायत्री-कवच का पाठ करने वाला पुरुष परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।

पुष्पाञ्जलिं च गायत्र्या मूलेनैव पठेत् सकृत्।
शतसाहस्त्र वर्षाणां पूजायाः फलमाप्नुयात् ॥21॥
अर्थ:
इस गायत्री के कवच का सदैव पाठ कर मूल मंत्र से गायत्री को एक बार भी पुष्पांजलि देने से सैकड़ों तथा हजारों वर्ष के पूजा का फल प्राप्त होता है।

भूर्जपत्रे लिखित्वैतत् स्वकण्ठे धारयेद् यदि।
शिखायां दक्षिणे बाहौ कण्ठे वा धारयेद् बुधः ॥22॥
त्रैलोक्यं क्षोभयेत् सर्व त्रैलोक्यं दहति क्षणात् ।
पुत्रवान् धनवाञ्छ्रीमान् नानाविद्यानिधिर्भवेत् ॥13॥
अर्थ:
जो बुद्धिमान पुरुष इस गायत्री कवच को भोजपत्र पर लिखकर, कण्ठ, शिखा तथा दाहिने हाथ में अथवा मणिबंध में धारण करते हैं, वे क्षण भर में त्रैलोक्य को क्षुब्ध कर सकते हैं अथवा तीनों लोकों का नाश कर सकते हैं। वे पुत्रवान्, धनवान्, श्रीमान् तथा अनेक विद्याओं के निधि विशेषज्ञ बन जाते हैं।

ब्रह्मास्त्रादीनि सर्वाणि तदङ्गस्पर्शनात्ततः ।
भवन्ति तस्य तुच्छानि किमन्यत् कथयामि ते ॥24॥
अर्थ:
इस गायत्री-कवच के पात के फल को बहुत कहने से क्या ? ब्रह्मास्त्रादि भी उसके अंग के स्पर्श से तुच्छ हो जाते हैं।

न देयं परशिष्येभ्यो ह्यभक्तेभ्यो विशेषतः ।
शिष्येभ्यो भक्तियुक्तेभ्यो ह्यन्यथा मृत्युमाप्नुयात् ॥25॥
अर्थ:
गायत्री-कवच तथा जप आदि की उपर्युक्त विधि दूसरे शिष्य को नहीं देनी चाहिए तथा जो भक्त न हो, उसे भी नहीं देनी चाहिए। अपने शिष्य तथा भक्त को ही यह सब कहना चाहिए अन्यथा वो मृत्यु को प्राप्त कर लेता है।

इति श्रीअगस्त्यसंहितायां ब्रह्मनारायणसंवादे प्रकृतिखण्डे गायत्रीकवचं सम्पूर्णम् ॥

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