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Mahabharata Adi Parva Chapters 17 to 21

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Mahabharata Adi Parva Chapters 17 to 21

॥ श्रीहरिः ॥

श्रीगणेशाय नमः 

॥ श्रीवेदव्यासाय नमः ॥

श्रीमहाभारतम् आदिपर्व ~ (Mahabharata Adi Parva Chapters 17 to 21)

महाभारत आदि पर्व (Adi Parva Chapters 17 to 21) के इस पोस्ट में अध्याय 17 से अध्याय 21 दिया गया है। इसमे मेरुपर्वतपर अमृतके लिये विचार करनेवाले देवताओंको भगवान् नारायणका समुद्रमन्थनके लिये आदेश, देवताओं और दैत्योंद्वारा अमृतके लिये समुद्रका मन्थन, अनेक रत्नोंके साथ अमृतकी उत्पत्ति और भगवान्का मोहिनीरूप धारण करके दैत्योंके हाथसे अमृत ले लेना, देवताओंका अमृतपान, देवासुरसंग्राम तथा देवताओंकी विजय, कद्रू और विनताकी होड़, कद्रूद्वारा अपने पुत्रोंको शाप एवं ब्रह्माजीद्वारा उसका अनुमोदन और समुद्रका विस्तारसे वर्णन कहा गया है।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ संपूर्ण महाभारत हिंदी में

अध्याय सत्रह

मेरुपर्वतपर अमृतके लिये विचार करनेवाले देवताओंको भगवान् नारायणका समुद्रमन्थनके लिये आदेश

सौतिरुवाच
एतस्मिन्नेव काले तु भगिन्यौ ते तपोधन ।
अपश्यतां समायाते उच्चैःश्रवसमन्तिकात् ॥ १ ॥
यं तं देवगणाः सर्वे हृष्टरूपमपूजयन् ।
मध्यमानेऽमृते जातमश्वरत्नमनुत्तमम् ॥ २ ॥
अमोघबलमश्वानामुत्तमं जगतां वरम् ।
श्रीमन्तमजरं दिव्यं सर्वलक्षणपूजितम् ॥ ३ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- तपोधन ! इसी समय कट्टू और विनता दोनों बहनें एक साथ ही
घूमनेके लिये निकलीं। उस समय उन्होंने उच्चैःश्रवा नामक घोड़ेको निकटसे जाते देखा। वह परम उत्तम अश्वरत्न अमृतके लिये समुद्रका मन्थन करते समय प्रकट हुआ था। उसमें अमोघ बल था। वह संसारके समस्त अश्वोंमें श्रेष्ठ, उत्तम गुणोंसे युक्त, सुन्दर, अजर, दिव्य एवं सम्पूर्ण शुभ लक्षणोंसे संयुक्त था। उसके अंग बड़े हृष्ट-पुष्ट थे। सम्पूर्ण देवताओंने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी ॥ १-३ ॥

शौनक उवाच
कथं तदमृतं देवैर्मथितं क्व च शंस मे ।
यत्र जज्ञे महावीर्यः सोऽश्वराजो महाद्युतिः ॥ ४ ॥
शौनकजीने पूछा- सूतनन्दन ! अब मुझे यह बताइये कि देवताओंने अमृत-मन्थन किस प्रकार और किस स्थानपर किया था, जिसमें वह महान् बल-पराक्रमसे सम्पन्न और अत्यन्त तेजस्वी अश्वराज उच्चैःश्रवा प्रकट हुआ? ॥ ४ ॥

सौतिरुवाच
ज्वलन्तमचलं मेरुं तेजोराशिमनुत्तमम् ।
आक्षिपन्तं प्रभां भानोः स्वशृङ्गैः काञ्चनोज्ज्वलैः ॥ ५ ॥
कनकाभरणं चित्रं देवगन्धर्वसेवितम् ।
अप्रमेयमनाधृष्यमधर्मबहुलैर्जनैः ॥ ६ ॥
उग्रश्रवाजीने कहा- शौनकजी! मेरु नामसे प्रसिद्ध एक पर्वत है, जो अपनी प्रभासे प्रज्वलित होता रहता है। वह तेजका महान् पुंज और परम उत्तम है। अपने अत्यन्त प्रकाशमान सुवर्णमय शिखरोंसे वह सूर्यदेवकी प्रभाको भी तिरस्कृत किये देता है। उस स्वर्णभूषित विचित्र शैलपर देवता और गन्धर्व निवास करते हैं। उसका कोई माप नहीं है। जिनमें पापकी मात्रा अधिक है, ऐसे मनुष्य वहाँ पैर नहीं रख सकते ॥ ५-६ ॥

व्यालैरावारितं घोरैर्दिव्यौषधिविदीपितम् ।
नाकमावृत्य तिष्ठन्तमुच्छ्रयेण महागिरिम् ॥ ७ ॥
अगम्यं मनसाप्यन्यैर्नदीवृक्षसमन्वितम् ।
नानापतगसङ्घश्च नादितं सुमनोहरैः ॥ ८ ॥
वहाँ सब ओर भयंकर सर्प भरे पड़े हैं। दिव्य ओषधियाँ उस तेजोमय पर्वतको और भी उद्भासित करती रहती हैं। वह महान् गिरिराज अपनी ऊँचाईसे स्वर्गलोकको घेरकर खड़ा है। प्राकृत मनुष्योंके लिये वहाँ मनसे भी पहुँचना असम्भव है। वह गिरिप्रदेश बहुत-सी नदियों और असंख्य वृक्षोंसे सुशोभित है। भिन्न-भिन्न प्रकारके अत्यन्त मनोहर पक्षियोंके समुदाय अपने कलरवसे उस पर्वतको कोलाहलपूर्ण किये रहते हैं ॥ ७-८ ॥(Adi Parva Chapters 17 to 21)

तस्य शृङ्गमुपारुह्य बहुरत्नाचितं शुभम् ।
अनन्तकल्पमुद्विद्धं सुराः सर्वे महौजसः ॥ ९ ॥
ते मन्त्रयितुमारब्धास्तत्रासीना दिवौकसः ।
अमृताय समागम्य तपोनियमसंयुताः ॥ १० ॥
तत्र नारायणो देवो ब्रह्माणमिदमब्रवीत् ।
चिन्तयत्सु सुरेष्वेवं मन्त्रयत्सु च सर्वशः ॥ ११ ॥
देवैरसुरसङ्घश्च मथ्यतां कलशोदधिः ।
भविष्यत्यमृतं तत्र मथ्यमाने महोदधौ ॥ १२ ॥
उसके शुभ एवं उच्चतम शृंग असंख्य चमकीले रत्नोंसे व्याप्त हैं। वे अपनी विशालताके कारण आकाशके समान अनन्त जान पड़ते हैं। समस्त महातेजस्वी देवता मेरुगिरिके उस महान् शिखरपर चढ़कर एक स्थानमें बैठ गये और सब मिलकर अमृत- प्राप्तिके लिये क्या उपाय किया जाय, इसका विचार करने लगे। वे सभी तपस्वी तथा शौच- संतोष आदि नियमोंसे संयुक्त थे। इस प्रकार परस्पर विचार एवं सबके साथ मन्त्रणामें लगे हुए देवताओंके समुदायमें उपस्थित हो भगवान् नारायणने ब्रह्माजीसे यों कहा- ‘समस्त देवता और असुर मिलकर महासागरका मन्थन करें। उस महासागरका मन्थन आरम्भ होनेपर उसमेंसे अमृत प्रकट होगा ॥ ९-१२ ॥

सर्वोषधीः समावाप्य सर्वरत्नानि चैव ह।
मन्थध्वमुदधिं देवा वेत्स्यध्वममृतं ततः ॥ १३ ॥
‘देवताओ! पहले समस्त ओषधियों, फिर सम्पूर्ण रत्नोंको पाकर भी समुद्रका मन्थन जारी रखो। इससे अन्तमें तुमलोगोंको निश्चय ही अमृतकी प्राप्ति होगी’ ॥ १३ ॥

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि अमृतमन्थने सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें अमृतमन्थनविषयक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १७ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमहाभारतम् आदिपर्व प्रथमोऽध्यायः

अठारहवाँ अध्याय

देवताओं और दैत्योंद्वारा अमृतके लिये समुद्रका मन्थन, अनेक रत्नोंके साथ अमृतकी उत्पत्ति और भगवान्का मोहिनीरूप धारण करके दैत्योंके हाथसे अमृत ले लेना

सौतिरुवाच
ततोऽभ्रशिखराकारैर्गिरिशृङ्गैरलंकृतम् ।
मन्दरं पर्वतवरं लताजालसमाकुलम् ॥ १ ॥
नानाविहगसंघुष्टं नानादंष्ट्रिसमाकुलम् ।
किन्नरैरप्सरोभिश्च देवैरपि च सेवितम् ॥ २ ॥
एकादश सहस्राणि योजनानां समुच्छ्रितम् ।
अधो भूमेः सहस्रेषु तावत्स्वेव प्रतिष्ठितम् ॥ ३ ॥
तमुद्धर्तुमशक्ता वै सर्वे देवगणास्तदा ।
विष्णुमासीनमभ्येत्य ब्रह्माणं चेदमब्रुवन् ॥ ४ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- शौनकजी ! तदनन्तर सम्पूर्ण देवता मिलकर पर्वतश्रेष्ठ मन्दराचलको उखाड़नेके लिये उसके समीप गये। वह पर्वत श्वेत मेघखण्डोंके समान प्रतीत होनेवाले गगनचुम्बी शिखरोंसे सुशोभित था। सब ओर फैली हुई लताओंके समुदायने उसे आच्छादित कर रखा था। उसपर चारों ओर भाँति-भाँतिके विहंगम कलरव कर रहे थे। बड़ी-बड़ी दाढ़ोंवाले व्याघ्र सिंह आदि अनेक हिंसक जीव वहाँ सर्वत्र भरे हुए थे। उस पर्वतके विभिन्न प्रदेशोंमें किन्नरगण, अप्सराएँ तथा देवतालोग निवास करते थे। उसकी ऊँचाई ग्यारह हजार योजन थी और भूमिके नीचे भी वह उतने ही सहस्र योजनोंमें प्रतिष्ठित था। जब देवता उसे उखाड़ न सके, तब वहाँ बैठे हुए भगवान् विष्णु और ब्रह्माजीसे इस प्रकार बोले ॥ १-४ ॥

भवन्तावत्र कुर्वीतां बुद्धिं नैःश्रेयसीं पराम् ।
मन्दरोद्धरणे यत्नः क्रियतां च हिताय नः ॥ ५ ॥
‘आप दोनों इस विषयमें कल्याणमयी उत्तम बुद्धि प्रदान करें और हमारे हितके लिये मन्दराचल पर्वतको उखाड़नेका यत्न करें’ ॥ ५ ॥(Adi Parva Chapters 17 to 21)

सौतिरुवाच
तथेति चाब्रवीद् विष्णुर्ब्रह्मणा सह भार्गव ।
अचोदयदमेयात्मा फणीन्द्रं पद्मलोचनः ॥ ६ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- भृगुनन्दन ! देवताओंके ऐसा कहनेपर ब्रह्माजीसहित भगवान् विष्णुने कहा- ‘तथास्तु (ऐसा ही हो)’। तदनन्तर जिनका स्वरूप मन, बुद्धि एवं प्रमाणोंकी पहुँचसे परे है, उन कमलनयन भगवान् विष्णुने नागराज अनन्तको मन्दराचल उखाड़नेके लिये आज्ञा दी ॥ ६ ॥

ततोऽनन्तः समुत्थाय ब्रह्मणा परिचोदितः ।
नारायणेन चाप्युक्तस्तस्मिन् कर्मणि वीर्यवान् ॥ ७ ॥
जब ब्रह्माजीने प्रेरणा दी और भगवान् नारायणने भी आदेश दे दिया, तब अतुलपराक्रमी अनन्त (शेषनाग) उठकर उस कार्यमें लगे ॥ ७ ॥

अथ पर्वतराजानं तमनन्तो महाबलः ।
उज्जहार बलाद् ब्रह्मन् सवनं सवनौकसम् ॥ ८ ॥
ब्रह्मन्! फिर तो महाबली अनन्तने जोर लगाकर गिरिराज मन्दराचलको वन और वनवासी जन्तुओंसहित उखाड़ लिया ॥ ८ ॥

ततस्तेन सुराः सार्ध समुद्रमुपतस्थिरे ।
तमूचुरमृतस्यार्थे निर्मथिष्यामहे जलम् ॥ ९ ॥
अपां पतिरथोवाच ममाप्यंशो भवेत् ततः ।
सोढास्मि विपुलं मर्द मन्दरभ्रमणादिति ॥ १० ॥
तत्पश्चात् देवतालोग उस पर्वतके साथ समुद्रतटपर उपस्थित हुए और समुद्रसे बोले -‘हम अमृतके लिये तुम्हारा मन्थन करेंगे।’ यह सुनकर जलके स्वामी समुद्रने कहा – ‘यदि अमृतमें मेरा भी हिस्सा रहे तो मैं मन्दराचलको घुमानेसे जो भारी पीड़ा होगी, उसे सह लूँगा’ ॥ ९-१० ॥

ऊचुश्च कूर्मराजानमकूपारे सुरासुराः ।
अधिष्ठानं गिरेरस्य भवान् भवितुमर्हति ॥ ११ ॥
तब देवताओं और असुरोंने (समुद्रकी बात स्वीकार करके) समुद्रतलमें स्थित कच्छपराजसे कहा- ‘भगवन्! आप इस मन्दराचलके आधार बनिये’ ॥ ११ ॥

कूर्मेण तु तथेत्युक्त्वा पृष्ठमस्य समर्पितम् ।
तं शैलं तस्य पृष्ठस्थं वज्रेणेन्द्रो न्यपीडयत् ॥ १२ ॥
तब कच्छपराजने ‘तथास्तु’ कहकर मन्दराचलके नीचे अपनी पीठ लगा दी। देवराज इन्द्रने उस पर्वतको वज्रद्वारा दबाये रखा ॥ १२ ॥

मन्थानं मन्दरं कृत्वा तथा नेत्रं च वासुकिम् ।
देवा मथितुमारब्धाः समुद्रं निधिमम्भसाम् ॥ १३ ॥
अमृतार्थे पुरा ब्रह्मस्तथैवासुरदानवाः ।
एकमन्तमुपाश्लिष्टा नागराज्ञो महासुराः ॥ १४ ॥
विबुधाः सहिताः सर्वे यतः पुच्छं ततः स्थिताः ।
ब्रह्मन् ! इस प्रकार पूर्वकालमें देवताओं, दैत्यों और दानवोंने मन्दराचलको मथानी और वासुकि नागको डोरी बनाकर अमृतके लिये जलनिधि समुद्रको मथना आरम्भ किया। उन महान् असुरोंने नागराज वासुकिके मुखभागको दृढ़तापूर्वक पकड़ रखा था और जिस ओर उसकी पूँछ थी उधर सम्पूर्ण देवता उसे पकड़कर खड़े थे ॥ १३-१४ ॥

अनन्तो भगवान् देवो यतो नारायणस्ततः ।
शिर उत्क्षिप्य नागस्य पुनः पुनरवाक्षिपत् ॥ १५ ॥
भगवान् अनन्तदेव उधर ही खड़े थे, जिधर भगवान् नारायण थे। वे वासुकि नागके सिरको बार-बार ऊपर उठाकर झटकते थे ॥ १५ ॥(Adi Parva Chapters 17 to 21)

वासुकेरथ नागस्य सहसाऽऽक्षिप्यतः सुरैः ।
सधूमाः सार्चिषो वाता निष्पेतुरसकृन्मुखात् ॥ १६ ॥
तब देवताओंद्वारा बार-बार खींचे जाते हुए वासुकि नागके मुखसे निरन्तर धूएँ तथा आगकी लपटोंके साथ गर्म-गर्म साँसें निकलने लगीं ॥ १६ ॥

ते धूमसङ्घाः सम्भूता मेघसङ्घाः सविद्युतः ।
अभ्यवर्षन् सुरगणान् श्रमसंतापकर्शितान् ॥ १७ ॥
वे धूमसमुदाय बिजलियोंसहित मेघोंकी घटा बनकर परिश्रम एवं संतापसे कष्ट पानेवाले देवताओंपर जलकी धारा बरसाते रहते थे ॥ १७ ॥

तस्माच्च गिरिकूटाग्रात् प्रच्युताः पुष्पवृष्टयः ।
सुरासुरगणान् सर्वान् समन्तात् समवाकिरन् ॥ १८ ॥
उस पर्वतशिखरके अग्रभागसे सम्पूर्ण देवताओं तथा असुरोंपर सब ओरसे फूलोंकी वर्षा होने लगी ॥ १८ ॥

बभूवात्र महानादो महामेघरवोपमः ।
उदधेर्मथ्यमानस्य मन्दरेण सुरासुरैः ॥ १९ ॥
देवताओं और असुरोंद्वारा मन्दराचलसे समुद्रका मन्थन होते समय वहाँ महान् मेघोंकी गम्भीर गर्जनाके समान जोर-जोरसे शब्द होने लगा ॥ १९ ॥

तत्र नाना जलचरा विनिष्पिष्टा महाद्रिणा ।
विलयं समुपाजग्मुः शतशो लवणाम्भसि ॥ २० ॥
उस समय उस महान् पर्वतके द्वारा सैकड़ों जलचर जन्तु पिस गये और खारे पानीके उस महासागरमें विलीन हो गये ॥ २० ॥

वारुणानि च भूतानि विविधानि महीधरः ।
पातालतलवासीनि विलयं समुपानयत् ॥ २१ ॥
मन्दराचलने वरुणालय (समुद्र) तथा पातालतलमें निवास करनेवाले नाना प्रकारके प्राणियोंका संहार कर डाला ॥ २१ ॥

तस्मिंश्च भ्राम्यमाणेऽद्री संघृष्यन्तः परस्परम् ।
न्यपतन् पतगोपेताः पर्वताग्रान्महाद्रुमाः ॥ २२ ॥
जब वह पर्वत घुमाया जाने लगा, उस समय उसके शिखरसे बड़े-बड़े वृक्ष आपसमें टकराकर उनपर निवास करनेवाले पक्षियोंसहित नीचे गिर पड़े ॥ २२ ॥

तेषां संघर्षजश्चाग्निरर्चिर्भिः प्रज्वलन् मुहुः ।
विद्युद्भिरिव नीलाभ्रमावृणोन्मन्दरं गिरिम् ॥ २३ ॥
उनकी आपसकी रगड़से बार-बार आग प्रकट होकर ज्वालाओंके साथ प्रज्वलित हो उठी और जैसे बिजली नीले मेघको ढक ले, उसी प्रकार उसने मन्दराचलको आच्छादित कर लिया ॥ २३ ॥

ददाह कुञ्जरांस्तत्र सिंहांश्चैव विनिर्गतान् ।
विगतासूनि सर्वाणि सत्त्वानि विविधानि च ॥ २४ ॥
उस दावानलने पर्वतीय गजराजों, गुफाओंसे निकले हुए सिंहों तथा अन्यान्य सहस्रों जन्तुओंको जलाकर भस्म कर दिया। उस पर्वतपर जो नाना प्रकारके जीव रहते थे, वे सब अपने प्राणोंसे हाथ धो बैठे ॥ २४ ॥

तमग्निममरश्रेष्ठः प्रदहन्तमितस्ततः ।
वारिणा मेघजेनेन्द्रः शमयामास सर्वशः ॥ २५ ॥
तब देवराज इन्द्रने इधर-उधर सबको जलाती हुई उस आगको मेघोंके द्वारा जल बरसाकर सब ओरसे बुझा दिया ॥ २५ ॥

ततो नानाविधास्तत्र सुसुवुः सागराम्भसि ।
महाद्रुमाणां निर्यासा बहवश्चौषधीरसाः ॥ २६ ॥
तदनन्तर समुद्रके जलमें बड़े-बड़े वृक्षोंके भाँति-भाँतिके गोंद तथा ओषधियोंके प्रचुर रस चू-चूकर गिरने लगे ॥ २६ ॥(Adi Parva Chapters 17 to 21)

तेषाममृतवीर्याणां रसानां पयसैव च ।
अमरत्वं सुरा जग्मुः काञ्चनस्य च निःस्रवात् ॥ २७ ॥
वृक्षों और ओषधियोंके अमृततुल्य प्रभावशाली रसोंके जलसे तथा सुवर्णमय मन्दराचलकी अनेक दिव्य प्रभावशाली मणियोंसे चूनेवाले रससे ही देवतालोग अमरत्वको प्राप्त होने लगे ॥ २७ ॥

ततस्तस्य समुद्रस्य तज्जातमुदकं पयः ।
रसोत्तमैर्विमिश्र च ततः क्षीरादभूद् घृतम् ॥ २८ ॥
उन उत्तम रसोंके सम्मिश्रणसे समुद्रका सारा जल दूध बन गया और दूधसे घी बनने लगा ॥ २८ ॥

ततो ब्रह्माणमासीनं देवा वरदमब्रुवन् ।
श्रान्ताः स्म सुभृशं ब्रह्मन् नोद्भवत्यमृतं च तत् ॥ २९ ॥
विना नारायणं देवं सर्वेऽन्ये देवदानवाः ।
चिरारब्धमिदं चापि सागरस्यापि मन्थनम् ॥ ३० ॥
तब देवतालोग वहाँ बैठे हुए वरदायक ब्रह्माजीसे बोले- ‘ब्रह्मन् ! भगवान् नारायणके अतिरिक्त हम सभी देवता और दानव बहुत थक गये हैं; किंतु अभीतक वह अमृत प्रकट नहीं हो रहा है। इधर समुद्रका मन्थन आरम्भ हुए बहुत समय बीत चुका है’ ॥ २९-३० ॥

ततो नारायणं देवं ब्रह्मा वचनमब्रवीत् ।
विधत्स्वैषां बलं विष्णो भवानत्र परायणम् ॥ ३१ ॥
यह सुनकर ब्रह्माजीने भगवान् नारायणसे यह बात कही- ‘सर्वव्यापी परमात्मन् ! इन्हें बल प्रदान कीजिये, यहाँ एकमात्र आप ही सबके आश्रय हैं’ ॥ ३१ ॥

विष्णुरुवाच
बलं ददामि सर्वेषां कर्मेतद् ये समास्थिताः ।
क्षोभ्यतां कलशः सर्वैर्मन्दरः परिवर्त्यताम् ॥ ३२ ॥
श्रीविष्णु बोले- जो लोग इस कार्यमें लगे हुए हैं, उन सबको मैं बल दे रहा हूँ। सब लोग पूरी शक्ति लगाकर मन्दराचलको घुमायें और इस सागरको क्षुब्ध कर दें ॥ ३२ ॥

सौतिरुवाच
नारायणवचः श्रुत्वा बलिनस्ते महोदधेः ।
तत् पयः सहिता भूयश्चक्रिरे भृशमाकुलम् ॥ ३३ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- शौनकजी! भगवान् नारायणका वचन सुनकर देवताओं और दानवोंका बल बढ़ गया। उन सबने मिलकर पुनः वेगपूर्वक महासागरका वह जल मथना आरम्भ किया और उस समस्त जलराशिको अत्यन्त क्षुब्ध कर डाला ॥ ३३ ॥

ततः शतसहस्रांशुर्मथ्यमानात्तु सागरात् ।
प्रसन्नात्मा समुत्पन्नः सोमः शीतांशुरुज्ज्वलः ॥ ३४ ॥
फिर तो उस महासागरसे अनन्त किरणोंवाले सूर्यके समान तेजस्वी, शीतल प्रकाशसे युक्त, श्वेतवर्ण एवं प्रसन्नात्मा चन्द्रमा प्रकट हुआ ॥ ३४ ॥

श्रीरनन्तरमुत्पन्ना घृतात् पाण्डुरवासिनी ।
सुरादेवी समुत्पन्ना तुरगः पाण्डुरस्तथा ॥ ३५ ॥
तदनन्तर उस घृतस्वरूप जलसे श्वेतवस्त्रधारिणी लक्ष्मीदेवीका आविर्भाव हुआ। इसके बाद सुरादेवी और श्वेत अश्व प्रकट हुए ॥ ३५ ॥

कौस्तुभस्तु मणिर्दिव्य उत्पन्नो घृतसम्भवः ।
मरीचिविकचः श्रीमान् नारायण उरोगतः ॥ ३६ ॥
फिर अनन्त किरणोंसे समुज्ज्वल दिव्य कौस्तुभमणिका उस जलसे प्रादुर्भाव हुआ, जो भगवान् नारायणके वक्षःस्थलपर सुशोभित हुई ॥ ३६ ॥

(पारिजातश्च तत्रैव सुरभिश्च महामुने ।
जज्ञाते तौ तदा ब्रह्मन् सर्वकामफलप्रदौ ॥)
श्रीः सुरा चैव सोमश्च तुरगश्च मनोजवः ।
यतो देवास्ततो जग्मुरादित्यपथमाश्रिताः ॥ ३७ ॥
ब्रह्मन् ! महामुने ! वहाँ सम्पूर्ण कामनाओंका फल देनेवाले पारिजात वृक्ष एवं सुरभि गौकी उत्पत्ति हुई। फिर लक्ष्मी, सुरा, चन्द्रमा तथा मनके समान वेगशाली उच्चैःश्रवा घोड़ा – ये सब सूर्यके मार्ग आकाशका आश्रय ले, जहाँ देवता रहते हैं, उस लोकमें चले गये ॥ ३७ ॥

धन्वन्तरिस्ततो देवो वपुष्मानुदतिष्ठत ।
श्वेतं कमण्डलुं बिभ्रदमृतं यत्र तिष्ठति ॥ ३८ ॥
इसके बाद दिव्य शरीरधारी धन्वन्तरि देव प्रकट हुए। वे अपने हाथमें श्वेत कलश लिये हुए थे, जिसमें अमृत भरा था ॥ ३८ ॥

एतदत्यद्भुतं दृष्ट्वा दानवानां समुत्थितः ।
अमृतार्थे महान् नादो ममेदमिति जल्पताम् ॥ ३९ ॥
यह अत्यन्त अद्भुत दृश्य देखकर दानवोंमें अमृतके लिये कोलाहल मच गया। वे सब कहने लगे ‘यह मेरा है, यह मेरा है’ ॥ ३९ ॥

श्वेतैर्दन्तैश्चतुर्भिस्तु महाकायस्ततः परम् ।
ऐरावतो महानागोऽभवद् वज्रभृता धृतः ॥ ४० ॥
तत्पश्चात् श्वेत रंगके चार दाँतोंसे सुशोभित विशालकाय महानाग ऐरावत प्रकट हुआ, जिसे वज्रधारी इन्द्रने अपने अधिकारमें कर लिया ॥ ४० ॥

अतिनिर्मथनादेव कालकूटस्ततः परः ।
जगदावृत्य सहसा सधूमोऽग्निरिव ज्वलन् ॥ ४१ ॥
तदनन्तर अत्यन्त वेगसे मथनेपर कालकूट महाविष उत्पन्न हुआ, वह धूमयुक्त अग्निकी भाँति एकाएक सम्पूर्ण जगत्‌को घेरकर जलाने लगा ॥ ४१ ॥

त्रैलोक्यं मोहितं यस्य गन्धमाघ्राय तद् विषम् ।
प्राग्रसल्लोकरक्षार्थ ब्रह्मणो वचनाच्छिवः ॥ ४२ ॥
उस विषकी गन्ध सूँघते ही त्रिलोकीके प्राणी मूच्र्छित हो गये। तब ब्रह्माजीके प्रार्थना करनेपर भगवान् श्रीशंकरने त्रिलोकीकी रक्षाके लिये उस महान् विषको पी लिया ॥ ४२ ॥

दधार भगवान् कण्ठे मन्त्रमूर्तिर्महेश्वरः ।
तदाप्रभृति देवस्तु नीलकण्ठ इति श्रुतिः ॥ ४३ ॥
मन्त्रमूर्ति भगवान् महेश्वरने विषपान करके उसे अपने कण्ठमें धारण कर लिया। तभीसे महादेवजी नीलकण्ठके नामसे विख्यात हुए, ऐसी जनश्रुति है ॥ ४३ ॥

एतत् तदद्भुतं दृष्ट्वा निराशा दानवाः स्थिताः ।
अमृतार्थे च लक्ष्म्यर्थे महान्तं वैरमाश्रिताः ॥ ४४ ॥
ये सब अद्भुत बातें देखकर दानव निराश हो गये और अमृत तथा लक्ष्मीके लिये उन्होंने देवताओंके साथ महान् वैर बाँध लिया ॥ ४४ ॥(Adi Parva Chapters 17 to 21)

ततो नारायणो मायां मोहिनीं समुपाश्रितः ।
स्त्रीरूपमद्भुतं कृत्वा दानवानभिसंश्रितः ॥ ४५ ॥
उसी समय भगवान् विष्णुने मोहिनी मायाका आश्रय ले मनोहारिणी स्त्रीका अद्भुत रूप बनाकर, दानवोंके पास पदार्पण किया ॥ ४५ ॥

ततस्तदमृतं तस्यै ददुस्ते मूढचेतसः ।
स्त्रियै दानवदैतेयाः सर्वे तद्गतमानसाः ॥ ४६ ॥
समस्त दैत्यों और दानवोंने उस मोहिनीपर अपना हृदय निछावर कर दिया। उनके चित्तमें मूढ़ता छा गयी। अतः उन सबने स्त्रीरूपधारी भगवान को वह अमृत सौंप दिया ॥ ४६ ॥

(सा तु नारायणी माया धारयन्ती कमण्डलुम् ।
आस्यमानेषु दैत्येषु पङ्क्त्या च प्रति दानवैः ।
देवानपाययद् देवी न दैत्यांस्ते च चुक्रुशुः ॥)
भगवान् नारायणकी वह मूर्तिमती माया हाथमें कलश लिये अमृत परोसने लगी। उस समय दानवोंसहित दैत्य पंगत लगाकर बैठे ही रह गये, परंतु उस देवीने देवताओंको ही अमृत पिलाया; दैत्योंको नहीं दिया, इससे उन्होंने बड़ा कोलाहल मचाया।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि अमृतमन्थनेऽष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें अमृतमन्थनविषयक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १८ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ गीतावली हिंदी में

उन्नीसवाँ अध्याय

देवताओंका अमृतपान, देवासुरसंग्राम तथा देवताओंकी विजय

सौतिरुवाच
अथावरणमुख्यानि नानाप्रहरणानि च ।
प्रगृह्याभ्यद्रवन् देवान् सहिता दैत्यदानवाः ॥ १ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- अमृत हाथसे निकल जानेपर दैत्य और दानव संगठित हो गये और उत्तम-उत्तम कवच तथा नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लेकर देवताओंपर टूट पड़े ॥ १ ॥

ततस्तदमृतं देवो विष्णुरादाय वीर्यवान् ।
जहार दानवेन्द्रेभ्यो नरेण सहितः प्रभुः ॥ २ ॥
ततो देवगणाः सर्वे पपुस्तदमृतं तदा ।
विष्णोः सकाशात् सम्प्राप्य सम्भ्रमे तुमुले सति ॥ ३ ॥
उधर अनन्त शक्तिशाली नरसहित भगवान् नारायणने जब मोहिनीरूप धारण करके दानवेन्द्रोंके हाथसे अमृत लेकर हड़प लिया, तब सब देवता भगवान् विष्णुसे अमृत ले- लेकर पीने लगे; क्योंकि उस समय घमासान युद्धकी सम्भावना हो गयी थी ॥ २-३ ॥

ततः पिबत्सु तत्कालं देवेष्वमृतमीप्सितम् ।
राहुर्विबुधरूपेण दानवः प्रापिबत् तदा ॥ ४ ॥
जिस समय देवता उस अभीष्ट अमृतका पान कर रहे थे, ठीक उसी समय राहु नामक दानवने देवतारूपसे आकर अमृत पीना आरम्भ किया ॥ ४ ॥

तस्य कण्ठमनुप्राप्ते दानवस्यामृते तदा ।
आख्यातं चन्द्रसूर्याभ्यां सुराणां हितकाम्यया ॥ ५ ॥
वह अमृत अभी उस दानवके कण्ठतक ही पहुँचा था कि चन्द्रमा और सूर्यने देवताओंके हितकी इच्छासे उसका भेद बतला दिया ॥ ५ ॥

ततो भगवता तस्य शिरश्छिन्नमलंकृतम् ।
चक्रायुधेन चक्रेण पिबतोऽमृतमोजसा ॥ ६ ॥
तब चक्रधारी भगवान् श्रीहरिने अमृत पीनेवाले उस दानवका मुकुटमण्डित मस्तक चक्रद्वारा बलपूर्वक काट दिया ॥ ६ ॥

तच्छैलशृङ्गप्रतिमं दानवस्य शिरो महत् ।
चक्रच्छिन्नं खमुत्पत्य ननादातिभयंकरम् ॥ ७ ॥
चक्रसे कटा हुआ दानवका महान् मस्तक पर्वतके शिखर-सा जान पड़ता था। वह आकाशमें उछल-उछलकर अत्यन्त भयंकर गर्जना करने लगा ॥ ७ ॥

तत् कबन्धं पपातास्य विस्फुरद् धरणीतले ।
सपर्वतवनद्वीपां दैत्यस्याकम्पयन् महीम् ॥ ८ ॥
किंतु उस दैत्यका वह धड़ धरतीपर गिर पड़ा और पर्वत, वन तथा द्वीपोंसहित समूची पृथ्वीको कँपाता हुआ तड़फड़ाने लगा ॥ ८ ॥

ततो वैरविनिर्बन्धः कृतो राहुमुखेन वै ।
शाश्वतश्चन्द्रसूर्याभ्यां ग्रसत्यद्यापि चैव तौ ॥ ९ ॥
तभीसे राहुके मुखने चन्द्रमा और सूर्यके साथ भारी एवं स्थायी वैर बाँध लिया; इसीलिये वह आज भी दोनोंपर ग्रहण लगाता है ॥ ९ ॥(Adi Parva Chapters 17 to 21)

विहाय भगवांश्चापि स्त्रीरूपमतुलं हरिः ।
नानाप्रहरणैर्भीमैर्दानवान् समकम्पयत् ॥ १० ॥
(देवताओंको अमृत पिलानेके बाद) भगवान् श्रीहरिने भी अपना अनुपम मोहिनीरूप त्यागकर नाना प्रकारके भयंकर अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा दानवोंको अत्यन्त कम्पित कर दिया ॥ १० ॥

ततः प्रवृत्तः संग्रामः समीपे लवणाम्भसः ।
सुराणामसुराणां च सर्वघोरतरो महान् ॥ ११ ॥
फिर तो क्षारसागरके समीप देवताओं और असुरोंका सबसे भयंकर महासंग्राम छिड़ गया ॥ ११ ॥

प्रासाश्च विपुलास्तीक्ष्णा न्यपतन्त सहस्रशः ।
तोमराश्च सुतीक्ष्णाग्राः शस्त्राणि विविधानि च ॥ १२ ॥
दोनों दलोंपर सहस्रों तीखी धारवाले बड़े-बड़े भालोंकी मार पड़ने लगी। तेज नोकवाले तोमर तथा भाँति-भाँतिके शस्त्र बरसने लगे ॥ १२ ॥

ततोऽसुराश्चक्रभिन्ना वमन्तो रुधिरं बहु ।
असिशक्तिगदारुग्णा निपेतुर्धरणीतले ॥ १३ ॥
छिन्नानि पट्टिशैश्चैव शिरांसि युधि दारुणैः ।
तप्तकाञ्चनमालीनि निपेतुरनिशं तदा ॥ १४ ॥
भगवान्‌के चक्रसे छिन्न-भिन्न तथा देवताओंके खड्ग, शक्ति और गदासे घायल हुए असुर मुखसे अधिकाधिक रक्त वमन करते हुए पृथ्वीपर लोटने लगे। उस समय तपाये हुए सुवर्णकी मालाओंसे विभूषित दानवोंके सिर भयंकर पट्टिशोंसे कटकर निरन्तर युद्धभूमिमें गिर रहे थे ॥ १३-१४ ॥

रुधिरेणानुलिप्ताङ्गा निहताश्च महासुराः ।
अद्रीणामिव कूटानि धातुरक्तानि शेरते ॥ १५ ॥
वहाँ खूनसे लथपथ अंगवाले मरे हुए महान् असुर, जो समरभूमिमें सो रहे थे, गेरू आदि धातुओंसे रँगे हुए पर्वत-शिखरोंके समान जान पड़ते थे ॥ १५ ॥

हाहाकारः समभवत् तत्र तत्र सहस्रशः ।
अन्योन्यं छिन्दतां शस्त्रैरादित्ये लोहितायति ॥ १६ ॥
संध्याके समय जब सूर्यमण्डल लाल हो रहा था, एक-दूसरेके शस्त्रोंसे कटनेवाले सहस्रों योद्धाओंका हाहाकार इधर-उधर सब ओर गूंज उठा ॥ १६ ॥

परिधैरायसैस्तीक्ष्णैः संनिकर्षे च मुष्टिभिः
। निघ्नतां समरेऽन्योन्यं शब्दो दिवमिवास्पृशत् ॥ १७ ॥
उस समरांगणमें दूरवर्ती देवता और दानव लोहेके तीखे परिघोंसे एक-दूसरेपर चोट करते थे और निकट आ जानेपर आपसमें मुक्का-मुक्की करने लगते थे। इस प्रकार उनके पारस्परिक आघात-प्रत्याघातका शब्द मानो सारे आकाशमें गूंज उठा ॥ १७ ॥

छिन्धि भिन्धि प्रधाव त्वं पातयाभिसरेति च ।
व्यश्रूयन्त महाघोराः शब्दास्तत्र समन्ततः ॥ १८ ॥
उस रणभूमिमें चारों ओर ये ही अत्यन्त भयंकर शब्द सुनायी पड़ते थे कि ‘टुकड़े- टुकड़े कर दो, चीर डालो, दौड़ो, गिरा दो और पीछा करो’ ॥ १८ ॥

एवं सुतुमुले युद्धे वर्तमाने महाभये ।
नरनारायणी देवी समाजग्मतुराहवम् ॥ १९ ॥
इस प्रकार अत्यन्त भयंकर तुमुल युद्ध हो ही रहा था कि भगवान् विष्णुके दो रूप नर और नारायणदेव भी युद्धभूमिमें आ गये ॥ १९ ॥

तत्र दिव्यं धनुर्दृष्ट्वा नरस्य भगवानपि ।
चिन्तयामास तच्चक्रं विष्णुर्दानवसूदनम् ॥ २० ॥
भगवान् नारायणने वहाँ नरके हाथमें दिव्य धनुष देखकर स्वयं भी दानवसंहारक दिव्य चक्रका चिन्तन किया ॥ २० ॥

ततोऽम्बराच्चिन्तितमात्रमागतं
महाप्रभं चक्रममित्रतापनम् ।
विभावसोस्तुल्यमकुण्ठमण्डलं
सुदर्शनं संयति भीमदर्शनम् ॥ २१ ॥
चिन्तन करते ही शत्रुओंको संताप देनेवाला अत्यन्त तेजस्वी चक्र आकाशमार्गसे उनके हाथमें आ गया। वह सूर्य एवं अग्निके समान जाज्वल्यमान हो रहा था। उस मण्डलाकार चक्रकी गति कहीं भी कुण्ठित नहीं होती थी। उसका नाम तो सुदर्शन था, किंतु वह युद्धमें शत्रुओंके लिये अत्यन्त भयंकर दिखायी देता था ॥ २१ ॥

तदागतं ज्वलितहुताशनप्रभं भयंकरं करिकरबाहुरच्युतः ।
मुमोच वै प्रबलवदुग्रवेगवान् महाप्रभं परनगरावदारणम् ॥ २२ ॥
वहाँ आया हुआ वह भयंकर चक्र प्रज्वलित अग्निके समान प्रकाशित हो रहा था। उसमें शत्रुओंके बड़े-बड़े नगरोंको विध्वंस कर डालनेकी शक्ति थी। हाथीकी सूँड़के समान विशाल भुजदण्डवाले उग्रवेगशाली भगवान् नारायणने उस महातेजस्वी एवं महाबलशाली चक्रको दानवोंके दलपर चलाया ॥ २२ ॥

तदन्तकज्वलनसमानवर्चसं पुनः पुनर्व्यपतत वेगवत्तदा ।
विदारयद् दितिदनुजान् सहस्रशः करेरितं पुरुषवरेण संयुगे ॥ २३ ॥
उस महासमरमें पुरुषोत्तम श्रीहरिके हाथोंसे संचालित हो वह चक्र प्रलयकालीन अग्निके समान जाज्वल्यमान हो उठा और सहस्रों दैत्यों तथा दानवोंको विदीर्ण करता हुआ बड़े वेगसे बारम्बार उनकी सेनापर पड़ने लगा ॥ २३ ॥

दहत् क्वचिज्ज्वलन इवावलेलिहत् प्रसह्य तानसुरगणान् न्यकृन्तत ।
प्रवेरितं वियति मुहुः क्षितौ तथा पपौ रणे रुधिरमथो पिशाचवत् ॥ २४ ॥
श्रीहरिके हाथोंसे चलाया हुआ सुदर्शन चक्र कभी प्रज्वलित अग्निकी भाँति अपनी लपलपाती लपटोंसे असुरोंको चाटता हुआ भस्म कर देता और कभी हठपूर्वक उनके टुकड़े टुकड़े कर डालता था। इस प्रकार रणभूमिके भीतर पृथ्वी और आकाशमें घूम- घूमकर वह पिशाचकी भाँति बार-बार रक्त पीने लगा ॥ २४ ॥(Adi Parva Chapters 17 to 21)

तथासुरा गिरिभिरदीनचेतसो मुहुर्मुहुः सुरगणमार्दयंस्तदा ।
महाबला विगलितमेघवर्चसः सहस्रशो गगनमभिप्रपद्य ह ॥ २५ ॥
इसी प्रकार उदार एवं उत्साहभरे हृदयवाले महाबली असुर भी, जो जलरहित बादलोंके समान श्वेत रंगके दिखायी देते थे, उस समय सहस्रोंकी संख्यामें आकाशमें उड़ उड़कर शिलाखण्डोंकी वर्षासे बार-बार देवताओंको पीड़ित करने लगे ॥ २५ ॥

अथाम्बराद् भयजननाः प्रपेदिरे सपादपा बहुविधमेघरूपिणः ।
महाद्रयः परिगलिताग्रसानवः परस्परं द्रुतमभिहत्य सस्वनाः ॥ २६ ॥
तत्पश्चात् आकाशसे नाना प्रकारके लाल, पीले, नीले आदि रंगवाले बादलों-जैसे बड़े- बड़े पर्वत भय उत्पन्न करते हुए वृक्षोंसहित पृथ्वीपर गिरने लगे। उनके ऊँचे-ऊँचे शिखर गलते जा रहे थे और वे एक-दूसरेसे टकराकर बड़े जोरका शब्द करते थे ॥ २६ ॥

ततो मही प्रविचलिता सकानना महाद्रिपाताभिहता समन्ततः ।
परस्परं भृशमभिगर्जतां मुहू रणाजिरे भृशमभिसम्प्रवर्तिते ॥ २७ ॥
उस समय एक-दूसरेको लक्ष्य करके बार-बार जोर-जोरसे गरजनेवाले देवताओं और असुरोंके उस समरांगणमें सब ओर भयंकर मार-काट मच रही थी; बड़े-बड़े पर्वतोंके गिरनेसे आहत हुई वनसहित सारी भूमि काँपने लगी ॥ २७ ॥

नरस्ततो वरकनकाग्रभूषणै- महेषुभिर्गगनपथं समावृणोत् ।
विदारयन् गिरिशिखराणि पत्रिभिः महाभयेऽसुरगणविग्रहे तदा ॥ २८ ॥
तब उस महाभयंकर देवासुर संग्राममें भगवान् नरने उत्तम सुवर्ण-भूषित अग्रभागवाले पंखयुक्त बड़े-बड़े बाणोंद्वारा पर्वत-शिखरोंको विदीर्ण करते हुए समस्त आकाशमार्गको आच्छादित कर दिया ॥ २८ ॥

ततो महीं लवणजलं च सागरं महासुराः प्रविविशुरर्दिताः सुरैः ।
वियद्गतं ज्वलितहुताशनप्रभं सुदर्शनं परिकुपितं निशम्य ते ॥ २९ ॥
इस प्रकार देवताओंके द्वारा पीड़ित हुए महादैत्य आकाशमें जलती हुई आगके समान उद्भासित होनेवाले सुदर्शन चक्रको अपने ऊपर कुपित देख पृथ्वीके भीतर और खारे पानीके समुद्रमें घुस गये ॥ २९ ॥

ततः सुरैर्विजयमवाप्य मन्दरः स्वमेव देशं गमितः सुपूजितः ।
विनाद्य खं दिवमपि चैव सर्वशः ततो गताः सलिलधरा यथागतम् ॥ ३० ॥
तदनन्तर देवताओंने विजय पाकर मन्दराचलको सम्मानपूर्वक उसके पूर्वस्थानपर ही पहुँचा दिया। इसके बाद वे अमृत धारण करनेवाले देवता अपने सिंहनादसे अन्तरिक्ष और स्वर्गलोकको भी सब ओरसे गुँजाते हुए अपने-अपने स्थानको चले गये ॥ ३० ॥

ततोऽमृतं सुनिहितमेव चक्रिरे सुराः परां मुदमभिगम्य पुष्कलाम् ।
ददौ च तं निधिममृतस्य रक्षितुं किरीटिने बलभिदथामरैः सह ॥ ३१ ॥
देवताओंको इस विजयसे बड़ी भारी प्रसन्नता प्राप्त हुई। उन्होंने उस अमृतको बड़ी सुव्यवस्थासे रखा। अमरोंसहित इन्द्रने अमृतकी वह निधि किरीटधारी भगवान् नरको रक्षाके लिये सौंप दी ॥ ३१ ॥

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि अमृतमन्थनसमाप्तिर्नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें अमृतमन्थन समाप्ति नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १९ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ मीमांसा दर्शन (शास्त्र) हिंदी में

बीसवाँ अध्याय

कद्रू और विनताकी होड़, कद्रूद्वारा अपने पुत्रोंको शाप एवं ब्रह्माजीद्वारा उसका अनुमोदन

सौतिरुवाच
एतत् ते कथितं सर्वममृतं मथितं यथा ।
यत्र सोऽश्वः समुत्पन्नः श्रीमानतुलविक्रमः ॥ १ ॥
यं निशम्य तदा कद्रूर्विनतामिदमब्रवीत् ।
उच्चैःश्रवा हि किं वर्णो भद्रे प्रब्रूहि माचिरम् ॥ २ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- शौनकादि महर्षियो ! जिस प्रकार अमृत मथकर निकाला गया, वह सब प्रसंग मैंने आपलोगोंसे कह सुनाया। उस अमृत-मन्थनके समय ही वह अनुपम वेगशाली सुन्दर अश्व उत्पन्न हुआ था, जिसे देखकर कढूने विनतासे कहा- ‘भद्रे ! शीघ्र बताओ तो यह उच्चैःश्रवा घोड़ा किस रंगका है?’ ॥ १-२ ॥

विनतोवाच
श्वेत एवाश्वराजोऽयं किं वा त्वं मन्यसे शुभे ।
ब्रूहि वर्ण त्वमप्यस्य ततोऽत्र विपणावहे ॥ ३ ॥
विनता बोली-शुभे! यह अश्वराज श्वेत वर्णका ही है। तुम इसे कैसा समझती हो? तुम भी इसका रंग बताओ, तब हम दोनों इसके लिये बाजी लगायेंगी ॥ ३ ॥

कढूरुवाच
कृष्णवालमहं मन्ये हयमेनं शुचिस्मिते ।
एहि सार्ध मया दीव्य दासीभावाय भामिनि ॥ ४ ॥
कद्रूने कहा- पवित्र मुसकानवाली बहन ! इस घोड़े (का रंग तो अवश्य सफेद है, किंतु इस) की पूँछको मैं काले रंगकी ही मानती हूँ। भामिनि ! आओ, दासी होनेकी शर्त रखकर मेरे साथ बाजी लगाओ (यदि तुम्हारी बात ठीक हुई तो मैं दासी बनकर रहूँगी; अन्यथा तुम्हें मेरी दासी बनना होगा) ॥ ४ ॥

सौतिरुवाच
एवं ते समयं कृत्वा दासीभावाय वै मिथः ।
जग्मतुः स्वगृहानेव श्वो द्रक्ष्याव इति स्म ह ॥ ५॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- इस प्रकार वे दोनों बहनें आपसमें एक-दूसरेकी दासी होनेकी शर्त रखकर अपने-अपने घर चली गयीं और उन्होंने यह निश्चय किया कि कल आकर
घोड़ेको देखेंगी ॥ ५ ॥(Adi Parva Chapters 17 to 21)

ततः पुत्रसहस्रं तु कद्रूर्जिह्यं चिकीर्षती ।
आज्ञापयामास तदा वाला भूत्वाञ्जनप्रभाः ॥ ६ ॥
आविशध्वं हयं क्षिप्रं दासी न स्यामहं यथा ।
नावपद्यन्त ये वाक्यं ताञ्छशाप भुजङ्गमान् ॥ ७ ॥
सर्पसत्रे वर्तमाने पावको वः प्रधक्ष्यति ।
जनमेजयस्य राजर्षेः पाण्डवेयस्य धीमतः ॥ ८ ॥
कद्दू कुटिलता एवं छलसे काम लेना चाहती थी। उसने अपने सहस्र पुत्रोंको इस समय आज्ञा दी कि तुम काले रंगके बाल बनकर शीघ्र उस घोड़ेकी पूँछमें लग जाओ, जिससे मुझे दासी न होना पड़े। उस समय जिन सर्पोंने उसकी आज्ञा न मानी उन्हें उसने शाप दिया कि, ‘जाओ, पाण्डववंशी बुद्धिमान् राजर्षि जनमेजयके सर्पयज्ञका आरम्भ होनेपर उसमें प्रज्वलित अग्नि तुम्हें जलाकर भस्म कर देगी’ ॥ ६-८ ॥

शापमेनं तु शुश्राव स्वयमेव पितामहः ।
अतिक्रूरं समुत्सृष्टं कद्र‌वा दैवादतीव हि ॥ ९ ॥
इस शापको स्वयं ब्रह्माजीने सुना। यह दैवसंयोगकी बात है कि सौंको उनकी माता कद्रूकी ओरसे ही अत्यन्त कठोर शाप प्राप्त हो गया ॥ ९ ॥

सार्ध देवगणैः सर्वैर्वाचं तामन्वमोदत ।
बहुत्वं प्रेक्ष्य सर्पाणां प्रजानां हितकाम्यया ॥ १० ॥
सम्पूर्ण देवताओंसहित ब्रह्माजीने सर्पोंकी संख्या बढ़ती देख प्रजाके हितकी इच्छासे कद्रूकी उस बातका अनुमोदन ही किया ॥ १० ॥

तिग्मवीर्यविषा होते दन्दशूका महाबलाः ।
तेषां तीक्ष्णविषत्वाद्धि प्रजानां च हिताय च ॥ ११ ॥
युक्तं मात्रा कृतं तेषां परपीडोपसर्पिणाम् ।
अन्येषामपि सत्त्वानां नित्यं दोषपरास्तु ये ॥ १२ ॥
तेषां प्राणान्तको दण्डो देवेन विनिपात्यते ।
एवं सम्भाष्य देवस्तु पूज्य कटूं च तां तदा ॥ १३ ॥
आहूय कश्यपं देव इदं वचनमब्रवीत् ।
यदेते दन्दशूकाश्च सर्पा जातास्त्वयानघ ॥ १४ ॥
विषोल्बणा महाभोगा मात्रा शप्ताः परंतप ।
तत्र मन्युस्त्वया तात न कर्तव्यः कथंचन ॥ १५ ॥
दृष्टं पुरातनं होतद् यज्ञे सर्पविनाशनम् ।
इत्युक्त्वा सृष्टिकृद् देवस्तं प्रसाद्य प्रजापतिम् ।
प्रादाद् विषहरीं विद्यां कश्यपाय महात्मने ॥ १६ ॥
‘ये महाबली दुःसह पराक्रम तथा प्रचण्ड विषसे युक्त हैं। अपने तीखे विषके कारण ये सदा दूसरोंको पीड़ा देनेके लिये दौड़ते-फिरते हैं। अतः समस्त प्राणियोंके हितकी दृष्टिसे इन्हें शाप देकर माता कढूने उचित ही किया है। जो सदा दूसरे प्राणियोंको हानि पहुँचाते रहते हैं, उनके ऊपर दैवके द्वारा ही प्राणनाशक दण्ड आ पड़ता है।’ ऐसी बात कहकर ब्रह्माजीने कट्टूकी प्रशंसा की और कश्यपजीको बुलाकर यह बात कही- ‘अनघ! तुम्हारे द्वारा जो ये लोगोंको डॅसनेवाले सर्प उत्पन्न हो गये हैं, इनके शरीर बहुत विशाल और विष बड़े भयंकर हैं। परंतप ! इन्हें इनकी माताने शाप दे दिया है, इसके कारण तुम किसी तरह भी उसपर क्रोध न करना। तात! यज्ञमें सपौँका नाश होनेवाला है, यह पुराणवृत्तान्त तुम्हारी दृष्टिमें भी है ही।’ ऐसा कहकर सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीने प्रजापति कश्यपको प्रसन्न करके उन महात्माको सौंका विष उतारनेवाली विद्या प्रदान की ॥ ११-१६ ॥

(एवं शप्तेषु नागेषु कद्रवा च द्विजसत्तम ।
उद्विग्नः शापतस्तस्याः कटूं कर्कोटकोऽब्रवीत् ॥
मातरं परमप्रीतस्तदा भुजगसत्तमः ।
आविश्य वाजिनं मुख्यं वालो भूत्वाञ्जनप्रभः ॥
दर्शयिष्यामि तत्राहमात्मानं काममाश्वस ।
एवमस्त्विति तं पुत्रं प्रत्युवाच यशस्विनी ॥)
द्विजश्रेष्ठ ! इस प्रकार माता कढूने जब नागोंको शाप दे दिया, तब उस शापसे उद्विग्न हो भुजंगप्रवर कर्कोटकने परम प्रसन्नता व्यक्त करते हुए अपनी मातासे कहा-‘मा! तुम धैर्य रखो, मैं काले रंगका बाल बनकर उस श्रेष्ठ अश्वके शरीरमें प्रविष्ट हो अपने-आपको ही इसकी काली पूँछके रूपमें दिखाऊँगा।’ यह सुनकर यशस्विनी कढूने पुत्रको उत्तर दिया – ‘बेटा! ऐसा ही होना चाहिये’।(Adi Parva Chapters 17 to 21)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरितविषयक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २० ॥

 

अध्याय इक्कीसवाँ

समुद्रका विस्तारसे वर्णन

सौतिरुवाच
ततो रजन्यां व्युष्टायां प्रभातेऽभ्युदिते रखी ।
कद्रूश्च विनता चैव भगिन्यौ ते तपोधन ॥ १ ॥
अमर्षिते सुसंरब्धे दास्ये कृतपणे तदा ।
जग्मतुस्तुरगं द्रष्टुमुच्चैःश्रवसमन्तिकात् ॥ २ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- तपोधन ! तदनन्तर जब रात बीती, प्रातःकाल हुआ और भगवान् सूर्यका उदय हो गया, उस समय कद्रू और विनता दोनों बहनें बड़े जोश और रोषके साथ दासी होनेकी बाजी लगाकर उच्चैःश्रवा नामक अश्वको निकटसे देखनेके लिये गयीं ॥ १-२ ॥

ददृशातेऽथ ते तत्र समुद्रं निधिमम्भसाम् ।
महान्तमुदकागार्थ क्षोभ्यमाणं महास्वनम् ॥ ३ ॥
कुछ दूर जानेपर उन्होंने मार्गमें जलनिधि समुद्रको देखा, जो महान् होनेके साथ ही अगाध जलसे भरा था। मगर आदि जल-जन्तु उसे विक्षुब्ध कर रहे थे और उससे बड़े जोरकी गर्जना हो रही थी ॥ ३ ॥

तिमिङ्गिलझषाकीर्ण मकरैरावृतं तथा ।
सत्त्वैश्च बहुसाहसैर्नानारूपैः समावृतम् ॥ ४ ॥
वह तिमि नामक बड़े-बड़े मत्स्योंको भी निगल जानेवाले तिमिंगिलों, मत्स्यों तथा मगर आदिसे व्याप्त था। नाना प्रकारकी आकृतिवाले सहस्रों जल-जन्तु उसमें भरे हुए थे ॥ ४ ॥

भीषणैर्विकृतैरन्यैर्घोरैर्जलचरैस्तथा ।
उग्रैर्नित्यमनाधृष्यं कूर्मग्राहसमाकुलम् । लम् ॥ ५ ॥
विकट आकारवाले दूसरे-दूसरे घोर डरावने जलचरों तथा उग्र जल-जन्तुओंके कारण वह महासागर सदा सबके लिये दुर्धर्ष बना हुआ था। उसके भीतर बहुत-से कछुए और ग्राह निवास करते थे ॥ ५ ॥

आकरं सर्वरत्नानामालयं वरुणस्य च ।
नागानामालयं रम्यमुत्तमं सरितां पतिम् ॥ ६ ॥
सरिताओंका स्वामी वह महासागर सम्पूर्ण रत्नोंकी खान, वरुणदेवका निवासस्थान और नागोंका रमणीय उत्तम गृह है ॥ ६ ॥

पातालज्वलनावासमसुराणां च बान्धवम् ।
भयंकरं च सत्त्वानां पयसां निधिमर्णवम् ॥ ७ ॥
पातालकी अग्नि-बड़वानलका निवास भी उसीमें है। असुरोंको तो वह जलनिधि समुद्र भाई-बन्धुकी भाँति शरण देनेवाला है तथा दूसरे थलचर जीवोंके लिये अत्यन्त भयदायक है ॥ ७ ॥

शुभं दिव्यममर्त्यानाममृतस्याकरं परम् ।
अप्रमेयमचिन्त्यं च सुपुण्यजलमद्भुतम् ॥ ८ ॥
अमरोंके अमृतकी खान होनेसे वह अत्यन्त शुभ एवं दिव्य माना जाता है। उसका कोई माप नहीं है। वह अचिन्त्य, पवित्र जलसे परिपूर्ण तथा अद्भुत है ॥ ८ ॥

घोरं जलचरारावरौद्रं भैरवनिःस्वनम् ।
गम्भीरावर्तकलिलं सर्वभूतभयंकरम् ॥ ९ ॥
वह घोर समुद्र जल-जन्तुओंके शब्दोंसे और भी भयंकर प्रतीत होता था, उससे भयंकर गर्जना हो रही थी, उसमें गहरी भँवरें उठ रही थीं तथा वह समस्त प्राणियोंके लिये भय-सा उत्पन्न करता था ॥ ९ ॥

वेलादोलानिलचलं क्षोभोद्वेगसमुच्छ्रितम् ।
वीचीहस्तैः प्रचलितैर्नृत्यन्तमिव सर्वतः ॥ १० ॥
तटपर तीव्रवेगसे बहनेवाली वायु मानो झूला बनकर उस महासागरको चंचल किये देती थी। वह क्षोभ और उद्वेगसे बहुत ऊँचेतक लहरें उठाता था और सब ओर चंचल तरंगरूपी हाथोंको हिला हिलाकर नृत्य-सा कर रहा था ॥ १० ॥

चन्द्रवृद्धिक्षयवशादुवृत्तोर्मिसमाकुलम् ।
पाञ्चजन्यस्य जननं रत्नाकरमनुत्तमम् ॥ ११ ॥
चन्द्रमाकी वृद्धि और क्षयके कारण उसकी लहरें बहुत ऊँचे उठतीं और उतरती थीं (उसमें ज्वार-भाटे आया करते थे), अतः वह उत्ताल-तरंगोंसे व्याप्त जान पड़ता था। उसीने पांचजन्य शंखको जन्म दिया था। वह रत्नोंका आकर और परम उत्तम था ॥ ११ ॥

गां विन्दता भगवता गोविन्देनामितौजसा ।
वराहरूपिणा चान्तर्विक्षोभितजलाविलम् ॥ १२ ॥
अमिततेजस्वी भगवान् गोविन्दने वराहरूपसे पृथ्वीको उपलब्ध करते समय उस समुद्रको भीतरसे मथ डाला था और उस मथित जलसे वह समस्त महासागर मलिन-सा जान पड़ता था ॥ १२ ॥

ब्रह्मर्षिणा व्रतवता वर्षाणां शतमत्रिणा ।
अनासादितगाधं च पातालतलमव्ययम् ॥ १३ ॥
व्रतधारी ब्रह्मर्षि अत्रिने समुद्रके भीतरी तलका अन्वेषण करते हुए सौ वर्षोंतक चेष्टा करके भी उसका पता नहीं पाया। वह पातालके नीचेतक व्याप्त है और पातालके नष्ट होनेपर भी बना रहता है, इसलिये अविनाशी है ॥ १३ ॥

अध्यात्मयोगनिद्रां च पद्मनाभस्य सेवतः ।
युगादिकालशयनं विष्णोरमिततेजसः ॥ १४ ॥
आध्यात्मिक योगनिद्राका सेवन करनेवाले अमित-तेजस्वी कमलनाभ भगवान् विष्णुके लिये वह (युगान्तकालसे लेकर) युगादिकालतक शयनागार बना रहता है ॥ १४ ॥

वज्रपातनसंत्रस्तमैनाकस्याभयप्रदम् ।
डिम्बाहवार्दितानां च असुराणां परायणम् ॥ १५ ॥
उसीने वज्रपातसे डरे हुए मैनाक पर्वतको अभयदान दिया है तथा जहाँ भयके मारे हाहाकार करना पड़ता है, ऐसे युद्धसे पीड़ित हुए असुरोंका वह सबसे बड़ा आश्रय है ॥ १५ ॥

वडवामुखदीप्ताग्नेस्तोयहव्यप्रदं शिवम् ।
अगाधपारं विस्तीर्णमप्रमेयं सरित्पतिम् ॥ १६ ॥
बड़वानलके प्रज्वलित मुखमें वह सदा अपने जलरूपी हविष्यकी आहुति देता रहता है और जगत्‌के लिये कल्याणकारी है। इस प्रकार वह सरिताओंका स्वामी समुद्र अगाध, अपार, विस्तृत और अप्रमेय है ॥ १६ ॥

महानदीभिर्बह्वीभिः स्पर्धयेव सहस्रशः ।
अभिसार्यमाणमनिशं ददृशाते महार्णवम् ।
आपूर्यमाणमत्यर्थ नृत्यमानमिवोर्मिभिः ॥ १७ ॥
सहस्रों बड़ी-बड़ी नदियाँ आपसमें होड़ सी लगाकर उस विस्तृत महासागरमें निरन्तर मिलती रहती हैं और अपने जलसे उसे सदा परिपूर्ण किया करती हैं। वह ऊँची-ऊँची लहरोंकी भुजाएँ ऊपर उठाये निरन्तर नृत्य करता-सा जान पड़ता है ॥ १७ ॥(Adi Parva Chapters 17 to 21)

गम्भीरं तिमिमकरोग्रसंकुलं तं गर्जन्तं जलचररावरौद्रनादैः ।
विस्तीर्ण ददृशतुरम्बरप्रकाशं तेऽगाधं निधिमुरुमम्भसामनन्तम् ॥ १८ ॥
इस प्रकार गम्भीर, तिमि और मकर आदि भयंकर जल-जन्तुओंसे व्याप्त, जलचर जीवोंके शब्दरूप भयंकर नादसे निरन्तर गर्जना करनेवाले, अत्यन्त विस्तृत, आकाशके समान स्वच्छ, अगाध, अनन्त एवं महान् जलनिधि समुद्रको कट्टू और विनताने देखा ॥ १८ ॥

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे एकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरितके प्रसंगमें इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २१ ॥

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