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Shri Govind Stotram in Hindi

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Shri Govind Stotram in Hindi

श्री गोविंदस्तोत्र | Shri Govind Stotram | श्री गर्ग संहिता

“श्री गोविंद स्तोत्रम” (Shri Govind Stotram) भगवान कृष्ण के गुणों और दिव्य गुणों की प्रशंसा करने वाली एक भक्ति रचना है। यह भगवान कृष्ण को समर्पित एक विशिष्ट भजन है, श्री कृष्ण को गोविंदा के नाम से भी जाना जाता है। श्री गोविंद स्तोत्रम (Shri Govind Stotram) पाठ अक्सर भक्त पूजा या ध्यान के दौरान परमात्मा से जुड़ने के लिए ऐसे स्तोत्र का पाठ करते हैं। श्री गोविंद स्तोत्रम स्तोत्र गर्ग संहिता का एक हिस्सा है, जो ऋषि गर्ग का एक प्राचीन संस्कृत पाठ है।

भक्त अपनी भक्ति की अभिव्यक्ति के रूप में और भगवान कृष्ण का आशीर्वाद पाने के लिए श्री गोविंद स्तोत्रम (Shri Govind Stotram) का पाठ या गायन करते हैं। इस स्तोत्र में छंद हैं जो कृष्ण की दिव्य प्रकृति के विभिन्न पहलुओं की प्रशंसा करते हैं, उनकी लीलाओं का वर्णन करते हैं, और उनके प्रति समर्पण के महत्व पर प्रकाश डालते हैं।

यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खण्ड पहले अध्याय से पांचवे अध्याय तक

श्री गोविंदस्तोत्र

चिन्तामणिप्रकरसह्यसु कल्पवृक्ष- लक्षावृतेषु सुरभीरभिपालयन्तम् ।
लक्ष्मीसहस्त्रशतसम्भ्रमसेव्यमानं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ १ ॥

अर्थ:
मैं उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द (श्रीकृष्ण) की शरण लेता हूँ, जिनकी लाखों कल्पवृक्षोंसे आवृत एवं चिन्तामणिसमूहसे निर्मित भवनोंमें लाखों लक्ष्मी-सदृश युवतियोंके द्वारा निरन्तर सेवा होती रहती है और जो स्वयं वन-वनमें घूम-घूमकर गौओंकी सेवा करते हैं।

वेणुं क्वणन्तमरविन्ददलायताक्षं बर्हावतंसमसिताम्बुदसुन्दराङ्गम् ।
कंदर्पकोटिकमनीयविशेषशोभं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ २ ॥

अर्थ:
जो वंशीमें स्वर फूँक रहे हैं, कमलकी पंखुड़ियोंके समान बड़े-बड़े जिनके नेत्र हैं, जो मोरपंखका मुकुट धारण किये रहते हैं, मेघके समान श्यामसुन्दर जिनके श्रीअङ्ग हैं, जिनकी विशेष शोभा करोड़ों कामदेवोंके द्वारा भी स्पृहणीय है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं भजन करता हूँ।

आलोलचन्द्रकलसद्वनमाल्यवंशी रत्नाङ्गदं प्रणयकेलिकलाविलासम् ।
श्यामं त्रिभङ्गललितं नियतप्रकाशं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ ३ ॥

अर्थ:
जो हवासे अठखेलियाँ करते हुए मोरपंख, सुन्दर वनमाला, वंशी एवं रत्नमय बाजूबंदसे सुशोभित हैं, जो प्रणयकेलि-कला- विलासमें दक्ष हैं, जिनका त्रिभङ्गललित श्यामसुन्दर विग्रह है और जिनका प्रकाश कभी फीका नहीं होता- सदा स्थिर रहता है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं आश्रय लेता हूँ।

अङ्गानि यस्य सकलेन्द्रियवृत्तिमन्ति पश्यन्ति पान्ति कलयन्ति चिरं जगन्ति ।
आनन्दचिन्मय सदुज्ज्वलविग्रहस्य गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ ४ ॥

अर्थ:
जिनका सच्चिदानन्दमय प्रकाशयुक्त श्रीविग्रह है तथा सम्पूर्ण इन्द्रिय-वृत्तियोंसे युक्त जिनके श्रीअङ्ग दीर्घकालतक विभिन्न लोकोंपर दृष्टि रखते हैं, उनकी रक्षा करते हैं तथा उनका ध्यान रखते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।

अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूप माद्यं पुराणपुरुषं नवयौवनं च ।
वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्तौ गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ ५ ॥

अर्थ:
जो द्वैतसे रहित हैं, अपने स्वरूपसे कभी च्युत नहीं होते, जो सबके आदि हैं, परंतु जिनका कहीं आदि नहीं है और जो अनन्त रूपोंमें प्रकाशित हैं, जो पुराण (सनातन) पुरुष होते हुए भी नित्य नवयुवक हैं, जिनका स्वरूप वेदोंमें भी प्राप्त नहीं होता (निषेधमुखसे ही वेद जिनका वर्णन करते हैं,) किंतु अपनी भक्ति प्राप्त हो जानेपर जो दुर्लभ नहीं रह जाते – अपने भक्तोंके लिये जो सुलभ हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ।

पन्थास्तु सोऽप्यस्ति कोटिशतवत्सरसम्प्रगम्यो वायोरधापि मनसो मुनिपुंगवानाम् ।
यत्प्रपदसीम्न्यविचिन्त्यतत्त्वे गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ ६ ॥

अर्थ:
(भगवत्प्राप्तिके) जिस मार्गको बड़े-बड़े मुनि प्राणायाम तथा चित्तनिरोधके द्वारा अरबों वर्षोंमें प्राप्त करते हैं, वही मार्ग जिनके अचिन्त्य माहात्म्ययुक्त चरणोंके अग्रभागकी सीमामें स्थित रहता है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय

एकोऽप्यसौ रचयितुं जगदण्डकोटिं यच्छक्तिरस्ति जगदण्डचया यदन्तः ।
अण्डान्तरस्थपरमाणुचयान्तरस्थं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ ७ ॥

अर्थ:
जो यद्यपि सर्वथा एक हैं— उनके सिवा दूसरा कोई नहीं है, फिर भी जो (अपनी महिमासे) करोड़ों ब्रह्माण्डोंको रचनेकी शक्ति रखते हैं—यही नहीं, ब्रह्माण्डोंके समूह जिनके भीतर रहते हैं; साथ ही जो ब्रह्माण्डोंके भीतर रहनेवाले परमाणु-समूहके भी भीतर स्थित रहते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दको मैं भजता हूँ ।

यद्भावभावितधियो मनुजास्तथैव सम्प्राप्य रूपमहिमासनयानभूषाः ।
निगमप्रथितैः स्तुवन्ति गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ ८ ॥

अर्थ:
जिनकी भक्तिसे भावित बुद्धिवाले मनुष्य उनके रूप, महिमा, आसन, यान (वाहन) अथवा भूषणोंकी झाँकी प्राप्त करके वेदप्रसिद्ध सूक्तों (मन्त्रों) द्वारा स्तुति करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं भजन करता हूँ।

आनन्दचिन्मयरसप्रतिभाविताभि-सूक्तैर्यमेव गोलोक ताभिर्य एव निजरूपतया कलाभिः ।
एव निवसत्यखिलात्मभूतो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ ९ ॥

अर्थ:
जो सर्वात्मा होकर भी आनन्दचिन्मयरसप्रतिभावित अपनी ही स्वरूपभूता उन प्रसिद्ध कलाओं (गोप, गोपी एवं गौओं) के साथ गोलोकमें ही निवास करते हैं, उन आदिपुरुष गोविन्दकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ।

प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन यं सन्तः सदैव हृदयेऽपि विलोकयन्ति ।
श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ १० ॥

अर्थ:
संतजन प्रेमरूपी अञ्जनसे सुशोभित भक्तिरूपी नेत्रोंसे सदा-सर्वदा जिनका अपने हृदयमें ही दर्शन करते रहते हैं, जिनका श्यामसुन्दर विग्रह है तथा जिनके स्वरूप एवं गुणोंका यथार्थरूपसे चिन्तन भी नहीं हो सकता, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ अगस्त्य संहिता

रामादिमूर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन् नानावतारमकरोद्भुवनेषु किंतु ।
कृष्णः स्वयं समभवत् परमः पुमान् यो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ ११ ॥

अर्थ:
जिन्होंने श्रीरामादि-विग्रहोंमें नियत संख्याकी कलारूपसे स्थित रहकर भिन्न-भिन्न भुवनोंमें अवतार ग्रहण किया, परंतु जो परात्पर पुरुष भगवान् श्रीकृष्णके रूपमें स्वयं प्रकट हुए, उन आदिपुरुष भगवान् श्रीकृष्णका मैं भजन करता हूँ।

यस्य प्रभा प्रभवतो जगदण्डकोटि कोटिष्वशेषवसुधादिविभूतिभिन्नम् ।
तद्ब्रह्म निष्कलमनन्तमशेषभूतं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ १२ ॥

अर्थ:
जो कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों में पृथिवी आदि समस्त विभूतियोंके रूपमें भिन्न-भिन्न दिखायी देता है, वह निष्कल (अखण्ड), अनन्त एवं अशेष ब्रह्म जिन सर्वसमर्थ प्रभुकी प्रभा है, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दको मैं भजता हूँ।

माया हि यस्य जगदण्डशतानि सूते त्रैगुण्यतद्विषयवेदवितायमाना
सत्त्वावलम्बिपरसत्त्वविशुद्धसत्त्वं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ १३ ॥

अर्थ:
सत्त्व, रज एवं तमके रूपमें उन्हीं तीनों गुणोंका प्रतिपादन करनेवाले वेदोंके द्वारा विस्तारित जिनकी माया सैकड़ों ब्रह्माण्डोंका सर्जन करती है, उन सत्त्वगुणका आश्रय लेनेवाले, सत्त्वसे परे एवं विशुद्धसत्त्वस्वरूप आदिपुरुष भगवान् गोविन्दकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ ।

आनन्दचिन्मयरसात्मतया मनस्सु यः प्राणिनां प्रतिफलन् स्मरतामुपेत्य ।
लीलायितेन भुवनानि जयत्यजस्त्रं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ १४ ॥

अर्थ:
जो स्मरण करनेवाले प्राणियोंके मनोंमें अपने आनन्द- चिन्मयरसात्मक-स्वरूपसे प्रतिबिम्बित होते हैं तथा अपने लीलाचरित्रके द्वारा निरन्तर समस्त भुवनोंको वशीभूत करते रहते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।

गोलोकनाम्नि निजधानि तले च तस्य देवीमहेशहरिधामसु तेषु तेषु च ।
ते ते प्रभावनिचया विहिताश्च येन गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ १५ ॥

अर्थ:
जिन्होंने गोलोक नामक अपने धाम में तथा उसके नीचे स्थित देवीलोक, कैलास तथा वैकुण्ठ नामक विभिन्न धामोंमें विभिन्न ऐश्वर्योकी सृष्टि की, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दको मैं भजता हूँ।

सृष्टिस्थितिप्रलयसाधनशक्तिरेका छायेव यस्य भुवनानि बिभर्ति दुर्गा ।
इच्छानुरूपमपि यस्य च चेष्टते सा गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ १६ ॥

अर्थ:
सृष्टि, स्थिति एवं प्रलयकारिणी शक्तिरूपा भगवती दुर्गा, जिनकी छायाकी भाँति समस्त लोकोंका धारण-पोषण करती हैं और जिनकी इच्छाके अनुसार चेष्टा करती हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं भजन करता हूँ।(Shri Govind Stotram)

क्षीरं यथा दधिविकारविशेषयोगात् संजायते नहि ततः पृथगस्ति हेतोः ।
यः शम्भुतामपि तथा समुपैति कार्याद् गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ १७ ॥

अर्थ:
जावन आदि विशेष प्रकारके विकारोंके संयोगसे दूध जैसे दहीके रूपमें परिवर्तित हो जाता है, किंतु अपने कारण (दूध) से फिर भी विजातीय नहीं बन जाता, उसी प्रकार जो (संहाररूप) प्रयोजनको लेकर भगवान् शंकरके स्वरूपको प्राप्त हो जाते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ।

दीपार्चिरेव हि दशान्तरमभ्युपेत्य दीपायते विवृतहेतुसमानधर्मा ।
यस्तादृगेव च विष्णुतया विभाति गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ १८ ॥

अर्थ:
जैसे एक दीपककी लौ दूसरी बत्तीका संयोग पाकर दूसरा दीपक बन जाती है, जिसमें अपने कारण (पहले दीपक) के गुण प्रकट हो जाते हैं, उसी प्रकार जो अपने स्वरूपमें स्थित रहते हुए ही विष्णुरूपमें दिखायी देने लगते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ सनातन धर्म में कितने शास्त्र-षड्दर्शन हैं।

यः कारणार्णवजले भजति स्म योग निद्रामनन्तजगदण्डसरोमकूपः
आधारशक्तिमवलम्ब्य परां स्वमूर्ति गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ १९ ॥

अर्थ:
आधारशक्तिरूपा अपनी (नारायणरूप) श्रेष्ठ मूर्तिको धारण करके जो कारणार्णवके जलमें योगनिद्राके वशीभूत होकर स्थित रहते हैं और उस समय उनके एक-एक रोमकूपमें अनन्त ब्रह्माण्ड समाये रहते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दको मैं भजता हूँ।

यस्यैकनिश्श्वसितकालमथावलम्ब्य जीवन्ति लोमविलजा जगदण्डनाथाः ।
विष्णुर्महान् स इह यस्य कलाविशेषो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ २० ॥

अर्थ:
जिनके रोमकूपोंसे प्रकट हुए विभिन्न ब्रह्माण्डोंके स्वामी (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) जिनके एक श्वास जितने कालतक ही जीवन धारण करते हैं तथा सर्वविदित महान् विष्णु जिनकी एक विशिष्ट कलामात्र हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं भजन करता हूँ।

भास्वान् यथाश्मसकलेषु निजेषु तेजः स्वीयं कियत् प्रकटयत्यपि तद्वदत्र ।
ब्रह्मा य एष जगदण्डविधानकर्ता गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ २१ ॥

अर्थ:
जैसे सूर्य सूर्यकान्त नामक सम्पूर्ण मणियोंमें अपने तेजका किंचित् अंश प्रकट करते हैं, उसी प्रकार एक ब्रह्माण्डका शासन करनेवाले ब्रह्मा भी अपने अंदर जिनके तेजका किंचित् अंश प्रकट करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ।

यत्पादपल्लवयुगं विनिधाय कुम्भ द्वन्द्वे प्रणामसमये स गणाधिराजः ।
विघ्नान् निहन्तुमलमस्य जगत्त्रयस्य गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ २२ ॥

अर्थ:
प्रणाम करते समय जिनके चरणयुगलको अपने मस्तकके दोनों भागोंपर रखकर सर्वसिद्ध भगवान् गणपति इन तीनों लोकोंके विघ्नोंका विनाश करनेमें समर्थ होते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।

अग्निर्महीगगनमम्बुमरुद्दिशश्च कालस्तथाऽऽत्ममनसीति जगत्त्रयाणि ।
यस्माद् भवन्ति विभवन्ति विशन्ति यं च गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ २३ ॥

अर्थ:
अग्नि, पृथिवी, आकाश, जल, वायु एवं चारों दिशाएँ; काल बुद्धि, मन, पृथिवी, अन्तरिक्ष एवं स्वर्गरूप तीनों लोक जिनसे उत्पन्न होते हैं, समृद्ध (पुष्ट) होते हैं तथा जिनमें पुनः लीन हो जाते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दको मैं भजता हूँ।

यच्चक्षुरेव सविता सकलग्रहाणां राजा समस्तसुरमूर्तिरशेषतेजाः ।
यस्याज्ञया भ्रमति सम्भृतकालचक्री गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ २४ ॥

अर्थ:
जिनके नेत्ररूप सूर्य, जो समस्त ग्रहोंके अधिपति, सम्पूर्ण देवताओंके प्रतीक एवं सम्पूर्ण तेजःस्वरूप तथा कालचक्रके प्रवर्तक होते हुए भी जिनकी आज्ञासे लोकोंमें चक्कर लगाते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दको मैं भजता हूँ।

धर्मोऽथ पापनिचयः श्रुतयस्तपांसि ब्रह्मादिकीटपतगावधयश्च जीवाः ।
यद्दत्तमात्रविभवप्रकटप्रभावा गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ २५ ॥

अर्थ:
धर्म एवं पाप-समूह, वेदकी ऋचाएँ, नाना प्रकारके तप तथा ब्रह्मासे लेकर कीटपतङ्गतक सम्पूर्ण जीव जिनकी दी हुई शक्तिके द्वारा ही अपना-अपना प्रभाव प्रकट करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं भजन करता हूँ।

यस्त्विन्द्रगोपमथवेन्द्रमहो स्वकर्म बद्धानुरूपफलभाजनमातनोति ।
कर्माणि निर्दहति किंतु च भक्तिभाजां गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ २६ ॥

अर्थ:
जो एक वीरबहूटीको एवं देवराज इन्द्रको भी अपने-अपने कर्म-बन्धनके अनुरूप फल प्रदान करते हैं, किंतु जो अपने भक्तोंके कर्मोंको निःशेषरूपसे जला डालते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ।

यं क्रोधकामसहजप्रणयादिभीति वात्सल्यमोहगुरुगौरवसेव्यभावैः
संचिन्त्य तस्य सदृशीं तनुमापुरेते गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ २७ ॥

अर्थ:
क्रोध, काम, सहज स्नेह आदि, भय, वात्सल्य, मोह (सर्वविस्मृति), गुरु- गौरव (बड़ोंके प्रति होनेवाली गौरव बुद्धिके सदृश महान् सम्मान) तथा सेव्य बुद्धिसे (अपनेको दास मानकर) जिनका चिन्तन करके लोग उन्हींके समान रूपको प्राप्त हो गये, उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्दका मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।

॥ श्री गोविंदस्तोत्र सम्पूर्ण ॥

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