वैशेषिक दर्शन हिंदी में
भारतीय दर्शन की गहन परंपरा में वैशेषिक दर्शन (Vaisheshik Darshan in Hindi) को एक प्राचीन वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला आत्मदर्शन माना जाता है। यह केवल अध्यात्म या मोक्ष की चर्चा तक सीमित नहीं, बल्कि सृष्टि के पदार्थों, गुणों और उनके कार्यों का विश्लेषणात्मक विवेचन करता है। इसके मूल प्रवर्तक महर्षि कणाद हैं, जिन्होंने ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में इसके सूत्रों की रचना की। “काणादं पाणिनीयं च सर्वशास्त्रोपकारकम्” — इस उक्ति से यह स्पष्ट होता है कि वैशेषिक दर्शन और पाणिनीय व्याकरण को सभी शास्त्रों के लिए मूल आधार माना गया है।
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वैशेषिक दर्शन (Vaisheshik Darshan in Hindi) की संहिताबद्ध रचना “वैशेषिक सूत्र” के नाम से प्रसिद्ध है, जिसमें कुल 10 अध्याय, प्रत्येक में 2 आह्निक और कुल मिलाकर लगभग 370 सूत्र हैं। वैशेषिक दर्शन आत्मा की मुक्ति को भौतिक तत्वों की यथार्थ जानकारी से जोड़ता है। यह दर्शन अनुभव, तर्क और विश्लेषण को केंद्र में रखता है। यद्यपि यह न्याय दर्शन से अत्यंत साम्य रखता है (प्रमाण, आत्मा, ईश्वर आदि में), फिर भी यह एक स्वतंत्र दर्शन प्रणाली है।
वैशेषिक दर्शन की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता इसका षड्-पदार्थ सिद्धांत है। इसमें महर्षि कणाद ने सम्पूर्ण जगत के अनुभवों को केवल छह मूल तत्वों (पदार्थों) में विभाजित किया है। इन छह पदार्थों के द्वारा वह समस्त भौतिक व आध्यात्मिक जगत की व्यवस्था की व्याख्या करते हैं। ये छह पदार्थ हैं द्रव्य, गुण, कर्म सामान्य, विशेष और समवाय। द्रव्य वह आधार है जिसमें गुण और कर्म रहते हैं। यह स्वतंत्र सत्ता होता है, और इसके बिना न तो कोई गुण हो सकता है, न ही कोई क्रिया।
महर्षि कणाद का यह छह पदार्थों का सिद्धांत हमें सृष्टि के अस्तित्व, संरचना और ज्ञान को एक सूक्ष्म, वैज्ञानिक और तात्त्विक दृष्टिकोण से समझने का माध्यम देता है।
यह विश्लेषण न केवल दर्शन की जटिलताओं को सरल बनाता है, बल्कि भौतिक जगत और आत्मा के बीच के अंतर को भी स्पष्ट करता है। छः पदार्थों का ज्ञान ही मोक्ष का आधार बन सकता है — यही वैशेषिक मुनियों की मान्यता है।
वैशेषिक दर्शन (Vaisheshik Darshan in Hindi) के अनुसार कर्म वह तत्त्व है जो द्रव्य में स्थित होता है और जिससे द्रव्य में गति या परिवर्तन आता है। कर्म क्षणिक होते हैं और किसी द्रव्य में समवाय संबंध के द्वारा स्थित रहते हैं:
“द्रव्याश्रितं चेष्टास्वरूपं कर्म।
अर्थात् — जो द्रव्य में स्थित होकर चेष्टा (गति या परिवर्तन) का स्वरूप धारण करे, वही ‘कर्म’ कहलाता है।
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पाँच प्रकार की क्रियाओं के माध्यम से वैशेषिक दर्शन यह स्पष्ट करता है कि संपूर्ण विश्व में जो भी गति या परिवर्तन घटित हो रहा है, वह इन्हीं पाँच क्रियाओं के अंतर्गत आता है। इन क्रियाओं के माध्यम से ही द्रव्यों की सक्रियता, गुणों का परिवर्तन और अनुभव की विविधता संभव होती है। ये कर्म न केवल पदार्थों के भौतिक व्यवहार को समझाते हैं, बल्कि जीव के कर्मफल सिद्धांत को भी सूक्ष्म रूप में समर्थन प्रदान करते हैं।
वैशेषिक दर्शन, केवल आत्मा और मोक्ष की बात नहीं करता, बल्कि वह सृष्टि, पदार्थ, गति, गुण, और घटनाओं को भी तार्किक और विश्लेषणात्मक दृष्टि से देखता है। इसका उद्देश्य यह जानना है कि “वस्तुएँ क्या हैं, वे कैसे कार्य करती हैं, और उनके पीछे कार्य कारण क्या है।” यही कारण है कि इस दर्शन में अनेक प्राकृतिक घटनाओं की वैज्ञानिक व्याख्या की गई है।
वैशेषिक दर्शन का दृष्टिकोण दिखाता है कि प्राकृतिक घटनाएँ किसी चमत्कार या रहस्य पर आधारित नहीं, बल्कि वे पदार्थों के गुण, कर्म और उनके समवाय के नियमों से उत्पन्न होती हैं। यह दर्शन भारत की वैज्ञानिक चेतना और तर्कशक्ति का प्रमाण है।
वैशेषिक दर्शन (Vaisheshik Darshan in Hindi), भारतीय दार्शनिक परंपरा का एक अनूठा स्तंभ है, जो आध्यात्मिक मोक्ष की प्राप्ति को भौतिक यथार्थ की गहन समझ से जोड़ता है। यह दर्शन आत्मा, परमाणु, कर्म, गुण और समवाय जैसे तत्वों के विश्लेषण के माध्यम से यह बताता है कि सत्य का बोध ही दुखों से मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग है।
महर्षि कणाद द्वारा प्रतिपादित यह प्रणाली न केवल आध्यात्मिक प्रश्नों का उत्तर देती है, बल्कि प्राकृतिक घटनाओं और भौतिक जगत को भी वैज्ञानिक ढंग से समझाती है। आज जब आधुनिक विज्ञान पदार्थ की सूक्ष्मतम इकाइयों की खोज में अग्रसर है, तब वैशेषिक दर्शन का प्राचीन परमाणु सिद्धांत एक प्रेरणास्पद विरासत बन जाता है।
यह दर्शन सिखाता है कि:
“ध्यान, तर्क और ज्ञान – जब ये तीनों एक साथ चलते हैं, तभी आत्मा अपने सत्य स्वरूप को पहचान पाती है।”