Mahabharata Adi Parva Chapter 42 to 46

॥ श्रीहरिः ॥
श्रीगणेशाय नमः
॥ श्रीवेदव्यासाय नमः ॥
श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्व में (Adi Parva Chapter 42 to 46)
इस पोस्ट में श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्व अध्याय 42 से अध्याय 46 (Adi Parva Chapter 42 to 46) दिया गया है। इसमें शमीकका अपने पुत्रको समझाना और गौरमुखको राजा परीक्षित्के पास भेजना, राजाद्वारा आत्मरक्षाकी व्यवस्था तथा तक्षक नाग और काश्यपकी बातचीत, तक्षकका धन देकर काश्यपको लौटा देना और छलसे राजा परीक्षित्के समीप पहुँचकर उन्हें डॅसना, जनमेजयका राज्याभिषेक और विवाह, जरत्कारुको अपने पितरोंका दर्शन और उनसे वार्तालाप और जरत्कारुका शर्तके साथ विवाहके लिये उद्यत होना और नागराज वासुकिका जरत्कारु नामकी कन्याको लेकर आने का वर्णन दिया गया हे।
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अध्याय बयालीस
शमीकका अपने पुत्रको समझाना और गौरमुखको राजा परीक्षित्के पास भेजना, राजाद्वारा आत्मरक्षाकी व्यवस्था तथा तक्षक नाग और काश्यपकी बातचीत
शृङ्गयुवाच
यद्येतत् साहसं तात यदि वा दुष्कृतं कृतम् ।
प्रियं वाप्यप्रियं वा ते वागुक्ता न मृषा भवेत् ॥ 1 ॥
शृंगी बोला-तात ! यदि यह साहस है अथवा यदि मेरे द्वारा दुष्कर्म हो गया है तो हो जाय। आपको यह प्रिय लगे या अप्रिय, किंतु मैंने जो बात कह दी है, वह झूठी नहीं हो सकती ॥ 1 ॥
नैवान्यथेदं भविता पितरेष ब्रवीमि ते ।
नाहं मृषा ब्रवीम्येवं स्वैरेष्वपि कुतः शपन् ।॥ 2 ॥
पिताजी! मैं आपसे सच कहता हूँ, अब यह शाप टल नहीं सकता। मैं हँसी-मजाकमें भी झूठ नहीं बोलता, फिर शाप देते समय कैसे झूठी बात कह सकता हूँ ॥ 2 ॥
शमीक उवाच
जानाम्युग्रप्रभावं त्वां तात सत्यगिरं तथा ।
नानृतं चोक्तपूर्व ते नैतन्मिथ्या भविष्यति ॥ 3 ॥
शमीकने कहा-बेटा! मैं जानता हूँ तुम्हारा प्रभाव उग्र है, तुम बड़े सत्यवादी हो, तुमने पहले भी कभी झूठी बात नहीं कही है; अतः यह शाप मिथ्या नहीं होगा ॥ 3 ॥
पित्रा पुत्रो वयःस्थोऽपि सततं वाच्य एव तु ।
यथा स्याद् गुणसंयुक्तः प्राप्नुयाच्च महद् यशः ॥ 4 ॥
तथापि पिताको उचित है कि वह अपने पुत्रको बड़ी अवस्थाका हो जानेपर भी सदा सत्कर्मोंका उपदेश देता रहे; जिससे वह गुणवान् हो और महान् यश प्राप्त करे ॥ 4 ॥
किं पुनर्बाल एव त्वं तपसा भावितः सदा ।
वर्धते च प्रभवतां कोपोऽतीव महात्मनाम् ॥ 5 ॥
फिर तुम्हें उपदेश देनेकी तो बात ही क्या है, तुम तो अभी बालक ही हो। तुमने सदा तपस्याके द्वारा अपनेको दिव्य शक्तिसे सम्पन्न किया है। जो योगजनित ऐश्वर्यसे सम्पन्न हैं, ऐसे प्रभावशाली तेजस्वी पुरुषोंका भी क्रोध अधिक बढ़ जाता है; फिर तुम-जैसे बालकको क्रोध हो, इसमें कहना ही क्या है ॥ 5 ॥(Adi Parva Chapter 42 to 46)
सोऽहं पश्यामि वक्तव्यं त्वयि धर्मभृतां वर ।
पुत्रत्वं बालतां चैव तवावेक्ष्य च साहसम् ॥ 6 ॥
(किंतु यह क्रोध धर्मका नाशक होता है) इसलिये धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ पुत्र ! तुम्हारे बचपन और दुःसाहसपूर्ण कार्यको देखकर मैं तुम्हें कुछ कालतक उपदेश देनेकी आवश्यकता समझता हूँ ॥ 6 ॥
स त्वं शमपरो भूत्वा वन्यमाहारमाचरन् ।
चर क्रोधमिमं हत्वा नैवं धर्म प्रहास्यसि ॥ 7 ॥
तुम मन और इन्द्रियोंके निग्रहमें तत्पर होकर जंगली कन्द, मूल, फलका आहार करते हुए इस क्रोधको मिटाकर उत्तम आचरण करो, ऐसा करनेसे तुम्हारे धर्मकी हानि नहीं होगी ॥ 7 ॥
क्रोधो हि धर्म हरति यतीनां दुःखसंचितम् ।
ततो धर्मविहीनानां गतिरिष्टा न विद्यते ॥ 8 ॥
क्रोध प्रयत्नशील साधकोंके अत्यन्त दुःखसे उपार्जित धर्मका नाश कर देता है। फिर धर्महीन मनुष्योंको अभीष्ट गति नहीं मिलती है ॥ 8 ॥
शम एव यतीनां हि क्षमिणां सिद्धिकारकः ।
क्षमावतामयं लोकः परश्चैव क्षमावताम् ॥ 9 ॥
शम (मनोनिग्रह) ही क्षमाशील साधकोंको सिद्धिकी प्राप्ति करानेवाला है। जिनमें क्षमा है, उन्हींके लिये यह लोक और परलोक दोनों कल्याणकारक हैं ॥ 9 ॥
तस्माच्चरेथाः सततं क्षमाशीलो जितेन्द्रियः ।
क्षमया प्राप्स्यसे लोकान् ब्रह्मणः समनन्तरान् ॥ 10 ॥
इसलिये तुम सदा इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए क्षमाशील बनो। क्षमासे ही ब्रह्माजीके निकटवर्ती लोकोंमें जा सकोगे ॥ 10 ॥
मया तु शममास्थाय यच्छक्यं कर्तुमद्य वै ।
तत् करिष्याम्यहं तात प्रेषयिष्ये नृपाय वै ॥ 11 ॥
मम पुत्रेण शप्तोऽसि बालेन कृशबुद्धिना ।
ममेमां धर्षणां त्वत्तः प्रेक्ष्य राजन्नमर्षिणा ॥ 12 ॥
तात! मैं तो शान्ति धारण करके अब जो कुछ किया जा सकता है, वह करूँगा। राजाके पास यह संदेश भेज दूँगा कि ‘राजन्! तुम्हारे द्वारा मुझे जो तिरस्कार प्राप्त हुआ है उसे देखकर अमर्षमें भरे हुए मेरे अल्पबुद्धि एवं मूढ़ पुत्रने तुम्हें शाप दे दिया है’ ॥ 11-12 ॥
सौतिरुवाच
एवमादिश्य शिष्यं स प्रेषयामास सुव्रतः ।
परिक्षिते नृपतये दयापन्नो महातपाः ॥ 13 ॥
संदिश्य कुशलप्रश्नं कार्यवृत्तान्तमेव च ।
शिष्यं गौरमुखं नाम शीलवन्तं समाहितम् ॥ 14 ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- उत्तम व्रतका पालन करनेवाले दयालु एवं महातपस्वी शमीक मुनिने अपने गौरमुख नामवाले एकाग्रचित्त एवं शीलवान् शिष्यको इस प्रकार आदेश दे कुशल-प्रश्न, कार्य एवं वृतान्तका संदेश देकर राजा परीक्षित् के पास भेजा ॥ 13-14 ॥
सोऽभिगम्य ततः शीघ्रं नरेन्द्रं कुरुवर्धनम् ।
विवेश भवनं राज्ञः पूर्व द्वाःस्थैर्निवेदितः ॥ 15 ॥
गौरमुख वहाँसे शीघ्र कुरुकुलकी वृद्धि करनेवाले महाराज परीक्षित् के पास चला गया। राजधानीमें पहुँचनेपर द्वारपालने पहले महाराजको उसके आनेकी सूचना दी और उनकी आज्ञा मिलनेपर गौरमुखने राजभवनमें प्रवेश किया ॥ 15 ॥
पूजितस्तु नरेन्द्रेण द्विजो गौरमुखस्तदा ।
आचख्यौ च परिश्रान्तो राज्ञः सर्वमशेषतः ॥ 16 ॥
शमीकवचनं घोरं यथोक्तं मन्त्रिसन्निधौ ।
महाराज परीक्षित्ने उस समय गौरमुख ब्राह्मणका बड़ा सत्कार किया। जब उसने विश्राम कर लिया, तब शमीकके कहे हुए घोर वचनको मन्त्रियोंके समीप राजाके सामने पूर्णरूपसे कह सुनाया ॥ 16/3 ॥
गौरमुख उवाच
शमीको नाम राजेन्द्र वर्तते विषये तव ॥ 17 ॥
ऋषिः परमधर्मात्मा दान्तः शान्तो महातपाः ।
तस्य त्वया नरव्याघ्र सर्पः प्राणैर्वियोजितः ॥ 18 ॥
अवसक्तो धनुष्कोट्या स्कन्धे मौनान्वितस्य च ।
क्षान्तवांस्तव तत् कर्म पुत्रस्तस्य न चक्षमे ॥ 19 ॥
गौरमुख बोला- महाराज ! आपके राज्यमें शमीक नामवाले एक परम धर्मात्मा महर्षि रहते हैं। वे जितेन्द्रिय, मनको वशमें रखनेवाले और महान् तपस्वी हैं। नरव्याघ्र! आपने मौन व्रत धारण करनेवाले उन महात्माके कंधेपर धनुषकी नोकसे उठाकर एक मरा हुआ साँप रख दिया था। महर्षिने तो उसके लिये आपको क्षमा कर दिया था, किंतु उनके पुत्रको वह सहन नहीं हुआ ॥ 17-19 ॥
तेन शप्तोऽसि राजेन्द्र पितुरज्ञातमद्य वै ।
तक्षकः सप्तरात्रेण मृत्युस्तव भविष्यति ॥ 20 ॥
राजेन्द्र ! उस ऋषिकुमारने आज अपने पिताके अनजानमें ही आपके लिये यह शाप दिया है कि ‘आजसे सात रातके बाद ही तक्षक नाग आपकी मृत्युका कारण हो जायगा’ ॥ 20 ॥
तत्र रक्षां कुरुष्वेति पुनः पुनरथाब्रवीत् ।
तदन्यथा न शक्यं च कर्तुं केनचिदप्युत ॥ 21 ॥
इस दशामें आप अपनी रक्षाकी व्यवस्था करें। यह मुनिने बार-बार कहा है। उस शापको कोई भी टाल नहीं सकता ॥ 21 ॥(Adi Parva Chapter 42 to 46)
न हि शक्नोति तं यन्तुं पुत्रं कोपसमन्वितम् ।
ततोऽहं प्रेषितस्तेन तव राजन् हितार्थिना ॥ 22 ॥
स्वयं महर्षि भी क्रोधमें भरे हुए अपने पुत्रको शान्त नहीं कर पा रहे हैं। अतः राजन् ! आपके हितकी इच्छासे उन्होंने मुझे यहाँ भेजा है ॥ 22 ॥
सौतिरुवाच
इति श्रुत्वा वचो घोरं स राजा कुरुनन्दनः ।
पर्यतप्यत तत् पापं कृत्वा राजा महातपाः ॥ 23 ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- यह घोर वचन सुनकर कुरुनन्दन राजा परीक्षित् मुनिका अपराध करनेके कारण मन-ही-मन संतप्त हो उठे ॥ 23 ॥
तं च मौनव्रतं श्रुत्वा वने मुनिवरं तदा ।
भूय एवाभवद् राजा शोकसंतप्तमानसः ॥ 24 ॥
वे श्रेष्ठ महर्षि उस समय वनमें मौन-व्रतका पालन कर रहे थे, यह सुनकर राजा परीक्षित्का मन और भी शोक एवं संतापमें डूब गया ॥ 24 ॥
अनुक्रोशात्मतां तस्य शमीकस्यावधार्य च ।
पर्यतप्यत भूयोऽपि कृत्वा तत् किल्बिषं मुनेः ॥ 25 ॥
शमीक मुनिकी दयालुता और अपने द्वारा उनके प्रति किये हुए उस अपराधका विचार करके वे अधिकाधिक संतप्त होने लगे ॥ 25 ॥
न हि मृत्युं तथा राजा श्रुत्वा वै सोऽन्वतप्यत ।
अशोचदमरप्रख्यो यथा कृत्वेह कर्म तत् ॥ 26 ॥
देवतुल्य राजा परीक्षित् को अपनी मृत्युका शाप सुनकर वैसा संताप नहीं हुआ जैसा कि मुनिके प्रति किये हुए अपने उस बर्तावको याद करके वे शोकमग्न हो रहे थे ॥ 26 ॥
ततस्तं प्रेषयामास राजा गौरमुखं तदा ।
भूयः प्रसादं भगवान् करोत्विह ममेति वै ॥ 27 ॥
तदनन्तर राजाने यह संदेश देकर उस समय गौरमुखको विदा किया कि ‘भगवान् शमीक मुनि यहाँ पधारकर पुनः मुझपर कृपा करें’ ॥ 27 ॥
तस्मिंश्च गतमात्रेऽथ राजा गौरमुखे तदा ।
मन्त्रिभिर्मन्त्रयामास सह संविग्नमानसः ॥ 28 ॥
गौरमुखके चले जानेपर राजाने उद्विग्नचित्त हो मन्त्रियोंके साथ गुप्त मन्त्रणा की ॥ 28 ॥
सम्मन्त्र्य मन्त्रिभिश्चैव स तथा मन्त्रतत्त्ववित् ।
प्रासादं कारयामास एकस्तम्भं सुरक्षितम् ॥ 29 ॥
मन्त्र-तत्त्वके ज्ञाता महाराजने मन्त्रियोंसे सलाह करके एक ऊँचा महल बनवाया; जिसमें एक ही खंभा लगा था। वह भवन सब ओरसे सुरक्षित था ॥ 29 ॥
रक्षां च विदधे तत्र भिषजश्चौषधानि च ।
ब्राह्मणान् मन्त्रसिद्धांश्च सर्वतो वै न्ययोजयत् ॥ 30 ॥
राजाने वहाँ रक्षाके लिये आवश्यक प्रबन्ध किया, उन्होंने सब प्रकारकी ओषधियाँ जुटा लीं और वैद्यों तथा मन्त्रसिद्ध ब्राह्मणोंको सब ओर नियुक्त कर दिया ॥ 30 ॥
राजकार्याणि तत्रस्थः सर्वाण्येवाकरोच्च सः ।
मन्त्रिभिः सह धर्मज्ञः समन्तात् परिरक्षितः ॥ 31 ॥
वहीं रहकर वे धर्मज्ञ नरेश सब ओरसे सुरक्षित हो मन्त्रियोंके साथ सम्पूर्ण राज-कार्यकी व्यवस्था करने लगे ॥ 31 ॥
न चैनं कश्चिदारूढं लभते राजसत्तमम् ।
वातोऽपि निश्चरंस्तत्र प्रवेशे विनिवार्यते ॥ 32 ॥
उस समय महलमें बैठे हुए महाराजसे कोई भी मिलने नहीं पाता था। वायुको भी वहाँसे निकल जानेपर पुनः प्रवेशके समय रोका जाता था ॥ 32 ॥
प्राप्ते च दिवसे तस्मिन् सप्तमे द्विजसत्तमः ।
काश्यपोऽभ्यागमद् विद्वांस्तं राजानं चिकित्सितुम् ॥ 33 ॥
सातवाँ दिन आनेपर मन्त्रशास्त्रके ज्ञाता द्विजश्रेष्ठ काश्यप राजाकी चिकित्सा करनेके लिये आ रहे थे ॥ 33 ॥
श्रुतं हि तेन तदभूद् यथा तं राजसत्तमम् ।
तक्षकः पन्नगश्रेष्ठो नेष्यते यमसादनम् ॥ 34 ॥
उन्होंने सुन रखा था कि ‘भूपशिरोमणि परीक्षित् को आज नागोंमें श्रेष्ठ तक्षक यमलोक पहुँचा देगा’ ॥ 34 ॥
तं दष्टं पन्नगेन्द्रेण करिष्ये ऽहमपज्वरम् ।
तत्र मेऽर्थश्च धर्मश्च भवितेति विचिन्तयन् ॥ 35 ॥
अतः उन्होंने सोचा कि नागराजके डॅसे हुए महाराजका विष उतारकर मैं उन्हें जीवित कर दूँगा। ऐसा करनेसे वहाँ मुझे धन तो मिलेगा ही, लोकोपकारी राजाको जिलानेसे धर्म भी होगा ॥ 35 ॥
तं ददर्श स नागेन्द्रस्तक्षकः काश्यपं पथि ।
गच्छन्तमेकमनसं द्विजो भूत्वा वयोऽतिगः ॥ 36 ॥
तमब्रवीत् पन्नगेन्द्रः काश्यपं मुनिपुङ्गवम् ।
क्व भवांस्त्वरितो याति किं च कार्य चिकीर्षति ॥ 37 ॥
मार्गमें नागराज तक्षकने काश्यपको देखा। वे एकचित्त होकर हस्तिनापुरकी ओर बढ़े जा रहे थे। तब नागराजने बूढ़े ब्राह्मणका वेश बनाकर मुनिवर काश्यपसे पूछा- ‘आप कहाँ बड़ी उतावलीके साथ जा रहे हैं और कौन-सा कार्य करना चाहते हैं?’ ॥ 36-37 ॥
काश्यप उवाच
नृपं कुरुकुलोत्पन्नं परिक्षितमरिन्दमम् ।
तक्षकः पन्नगश्रेष्ठस्तेजसाद्य प्रधक्ष्यति ॥ 38 ॥
काश्यपने कहा-कुरुकुलमें उत्पन्न शत्रुदमन महाराज परीक्षित् को आज नागराज तक्षक अपनी विषाग्निसे दग्ध कर देगा ॥ 38 ॥
तं दष्टं पन्नगेन्द्रेण तेनाग्निसमतेजसा ।
पाण्डवानां कुलकरं राजानममितौजसम् ।
गच्छामि त्वरितं सौम्य सद्यः कर्तुमपज्वरम् ॥ 39 ॥
वे राजा पाण्डवोंकी वंशपरम्पराको सुरक्षित रखने वाले तथा अत्यन्त पराक्रमी हैं। अतः सौम्य ! अग्निके समान तेजस्वी नागराजके डॅस लेनेपर उन्हें तत्काल विषरहित करके जीवित कर देनेके लिये मैं जल्दी-जल्दी जा रहा हूँ ॥ 39 ॥
तक्षक उवाच
अहं स तक्षको ब्रह्मस्तं धक्ष्यामि महीपतिम् ।
निवर्तस्व न शक्तस्त्वं मया दष्टं चिकित्सितुम् ॥ 40 ॥
तक्षक बोला- ब्रह्मन् ! मैं ही वह तक्षक हूँ। आज राजाको भस्म कर डालूँगा। आप लौट जाइये। मैं जिसे डॅस लूँ, उसकी चिकित्सा आप नहीं कर सकते ॥ 40 ॥(Adi Parva Chapter 42 to 46)
काश्यप उवाच
अहं तं नृपतिं गत्वा त्वया दष्टमपज्वरम् ।
करिष्यामीति मे बुद्धिर्विद्याबलसमन्विता ॥ 41 ॥
काश्यपने कहा- मैं तुम्हारे डॅसे हुए राजाको वहाँ जाकर विषसे रहित कर दूँगा। यह विद्याबलसे सम्पन्न मेरी बुद्धिका निश्चय है ॥ 41 ॥
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि काश्यपागमने द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ 42 ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें काश्यपागमनविषयक बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ 42 ॥
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अध्याय तैंतालीस
तक्षकका धन देकर काश्यपको लौटा देना और छलसे राजा परीक्षित्के समीप पहुँचकर उन्हें डॅसना
तक्षक उवाच
यदि दष्टं मयेह त्वं शक्तः किंचिच्चिकित्सितुम् ।
ततो वृक्षं मया दष्टमिमं जीवय काश्यप ॥ 1 ॥
तक्षक बोला-काश्यप ! यदि इस जगत्में मेरे डॅसे हुए रोगीकी कुछ भी चिकित्सा करनेमें तुम समर्थ हो तो मेरे डॅसे हुए इस वृक्षको जीवित कर दो ॥ 1 ॥
परं मन्त्रबलं यत् ते तद् दर्शय यतस्व च ।
न्यग्रोधमेनं धक्ष्यामि पश्यतस्ते द्विजोत्तम ॥ 2 ॥
द्विजश्रेष्ठ ! तुम्हारे पास जो उत्तम मन्त्रका बल है, उसे दिखाओ और यत्न करो। लो, तुम्हारे देखते-देखते इस वटवृक्षको में भस्म कर देता हूँ ॥ 2 ॥
काश्यप उवाच
दश नागेन्द्र वृक्षं त्वं यद्येतदभिमन्यसे ।
अहमेनं त्वया दष्टं जीवयिष्ये भुजङ्गम ॥ 3 ॥
काश्यपने कहा-नागराज! यदि तुम्हें इतना अभिमान है तो इस वृक्षको डॅसो। भुजंगम ! तुम्हारे डॅसे हुए इस वृक्षको मैं अभी जीवित कर दूँगा ॥ 3 ॥
सौतिरुवाच
एवमुक्तः स नागेन्द्रः काश्यपेन महात्मना ।
अदशद् वृक्षमभ्येत्य न्यग्रोधं पन्नगोत्तमः ॥ 4 ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- महात्मा काश्यपके ऐसा कहनेपर सर्पोंमें श्रेष्ठ नागराज तक्षकने निकट जाकर बरगदके वृक्षको हँस लिया ॥ 4 ॥
स वृक्षस्तेन दष्टस्तु पन्नगेन महात्मना ।
आशीविषविषोपेतः प्रजज्वाल समन्ततः ॥ 5 ॥
उस महाकाय विषधर सर्पके हँसते ही उसके विषसे व्याप्त हो वह वृक्ष सब ओरसे जल उठा ॥ 5 ॥
तं दग्ध्वा स नगं नागः काश्यपं पुनरब्रवीत् ।
कुरु यत्नं द्विजश्रेष्ठ जीवयैनं वनस्पतिम् ॥ 6 ॥
इस प्रकार उस वृक्षको जलाकर नागराज पुनः काश्यपसे बोला- ‘द्विजश्रेष्ठ ! अब तुम यत्न करो और इस वृक्षको जिला दो’ ॥ 6 ॥
सौतिरुवाच
भस्मीभूतं ततो वृक्ष पन्नगेन्द्रस्य तेजसा ।
भस्म सर्वं समाहत्य काश्यपो वाक्यमब्रवीत् ॥ 7 ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- शौनकजी ! नागराजके तेजसे भस्म हुए उस वृक्षकी सारी भस्मराशिको एकत्र करके काश्यपने कहा- ॥ 7 ॥(Adi Parva Chapter 42 to 46)
विद्याबलं पन्नगेन्द्र पश्य मेऽद्य वनस्पती ।
अहं संजीवयाम्येनं पश्यतस्ते भुजङ्गम ॥ 8 ॥
‘नागराज ! इस वनस्पतिपर आज मेरी विद्याका बल देखो। भुजंगम ! मैं तुम्हारे देखते-देखते इस वृक्षको जीवित कर देता हूँ’ ॥ 8 ॥
ततः स भगवान् विद्वान् काश्यपो द्विजसत्तमः ।
भस्मराशीकृतं वृक्षं विद्यया समजीवयत् ॥ 9 ॥
तदनन्तर सौभाग्यशाली विद्वान् द्विजश्रेष्ठ काश्यपने भस्मराशिके रूपमें विद्यमान उस वृक्षको विद्याके बलसे जीवित कर दिया ॥ 9 ॥
अङ्करं कृतवांस्तत्र ततः पर्णद्वयान्वितम् ।
पलाशिनं शाखिनं च तथा विटपिनं पुनः ॥ 10 ॥
पहले उन्होंने उसमेंसे अंकुर निकाला, फिर उसे दो पत्तेका कर दिया। इसी प्रकार क्रमशः पल्लव, शाखा और प्रशाखाओंसे युक्त उस महान् वृक्षको पुनः पूर्ववत् खड़ा कर दिया ॥ 10 ॥
तं दृष्ट्वा जीवितं वृक्ष काश्यपेन महात्मना ।
उवाच तक्षको ब्रह्मन् नैतदत्यद्भुतं त्वयि ॥ 11 ॥
महात्मा काश्यपद्वारा जिलाये हुए उस वृक्षको देखकर तक्षकने कहा- ‘ब्रह्मन् ! तुम-जैसे मन्त्रवेत्तामें ऐसे चमत्कारका होना कोई अद्भुत बात नहीं है ॥ 11 ॥
द्विजेन्द्र यद् विषं हन्या मम वा मद्विधस्य वा ।
कं त्वमर्थमभिप्रेप्सुर्यासि तत्र तपोधन ॥ 12 ॥
‘तपस्याके धनी द्विजेन्द्र ! जब तुम मेरे या मेरे-जैसे दूसरे सर्पके विषको अपनी विद्याके बलसे नष्ट कर सकते हो तो बताओ, तुम कौन-सा प्रयोजन सिद्ध करनेकी इच्छासे वहाँ जा रहे हो ॥ 12 ॥
यत् तेऽभिलषितं प्राप्तुं फलं तस्मान्नृपोत्तमात् ।
अहमेव प्रदास्यामि तत् ते यद्यपि दुर्लभम् ॥ 13 ॥
‘उस श्रेष्ठ राजासे जो फल प्राप्त करना तुम्हें अभीष्ट है, वह अत्यन्त दुर्लभ हो तो भी मैं ही तुम्हें दे दूँगा ॥ 13 ॥
विप्रशापाभिभूते च क्षीणायुषि नराधिपे ।
घटमानस्य ते विप्र सिद्धिः संशयिता भवेत् ॥ 14 ॥
‘विप्रवर! महाराज परीक्षित् ब्राह्मणके शापसे तिरस्कृत हैं और उनकी आयु भी समाप्त हो चली है। ऐसी दशामें उन्हें जिलानेके लिये चेष्टा करनेपर तुम्हें सिद्धि प्राप्त होगी, इसमें संदेह है ॥ 14 ॥
ततो यशः प्रदीप्तं ते त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् ।
निरंशुरिव धर्माशुरन्तर्धानमितो व्रजेत् ॥ 15 ॥
‘यदि तुम सफल न हुए तो तीनों लोकोंमें विख्यात एवं प्रकाशित तुम्हारा यश किरणरहित सूर्यके समान इस लोकसे अदृश्य हो जायगा’ ॥ 15 ॥
काश्यप उवाच
धनार्थी याम्यहं तत्र तन्मे देहि भुजङ्गम ।
ततोऽहं विनिवर्तिष्ये स्वापतेयं प्रगृह्य वै ॥ 16 ॥
काश्यपने कहा- नागराज तक्षक! मैं तो वहाँ धनके लिये ही जाता हूँ, वह तुम्हीं मुझे दे दो तो उस धनको लेकर मैं घर लौट जाऊँगा ॥ 16 ॥
तक्षक उवाच
यावद्धनं प्रार्थयसे तस्माद् राज्ञस्ततोऽधिकम् ।
अहमेव प्रदास्यामि निवर्तस्व द्विजोत्तम ॥ 17 ॥
तक्षक बोला- द्विजश्रेष्ठ ! तुम राजा परीक्षित्से जितना धन पाना चाहते हो, उससे अधिक में ही दे दूँगा, अतः लौट जाओ ॥ 17 ॥
सौतिरुवाच
तक्षकस्य वचः श्रुत्वा काश्यपो द्विजसत्तमः ।
प्रदध्यौ सुमहातेजा राजानं प्रति बुद्धिमान् ॥ 18 ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- तक्षककी बात सुनकर परम बुद्धिमान् महातेजस्वी विप्रवर काश्यपने राजा परीक्षित् के विषयमें कुछ देर ध्यान लगाकर सोचा ॥ 18 ॥
दिव्यज्ञानः स तेजस्वी ज्ञात्वा तं नृपतिं तदा ।
क्षीणायुषं पाण्डवेयमपावर्तत काश्यपः ॥ 19 ॥
लब्ध्वा वित्तं मुनिवरस्तक्षकाद् यावदीप्सितम् ।
निवृत्ते काश्यपे तस्मिन् समयेन महात्मनि ॥ 20 ॥
जगाम तक्षकस्तूर्ण नगरं नागसाह्वयम् ।
अथ शुश्राव गच्छन् स तक्षको जगतीपतिम् ॥ 21 ॥
मन्त्रैर्गदैर्विषहरै रक्ष्यमाणं प्रयत्नतः ।
तेजस्वी काश्यप दिव्य ज्ञानसे सम्पन्न थे। उस समय उन्होंने जान लिया कि पाण्डववंशी राजा परीक्षित् की आयु अब समाप्त हो गयी है, अतः वे मुनिश्रेष्ठ तक्षकसे अपनी रुचिके अनुसार धन लेकर वहाँसे लौट गये। महात्मा काश्यपके समय रहते लौट जानेपर तक्षक तुरंत हस्तिनापुर नगरमें जा पहुँचा। वहाँ जानेपर उसने सुना, राजा परीक्षित् की मन्त्रों तथा विष उतारनेवाली ओषधियोंद्वारा प्रयत्नपूर्वक रक्षा की जा रही है ॥ 19-21/3 ॥
सौतिरुवाच
स चिन्तयामास तदा मायायोगेन पार्थिवः ॥ 22 ॥
मया वञ्चयितव्योऽसौ क उपायो भवेदिति ।
ततस्तापसरूपेण प्राहिणोत् स भुजङ्गमान् ॥ 23 ॥
फलदर्भोदकं गृह्य राज्ञे नागोऽथ तक्षकः ।
उग्रश्रवाजी कहते हैं- शौनकजी! तब तक्षकने विचार किया, मुझे मायाका आश्रय लेकर राजाको ठग लेना चाहिये; किंतु इसके लिये क्या उपाय हो? तदनन्तर तक्षक नागने फल, दर्भ (कुशा) और जल लेकर कुछ नागोंको तपस्वीरूपमें राजाके पास जानेकी आज्ञा दी ॥ 22-23/3 ॥
तक्षक उवाच
गच्छध्वं यूयमव्यग्रा राजानं कार्यवत्तया ॥ 24 ॥
फलपुष्पोदकं नाम प्रतिग्राहयितुं नृपम् ।
तक्षकने कहा- तुमलोग कार्यकी सफलताके लिये राजाके पास जाओ, किंतु तनिक भी व्यग्र न होना। तुम्हारे जानेका उद्देश्य है- महाराजको फल, फूल और जल भेंट करना ॥ 24/3 ॥
सौतिरुवाच
ते तक्षकसमादिष्टास्तथा चक्क्रुर्भुजङ्गमाः ॥ 25 ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- तक्षकके आदेश देनेपर उन नागोंने वैसा ही किया ॥ 25 ॥
उपनिन्युस्तथा राज्ञे दर्भानापः फलानि च ।
तच्च सर्वं स राजेन्द्रः प्रतिजग्राह वीर्यवान् ॥ 26 ॥
वे राजाके पास कुश, जल और फल लेकर गये। परम पराक्रमी महाराज परीक्षित्ने उनकी दी हुई वे सब वस्तुएँ ग्रहण कर लीं ॥ 26 ॥
कृत्वा तेषां च कार्याणि गम्यतामित्युवाच तान् ।
गतेषु तेषु नागेषु तापसच्छद्मरूपिषु ॥ 27 ॥
अमात्यान् सुहृदश्चैव प्रोवाच स नराधिपः ।
भक्षयन्तु भवन्तो वै स्वादूनीमानि सर्वशः ॥ 28 ॥
तापसैरुपनीतानि फलानि सहिता मया ।
ततो राजा ससचिवः फलान्यादातुमैच्छत ॥ 29 ॥
तदनन्तर उन्हें पारितोषिक देने आदिका कार्य करके कहा- ‘अब आपलोग जायें।’ तपस्वियोंके वेषमें छिपे हुए उन नागोंके चले जानेपर राजाने अपने मन्त्रियों और सुहृदोंसे कहा- ‘ये सब तपस्वियोंद्वारा लाये हुए बड़े स्वादिष्ठ फल हैं। इन्हें मेरे साथ आपलोग भी खायें।’ ऐसा कहकर मन्त्रियोंसहित राजाने उन फलोंको लेनेकी इच्छा की ॥ 27-29 ॥
विधिना सम्प्रयुक्तो वै ऋषिवाक्येन तेन तु ।
यस्मिन्नेव फले नागस्तमेवाभक्षयत् स्वयम् ॥ 30 ॥
विधाताके विधान एवं महर्षिके वचनसे प्रेरित होकर राजाने वही फल स्वयं खाया, जिसपर तक्षक नाग बैठा था ॥ 30 ॥(Adi Parva Chapter 42 to 46)
ततो भक्षयतस्तस्य फलात् कृमिरभूदणुः ।
ह्रस्वकः कृष्णनयनस्ताम्रवर्णोऽथ शौनक ॥ 31 ॥
शौनकजी! खाते समय राजाके हाथमें जो फल था, उससे एक छोटा-सा कीट प्रकट हुआ। देखनेमें वह अत्यन्त लघु था, उसकी आँखें काली और शरीरका रंग ताँबेके समान था ॥ 31 ॥
स तं गृह्य नृपश्रेष्ठः सचिवानिदमब्रवीत् ।
अस्तमभ्येति सविता विषादद्य न मे भयम् ॥ 32 ॥
नृपश्रेष्ठ परीक्षित्ने उस कीड़ेको हाथमें लेकर मन्त्रियोंसे इस प्रकार कहा- ‘अब सूर्यदेव अस्ताचलको जा रहे हैं; इसलिये इस समय मुझे सर्पके विषसे कोई भय नहीं है ॥ 32 ॥
सत्यवागस्तु स मुनिः कृमिर्मा दशतामयम् ।
तक्षको नाम भूत्वा वै तथा परिहृतं भवेत् ॥ 33 ॥
‘वे मुनि सत्यवादी हों, इसके लिये यह कीट ही तक्षक नाम धारण करके मुझे डॅस ले। ऐसा करनेसे मेरे दोषका परिहार हो जायगा ॥ 33 ॥
ते चैनमन्ववर्तन्त मन्त्रिणः कालचोदिताः ।
एवमुक्त्वा स राजेन्द्रो ग्रीवायां संनिवेश्य ह ॥ 34 ॥
कृमिकं प्राहसत् तूर्ण मुमूर्षुर्नष्टचेतनः ।
प्रहसन्नेव भोगेन तक्षकेण त्ववेष्ट्यत ॥ 35 ॥
तस्मात् फलाद् विनिष्क्रम्य यत् तद् राज्ञे निवेदितम् ।
वेष्टयित्वा च वेगेन विनद्य च महास्वनम् ।
अदशत् पृथिवीपालं तक्षकः पन्नगेश्वरः ॥ 36 ॥
कालसे प्रेरित होकर मन्त्रियोंने भी उनकी हाँ-में-हाँ मिला दी। मन्त्रियोंसे पूर्वोक्त बात कहकर राजाधिराज परीक्षित् उस लघु कीटको कंधेपर रखकर जोर-जोरसे हँसने लगे। वेतत्काल ही मरनेवाले थे; अतः उनकी बुद्धि मारी गयी थी। राजा अभी हँस ही रहे थे कि उन्हें जो निवेदित किया गया था उस फलसे निकलकर तक्षक नागने अपने शरीरसे उनको जकड़ लिया। इस प्रकार वेगपूर्वक उनके शरीरमें लिपटकर नागराज तक्षकने बड़े जोरसे गर्जना की और भूपाल परीक्षित् को हँस लिया ॥ 34-36 ॥
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि तक्षकदंशे त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ 43 ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें तक्षक-दंशनविषयक तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ 43 ॥
चौवालीसवाँ अध्याय
जनमेजयका राज्याभिषेक और विवाह
सौतिरुवाच
ते तथा मन्त्रिणो दृष्ट्वा भोगेन परिवेष्टितम् ।
विषण्णवदनाः सर्वे रुरुदुर्भृशदुःखिताः ॥ 1 ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- शौनकजी! मन्त्रीगण राजा परीक्षित् को तक्षक नागसे जकड़ा हुआ देख अत्यन्त दुःखी हो गये। उनके मुखपर विषाद छा गया और वे सब-के-सब रोने लगे ॥ 1 ॥
तं तु नादं ततः श्रुत्वा मन्त्रिणस्ते प्रदुद्रुवुः ।
अपश्यन्त तथा यान्तमाकाशे नागमद्भुतम् ॥ 2 ॥
सीमन्तमिव कुर्वाणं नभसः पद्मवर्चसम् ।
तक्षकं पन्नगश्रेष्ठं भृशं शोकपरायणाः ॥ 3 ॥
तक्षककी फुंकारभरी गर्जना सुनकर मन्त्रीलोग भाग चले। उन्होंने देखा लाल कमलकी-सी कान्ति-वाला वह अद्भुत नाग आकाशमें सिन्दूरकी रेखा-सी खींचता हुआ चला जा रहा है। नागोंमें श्रेष्ठ तक्षकको इस प्रकार जाते देख वे राजमन्त्री अत्यन्त शोकमें डूब गये ॥ 2-3 ॥
ततस्तु ते तद् गृहमग्निनाऽऽवृतं प्रदीप्यमानं विषजेन भोगिनः ।
भयात् परित्यज्य दिशः प्रपेदिरे पपात राजाशनिताडितो यथा ॥ 4 ॥
वह राजमहल सर्पके विषजनित अग्निसे आवृत हो धू-धू करके जलने लगा। यह देख उन सब मन्त्रियोंने भयसे उस स्थानको छोड़कर भिन्न-भिन्न दिशाओंकी शरण ली तथा राजा परीक्षित् वज्रके मारे हुएकी भाँति धरतीपर गिर पड़े ॥ 4 ॥(Adi Parva Chapter 42 to 46)
ततो नृपे तक्षकतेजसा हते प्रयुज्य सर्वाः परलोकसत्क्रियाः ।
शुचिर्द्विजो राजपुरोहितस्तदा तथैव ते तस्य नृपस्य मन्त्रिणः ॥ 5 ॥
नृपं शिशुं तस्य सुतं प्रचक्रिरे समेत्य सर्वे पुरवासिनो जनाः ।
नृपं यमाहुस्तममित्रघातिनं कुरुप्रवीरं जनमेजयं जनाः ॥ 6 ॥
तक्षककी विषाग्निद्वारा राजा परीक्षित् के दग्ध हो जानेपर उनकी समस्त पारलौकिक क्रियाएँ करके पवित्र ब्राह्मण राजपुरोहित, उन महाराजके मन्त्री तथा समस्त पुरवासी मनुष्योंने मिलकर उन्हींके पुत्रको, जिसकी अवस्था अभी बहुत छोटी थी, राजा बना दिया। कुरुकुलका वह श्रेष्ठ वीर अपने शत्रुओंका विनाश करनेवाला था। लोग उसे राजा जनमेजय कहते थे ॥ 5-6 ॥
स बाल एवार्यमतिर्नृपोत्तमः सहैव तैर्मन्त्रिपुरोहितैस्तदा ।
शशास राज्यं कुरुपुङ्गवाग्रजो यथास्य वीरः प्रपितामहस्तथा ॥ 7 ॥
बचपनमें ही नृपश्रेष्ठ जनमेजयकी बुद्धि श्रेष्ठ पुरुषोंके समान थी। अपने वीर प्रपितामह महाराज युधिष्ठिरकी भाँति कुरुश्रेष्ठ वीरोंके अग्रगण्य जनमेजय भी उस समय मन्त्री और पुरोहितोंके साथ धर्मपूर्वक राज्यका पालन करने लगे ॥ 7 ॥
ततस्तु राजानममित्रतापनं समीक्ष्य ते तस्य नृपस्य मन्त्रिणः ।
सुवर्णवर्माणमुपेत्य काशिपं वपुष्टमार्थं वरयाम्प्रचक्रमुः ॥ 8 ॥
राजमन्त्रियोंने देखा, राजा जनमेजय शत्रुओंको दबानेमें समर्थ हो गये हैं, तब उन्होंने काशिराज सुवर्णवर्माक पास जाकर उनकी पुत्री वपुष्टमाके लिये याचना की ॥ 8 ॥
ततः स राजा प्रददौ वपुष्टमां कुरुप्रवीराय परीक्ष्य धर्मतः ।
स चापि तां प्राप्य मुदायुतोऽभव-न्न चान्यनारीषु मनोदधे क्वचित् ॥ 9 ॥
काशिराजने धर्मकी दृष्टिसे भलीभाँति जाँच-पड़ताल करके अपनी कन्या वपुष्टमाका विवाह कुरुकुलके श्रेष्ठ वीर जनमेजयके साथ कर दिया। जनमेजयने भी वपुष्टमाको पाकर बड़ी प्रसन्नताका अनुभव किया और दूसरी स्त्रियोंकी ओर कभी अपने मनको नहीं जाने दिया ॥ 9 ॥
सरःसु फुल्लेषु वनेषु चैव हि प्रसन्नचेता विजहार वीर्यवान् ।
तथा स राजन्यवरो विजह्निवान् यथोर्वशीं प्राप्य पुरा पुरूरवाः ॥ 10 ॥
राजाओंमें श्रेष्ठ महापराक्रमी जनमेजयने प्रसन्न-चित्त होकर सरोवरों तथा पुष्पशोभित उपवनोंमें रानी वपुष्टमाके साथ उसी प्रकार विहार किया, जैसे पूर्वकालमें उर्वशीको पाकर महाराज पुरूरवाने किया था ॥ 10 ॥
वपुष्टमा चापि वरं पतिव्रता प्रतीतरूपा समवाप्य भूपतिम् ।
भावेन रामा रमयाम्बभूव सा विहारकालेष्ववरोधसुन्दरी ॥ 11 ॥
वपुष्टमा पतिव्रता थी। उसका रूपसौन्दर्य सर्वत्र विख्यात था। वह राजाके अन्तः पुरमें सबसे सुन्दरी रमणी थी। राजा जनमेजयको पतिरूपमें प्राप्त करके वह विहारकालमें बड़े अनुरागके साथ उन्हें आनन्द प्रदान करती थी ॥ 11 ॥
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि जनमेजयराज्याभिषेके चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ 44 ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें जनमेजयराज्याभिषेकसम्बन्धी चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ 44 ॥
अध्याय पैंतालीस
जरत्कारुको अपने पितरोंका दर्शन और उनसे वार्तालाप
सौतिरुवाच
एतस्मिन्नेव काले तु जरत्कारुर्महातपाः ।
चचार पृथिवीं कृत्स्नां यत्रसायंगृहो मुनिः ॥ 1 ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- इन्हीं दिनोंकी बात है, महातपस्वी जरत्कारु मुनि सम्पूर्ण पृथ्वीपर विचरण कर रहे थे। जहाँ सायंकाल हो जाता, वहीं वे ठहर जाते थे ॥ 1 ॥
चरन् दीक्षां महातेजा दुश्चरामकृतात्मभिः ।
तीर्थेष्वाप्लवनं कृत्वा पुण्येषु विचचार ह ॥ 2 ॥
उन महातेजस्वी महर्षिने ऐसे कठोर नियमोंकी दीक्षा ले रखी थी, जिनका पालन करना दूसरे अजितेन्द्रिय पुरुषोंके लिये सर्वथा कठिन था। वे पवित्र तीर्थोंमें स्नान करते हुए विचर रहे थे ॥ 2 ॥
वायुभक्षो निराहारः शुष्यन्नहरहर्मुनिः ।
स ददर्श पितॄन् गर्ते लम्बमानानधोमुखान् ॥ 3 ॥
एकतन्त्ववशिष्टं वै वीरणस्तम्बमाश्रितान् ।
तं तन्तुं च शनैराखुमाददानं बिलेशयम् ॥ 4 ॥
वे मुनि वायु पीते और निराहार रहते थे; इसलिये दिन-पर-दिन सूखते चले जाते थे। एक दिन उन्होंने पितरोंको देखा, जो नीचे मुँह किये एक गड् ढेमें लटक रहे थे। उन्होंने खश नामक तिनकोंके समूहको पकड़ रखा था, जिसकी जड़में केवल एक तन्तु बच गया था। उस बचे हुए तन्तुको भी वहीं बिलमें रहनेवाला एक चूहा धीरे-धीरे खा रहा था ॥ 3-4 ॥
निराहारान् कृशान् दीनान् गर्ते स्वत्राणमिच्छतः ।
उपसृत्य स तान् दीनान् दीनरूपोऽभ्यभाषत ॥ 5 ॥
वे पितर निराहार, दीन और दुर्बल हो गये थे और चाहते थे कि कोई हमें इस गड्ढेमें गिरनेसे बचा ले। जरत्कारु उनकी दयनीय दशा देखकर दयासे द्रवित हो स्वयं भी दीन हो गये और उन दीन-दुःखी पितरोंके समीप जाकर बोले- ॥ 5 ॥
के भवन्तोऽवलम्बन्ते वीरणस्तम्बमाश्रिताः ।
दुर्बलं खादितैर्मूलैराखुना बिलवासिना ॥ 6 ॥
‘आपलोग कौन हैं जो खशके गुच्छेके सहारे लटक रहे हैं? इस खशकी जड़ें यहाँ बिलमें रहनेवाले चूहेने खा डाली हैं, इसलिये यह बहुत कमजोर है ॥ 6 ॥
वीरणस्तम्बके मूलं यदप्येकमिह स्थितम् ।
तदप्ययं शनैराखुरादत्ते दशनैः शितैः ॥ 7 ॥
‘खशके इस गुच्छेमें जो मूलका एक तन्तु यहाँ बचा है, उसे भी यह चूहा अपने तीखे दाँतोंसे धीरे-धीरे कुतर रहा है ॥ 7 ॥
छेत्स्यतेऽल्पावशिष्टत्वादेतदप्यचिरादिव ।
ततस्तु पतितारोऽत्र गर्ते व्यक्तमधोमुखाः ॥ 8 ॥
‘उसका स्वल्प भाग शेष है, वह भी बात-की-बातमें कट जायगा। फिर तो आपलोग नीचे मुँह किये निश्चय ही इस गड् ढेमें गिर जायेंगे ॥ 8 ॥(Adi Parva Chapter 42 to 46)
तस्य मे दुःखमुत्पन्नं दृष्ट्वा युष्मानधोमुखान् ।
कृच्छ्रमापदमापन्नान् प्रियं किं करवाणि वः ॥ 9 ॥
तपसोऽस्य चतुर्थेन तृतीयेनाथवा पुनः ।
अर्धेन वापि निस्तर्तुमापदं ब्रूत मा चिरम् ॥ 10 ॥
‘आपको इस प्रकार नीचे मुँह किये लटकते देख मेरे मनमें बड़ा दुःख हो रहा है। आपलोग बड़ी कठिन विपत्तिमें पड़े हैं। मैं आपलोगोंका कौन प्रिय कार्य करूँ? आपलोग मेरी इस तपस्याके चौथे, तीसरे अथवा आधे भागके द्वारा भी इस विपत्तिसे बचाये जा सकें तो शीघ्र बतलावें ॥ 9-10 ॥
अथवापि समग्रेण तरन्तु तपसा मम ।
भवन्तः सर्व एवेह काममेवं विधीयताम् ॥ 11 ॥
‘अथवा मेरी सारी तपस्याके द्वारा भी यदि आप सभी लोग यहाँ इस संकटसे पार हो सकें तो भले ही ऐसा कर लें’ ॥ 11 ॥
पितर ऊचुः
वृद्धो भवान् ब्रह्मचारी यो नस्त्रातुमिहेच्छसि ।
न तु विप्राग्रय तपसा शक्यते तद् व्यपोहितुम् ॥ 12 ॥
पितरोंने कहा- विप्रवर! आप बूढ़े ब्रह्मचारी हैं, जो यहाँ हमारी रक्षा करना चाहते हैं; किंतु हमारा संकट तपस्यासे नहीं टाला जा सकता ॥ 12 ॥
अस्ति नस्तात तपसः फलं प्रवदतां वर ।
संतानप्रक्षयाद् ब्रह्मन् पताम निरयेऽशुचौ ॥ 13 ॥
तात! तपस्याका बल तो हमारे पास भी है। वक्ताओंमें श्रेष्ठ ब्राह्मण ! हम तो वंशपरम्पराका विच्छेद होनेके कारण अपवित्र नरकमें गिर रहे हैं ॥ 13 ॥
संतानं हि परो धर्म एवमाह पितामहः ।
लम्बतामिह नस्तात न ज्ञानं प्रतिभाति वै ॥ 14 ॥
ब्रह्माजीका वचन है कि संतान ही सबसे उत्कृष्ट धर्म है। तात! यहाँ लटकते हुए हमलोगोंकी सुध-बुध प्रायः खो गयी है, हमें कुछ ज्ञात नहीं होता ॥ 14 ॥
येन त्वा नाभिजानीमो लोके विख्यातपौरुषम् ।
वृद्धो भवान् महाभागो यो नः शोच्यान् सुदुःखितान् ॥ 15 ॥
शोचते चैव कारुण्याच्छृणु ये वै वयं द्विज ।
यायावरा नाम वयमृषयः संशितव्रताः ॥ 16 ॥
इसीलिये लोकमें विख्यात पौरुषवाले आप-जैसे महापुरुषको हम पहचान नहीं पा रहे हैं। आप कोई महान् सौभाग्यशाली महापुरुष हैं, जो अत्यन्त दुःखमें पड़े हुए हम-जैसे शोचनीय प्राणियोंके लिये करुणावश शोक कर रहे हैं। ब्रह्मन् ! हमलोग कौन हैं इसका परिचय देते हैं, सुनिये। हम अत्यन्त कठोर व्रतका पालन करनेवाले यायावर नामक महर्षि हैं ॥ 15-16 ॥
लोकात् पुण्यादिह भ्रष्टाः संतानप्रक्षयान्मुने ।
प्रणष्टं नस्तपस्तीत्रं न हि नस्तन्तुरस्ति वै ॥ 17 ॥
मुने ! वंशपरम्पराका क्षय होनेके कारण हमें पुण्य-लोकसे भ्रष्ट होना पड़ा है। हमारी तीव्र तपस्या नष्ट हो गयी; क्योंकि हमारे कुलमें अब कोई संतति नहीं रह गयी है ॥ 17 ॥
अस्ति त्वेकोऽद्य नस्तन्तुः सोऽपि नास्ति यथा तथा ।
मन्दभाग्योऽल्पभाग्यानां तप एकं समास्थितः ॥ 18 ॥
आजकल हमारी परम्परामें एक ही तन्तु या संतति शेष है, किंतु वह भी नहींके बराबर है। हम अल्पभाग्य हैं, इसीसे वह मन्दभाग्य संतति एकमात्र तपमें लगी हुई है ॥ 18 ॥
जरत्कारुरिति ख्यातो वेदवेदाङ्गपारगः ।
नियतात्मा महात्मा च सुव्रतः सुमहातपाः ॥ 19 ॥
उसका नाम है जरत्कारु। वह वेद वेदांगोंका पारंगत विद्वान् होनेके साथ ही मन और इन्द्रियोंको संयममें रखनेवाला, महात्मा, उत्तम व्रतका पालक और महान् तपस्वी है ॥ 19 ॥
तेन स्म तपसो लोभात् कृच्छ्रमापादिता वयम् ।
न तस्य भार्या पुत्रो वा बान्धवो वास्ति कश्चन ॥ 20 ॥
उसने तपस्याके लोभसे हमें संकटमें डाल दिया है। उसके न पत्नी है, न पुत्र और न कोई भाई-बन्धु ही है ॥ 20 ॥(Adi Parva Chapter 42 to 46)
तस्माल्लम्बामहे गर्ते नष्टसंज्ञा ह्यनाथवत् ।
स वक्तव्यस्त्वया दृष्टो ह्यस्माकं नाथवत्तया ॥ 21 ॥
इसीसे हमलोग अपनी सुध-बुध खोकर अनाथकी तरह इस गड् ढेमें लटक रहे हैं। यदि वह आपके देखनेमें आवे तो हम अनाथोंको सनाथ करनेके लिये उससे इस प्रकार कहियेगा – ॥ 21 ॥
पितरस्तेऽवलम्बन्ते गर्ते दीना अधोमुखाः ।
साधु दारान् कुरुष्वेति प्रजामुत्पादयेति च ॥ 22 ॥
‘जरत्कारो ! तुम्हारे पितर अत्यन्त दीन हो नीचे मुँह करके गड्ढेमें लटक रहे हैं। तुम उत्तम रीतिसे पत्नीके साथ विवाह कर लो और उसके द्वारा संतान उत्पन्न करो ॥ 22 ॥
कुलतन्तुर्हि नः शिष्टस्त्वमेवैकस्तपोधन ।
यस्त्वं पश्यसि नो ब्रह्मन् वीरणस्तम्बमाश्रितान् ॥ 23 ॥
एषोऽस्माकं कुलस्तम्ब आस्ते स्वकुलवर्धनः ।
यानि पश्यसि वै ब्रह्मन् मूलानीहास्य वीरुधः ॥ 24 ॥
एते नस्तन्तवस्तात कालेन परिभक्षिताः ।
यत्त्वेतत् पश्यसि ब्रह्मन् मूलमस्यार्धभक्षितम् ॥ 25 ॥
यत्र लम्बामहे गर्ते सोऽप्येकस्तप आस्थितः ।
यमाखु पश्यसि ब्रह्मन् काल एष महाबलः ॥ 26 ॥
‘तपोधन! तुम्हीं अपने पूर्वजोंके कुलमें एकमात्र तन्तु बच रहे हो। ब्रह्मन् ! आप जो हमें खशके गुच्छेका सहारा लेकर लटकते देख रहे हैं, यह खशका गुच्छा नहीं है, हमारे कुलका आश्रय है, जो अपने कुलको बढ़ानेवाला है। विप्रवर! इस खशकी जो कटी हुई जड़ें यहाँ आपकी दृष्टिमें आ रही हैं, ये ही हमारे वंशके वे तन्तु (संतान) हैं, जिन्हें कालरूपी चूहेने खा लिया है। ब्राह्मण! आप जो इस खशकी यह अधकटी जड़ देखते हैं, जिसके सहारे हम गड् ढेमें लटक रहे हैं, यह वही एकमात्र संतान जरत्कारु है, जो तपस्यामें लगा है और ब्राह्मण देवता! जिसे आप चूहेके रूपमें देख रहे हैं, यह महाबली काल है ॥ 23-26 ॥
स तं तपोरतं मन्दं शनैः क्षपयते तुदन् ।
जरत्कारुं तपोलब्धं मन्दात्मानमचेतसम् ॥ 27 ॥
‘वह उस तपस्वी एवं मूढ़ जरत्कारुको, जो तपको ही लाभ माननेवाला, मन्दात्मा (अदूरदर्शी) और अचेत (जड) हो रहा है, धीरे-धीरे पीड़ा देते हुए दाँतोंसे काट रहा है ॥ 27 ॥
न हि नस्तत् तपस्तस्य तारयिष्यति सत्तम ।
छिन्नमूलान् परिभ्रष्टान् कालोपहतचेतसः ॥ 28 ॥
अधः प्रविष्टान् पश्यास्मान् यथा दुष्कृतिनस्तथा ।
अस्मासु पतितेष्वत्र सह सर्वैः सबान्धवैः ॥ 29 ॥
छिन्नः कालेन सोऽप्यत्र गन्ता वै नरकं ततः ।
तपो वाप्यथवा यज्ञो यच्चान्यत् पावनं महत् ॥ 30 ॥
तत् सर्वमपरं तात न संतत्या समं मतम् ।
स तात दृष्ट्वा ब्रूयास्तं जरत्कारुं तपोधन ॥ 31 ॥
यथा दृष्टमिदं चात्र त्वयाख्येयमशेषतः ।
यथा दारान् प्रकुर्यात् स पुत्रानुत्पादयेद् यथा ॥ 32 ॥
तथा ब्रह्मस्त्वया वाच्यः सोऽस्माकं नाथवत्तया ।
बान्धवानां हितस्येह यथा चात्मकुलं तथा ॥ 33 ॥
कस्त्वं बन्धुमिवास्माकमनुशोचसि सत्तम ।
श्रोतुमिच्छाम सर्वेषां को भवानिह तिष्ठति ॥ 34 ॥
‘साधुशिरोमणे! उस जरत्कारुकी तपस्या हमें इस संकटसे नहीं उबारेगी। देखिये, हमारी जड़ें कट गयी हैं, कालने हमारी चेतनाशक्ति नष्ट कर दी है और हम अपने स्थानसे भ्रष्ट होकर नीचे इस गड् ढेमें गिर रहे हैं। जैसे पापियोंकी दुर्गति होती है, वैसे ही हमारी होती है। हम समस्त बन्धु-बान्धवोंके साथ जब इस गड्ढेमें गिर जायेंगे, तब वह जरत्कारु भी कालका ग्रास बनकर अवश्य इसी नरकमें आ गिरेगा। तात! तपस्या, यज्ञ अथवा अन्य जो महान् एवं पवित्र साधन हैं, वे सब संतानके समान नहीं हैं। तात! आप तपस्याके धनी जान पड़ते हैं। आपको तपस्वी जरत्कारु मिल जाय तो उससे हमारा संदेश कहियेगा और आपने यहाँ जो कुछ देखा है, वह सब उसे बता दीजियेगा! ब्रह्मन् ! हमें सनाथ बनानेकी दृष्टिसे आप जरत्कारुके साथ इस प्रकार वार्तालाप कीजियेगा, जिससे वह पत्नी-संग्रह करे और उसके द्वारा पुत्रोंको जन्म दे। तात! जरत्कारुके बान्धव जो हमलोग हैं, हमारे लिये अपने कुलकी भाँति अपने भाई-बन्धुके समान आप सोच कर रहे हैं। अतः साधुशिरोमणे ! बताइये, आप कौन हैं? हम सब लोगोंमेंसे आप किसके क्या लगते हैं, जो यहाँ खड़े हुए हैं? हम आपका परिचय सुनना चाहते हैं’ ॥ 28-34 ॥(Adi Parva Chapter 42 to 46)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि जरत्कारुपितृदर्शने पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ 45 ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें जरत्कारुके पितृदर्शनविषयक पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ 45 ॥
अध्याय छियालीस
जरत्कारुका शर्तके साथ विवाहके लिये उद्यत होना और नागराज वासुकिका जरत्कारु नामकी कन्याको लेकर आना
सौतिरुवाच
एतच्छ्रुत्वा जरत्कारुर्भृशं शोकपरायणः ।
उवाच तान् पितृन् दुःखाद् वाष्यसंदिग्धया गिरा ॥ 1 ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- शौनकजी! यह सुनकर जरत्कारु अत्यन्त शोकमें मग्न हो गये और दुःखसे आँसू बहाते हुए गद् गद वाणीमें अपने पितरोंसे बोले ॥ 1 ॥
जरत्कारुरुवाच
मम पूर्वे भवन्तो वै पितरः सपितामहाः ।
तद् ब्रूत यन्मया कार्यं भवतां प्रियकाम्यया ॥ 2 ॥
अहमेव जरत्कारुः किल्बिषी भवतां सुतः ।
ते दण्डं धारयत में दुष्कृतेरकृतात्मनः ॥ 3 ॥
जरत्कारुने कहा-आप मेरे ही पूर्वज पिता और पितामह आदि हैं। अतः बताइये आपका प्रिय करनेके लिये मुझे क्या करना चाहिये। मैं ही आपलोगोंका पुत्र पापी जरत्कारु हूँ। आप मुझ अकृतात्मा पापीको इच्छानुसार दण्ड दें ॥ 2-3 ॥
पितर ऊचुः
पुत्र दिष्ट्यासि सम्प्राप्त इमं देशं यदृच्छया ।
किमर्थं च त्वया ब्रह्मन् न कृतो दारसंग्रहः ॥ 4 ॥
पितर बोले-पुत्र ! बड़े सौभाग्यकी बात है जो तुम अकस्मात् इस स्थानपर आ गये। ब्रह्मन् ! तुमने अबतक विवाह क्यों नहीं किया? ॥ 4 ॥
जरत्कारुरुवाच
ममायं पितरो नित्यं यद्यर्थः परिवर्तते ।
ऊर्ध्वरताः शरीरं वै प्रापयेयममुत्र वे ॥ 5 ॥
जरत्कारुने कहा-पितृगण ! मेरे हृदयमें यह बात निरन्तर घूमती रहती थी कि में ऊध्र्वरता (अखण्ड ब्रह्मचर्यका पालक) होकर इस शरीरको परलोक (पुष्यधाम) में पहुँचाऊँ ॥ 5 ॥
न दारान् वै करिष्येऽहमिति मे भावितं मनः ।
एवं दृष्ट्वा तु भवतः शकुन्तानिव लम्बतः ॥ 6 ॥
मया निवर्तिता बुद्धिर्ब्रह्मचर्यात् पितामहाः ।
करिष्ये वः प्रियं कामं निवेक्ष्येऽहमसंशयम् ॥ 7 ॥
अतः मैंने अपने मनमें यह दृढ़ निश्चय कर लिया था कि ‘मैं कभी पत्नी-परिग्रह (विवाह) नहीं करूँगा।’ किंतु पितामहो! आपको पक्षियोंकी भाँति लटकते देख अखण्ड ब्रह्मचर्यके पालन-सम्बन्धी निश्चयसे मैंने अपनी बुद्धि लौटा ली है। अब मैं आपका प्रिय मनोरथ पूर्ण करूँगा, निश्चय ही विवाह कर लूँगा ॥ 6-7 ॥
सनाम्नीं यद्यहं कन्यामुपलप्स्ये कदाचन ।
भविष्यति च या काचिद् भैक्ष्यवत् स्वयमुद्यता ॥ 8 ॥
प्रतिग्रहीता तामस्मि न भरेयं च यामहम् ।
एवंविधमहं कुर्यां निवेशं प्राप्नुयां यदि ।
अन्यथा न करिष्येऽहं सत्यमेतत् पितामहाः ॥ 9 ॥
(परंतु इसके लिये एक शर्त होगी) ‘यदि मैं कभी अपने ही जैसे नामवाली कुमारी कन्या पाऊँगा, उसमें भी जो भिक्षाकी भाँति बिना माँगे स्वयं ही विवाहके लिये प्रस्तुत हो जायगी और जिसके पालन-पोषणका भार मुझपर न होगा, उसीका में पाणिग्रहण करूँगा।’ यदि ऐसा विवाह मुझे सुलभ हो जाय तो कर लूँगा, अन्यथा विवाह करूँगा ही नहीं। पितामहो ! यह मेरा सत्य निश्चय है ॥ 8-9 ॥
तत्र चोत्पत्स्यते जन्तुर्भवतां तारणाय वै ।
शाश्वताश्चाव्ययाश्चैव तिष्ठन्तु पितरो मम ॥ 10 ॥
वैसे विवाहसे जो पत्नी मिलेगी, उसीके गर्भसे आपलोगोंको तारनेके लिये कोई प्राणी उत्पन्न होगा। मैं चाहता हूँ मेरे पितर नित्य शाश्वत लोकोंमें बने रहें, वहाँ वे अक्षय सुखके भागी हों ॥ 10 ॥
सौतिरुवाच
एवमुक्त्वा तु स पितूंश्चचार पृथिवीं मुनिः ।
न च स्म लभते भार्या वृद्धोऽयमिति शौनक ॥ 11 ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- शौनकजी! इस प्रकार पितरोंसे कहकर जरत्कारु मुनि पूर्ववत् पृथ्वीपर विचरने लगे। परंतु ‘यह बूढ़ा है’ ऐसा समझकर किसीने कन्या नहीं दी, अतः उन्हें पत्नी उपलब्ध न हो सकी ॥ 11 ॥ (Adi Parva Chapter 42 to 46)
यदा निर्वेदमापन्नः पितृभिश्चोदितस्तथा ।
तदारण्यं स गत्वोच्चैश्चक्रोश भृशदुःखितः ॥ 12 ॥
जब वे विवाहकी प्रतीक्षामें खिन्न हो गये, तब पितरोंसे प्रेरित होनेके कारण वनमें जाकर अत्यन्त दुःखी हो जोर-जोरसे ब्याहके लिये पुकारने लगे ॥ 12 ॥
स त्वरण्यगतः प्राज्ञः पितॄणां हितकाम्यया ।
उवाच कन्यां याचामि तिस्रो वाचः शनैरिमाः ॥ 13 ॥
वनमें जानेपर विद्वान् जरत्कारुने पितरोंके हितकी कामनासे तीन बार धीरे-धीरे यह बात कही- ‘मैं कन्या माँगता हूँ’ ॥ 13 ॥
यानि भूतानि सन्तीह स्थावराणि चराणि च ।
अन्तर्हितानि वा यानि तानि शृण्वन्तु मे वचः ॥ 14 ॥
(फिर जोरसे बोले-) ‘यहाँ जो स्थावर जंगम, दृश्य या अदृश्य प्राणी हैं, वे सब मेरी बात सुनें ॥ 14 ॥(Adi Parva Chapter 42 to 46)
उग्रे तपसि वर्तन्ते पितरश्चोदयन्ति माम् ।
निविशस्वेति दुःखार्ताः संतानस्य चिकीर्षया ॥ 15 ॥
‘मेरे पितर भयंकर कष्टमें पड़े हैं और दुःखसे आतुर हो संतान प्राप्तिकी इच्छा रखकर मुझे प्रेरित कर रहे हैं कि ‘तुम विवाह कर लो’ ॥ 15 ॥
निवेशायाखिलां भूमिं कन्याभैक्ष्यं चरामि भोः ।
दरिद्रो दुःखशीलश्च पितृभिः संनियोजितः ॥ 16 ॥
‘अतः विवाहके लिये मैं सारी पृथ्वीपर घूमकर कन्याकी भिक्षा चाहता हूँ। यद्यपि में दरिद्र हूँ और सुविधाओंके अभावमें दुःखी हूँ, तो भी पितरोंकी आज्ञासे विवाहके लिये उद्यत हूँ ॥ 16 ॥
यस्य कन्यास्ति भूतस्य ये मयेह प्रकीर्तिताः ।
ते मे कन्यां प्रयच्छन्तु चरतः सर्वतोदिशम् ॥ 17 ॥
‘मैंने यहाँ जिनका नाम लेकर पुकारा है, उनमेंसे जिस किसी भी प्राणीके पास विवाहके योग्य विख्यात गुणोंवाली कन्या हो, वह सब दिशाओंमें विचरनेवाले मुझ ब्राह्मणको अपनी कन्या दे ॥ 17 ॥
मम कन्या सनाम्नी या भैक्ष्यवच्चोदिता भवेत् ।
भरेयं चैव यां नाहं तां मे कन्यां प्रयच्छत ॥ 18 ॥
‘जो कन्या मेरे ही जैसे नामवाली हो, भिक्षाकी भाँति मुझे दी जा सकती हो और जिसके भरण-पोषणका भार मुझपर न हो, ऐसी कन्या कोई मुझे दे’ ॥ 18 ॥
ततस्ते पन्नगा ये वै जरत्कारी समाहिताः ।
तामादाय प्रवृत्तिं ते वासुकेः प्रत्यवेदयन् ॥ 19 ॥
तब उन नागोंने जो जरत्कारु मुनिकी खोजमें लगाये गये थे, उनका यह समाचार पाकर उन्होंने नागराज वासुकिको सूचित किया ॥ 19 ॥(Adi Parva Chapter 42 to 46)
तेषां श्रुत्वा स नागेन्द्रस्तां कन्यां समलंकृताम् ।
प्रगृह्यारण्यमगमत् समीपं तस्य पन्नगः ॥ 20 ॥
उनकी बात सुनकर नागराज वासुकि अपनी उस कुमारी बहिनको वस्त्राभूषणोंसे विभूषित करके साथ ले वनमें मुनिके समीप गये ॥ 20 ॥
तत्र तां भैक्ष्यवत् कन्यां प्रादात् तस्मै महात्मने ।
नागेन्द्रो वासुकिर्ब्रह्मन् न स तां प्रत्यगृह्णत ॥ 21 ॥
ब्रह्मन् ! वहाँ नागेन्द्र वासुकिने महात्मा जरत्कारुको भिक्षाकी भाँति वह कन्या समर्पित की; किंतु उन्होंने सहसा उसे स्वीकार नहीं किया ॥ 21 ॥
असनामेति वै मत्वा भरणे चाविचारिते ।
मोक्षभावे स्थितश्चापि मन्दीभूतः परिग्रहे ॥ 22 ॥
ततो नाम स कन्यायाः पप्रच्छ भृगुनन्दन ।
वासुकिं भरणं चास्या न कुर्यामित्युवाच ह ॥ 23 ॥
सोचा, सम्भव है। यह कन्या मेरे-जैसे नामवाली न हो। इसके भरण-पोषणका भार किसपर रहेगा, इस बातका निर्णय भी अभीतक नहीं हो पाया है। इसके सिवा में मोक्षभावमें स्थित हूँ, यही सोचकर उन्होंने पत्नी-परिग्रहमें शिथिलता दिखायी। भृगुनन्दन ! इसीलिये पहले उन्होंने वासुकिसे उस कन्याका नाम पूछा और यह स्पष्ट कह दिया- ‘मैं इसका भरण-पोषण नहीं करूँगा’ ॥ 22-23 ॥
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि वासुकिजरत्कारुसमागमे षट्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ 46 ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें वासुकि जरत्कारु-समागमसम्बन्धी छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ 46 ॥


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