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Garga Samhita Ashwamedh Khand Chapter 1 to 5

Garga Samhita
Garga Samhita Ashwamedh Khand Chapter 1 to 5

श्रीहरिः
ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते

Garga Samhita Ashwamedh Khand Chapter 1 to 5 |
श्री गर्ग संहिता के अश्वमेधखण्ड अध्याय 1 से 5 तक

श्री गर्ग संहिता में अश्वमेधखण्ड (Ashwamedh Khand Chapter 1 to 5) के पहले अध्याय में अश्वमेध-कथाका उपक्रम; गर्ग-वज्रनाभ-संवाद कहा गया है। दूसरा अध्याय में श्रीकृष्णावतार की पूर्वार्द्धगत लीलाओं का संक्षेप वर्णन कहा है। तीसरा अध्याय में जरासंधके आक्रमणसे लेकर पारिजात-हरणतककी श्रीकृष्णलीलाओंका संक्षिप्त वर्णन है। चौथा अध्याय में पारिजातहरण और पाँचवाँ अध्याय में देवराज और उनकी देवसेना के साथ श्रीकृष्ण का युद्ध तथा विजयलाभ; पारिजात का द्वारकापुरी में आरोपण वर्णन कहा गया है।

यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक

अश्वमेधखण्ड

पहला अध्याय

अश्वमेध-कथाका उपक्रम; गर्ग-वज्रनाभ-संवाद

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥ १ ॥
नमः श्रीकृष्णचन्द्राय नमः संकर्षणाय च।
नमः प्रद्युम्नदेवायानिरुद्धाय नमो नमः ॥ २ ॥

सर्वव्यापी भगवान नारायण, नरश्रेष्ठ नर, उनकी लीलाकथाको भाषामें अभिव्यक्त करनेवाली वाग्देवता सरस्वती तथा भगवदीय लीलाओंका विस्तारसे वर्णन करनेवाले मुनिवर वेदव्यासको प्रणाम करके जय (इतिहास-पुराण आदि) का उच्चारण करे। भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको नमस्कार, संकर्षणको भी नमस्कार, प्रद्युम्रदेवको नमस्कार तथा अनिरुद्धको भी नमस्कार है॥१-२॥

श्रीगर्गजी कहते हैं- एक समयकी बात है, ऋषियोंकी सभामें रोमहर्षण सूतके पुत्र उग्रश्रवाजी पधारे। उन्हें आया हुआ देख शौनकजीने उन्हें प्रणाम किया और (कुशल प्रश्नके अनन्तर) अभिवादन- पूर्वक इस प्रकार कहा ॥ १ ॥

शौनक बोले- महामते! आपके मुखसे मैंने सम्पूर्ण शास्त्र, पुराण तथा श्रीहरिके नाना प्रकारके निर्मल लीलाचरित्र सुने। पूर्वकालमें गर्गाचार्यजीने मेरे सामने गर्गसंहिता सुनायी थी, जिसमें श्रीराधा और माधवकी महिमाका अनेक प्रकारसे और अधिकाधिक वर्णन हुआ है। सूतनन्दन। आज मैं पुनः आपसे सब दुःखौंको हर लेनेवाली श्रीकृष्णकी कथा सुनना चाहता हूँ। आप सोच-विचारकर वह कथा मुझसे कहिये ॥ २-४॥(Ashwamedh Khand Chapter 1 to 5)

श्रीगर्गजी कहते हैं- शौनकजीके साथ अठासी हजार ऋषियोंने भी जब यही जिज्ञासा व्यक्त की, तब रोमहर्षणकुमार सूतने भगवान् श्रीकृष्णके चरणार- विन्दोंका स्मरण करके इस प्रकार कहा ॥५ ॥

सौति बोले- अहो शौनकजी! आप धन्य हैं, जिनकी बुद्धि इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रके युगल- चरणारविन्दोंका मकरन्दपान करनेके लिये लालायित है। वैष्णवजनोंका समागम प्राप्त हो, इसे देवतालोग श्रेष्ठ बताते हैं; क्योंकि वैष्णवोंके सङ्गसे भगवान् श्रीकृष्णकी वह कथा सुननेको मिलती है, जो समस्त पापोंका विनाश करनेवाली है। श्रीकृष्णचन्द्रका चरित्र समस्त कल्मषोंका निवारण करनेवाला है। उसको थोड़ा-थोड़ा ब्रह्माजी जानते हैं और थोड़ा-ही-थोड़ा भगवान् उमावल्लभ शिव। मेरे जैसा कोई मच्छर उसे क्या जान सकेगा ? भगवान् वासुदेवकी लीला-कथा एक समुद्र है, जिसमें डूबकर मोहित ब्रह्मा आदि देवता भी कुछ कह नहीं सकेंगे। (फिर मुझ जैसा मनुष्य क्या कह सकता है?) यादवराज भूपालशिरोमणि उग्रसेन- के यज्ञप्रवर अश्वमेधका अनुष्ठान देखकर लौटे हुए गर्गाचार्यने एक दिन अपने मनका उगार इस प्रकार प्रकट किया ‘यादवेश्वर ! राजा उग्रसेन धन्य हैं, जिन्होंने भगवान् श्रीकृष्णकी आज्ञासे द्वारकापुरीमें क्रतुश्रेष्ठ अश्वमेधका सम्पादन किया। उस यज्ञको देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ है। मैंने अपनी संहितामें परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णकी प्रत्यक्ष देखी-सुनी लीला-कथाओंका ठीक वैसा ही वर्णन किया है। उस संहितामें मैंने अश्वमेध यज्ञकी कथाका उल्लेख नहीं किया है, अतः अब पुनः उस अश्वमेधकी ही कथा कहूँगा। कलियुगमें उस कथाके श्रवणमात्रसे भगवान् श्रीकृष्ण मनुष्योंको शीघ्र ही भोग तथा मोक्ष प्रदान करते हैं’ ॥ ६-१४॥

शौनक ! ऐसा कहकर श्रीगर्गमुनिने श्रीकृष्णभक्ति- से प्रेरित हो उग्रसेनके अश्वमेध यज्ञकी कथा कही। ‘अश्वमेधचरित्र’ का उन्होंने एक सुन्दर नाम रख दिया- ‘सुमेरु।’ मुने! ऐसा करके भगवान् गर्गाचार्य कृतकृत्य हो गये। यादवकुलके परम गुरु तथा बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ श्रीगर्गमुनिने आठ दिनोंतक अश्वमेध यज्ञकी कथा कही; फिर वे नरेश्वर वज्रसे मिलनेके लिये श्रीहरिकी मथुरापुरीमें आये। ज्ञानिशिरोमणि गर्गमुनिको वहाँ आकाशसे उतरा देख वज्रनाभने द्विजोंके साथ उठकर उन्हें नमस्कार किया। बैठनेके लिये सोनेका सिंहासन देकर उन्होंने गुरुजीके दोनों चरण-कमल पखारे और फूल- मालाओंसे मुनिका पूजन करके उन्हें मिष्टान्न निवेदन किया। सोलह वर्षकी अवस्था और सुपुष्ट शरीरवाले विशालबाहु श्यामसुन्दर कमलनयन वज्रनाभने गुरुके चरणोदकको लेकर सिरपर रखा और दोनों हाथ जोड़कर उनसे इस प्रकार कहा। वज्रनाभ सौ सिंहोंके समान उद्भट शक्तिशाली थे ॥ १५-२१॥(Ashwamedh Khand Chapter 1 to 5)

वज्रनाभने कहा- ब्रह्मन् ! आपको नमस्कार है। आपका स्वागत है। हम आपकी क्या सेवा करें ? मैं आपको भगवत्स्वरूप मानता हूँ। आप ब्रह्मर्षियोंमें परम श्रेष्ठ हैं। गुरु ब्रह्मा हैं, गुरु रुद्र हैं, गुरु ही बृहस्पति हैं तथा गुरुदेव साक्षात् नारायण हैं; उन श्रीगुरुको नमस्कार है। मुनिश्रेष्ठ! मनुष्योंके लिये आपका दर्शन दुर्लभ है। देव। विशेषतः हम-जैसे विषयासक्त चित्तवाले लोगोंके लिये तो वह अत्यन्त दुर्लभ है। गर्गाचार्य! मेरे कुलके आचार्य ! तेजस्विन् ! योगभास्कर। आपके दर्शनमात्रसे हम कुटुम्बसहित पवित्र हो गये ॥ २२-२५॥

यदुकुलतिलक राजा वज्रनाभका वचन सुनकर मुनीन्द्रवर्य महान् महात्माने श्रीहरिके चरणारविन्द- का चिन्तन करते हुए तत्काल नृपेश्वर वज्रनाभसे प्रसन्नतापूर्वक कहा- ‘युवराज! महाराज! यदु- वंशशिरोमणे ! तुमने सब सत्कर्म ही किया है; पृथ्वीपर रहनेवाले सब लोगोंका पालन किया है। वत्स ! तुमने भूतलपर धर्मको स्थापित किया है। विष्णुरात (दिल्लीपति परीक्षित्) तुम्हारे मित्र होंगे तथा अन्य नरेश भी तुम्हारे वशमें रहेंगे। नृपश्रेष्ठ । तुम धन्य हो, तुम्हारी मथुरापुरी धन्य है, तुम्हारी सारी प्रजाएँ धन्य हैं तथा तुम्हारी व्रजभूमि धन्य है। तुम श्रीकृष्ण, बलराम, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्धका भजन करते हुए उत्तम भोग भोगो। नरेश्वर! निश्शङ्क होकर राज्य करो’ ॥ २६-३०॥

उग्रश्रवा सूत कहते हैं- गर्गजीकी यह बात सुनकर नृपश्रेष्ठ राजा वज्रनाभ श्रीकृष्ण, संकर्षण, पितामह प्रद्युम्न तथा पिता अनिरुद्धका विरहावस्थामें स्मरण करके गद्दकण्ठ हो गये। उनका मुख आँसुओंकी धारासे परिपूर्ण हो गया। गर्गने देखा, राजा वज्रनाभ दुःखी हो नीचेकी ओर मुख किये भूमिपर खड़े हैं। यह देख उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ और वे उनका दुःख शान्त करते हुए-से बोले ॥ ३१-३२३ ॥

गर्गने पूछा- राजेन्द्र ! क्यों रो रहे हो? मेरे रहते तुम्हें क्या भय है? तुम अपने दुःखका समस्त कारण मेरे सामने कहो ॥ ३३ ॥

उनकी यह बात सुनकर भी राजा दुःखमग्न होनेके कारण कुछ बोल न सके। जब गुरुने पुनः पूछा तो वे गद्गदवाणीमें इस प्रकार बोले ॥ ३४ ॥

राजाने कहा- देव! श्रीकृष्ण-संकर्षण आदि समस्त यादव मुझे यहाँ छोड़ परलोकमें चले गये, यह सोचकर ही मैं दुःखी हो गया। ब्रह्मन् । स्वामी, अमात्य, मित्र, राष्ट्र (जनपद), कोष, दुर्ग और सेना- राजाके ये सातों अङ्ग मुझ एकाकीके लिये प्रीतिकारक नहीं होते हैं। मैंने भगवान् श्रीकृष्णका चरित्र न तो देखा है और न किसीसे सुना ही है; आप वह चरित्र मुझसे कहिये। मैंने अपनी आँखोंसे तो केवल यादवोंका संहार ही देखा है, अतः मेरा दुःख दूर नहीं हो रहा है। चतुर्ग्यूह-रूपधारी श्रीहरिने पहले जिस पुरीको सुशोभित किया था, वह भी समुद्रमें डूब गयी और भगवान् श्रीकृष्ण भी भक्तिके परमधाम गोलोकको चले गये। शिष्यवत्सल गुरुदेव! आप ही बताइये, अब मैं किसके लिये जीवित रहूँ। आज ही वनको जाता हूँ। मेरे मनमें राज्य करनेकी इच्छा नहीं है॥ ३५-३९ ॥

सूतजी कहते हैं- यदुकुलशिरोमणि वज्रनाभ- की यह बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ महात्मा गर्गने उनकी प्रशंसा की और उनका दुःख शान्त करते हुए से वे संतुष्ट गर्गमुनि राजा वज्रनाभसे बोले ॥ ४० ॥

गगंने कहा- वृष्णिवंशतिलक ! मेरी बात सुनो; यह शोकका विनाश करनेवाली है। समस्त पापोंको हरनेवाली, पवित्र तथा शुभ है। तुम सावधानीके साथ इसे श्रवण करो। पूर्वकालमें जो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र कुशस्थली (द्वारका) पुरीमें विराजते थे, वे सदा और सर्वत्र विराजमान हैं। भूपते। अब तुम भक्तिभावसे उनको देखो। आज मैं तुम्हें भगवान की वह कथा सुनाऊँगा, जो भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली है। वसुधानाथ ! श्रीकृष्ण तथा बलरामजीकी वह उत्तम कथा तुम सुनो ॥ ४१-४३ ॥

सूतजी कहते हैं- विप्रवर शौनक। ऐसा कहकर भगवान् गर्गने वज्रनाभको नौ दिनोंतक अपनी पवित्र संहिता सुनायी ॥ ४४ ॥

इस प्रकार श्रीमद्गर्गसंहितामें अश्वमेध चरित्र सुमेरु-प्रसङ्गमें ‘गर्ग-वज्रनाभ-संवाद’
नामक पहला अध्याय पूरा हुआ ॥ १॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री गोविंद स्तोत्रम

दूसरा अध्याय

श्रीकृष्णावतार की पूर्वार्द्धगत लीलाओं का संक्षेप वर्णन

सूतजी कहते हैं- इस प्रकार गर्गमुनिके मुखसे श्रीगर्गसंहिताकी कथा सुनकर राजा वज्रनाभ मन- ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने गुरु गर्गाचार्यके चरणों में प्रणाम करके उनसे इस प्रकार कहा- ‘प्रभो! मुनिश्रेष्ठ। आज मैंने आपके मुखारविन्दसे जो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका चारु चरित्र सुना है, उससे मेरे सारे दुःख दूर हो गये। कृपानाथ। मैं इस कथा- श्रवणसे अतृप्त रह गया हूँ; अतः मेरा मन पुनः श्रीहरिके यशको सुननेके लिये उत्सुक है। आप कृपापूर्वक श्रीकृष्णके परम उत्तम चरित्रका वर्णन कीजिये। मुने! द्वारकामें महाराज उग्रसेनने पहले अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान किया था, उसके विषयमें कुछ बातें मैंने पूर्वकालमें सुनी थीं। आप उस अश्वमेध यज्ञका ही सम्पूर्ण चरित्र या वृत्तान्त मुझसे कहिये। मुनीश्वर ! करुणामय गुरुजन अपने सेवापरायण शिष्यों तथा पुत्रोंसे उनके पूछे बिना भी गूढ़ रहस्यकी बातें बता दिया करते हैं’ ॥१-५॥

सूतजी कहते हैं- यदुकुलगुरु गर्गमुनि वज्रनाभका ऐसा वचन सुनकर बड़े प्रसन्न हुए और श्रीहरिके युगलचरणारविन्दोंका स्मरण करते हुए उन राजाधिराजसे इस प्रकार बोले ॥६॥(Ashwamedh Khand Chapter 1 to 5)

गर्गजीने कहा- यादवश्रेष्ठ ! तुम धन्य हो; क्योंकि भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणों में तुम्हारी ऐसी अविचल भक्ति हुई है, जो दूसरे मनुष्योंके लिये दुर्लभ है। वह भक्ति तुम्हें सहज सुलभ है, यह बड़े सौभाग्य- की बात है। राजन् ! इस विषयमें मैं तुमसे प्राचीन इतिहास बता रहा हूँ, उसे सुनो। उसका श्रवण कर लेनेमात्रसे मनुष्य समस्त पापोंसे छुटकारा पा जाता है। राजन् ! द्वापरमें पापियोंके भारसे पीड़ित हुई वसुन्धराने ब्रह्माजीके सामने अपना दुःख प्रकट किया। उसे सुनकर ब्रह्माजी श्रीहरिकी शरणमें गये और वहाँ उन्होंने पृथ्वीका सारा कष्ट कह सुनाया। वह सब सुनकर श्रीराधिकावल्लभ श्रीकृष्णने वसुधाको आश्वासन दिया और देवताओंके सहयोगसे उसका भार उतारनेका निश्चय किया ॥ ७-१० ॥

तदनन्तर मथुरामें वसुदेवका देवकीके साथ विवाह हुआ; फिर कंसको सावधान करनेवाली आकाशवाणी हुई। देवकीके पुत्रसे अपने वधकी बात जानकर कंसने क्रमशः उसके छः पुत्र मार डाले। नरेश्वर! कंसको भय होने लगा और उस भयके आवेशमें उसे सर्वत्र कृष्ण- ही-कृष्ण दीखने लगे। इसके बाद भगवान्ने योगमायाको आज्ञा दी, जिसके अनुसार उसने देवकीके गर्भका संकर्षण करके रोहिणीके गर्भमें उसे स्थापित कर दिया और स्वयं वह यशोदाके गर्भसे कन्याके रूपमें प्रकट हुई। इधर भगवान् देवकीके गर्भमें आविष्ट हुए और ब्रह्मा आदि देवताओंने आकर उनकी स्तुति की। फिर श्रीकृष्णका प्राकच हुआ। भगवान के बालकृष्णरूपकी दिव्य झाँकीका वर्णन ऋषि वेद- व्यासद्वारा किया गया है। वसुदेवने भगवान के उस दिव्य रूपका स्तवन किया। जगदीश्वर श्रीकृष्णने देवकी और वसुदेवके पूर्वजन्म-सम्बन्धी पुण्यकर्मोंका वर्णन किया। तदनन्तर भगवदीय आज्ञाके अनुसार वसुदेवजी बालकृष्णको गोकुल पहुँचा आये और वहाँसे यशोदाकी कन्या उठा लाये। कंसने उस कन्या- को पत्थरपर दे मारा; परंतु वह आकाशमें उड़ गयी और कंसको यह बताती गयी कि ‘तेरा काल कहीं प्रकट हो चुका है।’ कंसका निकट जाकर वसुदेव देवकीको सान्त्वना देना और पत्नीसहित वसुदेवको बन्धनमुक्त कर देना आदि बातें घटित हुईं। कंसने दैत्योंकी सभामें दुष्टतापूर्ण मन्त्रणा की और साधुपुरुषों तथा बालकोंके प्रति उपद्रव प्रारम्भ करवाया ॥ ११-१४॥

ब्रजमें श्रीकृष्णका प्राकच होनेपर व्रजराज नन्दके भवनमें महान् उत्सव मनाया गया। नन्दरायजी राजा कंसको भेंट देनेके लिये मथुरा गये और वहाँ वसुदेवजीके साथ उनकी भेंट हुई। उधर गोकुलमें विषमिश्रित स्तनपान करानेके लिये आयी हुई पूतनाके प्राणोंको भगवान् उसके दूधके साथ ही पी गये। उसके मरे हुए विकराल शरीरको देखकर मथुरासे लौटे हुए नन्दादि गोपोंको बड़ा विस्मय हुआ। उसके बाद एक दिन श्रीकृष्णके पैरोंका हलका-सा आघात पाकर दूध-दहीके मटकोंसे भरा हुआ छकड़ा उलट गया। बवंडर-रूपधारी ‘तृणावर्त’ नामक दैत्यका शिशु श्रीकृष्णके हाथों वध हुआ। एक दिन मैया यशोदा बाल-कृष्णको लाड़-प्यार कर रही थीं। इतनेमें ही उन्हें जंभाई आयी और उनके मुखमें माताको सम्पूर्ण विश्वका दर्शन हुआ। तदनन्तर बलराम और श्रीकृष्णके नामकरण-संस्कार हुए। फिर व्रजभूमिमें इन दोनों भाइयोंकी बालक्रीड़ा होने लगी। गोपाङ्गनाओंके घरोंमें घुसकर धूर्ततापूर्ण व्यवहार- दही-माखन चुरानेके खेल चलने लगे। प्रसङ्गवश किसी दिन मिट्टी खा ली और माताको मुखमें सम्पूर्ण विश्वका दर्शन कराया। नन्द और यशोदाको श्रीकृष्णके लालन-पालनका सुख कैसे सुलभ हुआ, इस प्रसङ्गमें उन दोनोंके पूर्वजन्मसम्बन्धी सौभाग्यवर्धक सत्कर्मकी चर्चा हुई। माखनकी चोरी, रस्सीसे कमरमें बलपूर्वक बाँधा जाना, ‘यमलार्जुन’ नामक वृक्षोंका भङ्ग होना, उनके शापकी निवृत्ति, उन दोनोंके द्वारा भगवान की स्तुति, बालक्रीड़ा, उपनन्द आदिकी मन्त्रणा, वहाँसे वृन्दावन-गमन, वहाँ समवयस्क ग्वालबालोंके साथ बछड़े चराना, उसी प्रसङ्गमें वत्सासुर, वकासुर और अघासुरका वध, सखाओंके साथ श्रीहरिका यमुनातटपर प्रशंसापूर्वक भोजन, ब्रह्माजीके द्वारा बछड़ों और ग्वालबालोंका हरण, श्रीकृष्णका स्वयं ग्वालबाल और बछड़े बन जाना, ब्रह्माका जाना और फिर मोह निवृत्त होनेपर लौटकर भगवान की स्तुति करना, श्रीकृष्णका गोप बालकोंके साथ विहार तथा व्रजमें गमन, गोचारणके प्रसङ्गमें बड़ी-बड़ी क्रीडाएँ, धेनुकासुर आदिका वध, संध्याके समय व्रजमें आगमन तथा श्रीकृष्णका गोपीजनोंके नेत्रोंमें महान् उत्सव प्रदान करना आदि वृत्तान्त घटित हुए ॥ १५-२३ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 1 to 5)

कालियनागके विषसे दूषित जलको पीनेसे मरे हुए गोपोंको श्रीहरिने जिलाया; कालियनागका दमन किया। उस समय नागपत्नियोंने भगवान की स्तुति की और उनके साथ वार्तालाप किया। फिर इस बातका वर्णन किया कि यमुनाके हृदमें कालियनागका सम्बन्ध कैसे हुआ? तदनन्तर मुआटवीमें फैली हुई दावाग्निको पीकर भगवान्ने किस प्रकार गोप-गोपियोंके जीवनकी रक्षा की, इस बातका प्रतिपादन हुआ है। खेल-खेलमें ही प्रलम्बासुरका वध, दावानलसे गौओंकी रक्षा, वर्षा-वर्णन, शरद् वर्णन, गोपीगीत, गोकुलकी गोप- किशोरियोंद्वारा कात्यायनीव्रतका अनुष्ठान, उनके वस्त्रोंका अपहरण, वृन्दावनके सौभाग्यका वर्णन, ग्वालबालोंका भगवान्से भोजन माँगना और भगवान का उन्हें ब्राह्मणोंके यज्ञमें भेजना, ब्राह्मण- पत्नियोंपर भगवान का कृपा-प्रसाद, ब्राह्मणोंका अपनी मूढ़ताके लिये पश्चात्ताप, इन्द्रके यज्ञकी प्रथा मिटाकर गोवर्द्धनपूजनका क्रम चलाना, कुपित हुए इन्द्रद्वारा की गयी घोर वृष्टिसे व्रजवासियोंकी रक्षाके लिये भगवान का गोवर्द्धन पर्वतको छत्रकी भाँति धारण करना, देवराज इन्द्रके गर्वको चूर्ण करना, महर्षि गर्गके द्वारा नन्दरायके यहाँ उत्पन्न श्रीकृष्ण-बलरामके भावी जातकोक्त फलका वर्णन, गोपोंकी शङ्का, भगवान के द्वारा उसका निवारण, इन्द्रधेनु सुरभिके द्वारा भगवान का गोविन्द-पदपर अभिषेक और स्तवन, नन्दजीको वरुणलोकसे छुड़ाकर लाना, गोपोंको वैकुण्ठलोकमें ले जाकर उसका दर्शन कराना, पाँच अध्यायोंमें रातमें होनेवाली रासक्रीड़ाका वर्णन, नन्दका अजगरके मुखसे उद्धार, शङ्खचूडका वध, गोपियोंके युगलगीत, अरिष्टासुरका वध, कंस और नारदका संवाद, कंस और अक्रूरकी बातचीत, श्रीकृष्णके द्वारा केशीका वध, नारद ऋषिका श्रीकृष्णसे वार्तालाप, व्योमासुरका वध, अक्रूरका गोकुलमें आगमन, व्रजके दर्शनजनित आनन्दसे उनके शरीरका पुलकित होना, अन्तःकरण- का हर्षसे खिल उठना, रोमाञ्च होना, गढ़द्दवाणीमें बोलना, बलराम और श्रीकृष्णके साथ उनकी बातचीत, उनके द्वारा कंसकी चेष्टाओंका वर्णन, बलराम और श्रीकृष्णका मथुराको प्रस्थान, गोपीजनोंका विलाप, मथुरागमन, मार्गमें ही यमुनाके हृदमें प्रविष्ट हुए अक्रूरको भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन, उनके द्वारा श्रीकृष्णकी स्तुति, फिर उन सबका मथुरा पुरीमें आगमन, नगरका दर्शन, नगरकी सम्पत्तिका वर्णन, रजकका शिरश्छेदन, दर्जीको वरदान, सुदामा मालीको वरदान, कुब्जाको श्रीकृष्णका दर्शन, कंसके धनुषका भञ्जन, उसके सैनिकोंका वध, कंसको दुर्निमित्तोंका दिखायी देना, कंसका रंगोत्सव, कुवलयापीड़ नामक हाथीका युद्धमें मारा जाना, पुरवासियोंको बलराम और श्रीकृष्णका दर्शन, उनके प्रति नागरिकोंके मनमें प्रेमकी वृद्धि, रंगशालामें मल्लोंका मारा जाना, बन्धुओंसहित कंसका वध, श्रीकृष्ण-बलरामद्वारा माता-पिताको आश्वासन तथा समस्त सुहदोंको तोषदान, उग्रसेनका राजाके पदपर अभिषेक, नन्द आदि गोपोंको व्रजभूमिकी ओर लौटाना, श्रीकृष्ण-बलरामका किंचित् द्विजाति- संस्कार, गुरुके घर जाकर विद्याध्ययन, उनके मरे हुए पुत्रको यमलोकसे लाकर लौटाना, इसी प्रसङ्गमें ‘पञ्चजन’ नामक दैत्यका वध, पुनः श्रीकृष्णका मथुरा-आगमन, मधुपुरीमें महान् उत्सव, उद्धवको व्रजमें भेजना, गोपियाँका विलाप, उद्धवद्वारा उन्हें सान्त्वना-प्रदान, व्रजवासियोंसे मिलनेके लिये श्रीकृष्णका नन्दके गोकुलमें आना, फिर कोल-दैत्यका वध, कुब्जा-मिलन, अक्रूरको हस्तिनापुर भेजना तथा पाण्डवोंके प्रति विषमतापूर्ण बर्ताव रोकनेके लिये धृतराष्ट्रको समझाना इत्यादि प्रसङ्गोंका वर्णन किया गया है॥ २४-४२ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें अश्वमेध चरित्र सुमेरुमें ‘श्रीकृष्णकी लीलाओंका वर्णन’
नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ २॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ गीतावली हिंदी में

तीसरा अध्याय

जरासंधके आक्रमणसे लेकर पारिजात-हरणतककी
श्रीकृष्णलीलाओंका संक्षिप्त वर्णन

गर्गजी कहते हैं- राजन् ! अपने दामाद कंसके वधका समाचार सुनकर राजा जरासंध संतप्त हो उठा। उसने कई अक्षौहिणी सेनाएँ लेकर मथुरापुरीपर अनेक बार आक्रमण किया और उसकी समस्त सेनाओंका श्रीकृष्ण और बलरामने संहार कर डाला। उभय पक्षकी सेनाओंमें बारंबार युद्धका अवसर आनेपर श्रीकृष्णने विश्वकर्माद्वारा समुद्रमें ‘द्वारका’ नामक दुर्गकी रचना करवायी। इसी बीचमें कालयवनका भी आक्रमण हुआ और मुचुकुन्दद्वारा उसका वध करवाकर भगवान्ने उनके मुखसे अपना स्तवन सुना; फिर उन्हें वर देकर बदरिकाश्रम भेज दिया और वहाँसे लौटकर म्लेच्छ सैनिकोंका वध करके उन सबका धन द्वारकापुरीमें पहुँचानेकी व्यवस्था की। इतनेमें ही घमंडी राजा जरासंध आ पहुँचा। भगवान् किसी विशेष अभिप्रायसे अबकी बार युद्ध छोड़कर उसके सामनेसे पलायन कर गये। ‘रैवत’ नामवाले राजाने द्वारकापुरीमें आकर अपनी कन्या रेवती बलदेवजीके हाथमें समर्पित कर दी। एक समय राजकुमारी रुक्मिणीका प्रेम-संदेश सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण कुण्डिनपुरमें गये और वहाँ अम्बिकादेवीके मन्दिरसे अपनी प्रेयसी रुक्मिणीका अपहरण करके, वहाँके समस्त राजाओंको जीतकर द्वारकापुरीको निकल गये। तब राजाओंने चेदिराज शिशुपालको सान्त्वना दी और उसे चुपचाप घर लौट जानेको कहा। तत्पश्चात् एक विशेष प्रतिज्ञाके साथ रुक्मी युद्धके मैदानमें उतरा। श्रीकृष्णने पहले तो उसके साथ युद्ध किया; फिर उसे रथमें बाँधकर उसका मुण्डन कर दिया। इससे रुक्मिणीको बड़ा दुःख हुआ। बलरामजीने समझा-बुझाकर उन्हें शान्त किया और बलरामजीके ही कहनेसे रुक्मीको बन्धनसे छुटकारा मिला। इसके बाद द्वारकापुरीमें पहुँचकर श्रीकृष्णका रुक्मिणीके साथ बड़े आनन्दसे विधिपूर्वक विवाह-संस्कार सम्पन्न हुआ ॥ १-६॥(Ashwamedh Khand Chapter 1 to 5)

तत्पश्चात् प्रद्युम्नकी उत्पत्ति कही गयी। उनका सूति- कागारसे अपहरण हुआ। मायावतीके कथनसे अपने पूर्व-वृत्तान्तको जानकर प्रद्युम्नने शम्बरासुरका वध किया, फिर वे अपने घर लौट आये। इससे द्वारका- वासियोंको बड़ा संतोष हुआ। सत्राजित् नामक यादवने भगवान् सूर्यकी कृपासे स्यमन्तकमणि प्राप्त की। उसे एक दिन श्रीहरिने माँगा। उसी मणिको अपने गलेमें बाँधकर सत्राजित्के छोटे भाई प्रसेनजित् शिकार खेलनेके लिये वनमें गये। वहाँ एक सिंहने उनको मार डाला। इससे श्रीहरिपर कलङ्क आया। उसका मार्जन करनेके लिये भगवान् श्रीकृष्ण वनमें ऋक्षराजकी गुफामें गये। वहाँ उन दोनोंमें घोर युद्ध हुआ। जाम्बवान्ने यह जानकर कि ‘ये कोई साधारण मनुष्य नहीं, साक्षात् भगवान् हैं’ इन्हें अपनी कन्या जाम्बवती समर्पित कर दी। भगवान को जाम्बवान की गुफासे जो मणि प्राप्त हुई थी, उसे उन्होंने सत्राजित के यहाँ पहुँचा दिया। सत्राजित्ने अपनी बेटी सत्यभामाका विवाह श्रीकृष्णके साथ कर दिया और दहेजमें वह मणि उन्हें दे दी ॥७-१० ॥

तदनन्तर एक दिन बलरामजीके साथ श्रीकृष्णने हस्तिनापुरकी यात्रा की। इसी बीचमें अक्रूर और कृतवर्माकी प्रेरणासे शतधन्वाने सत्राजित् को मार डाला। यह समाचार पाते ही श्रीकृष्णने तत्काल शतधन्वाको भी मौतके घाट उतार दिया। बलरामजी मिथिलामें रहकर दुर्योधनको गदायुद्धकी शिक्षा देने लगे। इधर भगवान् श्रीकृष्ण अक्रूरको मणि देकर स्वयं इन्द्रप्रस्थ चले गये। वहाँ उन्हें कालिन्दीकी प्राप्ति हुई। उसके साथ श्रीहरिने अपनी द्वारकापुरीमें विवाह किया। इसी प्रकार मित्रबिन्दा और सत्याके साथ भी उनका विवाह हुआ। तदनन्तर भद्रा और लक्ष्मणाका भी श्रीहरिके साथ विवाह हुआ। एक समय श्रीकृष्णने देवराज इन्द्रको जीतकर उनके पारिजातको ले लिया और उसे द्वारकापुरीमें लाकर अपनी प्रिया सत्यभामाको दे दिया ॥ ११-१५ ॥

वज्रनाभने पूछा- मुने । भगवान् श्रीकृष्णने देवराज इन्द्रको जीतकर उनके कल्पवृक्ष या पारिजात- को लाकर जो अपनी प्रिया सत्यभामाको दिया, उसका क्या कारण है? यह सारी कथा मुझे विस्तारपूर्वक सुनाइये ॥ १६ ॥

श्रीगर्गजीने कहा- किसी समय देवर्षि नारद स्वर्गसे पारिजातका एक फूल लेकर द्वारकापुरीमें आये। वह फूल लेकर श्रीकृष्णने अपनी पटरानी श्रीरुक्मिणीजीके हाथमें दे दिया। इससे सत्यभामाको बड़ा दुःख हुआ। वे कोपभवनमें चली गयीं। श्रीकृष्ण वहाँ जाकर कुपित हुई सत्यभामासे मिले और बोले- ‘तुम दुःख न मानो, मैं तुम्हें पारिजातका वृक्ष ही लाकर दे दूँगा।’ उसी समय इन्द्रने आकर श्रीकृष्णके समक्ष भौमासुरकी सारी चेष्टाएँ बतायीं। यह सुनकर भगवान्ने हाथ जोड़ इन्द्रकी ओर देखते हुए कहा ॥ १७-१९॥
श्रीकृष्ण बोले- ‘वृत्रसूदन । देखिये, मेरी प्रिया सत्यभामा दुःखी होकर रो रही है। इसका यह रोदन पारिजात वृक्षके लिये ही है। बताइये, मैं क्या करूँ? हरे! यदि आप सत्यभामाके लिये पारिजात वृक्ष दे देंगे तो मैं सेनासहित भौमासुरका संहार कर डालूँगा, इसमें संशय नहीं है।’ श्रीकृष्णकी यह बात सुनकर देवराज इन्द्र जोर-जोरसे हँसते हुए बोले ॥ २०-२१ ॥

इन्द्रने कहा- श्रीकृष्ण! तुम नरकासुरका वध करके नन्दनवनमें जो-जो पारिजातके वृक्ष हैं, उन सबको स्वतः ले लेना ॥ २२ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 1 to 5)

‘एवमस्तु’ कहकर भगवान् श्रीकृष्ण सत्यभामाके साथ गरुडके कंधेपर आरूढ़ हो प्राग्ज्योतिषपुरकी ओर चल दिये। जब इन्द्र स्वर्गको लौट गये, तब सत्यभामाने स्वयं श्रीहरिसे कहा ॥ २३ ॥

सत्यभामा बोली- ‘जगत्पते! आप पहले इन्द्र- से वृक्षराज पारिजातको ले लें। हरे! अपना काम निकल जानेपर इन्द्र आपका प्रिय कार्य नहीं करेंगे।’ प्रियाकी यह बात सुनकर प्रियतमने उससे कहा ॥ २४-२५ ॥

श्रीकृष्ण बोले- यदि मेरे माँगनेपर अमरेश्वर इन्द्र पारिजात नहीं देंगे तो मैं पुरन्दरकी छातीपर, जहाँ शचीदेवी चन्दनका अनुलेप लगाती हैं, गदासे चोट करूँगा ॥ २६ ॥

– ऐसा कहकर भगवान् श्रीकृष्ण भौमासुरके नगरमें गये। वह नगर नाना प्रकारके सात दुर्गों और बड़े-बड़े असुरोंसे आवेष्टित था। श्रीकृष्णने गदा, चक्र और बाण आदिसे उन सातों दुर्गोंका भेदन कर दिया। मुरु दैत्य और उसके पुत्र अस्त्र-शस्त्र लेकर नगरकी रक्षामें नियुक्त थे। श्रीकृष्णने उन सबको कालके गालमें डाल दिया। तदनन्तर सेनासहित नरक अस्त्र- शस्त्रोंकी वर्षा करता हुआ सामने आया। श्रीहरिने चक्र चलाकर नरकासुरके दो टुकड़े कर डाले तथा गरुडके द्वारा उसकी सारी सेनाका संहार कर डाला। भौमासुर- को मारकर यदुकुलतिलक जगन्नाथने उसके सारे उत्तम रत्न ग्रहण कर लिये ॥ २७-२९ ॥

वहाँ उन्होंने कुमारी कन्याओंका एक विशाल समुदाय देखा। उनकी संख्या सोलह हजार एक सौ थी। वे दैत्यों, सिद्धों तथा नरेशोंकी कुमारियाँ थीं। श्रीहरिने उन सबको अपनी द्वारकापुरीमें भेज दिया। फिर वे इन्द्रकी मणि और छत्र लेकर तथा देवमाता अदितिके दोनों कुण्डल प्राप्त करके पारिजात वृक्ष लानेके लिये इन्द्रपुरीकी ओर चले ॥ ३०-३२ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधचरित्र-सुमेरुमें ‘श्रीकृष्णकी कथाका वर्णन’
नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ ३ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ मीमांसा दर्शन (शास्त्र) हिंदी में

चौथा अध्याय

पारिजातहरण

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! स्वर्गमें जाकर इन्द्रको उनका छत्र और मणि देकर श्रीकृष्णने माता अदितिको उनके दोनों कुण्डल अर्पित कर दिये। उसके बाद अपना अभिप्राय व्यक्त किया। श्रीहरिके अभिप्रायको जानकर भी जब इन्द्रने पारिजात वृक्ष नहीं दिया, तब माधवने देवताओंको पराजित करके पारिजातको बलपूर्वक अपने अधिकारमें ले लिया ॥ १-२ ॥

सूतजी कहते हैं- शौनक। यह कथा सुनकर यादवनरेश वज्रको बड़ा विस्मय हुआ। श्रीहरिके गुणोंमें श्रद्धा रखते हुए उन्होंने पुनः अपने गुरुसे पूछा- ‘ब्रह्मन् ! इन्द्र तो देवताओंके राजा हैं। वे यह जानते हैं कि श्रीकृष्ण साक्षात् परमेश्वर श्रीहरि हैं, तथापि उन्होंने भगवान के प्रति अपराध कैसे किया? यह ठीक-ठीक बताइये। इन्द्रकी चेष्टाको सत्यभामाने पहले ही भाँप लिया था और श्रीकृष्णके सामने सुस्पष्ट बता भी दिया था। अतः इस प्रसङ्गको सुननेके लिये मेरे मनमें बड़ी उत्कण्ठा है। आप इन्द्र और माधवके इस युद्धका मेरे समक्ष विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये ॥ ३-५॥(Ashwamedh Khand Chapter 1 to 5)

श्रीगर्गजी बोले- राजन् ! अदितिने भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति और इन्द्रने भी पारिजात ले जानेके लिये स्वीकृति दे दी, तब भगवान् श्रीकृष्ण नन्दनवनमें गये और वहाँ बहुत-से पारिजात वृक्षोंका अवलोकन करने लगे। उन सबके बीचमें एक महान् वृक्ष था, जो बहुत-सी मञ्जरियोंके पुञ्जको धारण किये अनुपम शोभा पा रहा था। कहते हैं, वह वृक्ष क्षीरसागरके मन्धनसे प्रकट हुआ था। उससे कमलकी-सी सुगन्ध निकल रही थी। वह देवताओंके लिये सुखद वृक्ष ताँबेके समान रंगवाले नूतन पल्लवोंसे परिवेष्टित था। वह सुन्दर दिव्य वृक्ष उस वनका विभूषण था और उसकी छाल सुनहले रंगकी थी ॥ ६-८ ॥

उस पारिजात वृक्षको देखकर मानिनी सत्यभामाने माधवसे कहा- श्रीकृष्ण ! इस सम्पूर्ण वनमें यही वृक्ष सबसे श्रेष्ठ है। अतः मैं इसीको पसंद करती हूँ।’ प्रियाके इस प्रकार कहनेपर जगदीश्वर श्रीकृष्णने हँसते हुए पारिजात वृक्षको उखाड़कर लीलापूर्वक गरुडकी पीठपर रख लिया। उसी समय क्रोधसे भरे हुए समस्त वनपाल धनुष-बाण धारण किये उठे और फड़कते हुए ओठोंसे श्रीकृष्णको सम्बोधित करके इस प्रकार कहने लगे ‘ओ मनुष्य ! यह इन्द्रवल्लभा महारानी शचीका वृक्ष है। तुमने क्यों इसका अपहरण किया है? अपनी इच्छासे अकस्मात् हम सबको तिनकेके समान समझकर हमारा अपकार करके तुम कहाँ जाओगे? पूर्वकालमें समुद्र-मन्थनके समय देवताओंने इन्द्राणीकी प्रसत्रताके लिये इस वृक्षको उत्पन्न किया है। इसे लेकर तुम सकुशल नहीं रह सकोगे। जिन्होंने पहले समस्त पर्वतोंके पंख काट गिराये थे, उन वृत्रासुरनिषूदन वीर महेन्द्रको जीतकर ही तुम इस वृक्षको ले जा सकोगे। अतः महावीर ! पारिजातको यहीं छोड़कर चले जाओ। हम देवराज इन्द्रके अनुचर हैं, इसलिये यह वृक्ष तुम्हें नहीं ले जाने देंगे। जब साक्षात् पुरन्दर यह पारिजात वृक्ष तुम्हें दे देंगे, तब हम नहीं रोकेंगे। उस दशामें हम केवल बनके रक्षक होंगे। इस वृक्षके नहीं’ ॥ ९-१६ ॥

वनरक्षकोंका यह भाषण सुनकर सत्यभामा रोषसे तमतमा उठीं। नरेश्वर! श्रीहरि तो चुप रह गये, किंतु सत्यभामा निर्भय होकर उन रक्षकोंसे बोलीं ॥ १७ ॥

सत्याने कहा- यदि यह पारिजात अमृत- मन्थनके समय समुद्रसे प्रकट हुआ है, तब तो यह सामान्यतः सम्पूर्ण लोकोंकी सम्पत्ति है। तुम्हारी शची अथवा देवराज इन्द्र इस पारिजातके कौन होते हैं? उन्हें अकेले इसपर अपना स्वत्व जतानेका क्या अधिकार है? समुद्रसे प्रकट हुई वस्तुको अकेले देवराज इन्द्र कैसे ले सकते हैं? वनरक्षको! जैसे अमृत, जैसे चन्द्रमा और जैसे लक्ष्मी समस्त संसारकी साधारण सम्पत्ति हैं, उसी प्रकार यह पारिजात वृक्ष भी। यदि अपने पतिके बाहुबलका भारी घमंड लेकर शची झूठे ही इसे अपने वशमें रोक रखना चाहती हैं तो जाओ, कह दो, क्षमा करनेकी आवश्यकता नहीं है; उनसे जो कुछ करते बने, कर लें। सत्यभामा पारिजात वृक्षका अपहरण करवा रही है। तुम शीघ्र जाकर उस पुलोम दानवकी पुत्रीको मेरी यह बात कह सुनाओ। जिसका एक-एक अक्षर अत्यन्त गर्व और उद्दण्डतासे भरा हुआ है, वह यह वचन सत्यभामा कहती है। यदि तुम पतिकी प्राणवल्लभा हो और यदि पतिदेव तुम्हारे वशमें हैं तो पारिजातका अपहरण करने- वाले मेरे पतिके हाथसे इस वृक्षको रोक लो। मैं तुम्हारे पति इन्द्रको भी जानती हूँ। तुम सब देवता क्या हो? यह सब मैं अच्छी तरह समझती हूँ तथापि मैं मानुषी होकर भी तुम्हारे इस पारिजातका अपहरण करवा रही हूँ। (तुम रोक सको तो, रोको) ॥ १८-२३ ॥

श्रीगर्गजी कहते हैं- श्रीकृष्णवल्लभाकी यह बात सुनकर बेचारे वनरक्षक सन्न हो गये। उन्होंने इन्द्राणीके निकट जाकर उनकी कही हुई सारी बातें ज्यों की-त्यों सुना दीं। रक्षकोंकी बात सुनकर शचीको बड़ा रोष हुआ। देवराज इन्द्र श्रीकृष्णको रोकनेके लिये नहीं जा रहे थे; अतः वे खीझकर बोलीं ॥ २४-२५३ ॥ शचीने कहा- देवराज! तुम वज्रधारी हो। पाकशासन और वृत्रासुरके विनाशक हो। तुम्हें तिनकेके समान समझकर अत्यन्त बलशाली माधवने अपनी प्रियतमा सत्यभामाके लिये मेरा पारिजात ले लिया है; अतः तुम उस वृक्षराजको उनके हाथसे छुड़ाओ छीन लो। श्रीकृष्ण सत्यभामाके वशमें रहनेवाले हैं-वे नारीके हाथके खिलौने हैं। तुम महासमरमें उन्हें पराजित करके पारिजातको अपने अधिकारमें कर लो। तुमने पूर्वकालमें वज्रसे पर्वतोंके पंख काट डाले हैं, अतः भय छोड़कर देवताओंकी सेना साथ ले युद्धके लिये जाओ ॥ २६-२८ ॥

शचीकी यह बात सुनकर नमुचिसूदन इन्द्रने भयभीत होनेके कारण जब युद्धके लिये मन नहीं उठाया, तब कोपभरी पत्नीने उन्हें बारंबार प्रेरित किया, तब इन्द्र मदमत्त हो क्रोधपूर्वक श्रीकृष्णकी निन्दा करते हुए बोले ॥ २९-३० ॥(Ashwamedh Khand Chapter 1 to 5)

इन्द्रने कहा- सुमुखि ! जिसने तुम्हारा पारिजात लिया है, उसे युद्धभूमिमें सौ पर्ववाले वज्रसे मैं निश्चय ही मार गिराऊँगा ॥ ३१ ॥

राजन् ! ऐसा कहकर इन्द्र ऐरावत हाथीपर आरूढ़ हुए। उस हाथीके तीन शुण्डा-दण्ड थे। उसकी पीठपर लाल रंगका कम्बल या कालीन शोभा पाता था। चार दाँत उस गजराजकी शोभा बढ़ाते थे। वह सुन्दर हाथी अपनी श्वेत प्रभाके कारण हिमालय पर्वतके समान प्रतीत होता था। सोनेकी साँकलसे उसके पाँवकी बड़ी शोभा होती थी। वह महान् गजराज देवताओंसे घिरा हुआ था। उस समय यम, अग्नि और वरुण आदि समस्त मरुद्रण देवराजके साथ हो गये। ग्यारह रुद्र, बारह सूर्य, आठ वसु, कुबेर आदि लोकपाल, विद्याधर, गन्धर्व, साध्यगण तथा पितृगण आदि तैंतीस करोड़ देवता इन्द्रका अनुसरण करनेके लिये आये। ये सब- के-सब कुपित हो श्रीकृष्णके सम्मुख युद्ध करनेके लिये पधारे थे। इनमेंसे कुछ देवताओंको तो देवराज इन्द्रने अपनी सहायताके लिये बुलवाया था और कुछको देवर्षि नारदजीने स्वयं प्रेरणा देकर भेजा था। इन्द्र हाथमें वज्र लेकर खड़े हुए। साथ ही दूसरे दूसरे देवता परिघ, खड्ग, गदा, शूल और फरसे लेकर युद्धके लिये तैयार हो गये ॥ ३२-३८ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधचरित्र-सुमेरुमें ‘पारिजात-हरण’
नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ ॥ ४ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ छान्दोग्य उपनिषद हिंदी में

पाँचवाँ अध्याय

देवराज और उनकी देवसेनाके साथ श्रीकृष्णका युद्ध तथा विजयलाभ;
पारिजातका द्वारकापुरीमें आरोपण

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! श्रीकृष्णचन्द्रने जब देखा कि देवराज इन्द्र गजराज ऐरावतपर विराज- मान हो देवताओंसे घिरकर युद्धके लिये उपस्थित हैं, तब उन्होंने स्वयं शङ्ख बजाया और उसकी ध्वनिसे सम्पूर्ण दिशाओंको भर दिया। साथ ही वज्रोपम बाण- समूहोंकी वर्षा प्रारम्भ कर दी। उस समय दिशाओं और आकाशको बहुसंख्यक बाणोंसे व्याप्त देख समस्त देवता चक्रधारी श्रीकृष्णचन्द्रके ऊपर बाणोंकी वृष्टि करने लगे। नरेश्वर! भगवान् श्रीकृष्णने देवताओंके छोड़े हुए एक-एक अस्त्र-शस्त्रके अपने बाणोंद्वारा लीलापूर्वक सहस्त्र-सहस्त्र टुकड़े कर डाले। पाशधारी वरुणके नागपाशको सर्पभोजी गरुड काट डालते थे। यमराजके चलाये हुए लोकभयंकर दण्डको भगवान् श्रीकृष्णने गदाके आघातसे अनायास ही भूमिपर गिरा दिया। फिर चक्रका प्रहार करके कुबेरकी शिबिकाको तिल-तिल करके काट डाला। सूर्यदेवको क्रोधपूर्ण दृष्टिसे देखकर श्रीकृष्णने हतप्रतिभ कर दिया। महान् अग्नि देवको सामने आया देख श्रीहरिने मुखसे पी लिया। तदनन्तर रुद्रगणोंके द्वारा छोड़े गये त्रिशूलोंको श्रीहरिने रोषपूर्वक चक्रसे छिन्न-भिन्न कर डाला और भुजाओंसे मार-मारकर रुद्रोंको धराशायी कर दिया। भूपते ! तदनन्तर मरुद्रण, साध्यदेव और विद्याधरोंने माधवके ऊपर वाणसमूहोंकी वर्षा आरम्भ की। बाणोंकी वर्षा करती हुई समस्त देवसेनाको सामने आयी देख सत्यभामाको युद्धस्थलमें बड़ा भारी भय हो गया। उन्हें डरी हुई देख गोविन्दने कहा- ‘सत्ये! भय न करो। मैं यहाँ आयी हुई सारी देवसेनाका संहार कर डालूँगा, इसमें संशय नहीं है’ ॥ १-११ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 1 to 5)

– ऐसा कहकर कुपित हुए भगवान् श्रीकृष्णने र्शाङ्गधनुषसे छूटे हुए बाणोंद्वारा देवताओंको उसी प्रकार मार भगाया, जैसे सिंह अपने पञ्जोंकी मारसे सियारोंको खदेड़ देता है। तदनन्तर कंसनिषूदन श्रीकृष्णने कुपित होकर गरुडसे कहा- ‘विनता- नन्दन ! तुमने इस रणमण्डलमें युद्ध नहीं किया।’ यह सुनकर विष्णुरथ गरुडने कुपित हो पत्नीसहित श्रीकृष्णको कंधेपर धारण किये हुए ही पों और पंखोंसे तत्काल युद्ध आरम्भ कर दिया। वे अपनी चोंचसे देवताओंको चबाते और घायल करते हुए युद्धभूमिमें विचरने लगे। गरुडकी मार खाकर देवता- लोग इधर-उधर भागने लगे। राजन् ! इन्द्र और उपेन्द्र दोनों महाबली वीर एक-दूसरेपर बाणोंकी वर्षा करते हुए जलकी धारा बरसानेवाले दो मेघोंके समान शोभा पाते थे। राजेन्द्र ! उस समय गरुड ऐरावत हाथीके साथ युद्ध करने लगे। हाथीने अपने दाँतोंके आघातसे गरुडको चोट पहुँचायी और गरुडने भी अपनी चोंच और पंखोंकी मारसे ऐरावतको छिन्न-भिन्न कर डाला ॥ १२-१७॥

यदुकुलतिलक श्रीकृष्ण अकेले ही समस्त देवताओं तथा वज्रधारी इन्द्रके साथ जूझ रहे थे। भगवान् श्रीकृष्ण इन्द्रपर और इन्द्र मधुसूदन श्रीकृष्णपर क्रोधपूर्वक बाणोंकी वर्षा करने लगे। वे दोनों एक-दूसरेको जीतनेकी इच्छा लिये जूझ रहे थे। जब सारे अस्त्र-शस्त्र और बाण कट गये, तब इन्द्रने तत्काल ही वज्र उठा लिया और भगवान् श्रीकृष्णने चक्र हाथमें ले लिया। देवेश्वरको वज्र और नरेश्वर श्रीकृष्णको चक्र हाथमें लिये देख उस समय चराचर प्राणियोंसहित तीनों लोकोंमें हाहाकार मच गया। वज्रधारी इन्द्रके चलाये हुए वज्रको भगवान् श्रीकृष्णने बायें हाथसे पकड़ लिया, परंतु अपना चक्र उनपर नहीं छोड़ा। केवल इतना ही कहा ‘खड़ा रह, खड़ा रह।’ इन्द्रके हाथमें वज्र नहीं था। गरुडने उनके वाहनको क्षत-विक्षत कर दिया था। वे लज्जित और भयभीत होकर भागने लगे। उन्हें इस दशामें देखकर सत्यभामा हँसने लीं ॥ १८-२३ ॥

राजन् ! उधर शचीने जब देखा कि इन्द्र युद्धमें पीठ दिखाकर चले आये, तो वे रोषसे आगबबूला हो गयीं और फटकारकर बोलीं- ‘देवेश्वर ! आप देवताओंकी विशाल सेनाके साथ रहकर माधवके साथ युद्ध कर रहे थे, तथापि उन्होंने अकेले ही रणक्षेत्रमें आपको पराजित कर दिया। अतः आपके बल-पराक्रमको धिक्कार है। देवाधम । तुम चुपचाप तमाशा देखो। मैं स्वयं युद्धस्थलमें जाकर श्रीकृष्ण- को परास्त करूँगी और पारिजातको छुड़ा लाऊँगी, इसमें संदेह नहीं’ ॥ २४-२५॥

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! ऐसा कहकर क्रोधसे भरी हुई शची शीघ्र ही शिविकापर आरूढ़ हो युद्धकी इच्छासे प्रस्थित हुईं। फिर समस्त देवता उनके साथ युद्धके मैदानमें गये। शचीको आयी देख श्रीकृष्णके मनमें युद्धके लिये उत्साह नहीं हुआ। तब सत्यभामाके अधर रोषसे फड़कने लगे। वे श्रीहरिसे बोलीं- ‘प्रभो! अब मैं शचीके साथ युद्ध करूँगी।’ उनकी बात सुनकर श्रीकृष्णने हँसते हुए सुदर्शन चक्र उनके हाथमें दे दिया और स्वयं पारिजातको गरुडपर रखकर उसे पकड़ लिया। जब श्रीहरिप्रिया सत्यभामा क्रोधपूर्वक युद्ध करनेपर उतर आयीं, तब ब्रह्माण्डमें सर्वत्र महान् कोलाहल मच गया। नरेश्वर! ब्रह्मा और इन्द्र आदि सब देवता भयभीत हो गये। राजन् ! उसी समय इन्द्रकी प्रेरणासे देवगुरु बृहस्पतिजी वहाँ आये। आकर उन्होंने युद्धकी इच्छा रखनेवाली पुलोमपुत्री शचीको रोका ॥ २६-३१ ॥

श्रीबृहस्पति बोले- शची। मेरी बात सुनो। यह अनेक प्रकारकी बुद्धि और विचार देनेवाली है। श्रीकृष्ण तो साक्षात् भगवान् हैं और बुद्धिमती सत्यभामा साक्षात् लक्ष्मी। देवेन्द्रवल्लभे! तुम उनके साथ कैसे युद्ध करोगी? अतः इन्द्रके प्रति अवहेलना छोड़कर घरको लौट चलो। सत्यभामाको पारिजात देकर समस्त देवताओंकी भयसे रक्षा करो। जिनके भयसे हवा चलती है, जिनके डरसे आग जलती और जलाती है, जिनके भयसे मृत्यु सर्वत्र विचरती है, जिनके डरसे सूर्यदेव तपते हैं तथा ब्रह्मा, शिव एवं इन्द्र जिनसे सदा भयभीत रहते हैं, उन श्रीकृष्णको जो भौमासुरका वध करके यहाँ आये हैं, तुम अच्छी तरह नही जानतीं ॥ ३२-३६ ॥

श्रीगर्गजी कहते हैं- देवगुरुकी यह बात सुनकर शची लज्जित हो सत्यभामा और श्रीकृष्णको नमस्कार करके अपने-आपको धिक्कारती हुई घरको लौट गयीं। तत्पश्चात् लज्जित हुए इन्द्रको नमस्कार करते देख श्रीकृष्णप्रिया सत्यभामाने कहा- ‘देवेन्द्र ! अपने हाथसे वज्रके निकल जानेसे लज्जाका अनुभव न करो। द्वन्द्व युद्धमें दोर्मेसे एककी पराजय अवश्यम्भावी है।’ उनका यह कथन सुनकर पाकशासन बोले ॥ ३७-३९ ॥(Ashwamedh Khand Chapter 1 to 5)

इन्द्रने कहा- देवि ! जिस आदि और मध्यसे रहित परमात्मामें यह सम्पूर्ण जगत् विद्यमान है, जिनसे इसकी उत्पत्ति हुई है तथा जिन सर्वभूतमय परमेश्वरसे ही इसका संहार होनेवाला है, उन सृष्टि, पालन और संहारके कारणभूत परमेश्वरसे पराजित हुए पुरुषको लज्जा कैसे हो सकती है? जो समस्त भुवनोंकी उत्पत्तिके स्थान हैं, जिनकी अत्यन्त सूक्ष्म मूर्ति जिनका निर्गुण-निराकार शरीर कुछ और ही है, अर्थात् अनिर्वचनीय होनेके कारण जिसका शब्दोंद्वारा प्रति पादन नहीं हो सकता, जो समस्त ज्ञातव्य तत्त्वोंके जानकार हैं, ऐसे सर्वज्ञ महात्मा ही जिनके उस स्वरूप को जान पाते हैं, दूसरे लोग उसे कदापि नहीं जानते हैं उन्हीं अजन्मा, नित्य, सनातन परमेश्वरको, जो स्वेच्छासे ही जगत्के उपकारके लिये मानव शरीर धारण करके विराज रहे हैं, कौन जीत सकता है? ॥ ४०-४१ ॥

सत्यभामासे ऐसा कहकर इन्द्र चुप हो गये, तब भगवान् श्रीकृष्ण हँसकर गम्भीर वाणीमें बोले- ‘शक्र ! आप देवताओंके राजा हैं और हमलोग भूतलवासी मनुष्य। मैंने यहाँ आकर जो अपराध किया है, उसे क्षमा कर दें। देवराज! यह रहा आपका पारिजात, इसे इसके योग्य स्थानपर ले जाइये। मैंने तो सत्यभामाके कहनेसे इसको ले लिया था। आपने मुझपर जिसका प्रहार किया था, वह वज्र यह रहा; इसे ग्रहण कीजिये। शुनासीर! यह आपका ही अस्त्र है और आपके वैरियोंपर प्रयुक्त होकर यह उनका निवारण कर सकता है॥ ४२-४५ ॥

इन्द्रने कहा- श्रीकृष्ण । अपने विषयमें ‘मैं मनुष्य हूँ’- ऐसा कहकर आप क्यों मुझे मोहमें डाल रहे हैं? हम जानते हैं, आप जगदीश्वर हैं। हम आपके सूक्ष्म स्वरूपको नहीं जानते। नाथ! आप जो हों, सो हों, जगत के उद्धारकार्यमें आप लगे हुए हैं। गरुडध्वज ! आप जगत के कण्टकॉका शोधन करते हैं। श्रीकृष्ण ! इस पारिजातको आप द्वारकापुरीमें ले जाइये। जब आप मनुष्यलोकको त्याग देंगे, तब यह भूतलपर नहीं रहेगा। गोविन्द ! उस समय यह स्वयं ही स्वर्गलोकमें आ जायगा ॥ ४६-४८ ॥

श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन् ! यह विनययुक्त वचन सुनकर वज्रधारीको उनका वज्र लौटाकर, देवेश्वरोंसे अपनी स्तुति सुनते हुए द्वारकानाथ श्रीकृष्ण द्वारकामें लौट आये। वहाँके आकाशमें स्थित होकर उन्होंने शङ्ख बजाया। नरेश्वर। उस शङ्खध्वनिसे उन्होंने द्वारकावासियोंके हृदयमें आनन्द उत्पन्न किया और गरुडसे उतरकर सत्यभामाके साथ महलमें आये। उन्होंने सत्यभामाके गृहोद्यानमें पारिजातको आरोपित कर दिया। उसपर स्वर्गीय पक्षी निवास करते थे और वहींके भ्रमर उसके सुगन्धित मकरन्दका पान करते थे। माधवने माधवमासमें एक ही मुहुर्तके भीतर अलग-अलग घरोंमें उन समस्त राजकन्याओंके साथ धर्मतः विवाह किया, जिन्हें वे प्राग्ज्योतिषपुरसे द्वारका- में लाये थे। उनकी रानियोंकी संख्या सोलह हजार एक सौ आठ थी। परिपूर्णतम श्रीहरिने उतने ही रूप बनाकर उनके साथ विवाह किया। उन अमोघगति परमेश्वरने जितनी अपनी भार्याएँ थीं, उनमेंसे प्रत्येकके गर्भसे दस-दस पुत्र उत्पन्न किये ॥ ४९-५५ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिताके अन्तर्गत अश्वमेधखण्डमें ‘पारिजातका आनयन’
नामक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५॥

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