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Garga Samhita Shri Vigyankhand Chapter 6 to 10

Garga Samhita
Garga Samhita Shri Vigyankhand Chapter 6 to 10

श्रीगणेशाय नमः

Garga Samhita Shri Vigyankhand Chapter 6 to 10 |
श्री गर्ग संहिता के श्री विज्ञानखंड अध्याय 6 से 10 तक

श्री गर्ग संहिता में श्री विज्ञानखंड के छठे (Shri Vigyankhand Chapter 6 to 10) अध्याय में मन्दिर निर्माण तथा विग्रह प्रतिष्ठा एवं पूजा की विधि का वर्णन किया गया है। सातवाँ अध्याय में नित्यकर्म और पूजा-विधि का वर्णन कहा है। आठवाँ अध्याय में पूजा-विधि का वर्णन है। नवाँ अध्याय में पूजोपचार तथा पूजन प्रकार का वर्णन और दसवाँ अध्याय में परमात्मा का स्वरूप निरूपण कहा गया है।

यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक

छठा अध्याय

मन्दिर निर्माण तथा विग्रह प्रतिष्ठा एवं पूजा की विधि

राजा उग्रसेनने पूछा- मुने ! गृहस्थ कर्म- ग्रहसे ग्रस्त रहता है। ऐसी कौन-सी विधि है, जिसके द्वारा यह कर्मासक्त गृहस्थ महात्मा श्रीकृष्णकी सेवा कर सके ? उसे कहनेकी कृपा कीजिये। (साथ ही यह भी बताइये कि) जिसके जीवनमें भक्तिका अङ्कुर ही नहीं है अथवा है तो वह बढ़ता नहीं, ऐसे व्यक्तिसे स्वयं श्रीहरि किस प्रकार प्रसन्न हो सकते हैं ॥ १-२ ॥

श्रीव्यासजी बोले- यदि भक्तिका अङ्कुर न हो तो सत्पुरुषोंका सङ्ग करना चाहिये। सत्सङ्गसे वह अङ्कुर उत्पन्न हो सकता है और वेगसे बढ़ भी जाता है। राजन् ! भगवान् श्रीकृष्णके सेवनकी विधि, जिसके प्रभावसे यह गृहस्थ भी शीघ्र भगवान् श्रीकृष्णको प्राप्त कर सकता है और जो अत्यन्त सुलभ है, बह तुम्हें मैं बतलाता हूँ। जिनकी आचार्यके सत्कुलमें उत्पत्ति हुई हो तथा जो भगवान् श्रीकृष्णके ध्यानमें तत्पर हों, उनको गुरु बनाकर मनुष्य सिद्धि पाता है। मनुष्यको चाहिये कि वह ऐसे गुरुसे महात्मा श्रीकृष्णकी सेवा-विधि सीखे। जो भगवान् विष्णुकी दीक्षासे रहित है, उसका सब कुछ निष्फल हो जाता है। गुरुहीन मानवका दर्शन करनेपर पुरुषका पुण्य नष्ट हो जाता है॥ ३-७ ॥(Shri Vigyankhand Chapter 6 to 10)

सनातन भगवान श्रीहरिका मन्दिर उत्तरमुख बनवाना चाहिये। उसमें ऊँचा आसन स्थापित करके उसके ऊपर कलशसे सुशोभित पीठ स्थापित करे। उसमें तीन सीढ़ी बनाये, जिनके नाम सत्, चित् एवं आनन्द रखे। आसनको मूल्यवान् वस्त्रसे ढककर उसपर रूईकी गद्दी बिछा दे। उसके आसपास तकिये लगाकर उन्हें स्वर्णके तारोंसे निर्मित वस्त्रसे ढक दे। दीवालोंपर भाँति-भाँतिके चित्र अङ्कित करे और भीतर पर्दा लगा दे। सब ओर मण्डप बनाये तथा तोरण-बंदनवार, झरोखे, जलके फुहारे तथा जालियोंसे मन्दिरको खूब सजाया जाय। मन्दिरके आँगनमें चाँदीके सुन्दर सभामण्डप बनाये जायें। वहाँ आँगनके बीच तुलसीजीका मनोहर चबूतरा हो। मन्दिरके बाहरी द्वारपर दो हाथी बनवाने चाहिये। राजन् ! वैसे ही बनावटी दो सिंह भी बैठा दे। मन्दिरका शिखर सोनेका हो। शिखरपर उसके नीचे चक्र बनवा दे। मन्दिरके द्वारपर अगल-बगल श्रीहरिके मङ्गलमय नाम लिखने चाहिये। दीवालपर एक ओर गदा, पद्म, शङ्ख और शार्ङ्गधनुष अङ्कित कराये। बार्थी और तरकस और दाहिनी तरफ केवल बाणकी चित्रकारी बनवाये। मन्दिरके पिछले भागमें शतचन्द्र नामक ढाल, नन्दक नामवाली तलवार, हल और मुसल प्रयत्नपूर्वक अङ्कित कराये। सिंहासनकी पीठपर गोपियों तथा गौओंको, उसकी सीढ़ीपर गोपालोंको और किवाड़पर ‘जय’ एवं ‘विजय’ लिखे। देहलीपर कल्पवृक्ष, खंभोंपर मनोहर लताएँ, जहाँ-तहाँ दीवालों पर पापनाशिनी गङ्गा, यमुना, वृन्दावन, गोवर्द्धन, चीरहरण तथा रासमण्डल आदिके लीलाचित्र अङ्कित कराये। फिर प्रयत्न करके चित्रकूट, पञ्चवटी, राम एवं रावणका युद्ध अङ्कित कराये, किंतु उसमें जानकी- हरणका प्रसङ्ग अङ्कित न कराया जाय। दसों अवतारोंके चित्र, नरनारायणाश्रम (बदरिकाश्रम), सातों पुरियाँ, तीनों ग्राम, नौ वन और नौ ऊसर भूमिके चित्र अङ्कित कराये। बुद्धिमान् पुरुष इस प्रकारके चित्रोंको अङ्कित कराके मन्दिरका निर्माण कराये। तदनन्तर उसमें भगवान् श्रीकृष्णके विग्रहकी स्थापना करे। श्रीकृष्णकी किशोर अवस्था हो और वे हाथमें बाँसुरी लिये उसे बजाना ही चाहते हों तथा उनका दाहिना पैर टेढ़ा हो इस प्रकारका रूप सेवाके लिये सर्वोत्तम माना गया है। भक्त परम भक्तिके साथ इस प्रकारके विग्रहस्वरूपकी शीघ्र ही गुरुके द्वारा मन्दिरमें प्रतिष्ठा करा दे और फिर अत्यन्त भावके साथ सेवामें तत्पर हो जाय। जीभको भगवान्के प्रसादके रसमें, नासिकाको तुलसीदलकी सुगन्धमें और कानोंको भगवान के कथा-श्रवणमें लगा दे। इस प्रकार सेवा- परायण हो जाय। भागवतोत्तम पुरुषोंका कहना है कि जो भावको जाननेवाला पुरुष रात-दिन श्रीकृष्णकी सेवा करता है, वही प्रेम-लक्षणसम्पन्न उत्तम भक्त है। राजन् ! एक हजार अश्वमेध और सौ राजसूय यज्ञ भगवान् श्रीकृष्णके सेवनकी सोलहवीं कलाके एक अंशके बराबर भी नहीं हैं। जो मनुष्य श्रीकृष्णचन्द्रकी लीलाकथा तथा सेवाके उपदेशकका भी दर्शन कर लेता है, वह करोड़ों जन्मके किये हुए पापोंसे छूट जाता है-इसमें कोई संशय नहीं है। देहावसान हो जानेपर उसे ले जानेके लिये श्यामसुन्दरके समान मनोहर विग्रहवाले भगवान् के पार्षद गोलोकसे रथ लेकर दौड़े आते हैं॥ ८-२८॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीविज्ञानखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘मन्दिरनिर्माण तथा
विग्रह-प्रतिष्ठा एवं पूजाकी विधि’ नामक छठा अध्याय पूरा हुआ ॥ ६ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ सनातन धर्म में कितने शास्त्र-षड्दर्शन हैं।

सातवाँ अध्याय

नित्यकर्म और पूजा-विधिका वर्णन

श्रीवेदव्यासजी बोले- राजन् ! ब्राह्ममुहूर्तमें उठकर भगवान् गोविन्द, गुरुदेव और कश्यप आदि ऋषियोंके नामोंका बारंबार उच्चारण करे। तत्पश्चात् वह हरिभक्त भूमिको प्रणाम करके जमीनपर पैर रखे। फिर वह सकाम भक्त आचमन करके तत्काल आनन्द- पूर्वक आसनपर बैठ जाय। हाथोंको गोदमें रखकर श्वास रोककर (गुरुदेवका) ध्यान करे-‘ भगवान् गुरुदेव ज्ञानमुद्रा धारण किये हुए हैं, उनका स्वरूप अत्यन्त शान्त है और वे स्वस्तिकासनसे विराज रहे हैं।’ यों गुरुदेवका ध्यान करनेके पश्चात् भक्त एकाग्र-मन होकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका ध्यान करे-‘ श्रीकृष्णचन्द्रकी अवस्था किशोर है, श्यामल श्रीविग्रह है, जो करोंमें वंशी एवं बेंतसे विभूषित, अत्यन्त ही मनोहर है।’ इस प्रकार श्रीहरिका ध्यान करनेके पश्चात् बाहर चला जाय। महाराज ! गृहस्थ पुरुष कैसे पवित्र होता है- अब उस विधानको पूरा- पूरा सुनो ॥ १-५॥(Shri Vigyankhand Chapter 6 to 10)

मिट्टी लेकर ‘अश्वक्रान्ते’ इत्यादि मन्त्रसे शौचके अन्तमें एक बार लिङ्गमें, तीन बार गुदामें, दस बार बायें हाथमें, सात बार दोनों हाथोंमें तथा तीन-तीन बार प्रत्येक पैरमें मिट्टी और जल लगाकर शुद्धि करे। ब्रह्मचारी और वानप्रस्थको इससे दूना करना चाहिये। भगवान की सेवा करनेवाले संन्यासीकी शुद्धि इससे चौगुना करनेपर होती है। रोगी और पथिकोंकी इसके आधेसे तथा शूद्र एवं स्त्रीका उससे भी आधेसे पवित्र होनेका विधान है। शौचकर्मसे रहित मनुष्यकी सारी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं। मुखकी शुद्धि भी होनी चाहिये; क्योंकि मुखशुद्धिसे रहित मनुष्यको मन्त्र फल देनेवाले नहीं होते। ‘वनस्पते! तुम मेरे लिये आयु, बल, वीर्य, यश, पुत्र, पशु, धन, ब्रह्मज्ञान और प्रज्ञा प्रदान करो। इस मन्त्रका उच्चारण करके दातुन ग्रहण करे। बबूल, दूधवाले वृक्ष, कपास, निर्गुण्डी आँवला, वट, एरंड और दुर्गन्धयुक्त वृक्ष दातुन- के लिये निषिद्ध हैं। फिर हाथ जोड़े हुए ‘हरितहय’ इस मन्त्रके उच्चारणपूर्वक भगवान् सूर्यको प्रणाम करे। तदनन्तर स्वस्थचित्त हो प्रह्लाद आदि भगवान् श्रीहरिके भक्तोंको प्रणाम करे। तुलसीकी मिट्टी लगाकर स्नान करे। स्रान करते समय ‘श्रीगङ्गाष्टक’ और ‘यमुनाष्टक’ का सविधि पाठ करना चाहिये। अयोध्या, मथुरा, मायावती (हरद्वार), काशी, काञ्ची, अवन्तिका (उज्जैन) और द्वारावतीपुरी (द्वारका)- ये सात पुरियाँ मोक्ष देनेवाली हैं। (अतः इनका भी स्मरण करना चाहिये।) महायोगमें शालग्राम, हरिमन्दिरमें सम्भलग्राम और कोसलमें नन्दिग्राम-ये तीन ग्राम कहे गये हैं (इन तीन ग्रामोंका स्मरण करे)। दण्डकारण्य, सैन्धवारण्य, जम्बूमार्ग, पुष्कल, उत्पलावर्त, – नैमिषारण्य, कुरुजाङ्गल, अर्बुद और हेमन्त-ये नौ अरण्य माने गये हैं। इन सभी तीर्थोंके नाम बारंबार उच्चारण करके स्नान करे। स्नानके बाद उत्तम रेशमी (अहिंसायुक्त) वस्त्र पहने। बारह तिलक और आठ मुद्राएँ धारण करे। फिर संध्या करके पवित्र हो मौन होकर भगवान् श्रीकृष्णके मन्दिरमें जाय ॥ ६-१९ ॥

घण्टा-ताली बजाकर, ‘जय हो, जय हो’ इत्यादि शब्दोंका उच्चारण करते हुए कहे ‘उत्तिष्ठोत्तिष्ठ गोविन्द योगनिद्रां विहाय च। ”भगवान् गोविन्द ! योगनिद्राका परित्याग करके उठिये-उठिये राजन् ! भगवान को उठानेका यह (स्मार्त) मन्त्र है। इसका उच्चारण करके श्रीहरिको जगाये। तत्पश्चात् मङ्गल-आरती लेकर भगवान के मुखपर घुमाये। तदनन्तर देश एवं कालके प्रभावको जाननेवाला तथा भावका ज्ञाता वह भक्त (तदनुकूल ही) भगवान को स्नान कराकर मङ्गलमय वस्त्राभूषणोंके द्वारा भगवान का श्रृंगार करे। पश्चात् आरती करके भगवान को अन्नभोग अर्पण करे। भाँति-भाँतिके रसमय उत्तम भोज्य पदार्थोंका महाभोग निवेदन करके महाभोगकी आरती करे। तदनन्तर भगवान को शयन कराये। इसके बाद तुलसीकी गन्धसे युक्त परम प्रसादको नित्यप्रति स्वयं ग्रहण करे। जो नित्य इस प्रकार भगवान की पूजा करता है, वह कृतार्थ हो जाता है-इसमें कोई संदेह नहीं है। इसके बाद विधिवत्म ध्याह्नका राजभोग निवेदन करके राजभोगकी आरती करे। फिर भगवान को शयन कराये। दिनकी चार घड़ी शेष रहनेपर यथाविधि शङ्ख बजाकर श्रीहरिको उठाये; तदनन्तर संध्याकी आरती करके दूध आदि निवेदन करे। प्रदोषकाल आनेपर प्रदोषकी आरती करे। रातमें उत्तम मिष्टान्नका भोग लगाकर श्रीहरिको शयन कराये। राजेन्द्र ! यह राजसेवा है- राजाओंके लिये ही इस प्रकारकी सेवाका विधान है। अतः इसका नाम ‘राजसी’ है॥ २०-२८ ॥(Shri Vigyankhand Chapter 6 to 10)

भगवान श्रीकृष्ण की सेवा में दत्तचित्त हो सम्यक् प्रकारसे लगा हुआ मनुष्य अपने सौ कुलोंको तारकर आत्यन्तिक परमपदको प्राप्त होता है। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, राधाष्टमी, अन्नकूट, वामन द्वादशी, नृसिंहचतुर्दशी तथा अनन्तचतुर्दशी इन अवसरोंपर भगवान श्रीकृष्ण की महापूजा करनी चाहिये ॥ २९-३० ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीविज्ञानखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘नित्यकर्म और
पूजा-विधिका वर्णन’ नामक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥७॥

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आठवाँ अध्याय

पूजा-विधि का वर्णन

श्रीव्यासजी बोले- तदनन्तर स्नान एवं नित्य नैमित्तिक क्रियाका सम्पादन करके शुद्ध स्थण्डिलपर पाँच रंगोंसे युक्त मण्डल बनाये। वेदकी ऋचाओंद्वारा विधिवत् मङ्गलमय दिव्य उज्ज्वल कमलकी रचना करे। उसमें बत्तीस दल हों और वह केसर और कर्णिकासे युक्त हो। राजन्। कर्णिकाके ऊपर श्रीहरिका सुन्दर सिंहासन स्थापित करके उसपर राधा, रमा, भूदेवी और विरजाकी स्थापना करे। उन देवियोंके मध्यमें साक्षात् पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णको प्रतिष्ठित करे। कमलके आठ दलोंमें राधिकाजीकी मङ्गलमयी आठ सुन्दरी सखियाँ रहें। इसके बाद आठ दलोंमें भगवान् श्रीकृष्णके सखाओंकी स्थापना करे। इसी प्रकार सोलह दलों पर सखियोंके दो-दो समुदाय रहें। फिर बुद्धिमान् पुरुष कमलके समीप शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म, नन्दक नामक तलवार, शार्ङ्गधनुष, बाण, हल, मुसल, कौस्तुभमणि, वनमाला, श्रीवत्स, नीलाम्बर, पीताम्बर, वंशी और बेंत इन सबको स्थापित करे। फिर उसके पार्श्वमें तालध्वज एवं गरुडध्वजसे युक्त रथ, सुमति एवं दारुक नामवाले सारथि, गरुड, कुमुद, नन्द, सुनन्द, चण्ड, प्रचण्ड, बल, महाबल और कुमुदाक्षकी विद्वान् पुरुष यत्नपूर्वक स्थापना करे। इसी प्रकार सब दिशाओंमें पृथक् पृथक् दिक्पालोंको पधराना चाहिये। फिर वहीं विष्वक्सेन, शिव, ब्रह्मा, दुर्गा, लक्ष्मी, गणेश, नवग्रह, वरुण तथा षोडश मातृकाओंको आसन दे। कमलके अगले भागमें वेदीपर पण्डितजन वीतिहोत्रकी स्थापना करें। इसके बाद आवाहन करके आसन, पद्म, विशेषार्घ्य, स्नान, यज्ञोपवीत, वस्त्र, चन्दन, अक्षत, मधुपर्क, फूल, धूप, दीप, आभूषण, स्वादिष्ट नैवेद्य, आचमन, ताम्बूल और दक्षिणा समर्पण करे। प्रदक्षिणा और प्रार्थना करके आरती करे। फिर नमस्कार करे। हर एक कर्मके लिये अलग-अलग विधान है- आवाहनमें पुष्प, आसनमें दो कुशा और पाद्यमें श्यामदूर्वा और अपराजिताका उपयोग करे।(Shri Vigyankhand Chapter 6 to 10) यादव ! अर्घ्यके सुन्दर गन्धवाले पुष्प रखने चाहिये। राजन् ! स्रानके जलमें चन्दन, खस, कपूर, कुङ्कुम और अगुरु मिलावे। महामते ! इसी प्रकारका जल स्रानके लिये उत्तम होता है। मधुपर्कमें आँवला एवं कमल, धूपमें अष्टगन्ध और दीपमें कपूर देना चाहिये। पीले रंगका यज्ञोपवीत, वस्त्रमें पीताम्बर, भूषणके स्थानपर सोना और गन्धके स्थानमें कुङ्कुम तथा चन्दन देने चाहिये। फूलोंमें तुलसीकी मञ्जरी, अक्षतोंमें चावल और नैवेद्यमें नाना प्रकारके पक्वात्र और षट्रस भोजन-पदार्थ उत्तम माने गये हैं। जलमें केवल गङ्गाजल और यमुनाजल। राजन् ! भोजनोपरान्त आचमनके जलमें जायफल और कङ्कोल मिला दे। ताम्बूलमें लौंग और इलायची मिला दे। दक्षिणाके स्थानपर सुवर्ण अर्पण करे। प्रदक्षिणाके प्रकरणमें घूमना और आरतीमें गौका घृत लेना योग्य है। महाराज ! प्रार्थनामें भगवान् श्रीहरिकी प्रेमलक्षण- युक्त भक्ति करना और नमस्कारके स्थानपर अत्यन्त नम्र होकर साष्टाङ्ग दण्डवत् प्रणाम करना चाहिये। तदनन्तर पूजकको चाहिये कि वह पवित्र होकर द्वादशाक्षर मन्त्रसे शिखा बाँध ले और पूजाकी सभी सामग्रियाँ आगे रखकर भगवान्के सामने बैठ जाय ॥ १-२४ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीविज्ञानखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें
‘पूजा-विधिका वर्णन’ नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री गोविंद स्तोत्रम

नवाँ अध्याय

पूजोपचार तथा पूजन प्रकार का वर्णन

श्रीव्यासजी बोले- महाराज! पूजन-सामग्री अर्पण करनेके सुन्दर मन्त्र वेदमें कहे गये हैं। मैं तुम्हारे लिये उनका वर्णन करता हूँ। एकाग्र-मन होकर सुनो ॥ १॥
(मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए पूजा करनी चाहिये। मन्त्र अर्थसहित निम्नलिखित हैं।)

आवाहन-गोलोकधामाधिपते रमापते गोविन्द दामोदर दीनवत्सल।
राधापते माधव सात्वतां पते सिंहासनेऽस्मिन् मम सम्मुखो भव ॥

गोविन्द ! आप गोलोक धामके स्वामी हैं। दीनोंपर दया करना आपका स्वभाव है। दामोदर! आप लक्ष्मी एवं राधिकाजीके प्राणनाथ हैं। यादवोंके अधीश्वर हैं। माधव ! इस सिंहासनपर मेरे सामने आप विराजमान होइये ॥ २ ॥

आसन –
श्रीपद्मरागस्फुरदूर्ध्वपृष्ठं महार्हवैडूर्यखचित्पदाब्जम्।
वैकुण्ठ वैकुण्ठपते गृहाण पीतं तडिद्धाटककुम्भखण्डम् ॥

वैकुण्ठपते ! इस आसनके ऊपरकी पीठपर नीलम चमक रहा है। पायोंमें वैदूर्यमणि (पुखराज) जड़ी गयी है। यह बिजलीके समान चमकती हुई सुवर्णकी कलशियोंसे युक्त है। कृपया आप इसे ग्रहण कीजिये ॥ ३ ॥(Shri Vigyankhand Chapter 6 to 10)

पाद्य-परं स्थितं निर्मलरौक्मपात्रे समाहतं बिन्दुसरोवराद्धि ।
योगेश देवेश जगन्त्रिवास गृहाण पाद्यं प्रणमामि पादौ ॥

देवेश ! स्वच्छ सुवर्णके पात्रमें बिन्दुसरोवरसे लाकर उत्तम जल रखा गया है। योगेश! आप जगत्के अधिष्ठाता हैं। मैं आपके चरणोंको प्रणाम करता हूँ। आप इस पाद्यको स्वीकार करें ॥ ४॥

अर्घ्य –
जलजचम्पकपुष्पसमन्वितं विमलमर्थ्यमनर्घदरस्थितम्।
प्रतिगृहाण रमारमण यदुपते यदुनाथ रमा-रमण प्रभो यदूत्तम॥

प्रभो ! यदुपते ! यदुनाथ ! यदूत्तम ! कमल तथा चम्पाके पुष्पोंसे समन्वित तथा शङ्खमें भरे हुए इस निर्मल उत्तम अर्घ्यको ग्रहण करें ॥ ५॥

ज्ञान-काश्मीरपाटीरविमिश्रितेन सुमल्लिकोशीरवता जलेन।
स्त्रानं कुरु त्वं यदुनाथ देव गोविन्द गोपालक तीर्थपाद ॥

गोविन्द ! आप यादवोंके स्वामी तथा गौओंकी रक्षा करनेवाले हैं। आपके चरण तीर्थस्वरूप हैं। भगवन्! केसर, चन्दन, चमेली और खससे सुवासित यह जल है। आप इससे स्नान कीजिये ॥ ६ ॥

मधुपर्क-मध्याह्रचण्डार्कभवश्रमापहं सिताङ्गसम्पर्कमनोहरं परम्।
गृहाण विष्णो मधुपर्कमेनं परम्। संदृश्य पीताम्बर सात्वतां पते ॥

यदुपते ! आप पीताम्बर धारण करनेवाले हैं। आपके लिये मधुपर्क तैयार है। यह मध्याह्नके प्रचण्ड मार्तण्डके उत्तापजनित श्रमको दूर करनेवाला है। मिश्रीके मिल जानेसे यह अत्यन्त मनोहर हो गया है। भगवन् ! आप इसकी ओर दृष्टि डालकर इसे स्वीकार करनेकी कृपा करें ॥ ७ ॥

वस्त्र-विभो सर्वतः प्रस्फुरत् प्रोज्ज्वलं च स्फुरद्रश्मिशून्यं परं दुर्लभं च।
स्वतो निर्मितं पद्मकिञ्जल्कवर्ण गृहाणाम्बरं देव पीताम्बराख्यम् ॥

प्रभो! ‘पीताम्बर’ नामक वस्त्र प्रस्तुत है। इसकी प्रभा अत्यन्त उज्ज्वल है, इसकी किरणें सब ओर छिटक रही हैं। परम दुर्लभ यह वस्त्र अपने-आप बना हुआ है। कमलके केसर-जैसा इसका रंग है। कृपया आप इसे ग्रहण करें ॥ ८ ॥

यज्ञोपवीत –
सुवर्णाभमापीतवर्णं सुमन्त्रैः परं प्रोक्षितं वेदविन्निर्मितं च।
शुभं पञ्चकार्येषु नैमित्तिकेषु प्रभो यज्ञ यज्ञोपवीतं गृहाण ॥

भगवन् ! सुवर्णके समान चमचमाता हुआ हलके पीले वर्णका यह यज्ञोपवीत है। उत्तम मन्त्रोंद्वारा भलीभाँति इसका प्रोक्षण हुआ है। वेदज्ञ ब्राह्मणोंने इसकी रचना की है। पाँच नैमित्तिक कर्मोंमें इसका उपयोग कल्याणदायक होता है। प्रभो! आप इसे ग्रहण कीजिये ॥ ९ ॥(Shri Vigyankhand Chapter 6 to 10)

आभूषण-कनकरत्रमयं मयनिर्मितं मदनरुक्कदनं सदनं रुचाम्।
उषसि पूषसुवर्णविभूषणं सकललोकविभूषण गृह्यताम् ॥

अखिललोकविभूषण ! सोने एवं रत्नोंसे बना हुआ यह सुवर्णमय भूषण उपस्थित है। यह मयके हाथकी कारीगरी है। कामदेवकी कान्तिको फीका करनेवाला यह प्रभाका भंडार है। भगवन् ! प्रातः- कालीन सूर्यके समान चमचमाता यह भूषण आप स्वीकार कीजिये ॥ १० ॥

गन्ध-संध्येन्दुशोभं बहुमङ्गलं श्री काश्मीरपाठीरकपङ्कयुक्तम्।
स्वमण्डनं गन्धचयं गृहाण समस्तभूमण्डलभारहारिन् ॥

सायंकालके चन्द्रमाके समान शोभायमान, अनेक मङ्गलोंको देनेवाला, केसर एवं कपूरसे युक्त यह गन्ध- राशि आपका अलंकार है। सम्पूर्ण लोकोंके भारको दूर करनेवाले भगवन् ! आप इसे ग्रहण कीजिये ॥ ११ ॥

अक्षत-ब्रह्मावर्ते ब्रह्मणा पूर्वमुप्तान् ब्राहौस्तोयैः सिञ्चितान् विष्णुना च ।
रुद्रेणाराद् रक्षितान् राक्षसेभ्यः साक्षाद् भूमन्त्रक्षतांस्त्वं गृहाण ॥

पहले ब्रह्माने ब्रह्मावर्त देशमें जिन्हें बोया था, भगवान् विष्णुने वेदमय जलसे जिनका सेचन किया तथा शंकरजीने समीप आकर राक्षसोंसे जिनकी रक्षा की, भगवन् ! उन अक्षतोंको स्वयं आप ग्रहण कीजिये ॥ १२ ॥

पुष्प-मन्दारसंतानकपारिजात- कल्पद्रुमश्रीहरिचन्दनानाम्
गृहाण पुष्पाणि हरे तुलस्या मिश्राणि साक्षान्त्रवमञ्जरीभिः ॥

भगवन्! मन्दार, संतानक, पारिजात, कल्पवृक्ष और हरिचन्दनके ये पुष्प उपस्थित हैं। नूतन मञ्जरियोंके साथ तुलसीपत्रोंका भी इनमें सम्मिश्रण हुआ है, आप इन्हें ग्रहण करें ॥ १३ ॥

धूप-लवङ्गपाटीरजचूर्णमिश्र मनुष्यदेवासुरसौख्यदं च।
सद्यः सुगन्धीकृतहर्म्यदेशं द्वारावतीभूप गृहाण धूपम् ॥

द्वारकाधीश ! जो लौंग एवं मलयागिरिके चूर्णसे मिश्रित है, देवता, दानव एवं मनुष्योंको आनन्दित करनेकी जिसमें शक्ति है तथा जो तत्काल महलोंको सुगन्धित बनानेवाला है, ऐसे धूपको आप ग्रहण कीजिये ॥१४ ॥

दीप-तमोहारिणं ज्ञानमूर्ति मनोज्ञं लसद्वर्तिकर्पूरपूरं गवाज्यम्।
जगन्नाथ देव प्रभो विश्वदीप स्फुरज्ज्योतिषं दीपमुख्यं गृहाण ॥

प्रभो! आप जगत के स्वामी एवं विश्वको प्रकाशित करनेवाले हैं। अन्धकारका नाश करनेवाला ज्ञानस्वरूप यह प्रधान दीप आपके लिये तैयार है, जो बत्तियोंसे सजाया हुआ अत्यन्त मनोहर जान पड़ता है। यह गायके घीसे पूर्ण है। साथ ही इसमें कपूर भी छोड़ा गया है। भगवन् ! इस प्रकार चमचमाती हुई लौवाले इस दीपको स्वीकार करें ॥ १५ ॥

नैवेद्य-रसैः शरैर्वेदविधिव्यवस्थितं रसै रसाढभं च यशोमतीकृतम् ।
गृहाण नैवेद्यमिदं सुरोचकं गव्यामृतं सुन्दर नन्दनन्दन॥

नन्दनन्दन । षड्रससे युक्त एवं वेदोक्त विधिसे तैयार किया हुआ नैवेद्य आपके लिये उपस्थित है। यह रसोंसे भरपूर है और यशोदाजीने इसे बनाया है। स्वादिष्ट होनेके साथ गोघृतके प्रयोगसे यह अमृतमय बन गया है। अतः इसे आप ग्रहण कीजिये ॥ १६ ॥(Shri Vigyankhand Chapter 6 to 10)

जल-गङ्गोत्तरीवेगबलात् समुद्धृतं सुवर्णपात्रेण हिमांशुशीतलम् ।
सुनिर्मलाम्भो ह्यमृतोपमं जलं गृहाण राधावर भक्तवत्सल ॥

भक्तवत्सल ! गङ्गोत्तरीकी धारासे यत्नपूर्वक प्राप्त किया हुआ यह अमृतमय जल है, जो हिमालयके टुकड़ेकी भाँति शीतल है। यह सुवर्णके पात्रमें रखा गया है और इससे अति निर्मल आभा निकल रही है। राधावर! आप इसे स्वीकार कीजिये ॥ १७ ॥

कङ्कोलजातीफलपुष्पवासितं परं गृहाणाचमनं दयानिधे ॥

राधापते! आप भगवती विरजाके स्वामी हैं। सर्वेश्वर ! आप लक्ष्मीजीके प्राणनाथ एवं भूमण्डलके अधीश्वर हैं। दयानिधे! कङ्गोल, जायफल और पुष्पोंसे सुवासित यह उत्तम आचमनीय प्रस्तुत है। प्रभो! इसे ग्रहण कीजिये ॥ १८ ॥

ताम्बूल-जातीफलैला सुलवङ्गनाग- वल्लीदलैः पूगफलैश्च संयुतम् ।
मुक्तासुधाखादिरसारयुक्तं गृहाण ताम्बूलमिदं रमेश ॥

रमेश! जायफल, इलायची, लौंग, नागकेसर, सुपारी, मोतीकी भस्म और खैरके सारसे युक्त यह ताम्बूल स्वीकार कीजिये ॥ १९ ॥

दक्षिणा-नाकपालवसुपालमौलिभि- र्वन्दिताङ्घ्रियुगल प्रभो हरे।
दक्षिणां परिगृहाण माधव लोकदक्षवर दक्षिणापते ॥

प्रभो ! नाकपाल और वसुपालोंके मुकुटोंसे आपके युगल चरण-कमलकी पूजा हुई है। आप दक्षिणाके पति हैं। प्राणियोंको धन प्रदान करनेमें आप बड़े कुशल हैं। भगवन्! आप यह दक्षिणा ग्रहण करें ॥ २० ॥

नीराजन – प्रस्फुरत्परमदीप्तिमङ्गलं गोघृताक्तनवपञ्चवर्तिकम्।
आर्तिकं परिगृहाण चार्तिहन् पुण्यकीर्तिविशदीकृतावने ॥

आर्तिहन् । श्रेष्ठ प्रकाशसे युक्त दीप्तिमयी यह मङ्गलमय आरती है। गायके घीसे भीगी हुई चौदह बत्तियाँ इसमें लगी हैं। अपनी पवित्र कीर्तिका विस्तार करनेवाले भगवन्! आप इसे ग्रहण कीजिये ॥ २१ ॥

नमस्कार- नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्त्रमूर्तये सहस्त्रपादाक्षिशिरोरुबाहवे।
सहस्त्रनाम्ने पुरुषाय शाश्वते सहस्त्रकोटीयुगधारिणे नमः ॥

जो अनन्त हैं, जिनके हजारों विग्रह हैं, जिनके चरण, जंघा, बाहु, ऊरु, मस्तक एवं नेत्रोंकी संख्या भी हजारोंकी है, जो नित्य हैं, जिनके हजारों नाम हैं तथा जो करोड़ों युगोंको धारण करनेवाले हैं, उन परम पुरुष भगवान के लिये मेरा नमस्कार है॥ २२॥

प्रदक्षिणा – समस्ततीर्थयज्ञदानपूर्तकादिजं फलम्।
लभेत् परस्य शाश्वतं करोति यः प्रदक्षिणाम् ॥

जो मनुष्य परम प्रभु भगवान की प्रदक्षिणा करता है, उसके लिये सम्पूर्ण तीर्थ, यज्ञ, दान तथा पूर्त (कुँआ, बावली, पोखरा आदि खुदवाने, बगीचा लगवाने आदिसे उत्पन्न हुआ) फल सुलभ हो जाता है ॥ २३ ॥(Shri Vigyankhand Chapter 6 to 10)

प्रार्थना-हरे मत्समः पातकी नास्ति भूमौ तथा त्वत्समो नास्ति पापापहारी।
इति त्वं च मत्वा जगन्नाथ देव यथेच्छा भवेत्ते तथा मां कुरु त्वम् ॥

भगवन् ! जगत्में मेरे समान कोई पापी नहीं है और आपके समान कोई पापका हरण करनेवाला भी नहीं है। प्रभो! यह समझकर, हे जगन्नाथ! फिर आपको जो उचित जान पड़े, वैसा ही मेरे साथ कीजिये ॥ २४ ॥

स्तुति-संज्ञानमात्रं सदसत्परं मह च्छश्वत्प्रशान्तं विभवं समं महत्।
त्वां ब्रह्म वन्दे हि सुदुर्गमं परं सदा स्वधाप्ना परिभूतकैतवम् ॥

जो चेतनास्वरूप हैं, सत् एवं असत्से परे हैं, जो नित्य हैं, जिनका विरारूप है, जो शान्तमूर्ति हैं, ऐश्वर्यस्वरूप हैं, सर्वत्र सम हैं, जिन्हें पाना अत्यन्त कठिन है तथा जिन्होंने अपने तेजसे मायाको सदा तिरस्कृत कर रखा है, उन आप परम ब्रह्मकी मैं वन्दना करता हूँ ॥ २५ ॥

महामते! इस प्रकार इन मन्त्रोंद्वारा देवेश्वर भगवान की पूजा करे। फिर श्रीविष्णुको प्रणाम करके यत्नपूर्वक उनके सर्वाङ्गका पूजन करना चाहिये।

फिर-
ॐ नमो नारायणाय पुरुषाय महात्मने।
विशुद्धसत्वधीस्थाय महाहंसाय धीमहि ।।
(२७)
– इस मन्त्रका उच्चारण करके प्राणायाम करे। तदनन्तर भगवान् विष्णु, मधुसूदन, वामन, त्रिविक्रम, श्रीधर, हृषीकेश, पद्मनाभ, दामोदर, संकर्षण, वासुदेव, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, अधोक्षज और भगवान पुरुषोत्तम श्रीकृष्णके लिये मेरा नमस्कार है। (यों नमस्कार करना चाहिये।)

इसी प्रकार पैर, गुल्फ, जानु, ऊरु, कटि, उदर, पीठ, भुजा, कंधे, कान, नाक, अधर, नेत्र और भगवान के सिरमें मैं अलग-अलग पूजा करता हूँ- यों कहकर सर्वाङ्ग-पूजा करनी चाहिये।

फिर सखी, सखा, शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म, असि, धनुष, बाण, हल, मुसल, कौस्तुभमणि, वनमाला, श्रीवत्स, पीताम्बर, नीलाम्बर, वंशी, बेंत आदि तथा तालध्वज एवं गरुडध्वजसे युक्त रथ, दारुक और सुमति सारथि, गरुड, कुमुद, नन्द, सुनन्द, चण्ड महाबल, कुमुदाक्ष आदि एवं विष्वक्सेन, शिव, ब्रह्मा, दुर्गा, गणेश, दिक्पाल, वरुण, नवग्रह और षोडश- मातृकाओंका आवाहन करे। इनके नामके साथ ॐकार लगाकर चतुर्थ्यन्तका प्रयोग करके ‘नमः’ शब्द जोड़ दे। तत्पश्चात् मन्त्रोंद्वारा इन सबका पूजन करे।

ॐ नमो वासुदेवाय नमः संकर्षणाय च।
प्रद्युम्नायानिरुद्धाय सात्वतां पतये नमः ॥

– इस मन्त्रसे सौ बार आहुति देनी चाहिये। फिर भगवान की प्रदक्षिणा करके महाभोग निवेदित करे। तत्पश्चात् पृथ्वीपर साष्टाङ्ग दण्डवत् प्रणाम करके यह मन्त्र पढ़े- ‘ध्येयं सदा’ इत्यादि। (इसका भाव यह है-) जो निरन्तर ध्यान करने योग्य हैं, जिनके प्रभावसे अपमानित नहीं होना पड़ता, जो मनोरथको पूर्ण करनेवाले हैं, जो तीर्थोंके आधार हैं, शिव एवं ब्रह्माजीने जिनका स्तवन किया है, जो शरण देनेमें कुशल हैं, भृत्योंका दुःख दूर करना जिनका स्वभाव है, जो प्रणतजनोंका पालन करनेवाले तथा संसाररूपी समुद्रके लिये जहाज हैं, भगवान् पुरुषोत्तम! आपके उन चरण-कमलोंको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ २६-३० ॥(Shri Vigyankhand Chapter 6 to 10)

राजन् ! इस प्रकार भक्त भगवान को प्रणाम करके भगवद्भक्तोंके साथ विधिवत् पुनः आरती करे। उस समय विवेकी पुरुषको चाहिये कि घड़ी, घण्टा, वीणा, बाँसुरी, करताल और मृदङ्ग आदि बाजोंके साथ भगवान का कीर्तन करे। उस समय भगवद्भक्तजन प्रेममें विह्वल हुए भगवान के सामने नाचते हैं, उनके जय-जयकारकी ध्वनि प्रकट करते रहते हैं। और वे भगवान की सुन्दर लीला-कथाका गान करने लगते हैं। तदनन्तर प्रभुको पुनः नमस्कार करके सूर्यके समान उज्ज्वल मन्दिरमें महात्मा श्रीकृष्णचन्द्रको भलीभाँति शयन कराये ॥ ३१-३४॥

राजन् ! इस प्रकार जो दत्तचित होकर भगवान् श्रीकृष्णकी सेवा करता है, उसे स्वर्गके रहनेवाले देवतालोग प्रणाम किया करते हैं। महाराज! वह श्रीहरिका भक्त भी मृत्युके अवसरपर स्वर्गमें पैर रखकर भगवान्के परमधाम गोलोकको, जो योगियोंके लिये भी दुर्लभ है, चला जाता है। यह भगवान श्रीकृष्णचन्द्रकी सेवाका विधान है। मैंने इसका वर्णन कर दिया।यह मनुष्योंको चारों पदार्थ देनेवाला है। अब तुम फिर क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ३५-३७ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीविज्ञानखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें
‘पूजोपचार तथा पूजन-प्रकारका वर्णन’ नामक नवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ९ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय

दसवाँ अध्याय

परमात्मा का स्वरूप निरूपण

राजा उग्रसेनने कहा- आप भगवान्श्री कृष्णके स्वरूप हैं। आपने मेरे ऊपर बड़ी कृपा की। आपके श्रीमुखसे साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णकी पूजा पद्धति विस्तारपूर्वक मैंने सुन ली। इससे मैं सफल जीवन हो गया। अहो! प्राणियों में बड़ी मूर्खता भरी हुई है। वे लोभ, मोह और मदके कारण मतवाले हो गये हैं। इसीसे उन्हें विराग उत्पन्न नहीं होता और न कभी वे भगवान का भजन ही करते हैं। भगवन् । जगत्की यह मोहिका शक्ति बड़ी अद्भुत है। प्रभो! यह मोह कैसे उत्पन्न हुआ और किस प्रकार इसकी निवृत्ति होगी, यह बतानेकी कृपा कीजिये ॥१-३॥

श्रीव्यासजी बोले- जिस प्रकार जलमें कई चन्द्रमा दिखायी पड़ते हैं, जलके चञ्चल वेगसे वे दृष्टिगोचर होते हैं, किंतु वास्तवमें हैं कुछ नहीं, बिलकुल प्रतिबिम्ब मात्र हैं, ठीक वैसे ही परम प्रभुकी प्रतिबिम्बरूपी यह माया फैली हुई है। उसीके प्रभावसे ‘मेरा और मैं’ का भाव उत्पन्न हो जानेपर संसार कायम हो जाता है। माया, काल, अन्तःकरण और देहसे गुणोंकी उत्पत्ति होती है। मनुष्य इनके द्वारा विपरीत कर्म करता हुआ बन्धनमें पड़ जाता है। इन्द्रियोंका ही यह प्रभाव है कि दर्पणमें बालक, बालूमें जल और रस्सीमें साँपका भान होने लगता है। राजन् ! यह जगत् मोहमय है। इसमें रजोगुण और तमोगुण कूट- कूटकर भरे हैं। कभी-कभी सत्त्वगुणका भी प्रादुर्भाव होता है। यह मनका विलास है, विकारमात्र है और भ्रमरूप है। अलातचक्रके समान यह शीघ्रतापूर्वक परिवर्तित होता रहता है- इस प्रकार जानो। ‘मैंने यह कर दिया, यह करता हूँ और यह करूंगा; यह मेरा है, यह तेरा है; मैं सुखी हूँ, मैं दुःखमें पड़ गया; लोग मुझसे बिना कारण प्रेम करनेवाले हैं’- इस प्रकार मनुष्य कहता रहता है। मेरा तो यह मत है कि मनुष्य अहंकारके कारण सुध-बुध खो बैठा है ॥ ४-७ ॥(Shri Vigyankhand Chapter 6 to 10)

राजा उग्रसेनने पूछा- ब्रह्मन् ! कृपापूर्वक मुझ- से परमात्माके लक्षणोंका वर्णन कीजिये। साथ ही यह भी बताइये कि विद्वानोंने पूजा-पद्धतिमें भगवान् श्रीकृष्णके लक्षण कितने प्रकारके बतलाये हैं? ॥ ८॥

श्रीव्यासजी बोले- सनातन प्रभु जन्म और मरणसे रहित हैं। शोक और मोह उनके पास भी नहीं फटकते। युवावस्था तथा बुढ़ापा आदिका कोई भेद उनमें नहीं है। अहंकार-मद, दुःख-सुख, भय, रोग, क्षुधा, पिपासा, कामना, रति और मानसिक व्याधि- इनके वे अविषय हैं। मुनीश्वरोंने जिस आत्माको पहचाना है, वह निरीह है, बिना देहका है, सर्वत्र उसकी गति है, वह अहंकारशून्य है, शुद्धबल है, उसमें सभी गुण रहते हैं, वह स्वतः सबसे परे है, निष्कल एवं स्वयं मङ्गलरूप है और ज्ञानका साकार विग्रह है। वह आत्मा इस जगत के सो जानेपर भी जागता रहता है। यह देहधारी मनुष्य उसे नहीं जानता किंतु वह सबको जानता रहता है। वही आद्यपुरुष है। वह सबको देखता है; किंतु यह प्राणी उसका साक्षात्कार नहीं कर पाता। उस स्वच्छ एवं मलसे रहित आत्माकी मैं उपासना करता हूँ ॥९-११ ॥

जिस प्रकार घटसे आकाश, काष्ठसे अग्नि एवं धूलसे पवन व्याप्त नहीं होता तथा रंगोंसे स्वच्छ स्फटिकमणिमें किसी प्रकारकी विरूपता नहीं आती, ठीक वैसे ही यह सनातन पुरुष गुणोंके रहते हुए भी उनसे लिपायमान नहीं होता। वह ‘सत्’ शब्दसे वाच्य परमात्मा लक्षणा, व्यञ्जना, वाक्चातुरी अर्थों, पदस्फोटपरायण शब्दों तथा सर्वोत्तम गुणियोंके द्वारा भी ज्ञानका विषय नहीं होता; फिर लौकिक प्राणी तो उसे जान ही कैसे सकता है? भूमण्डलपर उसे कितने लोग ‘कर्ता’, कितने ‘कर्म’, कितने ‘काल’, कितने ‘परम सुन्दर’ तथा कितने ‘विचार’ कहते हैं। परंतु वेदान्तज्ञानी तो उसे ‘ब्रह्म’ ही कहते हैं। उस परब्रह्मको कालसे उत्पन्न होनेवाले गुण स्पर्श नहीं करते। माया, इन्द्रिय, चित्त, मन, बुद्धि और महत्तत्त्व भी उसका ग्रहण नहीं कर सकते, वेद वर्णन नहीं कर पाता तथा अग्निमें चिनगारीकी भाँति उसमें सभी प्राणी विलीन हो जाते हैं। वही परमात्मा सर्वोपरि विराजमान है। जिन्हें संत-जन हिरण्यगर्भ, परमात्मतत्त्व और भगवान् वासुदेव कहते हैं, उन्हीं श्रेष्ठतम देवके स्वरूपका विचार करके मोह छोड़कर आसक्तिरहित होकर विचरे ॥ १२-१६ ॥

जिस प्रकार एक ही चन्द्रमा अनेक जलपात्रोंमें अलग-अलग दीखता है तथा एक ही अग्नि अनन्त काष्ठोंमें वर्तमान है, उसी प्रकार एक ही परम प्रभु भगवान् अपने द्वारा बनाये हुए विभिन्न जीवोंके भीतर एवं बाहर विराज रहे हैं। जिस प्रकार सूर्योदय हो जानेपर रात्रिसम्बन्धी अन्धकार नष्ट हो जाता है और घरकी वस्तुएँ मनुष्योंके दृष्टिगोचर होने लगती हैं, ठीक वैसे ही ज्ञानका प्रादुर्भाव होते ही अज्ञानरूपी अन्धकार भाग जाता है। फिर तो शरीरमें ही मनुष्यको ब्रह्मकी उपलब्धि हो जाती है। जैसे इन्द्रियोंकी प्रवृत्तियाँ अलग-अलग हैं, उनके भेदसे गुणोंके एक ही विषयमें नाना अर्थकी प्रतीति होती है, उसी प्रकार अनन्त परम प्रभु भगवान् का तेजोमय स्वरूप एक ही है, जब कि मुनियोंके शास्त्र अनेक हैं, जिनके कारण उसका भेद पूर्वक वर्णन किया गया है। जो पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्ण चन्द्र साक्षात् श्रीहरि हैं, अपने भक्तोंपर कृपा करना जिनका स्वभाव बन गया है, जो कैवल्यनाथ हैं तथा जिन्होंने राजा नृगका उद्धार किया है, उन स्वयं पूर्णब्रह्म परमेश्वरको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ १७-२० ॥(Shri Vigyankhand Chapter 6 to 10)

श्रीनारदजी कहते हैं- इस प्रकार कहकर भगवान् वेदव्यासजीने राजा उग्रसेनसे जानेके लिये स्वीकृति ली। तत्पश्चात् सम्पूर्ण यादवोंके देखते-देखते वे वहीं अन्तर्धान हो गये। मैंने भगवान् श्रीहरिके प्रति भक्ति बढ़ानेवाला यह ‘विज्ञानखण्ड’ तुम्हें कह सुनाया। इसका विस्तृत वर्णन किया गया है। इसे श्रोतागणोंको मोक्ष प्रदान करनेवाला कहा गया है। गर्गाचार्यने इसका वर्णन किया है। अतएव गर्गसंहिता नामसे इस ग्रन्थकी प्रसिद्धि हुई है। यह संहिता सम्पूर्ण दोषोंको हरनेवाली, परम पवित्र तथा चारों प्रकारके मनोरथोंको देनेवाली है। (अबतक) गोलोक, वृन्दावन, गिरिराज, माधुर्य, मथुरा, द्वारका, विश्वजित्, बलभद्र तथा विज्ञान-इन नौ खण्डोंमें इसका वर्णन हुआ है। महाराज ! जिस प्रकार नौ उत्तम रसोंसे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका श्रीविग्रह विभूषित है तथा भारत आदि नौ वर्षोंसे पृथ्वी अत्यन्त सुशोभित है, ठीक वैसे ही इन नौ खण्डोंद्वारा मुनिप्रणीत यह ‘गर्गसंहिता’ निरन्तर शोभा पा रही है। जिस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णकी अँगुलियोंमें तपाये हुए सुवर्णकी मुद्रिका नौ रत्नोंसे अलंकृत है, वैसे ही चतुर्वर्गफलको देनेवालीके रूपमें यह गर्गसंहिता सर्ग और विसर्ग आदि नौ अङ्गॉसे सुशोभित है। महाराज ! जो पुरुष भक्तिपूर्वक निरन्तर मुनिप्रणीत गर्गसंहिताका श्रवण करते हैं, उन्हें संसारमें प्रचुर सुख मिलता है और अन्तमें वे गोलोकधामको चले जाते हैं। यदि वन्ध्या स्त्री भी अनेक पुत्रोंकी उत्कट लालसासे युक्त हो पीताम्बरधर भगवान् श्रीकृष्णकी बन्दना करके इस संहिताका श्रवण करे तो वह शीघ्र ही अपने घरके आँगनमें बहुत-से बालकोंको घुमाती हुई निरन्तर उनके साथ-साथ घूमने लगती है। इस कथाको सुनकर रोगी मनुष्य रोगोंसे, भयभीत पुरुष भयसे तथा बन्धनप्राप्त पुरुष बन्धनसे मुक्त हो जाता है। निर्धनको विपुल सम्पत्ति मिल जाती है और मूर्ख तुरंत ही पण्डित हो सकता है। जो धनाढ्य राजा कार्तिकके महीनेमें मुनिप्रणीत ‘गर्गसंहिता’ का श्रवण करता है, निस्संदेह वह चक्रवर्ती राजा हो जायगा और बड़े-बड़े राजालोग उसकी चरणपादुकाको उठाकर रखेंगे। वह मनकी चालके समान तेज चलनेवाले सिन्धुदेशवासी घोड़ों और विन्ध्यगिरिपर उत्पन्न होनेवाले विशाल हाथियोंसे सम्पन्न होगा। वैतालिक आदि उसका यशोगान करेंगे और वारवधूजन उसकी सेवा करेंगी। जिसके सोनेके सींग हों, ताँबेकी पीठ हो, चाँदीके खुर हों और जिसे आभूषणोंसे सजाया गया हो जो प्रत्येक खण्डको सुननेके बाद ऐसी दो गौओंका दान करता है, उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। जनकजी! वही यदि निष्कामभावसे समूची ‘गर्गसंहिता’ का श्रवण करता है तो भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण उसके हृदय- कमलपर सदा निवास करने लगते हैं॥ २१-३३॥

श्रीगर्गजी बोले- ब्रह्मन् ! इस प्रकार कहकर दिव्यदर्शी भगवान् नारद मुनि राजा बहुलाश्वसे अनुमति लेकर सबके देखते-देखते आकाशमें चले गये। तब महाराज बहुलाश्वने भगवान् श्रीहरिकी इस संहिताको सुनकर श्रीकृष्णचन्द्रमें मन लगाये हुए अपनेको भलीभाँति कृतकृत्य समझ लिया। ब्रह्मन् ! तुम्हारे प्रश्न करनेपर मैंने यह संहिता कही है। किन्हींके द्वारा सुनने अथवा पाठ करानेसे भी यह करोड़ यज्ञोंका फल देनेवाली होती है॥ ३४-३६ ॥(Shri Vigyankhand Chapter 6 to 10)

श्रीशौनकजीने कहा- मुनिवर! आपका सङ्ग मिल जानेपर मैं धन्य एवं कृतार्थ हो गया। साथ ही भगवान् श्रीकृष्णमें प्रेम बढ़ानेवाली यह उत्तम भक्ति भी मुझे प्राप्त हो गयी। जो मुनियोंके विशाल हृदयरूपी मानसरोवरमें विचरनेवाले राजहंस हैं, सम्पूर्ण आनन्दोंसे पूर्ण मधुर नाद करनेवाली जिनकी बाँसुरी है, जिनकी कला संसारमें फैली हुई है, जिन्होंने शूरसेनके वंशमें अवतार धारण किया है तथा संत पुरुषोंने जिनकी प्रशंसा गायी है, वे अपने बाहुबलसे कंसका वध करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण तुम्हारी रक्षा करें। इस प्रकार मुनिवर गर्गाचार्यने सम्पूर्ण मुनियोंको आशीर्वाद दिया। साथ ही उनसे आज्ञा माँगी और प्रसन्नमन हो, जानेके लिये तैयार हो गये। फिर सर्ग-विसर्ग आदि नौ अङ्गोंसे युक्त ‘गर्ग- संहिता’ का, जो स्वर्ग प्रदान करनेवाली तथा चारों पदार्थोंको देनेमें कुशल है, प्रतिपादन करके गर्गजी गर्गाचलपर चले गये। मैं भगवान् श्रीराधापतिके उन युगल चरण-कमलोंको अपने हृदयमें स्थापित करता हूँ, जो शरद्-ऋतुके विकसित कमलोंकी शोभा धारण करनेके कारण उनके अत्यन्त द्वेषपात्र हो रहे हैं, मुनिरूपी भ्रमर जिनका निरन्तर सेवन करते हैं, जो वज्र और कमलके चिह्नोंसे आवृत हैं, जिनपर सोनेके नूपुर चमक रहे हैं, जिन्होंने भक्तोंके तापका सदा ही निवारण किया है तथा जिनकी दिव्य ज्योति छिटक रही है॥ ३७-४० ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीविज्ञानखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें
‘परमात्माका स्वरूप- निरूपण नामक’ दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १०॥

 

॥ श्रीमद्गर्गसंहिता, विज्ञानखण्ड सम्पूर्ण ॥

[श्रीगर्ग संहिताके नौ खण्ड पूरे हो गये। ‘अश्वमेध’ का प्रसङ्ग शेष रह गया, उसे सुनाने के लिये महर्षि गर्गाचार्यजी पुनः कथा का आरम्भ करेंगे और अश्वमेधखण्ड सुनायेंगे। तब गर्गसंहिता पूर्ण होगी।]

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