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Garga Samhita Golok Khand Chapters 6 to 10

Garga Samhita
Garga Samhita Golok Khand Chapters 6 to 10

।। श्रीहरिः ॥

ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते

श्रीगर्ग संहिता

(गोलोकखण्ड)

गर्ग संहिता गोलोक खण्ड अध्याय छ: से अध्याय दस तक (Golok Khand Chapters 6 to 10)

गर्ग संहिता गोलोक खण्ड अध्याय छ: से अध्याय दस (Golok Khand Chapters 6 to 10) में कालनेमिके अंशसे उत्पन्न कंसके महान् बल-पराक्रम और दिग्विजयका वर्णन, कंसकी दिग्विजय – शम्बर, व्योमासुर, बाणासुर, वत्सासुर, कालयवन तथा देवताओं की पराजय वर्णन, सुचन्द्र और कलावतीके पूर्व-पुण्यका वर्णन, उन दोनोंका वृषभानु तथा कीर्तिके रूपमें अवतरण कथा, गर्गजीकी आज्ञासे देवकका वसुदेवजीके साथ देवकीका विवाह करना और कंसके अत्याचार; बलभद्रजीका अवतार का वर्णन दिया गया है।

यहां पढ़ें ~ पहले अध्याय से पांचवे अध्याय तक

छठा अध्याय

कालनेमिके अंशसे उत्पन्न कंसके महान् बल-पराक्रम और दिग्विजयका वर्णन

राजा बहुलाश्वने कहा- देवर्षिशिरोमणे ! यह महान् बल और पराक्रमसे सम्पन्न कंस पहले किस दैत्यके नामसे विख्यात था ? आप इसके पूर्वजन्मों और कर्मोंका विवरण मुझे सुनाइये ॥ १ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं – राजन् ! पूर्वकालमें समुद्र-मन्थनके अवसरपर महान् असुर कालनेमिने भगवान् विष्णुके साथ युद्ध किया। उस युद्धमें भगवान्ने उसे बलपूर्वक मार डाला। उस समय शुक्राचार्यजीने अपनी संजीवनी विद्याके बलसे उसे पुनः जीवित कर दिया। तब वह पुनः भगवान् विष्णुसे युद्ध करनेके लिये मन-ही-मन उद्योग करने लगा। उस समय वह दानव मन्दराचल पर्वतके समीप तपस्या करने लगा। प्रतिदिन दूबका रस पीकर उसने देवेश्वर ब्रह्माकी आराधना की। देवताओंके कालमानसे सौ वर्ष बीत जानेपर ब्रह्माजी उसके पास गये। उस समय कालनेमिके शरीरमें केवल हड्डियाँ रह गयी थीं और उसपर दीमकें चढ़ गयी थीं। ब्रह्माजीने उससे कहा- ‘वर माँगो’ । २-५ ॥

कालनेमिने कहा- इस ब्रह्माण्डमें जो-जो महाबली देवता स्थित हैं, उन सबके मूल भगवान् विष्णु हैं। उन सम्पूर्ण देवताओंके हाथसे भी मेरी मृत्यु न हो ॥ ६ ॥

ब्रह्माजीने कहा- दैत्य ! तुमने जो यह उत्कृष्ट वर माँगा है, वह तो अत्यन्त दुर्लभ है; तथापि किसी दूसरे समय तुम्हें यह प्राप्त हो सकता है। मेरी वाणी कभी झूठी नहीं हो सकती ॥ ७ ॥(Golok Khand Chapters 6 to 10)

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! फिर वही कालनेमि नामक असुर पृथ्वीपर उग्रसेनकी स्त्री (पद्मावती) के गर्भसे उत्पन्न हुआ। कुमारावस्थामें ही वह बड़े-बड़े पहलवानोंके साथ कुश्ती लड़ा करता था। (एक समयकी बात है) मगधराज जरासंध दिग्विजयके लिये निकला। यमुना नदीके निकट इधर-उधर उसकी छावनी पड़ गयी। उसके पास ‘कुवलयापीड़’ नामका एक हाथी था, जिसमें हजार हाथियोंके समान शक्ति थी। उसके गण्डस्थलसे मद चू रहा था। एक दिन उसने बहुत-सी साँकलोंको तोड़ डाला और शिविरसे बाहरकी ओर दौड़ चला। शिविरों, गृहों और पर्वतीय तटोंको तोड़ता-फोड़ता हुआ वह उस स्ङ्गभूमि (अखाड़े) में जा धमका, जहाँ कंस भी कुश्ती लड़ रहा था। उसके आनेपर सभी शूरवीर भाग चले। उसे आया देख कंसने उस हाथीकी सूँड़ पकड़ी और पृथ्वीपर गिरा दिया। इसके बाद कंसने कुवलयापीड़को पुनः दोनों हाथोंसे पकड़कर घुमाया और जरासंधकी सेनामें, जो वहाँसे बहुत दूर थी, फेंक दिया। मगधनरेश जरासंध कंसके इस अद्भुत बलको देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उसने ‘अस्ति’ तथा ‘प्राप्ति’ नामकी अपनी दो परमसुन्दरी कन्याओंका विवाह उसके साथ कर दिया। उस जरापुत्रने एक अरब घोड़े, एक लाख हाथी, तीन लाख रथ और दस हजार दासियाँ कंसको दहेजमें दीं ॥ ८-१५॥

कंस द्वन्द्वयुद्धका प्रेमी था। अपने बाहुबलके मदसे अकेला ही द्वन्द्वयुद्धके लिये उन्मत्त रहता था। वह प्रचण्डपराक्रमी वीर माहिष्मतीपुरीमें गया। माहिष्मतीनरेशके पाँच पुत्र प्रख्यात मल्ल थे और मल्लयुद्धमें विजय पानेका हौंसला रखते थे। उनके नाम थे- चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल और तोशल । कंसने सामनीतिका आश्रय ले प्रेमपूर्वक उनसे कहा ‘तुमलोग मेरे साथ मल्लयुद्ध करो। यदि तुम्हारी विजय हो जायगी तो मैं तुम्हारा सेवक होकर रहूँगा; और कदाचित् मेरी विजय हो गयी तो तुम सबको भी मैं अपना सेवक बना लूंगा।’ वहाँ जितने भी नागरिक महान् पुरुष थे, उन सबके सामने कंसने इस प्रकारकी प्रतिज्ञा की और विजय पानेकी इच्छा रखनेवाले उन वीरोंके साथ मल्लयुद्ध आरम्भ कर दिया। ज्यों ही चाणूर आया, यादवेश्वर कंसने उच्चस्वरसे गर्जना करते हुए उसे पकड़कर पृथ्वीपर दे मारा। उसी क्षण मुष्टिक भी वहाँ आ गया। वह रोषसे मुक्का ताने हुए था कंसने उसे भी एक ही मुक्केसे धराशायी कर दिया। अब कूट आया, कंसने उसके दोनों पैर पकड़ लिये और जमीनपर दे मारा। फिर ताल ठोंकता हुआ शल भी दौड़कर आ पहुँचा। कंसने उसे एक ही हाथसे पकड़ा और जमीनपर पटककर घसीटने लगा। इसके बाद कंसने तोशलके दोनों हाथ बलपूर्वक पकड़ लिये और जमीनपर पटक दिया। फिर तत्काल उठाकर दस योजनकी दूरीपर फेंक दिया। इस प्रकार यादवेश्वर कंस उन सभी वीरोंको अपना सेवक बनाकर, मेरे (नारदजीक) कहनेसे उन योद्धाओंकेसाथ उसी क्षण श्रेष्ठ पर्वत प्रवर्षणगिरिपर जा पहुँचा। वहाँ वह वानर द्विविदको अपना अभिप्राय बताकर उसके साथ बीस दिनोंतक अविराम युद्ध करता रहा । द्विविदने पर्वतकी चट्टान उठाकर उसे कंसके मस्तकपर फेंका, किंतु कंसने उस शिलाखण्डको पकड़कर उसीके ऊपर चला दिया। तब द्विविद कंसपर मुक्केसे प्रहार करके आकाशमें उड़ गया। कंसने भी उसका पीछा करके उसे पकड़ लिया और लाकर जमीनपर पटक दिया। कंसके प्रहारसे द्विविदको मूर्च्छा आ गयी। उसकी सारी उत्साह-शक्ति जाती रही। हड्डियाँ चूर- चूर हो गयीं। फिर तो वह भी कंसका सेवक बन गया ।। १६-२९ ॥

तदनन्तर कंस द्विविदके साथ वहाँसे ऋष्यमूक- वनमें गया। वहाँ ‘केशी’ नामसे विख्यात एक महादैत्य रहता था, जिसकी घोड़ेके समान आकृति थी। वह बादलके समान गर्जता था। उसे मुक्कोंकी मारसे अपने वशमें करके कंस उसपर सवार हो गया। इस प्रकार वह महान् पराक्रमी कंस महेन्द्रगिरिपर जा पहुँचा। दानवराज कंसने उस पर्वतको सौ बार उखाड़कर ऊपरको उठा लिया। फिर वहाँ रहनेवाले मुनिवर परशुरामजीके, जिनके नेत्र क्रोधसे लाल थे और जो प्रलयकालके सूर्यकी भाँति तेजस्वी थे, चरणोंमें मस्तक झुकाया और बार-बार उनकी प्रदक्षिणा की। फिर उनके दोनों चरणोंमें वह लेट गया। तब अत्यन्त उग्र दृष्टिवाले परशुरामजीकी क्रोधग्नि शान्त हो गयी। वे बोले – रे कीट ! रे बँदरियाके बच्चे ! तू मच्छरके समान तुच्छ है। तू बलके घमंडमें चूर रहनेवाला दुष्ट क्षत्रिय है। मैं आज ही तुझे मौतके मुखमें भेजता हूँ। देख, मेरे पास यह महान् धनुष है। इसकी गुरुता लाख भार (लगभग तीन लाख मन) के बराबर है। त्रिपुरासुर- से युद्धके समय भगवान् विष्णुने यह धनुष भगवान् शंकरको दिया था। फिर क्षत्रियोंका विनाश करनेके लिये यह शंकरजीके हाथसे मुझे प्राप्त हुआ। यदि तू इसे चढ़ा सका, तब तो कुशल है; यदि नहीं चढ़ा सका तो तेरे सारे बलका विनाश कर दूँगा।’ परशुरामजीकी बात सुनकर कंसने उस धनुषको, जो सात ताड़के बराबर लंबा था, उठा लिया और परशुरामजीके देखते-देखते उसे लीलापूर्वक चढ़ा दिया। फिर कानतक खींच खींचकर उसे सौ बार फैलाया। उसकी प्रत्यञ्चा- के खींचनेसे बिजलीकी गड़गड़ाहटके समान टंकार शब्द होने लगा। उसकी भीषण ध्वनिसे सातों लोकों और पातालोंके साथ पूरा ब्रह्माण्ड गूँज उठा, दिग्गज विचलित हो गये और तारागण टूट-टूटकर जमीनपर गिरने लगे। फिर कंसने धनुषको नीचे रख दिया और परशुरामजीको बारंबार प्रणाम करके कहा- ‘भगवन् ! मैं क्षत्रिय नहीं हूँ। मैं आपका सेवक दैत्य हूँ। आपके दासोंका दास हूँ पुरुषोत्तम ! मेरी रक्षा कीजिये।’ कंसकी ऐसी प्रार्थना सुनकर परशुरामजी प्रसन्न हो गये। फिर वह धनुष उन्होंने कंसको ही दे दिया ।। ३०-४२ ।।

परशुरामजीने कहा- यह धनुष भगवान विष्णु का है। इसे जो तोड़ देगा, वही यहाँ साक्षात् परिपूर्णतम पुरुष है। उसीके हाथसे तुम्हारी मृत्यु होगी ॥ ४३ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर बलके मदसे उन्मत्त रहनेवाला कंस मुनिवर परशुरामजीको प्रणाम करके भूतलपर विचरने लगा। किन्हीं राजाओंने उसके साथ युद्ध नहीं किया- सबने उसे कर देना स्वीकार कर लिया। अब कंस समुद्रके तटपर गया। वहाँ ‘अघासुर’ नामक एक दानव रहता था, जो सर्पके आकारका था। वह फुफकारता और लपलपाती जीभसे चाटता-सा दिखायी देता था। वह आकर कंस- को हँसने लगा। यह देख पराक्रमी दैत्यराजने निर्भयतापूर्वक उसे पकड़ा और धरतीपर पटक दिया। फिर उसे अपने गलेकी माला बना लिया। उन दिनों पूर्वदिशावर्ती बंगदेशमें ‘अरिष्ट’ नामक दैत्य रहता था, जिसकी आकृति बैलके समान थी। उस दैत्यके साथ कंस इस प्रकार जा भिड़ा जैसे एक हाथीके साथ दूसरा हाथी लड़ता है। वह दानव अपनी सींगोंसे बड़े-बड़े पर्वतोंको उठाता और कंसके मस्तकपर पटक देता था। कंस भी उसी पर्वतको हाथमें लेकर अरिष्टासुरपर दे मारता था। उस युद्धमें दैत्यराज कंसने मुक्केसे अरिष्टासुरपर प्रहार किया, जिससे वह दानव मूर्च्छित हो गया। इस प्रकार उस अरिष्टासुरको पराजित करके उसके साथ ही कंस उत्तर दिशाकी ओर चल दिया। प्राग्ज्योतिषपुरके स्वामी महाबली भूमिपुत्र ‘नरक’ के पास जाकर युद्धाथी कंसने उससे कहा- ‘दैत्येश्वर । तुम मुझे युद्ध करनेका अवसर दो। यदि संग्राममें तुम्हारी जोत हो गयी तो मैं तुम्हारा सेवक बन जाऊँगा। साथ ही मुझे विजय प्राप्त होनेपर तुम सबको मेरा भूत्य बनना पड़ेगा ।। ४४-५१ ॥(Golok Khand Chapters 6 to 10)

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् । प्राग्ज्योतिषपुरमै सर्वप्रथम महापराक्रमी प्रलम्बासुर कंसके साथ इस प्रकार युद्ध करने लगा, जैसे किसी पर्वतपर एक उद्भट सिंहके साथ दूसरा उद्भट सिंह लड़ला हो। कंसने उस मल्लयुद्धमें प्रलम्बासुरको पकड़ा और पृथ्वीपर दे मारा। फिर उसे उठाकर प्राग्ज्योतिषपुरके स्वामी भौमासुरके पास फेंक दिया। तदनन्तर ‘घेनुक’ नामसे विख्यात दानवने आकर कंसको रोषपूर्वक पकड़ लिया। उसने दारुण बलका प्रयोग करके कंसको दूरतक पीछे हटा दिया। तब कंसने भी धेनुकासुरको बहुत दूर पीछे ढकेल दिया और सुदृढ़ घूसोंसे मारकर उसके शरीरको चूर-चूर कर दिया। तदनन्तर भौमासुर- की आशासे ‘तृणावर्त’ कंसको पकड़कर लाख योजन ऊपर आकाशमें ले गया और वहीं युद्ध करने लगा। कंसने अपनी अनन्तशक्ति लगाकर बलपूर्वक उस दैत्यको आकाशसे खींचकर पृथ्वीपर पटक दिया। उस समय तृणावर्तके मुँहसे खूनकी धार बह चली। इसके बाद महाबली ‘बकासुर’ आकर अपनी चोंचसे कंसको निगल जानेको चेष्टा करने लगा। कंसने कनके समान कठोर मुक्केसे प्रहार करके उसे भी धराशायी कर दिया। बलवान् बकासुर फिर उठ गया। उसके पंख सफेद थे। वह मेधके समान गम्भीर गर्जना करता था। क्रोधपूर्वक उड़कर तीखी चोंचवाले उस बकासुरने कंसको निगल लिया। कंसका शरीर वज्रकी भाँति कठोर था। निगले जानेपर उसने उस दानवके गलेकी नलीको सँध दिया। फिर महान् बली बकासुरने कण्ठ छिद जानेके कारण कंसको मुँहसे बाहर उगल दिया। तदनन्तर कंसने उस दैत्यको पकड़कर जमीनपर पटका और दोनों हाथोंसे घुमाता हुआ उसे वह युद्धभूमिमें घसीटने लगा। बकासुरको एक बहन थी। उसका नाम था ‘पूतना’। यह भी युद्ध करनेके लिये उद्यत हो गयी। उसे उपस्थित देखकर कंसने हँसते हुए कहा- ‘पूतने । मेरी बात सुन लो। तुम स्त्री हो, मैं तुम्हारे साथ कभी भी लड़ नहीं सकता। अब यह बकासुर मेरा भाई और तुम बहन होकर रहो।’ तदनन्तर महान् पराक्रमी कंसको देखकर भौमासुरने भी पराजय स्वीकार कर ली। फिर देवताओंसे युद्ध करनेके समय सहायता प्रदान करनेके लिये वह कंसके साथ सौहार्दपूर्ण बर्ताव करने लगा ॥ ५२ – ६४ ।।

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘कंसके बलका वर्णन’ नामक छठा अध्याय पूरा हुआ ॥ ६ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ सुश्रुत संहिता

सातवाँ अध्याय

कंसकी दिग्विजय – शम्बर, व्योमासुर, बाणासुर, वत्सासुर, कालयवन तथा देवताओंकी पराजय

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर कंस पहलेके जीते हुए प्रलम्ब आदि अन्य दैत्योंके साथ शम्बरासुरके नगरमें गया। वहाँ उसने अपना युद्ध- विषयक अभिप्राय कह सुनाया शम्बरासुरने अत्यन्त पराक्रमी होनेपर भी कंसके साथ युद्ध नहीं किया। कंसने उन सभी अत्यन्त बलशाली असुरोंके साथ मैत्री स्थापित कर ली। त्रिकूट पर्वतके शिखरपर व्योमनामक एक बलवान् असुर सो रहा था। कंसने वहाँ पहुँचकर उसके ऊपर लात चलायी। उसके प्रहारसे व्योमासुरकी निद्रा टूट गयी और उसने उठकर सुदृढ बँधे हुए जोरदार मुक्कोंसे कंसपर आघात किया। उस समय उसके नेत्र क्रोधसे लाल हो रहे थे कंस और व्योमासुरमें भयंकर युद्ध छिड़ गया। वे दोनों एक-दूसरेको मुक्कोंसे मारने लगे। कंसके मुक्कोंकी मारसे व्योमासुर अपनी शक्ति और उत्साह खो बैठा। उसको चक्कर आने लगा। यह देख कंसने उसको अपना सेवक बना लिया। उसी समय मैं (नारद) वहाँ जा पहुँचा कंसने मुझे प्रणाम किया और पूछा- ‘हे देव ! मेरी युद्धविषयक आकाङ्क्षा अभी पूरी नहीं हुई है। मुझे शीघ्र बताइये, अब मैं कहाँ, किसके पास जाऊँ ?’ तब मैंने उससे कहा- ‘तुम महाबली दैत्य बाणासुरके पास जाओ।’ मुझे तो युद्ध देखनेका चाव रहता ही है। मेरी इस प्रकारकी प्रेरणासे प्रेरित हो बाहुबलके मदसे उन्मत्त रहनेवाला कंस शोणितपुर गया । ॥ १-७॥

कंसकी युद्धविषयक प्रतिज्ञाको सुनकर महाबली बाणासुर अत्यन्त कुपित हो उठा। उसने मेघके समान गम्भीर गर्जना करके पृथ्वीपर बड़े जोरसे लात मारी। उसका वह पैर घुटनेतक धरतीमें धँस गया और पातालके निकटतक जा पहुँचा। ऐसा करके बाणने कंससे कहा – ‘पहले मेरे इस पैरको तो उठाओ !’ उसकी यह बात सुनकर मदोन्मत्त कंसने दोनों हाथोंसे उसके पैरको उखाड़कर ऊपर कर दिया। उसका पराक्रम बड़ा प्रचण्ड था। जैसे हाथी गड़े हुए कठोर दण्ड या खंभेको अनायास ही उखाड़ लेता है, उसी प्रकार कंसने बाणासुरके पैरको खींचकर ऊपर कर दिया। उसके पैरके उखड़ते ही पृथ्वीतलके लोक और सातों पाताल हिल उठे, अनेक पर्वत धराशायी हो गये और सुदृढ़ दिग्गज भी अपने स्थानसे विचलित हो उठे। अब बाणासुरको युद्धके लिये उद्यत हुआ देख – भगवान् शंकर स्वयं वहाँ आ गये और सबको समझा- बुझाकर युद्धसे रोक दिया। फिर उन्होंने बलिनन्दन = बाणसे कहा- ‘दैत्यराज ! भगवान् श्रीकृष्णको छोड़कर भूतलपर दूसरा कोई ऐसा वीर नहीं है, जो – युद्धमें इसे जीत सकेगा। परशुरामजीने इसे ऐसा ही नवर दिया है और अपना वैष्णव धनुष भी अर्पित कर = दिया है ॥ ८-१३ ॥(Golok Khand Chapters 6 to 10)

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर न साक्षात् महेश्वर शिवने कंस और बाणासुरमें तत्काल बड़ी शान्तिके साथ मनोरम सौहार्द स्थापित कर दिया। तदनन्तर पश्चिम दिशामें महासुर वत्सका नाम सुनकर कंस वहाँ गया। उस दैत्यराजने बछड़ेका रूप धारण करके कंसके साथ युद्ध छेड़ दिया। कंसने उस बछड़ेकी पूँछ पकड़ ली और उसे पृथ्वीपर दे मारा। इसके बाद उसके निवासभूत पर्वतको अपने अधिकारमें करके कंसने म्लेच्छ देशोंपर धावा किया। मेरे मुखसे महाबली दैत्य कंसके आक्रमणका समाचार सुनकर कालयवन उसका सामना करनेके लिये निकला। उसकी दाढ़ी-मूँछका रंग लाल था और उसने हाथमें गदा ले रखी थी। कंसने भी लाख भार लोहेकी बनी हुई अपनी गदा लेकर यवनराजपर चलायी और सिंहके समान गर्जना की। उस समय कंस और कालयवनमें बड़ा भयानक गदा-युद्ध हुआ। दोनोंकी गदाओंसे आगकी चिनगारियाँ बरस रही थीं। वे दोनों गदाएँ परस्पर टकराकर चूर-चूर हो गयीं। तब कंसने कालयवनको पकड़कर उसे धरतीपर दे मारा और पुनः उठाकर उसे पटक दिया। इस तरह उसने उस यवनको मृतक-तुल्य बना दिया। यह देख कालयवनकी सेना कंसपर बाणोंकी वर्षा करने लगी। तब बलवान् दैत्यराज कंसने गदाकी मारसे उस सेनाका कचूमर निकाल दिया। बहुत से हाथियों, घोड़ों, उत्तम रथों और वीरोंको धराशायी करके गदा-युद्ध करनेवाला वीर कंस समराङ्गणमें मेघके समान गर्जना करने लगा ।। १४-२२ ॥

फिर तो सारे म्लेच्छ सैनिक रणभूमि छोड़कर भाग निकले। कंस बड़ा नीतिज्ञ था; उसने भयभीत होकर भागते हुए म्लेच्छोंपर आघात नहीं किया। कंसके पैर ऊँचे थे, दोनों घुटने बड़े थे, जाँबें खंभोंके समान जान पड़ती थीं। उसका कटिप्रदेश पतला, वक्षःस्थल किवाड़ोंके समान चौड़ा और कंधे मोटे थे। उसका शरीर हृष्ट-पुष्ट, कद ऊँचा और भुजाएँ विशाल थीं। नेत्र प्रफुल्ल कमलके समान प्रतीत होते थे। सिरके बाल बड़े-बड़े थे, देहकी कान्ति अरुण थी। उसके अङ्गोंपर काले रंगका वस्त्र सुशोभित था। मस्तकपर किरीट, कानोंमें कुण्डल, गलेमें हार और वक्षपर कमलोंकी माला शोभा दे रही थी। वह प्रलयकालके सूर्यकी भाँति तेजस्वी जान पड़ता था। खड्ग, तूणीर, कवच और मुद्गर आदिसे सम्पन्न धनुर्धर एवं मदमत्त वीर कंस देवताओंको जीतनेके लिये अमरावती पुरीपर जा चढ़ा। चाणूर, मुष्टिक, अरिष्ट, शल, तोशल, केशी, प्रलम्ब, वक, द्विविद, तृणावर्त, अघासुर, कूट, भौम, बाण, शम्बर, व्योम, धेनुक और वत्स नामक असुरोंके साथ कंसने अमरावतीपुरीपर चारों ओरसे घेरा डाल दिया ॥ २३-२८ ॥

कंस आदि असुरोंको आया देख, त्रिभुवन-सम्राट्दे वराज इन्द्र समस्त देवताओंको साथ ले रोषपूर्वक युद्धके लिये निकले। उन दोनों दलोंमें भयंकर एवं रोमाञ्चकारी तुमुल युद्ध होने लगा। दिव्य शस्त्रोंके समूह तथा चमकीले तीखे बाण छूटने लगे। इस प्रकार शस्त्रोंकी बौछारसे वहाँ अन्धकार-सा छा गया। उस समय रथपर बैठे हुए सुरेश्वर इन्द्रने कंसपर विद्युत्के समान कान्तिमान् सौ धारोंवाला वज्र छोड़ा। किंतु उस महान् असुरने इन्द्रके वज्रपर मुद्गरसे प्रहार किया। इससे वज्रकी धारें टूट गयीं और वह युद्ध- भूमिमें गिर पड़ा। तब वज्रधारीने वज्र छोड़कर बड़े रोषके साथ तलवार हाथमें ली और भयंकर सिंहनाद करके तत्काल कंसके मस्तकपर प्रहार किया। परंतु जैसे हाथीको फूलकी मालासे मारा जाय और उसको कुछ पता न लगे, उसी प्रकार खड्गसे आहत होनेपर
भी कंसके सिरपर खरोंचतक नहीं आयी। उस दैत्यराजने अष्टधातुमयी मजबूत गदा, जो लाख भार लोहेके बराबर भारी थी, लेकर इन्द्रपर चलायी। उस गदाको अपने ऊपर आती देख नमुचिसूदन वीर देवेन्द्रने तत्काल हाथसे पकड़ लिया और उसे उस दैत्यपर ही दे मारा। इन्द्रके रथका संचालन मातलि कर रहे थे और देवेन्द्र शत्रुदलका दलन करते हुए युद्धभूमिमें विचर रहे थे। कंसने परिघ लेकर असुरद्रोही इन्द्रके कंधेपर प्रहार किया। उस प्रहारसे देवराज क्षणभरके लिये मूर्च्छित हो गये ॥ २९-३७ ॥

उस समय समस्त मरुद्रणोंन गीधके पंखवाले – चमकीले बाणसमूहोंसे कंसको उसी तरह ढक दिया, जैसे वर्षाकालके सूर्यको मेघमालाएँ आच्छादित कर – देती हैं। यह देख एक हजार भुजाओंसे युक्त बलवान् वीर बाणासुरने बारंबार धनुषकी टंकार करते हुए अपने बाण-समूहोंसे उन मरुद्गणोंको घायल करना आरम्भ किया। बाणासुरपर भी वसु, रुद्र, आदित्य तथा अन्यान्य देवता एवं ऋषि चारों ओरसे टूट पड़े और नाना प्रकारके शस्त्रोंद्वारा उसपर प्रहार करने लगे। इतनेमेंही प्रलम्ब आदि असुरोंके साथ गर्जना करता हुआ भौमासुर आ पहुँचा। उसके उस भयानक सिंहनादसे देवतालोग मूर्च्छित होकर भूमिपर गिर पड़े। उस समय देवराज इन्द्र शीघ्र ही उठ गये और लाल आँखें किये ऐरावत हाथीपर आरूढ हो उस मदमत्त गजराजको कंसकी ओर उसे कुचल डालनेके लिये प्रेरित करने लगे। अङ्कुशकी मारसे कुपित हुआ वह गजराज शत्रुओंको अपने पैरोंसे मार-मारकर युद्धभूमिमें गिराने लगा। उसके गलेमें घंटे बँधे हुए थे, वह किङ्किणीजाल तथा रलमय कम्बलसे मण्डित था। गोरोचन, सिन्दूर और कस्तूरीसे उसके मुख-मण्डलपर पत्ररचना की गयी थी। कंसने निकट आनेपर उस महान् गजराजके ऊपर सुदृढ़ मुक्केसे प्रहार किया। साथ ही उसने समराङ्गणमें देवराज इन्द्रपर भी दूसरे मुक्केका प्रहार किया। उसके मुक्केकी मार खाकर इन्द्र ऐरावतसे दूर जा गिरे। ऐरावत भी धरतीपर घुटने टेककर व्याकुल हो गया। फिर तुरंत ही उठकर गजराजने दैत्यराज कंसपर दाँतोंसे आघात किया और उसे सूँड़पर उठाकर कई योजन दूर फेंक दिया। कंसका शरीर वज्रके समान सुदृढ़ था। वह उतनी दूरसे गिरनेपर भी घायल नहीं हुआ। उसके मनमें किंचित् व्याकुलता हुई; किंतु रोषसे ओठ फड़फड़ाता अत्यन्त जोशमें भरकर वह पुनः युद्धभूमिमें जा पहुँचा ॥ ३८-४९ ॥

कंसने नागराज ऐरावतको पकड़कर समराङ्गणमें धराशायी कर दिया और उसकी सूँड़ मरोड़कर उसके दाँतोंको चूर-चूर कर दिया। अब तो ऐरावत हाथी उस समराङ्गणसे तत्काल भाग चला। वह बड़े-बड़े वीरोंको गिराता हुआ देवताओंकी राजधानी अमरावती पुरीमें जा घुसा। तदनन्तर दैत्यराज कंसने वैष्णव धनुषपर प्रत्यञ्चा चढ़ाकर बाण-समूहों तथा धनुषकी टंकारोंसे देवताओंको खदेड़ना आरम्भ किया। कंसकी मार पड़नेसे देवताओंके होश उड़ गये और वे चारों दिशाओंमें भाग निकले। कुछ देवताओंने रणभूमिमें अपनी शिखाएँ खोल दीं और ‘हम डरे हुए हैं (हमें न मारो)- इस प्रकार कहने लगे। कुछ लोग हाथ जोड़कर अत्यन्त दीनकी भाँति खड़े हो गये और अस्त्र-शस्त्र नीचे डालकर उन्होंने अपने अधोवस्त्रकी लाँग भी खोल डाली। कुछ लोग अत्यन्त व्याकुल हो युद्धस्थलमें राजा कंसके सम्मुख खड़े होनेतकका साहस न कर सके। इस प्रकार देवताओंको भगा हुआ देख वहाँके छत्र-युक्त सिंहासनको साथ लेकर नरेश्वर कंस समस्त दैत्योंके साथ अपनी राजधानी मथुराको लौट आया ।। ५०-५५॥(Golok Khand Chapters 6 to 10)

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवादमें ‘कंसकी दिग्विजय’ नामक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ७ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ वाल्मीकि रामायण

आठवाँ अध्याय

सुचन्द्र और कलावतीके पूर्व-पुण्यका वर्णन, उन दोनोंका वृषभानु तथा कीर्तिके रूपमें अवतरण

श्रीगर्गजी कहते हैं- शौनक ! राजा बहुलाश्वका हृदय भक्तिभावसे परिपूर्ण था। हरिभक्तिमें उनकी अविचल निष्ठा थी। उन्होंने इस प्रसङ्गको सुनकर ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ एवं महाविलक्षण स्वभाववाले देवर्षि नारदजीको प्रणाम किया और पुनः पूछा ॥ १ ॥

राजा बहुलाश्वने कहा – भगवन् ! आपने अपने आनन्दप्रद, नित्य वृद्धिशील, निर्मल यशसे मेरे कुलको पृथ्वीपर अत्यन्त विशद (उज्ज्वल) बना दिया; क्योंकि श्रीकृष्णभक्तोंके क्षणभरके सङ्गसे साधारण जन भी सत्पुरुष – महात्मा बन जाता है। इस विषयमें अधिक कहनेसे क्या लाभ। देवर्षे ! श्रीराधाके साथ भूतलपर अवतीर्ण हुए साक्षात् परिपूर्णतम भगवान्ने व्रजमें कौन-सी लीलाएँ कीं – यह मुझे कृपापूर्वक बताइये । देवर्षे ! ऋषीश्वर ! इस कथामृतद्वारा आप त्रिताप-दुःखसे मेरी रक्षा कीजिये ।। २-३ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! वह कुल घन्य है, जिसे परात्पर श्रीकृष्णभक्त राजा निमिने समस्त सगुणोंसे परिपूर्ण बना दिया है और जिसमें तुम-जैसे योगयुक्त एवं भव-बन्धनसे मुक्त पुरुषने जन्म लिया है। तुम्हारे इस कुलके लिये कुछ भी विचित्र नहीं है। अब तुम उन परमपुरुष भगवान् श्रीकृष्णकी परम मङ्गलमयी पवित्र लीलाका श्रवण करो। वे भगवान् केवल कंसका संहार करनेके लिये ही नहीं, अपितु भूतलके संतजनोंकी रक्षाके लिये अवतीर्ण हुए थे। उन्होंने अपनी तेजोमयी पराशक्ति श्रीराधाका वृषभानुकी पत्नी कीर्ति-रानीके गर्भमें प्रवेश कराया। वे श्रीराधा कलिन्दजाकूलवर्ती निकुञ्जप्रदेशके एक सुन्दर मन्दिरमे अवतीर्ण हुईं। उस समय भाद्रपदका महीना था। शुक्लपक्षको अष्टमी तिथि एवं सोमका दिन था। मध्याह्नका समय था और आकाशमें बादल छाये हुए थे। देवगण नन्दनवनके भव्य प्रसून लेकर भवनपर बरसा रहे थे। उस समय श्रीराधिकाजीके अवतार धारण करनेसे नदियोंका जल स्वच्छ हो गया। सम्पूर्ण दिशाएँ प्रसन्न – निर्मल हो उठीं। कमलोंकी सुगन्धसे व्याप्त शीतल वायु मन्दगतिसे प्रवाहित हो रही थी। शरत्पूर्णिमाके शत-शत चन्द्रमाओंसे भी अधिक अभिराम कन्याको देखकर गोपी कीर्तिदा आनन्दमें निमग्न हो गयीं। उन्होंने मङ्गलकृत्य कराकर पुत्रीके कल्याणकी कामनासे आनन्ददायिनी दो लाख उत्तम गौएँ ब्राह्मणोंको दान कीं। जिनका दर्शन बड़े-बड़े देवताओंके लिये भी दुर्लभ है, तत्त्वज्ञ मनुष्य सैकड़ों जन्मोंतक तप करनेपर भी जिनकी झाँकी नहीं पाते, वे ही श्रीराधिकाजी जब वृषभानुके यहाँ साकाररूपसे प्रकट हुई और गोप-ललनाएँ जब उनका लालन- पालन करने लगीं, तब सर्वसाधारण लोग उनका दर्शन करने लगे। सुवर्णजटित एवं सुन्दर रलोंसे खचित, चन्दननिर्मित तथा रलकिरण-मण्डित पालनेमें सखीजनोंद्वारा नित्य झुलायी जाती हुई श्रीराधा प्रतिदिन शुक्लपक्षके चन्द्रमाकी कलाकी भाँति बढ़ने लगीं। श्रीराधा क्या हैं- रासकी रङ्गस्थलीको प्रकाशित करनेवाली चन्द्रिका, वृषभानु-मन्दिरकी दीपावली, गोलोक-चूड़ामणि श्रीकृष्णके कण्ठकी हारावली। मैं उन्हीं पराशक्तिका ध्यान करता हुआ भूतलपर विचरता रहता हूँ ॥ ४-१२ ॥

राजा बहुलाश्वने पूछा- मुने ! वृषभानुजीका सौभाग्य अद्भुत है, अवर्णनीय है; क्योंकि उनके यहाँ श्रीराधिकाजी स्वयं पुत्रीरूपसे अवतीर्ण हुईं। कलावती और सुचन्द्रने पूर्वजन्ममें कौन-सा पुण्यकर्म किया – था, जिसके फलस्वरूप इन्हें यह सौभाग्य प्राप्त हुआ ? ॥ १३ ॥(Golok Khand Chapters 6 to 10)

श्रीनारदजी कहते हैं – राजन् ! राजराजेश्वर महाभाग सुचन्द्र राजा नृगके पुत्र थे। परम सुन्दर सुचन्द्र चक्रवर्ती नरेश थे। उन्हें साक्षात् भगवान्का अंश माना जाता है। पूर्वकालमें (अर्यमा-प्रभृति) पितरोंके यहाँ तीन मानसी कन्याएँ उत्पन्न हुई थीं। वे सभी परम सुन्दरी थीं। उनके नाम थे- कलावती, रलमाला और मेनका। पितरोंने स्वेच्छासे ही कलावतीका हाथ श्रीहरिके अंशभूत बुद्धिमान् सुचन्द्रके हाथमें दे दिया। रत्नमालाको विदेहराजके हाथमें और मेनकाको हिमालयके हाथमें अर्पित कर दिया। साथ ही विधि-पूर्वक दहेजकी वस्तुएँ भी दीं। महामते ! रत्नमालासे सीताजी और मेनकाके गर्भसे पार्वतीजी प्रकट हुई। इन दोनों देवियोंकी कथाएँ पुराणोंमें प्रसिद्ध हैं। तदनन्तर कलावतीको साथ लेकर महाभाग सुचन्द्र गोमतीके तटपर ‘नैमिष’ नामक वनमें गये। उन्होंने ब्रह्माजीकी प्रसन्नताके लिये तपस्या आरम्भ की। वह तप देवताओंके कालमानसे बारह वर्षोंतक चलता रहा। तदनन्तर ब्रह्माजी वहाँ पधारे और बोले- ‘वर माँगो।’ राजाके शरीरपर दीमकें चढ़ गयी थीं। ब्रह्मवाणी सुनकर वे दिव्य रूप धारण करके बाँबीसे बाहर निकले। उन्होंने सर्वप्रथम ब्रह्माजीको प्रणाम किया और कहा- ‘मुझे दिव्य परात्पर मोक्ष प्राप्त हो।’ राजाकी बात सुनकर साध्वी रानी कलावतीका मन दुःखी हो गया। अतः उन्होंने ब्रह्माजीसे कहा- ‘पितामह ! पति ही नारियोंके लिये सर्वोत्कृष्ट देवता माना गया है। यदि ये मेरे पतिदेवता मुक्ति प्राप्त कर रहे हैं तो मेरी क्या गति होगी ? इनके बिना मैं जीवित नहीं रहूँगी। यदि आप इन्हें मोक्ष देंगे तो मैं पतिसाहचर्यमें विक्षेप पड़नेके कारण विह्वल हो आपको शाप दे दूँगी ।। १४-२२ ॥

ब्रह्माजीने कहा- देवि ! मैं तुम्हारे शापके भयसे अवश्य डरता हूँ; किंतु मेरा दिया हुआ वर कभी विफल नहीं हो सकता। इसलिये तुम अपने प्राणपतिके साथ स्वर्गमें जाओ। वहाँ स्वर्गसुख भोगकर कालान्तरमें फिर पृथ्वीपर जन्म लोगी। द्वापरके अन्तमें भारतवर्षमें, गङ्गा और यमुनाके बीच, तुम्हारा जन्म होगा। तुम दोनोंसे जब परिपूर्णतम भगवान्की प्रिया साक्षात् श्रीराधिकाजी पुत्री-रूपमें प्रकट होंगी, तब तुम दोनों साथ ही मुक्त हो जाओगे ।। २३-२४ ॥(Golok Khand Chapters 6 to 10)

श्रीनारदजी कहते हैं- इस प्रकार ब्रह्माजीके दिव्य एवं अमोघ वरसे कलावती और सुचन्द्र- दोनोंकी भूतलपर उत्पत्ति हुई। वे ही ‘कीर्ति’ तथा ‘श्रीवृषभानु’ हुए हैं। कलावती कान्यकुब्ज देश (कन्नौज) में राजा भलन्दनके यज्ञकुण्डसे प्रकट हुई। उस दिव्य कन्याको अपने पूर्वजन्मकी सारी बातें स्मरण थीं। सुरभानुके घर सुचन्द्रका जन्म हुआ। उस समय वे ‘श्रीवृषभानु’ नामसे विख्यात हुए। उन्हें भी पूर्वजन्मकी स्मृति बनी रही। वे गोपोंमें श्रेष्ठ होनेके साथ ही दूसरे कामदेवके समान परम सुन्दर थे। परम बुद्धिमान् नन्दराजजीने इन दोनोंका विवाह सम्बन्ध जोड़ा था। उन दोनोंको पूर्वजन्मकी स्मृति थी ही, अतः वह एक-दूसरेको चाहते भी थे और दोनोंकी इच्छासे ही यह सम्बन्ध हुआ। जो मनुष्य वृषभानु और कलावतीके इस उपाख्यानको श्रवण करता है, वह सम्पूर्ण पापोंसे छूट जाता है और अन्तमें भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके सायुज्यको प्राप्त कर लेता है ।। २५-३० ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘श्रीराधिकाके पूर्वजन्मका वर्णन’ नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ अगस्त्य संहिता

नवाँ अध्याय

गर्गजीकी आज्ञासे देवकका वसुदेवजीके साथ देवकीका विवाह करना; बिदाईके समय आकाशवाणी सुनकर कंसका देवकीको मारनेके लिये उद्यत होना और वसुदेवजीकी शर्तपर उसे जीवित छोड़ना

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! एक समयकी बात है, श्रेष्ठ मथुरापुरीके परम सुन्दर राजभवनमें गर्गजी पधारे। वे ज्यौतिष शास्त्रके बड़े प्रामाणिक विद्वान् थे। सम्पूर्ण श्रेष्ठ यादवोंने शूरसेनकी इच्छासे उन्हें अपने पुरोहितक पदपर प्रतिष्ठित किया था। मथुराके उस राजभवनमें सोनेके किवाड़ लगे थे, उन किवाड़ोंमें हारे भी जड़े गये थे। राजद्वारपर बड़े-बड़े गजराज झूमते थे। उनके मस्तकपर झुंड-के-झुंड भौरे आते और उन हाथियोंके बड़े-बड़े कानोंसे आहत होकर गुञ्जारव करते हुए उड़ जाते थे। इस प्रकार वह राजद्वार उन भ्रमरोंके नादसे कोलाहलपूर्ण हो रहा था। गजराजोंके गण्डस्थलसे निर्झरकी भाँति झरते हुए मदकी धारासे वह स्थान समावृत था। अनेक मण्डप- समूह उस राजमन्दिरकी शोभा बढ़ाते थे। बड़े-बड़े उद्भट वीर कवच, धनुष, ढाल और तलवार धारण किये राजभवनकी सुरक्षामें तत्पर थे। रथ, हाथी, घोड़े और पैदल – इस चतुरङ्गिणी सेना तथा माण्डलिकोंकी मण्डलीद्वारा भी वह राजमन्दिर सुरक्षित था ॥ १-३॥(Golok Khand Chapters 6 to 10)

मुनिवर गर्गने उस राजभवनमें प्रवेश करके इन्द्रके सदृश उत्तम और ऊँचे सिंहासनपर विराजमान राजा उग्रसेनको देखा। अक्रूर, देवक तथा कंस उनकी सेवामें खड़े थे और राजा छत्रचैदोवेसे सुशोभित थे तथा उनपर चैवर ढुलाये जा रहे थे। मुनिको उपस्थित देख राजा उग्रसेन सहसा सिंहासनसे उठकर खड़े हो गये। उन्होंने अन्यान्य यादवोंके साथ उन्हें प्रणाम किया और सुभद्रपीठपर बिठाकर उनकी सम्यक् प्रकारसे पूजा की। फिर स्तुति और परिक्रमा करके वे उनके सामने विनीतभावसे खड़े हो गये। गर्ग मुनिने राजाको आशीर्वाद देकर समस्त राजपरिवारका कुशल-मङ्गल पूछा। फिर उन महामना महर्षिने नीतिवेत्ता यदुश्रेष्ठ देवकसे कहा ॥ ४-६॥

श्रीगर्गजी बोले – राजन् ! मैंने बहुत दिनोंतक इधर-उधर ढूँढ़ा और सोचा-विचारा है। मेरी दृष्टिमें वसुदेवजीको छोड़कर भूमण्डलके नरेशोंमें दूसरा कोई देवकीके योग्य वर नहीं है। इसलिये नरदेव ! वसुदेवको ही वर बनाकर उन्हें अपनी पुत्री देवकीको सौंप दो और विधिपूर्वक दोनोंका विवाह कर दो ॥ ७ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं – मिथिलेश्वर ! गर्गजीके उक्त आदेशको ही शिरोधार्य करके समस्त धर्मधारियों- में श्रेष्ठ श्रीदेवकने सगाईके निश्चयके लिये पानका बीड़ा भेज दिया और गर्गजीकी इच्छासे मङ्गलाचार- का सम्पादन करके विवाहमें वसुदेव-वरको अपनी पुत्री अर्पित कर दी। विवाह हो जानेपर बिदाईके समय वसुदेवजी घोड़ोंसे सुशोभित अत्यन्त सुन्दर रथपर सुवर्ण-निर्मित एवं रत्नमय आभूषणोंकी शोभासे सम्पन्न नववधू देवकराज-कन्या देवकीके साथ आरूढ़ हुए ॥ ८-९ ॥

वसुदेवके प्रति कंसका बहुत ही स्नेह और कृपाभाव था। वह अपनी बहिनका अत्यन्त प्रिय करनेके लिये चतुरङ्गिणी सेनाके साथ आकर गमनोद्यत घोड़ोंकी बागडोर अपने हाथमें ले स्वयं रथ हाँकने लगा। उस समय देवकने अपनी पुत्रीके लिये उत्तम दहेजके रूपमें एक हजार दासियाँ, दस हजार हाथी, दस लाख घोड़े, एक लाख रथ और दो लाख गौएँ प्रदान कीं। उस बिदाकालमें भेरी, उत्तम मृदङ्ग, गोमुख, धन्धुरि, वीणा, ढोल और वेणु आदि वाद्योंका और साथ जानेवाले यादवोंका महान् कोलाहल हुआ। उस समय मङ्गलगीत गाये जा रहे थे। और मङ्गलपाठ भी हो रहा था। उसी समय आकाशवाणीने कंसको सम्बोधित करके कहा- ‘अरे मूर्ख कंस ! घोड़ोंकी बागडोर हाथमें लेकर जिसे रथपर बैठाये लिये जा रहा है, इसीकी आठवीं संतान अनायास ही तेरा वध कर डालेगी-तू इस बातको नहीं जानता।’ कंस सदा दुष्टोंका ही साथ करता था। स्वभावसे भी वह अत्यन्त खल (दुष्ट) था। लज्जा तो उसे छू नहीं गयी थी। वह निर्दय होनेके कारण बड़े भयंकर कर्म कर डालता था। उसने तीखी धारवाली तलवार हाथमें उठा ली, बहिन- के केश पकड़ लिये और उसे मारनेका निश्चय कर लिया। उस समय बाजेवालोंने बाजे बंद कर दिये। जो आगे थे, वे चकित होकर पीछे देखने लगे। सबके मुँहपर मुर्दनी छा गयी। ऐसी स्थितिमें सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ श्रीवसुदेवजीने कंससे कहा ॥ १०-१५ ॥

श्रीवसुदेवजी बोले- भोजेन्द्र ! आप इस वंशकी कीर्तिका विस्तार करनेवाले हैं। भौमासुर, जरासंध, बकासुर, वत्सासुर और बाणासुर – सभी योद्धा आपसे लड़नेके लिये युद्धभूमिमें आये; किंतु उन्होंने आपकी प्रशंसा ही की। वे ही आप तलवारसे बहिनका वध करनेको कैसे उद्यत हो गये ? बकासुर- की बहिन पूतना आपके पास आकर लड़नेकी इच्छा करने लगी; किंतु आपने राजनीतिके अनुरूप बर्ताव करनेके कारण स्त्री समझकर उसके साथ युद्ध नहीं किया। उस समय शान्ति-स्थापनके लिये आपने पूतनाको बहिनके तुल्य बनाकर छोड़ दिया। फिर यह तो आपकी साक्षात् बहिन है। किस विचारसे आप इस अनुचित कृत्यमें लग गये ? मथुरानरेश! यह कन्या यहाँ विवाहके शुभ अवसरपर आयी है। आपकी छोटी बहिन है। बालिका है। पुत्रीके समान दयनीय – दयापात्र है। यह सदा आपको सद्भावना प्रदान करती आयी है। अतः इसका वध करना आपके लिये कदापि उचित नहीं है। आपकी चित्तवृत्ति तो दीनदुखियोंके दुःख दूर करनेमें ही लगी रहती है । १६ – १८ ॥(Golok Khand Chapters 6 to 10)

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन्। इस प्रकार वसुदेवजीके समझानेपर भी अत्यन्त खल और कुसङ्गी कंसने उनकी बात नहीं मानी। तब वसुदेवजी, यह भगवान्का विधान है, अथवा कालकी ऐसी ही गति है- यह समझकर भगवत्-शरणापन्न हो, पुनः कंससे बोले ॥ १९ ॥

श्रीवसुदेवजीने कहा- राजन् ! इस देवकीसे तो आपको कभी भय है नहीं। आकाशवाणीने जो कुछ कहा है, उसके विषयमें मेरा विचार सुनिये । मैं इसके गर्भसे उत्पन्न सभी पुत्र आपको दे दूंगा; क्योंकि उन्हींसे आपको भय है। अतः व्यथित न होइये ॥ २० ॥

श्रीनारदजी कहते हैं – मिथिलेश ! कंसने वसुदेवजीके निश्चयपूर्वक कहे गये बचनपर विश्वास कर लिया। अतः उनकी प्रशंसा करके वह उसी क्षण घरको चला गया। इधर वसुदेवजी भी भयभीत हो देवकीके साथ अपने भवनको पधारे ॥ २१ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व-संवादमें ‘वसुदेवके विवाहका वर्णन’ नामक नवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ९ ॥

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दसवाँ अध्याय

कंसके अत्याचार; बलभद्रजीका अवतार तथा व्यासदेवद्वारा उनका स्तवन

श्रीनारदजी कहते हैं – राजन् ! कंसने सोचा, वसुदेवजी भयभीत होकर कहीं भाग न जायें- ऐसा विचार मनमें आते ही उसने बहुत-से सैनिक भेज दिये। कंसकी आज्ञासे दस हजार शस्त्रधारी सैनिकोंने पहुँचकर वसुदेवजीका घर घेर लिया। वसुदेवजीने यथासमय देवकीके गर्भसे आठ पुत्र उत्पन्न किये, वे क्रमशः एक वर्षके बाद होते गये। फिर उन्होंने एक कन्याको भी जन्म दिया, जो भगवान्की सनातनी माया थी। सर्वप्रथम जो पुत्र उत्पन्न हुआ, उसका नाम कीर्तिमान् था। वसुदेवजी उसे गोदमें उठाकर कंसके पास ले गये। वे दूसरेके प्रयोजनको भी अच्छी तरहसे समझते थे, इसलिये वह बालक उन्होंने कंसको दे दिया । वसुदेवजीको अपने सत्यवचनके पालनमें तत्पर देख कंसको दया आ गयी। साधुपुरुष दुःख सह लेते हैं, परंतु अपनी कही हुई बात मिथ्या नहीं होने देते। सचाई देखकर किसके मनमें क्षमाका भाव उदित नहीं होता ? ॥ १-४ ।।

कंसने कहा – वसुदेवजी ! यह बालक आपके साथ ही घर लौट जाय, इससे मुझे कोई भय नहीं है। परंतु आप दोनोंका जो आठवाँ गर्भ होगा, उसका वध मैं अवश्य करूँगा- इसमें कोई संशय नहीं है ॥ ५॥(Golok Khand Chapters 6 to 10)

श्रीनारदजी कहते हैं – राजन् ! कंसके यों कहनेपर वसुदेवजी अपने पुत्रके साथ घर लौट आये, परंतु उस दुरात्माके वचनको उन्होंने तनिक भी सत्य नहीं माना। उस समय आकाशसे उतरकर मैं वहाँ गया। उग्रसेनकुमार कंसने मुझे मस्तक झुकाकर मेरा स्वागत-सत्कार किया, और मुझसे देवताओंका अभिप्राय पूछा। उस समय मैंने उसे जो उत्तर दिया, वह मुझसे सुनो। मैंने कहा- ‘नन्द आदि गोप वसुके अवतार हैं और वृषभानु आदि देवताओंके। नरेश्वर कंस ! इस व्रजभूमिमें जो गोपियाँ हैं, उनके रूपमें वेदोंकी ऋचाएँ आदि यहाँ निवास करती हैं। मथुरामें वसुदेव आदि जो वृष्णिवंशी हैं, वे सब के सब मूलतः देवता ही हैं। देवकी आदि सम्पूर्ण स्त्रियाँ भी निश्चय ही देवाङ्गनाएँ हैं। सात बार गिन लेनेपर सभी अङ्क आठ ही हो जाते हैं। तुम्हारे घातककी संख्यासे गिना जाय तो यह प्रथम बालक भी आठवाँ हो सकता है; क्योंकि देवताओंकी ‘वामतो गति’ है ॥ ६-१० ॥

श्रीनारदजी कहते हैं – मिथिलेश्वर ! उससे यों कहकर जब मैं चला आया, तब देवताओंद्वारा किये गये दैत्यवधके लिये उद्योगपर कंसको बड़ा क्रोध हुआ। उसने उसी क्षण यादवोंको मार डालनेका विचार किया। उसने वसुदेव और देवकीको मजबूत बेड़ियोंसे बाँधकर कैद कर लिया और देवकीके उस प्रथम-गर्भजनित शिशुको शिलापृष्ठपर रखकर पीस डाला। उसे अपने पूर्वजन्मकी घटनाओंका स्मरण था, अतः भगवान् विष्णुके भयसे तथा अपने दुष्ट स्वभावके कारण भी उसने इस भूतलपर प्रकट हुए देवकीके प्रत्येक बालकको जन्म लेते ही मार डाला। ऐसा करनेमें उसे तनिक भी हिचक नहीं हुई। यह सब देखकर यदुकुल-नरेश राजा उग्रसेन उस समय कुपित हो उठे। उन्होंने वसुदेवजीकी सहायता की और कंसको अत्याचार करनेसे रोका। कंसके दुष्ट अभिप्रायको प्रत्यक्ष देख महान् यादव वीर उसके विरुद्ध उठ खड़े हुए। वे उग्रसेनके पीछे रहकर, खड्गहस्त हो उनकी रक्षा करने लगे। उग्रसेनके अनुगामियोंको युद्धके लिये उद्यत देख कंसके निजी वीर सैनिक भी उनका सामना करनेके लिये खड़े हुए। राजसभाके मण्डपमें ही उन दोंनों दलोंका परस्पर युद्ध होने लगा। राजद्वारपर भी उन दोनों दलोंके वीरोंमें परस्पर युद्ध छिड़ गया। वे सब लोग खुलकर एक- दूसरेपर खड्गका प्रहार करने लगे। इस संघर्षमें दस हजार मनुष्य खेत रहे। तदनन्तर कंसने गदा हाथमें लेकर पिताकी सेनाको कुचलना आरम्भ किया। उसकी गदासे छू जानेसे ही कितने ही लोगोंके मस्तक फट गये, कितनोंके पाँव कट गये, नख विदीर्ण हो गये, बाँहें कट गयीं और उनकी आशापर पानी फिर गया। कोई औंधे मुँह और कोई उतान होकर अस्त्र- शस्त्र लिये क्षणभरमें धराशायी हो गये। बहुत-से वीर खून उगलते हुए मूर्च्छित हो कालके गालमें चले गये। वहाँ इतना रक्त प्रवाहित हुआ कि सारा सभामण्डप रँग गया ।। ११-२० ॥

राजराजेश्वर ! इस प्रकार दुष्ट एवं मदमत्त कंसने कुपित हो उद्भट शत्रुओंको धराशायी करके अपने पिताको कैद कर लिया। उन्हें राजसिंहसनसे उतारकर उस दुष्टने पाशोंसे बाँधा और उनके मित्रोंके साथ उन्हें भी कारागारमें बंद कर दिया। मधु और शूरसेनकी सारी सम्पत्तिओंपर अधिकार करके कंस स्वयं सिंहासनपर जा बैठा और राज्यशासन करने लगा। समस्त पीड़ित यादव सम्बन्धीके घरपर जानेके बहाने तुरंत चारों दिशाओंमें विभिन्न देशोंके भीतर जाकर रहने लगे और उचित अवसरकी प्रतीक्षा करने लगे। देवकीका सातवाँ गर्भ उनके लिये हर्ष और शोक दोनोंकी वृद्धि करनेवाला हुआ, उसमें साक्षात् अनन्त- देव अवतीर्ण हुए थे। योगमायाने देवकीके उस गर्भको खींचकर व्रजमें रोहिणीकी कुक्षिके भीतर पहुँचा दिया । ऐसा हो जानेपर मथुराके लोग खेद प्रकट करते हुए कहने लगे- ‘अहो ! बेचारी देवकीका गर्भ कहाँ चला गया ? कैसे गिर गया ?’ व्रजमें उस गर्भको गये पाँच ही दिन बीते थे कि भाद्रपद शुक्ला षष्ठीको, स्वाती नक्षत्रमें, बुधके दिन वसुदेवकी पत्नी रोहिणीके गर्भसे अनन्तदेवका प्राकट्य हुआ। उच्चस्थानमें स्थित पाँच ग्रहोंसे घिरे हुए तुला लग्नमें, दोपहरके समय बालकका जन्म हुआ। उस जन्मवेलामें जब देवता फूल बरसा रहे थे और बादल वारिबिन्दु बिखेर रहे थे, प्रकट हुए अनन्तदेवने अपनी अङ्गकान्तिसे नन्दभवनको उद्भासित कर दिया। नन्दरायजीने भी उस शिशुका जातकर्मसंस्कार करके ब्राह्मणोंको दस लाख गौएँ दान कीं। गोपोंको बुलाकर उत्तम गान-विद्यामें निपुण गायकोंके संगीतके साथ महान् मङ्गलमय उत्सवका आयोजन किया। देवल, देवरात, वसिष्ठ, बृहस्पति और मुझ नारदके साथ आकर श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास भी वहाँ बैठे और नन्दजीके दिये हुए पाद्य आदि उपहारोंसे अत्यन्त प्रसन्न हुए ॥ २१-३० ॥

नन्दरायजीने पूछा – महर्षियो ! यह सुन्दर बालक कौन है, जिसके समान दूसरा कोई देखनेमें नहीं आता ? महामुने ! इसका जन्म पाँच ही दिनोंमें कैसे हुआ ? यह मुझे बताइये ॥ ३१ ॥

श्रीव्यासजी बोले- नन्द ! तुम्हारा अद्भुत सौभाग्य है, इस शिशुके रूपमें साक्षात् सनातन देवता शेषनाग पधारे हैं। पहले तो मथुरापुरीमें वसुदेवसे देवकीके गर्भमें इनका आविर्भाव हुआ। फिर भगवान् श्रीकृष्णको इच्छासे इनका देवकीके उदरसे कल्याणमयी रोहिणीके गर्भमें आगमन हुआ है। नन्दराय ! ये योगियोंके लिये भी दुर्लभ हैं, किंतु तुम्हें इनका प्रत्यक्ष दर्शन हुआ है। मैं महामुनि वेदव्यास इनके दर्शनके लिये ही यहाँ आया हूँ, अतः तुम शिशुरूप-धारी इन परात्पर देवताका हम सबको दर्शन कराओ । ॥ ३२-३४ ॥(Golok Khand Chapters 6 to 10)

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर नन्दने विस्मित होकर शिशुरूपधारी शेषका उन्हें दर्शन कराया। पालनेमें विराजमान शेषजीका दर्शन करके सत्यवतीनन्दनने उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति की ॥ ३५ ॥

श्रीव्यासजी बोले – भगवन् ! आप देवताओंकेभी अधिदेवता और कामपाल (सबका मनोरथ पूर्णकरनेवाले) हैं, आपको नमस्कार है। आप साक्षात्अनन्तदेव शेषनाग हैं, बलराम हैं; आपको मेरा प्रणामहै। आप धरणीधर, पूर्णस्वरूप, स्वयंप्रकाश, हाथमें
हल धारण करनेवाले, सहस्त्र मस्तकोंसे सुशोभिततथा संकर्षणदेव हैं, आपको नमस्कार है। रेवती-रमण ! आप ही बलदेव तथा श्रीकृष्णके अग्रज हैं।हलायुध एवं प्रलम्बासुरके नाशक हैं। पुरुषोत्तम !आप मेरी रक्षा कीजिये। आप बल, बलभद्र तथातालके चिह्नसे युक्त ध्वजा धारण करनेवाले हैं;आपको नमस्कार है। आप नीलवस्त्रधारी, गौरवर्ण
तथा रोहिणीके सुपुत्र हैं; आपको मेरा प्रणाम है।आप ही धेनुक, मुष्टिक, कुम्भाण्ड, रुक्मी, कूपकर्ण,कूट तथा बल्वलके शत्रु हैं। कालिन्दीकी धाराको मोड़नेवाले और हस्तिनापुरको गङ्गाकी ओर आकर्षितकरनेवाले आप ही हैं। आप द्विविदके विनाशक,यादवोंके स्वामी तथा व्रजमण्डलके मण्डन (भूषण) हैं। आप कंसके भाइयोंका वध करनेवाले तथातीर्थयात्रा करनेवाले प्रभु हैं। दुर्योधनके गुरु भी साक्षात् आप ही हैं। प्रभो ! जगत्की रक्षा कीजिये, रक्षाकीजिये। अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवालेपरात्पर देवता साक्षात् अनन्त ! आपकी जय हो, जयहो। आपका सुयश समस्त दिगन्तमें व्याप्त है। आपसुरेन्द्र, मुनीन्द्र और फणीन्द्रोंमें सर्वश्रेष्ठ हैं। मुसलधारी, हलधर तथा बलवान् हैं; आपको नमस्कार है। जो इसजगत्में सदा ही इस स्तवनका पाठ करेगा, वहश्रीहरिके परमपदको प्राप्त होगा। संसारमें उसेशत्रुओंका संहार करनेवाला सम्पूर्ण बल प्राप्त होगा।उसकी सदा जय होगी और वह प्रचुर धनका स्वामी होगा * ।। ३६-४४ ॥(Golok Khand Chapters 6 to 10)

श्रीनारदजी कहते हैं – राजन् ! पराशरनन्दन विशाल-बुद्धि बादरायण मुनि सत्यवतीकुमार श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यास उन मुनियोंके साथ बलरामजीको सौ बार प्रणाम और परिक्रमा करके सरस्वती नदीके तटपर चले गये ॥ ४५ ॥

इस प्रकार श्रीगर्ग संहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व-संवादमें ‘बलभद्रजीके जन्मका वर्णन’ नामक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १० ॥

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