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Mahabharata Adi Parva Chapters 11 to 16

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Mahabharata Adi Parva Chapters 11 to 16

॥ श्रीहरिः ॥

श्रीगणेशाय नमः 

॥ श्रीवेदव्यासाय नमः ॥

श्रीमहाभारतम् आदिपर्व ~(Mahabharata Adi Parva Chapters 11 to 16)

महाभारत आदि पर्व के इस पोस्ट में अध्याय 11 से अध्याय 16 (Mahabharata Adi Parva Chapters 11 to 16) दिया गया है। इस में डुण्डुभकी आत्मकथा तथा उसके द्वारा रुरुको अहिंसाका उपदेश, जनमेजयके सर्पसत्रके विषयमें रुरुकी जिज्ञासा और पिताद्वारा उसकी पूर्ति, जरत्कारुका अपने पितरोंके अनुरोधसे विवाहके लिये उद्यत होना, जरत्कारुद्वारा वासुकिकी बहिनका पाणिग्रहण, आस्तीकका जन्म तथा मातृशापसे सर्पसत्रमें नष्ट होनेवाले नागवंशकी उनके द्वारा रक्षा और कद्रू और विनताको कश्यपजीके वरदानसे अभीष्ट पुत्रोंकी प्राप्ति का विस्तृत वर्णन किया गया है।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ संपूर्ण महाभारत हिंदी में

अध्याय ग्यारह

डुण्डुभकी आत्मकथा तथा उसके द्वारा रुरुको अहिंसाका उपदेश

डुण्डुभ उवाच
सखा बभूव मे पूर्व खगमो नाम वै द्विजः ।
भृशं संशितवाक् तात तपोबलसमन्वितः ॥ १ ॥
स मया क्रीडता बाल्ये कृत्वा तार्णं भुजङ्गमम् ।
अग्निहोत्रे प्रसक्तस्तु भीषितः प्रमुमोह वै ॥ २ ॥
डुण्डुभने कहा-तात! पूर्वकालमें खगम नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्मण मेरा मित्र था। वह महान् तपोबलसे सम्पन्न होकर भी बहुत कठोर वचन बोला करता था। एक दिन वह अग्निहोत्रमें लगा था। मैंने खिलवाड़में तिनकोंका एक सर्प बनाकर उसे डरा दिया। वह भयके मारे मूर्च्छित हो गया ॥ १-२ ॥

लब्ध्वा स च पुनः संज्ञां मामुवाच तपोधनः ।
निर्दहन्निव कोपेन सत्यवाक् संशितव्रतः ॥ ३ ॥
फिर होशमें आनेपर वह सत्यवादी एवं कठोरव्रती तपस्वी मुझे क्रोधसे दग्ध-सा करता हुआ बोला- ॥ ३ ॥

यथावीर्यस्त्वया सर्पः कृतोऽयं मद्विभीषया ।
तथावीर्यो भुजङ्गस्त्वं मम शापाद् भविष्यसि ॥ ४ ॥
‘अरे! तूने मुझे डरानेके लिये जैसा अल्प शक्तिवाला सर्प बनाया था, मेरे शापवश ऐसा ही अल्पशक्तिसम्पन्न सर्प तुझे भी होना पड़ेगा’ ॥ ४ ॥(Mahabharata Adi Parva Chapters 11 to 16)

तस्याहं तपसो वीर्य जानन्नासं तपोधन ।
भृशमुद्विग्नहृदयस्तमवोचमहं तदा ॥ ५ ॥
प्रणतः सम्भ्रमाच्चैव प्राञ्जलिः पुरतः स्थितः ।
सखेति सहसेदं ते नर्मार्थं वै कृतं मया ॥ ६ ॥
क्षन्तुमर्हसि मे ब्रह्मन् शापोऽयं विनिवर्त्यताम् ।
सोऽथ मामब्रवीद् दृष्ट्वा भृशमुद्विग्नचेतसम् ॥ ७ ॥
मुहुरुष्णं विनिःश्वस्य सुसम्भ्रान्तस्तपोधनः ।
नानृतं वै मया प्रोक्तं भवितेदं कथंचन ॥ ८ ॥
तपोधन! मैं उसकी तपस्याका बल जानता था, अतः मेरा हृदय अत्यन्त उद्विग्न हो उठा और बड़े वेगसे उसके चरणोंमें प्रणाम करके, हाथ जोड़, सामने खड़ा हो, उस तपोधनसे बोला-सखे! मैंने परिहासके लिये सहसा यह कार्य कर डाला है। ब्रह्मन् ! इसके लिये क्षमा करो और अपना यह शाप लौटा लो। मुझे अत्यन्त घबराया हुआ देखकर सम्भ्रममें पड़े हुए उस तपस्वीने बार-बार गरम साँस खींचते हुए कहा- ‘मेरी कही हुई यह बात किसी प्रकार झूठी नहीं हो सकती’ ॥ ५-८ ॥

यत्तु वक्ष्यामि ते वाक्यं शृणु तन्मे तपोधन ।
श्रुत्वा च हृदि ते वाक्यमिदमस्तु सदानघ ॥ ९ ॥
‘निष्पाप तपोधन! इस समय मैं तुमसे जो कुछ कहता हूँ, उसे सुनो और सुनकर अपने हृदयमें सदा धारण करो ॥ ९ ॥

उत्पत्स्यति रुरुर्नाम प्रमतेरात्मजः शुचिः ।
तं दृष्ट्वा शापमोक्षस्ते भविता नचिरादिव ॥ १० ॥
‘भविष्यमें महर्षि प्रमतिके पवित्र पुत्र रुरु उत्पन्न होंगे, उनका दर्शन करके तुम्हें शीघ्र ही इस शापसे छुटकारा मिल जायगा’ ॥ १० ॥

स त्वं रुरुरिति ख्यातः प्रमतेरात्मजोऽपि च ।
स्वरूपं प्रतिपद्याहमद्य वक्ष्यामि ते हितम् ॥ ११ ॥
जान पड़ता है तुम वही रुरु नामसे विख्यात महर्षि प्रमतिके पुत्र हो। अब मैं अपना स्वरूप धारण करके तुम्हारे हितकी बात बताऊँगा ॥ ११ ॥

स डौण्डुभं परित्यज्य रूपं विप्रर्षभस्तदा ।
स्वरूपं भास्वरं भूयः प्रतिपेदे महायशाः ॥ १२ ॥
इदं चोवाच वचनं रुरुमप्रतिमौजसम् ।
अहिंसा परमो धर्मः सर्वप्राणभृतां वर ॥ १३ ॥
इतना कहकर महायशस्वी विप्रवर सहस्रपादने डुण्डुभका रूप त्यागकर पुनः अपने प्रकाशमान स्वरूपको प्राप्त कर लिया। फिर अनुपम ओजवाले रुरुसे यह बात कही – ‘समस्त प्राणियोंमें श्रेष्ठ ब्राह्मण ! अहिंसा सबसे उत्तम धर्म है ॥ १२-१३ ॥(Mahabharata Adi Parva Chapters 11 to 16)

तस्मात् प्राणभृतः सर्वान् न हिंस्याद् ब्राह्मणः क्वचित् ।
ब्राह्मणः सौम्य एवेह भवतीति परा श्रुतिः ॥ १४ ॥
‘अतः ब्राह्मणको समस्त प्राणियोंमेंसे किसीकी कभी और कहीं भी हिंसा नहीं करनी चाहिये। ब्राह्मण इस लोकमें सदा सौम्य स्वभावका ही होता है, ऐसा श्रुतिका उत्तम वचन है ॥ १४ ॥

वेदवेदाङ्गविन्नाम सर्वभूताभयप्रदः ।
अहिंसा सत्यवचनं क्षमा चेति विनिश्चितम् ॥ १५ ॥
ब्राह्मणस्य परो धर्मो वेदानां धारणापि च ।
क्षत्रियस्य हि यो धर्मः स हि नेष्येत वै तव ॥ १६ ॥
‘वह वेद-वेदांगोंका विद्वान् और समस्त प्राणियोंको अभय देनेवाला होता है। अहिंसा, सत्यभाषण, क्षमा और वेदोंका स्वाध्याय निश्चय ही ये ब्राह्मणके उत्तम धर्म हैं। क्षत्रियका जो धर्म है वह तुम्हारे लिये अभीष्ट नहीं है ॥ १५-१६ ॥

दण्डधारणमुग्रत्वं प्रजानां परिपालनम् ।
तदिदं क्षत्रियस्यासीत् कर्म वै शृणु मे रुरो ॥ १७ ॥
जनमेजयस्य यज्ञेऽस्मिन् सर्पाणां हिंसनं पुरा ।
परित्राणं च भीतानां सर्पाणां ब्राह्मणादपि ॥ १८ ॥
तपोवीर्यबलोपेताद् वेदवेदाङ्गपारगात् ।
आस्तीकाद् द्विजमुख्याद् वै सर्पसत्रे द्विजोत्तम ॥ १९ ॥
‘रुरो! दण्डधारण, उग्रता और प्रजापालन- ये सब क्षत्रियोंके कर्म रहे हैं। मेरी बात सुनो, पहले राजा जनमेजयके यज्ञमें सर्पोंकी बड़ी भारी हिंसा हुई। द्विजश्रेष्ठ! फिर उसी सर्पसत्रमें तपस्याके बल वीर्यसे सम्पन्न, वेद वेदांगोंके पारंगत विद्वान् विप्रवर आस्तीक नामक ब्राह्मणके द्वारा भयभीत सर्पोंकी प्राणरक्षा हुई’ ॥ १७-१९ ॥(Mahabharata Adi Parva Chapters 11 to 16)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि डुण्डुभशापमोक्षे एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौलोमपर्वमें डुण्डुभशापमोक्षविषयक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ११ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमहाभारतम् आदिपर्व प्रथमोऽध्यायः

अध्याय बारह

जनमेजयके सर्पसत्रके विषयमें रुरुकी जिज्ञासा और पिताद्वारा उसकी पूर्ति

रुरुरुवाच
कथं हिंसितवान् सर्पान् स राजा जनमेजयः ।
सर्पा वा हिंसितास्तत्र किमर्थं द्विजसत्तम ॥ १ ॥
रुरुने पूछा- द्विजश्रेष्ठ ! राजा जनमेजयने सर्पोंकी हिंसा कैसे की? अथवा उन्होंने किसलिये यज्ञमें सर्पोंकी हिंसा करवायी? ॥ १ ॥

किमर्थ मोक्षिताश्चैव पन्नगास्तेन धीमता ।
आस्तीकेन द्विजश्रेष्ठ श्रोतुमिच्छाम्यशेषतः ॥ २ ॥
विप्रवर! परम बुद्धिमान् महात्मा आस्तीकने किसलिये सर्पोंको उस यज्ञसे बचाया था? यह सब मैं पूर्णरूपसे सुनना चाहता हूँ ॥ २ ॥

ऋषिरुवाच
श्रोष्यसि त्वं रुरो सर्वमास्तीकचरितं महत् ।
ब्राह्मणानां कथयतामित्युक्त्वान्तरधीयत ॥ ३ ॥
ऋषिने कहा- ‘रुरो ! तुम कथावाचक ब्राह्मणोंके मुखसे आस्तीकका महान् चरित्र सुनोगे।’ ऐसा कहकर सहस्रपाद मुनि अन्तर्धान हो गये ॥ ३ ॥

सौतिरुवाच
रुरुश्चापि वनं सर्वं पर्यधावत् समन्ततः ।
तमृषिं नष्टमन्विच्छन् संश्रान्तो न्यपतद् भुवि ॥ ४ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं – तदनन्तर रुरु वहाँ अदृश्य हुए मुनिकी खोजमें उस वनके भीतर सब ओर दौड़ता रहा और अन्तमें थककर पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ ४ ॥(Mahabharata Adi Parva Chapters 11 to 16)

स मोहं परमं गत्वा नष्टसंज्ञ इवाभवत् ।
तदृषेर्वचनं तथ्यं चिन्तयानः पुनः पुनः ॥ ५ ॥
लब्धसंज्ञो रुरुश्चायात् तदाचख्यौ पितुस्तदा ।
पिता चास्य तदाख्यानं पृष्टः सर्वं न्यवेदयत् ॥ ६ ॥
गिरनेपर उसे बड़ी भारी मूच्र्छाने दबा लिया। उसकी चेतना नष्ट-सी हो गयी। महर्षिके यथार्थ वचनका बार-बार चिन्तन करते हुए होशमें आनेपर रुरु घर लौट आया। उस समय उसने पितासे वे सब बातें कह सुनायीं और पितासे भी आस्तीकका उपाख्यान पूछा। रुरुके पूछनेपर पिताने सब कुछ बता दिया ॥ ५-६ ॥

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि सर्पसत्रप्रस्तावनायां द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत पौलोमपर्वमें सर्पसत्रप्रस्तावनाविषयक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १२ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ गीतावली हिंदी में

(आस्तीकपर्व)
तेरहवां अध्याय

जरत्कारुका अपने पितरोंके अनुरोधसे विवाहके लिये उद्यत होना

शौनक उवाच
किमर्थं राजशार्दूलः स राजा जनमेजयः ।
सर्पसत्रेण सर्पाणां गतोऽन्तं तद् वदस्व मे ॥ १ ॥
निखिलेन यथातत्त्वं सौते सर्वमशेषतः ।
आस्तीकश्च द्विजश्रेष्ठः किमर्थं जपतां वरः ॥ २ ॥
मोक्षयामास भुजगान् प्रदीप्ताद् वसुरेतसः ।
कस्य पुत्रः स राजासीत् सर्पसत्रं य आहरत् ॥ ३ ॥
स च द्विजातिप्रवरः कस्य पुत्रोऽभिधत्स्व मे ।
शौनकजीने पूछा-सूतजी ! राजाओंमें श्रेष्ठ जनमेजयने किसलिये सर्पसत्रद्वारा सर्पोंका अन्त किया? यह प्रसंग मुझसे कहिये। सूतनन्दन ! इस विषयकी सब बातोंका यथार्थरूपसे वर्णन कीजिये। जप-यज्ञ करनेवाले पुरुषोंमें श्रेष्ठ विप्रवर आस्तीकने किसलिये सर्पोंको प्रज्वलित अग्निमें जलनेसे बचाया और वे राजा जनमेजय, जिन्होंने सर्पसत्रका आयोजन किया था, किसके पुत्र थे? तथा द्विजवंशशिरोमणि आस्तीक भी किसके पुत्र थे? यह मुझे बताइये ॥ १ -३ ॥(Mahabharata Adi Parva Chapters 11 to 16)

सौतिरुवाच
महदाख्यानमास्तीकं यथैतत् प्रोच्यते द्विज ॥ ४ ॥
सर्वमेतदशेषेण शृणु मे वदतां वर ।
उग्रश्रवाजीने कहा- ब्रह्मन् ! आस्तीकका उपाख्यान बहुत बड़ा है। वक्ताओंमें श्रेष्ठ ! यह प्रसंग जैसे कहा जाता है, वह सब पूरा-पूरा सुनो ॥ ४ ॥

शौनक उवाच
श्रोतुमिच्छाम्यशेषेण कथामेतां मनोरमाम् ॥ ५ ॥
आस्तीकस्य पुराणर्षेर्ब्राह्मणस्य यशस्विनः ।
शौनकजीने कहा- सूतनन्दन ! पुरातन ऋषि एवं यशस्वी ब्राह्मण आस्तीककी इस मनोरम कथाको मैं पूर्णरूपसे सुनना चाहता हूँ ॥ ५३ ॥

सौतिरुवाच
इतिहासमिमं विप्राः पुराणं परिचक्षते ॥ ६ ॥
कृष्णद्वैपायनप्रोक्तं नैमिषारण्यवासिषु ।
पूर्व प्रचोदितः सूतः पिता मे लोमहर्षणः ॥ ७ ॥
शिष्यो व्यासस्य मेधावी ब्राह्मणेष्विदमुक्तवान् ।
तस्मादहमुपश्रुत्य प्रवक्ष्यामि यथातथम् ॥ ८ ॥
उग्रश्रवाजीने कहा- शौनकजी ! ब्राह्मणलोग इस इतिहासको बहुत पुराना बताते हैं। पहले मेरे पिता लोमहर्षणजीने, जो व्यासजीके मेधावी शिष्य थे, ऋषियोंके पूछनेपर साक्षात् श्रीकृष्णद्वैपायन (व्यास) के कहे हुए इस इतिहासका नैमिषारण्यवासी ब्राह्मणोंके समुदायमें वर्णन किया था। उन्हींके मुखसे सुनकर मैं भी इसका यथावत् वर्णन करता हूँ ॥ ६-८ ॥

इदमास्तीकमाख्यानं तुभ्यं शौनक पृच्छते ।
कथयिष्याम्यशेषेण सर्वपापप्रणाशनम् ॥ ९ ॥
शौनकजी! यह आस्तीक मुनिका उपाख्यान सब पापोंका नाश करनेवाला है। आपके पूछनेपर मैं इसका पूरा-पूरा वर्णन कर रहा हूँ ॥ ९ ॥

आस्तीकस्य पिता ह्यासीत् प्रजापतिसमः प्रभुः ।
ब्रह्मचारी यताहारस्तपस्युग्रे रतः सदा ॥ १० ॥
आस्तीकके पिता प्रजापतिके समान प्रभावशाली थे। ब्रह्मचारी होनेके साथ ही उन्होंने आहारपर भी संयम कर लिया था। वे सदा उग्र तपस्यामें संलग्न रहते थे ॥ १० ॥

जरत्कारुरिति ख्यात ऊर्ध्वरता महातपाः ।
यायावराणां प्रवरो धर्मज्ञः संशितव्रतः ॥ ११ ॥
स कदाचिन्महाभागस्तपोबलसमन्वितः ।
चचार पृथिवीं सर्वां यत्रसायंगृहो मुनिः ॥ १२ ॥
उनका नाम था जरत्कारु। वे ऊर्ध्वरता और महान् ऋषि थे। यायावरोंमें उनका स्थान सबसे ऊँचा था। वे धर्मके ज्ञाता थे। एक समय तपोबलसे सम्पन्न उन महाभाग जरत्कारुने यात्रा प्रारम्भ की। वे मुनि वृत्तिसे रहते हुए जहाँ शाम होती वहीं डेरा डाल देते थे ॥ ११-१२ ॥

तीर्थेषु च समाप्लावं कुर्वन्नटति सर्वशः ।
चरन् दीक्षां महातेजा दुश्चरामकृतात्मभिः ॥ १३ ॥
वे सब तीर्थोंमें स्नान करते हुए घूमते थे। उन महातेजस्वी मुनिने कठोर व्रतोंकी ऐसी दीक्षा लेकर यात्रा प्रारम्भ की थी, जो अजितेन्द्रिय पुरुषोंके लिये अत्यन्त दुःसाध्य थी ॥ १३ ॥

वायुभक्षो निराहारः शुष्यन्ननिमिषो मुनिः ।
इतस्ततः परिचरन् दीप्तपावकसप्रभः ॥ १४ ॥
अटमानः कदाचित् स्वान् स ददर्श पितामहान् ।
लम्बमानान् महागर्ते पादैरूध्र्ध्वरवाङ्मुखान् ॥ १५ ॥
वे कभी वायु पीकर रहते और कभी भोजनका सर्वथा त्याग करके अपने शरीरको सुखाते रहते थे। उन महर्षिने निद्रापर भी विजय प्राप्त कर ली थी, इसलिये उनकी पलक नहीं लगती थी। इधर-उधर विचरण करते हुए वे प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी जान पड़ते थे। घूमते-घूमते किसी समय उन्होंने अपने पितामहोंको देखा जो ऊपरको पैर और नीचेको सिर किये एक विशाल गड्ढेमें लटक रहे थे ॥ १४-१५ ॥(Mahabharata Adi Parva Chapters 11 to 16)

तानब्रवीत् स दृष्ट्वैव जरत्कारुः पितामहान् ।
के भवन्तोऽवलम्बन्ते गर्ते ह्यस्मिन्नधोमुखाः ॥ १६ ॥
उन्हें देखते ही जरत्कारुने उनसे पूछा- ‘आपलोग कौन हैं, जो इस गड्ढेमें नीचेको मुख किये लटक रहे हैं ॥ १६ ॥

वीरणस्तम्बके लग्नाः सर्वतः परिभक्षिते ।
मूषकेन निगूढेन गर्नेऽस्मिन् नित्यवासिना ॥ १७ ॥
‘आप जिस वीरणस्तम्ब (खस नामक तिनकोंके समूह) को पकड़कर लटक रहे हैं, उसे इस गड्ढेमें गुप्तरूपसे नित्य निवास करनेवाले चूहेने सब ओरसे प्रायः खा लिया है’ ॥ १७ ॥

पितर ऊचुः
यायावरा नाम वयमृषयः संशितव्रताः ।
संतानप्रक्षयाद् ब्रह्मन्नधो गच्छाम मेदिनीम् ॥ १८ ॥
पितर बोले- ब्रह्मन् ! हमलोग कठोर व्रतका पालन करनेवाले यायावर नामक मुनि हैं। अपनी संतान-परम्पराका नाश होनेसे हम नीचे-पृथ्वीपर गिरना चाहते हैं ॥ १८ ॥

अस्माकं संततिस्त्वेको जरत्कारुरिति स्मृतः ।
मन्दभाग्योऽल्पभाग्यानां तप एव समास्थितः ॥ १९ ॥
हमारी एक संतति बच गयी है, जिसका नाम है जरत्कारु। हम भाग्यहीनोंकी वह अभागी संतान केवल तपस्यामें ही संलग्न है ॥ १९ ॥

न स पुत्राञ्जनयितुं दारान् मूढश्चिकीर्षति ।
तेन लम्बामहे गर्ने संतानस्य क्षयादिह ॥ २० ॥
अनाथास्तेन नाथेन यया दुष्कृतिनस्तथा ।
कस्त्वं बन्धुरिवास्माकमनुशोचसि सत्तम ॥ २१ ॥
ज्ञातुमिच्छामहे ब्रह्मन् को भवानिह नः स्थितः ।
किमर्थं चैव नः शोच्याननुशोचसि सत्तम ॥ २२ ॥
वह मूढ़ पुत्र उत्पन्न करनेके लिये किसी स्त्रीसे विवाह करना नहीं चाहता है। अतः वंशपरम्पराका विनाश होनेसे हम यहाँ इस गड्ढेमें लटक रहे हैं। हमारी रक्षा करनेवाला वह वंशधर मौजूद है, तो भी पापकर्मी मनुष्योंकी भाँति हम अनाथ हो गये हैं। साधुशिरोमणे ! तुम कौन हो जो हमारे बन्धु-बान्धवोंकी भाँति हमलोगोंकी इस दयनीय दशाके लिये शोक कर रहे हो? ब्रह्मन्! हम यह जानना चाहते हैं कि तुम कौन हो जो आत्मीयकी भाँति यहाँ हमारे पास खड़े हो? सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ ! हम शोचनीय प्राणियोंके लिये तुम क्यों शोकमग्न होते हो ॥ २०-२२ ॥(Mahabharata Adi Parva Chapters 11 to 16)

जरत्कारुरुवाच
मम पूर्वे भवन्तो वै पितरः सपितामहाः ।
ब्रूत किं करवाण्यद्य जरत्कारुरहं स्वयम् ॥ २३ ॥
जरत्कारुने कहा- महात्माओ ! आपलोग मेरे ही पितामह और पूर्वज पितृगण हैं। स्वयं मैं ही जरत्कारु हूँ। बताइये, आज आपकी क्या सेवा करूँ? ॥ २३ ॥

पितर ऊचुः
यतस्व यत्नवांस्तात संतानाय कुलस्य नः ।
आत्मनोऽर्थेऽस्मदर्थे च धर्म इत्येव वा विभो ॥ २४ ॥
पितर बोले- तात! तुम हमारे कुलकी संतान-परम्पराको बनाये रखनेके लिये निरन्तर यत्नशील रहकर विवाहके लिये प्रयत्न करो। प्रभो! तुम अपने लिये, हमारे लिये अथवा धर्मका पालन हो, इस उद्देश्यसे पुत्रकी उत्पत्तिके लिये यत्न करो ॥ २४ ॥

न हि धर्मफलैस्तात न तपोभिः सुसंचितैः ।
तां गतिं प्राप्नुवन्तीह पुत्रिणो यां व्रजन्ति वै ॥ २५ ॥
तात! पुत्रवाले मनुष्य इस लोकमें जिस उत्तम गतिको प्राप्त होते हैं, उसे अन्य लोग धर्मानुकूल फल देनेवाले भलीभाँति संचित किये हुए तपसे भी नहीं पाते ॥ २५ ॥

तद् दारग्रहणे यत्नं संतत्यां च मनः कुरु ।
पुत्रकास्मन्नियोगात् त्वमेतन्नः परमं हितम् ॥ २६ ॥
अतः बेटा! तुम हमारी आज्ञासे विवाह करनेका प्रयत्न करो और संतानोत्पादनकी ओर ध्यान दो। यही हमारे लिये सर्वोत्तम हितकी बात होगी ॥ २६ ॥

जरत्कारुरुवाच
न दारान् वै करिष्येऽहं न धनं जीवितार्थतः ।
भवतां तु हितार्थाय करिष्ये दारसंग्रहम् ॥ २७ ॥
जरत्कारुने कहा- पितामहगण! मैंने अपने मनमें यह निश्चय कर लिया था कि मैं जीवनके सुख-भोगके लिये कभी न तो पत्नीका परिग्रह करूँगा और न धनका संग्रह ही; परंतु यदि ऐसा करनेसे आपलोगोंका हित होता है तो उसके लिये अवश्य विवाह कर लूँगा ॥ २७ ॥

समयेन च कर्ताहमनेन विधिपूर्वकम् ।
तथा यद्युपलप्स्यामि करिष्ये नान्यथा ह्यहम् ॥ २८ ॥
किंतु एक शर्तके साथ मुझे विधिपूर्वक विवाह करना है। यदि उस शर्तके अनुसार किसी कुमारी कन्याको पाऊँगा, तभी उससे विवाह करूँगा, अन्यथा विवाह करूँगा ही नहीं ॥ २८ ॥

सनाम्नी या भवित्री मे दित्सिता चैव बन्धुभिः ।
भैक्ष्यवत्तामहं कन्यामुपयंस्ये विधानतः ॥ २९ ॥
(वह शर्त यों है) जिस कन्याका नाम मेरे नामके ही समान हो, जिसे उसके भाई-बन्धु स्वयं मुझे देनेकी इच्छासे रखते हों और जो भिक्षाकी भाँति स्वयं प्राप्त हुई हो, उसी कन्याका मैं शास्त्रीय विधिके अनुसार पाणिग्रहण करूँगा ॥ २९ ॥

दरिद्राय हि मे भार्यों को दास्यति विशेषतः ।
प्रतिग्रहीष्ये भिक्षां तु यदि कश्चित् प्रदास्यति ॥ ३० ॥
विशेष बात तो यह है कि मैं दरिद्र हूँ, भला मुझे माँगनेपर भी कौन अपनी कन्या पत्नीरूपमें प्रदान करेगा? इसलिये मेरा विचार है कि यदि कोई भिक्षाके तौरपर अपनी कन्या देगा तो उसे ग्रहण करूँगा ॥ ३० ॥

एवं दारक्रियाहेतोः प्रयतिष्ये पितामहाः ।
अनेन विधिना शश्वन्न करिष्येऽहमन्यथा ॥ ३१ ॥
पितामहो! मैं इसी प्रकार, इसी विधिसे विवाहके लिये सदा प्रयत्न करता रहूँगा। इसके विपरीत कुछ नहीं करूँगा ॥ ३१ ॥

तत्र चोत्पत्स्यते जन्तुर्भवतां तारणाय वै ।
शाश्वतं स्थानमासाद्य मोदन्तां पितरो मम ॥ ३२ ॥
इस प्रकार मिली हुई पत्नीके गर्भसे यदि कोई प्राणी जन्म लेगा तो वह आपलोगोंका उद्धार करेगा, अतः आप मेरे पितर अपने सनातन स्थानपर जाकर वहाँ प्रसन्नतापूर्वक रहें ॥ ३२ ॥(Mahabharata Adi Parva Chapters 11 to 16)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि जरत्कारुतत्पितृसंवादे त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें जरत्कारु तथा उनके पितरोंका संवाद नामक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३ ॥

यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खण्ड पहले अध्याय से पांचवे अध्याय तक

अध्याय चौदह

जरत्कारुद्वारा वासुकिकी बहिनका पाणिग्रहण

सौतिरुवाच
ततो निवेशाय तदा स विप्रः संशितव्रतः ।
महीं चचार दारार्थी न च दारानविन्दत ॥ १ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं- तदनन्तर वे कठोर व्रतका पालन करनेवाले ब्राह्मण भार्याकी प्राप्तिके लिये इच्छुक होकर पृथ्वीपर सब ओर विचरने लगे; किंतु उन्हें पत्नीकी उपलब्धि नहीं हुई ॥ १ ॥

स कदाचिद् वनं गत्वा विप्रः पितृवचः स्मरन् ।
चुक्रोश कन्याभिक्षार्थी तिस्रो वाचः शनैरिव ॥ २ ॥
एक दिन किसी वनमें जाकर विप्रवर जरत्कारुने पितरोंके वचनका स्मरण करके कन्याकी भिक्षाके लिये तीन बार धीरे-धीरे पुकार लगायी – ‘कोई भिक्षारूपमें कन्या दे जाय’ ॥ २ ॥

तं वासुकिः प्रत्यगृह्लादुद्यम्य भगिनीं तदा ।
न स तां प्रतिजग्राह न सनाम्नीति चिन्तयन् ॥ ३ ॥
इसी समय नागराज वासुकि अपनी बहिनको लेकर मुनिकी सेवामें उपस्थित हो गये और बोले, ‘यह भिक्षा ग्रहण कीजिये।’ किंतु उन्होंने यह सोचकर कि शायद यह मेरे-जैसे नामवाली न हो, उसे तत्काल ग्रहण नहीं किया ॥ ३ ॥

सनाम्नीं चोद्यतां भार्यां गृह्णीयामिति तस्य हि ।
मनो निविष्टमभवज्जरत्कारोर्महात्मनः ॥ ४ ॥
उन महात्मा जरत्कारुका मन इस बातपर स्थिर हो गया था कि मेरे-जैसे नामवाली
कन्या यदि उपलब्ध हो तो उसीको पत्नीरूपमें ग्रहण करूँ ॥ ४ ॥

तमुवाच महाप्राज्ञो जरत्कारुर्महातपाः ।
किंनाम्नी भगिनीयं ते ब्रूहि सत्यं भुजंगम ॥ ५ ॥
ऐसा निश्चय करके परम बुद्धिमान् एवं महान् तपस्वी जरत्कारुने पूछा- ‘नागराज! सच-सच बताओ, तुम्हारी इस बहिनका क्या नाम है?’ ॥ ५ ॥

वासुकिरुवाच
जरत्कारो जरत्कारुः स्वसेयमनुजा मम ।
प्रतिगृह्णीष्व भार्यार्थे मया दत्तां सुमध्यमाम् ।
त्वदर्थं रक्षिता पूर्व प्रतीच्छेमां द्विजोत्तम ॥ ६ ॥
वासुकिने कहा- जरत्कारो ! यह मेरी छोटी बहिन जरत्कारु नामसे ही प्रसिद्ध है। इस सुन्दर कटिप्रदेशवाली कुमारीको पत्नी बनानेके लिये मैंने स्वयं आपकी सेवामें समर्पित किया है। इसे स्वीकार कीजिये। द्विजश्रेष्ठ ! यह बहुत पहलेसे आपहीके लिये सुरक्षित रखी गयी है, अतः इसे ग्रहण करें ॥ ६ ॥

एवमुक्त्वा ततः प्रादाद् भार्यार्थे वरवर्णिनीम् ।
स च तां प्रतिजग्राह विधिदृष्टेन कर्मणा ॥ ७ ॥
ऐसा कहकर वासुकिने वह सुन्दरी कन्या मुनिको पत्नीरूपमें प्रदान की। मुनिने भी शास्त्रीय विधिके अनुसार उसका पाणिग्रहण किया ॥ ७ ॥

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि वासुकिस्वसृवरणे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें वासुकिकी बहिनके वरणसे सम्बन्ध रखनेवाला चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १४ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ अगस्त्य संहिता

अध्याय पंद्रह

आस्तीकका जन्म तथा मातृशापसे सर्पसत्रमें नष्ट होनेवाले नागवंशकी उनके द्वारा रक्षा

सौतिरुवाच
मात्रा हि भुजगाः शप्ताः पूर्व ब्रह्मविदां वर ।
जनमेजयस्य वो यज्ञे धक्ष्यत्यनिलसारथिः ॥ १ ॥
उग्रश्रवाजी कहते हैं – ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ शौनक ! पूर्वकालमें नागमाता कद्रूने सर्पोंको यह शाप दिया था कि तुम्हें जनमेजयके यज्ञमें अग्नि भस्म कर डालेगी ॥ १ ॥

तस्य शापस्य शान्त्यर्थं प्रददौ पन्नगोत्तमः ।
स्वसारमृषये तस्मै सुव्रताय महात्मने ॥ २ ॥
स च तां प्रतिजग्राह विधिदृष्टेन कर्मणा ।
आस्तीको नाम पुत्रश्च तस्यां जज्ञे महामनाः ॥ ३ ॥
उसी शापकी शान्तिके लिये नागप्रवर वासुकिने सदाचारका पालन करनेवाले महात्मा जरत्कारुको अपनी बहिन ब्याह दी थी। महामना जरत्कारुने शास्त्रीय विधिके अनुसार उस नागकन्याका पाणिग्रहण किया और उसके गर्भसे आस्तीक नामक पुत्रको जन्म दिया ॥ २-३ ॥

तपस्वी च महात्मा च वेदवेदाङ्गपारगः ।
समः सर्वस्य लोकस्य पितृमातृभयापहः ॥ ४ ॥
आस्तीक वेद-वेदांगोंके पारंगत विद्वान्, तपस्वी, महात्मा, सब लोगोंके प्रति समानभाव रखनेवाले तथा पितृकुल और मातृकुलके भयको दूर करनेवाले थे ॥ ४ ॥

अथ दीर्घस्य कालस्य पाण्डवेयो नराधिपः ।
आजहार महायज्ञं सर्पसत्रमिति श्रुतिः ॥ ५॥
तस्मिन् प्रवृत्ते सत्रे तु सर्पाणामन्तकाय वै ।
मोचयामास तान् नागानास्तीकः सुमहातपाः ॥ ६ ॥
तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात् पाण्डववंशीय नरेश जनमेजयने सर्पसत्र नामक महान् यज्ञका आयोजन किया, ऐसा सुननेमें आता है। सर्पोंके संहारके लिये आरम्भ किये हुए उस सत्रमें आकर महातपस्वी आस्तीकने नागोंको मौतसे छुड़ाया ॥ ५-६ ॥

भ्रातृश्च मातुलांश्चैव तथैवान्यान् स पन्नगान् ।
पितृश्च तारयामास संतत्या तपसा तथा ॥ ७ ॥
उन्होंने मामा तथा ममेरे भाइयोंको एवं अन्यान्य सम्बन्धोंमें आनेवाले सब नागोंको संकटमुक्त किया। इसी प्रकार तपस्या तथा संतानोत्पादनद्वारा उन्होंने पितरोंका भी उद्धार किया ॥ ७ ॥

व्रतैश्च विविधैर्ब्रह्मन् स्वाध्यायैश्चानृणोऽभवत् ।
देवांश्च तर्पयामास यज्ञैर्विविधदक्षिणैः ॥ ८ ॥
ऋषींश्च ब्रह्मचर्येण संतत्या च पितामहान् ।
अपहृत्य गुरुं भारं पितृणां संशितव्रतः ॥ ९ ॥
जरत्कारुर्गतः स्वर्ग सहितः स्वैः पितामहैः ।
आस्तीकं च सुतं प्राप्य धर्म चानुत्तमं मुनिः ॥ १० ॥
जरत्कारुः सुमहता कालेन स्वर्गमेयिवान् ।
एतदाख्यानमास्तीकं यथावत् कथितं मया ।
प्रब्रूहि भृगुशार्दूल किमन्यत् कथयामि ते ॥ ११ ॥
ब्रह्मन् ! भाँति-भाँतिके व्रतों और स्वाध्यायोंका अनुष्ठान करके वे सब प्रकारके ऋणोंसे उऋण हो गये। अनेक प्रकारकी दक्षिणावाले यज्ञोंका अनुष्ठान करके उन्होंने देवताओं, ब्रह्मचर्यव्रतके पालनसे ऋषियों और संतानकी उत्पत्तिद्वारा पितरोंको तृप्त किया। कठोर व्रतका पालन करनेवाले जरत्कारु मुनि पितरोंकी चिन्ताका भारी भार उतारकर अपने उन पितामहोंके साथ स्वर्गलोकको चले गये। आस्तीक जैसे पुत्र तथा परम धर्मकी प्राप्ति करके मुनिवर जरत्कारुने दीर्घकालके पश्चात् स्वर्गलोककी यात्रा की। भृगुकुलशिरोमणे! इस प्रकार मैंने आस्तीकके उपाख्यानका यथावत् वर्णन किया है। बताइये, अब और क्या कहा जाय ? ॥ ८-११ ॥

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सर्पाणां मातृशापप्रस्तावे पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें सर्पोंको मातृशाप प्राप्त होनेकी प्रस्तावनासे युक्त पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १५ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ सनातन धर्म में कितने शास्त्र-षड्दर्शन हैं।

अध्याय सोलह

कद्रू और विनताको कश्यपजीके वरदानसे अभीष्ट पुत्रोंकी प्राप्ति

शौनक उवाच
सौते त्वं कथयस्वेमां विस्तरेण कथां पुनः ।
आस्तीकस्य कवेः साधोः शुश्रूषा परमा हि नः ॥ १ ॥
शौनकजी बोले-सूतनन्दन ! आप ज्ञानी महात्मा आस्तीककी इस कथाको पुनः विस्तारके साथ कहिये। हमें उसे सुननेके लिये बड़ी उत्कण्ठा है ॥ १ ॥

मधुरं कथ्यते सौम्य श्लक्ष्णाक्षरपदं त्वया ।
प्रीयामहे भृशं तात पितेवेदं प्रभाषसे ॥ २ ॥
सौम्य! आप बड़ी मधुर कथा कहते हैं। उसका एक-एक अक्षर और एक-एक पद कोमल है। तात! इसे सुनकर हमें बड़ी प्रसन्नता होती है। आप अपने पिता लोमहर्षणकी भाँति ही प्रवचन कर रहे हैं ॥ २ ॥

अस्मच्छुश्रूषणे नित्यं पिता हि निरतस्तव ।
आचष्टैतद् यथाख्यानं पिता ते त्वं तथा वद ॥ ३ ॥
आपके पिता सदा हमलोगोंकी सेवामें लगे रहते थे। उन्होंने इस उपाख्यानको जिस प्रकार कहा है, उसी रूपमें आप भी कहिये ॥ ३ ॥

सौतिरुवाच
आयुष्मन्निदमाख्यानमास्तीकं कथयामि ते ।
यथाश्रुतं कथयतः सकाशाद् वै पितुर्मया ॥ ४ ॥
उग्रश्रवाजीने कहा- आयुष्मन् ! मैंने अपने कथावाचक पिताजीके मुखसे यह आस्तीककी कथा, जिस रूपमें सुनी है, उसी प्रकार आपसे कहता हूँ ॥ ४ ॥

पुरा देवयुगे ब्रह्मन् प्रजापतिसुते शुभे ।
आस्तां भगिन्यौ रूपेण समुपेतेऽद्भुतेऽनघ ॥ ५ ॥
ते भार्ये कश्यपस्यास्तां कद्रूश्च विनता च ह । प्रादात् ताभ्यां वरं प्रीतः प्रजापतिसमः पतिः ॥ ६ ॥

कश्यपो धर्मपत्नीभ्यां मुदा परमया युतः ।
वरातिसर्ग श्रुत्वैवं कश्यपादुत्तमं च ते ॥ ७ ॥
हर्षादप्रतिमां प्रीतिं प्रापतुः स्म वरस्त्रियौ ।
वव्रे कद्रूः सुतान् नागान् सहस्रं तुल्यवर्चसः ॥ ८ ॥
ब्रह्मन् ! पहले सत्ययुगमें दक्ष प्रजापतिकी दो शुभलक्षणा कन्याएँ थीं-कटू और विनता। वे दोनों बहिनें रूप-सौन्दर्यसे सम्पन्न तथा अद्भुत थीं। अनघ ! उन दोनोंका विवाह महर्षि कश्यपजीके साथ हुआ था। एक दिन प्रजापति ब्रह्माजीके समान शक्तिशाली पति महर्षि कश्यपने अत्यन्त हर्षमें भरकर अपनी उन दोनों धर्मपत्नियोंको प्रसन्नतापूर्वक वर देते हुए कहा-‘तुममेंसे जिसकी जो इच्छा हो वर माँग लो।’ इस प्रकार कश्यपजीसे उत्तम वरदान मिलनेकी बात सुनकर प्रसन्नताके कारण उन दोनों सुन्दरी स्त्रियोंको अनुपम आनन्द प्राप्त हुआ। कद्रूने समान तेजस्वी एक हजार नागोंको पुत्ररूपमें पानेका वर माँगा ॥ ५- ८ ॥

द्वौ पुत्रौ विनता वने कद्रूपुत्राधिकौ बले ।
तेजसा वपुषा चैव विक्रमेणाधिकौ च तौ ॥ ९ ॥
विनताने बल, तेज, शरीर तथा पराक्रममें कद्रूके पुत्रोंसे श्रेष्ठ केवल दो ही पुत्र माँगे ॥ ९ ॥

तस्यै भर्ता वरं प्रादादत्यर्थं पुत्रमीप्सितम् ।
एवमस्त्विति तं चाह कश्यपं विनता तदा ॥ १० ॥
विनताको पतिदेवने, अत्यन्त अभीष्ट दो पुत्रोंके होनेका वरदान दे दिया। उस समय विनताने कश्यपजीसे ‘एवमस्तु ‘कहकर उनके दिये हुए वरको शिरोधार्य किया ॥ १० ॥

यथावत् प्रार्थितं लब्ध्वा वरं तुष्टाभवत् तदा ।
कृतकृत्या तु विनता लब्ध्वा वीर्याधिको सुतौ ॥ ११ ॥
अपनी प्रार्थनाके अनुसार ठीक वर पाकर वह बहुत प्रसन्न हुई। कद्रूके पुत्रोंसे अधिक बलवान् और पराक्रमी -दो पुत्रोंके होनेका वर प्राप्त करके विनता अपनेको कृतकृत्य मानने लगी ॥ ११ ॥

कद्रूश्च लब्ध्वा पुत्राणां सहस्रं तुल्यवर्चसाम् ।
धार्यों प्रयत्नतो गर्भावित्युक्त्वा स महातपाः ॥ १२ ॥
ते भार्ये वरसंतुष्टे कश्यपो वनमाविशत् ।
समान तेजस्वी एक हजार पुत्र होनेका वर पाकर कट्टू भी अपना मनोरथ सिद्ध हुआ समझने लगी। वरदान पाकर संतुष्ट हुई अपनी उन धर्मपत्नियोंसे यह कहकर कि ‘तुम दोनों यत्नपूर्वक अपने-अपने गर्भकी रक्षा करना’ महातपस्वी कश्यपजी वनमें चले गये ॥ १३ ॥

सौतिरुवाच
कालेन महता कद्रूरण्डानां दशतीर्दश ॥ १३ ॥
जनयामास विप्रेन्द्र द्वे चाण्डे विनता तदा ।
उग्रश्नवाजीने कहा- ब्रह्मन् ! तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात् कद्रूने एक हजार और विनताने दो अण्डे दिये ॥ १३ ॥

तयोरण्डानि निदधुः प्रहृष्टाः परिचारिकाः ॥ १४ ॥
सोपस्वेदेषु भाण्डेषु पञ्चवर्षशतानि च ।
ततः पञ्चशते काले कद्रूपुत्रा विनिःसृताः ॥ १५ ॥
अण्डाभ्यां विनतायास्तु मिथुनं न व्यदृश्यत ।
दासियोंने अत्यन्त प्रसन्न होकर दोनोंके अण्डोंको गरम बर्तनोंमें रख दिया। वे अण्डे पाँच सौ वर्षोंतक उन्हीं बर्तनोंमें पड़े रहे। तत्पश्चात् पाँच सौ वर्ष पूरे होनेपर कद्रूके एक हजार पुत्र अण्डोंको फोड़कर बाहर निकल आये; परंतु विनताके अण्डोंसे उसके दो बच्चे निकलते नहीं दिखायी दिये ॥ १४-१५३ ॥

ततः पुत्रार्थिनी देवी व्रीडिता च तपस्विनी ॥ १६ ॥
अण्डं बिभेद विनता तत्र पुत्रमपश्यत ।
पूर्वार्धकायसम्पन्नमितरेणाप्रकाशता ॥ १७ ॥
इससे पुत्रार्थिनी और तपस्विनी देवी विनता सौतके सामने लज्जित हो गयी। फिर उसने अपने हाथोंसे एक अण्डा फोड़ डाला। फूटनेपर उस अण्डेमें विनताने अपने पुत्रको देखा, उसके शरीरका ऊपरी भाग पूर्णरूपसे विकसित एवं पुष्ट था, किंतु नीचेका आधा अंग अभी अधूरा रह गया था ॥ १६-१७ ॥

स पुत्रः क्रोधसंरब्धः शशापैनामिति श्रुतिः ।
योऽहमेवं कृतो मातस्त्वया लोभपरीतया ॥ १८ ॥
शरीरेणासमग्रेण तस्माद् दासी भविष्यसि ।
पञ्चवर्षशतान्यस्या यया विस्पर्धसे सह ॥ १९ ॥
सुना जाता है, उस पुत्रने क्रोधके आवेशमें आकर विनताको शाप दे दिया -‘माँ! तूने लोभके वशीभूत होकर मुझे इस प्रकार अधूरे शरीरका बना दिया- मेरे समस्त अंगोंको पूर्णतः विकसित एवं पुष्ट नहीं होने दिया; इसलिये जिस सौतके साथ तू लाग-डाँट रखती है, उसीकी पाँच सौ वर्षोंतक दासी बनी रहेगी ॥ १८-१९ ॥

एष च त्वां सुतो मातर्दासीत्वान्मोचयिष्यति ।
यद्येनमपि मातस्त्वं मामिवाण्डविभेदनात् ॥ २० ॥
न करिष्यस्यनङ्गं वा व्यङ्गं वापि तपस्विनम् ।
‘और मा! यह जो दूसरे अण्डेमें तेरा पुत्र है, यही तुझे दासीभावसे छुटकारा दिलायेगा;
किंतु माता! ऐसा तभी हो सकता है जब तू इस तपस्वी पुत्रको मेरी ही तरह अण्डा फोड़कर अंगहीन या अधूरे अंगोंसे युक्त न बना देगी ॥ २० ॥

प्रतिपालयितव्यस्ते जन्मकालोऽस्य धीरया ॥ २१ ॥
विशिष्टं बलमीप्सन्त्या पञ्चवर्षशतात् परः ।
‘इसलिये यदि तू इस बालकको विशेष बलवान् बनाना चाहती है तो पाँच सौ वर्षके बादतक तुझे धैर्य धारण करके इसके जन्मकी प्रतीक्षा करनी चाहिये’ ॥ २१ ॥

एवं शप्त्वा ततः पुत्रो विनतामन्तरिक्षगः ॥ २२ ॥
अरुणो दृश्यते ब्रह्मन् प्रभातसमये सदा ।
आदित्यरथमध्यास्ते सारथ्यं समकल्पयत् ॥ २३ ॥
इस प्रकार विनताको शाप देकर वह बालक अरुण अन्तरिक्षमें उड़ गया। ब्रह्मन् ! तभीसे प्रातःकाल (प्राची दिशामें) सदा जो लाली दिखायी देती है, उसके रूपमें विनताके पुत्र अरुणका ही दर्शन होता है। वह सूर्यदेवके रथपर जा बैठा और उनके सारथिका काम सँभालने लगा ॥ २२-२३ ॥

गरुडोऽपि यथाकालं जज्ञे पन्नगभोजनः ।
स जातमात्रो विनतां परित्यज्य खमाविशत् ॥ २४ ॥
आदास्यन्नात्मनो भोज्यमन्नं विहितमस्य यत् ।
विधात्रा भृगुशार्दूल क्षुधितः पतगेश्वरः ॥ २५ ॥
तदनन्तर समय पूरा होनेपर सर्पसंहारक गरुडका जन्म हुआ। भृगुश्रेष्ठ ! पक्षिराज गरुड जन्म लेते ही क्षुधासे व्याकुल हो गये और विधाताने उनके लिये जो आहार नियत किया था, अपने उस भोज्य पदार्थको प्राप्त करनेके लिये माता विनताको छोड़कर आकाशमें उड़ गये ॥ २४-२५ ॥

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सर्पादीनामुत्पत्तौ षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें सर्प आदिकी उत्पत्तिसे सम्बन्ध रखनेवाला सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १६ ॥

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