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Garga Samhita Golok Khand Chapter 16 to 20

Garga Samhita
Garga Samhita Golok Khand Chapter 16 to 20

॥ श्रीहरिः ॥

ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते

श्रीगर्ग संहिता गोलोकखण्ड (Golok Khand Chapter 16 to 20)

गर्ग संहिता गोलोक खण्ड सोलहवाँ अध्याय से बीसवाँ अध्याय तक

श्री गर्ग संहिता में गोलोक खण्ड (Golok Khand Chapter 16 to 20) के सोलहवें अध्याय में भाण्डीर-वनमें नन्दजीके द्वारा श्रीराधाजीकी स्तुति; श्रीराधा और श्रीकृष्णका ब्रह्माजीके द्वारा विवाह ब्रह्माजीके द्वारा श्रीकृष्णका स्तवन तथा नव-दम्पतिकी मधुर लीलाओ का वर्णन है। सत्रहवाँ अध्याय में श्रीकृष्णकी बाल-लीलामें दधि-चोरीका वर्णन, अठारहवाँ अध्याय में नन्द, उपनन्द और वृषभानुओंका परिचय तथा श्रीकृष्णकी मृद्भक्षण-लीला, उन्नीसवाँ अध्याय में दामोदर कृष्णका उलूखल-बन्धन तथा उनके द्वारा यमलार्जुन-वृक्षोंका उद्धार और बीसवाँ अध्याय दुर्वासाद्वारा भगवान्की मायाका एवं गोलोकमें श्रीकृष्णका दर्शन तथा श्रीनन्दनन्दनस्तोत्र है।

यहां पढ़ें ~ गोलोक खण्ड पहले अध्याय से पांचवे अध्याय तक

सोलहवाँ अध्याय

भाण्डीर-वनमें नन्दजीके द्वारा श्रीराधाजीकी स्तुति; श्रीराधा और श्रीकृष्णका ब्रह्माजीके द्वारा विवाह; ब्रह्माजीके द्वारा श्रीकृष्णका स्तवन तथा नव-दम्पतिकी मधुर लीलाएँ

श्रीनारदजी कहते हैं – राजन् ! एक दिन नन्दजी अपने नन्दनको अङ्कमें लेकर लाड़ लड़ाते और गौएँ चराते हुए खिरकके पाससे बहुत दूर निकल गये। धीरे-धीरे भाण्डीर-वन जा पहुँचे, जो कालिन्दी-नीरका स्पर्श करके बहनेवाले तीरवर्ती शीतल समीरके झोंकेसे कम्पित हो रहा था। थोड़ी ही देरमें श्रीकृष्णकी इच्छासे वायुका वेग अत्यन्त प्रखर हो उठा। आकाश मेघोंकी घटासे आच्छादित हो गया। तमाल और कदम्ब वृक्षों- के पल्लव टूट-टूटकर गिरने, उड़ने और अत्यन्त भयका उत्पादन करने लगे। उस समय महान् अन्धकार छा गया। नन्दनन्दन रोने लगे। वे पिताकी गोदमें बहुत भयभीत दिखायी देने लगे। नन्दको भी भय हो गया। वे शिशुको गोदमें लिये परमेश्वर श्रीहरिकी शरणमें गये ॥ १-३ ॥(Golok Khand Chapter 16 to 20)

उसी क्षण करोड़ों सूर्योक समूहकी-सी दिव्य दीप्ति उदित हुई, जो सम्पूर्ण दिशाओंमें व्याप्त थी; वह क्रमशः निकट आती-सी जान पड़ी उस दीप्तिराशिके भीतर नौ नन्दोंके राजाने वृषभानुनन्दिनी श्रीराधाको देखा। वे करोड़ों चन्द्रमण्डलोंकी कान्ति धारण किये हुए थीं। उनके श्रीअङ्गोंपर आदिवर्ण नील रंगके सुन्दर वस्त्र शोभा पा रहे थे चरणप्रान्तमें मञ्जीरोंकी धीर-ध्वनिसे युक्त नूपुरोंका अत्यन्त मधुर शब्द हो रहा था। उस शब्दमें काञ्चीकलाप और कङ्कणोंकी झनकार भी मिली थी। रत्नमय हार, मुद्रिका और बाजूबंदोंकी प्रभासे वे और भी उद्भासित हो रही थीं। नाकमें मोतीकी बुलाक और नकबेसरकी अपूर्व शोभा हो रही थी। कण्ठमें कंठा, सीमन्तपर चूड़ामणि और कानोंमें कुण्डल झलमला रहे थे। श्रीराधाके दिव्य तेजसे अभिभूत हो नन्दने तत्काल उनके सामने मस्तक झुकाया और हाथ जोड़कर कहा- ‘राधे ! ये साक्षात् पुरुषोत्तम हैं और तुम इनकी मुख्य प्राणवल्लभा हो, यह गुप्त रहस्य मैं गर्गजीके मुखसे सुनकर जानता हूँ। राधे ! अपने प्राणनाथको मेरे अङ्कसे ले लो। ये बादलोंकी गर्जनासे डर गये हैं। इन्होंने लीलावश यहाँ प्रकृतिके गुणोंको स्वीकार किया है। इसीलिये इनके विषयमें इस प्रकार भयभीत होनेकी बात कही गयी है। देवि ! मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ। तुम इस भूतलपर मेरी यथेष्ट रक्षा करो। तुमने कृपा करके ही मुझे दर्शन दिया है, वास्तवमें तो तुम सब लोगोंके लिये दुर्लभ हो’ ॥ ४-८ई ॥

श्रीराधाने कहा – नन्दजी ! तुम ठीक कहते हो। मेरा दर्शन दुर्लभ ही है। आज तुम्हारे भक्ति भावसे प्रसन्न होकर ही मैंने तुम्हें दर्शन दिया है ॥ ९ ॥

श्रीनन्द बोले – देवि ! यदि वास्तवमें तुम मुझपर प्रसन्न हो तो तुम दोनों प्रिया-प्रियतमके चरणारविन्दों में मेरी सुदृढ़ भक्ति बनी रहे। साथ ही तुम्हारी भक्तिसे भरपूर साधु-संतोंका सङ्ग मुझे सदा मिलता रहे। प्रत्येक युगमें उन संत-महात्माओंके चरणोंमें मेरा प्रेम बना रहे ॥ १० ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तब ‘तथास्तु’ कहकर श्रीराधाने नन्दजीकी गोदसे अपने प्राणनाथको दोनों हाथोंमें ले लिया। फिर जब नन्दरायजी उन्हें प्रणाम करके वहाँसे चले गये, तब श्रीराधिकाजी भाण्डीर-वनमें गयीं। पहले गोलोकधामसे जो ‘पृथ्वी देवी’ इस भूतलपर उतरी थीं, वे उस समय अपना दिव्य रूप धारण करके प्रकट हुईं। उक्त धाममें जिस तरह पद्मरागमणिसे जटित सुवर्णमयी भूमि शोभा पाती है, उसी तरह इस भूतलपर भी व्रजमण्डलमें उस दिव्य भूमिका तत्क्षण अपने सम्पूर्ण रूपसे आविर्भाव हो गया। वृन्दावन कामपूरक दिव्य वृक्षोंके साथ अपना दिव्य रूप धारण करके शोभा पाने लगा। कलिन्दनन्दिनी यमुना भी तटपर सुवर्णनिर्मित प्रासादों तथा सुन्दर रत्नमय सोपानोंसे सम्पन्न हो गयीं। गोवर्धन पर्वत रलमयी शिलाओंसे परिपूर्ण हो गया। उसके स्वर्णमय शिखर सब ओरसे उद्भासित होने लगे। राजन् ! मतवाले भ्रमरों तथा झरनोंसे सुशोभित कन्दराओंद्वारा वह पर्वतराज अत्यन्त ऊँचे अङ्गवाले गजराजकी भाँति सुशोभित हो रहा था। उस समय वृन्दावनके निकुञ्जने भी अपना दिव्य रूप प्रकट किया। उसमें सभाभवन, प्राङ्गण तथा दिव्य मण्डप शोभा पाने लगे। वसन्त ऋतुकी सारी मधुरिमा वहाँ अभिव्यक्त हो गयी। मधुपों, मयूरों, कपोतों तथा कोकिलोंके कलरव सुनायी देने लगे। निकुञ्जवर्ती दिव्य मण्डपोंके शिखर सुवर्ण-रत्नादिसे खचित कलशोंसे अलंकृत थे। सब ओर फहराती हुई पताकाएँ उनकी शोभा बढ़ाती थीं। वहाँ एक सुन्दर सरोवर प्रकट हुआ, जहाँ सुवर्णमय सुन्दर सरोज खिले हुए थे और उन सरोजोंपर बैठी हुई मधुपावलियाँ उनके मधुर मकरन्दका पान कर रही थीं ॥ ११- १६ ॥(Golok Khand Chapter 16 to 20)

दिव्यधामकी शोभाका अवतरण होते ही साक्षात् पुरुषोत्तमोत्तम घनश्याम भगवान् श्रीकृष्ण किशोरावस्थाके अनुरूप दिव्य देह धारण करके श्रीराधाके सम्मुख खड़े हो गये। उनके श्रीअङ्गोंपर पीताम्बर शोभा पा रहा था। कौस्तुभमणिसे विभूषित हो, हाथमें वंशी धारण किये वे नन्दनन्दन राशि-राशि मन्मथों (कामदेवों) को मोहित करने लगे। उन्होंने हँसते हुए प्रियतमाका हाथ अपने हाथमें थाम लिया और उनके साथ विवाह-मण्डपमें प्रविष्ट हुए। उस मण्डपमें विवाहकी सब सामग्री संग्रह करके रखी गयी थी। मेखला, कुशा, सप्तमृत्तिका और जलसे भरे कलश आदि उस मण्डपकी शोभा बढ़ा रहे थे। वहीं एक श्रेष्ठ सिंहासन प्रकट हुआ, जिसपर वे दोनों प्रिया- प्रियतम एक-दूसरेसे सटकर विराजित हो गये और अपनी दिव्य शोभाका प्रसार करने लगे। वे दोनों एक-दूसरेसे मीठी-मीठी बातें करते हुए मेघ और विद्युत्की भाँति अपनी प्रभासे उद्दीप्त हो रहे थे। उसी समय देवताओंमें श्रेष्ठ विधाता – भगवान् ब्रह्मा आकाशसे उतरकर परमात्मा श्रीकृष्णके सम्मुख आये और उन दोनोंके चरणोंमें प्रणाम करके, हाथ जोड़, कमनीय वाणीद्वारा चारों मुखोंसे मनोहर स्तुति करने लगे ॥ १७-२० ॥

श्रीब्रह्माजी बोले – प्रभो ! आप सबके आदिकारण हैं, किंतु आपका कोई आदि-अन्त नहीं है। आप समस्त पुरुषोत्तमोंमें उत्तम हैं। अपने भक्तोंपर सदा वात्सल्यभाव रखनेवाले और ‘श्रीकृष्ण’ नामसे विख्यात हैं। अगणित ब्रह्माण्डोंके पालक-पति हैं। ऐसे आप परात्पर प्रभु राधा-प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण- चन्द्रकी मैं शरण लेता हूँ। आप गोलोकधामके अधिनाथ हैं, आपकी लीलाओंका कहीं अन्त नहीं है। आपके साथ ये लीलावती श्रीराधा अपने लोक (नित्यधाम) में ललित लीलाएँ किया करती हैं। जब आप ही ‘वैकुण्ठनाथ’ के रूपमें विराजमान होते हैं, तब ये वृषभानुनन्दिनी ही ‘लक्ष्मी’ रूपसे आपके साथ सुशोभित होती हैं। जब आप ‘श्रीरामचन्द्र’ के रूपमें भूतलपर अवतीर्ण होते हैं, तब ये जनकनन्दिनी ‘सीता’ के रूपमें आपका सेवन करती हैं। आप ‘श्रीविष्णु’ हैं और ये कमलवनवासिनी ‘कमला’ है; जब आप ‘यज्ञ- पुरुष’ का अवतार धारण करते हैं, तब ये श्रीजी आपके साथ ‘दक्षिणा’ रूपमें निवास करती हैं। आप पतिशिरोमणि हैं तो ये पत्नियोंमें प्रधान हैं। आप ‘नृसिंह’ हैं तो ये आपके हृदयमें ‘रमा’ रूपसे निवास करती हैं। आप ही ‘नर-नारायण’ रूपसे रहकर तपस्या करते हैं, उस समय आपके साथ ये ‘परम शान्ति’ के रूपमें विराजमान होती हैं। आप जहाँ जिस रूपमें रहते हैं, वहाँ तदनुरूप देह धारण करके ये छायाकी भाँति आपके साथ रहती हैं। आप ‘ब्रह्म’ हैं और ये तटस्था प्रकृति’ । आप जब ‘काल’ रूपसे स्थित होते हैं, तब इन्हें ‘प्रधान’ (प्रकृति) के रूपमें जाना जाता है। जब आप जगत्के अङ्कुर ‘महान्’ (महत्तत्त्व) रूपमें स्थित होते हैं। तब ये श्रीराधा ‘सगुणा माया’ रूपसे स्थित होती हैं। जब आप मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार – इन चारों अन्तःकरणोंके साथ ‘अन्तरात्मा’ रूपसे स्थित होते हैं, तब ये श्रीराधा ‘लक्षणावृत्ति’ के रूपमें विराजमान होती हैं। जब आप ‘विराट्’ रूप धारण करते हैं, तब ये अखिल भूमण्डलमें ‘धारणा’ कहलाती हैं। पुरुषोत्तमोत्तम ! आपका ही श्याम और गौर – द्विविध तेज सर्वत्र विदित है। आप गोलोकधामके अधिपति परात्पर परमेश्वर हैं। मैं आपकी शरण लेता हूँ। जो इस युगलरूपकी उत्तम स्तुतिका सदा पाठ करता है, वह समस्त धामोंमें श्रेष्ठ गोलोकधाममें जाता है और इस लोकमें भी उसे स्वभावतः सौन्दर्य, समृद्धि और सिद्धियोंकी प्राप्ति होती है। यद्यपि आप दोनों नित्य-दम्पति हैं और परस्पर प्रीतिसे परिपूर्ण रहते हैं, परात्पर होते हुए भी एक-दूसरेके अनुरूप रूप धारण करके लीला-विलास करते हैं; तथापि मैं लोक- व्यवहारकी सिद्धि या लोकसंग्रहके लिये आप दोनोंकी वैवाहिक विधि सम्पन्न कराऊँगा * ॥ २१-२९ ॥(Golok Khand Chapter 16 to 20)

श्रीनारदजी कहते हैं – राजन् ! इस प्रकार स्तुति करके ब्रह्माजीने उठकर कुण्डमें अग्नि प्रज्वलित की और अग्निदेवके सम्मुख बैठे हुए उन दोनों प्रिया- प्रियतमके वैदिक विधानसे पाणिग्रहण-संस्कारकी विधि पूरी की। यह सब करके ब्रह्माजीने खड़े होकर श्रीहरि और राधिकाजीसे अग्निदेवकी सात परिक्रमाएँ करवायीं। तदनन्तर उन दोनोंको प्रणाम करके वेदवेत्ता विधाताने उन दोनोंसे सात मन्त्र पढ़वाये। उसके बाद श्रीकृष्णके वक्षःस्थलपर श्रीराधिकाका हाथ रखवाकर और श्रीकृष्णका हाथ श्रीराधिकाके पृष्ठदेशमें स्थापित करके विधाताने उनसे मन्लोंका उच्चस्वरसे पाठ करवाया। उन्होंने राधाके हाथोंसे श्रीकृष्णके कण्ठमें एक केसरयुक्त माला पहनायी, जिसपर भ्रमर गुञ्जार कर रहे थे। इसी तरह श्रीकृष्णके हाथोंसे भी वृषभानु- नन्दिनीके गलेमें माला पहनवाकर वेदज्ञ ब्रह्माजीने उन दोनोंसे अग्निदेवको प्रणाम करवाया और सुन्दर सिंहासनपर उन अभिनव दम्पतिको बैठाया। वे दोनों हाथ जोड़े मौन रहे। पितामहने उन दोनोंसे पाँच मन्त्र पढ़वाये और जैसे पिता अपनी पुत्रीका सुयोग्य वरके हाथमें दान करता है, उसी प्रकार उन्होंने श्रीराधाको श्रीकृष्णके हाथमें सौंप दिया ॥ ३०-३४ ॥

राजन् ! उस समय देवताओंने फूल बरसाये और विद्याधरियोंके साथ देवाङ्गनाओंने नृत्य किया। गन्धवाँ, विद्याधरों, चारणों और किंनरोंने मधुर स्वरसे श्रीकृष्णके लिये सुमङ्गल-गान किया। मृदङ्ग, वीणा, मुरचंग, वेणु, शङ्ख, नगारे, दुन्दुभि तथा करताल आदि बाजे बजने लगे तथा आकाशमें खड़े हुए श्रेष्ठ देवताओंने मङ्गल-शब्दका उच्चस्वरसे उच्चारण करते हुए बारंबार जय-जयकार किया। उस अवसरपर श्रीहरिने विधातासे कहा- ‘ब्रह्मन् ! आप अपनी इच्छाके अनुसार दक्षिणा बताइये।’ तब ब्रह्माजीने श्रीहरिसे इस प्रकार कहा- ‘प्रभो! मुझे अपने युगलचरणोंकी भक्ति ही दक्षिणाके रूपमें प्रदान कीजिये।’ श्रीहरिने ‘तथास्तु’ कहकर उन्हें अभीष्ट वरदान दे दिया। तब ब्रह्माजीने श्रीराधिकाके मङ्गलमय युगल-चरणारविन्दोंको दोनों हाथों और मस्तकसे बारंबार प्रणाम करके अपने धामको प्रस्थान किया। उस समय प्रणाम करके जाते हुए ब्रह्माजीके मनमें अत्यन्त हर्षोल्लास छा रहा था ॥ ३५-३८ ॥(Golok Khand Chapter 16 to 20)

तदनन्तर निकुञ्जभवनमें प्रियतमाद्वारा अर्पित दिव्य मनोरम चतुर्विध अन्न परमात्मा श्रीहरिने हँसते-हँसते ग्रहण किया और श्रीराधाने भी श्रीकृष्णके हाथोंसे चतुर्विध अन्न ग्रहण करके उनकी दी हुई पान-सुपारी भी खायी। इसके बाद श्रीहरि अपने हाथसे प्रियाका हाथ पकड़कर कुञ्जकी ओर चले। वे दोनों मधुर आलाप करते तथा वृन्दावन, यमुना तथा वनकी लताओंको देखते हुए आगे बढ़ने लगे। सुन्दर लता- कुञ्जों और निकुञ्जोंमें हँसते और छिपते हुए श्रीकृष्णको शाखाकी ओटमें देखकर पीछेसे आती हुई श्रीराधाने उनके पीताम्बरका छोर पकड़ लिया। फिर श्रीराधा भी माधवके कमलोपम हाथोंसे छूटकर भागीं और युगल- चरणोंके नूपुरोंकी झनकार प्रकट करती हुई यमुना- निकुञ्जमें छिप गयीं। जब श्रीहरिसे एक हाथकी दूरीपर रह गयीं, तब पुनः उठकर भाग चलीं। जैसे तमाल सुनहरी लतासे और मेघ चपलासे सुशोभित होता है तथा जैसे नीलमका महान् पर्वत स्वर्णाङ्कित कसौटीसे शोभा पाता है, उसी प्रकार रमणी श्रीराधासे नन्दनन्दन श्रीकृष्ण सुशोभित हो रहे थे। रास-रङ्गस्थलीके निर्जन प्रदेशमें पहुँचकर श्रीहरिने श्रीराधाके साथ रासका रस लेते हुए लीला-रमण किया। भ्रमरों और मयूरोंके कल-कूजनसे मुखरित लताओंवाले वृन्दावनमें वे दूसरे कामदेवकी भाँति विचर रहे थे। परमात्मा श्रीकृष्ण हरिने, जहाँ मतवाले भ्रमर गुञ्जारव करते थे, बहुत-से झरने तथा सरोवर जिनकी शोभा बढ़ाते थे और जिनमें दीप्तिमती लता-वल्लरियाँ प्रकाश फैलाती थीं, गोवर्धनकी उन कन्दराओंमें श्रीराधाके साथ नृत्य किया ॥ ३९-४५ ॥

तत्पश्चात् श्रीकृष्णने यमुनामें प्रवेश करके वृषभानु- नन्दिनीके साथ विहार किया। वे यमुनाजलमें खिले हुए लक्षदल कमलको राधाके हाथसे छीनकर भाग चले। तब श्रीराधाने भी हँसते-हँसते उनका पीछा किया और उनका पीताम्बर, वंशी तथा बेंतकी छड़ी अपने अधिकारमें कर लीं। श्रीहरि कहने लगे- ‘मेरी बाँसुरी दे दो।’ तब राधाने उत्तर दिया- ‘मेरा कमल लौटा दो।’ तब देवेश्वर श्रीकृष्णने उन्हें कमल दे दिया। फिर राधाने भी पीताम्बर, वंशी और बेंत श्रीहरिके हाथमें लौटा दिये। इसके बाद फिर यमुनाके किनारे उनकी मनोहर लीलाएँ होने लगीं ॥ ४६-४८ ॥(Golok Khand Chapter 16 to 20)

तदनन्तर भाण्डीर-वनमें जाकर व्रज-गोप-रत्न श्रीनन्दनन्दनने अपने हाथोंसे प्रियाका मनोहर शृङ्गार किया-उनके मुखपर पत्र-रचना की, दोनों पैरोंमें महावर लगाया, नेत्रोंमें काजलकी पतली रेखा खींच दी तथा उत्तमोत्तम रत्नों और फूलोंसे भी उनका शृङ्गार किया। इसके बाद जब श्रीराधा भी श्रीहरिको शृङ्गार धारण करानेके लिये उद्यत हुई, उसी समय श्रीकृष्ण अपने किशोररूपको त्यागकर छोटे-से बालक बन गये। नन्दने जिस शिशुको जिस रूपमें राधाके हाथोंमें दिया था, उसी रूपमें वे धरतीपर लोटने और भयसे रोने लगे। श्रीहरिको इस रूपमें देखकर श्रीराधिका भी तत्काल विलाप करने लगीं और बोलीं- ‘हरे ! मुझपर माया क्यों फैलाते हो ?’ इस प्रकार विषादग्रस्त होकर रोती हुई श्रीराधासे सहसा आकाशवाणीने कहा- ‘राधे ! इस समय सोच न करो। तुम्हारा मनोरथ कुछ कालके पश्चात् पूर्ण होगा’ ॥ ४९-५२ ॥

यह सुनकर श्रीराधा शिशुरूपधारी श्रीकृष्णको लेकर तुरंत व्रजराजकी धर्मपत्नी यशोदाजीके घर गयीं और उनके हाथमें बालकको देकर बोलीं- ‘आपके पतिदेवने मार्गमें इस बालकको मुझे दे दिया था।’ उस समय नन्द-गृहिणीने श्रीराधासे कहा- ‘वृषभानु- नन्दिनि राधे ! तुम धन्य हो; क्योंकि तुमने इस समय, जब कि आकाश मेघोंकी घटासे आच्छन्न है, वनके भीतर भयभीत हुए मेरे नन्हे-से लालाकी पूर्णतया रक्षा की है।’ यों कहकर नन्दरानीने श्रीराधाका भलीभाँति सत्कार किया और उनके सद्गुणोंकी प्रशंसा की। इससे वृषभानुनन्दिनी श्रीराधाको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे यशोदाजीकी आज्ञा ले धीरे-धीरे अपने घर चली गयीं ॥ ५३-५५ ॥

राजन् इस प्रकार श्रीराधाके विवाहकी परम मङ्गल- मयी गुप्त कथाका यहाँ वर्णन किया गया। जो लोग इसे सुनते-पढ़ते अथवा सुनाते हैं, उन्हें कभी पापोंका स्पर्श नहीं प्राप्त होता ॥ ५६ ॥(Golok Khand Chapter 16 to 20)

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व-संवादमें ‘श्रीराधिकाके विवाहका वर्णन’ नामक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १६ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय

सत्रहवाँ अध्याय

श्रीकृष्णकी बाल-लीलामें दधि-चोरीका वर्णन

श्रीनारदजी कहते हैं – राजन् ! तदनन्तर बलराम और श्रीकृष्ण – दोनों गौरश्याम मनोहर बालक विविध लीलाओंसे नन्दभवनको अत्यन्त सुन्दर एवं आकर्षक बनाने लगे। मिथिलेश्वर ! वे दोनों हाथों और घुटनोंके बलसे चलते हुए और मीठी – तोतली बोली बोलते हुए थोड़े ही समयमें व्रजमें इधर-उधर डोलने लगे। माता यशोदा और रोहिणीके द्वारा लालित-पालित वे दोनों शिशु, कभी माताओंकी गोदसे निकल जाते और कभी पुनः उनके अङ्कमें आ बैठते थे। मायासे बालरूप धारण करके त्रिभुवनको मोहित करनेवाले वे दोनों भाई, राम और श्याम, इधर-उधर मञ्जीर और करधनीकी झंकार फैलाते फिरते थे। माता यशोदा व्रज-बालकोंके साथ आँगनमें खेलते-लोटते तथा धूल लग जानेसे धूसर अङ्गवाले अपने लालाकी गोदमें लेकर बड़े आदरसे झाड़ती पोंछती थीं ॥ १-५॥

श्रीकृष्ण दोनों हाथों और घुटनोंके बल चलते हुए पुनः आँगनमें चले जाते और वहाँसे फिर माताकी गोदमें आ जाते थे। इस तरह वे व्रजमें सिंह-शावककी भाँति लीला कर रहे थे। माता यशोदा उन्हें सोनेके तार जड़े पीताम्बर और पीली झगुली पहनाती तथा मस्तक- पर दीप्तिमान् रत्नमय मुकुट धारण कराती और इस प्रकार अत्यन्त शोभाशाली भव्यरूपमें उन्हें देखकर अत्यन्त आनन्दका अनुभव करती थीं। अत्यन्त सुन्दर बालोचित क्रीड़ामें तत्पर बालमुकुन्दका दर्शन करके गोपियाँ बड़ा सुख पाती थीं। वे सुखस्वरूपा गोपाङ्गनाएँ अपना घर छोड़कर नन्दराजके गोष्ठमें आ जातीं और वहाँ आकर वे सब-की-सब अपने घरोंकी सुध-बुध भूल जाती थीं। राजन् ! नन्दरायजीके गृह-द्वारपर कृत्रिम सिंहकी मूर्ति देखकर भयभीतकी तरह जब श्रीकृष्ण पीछे लौट पड़ते, तब यशोदाजी अपने लालाको गोदमें उठाकर घरके भीतर चली जाती थीं। उस समय गोपियाँ व्रजमें दयासे द्रवित-हृदय हो यशोदाजीसे इस प्रकार कहती थीं ॥ ६-९ ॥(Golok Khand Chapter 16 to 20)

श्रीगोपाङ्गनाएँ कहने लगीं – शुभे ! तुम्हारा लाला खेलनेके लिये बड़ी चपलता दिखाता है। इसकी बालकेलि अत्यन्त मनोहर है। ऐसा न हो कि इसे किसीकी नजर लग जाय। अतः तुम इस काक- पक्षधारी दुधमुँहे बालकको आँगनसे बाहर मत निकलने दिया करो। देखो न, इसके ऊपरके दो दाँत ही पहले निकले हैं, जो मामाके लिये दोषकारक हैं। यशोदाजी ! तुम्हारे इस बालकके भी कोई मामा नहीं है, इसलिये विघ्ननिवारणके हेतु तुम्हें दान करना चाहिये। गौ, ब्राह्मण, देवता, साधु, महात्मा तथा वेदोंकी पूजा करनी चाहिये । १० – १२ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तबसे यशोदा और रोहिणीजी पुत्रोंकी कल्याण-कामनासे प्रतिदिन वस्त्र, रत्न तथा नूतन अन्नका दान करने लगीं। कुछ दिनों बाद सिंह-शावककी भाँति दीखनेवाले राम और कृष्ण-दोनों बालक कुछ बड़े होकर गोष्ठोंमें अपने पैरोंके बलसे चलने लगे। श्रीदामा और सुबल आदि व्रज-बालक सम्बाओंके साथ यमुनाजीके शुभ वालुकामय तटपर कौतूहलपूर्वक लोटते हुए राम और श्याम नील-सघन तमालोंसे घिरे और कदम्ब-कुञ्जकी शोभासे विलसित कालिन्दी-तटवर्ती उपवनमें विचरने लगे ॥ १३-१६ ॥

श्रीहरि अपनी बाललीलासे गोप-गोपियोंको आनन्द प्रदान करते हुए सखाओंके साथ घरोंमें जा-जाकर माखन और घृतकी चोरी करने लगे। एक दिन उपनन्दपत्नी गोपी प्रभावती श्रीनन्द-मन्दिरमें आकर यशोदाजीसे बोलीं ॥ १७-१८ ॥(Golok Khand Chapter 16 to 20)

प्रभावतीने कहा- यशोमति ! हमारे और तुम्हारे घरोंमें जो माखन, घी, दूध, दही और तक्र है उसमें ऐसा कोई बिलगाव नहीं है कि यह हमारा है और वह तुम्हारा। मेरे यहाँ तो तुम्हारे कृपाप्रसादसे ही सब कुछ हुआ है। मैं यह नहीं कहना चाहती कि तुम्हारे इस लालाने कहीं चोरी सीखी है। माखन तो यह स्वयं ही चुराता फिरता है, परंतु तुम इसे ऐसा न करनेके लिये कभी शिक्षा नहीं देती। एक दिन जब मैंने शिक्षा दी तो तुम्हारा यह ढीठ बालक मुझे गाली देकर मेरे आँगनसे भाग निकला। यशोदाजी ! व्रजराजका बेटा होकर यह चोरी करे, यह उचित नहीं है; किंतु मैंने तुम्हारे गौरवका खयाल करके इसे कभी कुछ नहीं कहा है । १९ – २२ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं – राजन् ! प्रभावतीकी बात सुनकर नन्द-गेहिनी यशोदाने बालकको डाँट बतायी और बड़े प्रेमसे सान्त्वनापूर्वक प्रभावतीसे कहा ॥ २३ ॥

श्रीयशोदा बोलीं- बहिन ! मेरे घरमें करोड़ों गौएँ हैं, इस घरकी धरती सदा गोरससे भीगी रहती है। पता नहीं, यह बालक क्यों तुम्हारे घरमें दही चुराता है। यहाँ तो कभी ये सब चीजें चावसे खाता ही नहीं। प्रभावती ! इसने जितना भी दही या माखन चुराया हो, वह सब तुम मुझसे ले लो। तुम्हारे पुत्र और मेरे लाला- में किंचिन्मात्र भी कोई भेद नहीं है। यदि तुम इसे माखन चुराकर खाते और मुखमें माखन लपेटे हुए पकड़कर मेरे पास ले आओगी तो मैं इसे अवश्य ताड़ना दूँगी, डाँदूँगी और घरमें बाँध रखूँगी ॥ २४ – २६ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यशोदाजीकी यह बात सुनकर गोपी प्रभावती प्रसन्नतापूर्वक अपने घर लौट आयी। एक दिन श्रीकृष्ण समवयस्क बालकोंके साथ फिर दही चुरानेके लिये उसके घरमें गये। घरकी दीवारके पास सटकर एक हाथसे दूसरे बालकका हाथ पकड़े धीरे-धीरे घरमें घुसे। छीकेपर रखा हुआ गोरस हाथसे पकड़में नहीं आ सकता, यह देख श्रीहरिने स्वयं एक ओखलीके ऊपर पीढ़ा रखा। उसपर कुछ ग्वाल-बालोंको खड़ा किया और उनके सहारे आप ऊपर चढ़ गये। तो भी छीकेपर रखा हुआ गोरस अभी और ऊँचे कदके मनुष्यसे ही प्राप्त किया जा सकता था, इसलिये वे उसे न पा सके। तब श्रीदामा और सुबलके साथ उन्होंने मटकेपर डंडेसे प्रहार किया। दहीका बर्तन फूट गया और सारा गव्य पृथ्वीपर बह चला। तब बलरामसहित माधवने ग्वाल-बालों और बंदरोंके साथ वह मनोहर दही जी भरकर खाया। भाण्डके फूटनेकी आवाज सुनकर गोपी प्रभावती वहाँ आ पहुँची। अन्य सब बालक तो वहाँसे भाग निकले; किंतु श्रीकृष्णका हाथ उसने पकड़ लिया। श्रीकृष्ण भयभीत से होकर मिथ्या आँसू बहाने लगे। प्रभावती उन्हें लेकर नन्द-भवनकी ओर चली। सामने नन्दरायजी खड़े थे। उन्हें देखकर प्रभावतीने मुखपर घूँघट डाल दिया। श्रीहरि सोचने लगे – ‘इस तरह जानेपर माता मुझे अवश्य दण्ड देगी।’ अतः उन स्वच्छन्दगति परमेश्वरने प्रभावतीके ही पुत्रका रूप धारण कर लिया। रोषसे भरी हुई प्रभावती यशोदाजीके पास शीघ्र जाकर बोली- ‘इसने मेरा दहीका बर्तन फोड़ दिया और सारा दही लूट लिया’ ॥ २७-३५॥

यशोदाजीने देखा, यह तो इसीका पुत्र है; तब वे हँसती हुई उस गोपीसे बोलीं- ‘पहले अपने मुखसे घूँघट तो हटाओ, फिर बालकके दोष बताना। यदि इस तरह झूठे ही दोष लगाना है तो मेरे नगरसे बाहर चली जाओ। क्या तुम्हारे पुत्रकी की हुई चोरी मेरे बेटेके माथे मढ़ दी जायगी ?’ तब लोगोंके बीच लजाती हुई प्रभावतीने अपने मुँहसे घूँघटको हटाकर देखा तो उसे अपना ही बालक दिखायी दिया। उसे देखकर वह मन-ही-मन चकित होकर बोली- ‘अरे निगोड़े ! तू कहाँसे आ गया ! मेरे हाथमें तो व्रजका सार-सर्वस्व था।’ इस तरह बड़बड़ाती हुई वह अपने बेटेको लेकर नन्दभवनसे बाहर चली गयी। यशोदा, रोहिणी, नन्द, बलराम तथा अन्यान्य गोप और गोपाङ्गनाएँ हँसने लगीं और बोलीं- ‘अहो! व्रजमें तो बड़ा भारी अन्याय दिखायी देने लगा है।’ उधर भगवान् बाहरकी गलीमें पहुँचकर फिर नन्द-नन्दन बन गये और सम्पूर्ण शरीरसे धृष्टताका परिचय देते हुए, चञ्चल नेत्र मटकाकर, जोर-जोरसे हँसते हुए उस गोपीसे बोले ॥ ३६-४१ ॥(Golok Khand Chapter 16 to 20)

श्रीभगवान्ने कहा- अरी गोपी ! यदि फिर कभी तू मुझे पकड़ेगी तो अबकी बार मैं तेरे पतिका रूप धारण कर लूँगा, इसमें संशय नहीं है ॥ ४२ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यह सुनकर वह गोपी आश्चर्यसे चकित हो अपने घर चली गयी। उस दिनसे सब घरोंकी गोपियाँ लाजके मारे श्रीहरिका हाथ नहीं पकड़ती थीं ॥ ४३ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व-संवादमें श्रीकृष्णके बालचरित्रगत ‘दधि-चोरीका वर्णन’ नामक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।॥ १७ ॥

वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस में क्या अंतर है?

अठारहवाँ अध्याय

नन्द, उपनन्द और वृषभानुओंका परिचय तथा श्रीकृष्णकी मृद्भक्षण-लीला

श्रीनारदजी कहते हैं – मिथिलेश्वर ! गोपाङ्गनाओंके घरोंमें विचरते और माखन चोरीकी लीला करते हुए नवकंज-लोचन मनोहर श्याम- रूपधारी श्रीकृष्ण बालचन्द्रकी भाँति बढ़ते और लोगोंके चित्त चुराते हुए-से व्रजमें अद्भुत शोभाका विस्तार करने लगे। नौ नन्द नामके गोप अत्यन्त चञ्चल श्रीनन्दनन्दनको पकड़कर अपने घर ले जाते और वहाँ बिठाकर उनकी रूपमाधुरीका आस्वादन करते हुए मोहित हो जाते थे। वे उन्हें अच्छी-अच्छी गेंदें देकर खेलाते, उनका लालन-पालन करते, उनकी लीलाएँ गाते और बढ़े हुए आनन्दमें निमग्र हो सारे जगत्को भूल जाते थे ॥ १-२ ॥

राजाने पूछा- देवर्षे ! आप मुझसे नौ – उपनन्दोंके नाम बताइये। वे सब बड़े सौभाग्यशाली – थे। उनके पूर्वजन्मका परिचय दीजिये। वे पहले कौन थे, जो इस भूतलपर अवतीर्ण हुए ? उपनन्दोंके साथ ही छः वृषभानुओंके भी मङ्गलमय कर्मोंका वर्णन – कीजिये ॥ ३ ॥

श्रीनारदजीने कहा – गय, विमल, श्रीश, – श्रीधर, मङ्गलायन, मङ्गल, रङ्गवल्लीश, रङ्गोजि तथा देवनायक – ये ‘नौ नन्द’ कहे गये हैं, जो व्रजके गोकुलमें उत्पन्न हुए थे। वीतिहोत्र, अग्निभुक्, साम्ब, श्रीवर, गोपति, श्रुत, व्रजेश, पावन तथा शान्त – ये ‘उपनन्द’ कहे गये हैं। नीतिवित्, मार्गद, शुक्ल, पतंग, दिव्यवाहन और गोपेष्ट – ये छः ‘वृषभानु’ हैं, जिन्होंने व्रजमें जन्म धारण किया था। जो गोलोकधाममें श्रीकृष्णचन्द्रके निकुञ्जद्वारपर रहकर हाथमें बेंत लिये पहरा देते थे, वे श्याम अङ्गवाले गोप व्रजमें ‘नौ नन्द’ के नामसे विख्यात हुए। निकुञ्जमें जो करोड़ों गायें हैं, उनके पालनमें तत्पर, मोरपंख और मुरली धारण करनेवाले गोप यहाँ ‘उपनन्द’ कहे गये हैं। निकुञ्ज- दुर्गकी रक्षाके लिये जो दण्ड और पाश धारण किये उसके छहों द्वारोंपर रहा करते हैं, वे ही छः गोप यहाँ ‘छः वृषभानु’ कहलाये। श्रीकृष्णकी इच्छासे ही वे सब लोग गोलोकसे भूतलपर उतरे हैं। उनके प्रभावका वर्णन करनेमें चतुर्मुख ब्रह्माजी भी समर्थ नहीं हैं, फिर मैं उनके महान् अभ्युदयशाली सौभाग्यका कैसे वर्णन कर सकूँगा, जिनकी गोदमें बैठकर बाल-क्रीडापरायण श्रीहरि सदा सुशोभित होते थे ॥ ४- १२ ॥(Golok Khand Chapter 16 to 20)

एक दिनकी बात है, यमुनाके तटपर श्रीकृष्णने मिट्टीका आस्वादन किया। यह देख बालकोंने यशोदाजीके पास आकर कहा- ‘अरी मैया ! तुम्हारा लाला तो मिट्टी खाता है।’ बलभद्रजीने भी उनकी हाँ-में-हाँ मिला दी। तब नन्दरानीने अपने पुत्रका हाथ पकड़ लिया। बालकके नेत्र भयभीत से हो उठे। मैयाने उससे कहा ॥ १३-१४ ॥

यशोदाजीने पूछा- ओ महामूढ़ ! तूने क्यों मिट्टी खायी ! तेरे ये साथी भी बता रहे हैं और साक्षात् बड़े भैया ये बलराम भी यही बात कहते हैं कि ‘माँ ! मना करनेपर भी यह मिट्टी खाना नहीं छोड़ता। इसे मिट्टी बड़ी प्यारी लगती है’ । १५ ॥

श्रीभगवान्ने कहा- मैया ! व्रजके ये सारे बालक झूठ बोल रहे हैं। मैंने कहीं भी मिट्टी नहीं खायी। यदि तुम्हें मेरी बातपर विश्वास न हो तो मेरा मुँह देख लो ॥ १६ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तब गोपी यशोदाने बालकका सुन्दर मुख खोलकर देखा। यशोदाको उसके भीतर तीनों गुणोंद्वारा रचित और सब ओर फैला हुआ ब्रह्माण्ड दिखायी दिया। सातों द्वीप, सात समुद्र, भारत आदि वर्ष, सुदृढ़ पर्वत, ब्रह्मलोक-पर्यन्त तीनों लोक तथा समस्त व्रज- मण्डलसहित अपने शरीरको भी यशोदाने अपने पुत्रके मुखमें देखा। यह देखते ही उन्होंने आँखें बंद कर लीं और श्रीयमुनाजीके तटपर बैठकर सोचने लगीं- ‘यह मेरा बालक साक्षात् श्रीनारायण है।’ इस तरह वे ज्ञाननिष्ठ हो गयीं। तब श्रीकृष्ण उन्हें अपनी मायासे मोहित-सी करते हुए हँसने लगे। यशोदाजीकी स्मरण-शक्ति विलुप्त हो गयी। उन्होंने श्रीकृष्णका जो वैभव देखा था, वह सब वे तत्काल भूल गयीं ॥ १७-२० ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘ब्रह्माण्डदर्शन’ नामक अठाहरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १८ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़िए ~ कालिदासकृत रघुवंशम् महाकाव्य प्रथमः सर्गः

उन्नीसवाँ अध्याय

दामोदर कृष्णका उलूखल-बन्धन तथा उनके द्वारा यमलार्जुन-वृक्षोंका उद्धार

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! एक समय गोपाङ्गनाएँ घर-घरमें गोपालकी लीलाएँ गाती हुई गोकुलमें सब ओर दधि-मन्थन कर रही थीं। श्रीनन्द- मन्दिरमें सुन्दरी यशोदाजी भी प्रातःकाल उठकर दहीके भाण्डमें रई डालकर उसे मथने लगीं। मथानी की आवाज सुनकर बालक श्रीनन्दनन्दन भी नवनीतके लिये कौतूहलवश मञ्जीरकी मधुर ध्वनि प्रकट करते हुए नाचने लगे। माताके पास बाल- क्रीडापरायण श्रीकृष्ण बार-बार चक्कर लगाते और नाचते हुए बड़ी शोभा पा रहे थे और बजती हुई करधनीके घुघुरुओंकी मधुर झंकार बारंबार फैला रहे थे। वे मातासे मीठे वचन बोलकर ताजा निकाला हुआ माखन माँग रहे थे। जब वह उन्हें नहीं मिला, तब वे कुपित हो उठे और एक पत्थरका टुकड़ा लेकर उसके द्वारा दही मथनेका पात्र फोड़ दिया। ऐसा करके वे भाग चले। यशोदाजी भी अपने पुत्रको पकड़नेके लिये पीछे- पीछे दौड़ीं। वे उनसे एक ही हाथ आगे थे, किंतु वे उन्हें पकड़ नहीं पाती थीं। जो योगीश्वरोंके लिये भी दुर्लभ हैं, वे माताकी पकड़में कैसे आ सकते थे ॥ १-६ ॥

नृपेश्वर ! तथापि श्रीहरिने भक्तोंके प्रति अपनी भक्तवश्यता दिखायी, इसलिये वे जान-बूझकर माताके हाथ आ गये। अपने बालक-पुत्रको पकड़कर यशोदाने रोषपूर्वक ऊखलमें बाँधना आरम्भ किया। वे जो-जो बड़ी-से-बड़ी रस्सी उठातीं, वही वही उनके पुत्रके लिये कुछ छोटी पड़ जाती थी। जो प्रकृतिके तीनों गुणोंसे न बँध सके, वे प्रकृतिसे परे विद्यमान परमात्मा यहाँके गुणसे (रस्सीसे) कैसे बँध सकते थे ? जब यशोदा बाँधते-बाँधते थक गयीं और हतोत्साह होकर बैठ रहीं तथा बाँधनेकी इच्छा भी छोड़ बैठीं, तब ये स्वच्छन्दगति भगवान् श्रीकृष्ण स्ववश होते हुए भी कृपा करके माताके बन्धनमें आ गये। भगवान्की ऐसी कृपा कर्मत्यागी ज्ञानियोंको भी नहीं मिल सकी; फिर जो कर्ममें आसक्त हैं, उनको तो मिल ही कैसे सकती है। यह भक्तिका ही प्रताप है कि वे माताके बन्धनमें आ गये। नरेश्वर ! इसीलिये भगवान् ज्ञानके साधक आराधकोंको मुक्ति तो दे देते हैं, किंतु भक्ति नहीं देते। उसी समय बहुत-सी गोपियाँ भी शीघ्रतापूर्वक वहाँ आ पहुँचीं। उन्होंने देखा कि दही मथनेका भाण्ड फूटा हुआ है और भयभीत नन्द-शिशु बहुत-सी रस्सियोंद्वारा ओखलीमें बँधे खड़े हैं। यह देखकर उन्हें बड़ी दया आयी और वे यशोदाजीसे बोलीं ॥ ७-११ ॥(Golok Khand Chapter 16 to 20)

गोपियोंने कहा- नन्दरानी ! तुम्हारा यह नन्हा सा बालक सदा ही हमारे घरोंमें जाकर बर्तन- भाँड़ फोड़ा करता है, तथापि हम करुणावश इसे कभी कुछ नहीं कहतीं। व्रजेश्वरि यशोदे ! तुम्हारे दिलमें जरा भी दर्द नहीं है, तुम निर्दय हो गयी हो। एक बर्तनके फूट जानेके कारण तुमने इस बच्चेको छड़ीसे डराया- धमकाया है और बाँध भी दिया है ! ॥ १२-१३ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- नरेश्वर ! उन गोपियोंके यों कहनेपर यशोदाजी कुछ नहीं बोलीं। वे घरके काम- धंधोंमें लग गयीं। इसी बीच मौका पाकर श्रीकृष्ण ग्वाल-बालोंके साथ वह ओखली खींचते हुए श्रीयमुनाजीके किनारे चले गये। यमुनाजीके तटपर दो पुराने विशाल वृक्ष थे, जो एक-दूसरेसे जुड़े हुए खड़े थे। वे दोनों ही अर्जुन-वृक्ष थे। दामोदर भगवान् कृष्ण हँसते हुए उन दोनों वृक्षोंके बीचमेंसे निकल गये। ओखली वहाँ टेढ़ी हो गयी थी, तथापि श्रीकृष्णने सहसा उसे खींचा। खींचनेसे दबाव पाकर वे दोनों वृक्ष जड़सहित उखड़कर पृथ्वीपर गिर पड़े। वृक्षोंके गिरनेसे जो धमाकेकी आवाज हुई, वह वज्रपातके समान भयंकर थी। उन वृक्षोंसे दो देवता निकले – ठीक उसी तरह जैसे काष्ठसे अग्नि प्रकट हुई हो। उन दोनों देवताओंने दामोदरकी परिक्रमा करके अपने मुकुटसे उनके पैर छुए और दोनों हाथ जोड़े। वे उन श्रीहरिके समक्ष नतमस्तक खड़े हो इस प्रकार बोले ॥ १४ – १८ ॥

दोनों देवता कहने लगे – अच्युत ! आपके दर्शनसे हम दोनोंको इसी क्षण ब्रह्मदण्डसे मुक्ति मिली है। हरे ! अब हम दोनोंसे आपके निज भक्तों- की अवहेलना न हो। आप करुणाकी निधि हैं। जगत्का मङ्गल करना आपका स्वभाव है। आप ‘दामोदर’, ‘कृष्ण’ और ‘गोविन्द’ को हमारा बारंबार नमस्कार है * ॥ १९-२० ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार श्रीहरिको नमस्कार करके वे दोनों देवकुमार उत्तर दिशाकी ओर चल दिये। उसी समय भयसे कातर हुए नन्द आदि समस्त गोप वहाँ आ पहुँचे। वे पूछने लगे- ‘व्रजबालको ! बिना आँधी-पानीके ये दोनों वृक्ष कैसे गिर पड़े ? शीघ्र बताओ।’ तब उन समस्त ब्रजवासी बालकोंने कहा ॥ २१-२२ ॥

बालकोंने कहा- इस कन्हैयाने ही दोनों वृक्षोंको गिराया है। उन वृक्षोंसे दो पुरुष निकलकर यहाँ खड़े थे, जो इसे नमस्कार करके अभी-अभी उत्तर दिशाकी ओर गये हैं। उनके अङ्गोंसे दीप्तिमती प्रभा निकल रही थी ॥ २३ ॥(Golok Khand Chapter 16 to 20)

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! ग्वाल-बालोंकी यह बात सुनकर उन बड़े-बूढ़े गोपोंने उसपर विश्वास नहीं किया। नन्दजीने ओखलीमें रस्सीसे बँधे हुए अपने बालकको खोल दिया और लाड़-प्यार करते हुए गोदमें उठाकर उस शिशुको सूँघने लगे। नरेश्वर ! नन्दजीने अपनी पत्नीको बहुत उलाहना दिया और ब्राह्मणोंको सौ गायें दानके रूपमें दीं ॥ २४-२५ ॥

बहुलाश्वने कहा- देवर्षिप्रवर ! वे दोनों दिव्य पुरुष कौन थे, यह बताइये। किस दोषके कारण उन्हें यमलार्जुनवृक्ष होना पड़ा था ।॥ २६ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! वे दोनों कुबेरके श्रेष्ठ पुत्र थे, जिनका नाम था- ‘नलकूबर’ और ‘मणिग्रीव’। एक दिन वे नन्दनवनमें गये और वहाँ मन्दाकिनीके तटपर ठहरे। वहाँ अप्सराएँ उनके गुण गाती रहीं और वे दोनों वारुणी मदिरासे मतवाले होकर वहाँ नंग-धड़ंग विचरते रहे। एक तो उनकी युवावस्था थी और दूसरे वे द्रव्यके दर्प (धनके मद) से दर्पित (उन्मत्त) थे। उसी अवसरपर किसी कालमें ‘देवल’ नामधारी मुनीन्द्र, जो वेदोंक पारंगत विद्वान् थे, उधर आ निकले। उन दोनों कुबेर-पुत्रोंको नग्न देखकर ऋषिने उनसे कहा- ‘तुम दोनोंक स्वभावमें दुष्टता भरी है। तुम दोनों अपनी सुध-बुध खो बैठे हो’ ॥ २७-२९ ॥

इतना कहकर देवलजी फिर बोले- तुम दोनों वृक्षके समान जड, धृष्ट तथा निर्लज्ज हो। तुम्हें अपने द्रव्यका बड़ा घमंड है; अतः तुम दोनों इस भूतलपर सौ (दिव्य) वर्षोंतकके लिये वृक्ष हो जाओ। जब द्वापरके अन्तमें भारतवर्षके भीतर मथुरा-जनपदके व्रज-मण्डलमें कलिन्दनन्दिनी यमुनाके तटपर महावनके समीप तुम दोनों साक्षात् परिपूर्णतम दामोदर हरि गोलोकनाथ श्रीकृष्णका दर्शन करोगे, तब तुम्हें अपने पूर्वस्वरूपकी प्राप्ति हो जायगी ॥ ३०-३२ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- नरेश्वर ! इस प्रकार देवलके शापसे वृक्षभावको प्राप्त हुए नलकूबर और – मणिग्रीवका श्रीकृष्णने उद्धार किया ॥ ३३ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमै ‘उलूखल-बन्धन और यमलार्जुन-मोचन’ नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १९ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ गीतावली हिंदी में

बीसवाँ अध्याय

दुर्वासाद्वारा भगवान्की मायाका एवं गोलोकमें श्रीकृष्णका दर्शन तथा श्रीनन्दनन्दनस्तोत्र

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! एक दिन मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा परमात्मा श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन करनेके लिये व्रजमण्डलमें आये। उन्होंने कालिन्दीके निकट पवित्र वालुकामय पुलिनके रमणीय स्थलमें महावनके समीप श्रीकृष्णको निकटसे देखा। वे शोभाशाली मदनगोपाल बालकोंके साथ वहाँ लोटते, परस्पर मल्ल-युद्ध करते तथा भाँति-भाँतिकी बालोचित लीलाएँ करते थे। इन सब कारणोंसे वे बड़े मनोहर जान पड़ते थे। उनके सारे अङ्ग धूलसे धूसरित थे। मस्तकपर काले घुँघराले केश शोभा पाते थे। दिगम्बर-वेषमें बालकोंके साथ दौड़ते हुए श्रीहरिको देखकर दुर्वासाके मनमें बड़ा विस्मय हुआ ॥ १-४ ॥

श्रीमुनि (मन-ही-मन) कहने लगे – क्या यह वही षड्विध ऐश्वर्यसे सम्पन्न ईश्वर है? फिर यह बालकोंके साथ धरतीपर क्यों लोट रहा है? मेरी समझमें यह केवल नन्दका पुत्र है, परात्पर श्रीकृष्ण नहीं है ॥ ५ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! जब महामुनि दुर्वासा इस प्रकार मोहमें पड़ गये, तब खेलते हुए श्रीकृष्ण स्वयं उनके पास उनकी गोदमें आ गये। फिर उनको गोदसे हट गये। श्रीकृष्णकी दृष्टि बाल-सिंष्ठके समान थी। वे हँसते और मधुर वचन बोलते हुए पुनः मुनिके सम्मुख आ गये। हँसते हुए श्रीकृष्णके श्वाससे खिंचकर मुनि उनके मुँहमें समा गये। वहाँ जाकर उन्होंने एक विशाल लोक देखा, जिसमें अरण्य और निर्जन प्रदेश भी दृष्टिगोचर हो रहे थे। उन अरण्यों (जंगलों) में भ्रमण करते हुए मुनि बोल उठे- ‘मैं कहाँसे यहाँ आ गया ? इतनेमें ही उन महामुनिको एक अजगर निगल गया। उसके पेटमें पहुँचनेपर मुनिने वहाँ सातों लोकों और पातालोंसहित समूचे ब्रह्माण्डका दर्शन किया। उसके द्वीपोंमें भ्रमण करते हुए दुर्वासा मुनि एक श्वेत पर्वतपर ठहर गये। उस पर्वतपर शतकोटि वर्षोंतक भगवान्का भजन करते हुए वे तप करते रहे। इतनेमें ही सम्पूर्ण विश्वके लिये भयंकर नैमित्तिक प्रलयका समय आ पहुँचा। समुद्र सब ओरसे धरातलको डुबाते हुए मुनिके पास आ गये। दुर्वासा मुनि उन समुद्रोंमें बहने लगे। उन्हें जलका कहीं अन्त नहीं मिलता था। इसी अवस्थामें एक सहस्त्र युग व्यतीत हो गये। तदनन्तर मुनि एकार्णवके जलमें डूब गये। उनकी स्मृति-शक्ति नष्ट हो गयी। फिर वे पानीके भीतर विचरने लगे। वहाँ उन्हें एक दूसरे ही ब्रह्माण्डका दर्शन हुआ। उस ब्रह्माण्डके छिद्रमें प्रवेश करनेपर वे दिव्य सृष्टिमें जा पहुँचे। वहाँसे उस ब्रह्माण्डके शिरोभागमें विद्यमान लोकोंमें ब्रह्माकी आयु-पर्यन्त विचरते रहे। इसी प्रकार वहाँ एक छिद्र देखकर श्रीहरिका स्मरण करते हुए वे उसके भीतर घुस गये। घुसते ही उस ब्रह्माण्डके बाहर आ निकले। फिर तत्काल उन्हें महती जलराशि दिखायी दी। उस जलराशिमें उन्हें कोटि-कोटि ब्रह्माण्डोंकी राशियाँ बहती दिखायी दीं। तब मुनिने जलको ध्यानसे देखा तो उन्हें वहाँ विरजा नदीका दर्शन हुआ। उस नदीके पार पहुँचकर मुनिने साक्षात् गोलोकमें प्रवेश किया। वहाँ उन्हें क्रमशः वृन्दावन, गोवर्धन और सुन्दर यमुनापुलिनका दर्शन करके बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर वे मुनि जब निकुञ्जके भीतर घुसे, तब उन्होंने अनन्त कोटि मार्तण्डोंक समान ज्योति मण्डलके अंदर दिव्य लक्षदल कमलपर विराजमान साक्षात् परिपूर्णतम पुरुषोत्तम राधावल्लभ भगवान् श्रीकृष्णको देखा, जो असंख्य गोप-गोपियोंसे घिरे तथा कोटि-कोटि गौओंसे सम्पन्न थे। असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति उन भगवान् श्रीहरिके साथ ही उनके गोलोकका भी मुनिको दर्शन हुआ ॥ ६-२० ॥

उन्हें देखकर भगवान् श्रीकृष्ण हँसने लगे। हँसते समय उनके श्वाससे खिंचकर दुर्वासा मुनि उनके मुँहके भीतर पहुँच गये। उस मुखसे पुनः बाहर निकलनेपर उन्होंने उन्हीं बालरूपधारी श्रीनन्दनन्दनको देखा, जो कालिन्दीके निकटवतीं पुण्य वालुकामय रमणस्थलीमें बालकोंके साथ विचर रहे थे। महावनमें श्रीकृष्णका उस रूपमें दर्शन करके दुर्वासा मुनि यह समझ गये कि ये श्रीकृष्ण साक्षात् परात्पर ब्रह्म है। फिर तो उन्होंन श्रीनन्दनन्दनको बार-बार नमस्कार करके हाथ जोड़कर कहा ॥ २१-२३ ॥

श्रीमुनि बोले- जिसके नेत्र नूतन विकसित शतदल कमलके समान विशाल है, अधर बिम्बा- फलकी अरुणिमाको तिरस्कृत करनेवाले हैं तथा श्रीअङ्ग सजल जलधरकी श्याममनोहर कान्तिको छीने लेते हैं, जिनके मुखपर मन्द मुसकानकी दिव्य छटा छा रही है तथा जो सुन्दर मधुर मन्दगतिसे चल रहे हैं, उन बाल्यावस्थासे विलसित मनोज्ञ श्रीनन्दनन्दनको मैं मनसे प्रणाम करता हूँ। जिनके चरणोंमें मञ्जीर और नूपुर झंकृत हो रहे हैं और कटिमे खनखनाती हुई नूतन रत्ननिर्मित काळी (करधनी) शोभा दे रही है; जो बघनखासे युक्त यन्त्रसमुदाय तथा सुन्दर कण्ठहारसे सुशोभित हैं, जिनके भालदेशमें दृष्टि-जनित पीड़ा हर लेनेवाली कज्जलकी बेदी शोभा दे रही है तथा जो कलिन्दनन्दिनीके तटपर बालोचित क्रीड़ामें संलग्न हैं, उन श्रीहरिकी मैं बन्दना करता हूँ। जिनके पूर्णचन्द्रोपम सुन्दर मुखपर नूतन नीलधनकी श्याम विभाको तिरस्कृत करनेवाले घुँघराले -काले केश चमक रहे हैं, तथा जिनका मस्तकरूपी मुकुद कुछ झुका हुआ है। उन आप नन्दनन्दन श्रीकृष्ण तथा आपके अग्रज श्रीबलरामको मेरा बारंबार नमस्कार है। जो प्रातःकाल उठकर इस ‘श्रीनन्दनन्दनस्तोत्र का पाठ करता है, उसके नेत्रोंके समक्ष श्रीनन्दनन्दन सानन्द प्रकट होते हैं” ॥ २४-२७ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- इस प्रकार श्रीकृष्णको प्रणाम करके मुनिशिरोमणि दुर्वासा उन्हींका ध्यान और जप करते हुए उत्तरमें बदरिकाश्रमकी और चले गये ॥ २८ ॥

श्रीगगंजी कहते हैं- शौनक । इस प्रकार देवर्षिप्रवर महात्मा नारदने बुद्धिमान् राजा बहुलाश्वको भगवान् श्रीकृष्णका चरित्र सुनाया था। ब्रह्मन् । वह सब मैंने तुमसे कह सुनाया। भगवान्का सुयश कलिकलुषका विनाश करनेवाला, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-चारों पदार्थोंको देनेवाला तेथा दिव्य (लोकातीत) है। अब तुम
और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ २९-३० ॥

शौनक बोले- तपोधन । इसके बाद मिथिलानरेश बहुलाश्वने शान्तस्वरूप, ज्ञानदाता महामुनि नारदसे क्या पूछा, वही प्रसङ्ग मुझसे कहिये ॥ ३१ ॥

श्रीगर्गजीने कहा- शौनक ! ज्ञानदाता नारदजीको नमस्कार करके मानदाता मैथिलनरेशने पुनः उनसे श्रीकृष्णचरित्रके विषयमें, जो मङ्गलका धाम है, प्रश्न किया ॥ ३२ ॥

साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णने इसके बाद और कौन- कौन-सी विचिन्त्र लीलाएँ कीं, यह मुझे बताइये। पूर्वक अवतारोंद्वारा भी मङ्गलमय चरित्र सम्पादित हुए हैं। इस श्रीकृष्णावतारके द्वारा इसके बाद और कौन-कौन-से पवित्र चरित्र किये गये, यह सब बताइये ॥ ३३-३४ ॥

श्रीनारदजीने कहा- राजन् । तुम्हें अनेक साधुवाद है; क्योंकि तुमने श्रीहरिके मङ्गलमय चरित्रके विषयमें प्रश्न किया है। वृन्दावनमें जो उनकी यशोवर्धक लीलाएँ हुई हैं, उनका मैं वर्णन करूँगा। यह गोलोकखण्ड अत्यन्त गोपनीय और परम अद्भुत है। गोलोकके रासमण्डलमें साक्षात् श्रीकृष्णने इसका वर्णन किया था। इसे श्रीकृष्णने निकुञ्जमें राधिकाको सुनाया और औराधाने मुझे इसका ज्ञान प्रदान किया है। फिर मैंने तुमको वह सब सुना दिया। यह गोलोकखण्डका वृत्तान्त सम्पूर्ण पदाथौँको देनेवाला उत्कृष्ट साधन है। यदि ब्राह्मण इसका पाठ करता है तो वह सम्पूर्ण शास्त्रोंक अर्थका ज्ञाता होता है, क्षत्रिय इसे सुने तो वह प्रचण्ड-पराक्रमी चक्रवर्ती सम्राट् होता है, वैश्य सुने तो वह निधिपति हो जाय और शूद्र सुने तो वह संसारके बन्धनसे छुटकारा पा जाय। जो इस जगत्में फलकी कामनासे रहित होकर इसका पाठ करता है, वह जीवन्मुक्त हो जाता है। जो सम्यक् भक्तिभावसे युक्त हो नित्य इसका पाठ करता है, वह भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके गोलोकधाममें, जो प्रकृतिसे परे है, पहुँच जाता है। ॥ ३५-४० ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘दुर्वासाके द्वारा भगवान्की मायाका दर्शन तथा श्रीनन्दनन्दनस्तोत्रका वर्णन’ नामक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २० ॥

श्रीगर्ग संहिता में गोलोकखण्ड सम्पूर्ण ।(Golok Khand Chapter 16 to 20)

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