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Garga Samhita Mathurakhand Chapter 16 to 20

Garga Samhita
Garga Samhita Mathurakhand Chapter 16 to 20

॥ श्रीहरिः ॥

ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते

श्रीगणेशाय नमः

Garga Samhita Mathurakhand Chapter 16 to 20
श्री गर्ग संहिता के श्रीमथुराखण्ड अध्याय 16 से 20 तक

श्री गर्ग संहिता के श्रीमथुराखण्ड (Mathurakhand Chapter 16 to 20) सोलहवें अध्याय में उद्धवद्वारा श्रीराधा तथा गोपीजनों को आश्वासन वर्णन दिया गया है। सत्रहवाँ अध्याय में श्रीकृष्ण को स्मरण करके श्रीराधा तथा गोपियोंके करुण उद्गार किया गया है। अठारहवाँ अध्याय में गोपियों के उद्गार तथा उनसे विदा लेकर उद्भव का मथुरा को लौटने का वर्णन कहा गया है। उन्नीसवाँ अध्याय में श्रीकृष्ण का उद्धव के साथ व्रज में प्रत्यागमन और यमुनातट पर गौओं का उनके रथको चारों ओरसे घेर लेना; गोपों के साथ उनकी भेंट; नन्दगाँव से नन्दरायजी एवं यशोदा का गोपों एवं गोपियों को लेकर गाजे-बाजे के साथ उनकी अगवानी के लिये निकलना तथा सबके साथ श्रीकृष्ण का नन्दनगर में प्रवेश और बीसवाँ अध्याय में श्रीकृष्ण का कदली वन में श्रीराधा और गोपियों के साथ मिलन; रासोत्सव तथा उसी प्रसङ्ग में रोहिताचलपर महामुनि ऋभुका मोक्ष वर्णन कहा गया है।

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सोलहवाँ अध्याय

उद्धवद्वारा श्रीराधा तथा गोपीजनोंको आश्वासन

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीराधाने पत्र लेकर उसे अपने मस्तकपर रखा, फिर नेत्रों और छातीसे लगाया। तदनन्तर उसे पढ़कर श्रीकृष्णके चरणारविन्दोंका स्मरण करके, अत्यन्त प्रेमातुर हो नेत्रोंसे अश्रुधारा बहाती हुई वे उद्धवके सामने ही मूर्च्छाकी पराकाष्ठा को पहुँच गयीं। तब सखियोंने उनके ऊपर केसर, अगुरु और चन्दनसे मिश्रित जल तथा पुष्परस छिड़ककर चॅवर डुलाना आरम्भ किया। इससे पुनः उनकी चेतना लौटी। कमललोचना श्रीराधा को वियोग-दुःखके सागरमें डूबी हुई देख उद्धव तथा गोपियाँ नेत्रोंसे अविरल अश्रुधारा बहाने लगीं। राजन् ! उन सबके आँसुओंके प्रवाहसे तत्काल वृन्दावनमें कहार-पुष्पोंसे सुशोभित लीला-सरोवर प्रकट हो गया। नरेश्वर ! जो मनुष्य उस सरोवरका दर्शन, उसके जलका पान तथा उसमें भलीभाँति स्नान करके इस कथाको सुनता है, वह कर्मोंके बन्धनसे मुक्त हो श्रीकृष्णको प्राप्त कर लेता है। तदनन्तर उद्धवके मुखसे श्रीकृष्णके पुनरागमनका समाचार सुनकर वे सब गोपाङ्गनाएँ महात्मा गोविन्दका सम्पूर्ण कुशलमङ्गल पूछने लगीं ॥१-७॥(Mathurakhand Chapter 16 to 20)

श्रीराधा बोलीं- उद्धव ! वह समय कब आयेगा, जब मैं घनके समान श्यामकान्तिवाले आनन्दप्रद श्रीव्रजराजनन्दनका दर्शन करूँगी? जैसे मयूरी मेघमालाके और चकोरी चन्द्रमाके दर्शनके लिये अत्यन्त उत्कण्ठित रहती है, उसी प्रकार मैं भी उनका दर्शन पानेके लिये उत्सुक हूँ। किस कुसमयमें मेरा उनसे वियोग हुआ, जिससे इस पृथ्वीपर एक-एक क्षण मेरे लिये एक कल्पके समान हो गया है! गोविन्दके युगलचरणोंके बिना यह विरहकी रात इतनी बड़ी हो गयी है कि ब्रह्माजीकी आयुके द्विपरार्ध कालको भी तिरस्कृत कर रही है। उद्धव ! क्या कभी श्यामसुन्दर इस व्रजके मार्गपर भी पदार्पण करेंगे? आप मुझे शीघ्र बताइये, वे वहाँ कौन-सा कार्य कर रहे हैं? आजतक बड़े प्रयाससे मैंने इन प्राणोंको धारण किया है। उनके झूठे वादेसे आतुर हुए ये प्राण हठात् निकले जा रहे हैं। आज तुम्हें देखकर क्षणभरके लिये मेरा हृदय शीतल हुआ है। तुम्हारे आनेसे आज मैं उसी तरह प्रसन्न हुई हूँ, जैसे पूर्वकालमें पवनपुत्र हनुमान्के लङ्कामें आनेसे जनकनन्दिनी सीता प्रसन्न हुई थीं। मन्त्रियोंमें श्रेष्ठ उद्धव ! जो आशा देकर अपने छोह-मोहरूपी धनको त्यागकर और अपनी ही कही हुई बातको भुलाकर मथुरा चले गये, उनके लिखे हुए इस पत्रके वाक्यांशको भी मैं सत्य नहीं मानती। तुम स्वयं उनको यहाँ ले आओ ॥८-१२॥

उद्धव बोले- श्रीराधे! मैं मथुरापुरी लौटकर आपके इस महान् विरहजनित दुःखको उन्हें सुनाऊँगा और अपने आँसुओंके जलसे उनके चरण पखारूँगा। जैसे भी होगा, श्रीहरिको मथुरापुरीसे लेकर पुनः यहाँ आऊँगा यह बात मैं आपके चरणोंकी शपथ खाकर कहता हूँ। अतः अब आप शोक न करें ॥ १३ ॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर प्रसन्न हुई श्रीराधाने रास-रङ्गस्थलमें चन्द्रमाद्वारा दी गयी दो सुन्दर चन्द्रकान्त मणियाँ श्यामसुन्दरको देनेके लिये उद्धवके हाथमें दीं। पूर्वकालमें चन्द्रमाने जो दो सहस्रदल कमल भेंट किये थे, उन्हें भी प्रसन्न हुई भक्तवत्सला श्रीराधाने उद्धवको अर्पित किया। हरिप्रिया श्रीराधाने प्राणवल्लभके लिये छत्र, दिव्य सिंहासन तथा दो मनोहर चंवर, जो श्रीकृष्णके संकल्पसे प्रकट हुए थे, उद्धवके हाथमें दिये। साथ ही यह वरदान भी दिया कि ‘उद्धव ! तुम ऐश्वर्यज्ञानसे सम्पन्न, समस्त उपदेशक गुरुओंके भी उपदेशक तथा श्रीकृष्णके साथ रहनेवाले होओगे।’ श्रीराधाने उन्हें निर्गुण-भावसे सम्पन्न प्रेम- लक्षणा-भक्ति तथा ज्ञान-विज्ञान सहित वैराग्य भी प्रदान किया। विदेहराज! श्रीहरि शङ्खचूड़ यक्षसे जो उसकी चूड़ामणि छीन लाये थे, वह सुन्दर चूड़ामणि चन्द्रानना गोपीने उद्धवके हाथमें दी। राजन्। इसी प्रकार अन्य गोपाङ्गनाओंने भी महात्मा उद्धवके हाथमें सुन्दर आभूषणोंकी राशि समर्पित की ॥ १४-२० ॥

नारदजी कहते हैं- उद्धवजीकी शुभार्थक वाणी सुनकर जब श्रीराधिकाजी अत्यन्त प्रसन्न हो गयीं, तब सभामण्डपमें स्थित हुए श्रीकृष्ण सखा उद्धवके पास बैठकर व्रजगोप-वधूटियोंने पृथक् पृथक् उनसे पूछा ॥ २१ ॥(Mathurakhand Chapter 16 to 20)

गोपाङ्गनाएँ बोलीं- उद्धवजी ! हमें शीघ्र बताइये, जिन-जिनके लिये श्रीहरिने पत्र लिखा है, उनके लिये कोई अ‌द्भुत संदेश भी कहा है क्या? आप परावरवेत्ताओंमें उत्तम, साक्षात् श्रीकृष्णके सखा, उनके ही समान आकृतिवाले और महान् हैं (अतः उनकी कही हुई बात हमसे अवश्य कहिये) ॥ २२ ॥

उद्धवने कहा- गोपाङ्गनाओ। जैसे तुमलोग देवेश्वर श्रीकृष्णका निरन्तर स्मरण करती रहती हो, उसी प्रकार वे भी प्रतिक्षण तुम्हारा स्मरण करते हैं। निस्संदेह मेरे सामने ही वे तुम्हें याद करते रहते हैं। मैं श्रीहरिका एकान्त सेवक हूँ। एक दिन तुमलोगोंको स्मरण करके नन्दनन्दन श्रीहरिने मुझे बुलाया और तुमसे कहनेके लिये अपने मनका संदेश इस प्रकार कहा ॥ २३-२४ ॥

श्रीभगवान् बोले- विषयोंमें आसक्त हुआ मन बन्धनकारक होता है; वही यदि मुझ परमपुरुषमें आसक्त हो जाय तो मोक्षकी प्राप्ति करानेवाला होता है। अतः ज्ञानीजन मनको बन्धन और मोक्ष दोनों- का कारण बताते हैं। अतः मनुष्यको चाहिये कि वह मनको जीतकर इस पृथ्वीपर असङ्ग (आसक्तिशून्य) होकर विचरे। जब विवेकी पुरुष निर्मल अध्यात्म- योगके द्वारा मुझ साक्षात् परात्पर ब्रह्मको सर्वत्र व्यापक जान लेता है, तब वह मनके कषाय (राग या आसक्ति) को त्याग देता है। यद्यपि मेघ सूर्यसे ही उत्पन्न हुआ उसका कार्यरूप है, तथापि जबतक वह सूर्य और दर्शककी दृष्टिके बीचमें स्थित है, तबतक दृष्टि सूर्यको नहीं देख पाती। (उसी प्रकार जबतक अन्तःकरण-आत्माके बीचमें कषायरूप आवरण है, तबतक मुझ परमात्माका दर्शन नहीं हो पाता।) व्रजाङ्गनाओ! मैं स्थूल भावसे दूर हूँ, परंतु तत्त्वदृष्टिसे तुममें और मुझमें कोई दूरी नहीं है। अतः यहाँके वियोगको तुम मेरी प्राप्तिका साधन बना लो। सांख्य- भावसे जिस पदकी प्राप्ति होती है, अवश्य ही वह योगभाव (योग-साधना या वियोगकी अनुभूति) से भी स्वतः प्राप्त हो जाता है॥ २५-२७॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीमथुराखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘उद्धवद्वारा श्रीराधा तथा गोपियाँको आश्वासन’ नामक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १६ ॥

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सत्रहवाँ अध्याय

श्रीकृष्णको स्मरण करके श्रीराधा तथा गोपियोंके करुण उद्गार

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीकृष्णका यह संदेश सुनकर प्रसन्न हुई गोपाङ्गनाएँ आँसू बहाती हुई गद्द कण्ठसे उद्धवसे बोलीं ॥ १ ॥

गोलोकवासिनी गोपियोंने कहा- उद्धव ! पहलेके प्रियजनोंको त्यागकर श्रीकृष्ण परदेश चले गये, उसपर भी वहाँसे उन्होंने योग लिख भेजा है। अहो! निर्मोहीपनका बल तो देखो ॥ २॥

द्वारपालिका गोपिकाएँ बोलीं- सखियो! देखो, चन्द्रमाकी चकोरपर, सूर्यकी कमलपर, कमलकी भ्रमरपर तथा मेघकी चातकपर जैसे कभी प्रीति नहीं होती, उसी प्रकार श्यामसुन्दरका हमलोगोंपर प्रेम नहीं है॥ ३॥(Mathurakhand Chapter 16 to 20)

शृङ्गार धारण करानेवाली गोपियोंने कहा सखियो! चकोर चन्द्रमाका मित्र है, परंतु उसके भाग्यमें सदा आगकी चिनगारियाँ चबाना ही बदा है। विधाताने जिसके भाग्यमें जो कुछ लिख दिया है, वह कभी कम नहीं होता ॥ ४ ॥

शय्योपकारिका गोपियाँ बोलीं- वधिक भी मृगोंको बाण मारकर तुरंत आतुर हो उनकी सुध लेता है; किंतु कटाक्षोंसे अपने प्रियजनोंको घायल करके कोई निर्मोही उनका स्मरणतक न करे-यह कैसा आश्चर्य है? ॥५॥
पार्षदा गोपियोंने कहा- विरहजनित दुःखको कोई विरही ही जानता है, दूसरा कोई कभी उस दुःखको नहीं समझ सकता- जैसे जिसके अङ्गोंमें काँटा गड़ा है, उसकी पीड़ाको वही जानता है, जिसके पहले कभी काँटा गड़ चुका है; जिसके शरीरमें कभी काँटा गड़ा ही नहीं, वह उसके दर्दको क्या जानेगा ? ॥ ६ ॥

वृन्दावन-पालिका गोपियाँ बोलीं- निष्काम प्रेमके सुखको निष्काम प्रेमी ही जानता है। जो किसी कारण या कामनाको लेकर प्रेम करता है, वह निष्काम प्रेमके सुखको क्या जानेगा? क्या कभी कर्मेन्द्रियाँ रसका अनुभव कर सकती हैं॥७॥

गोवर्धन-वासिनी गोपियोंने कहा पुरवनिताओंसे प्रेम करनेवाला अब सैरन्ध्री (कुब्जा) का नायक बन बैठा है। उसे पर्वत एवं वनमें रहनेवाली स्त्रियोंसे क्या लेना है। इस विषयमें अधिक कहना व्यर्थ है॥८॥

कुञ्जविधायिका गोपियाँ बोलीं- हाय ! मतवाले भ्रमरोंके गुञ्जारवसे व्याप्त माधवी कुञ्ज-पुञ्जमें से जिनको हम सदा अपनी आँखोंमें बसाये रखती थीं, उनकी आज यह कथा सुनी जाती है॥९॥

निकुञ्जवासिनी गोपियोंने कहा- वृन्दावनमें मतवाले भ्रमरोंके समुदायसे युक्त यमुनातटवर्ती कदम्ब- कुञ्जमें धीरे-धीरे बलराम, ग्वाल-बाल और गोधनके साथ विचरते हुए नन्दनन्दनका हम भजन करती हैं ॥ १० ॥

यमुनाजीके यूथमें सम्मिलित गोपियाँ बोलीं- कब हमारा भी वैसा ही समय होगा, जैसा आज मथुरा- पुरवासिनी स्त्रियोंका देखा जाता है? व्रजाङ्गनाओ ! शोक न करो। किसीकी कभी सदा जय या पराजय नहीं होती। विधाताके हृदयमें तनिक भी दया नहीं है; जैसे बालक खिलौनोंको अलग करता और मिलाता है, उसी प्रकार वह विधाता समस्त भूतोंको संयुक्त और वियुक्त करता रहता है। जो पहले कुबड़ी थी, वह आज सीधी और समान अङ्गवाली हो गयी; जो दासी थी, वह कुलीन हो गयी तथा जो कुरूपा थी, वह रूपवती होकर चमक उठी है। अहो! चार ही दिनोंमें वह अपनी विजयके नगारे पीटने लगी है॥ ११-१३॥

विरजा-यूथकी गोपियोंने कहा- किसीकी भी बाँह सदा प्रियके कंधेपर नहीं रहती, किसी भी वनमें सदा वसन्त नहीं होता, कोई भी सदा जवान नहीं रहता, ये देवराज इन्द्र भी सदा राज्य नहीं करते हैं। कोई चार दिनोंके लिये भले ही खूब मानकर ले ॥ १४॥(Mathurakhand Chapter 16 to 20)

ललिता-यूथकी गोपियाँ बोलीं- मन्थरा भी कुबड़ी थी, जिसने अयोध्यापुरीमें श्रीरामचन्द्रजीके राज्याभिषेकको रोकवाकर उसमें विघ्न उपस्थित कर दिया। वह कुब्जा ही यह मथुरापुरीमें आ गयी है। गोपिकाओ। जो कुब्जा है, वह क्या-क्या नहीं कर सकती ? ॥ १५ ॥

विशाखा-यूथकी गोपियोंने कहा- जो गौएँ चरानेके लिये अनुगामी ग्वाल-बालोंके साथ वनमें जाते हैं और लौटते समय वंशीनादके द्वारा नगर- गाँवके लोगोंको अपने आगमनका बोध करा देते हैं तथा जो अपनी गतिसे मतवाले हाथीकी चालका अनुकरण करते हैं, उन नन्दनन्दनको हम भुला नहीं सकतीं ॥ १६ ॥

माया-यूथकी गोपियाँ बोलीं- साँकरी गलियोंमें हमारा आँचल पकड़कर, हठात् हमें अपनी भुजाओंमें भरकर और हृदयसे लगाकर परस्परकी खींचातानीसे हर्ष और भयका अनुभव करनेवाले उन श्रीहरिको हम कब अपने घरोंमें ले जायेंगी ? ॥ १७ ॥

अष्टसखियोंने कहा- उद्धव। उन सर्वाङ्ग- सुन्दर नन्दनन्दनको निहारकर हमारे नेत्र अब संसारकी ओर नहीं देखते-नहीं देखना चाहते। वे ही नन्द- राजकुमार मथुरापुरीमें विराज रहे हैं। शीघ्र बताओ, अब हमारा क्या होगा ? ॥ १८ ॥

षोडश सखियाँ बोलीं- वनमें प्रेमपीड़ाको बढ़ानेवाली बाँसुरीकी मधुर तान सुनकर हमारे दोनों कान अब संसारी गीत नहीं सुनना चाहते, वे तो कौओंकी ‘काँव-काँव’ के समान कड़वे लगते हैं ॥ १९ ॥

बत्तीस सखियोंने कहा- अपने मित्रको प्रीतिसे, शत्रुको नीतिसे, लोभीको धनसे, ब्राह्मणको आदरसे, गुरुको बारंबार प्रणामसे तथा रसिकको रससे वशमें किया जाता है; परंतु निर्मोहीको कोई कैसे वशमें कर सकता है?॥ २० ॥

श्रुतिरूपा गोपियाँ बोलीं- जो जाग्रत् आदि अवस्थाओंमें व्याप्त होकर भी उनसे परे हैं तथा इस जगत्‌के हेतु होते हुए भी वास्तवमें अहेतु हैं, ये समस्त गुण जिनसे ही प्रेरित होकर अपने-अपने विषयोंकी ओर प्रवाहित होते हैं; तथा जैसे आगसे निकली हुई चिनगारियाँ पुनः उसमें प्रविष्ट नहीं होतीं, उसी प्रकार महत्तत्त्व, इन्द्रियसमुदाय तथा इन्द्रियोंके अधिष्ठाता देव-समुदाय जिनमें प्रवेश नहीं पाते, उन परमात्माको नमस्कार है॥ २१ ॥

ऋषिरूपा गोपियोंने कहा- बलवानोंमें भी अत्यन्त बलिष्ठ यह काल जिनपर अपना शासन चलानेमें समर्थ नहीं है, माया भी जिनको वशीभूत नहीं कर पाती तथा वेद भी जिन्हें अपने विधिवाक्योंका विषय नहीं बना पाता, उस अमृतस्वरूप, परम प्रशान्त, शुद्ध, परात्पर पूर्णब्रह्मकी हम शरण लेती हैं॥ २२॥

देवाङ्गनास्वरूपा गोपियाँ बोलीं- जिन परमेश्वरके अंशांश, अंश, कला, आवेश तथा पूर्ण आदि अवतार होते हैं, और जिनसे ही इस जगत्की सृष्टि, पालन एवं संहार होते हैं, उन पूर्णसे भी परे परिपूर्णतम श्रीकृष्णको हम प्रणाम करती हैं॥ २३ ॥(Mathurakhand Chapter 16 to 20)

यज्ञसीतारूपा गोपियोंने कहा- ये श्याम सुन्दर निकुञ्ज-लतिकाओंके लिये कुसुमाकर (वसन्त) हैं, श्रीराधाके हृदय तथा कण्ठको विभूषित करनेवाले हार हैं, श्रीरासमण्डलके अधिपति हैं, व्रजमण्डलके ईश्वर हैं तथा समस्त ब्रह्माण्डोंके महीमण्डलका परिपालन करनेवाले हैं॥ २४ ॥

रमावैकुण्ठवासिनी गोपियाँ बोलीं- जिन्होंने समस्त गोपीयूथको अलंकृत किया, अपनी चरण- रजसे वृन्दावन तथा गिरिराज गोवर्धनको विभूषित किया तथा जो सम्पूर्ण लोकोंके अभ्युदयके लिये इस भूमण्डलपर आविर्भूत हुए, उन नागराजके समान परिपुष्ट भुजावाले अनन्त लीला-विलासशाली श्रीश्यामसुन्दरका हम भजन करती हैं॥ २५॥

श्वेतद्वीपकी सखियोंने कहा- जैसे बालक कुकुरमुत्तेको बिना श्रमके उठा लेता है और जैसे गजराज अपनी सूंडसे अनायास ही कमलको उठा लेता है, उसी प्रकार जिन्होंने खिलवाड़में ही पर्वतको एक हाथसे उठाकर अद्भुत शोभा प्राप्त की, वे कृपानिधान श्रीव्रजराजनन्दन हमें कभी विस्मृत नहीं होते ॥ २६ ॥

ऊर्ध्ववैकुण्ठवासिनी गोपियाँ बोलीं- हमारी श्यामवर्णमयी आँखें सारे जगत्को श्याममय ही देखती हैं, इन्हें द्वैत तो दीखता ही नहीं; फिर ये योगका सेवन क्या करेंगी ? ॥ २७ ॥

लोकाचलवासिनी गोपियोंने कहा- नेहका पाश दृढ़ होता है। वह कभी टूटने कटनेवाला नहीं है। हम उसे नहीं काट सकतीं। श्रीहरिके सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं कर सकता। एकमात्र वे ही ऐसे हैं, जो नागपाशको काटनेवाले गरुड़की भाँति इस स्नेहपाश- को काटकर मथुरा चले गये ॥ २८ ॥

अजितपदाश्रिता गोपियाँ बोलीं- हमारे दोनों नेत्र श्रीकृष्णमें लग गये हैं, वे दसों दिशाओंमें दौड़ लगानेपर भी अन्यत्र कहीं उसी प्रकार नहीं टिक पाते, जैसे कमलसे जिसकी लगन लगी है, वह भ्रमर अन्य फूलोंपर कदापि नहीं जाता ॥ २९ ॥

श्रीसखियोंने कहा- लोग अपनी कृपणतासे यशको, क्रोधसे गुणसमूहके उदयको, दुर्व्यसनोंसे धनको तथा कपटपूर्ण बर्तावसे मैत्रीको नष्ट कर देते हैं॥ ३० ॥

मिथिलावासिनी स्त्रियाँ बोलीं- धन देकर तनकी रक्षा करे, तन देकर लाज बचाये तथा मित्रका कार्य सिद्ध करनेके लिये आवश्यकता पड़ जाय तो धन, तन और लाज- तीनोंका उत्सर्ग कर दे ॥ ३१ ॥

कोसलप्रान्तवासिनी गोपियोंने कहा- वियोगजनित दुःखकी दशाको जीवात्माके बिना दूसरा कोई नहीं जानता है, परंतु वह उसे बतानेमें असमर्थ है। (बताती है वाणी, किंतु उसे उस दुःखका अनुभव नहीं है।) भले ही बाणोंके आघातसे हृदय विदीर्ण हो जाय, किंतु कभी किसीको प्रिय-वियोगका कष्ट न प्राप्त हो ॥ ३२ ॥

अयोध्यापुरवासिनी गोपियाँ बोलीं- पहले निराश करके फिर आशा दे दी और अपने मथुराकी आशा (दिशा) में चले गये? उसके ऊपर हमारे लिये योग लिखा है। अहो! निर्मोही जनोंका चित्र (या चित्त) विचित्र होता है ॥ ३३ ॥

पुलिन्दी गोपियोंने कहा- पूर्वकालकी बात है, दण्डकवनमें शूर्पणखा अत्यन्त विह्वल होकर इन्हें अपना पति बनानेके लिये इनके पास आयी; किंतु इन्होंने सुमित्राकुमारको प्रेरणा देकर बलपूर्वक उसे कुरूप बना दिया। ऐसे पुरुषसे आप सबको कृपाकी आशा कैसे हो रही है? ॥ ३४ ॥

सुतलवासिनी गोपियाँ बोलीं- राजा बलि भगवद्भक्त, सत्यपरायण और बहुत अधिक दान करने- वाले थे, परंतु उनसे भेंट-पूजा लेकर जिन्होंने कुपित हो उन्हें बन्धनमें डाल दिया था, उस वामनरूपधारी कपट-ब्रह्मचारी बने हुए श्रीहरिकी न जाने लक्ष्मीजी या अन्य भक्तजन कैसे सेवा करते हैं? ॥ ३५ ॥

जालंधरी गोपियोंने कहा- पूर्वकाल में असुर श्रेष्ठ भक्तप्रवर कयाधूकुमार प्रह्लादको बहुत अधिक कष्ट सहन करना पड़ा, तब कहीं नृसिंहरूप धारण करके इन्होंने उनकी सहायता की। अहो! इनमें निष्ठुरताकी पराकाष्ठा प्रत्यक्ष देखी जाती है॥ ३६ ॥(Mathurakhand Chapter 16 to 20)

भूमिगोपियाँ बोलीं- अहो! अत्यन्त निर्मोही जनका चरित्र अत्यन्त विचित्र होता है, वह कहने- योग्य नहीं है। मुखसे और ही बात निकलेगी, किंतु हृदयमें कोई और ही विचार रहेगा। ऐसे लोगोंको देवता भी नहीं समझ पाते, फिर मनुष्य कैसे जान सकता है?॥ ३७ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीमधुराखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘श्रीकृष्णकी यादमें गोपियोंके वचन’ नामक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥१७॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ स्तोत्ररत्नावली

अठारहवाँ अध्याय

गोपियोंके उद्गार तथा उनसे विदा लेकर उद्भवका मथुराको लौटना

बर्हिष्मतीपुरीकी गोपियोंने कहा- अहो ! प्रलयके समुद्रमें वाराहरूपधारी महात्मा श्रीहरिने कृपापूर्वक जिसका उद्धार किया था, उसी पृथ्वीको मारनेके लिये आदिराज पृथुके रूपमें वे उसके पीछे दौड़े। दयालु होकर भी वे निर्दयताके लिये उद्यत हो गये (अतः कभी कठोर होना और कभी कृपा करना – इन श्रीहरिका स्वभाव ही है) ? ॥ १॥

लतारूपा गोपियाँ बोलीं- विश्वके वैद्य महात्मा धन्वन्तरि पूर्वकालमें अमृत कलशके साथ समुद्रसे प्रकट हुए, किंतु उन्होंने वह अमृत अपने हाथसे नहीं बाँटा; परंतु जब उसके लिये देवता और असुर आपसमें वैर बाँधकर युद्धके लिये उद्यत हो गये, तब कलहप्रिय श्रीहरिने स्वयं मोहिनी नारीका रूप धारण करके वह सुधा केवल देवताओंको पिला दी ॥ २॥

नागेद्रकन्यारूपा गोपियोंने कहा- दण्डक नामक महावनमें इन श्रीहरिको श्रीरामरूपमें देखकर शूर्पणखा इन्हें अपना पति बनानेकी इच्छासे इनके पास आयी थी, किंतु लक्ष्मणसहित इन्होंने उस बेचारीके नाक-कान काटकर कुरूप बना दिया। यह कैसी निष्ठुरता है; उसने इनका क्या बिगाड़ा था ? ॥ ३ ॥

समुद्रकन्यारूपा गोपियाँ बोलीं- जो प्रतिदिन सैकड़ों घरोंमें जाती और लोगोंको सुख-दुःख दिया करती है, वह चञ्चला लक्ष्मी इन श्रीहरिके पास न जाने स्वकीया और सुशीला बनकर कैसे टिकी हुई है?॥४॥

अप्सरारूपा गोपियोंने कहा- सखियो ! इनके प्रति प्रीति करनेसे रावणकी बहिनको अपनी नाक और कानोंसे हाथ धोना पड़ा था, अतः उनकी बात छोड़ो। इन्होंने तुम्हारे ऊपर उससे भी अधिक कृपा की है [कि नाक कान छोड़ दिये] ॥५॥

दिव्यरूपा गोपियाँ बोलीं- ये राजा बलिसे बलि लेकर सर्वेश्वर हैं और उन्हें बाँधकर भी दयालु हैं; मुक्तिके नाथ होकर भी इन्होंने अपने भक्त बलिको नीचे सुतललोकमें फेंक दिया। इनकी कथासे आश्चर्य होता है॥ ६ ॥

अदिव्या गोपियोंने कहा- पूर्वकालमें शत- रूपाके साथ मनु शान्तभावसे तपस्या करते थे। उस समय दैत्योंने उन्हें बहुत बाधा पहुंचायी। तत्पश्चात् उन दयानिधि श्रीहरिने आकर उनकी रक्षा की [पहले दुःख देना और पीछे आँसू पोंछना इनका स्वभाव है।] ॥७॥(Mathurakhand Chapter 16 to 20)

सत्त्ववृत्तिरूपा गोपियाँ बोलीं- भक्त ध्रुव और प्रह्लादने पहले बहुत कष्ट पाया, तदनन्तर उन्होंने कृपापूर्वक उनकी रक्षा की; हमारे ये दीनवत्सल प्रभु पहले किसीकी रक्षा नहीं करते, कष्ट भुगतानेके बाद ही करते हैं॥८॥

रजोगुणवृत्तिरूपा गोपियोंने कहा- रुक्माङ्गद, हरिश्चन्द्र और अम्बरीष- इन साधु- शिरोमणि नरेशोंके सत्यकी परीक्षा करके ही श्रीहरिने उन्हें पुनः भागवती-समृद्धि प्रदान की [सम्भव है, हमारे भी प्रेमकी परीक्षा ली जाती हो। ॥९॥

तमोगुणवृत्तिरूपा गोपियाँ बोलीं- जिन छली-बली श्रीहरिने पूर्वकालमें वृन्दाको छला था, इन्हींको आज छलमयी और बलवती कुब्जाने छल लिया। [जैसेको तैसा मिला।] कटार या कृपाणिका एकही ओरसे टेढ़ी होती है, तथापि बहुत से लोगोंका घात करती है; इधर कुब्जा तो तीन जगहसे टेढ़ी है; उसे तीन जगहसे टेढ़े श्रीकृष्ण मिल गये, फिर वह कितनों- का घात करेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता। श्रीकृष्णकी राह देखते-देखते हमारी आँखें बहुत दुखने लगी हैं और उनके आनेकी अवधि वामनके पादविक्षेपकी तरह बढ़ती ही जाती है। इस माधवमासमें माधवके बिना हमारे शरीरका चमड़ा पीला पड़ गया, हमारी गतिमें शिथिलता आ गयी पाँव थक गये और मन अत्यन्त उद्घान्त हो गया है। हा दैव! किस समय हम सब उषःकालमें सौतके हारके चिह्नसे चिह्नित होकर आये हुए नन्दनन्दनको देखेंगी ॥ १०-१४॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार श्रीकृष्णका चिन्तन करती हुई प्रेमविह्नला गोपियाँ उत्कण्ठित हो रोने लगीं और मूच्छित हो पृथ्वीपर गिर पड़ीं। तब पृथक् पृथक् सबको आश्वासन दे, नीति- निपुण वचनोंद्वारा सब गोपियोंको समझा-बुझाकर उद्धवने श्रीराधासे कहा ॥ १५-१६ ॥

उद्धव बोले- परिपूर्णतमे ! कृष्णस्वरूपे ! वृषभानुवर- नन्दिनि ! मुझे जानेकी आज्ञा दीजिये। व्रजेश्वरि ! आपको नमस्कार है। शुभे! महात्मा श्रीकृष्णको उनके पत्रका उत्तर दीजिये। उसके द्वारा शीघ्र ही उनके चरणोंमें प्रणाम करके मैं उन्हें आपके पास ले आऊँगा ॥ १७-१८ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर राधा तुरंत ही लेखनी और मसीपात्र लेकर समाचारका चिन्तन करने लगीं, तबतक उनके नेत्रोंसे अश्नुवर्षा होने लगी। श्रीराधाने जो-जो पत्र हाथमें लेकर उसे लेखनीसे संयुक्त किया, वह वह उनके नेत्र-कमलोंके नीरसे भीग गया। श्रीकृष्णदर्शनकी लालसासे अश्रु- धारा बहाती हुई कमलनयनी राधासे विस्मित हुए उद्धवने कहा ॥ १९-२१ ॥

उद्धव बोले- श्रीराधे! आप कैसे लिखती हैं और कैसे दुःख प्रकट करती हैं, यह सब कथा आपके लिखे बिना ही मैं उनसे निवेदित करूँगा ॥ २२ ॥(Mathurakhand Chapter 16 to 20)

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उद्धवकी वाणी सुनकर राधाने बाधारहित हो समस्त गोपियोंके साथ उस समय उद्धवका पूजन किया। तत्पश्चात् परादेवी रासेश्वरी श्रीराधाको प्रणाम और उनकी परिक्रमा करके, गोपीगणोंसे विदा ले, सबको बार-बार मस्तक झुकाकर उद्धव रत्नभूषणभूषित उस दिव्याकार रथपर आरूढ़ हुए। उनको अपनी बुद्धि और ज्ञानपर जो बड़ा अभिमान था, वह दूर हो गया। वे संध्याके समय नन्दजीके पास लौट आये। सबेरे सूर्योदय होने- पर गोपी यशोदाको नमस्कार करके, उद्धव नन्दराजकी आज्ञा ले क्रमशः नौ नन्दों, वृषभानुओं, उपनन्दों, अन्य लोगों तथा कृष्णके सम्पूर्ण सखाओंसे अलग-अलग मिले और उनसे विदा ले, रथपर आरूढ़ हो वहाँसे चल दिये। समस्त गोप और गोपियोंके समुदाय उनके पीछे-पीछे दूरतक पहुँचानेके लिये गये। उद्धव सबको स्नेहपूर्वक लौटाकर मथुराको चले गये। श्रीकृष्ण यमुनाके मनोहर तटपर अक्षयवटके नीचे एकान्त स्थानमें बैठे हुए थे। वहाँ उनको प्रणाम और उनकी परिक्रमा करके बुद्धिमानों में श्रेष्ठ उद्धव नेत्र-कमलोंसे आँसू बहाते हुए प्रेमगद्गद वाणीमें बोले ॥ २३-२९ ॥

उद्धवने कहा- देव! आप तो सबके साक्षी हैं, आपको मुझे क्या बताना है। आप राधिका और गोपियोंका कल्याण कीजिये, कल्याण कीजिये; उन्हें दर्शन दीजिये। ‘मैं देवदेवेश्वर श्रीकृष्णको तुम्हारे पास ले आऊँगा।’ ऐसी बात मैंने उनसे कही है। कृपानिधे ! मेरे इस वचनकी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। भक्तोंके परमेश्वर! जैसे आपने प्रह्लाद और रुक्माङ्गदकी, बलि और खट्वाङ्गकी तथा अम्बरीष और ध्रुवकी प्रतिज्ञा रखी है, उसी प्रकार मेरी की हुई प्रतिज्ञाकी भी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ॥ ३०-३२ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीमधुराखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘गोपियोंके वचन तथा उद्धवका मधुरा लौट जाना’ नामक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १८ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ मीमांसा दर्शन (शास्त्र) हिंदी में

उन्नीसवाँ अध्याय

श्रीकृष्णका उद्धवके साथ व्रजमें प्रत्यागमन और यमुना-तटपर गौओंका उनके रथको चारों ओरसे घेर लेना; गोपोंके साथ उनकी भेंट;
नन्दगाँवसे नन्दरायजी एवं यशोदा- का गोपों एवं गोपियोंको लेकर गाजे-बाजेके साथ उनकी अगवानीके लिये
निकलना तथा सबके साथ श्रीकृष्णका नन्दनगरमें प्रवेश

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार भक्तका वचन सुनकर भक्तवत्सल अच्युतने अपने कहे हुए वचनको याद करके व्रजमें जानेका विचार किया। समस्त कार्यभारोंपर दृष्टि रखनेके लिये बलदेवजीको मथुरामें ही छोड़कर चञ्चल घोड़ोंसे जुते हुए किङ्किणीजालमण्डित सुवर्णजटित सूर्यतुल्य तेजस्वी रथपर उद्धवके साथ आरूढ़ हो भगवान श्रीकृष्ण भक्तोंको दर्शन देनेके लिये नन्दगाँवको गये। गोवर्द्धन, गोकुल और वृन्दावनको देखते हुए श्रीकृष्ण यमुनाके मनोहर तटपर पहुँचे। व्रजेश्वर श्रीकृष्णको देखते ही कोटि-कोटि गौएँ चारों ओरसे दौड़ती हुई उनके पास आ गयीं। उन सबके स्तनोंसे स्नेहके कारण दूध झर रहा था। वे कान और पूँछ उठाकर रंभा रही थीं। उनके साथ बछड़े भी थे। मुखमें घासके ग्रास लिये खड़ी हुई गौएँ नेत्रोंसे आनन्दके आँसू बहा रही थीं। उनकी व्यथा-वेदना दूर हो गयी थी। राजन् । जैसे बादल रथ, अरुण और अश्वोंसहित शरत्कालके सूर्यको ढक लेते हैं, उसी प्रकार उद्धवके देखते-देखते गौओंने उस रथको सब ओरसे घेर लिया। गोपाल श्रीहरि उन सब गौओंके अलग-अलग नाम बोलकर अपने श्रीहस्तसे उनके अङ्गको सहलाते हुए बड़े हर्षको प्राप्त हुए। गौओंके समुदायको उनके समीप गया देख श्रीदामा आदि व्रज-बालक विस्मित हो परस्पर कहने लगे ॥ १-९ ॥

गोप बोले- सखाओ। उस वायुके समान वेगशाली तथा कांस्यपत्र (झाँझ) की ध्वनिके समान शब्द करनेवाले, कलश और ध्वजसहित रथको, जिसमें सैकड़ों अश्व जुते हैं तथा जो शत सूर्योक समान शोभाशाली है, गौओंने कैसे घेर लिया है? गौओंके इस हर्षसे यह सूचित होता है कि इस रथपर दूसरा कोई नहीं, साक्षात् व्रजराजनन्दन ही आ रहे हैं; क्योंकि हमारे दाहिने अङ्ग भी फड़क रहे हैं और नीलकण्ठ पक्षी हमारे ऊपर उठकर बंदनवारका-सा विस्तार करते हैं॥१०-११ ॥(Mathurakhand Chapter 16 to 20)

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! मन-ही-मन ऐसा विचार करके वे सब गोप वहाँ आ गये। आनेपर उन लोगोंने अपने मित्र माधवको उसी प्रकार देखा, जैसे साधारण जन अपनी खोयी हुई वस्तुके मिल जानेपर उसे देखते हैं। उनपर दृष्टि पड़ते ही साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण रथसे कूद पड़े और उन सबको आगे करके, प्रेमविह्वल हो अपनी दोनों भुजाओंसे भेंटने लगे। नेत्र कमलोंसे अश्रुधारा बहाते हुए उन्होंने पृथक् पृथक् सबको हृदयसे लगाया। अहो! इस भूतलपर भक्तिके माहात्म्यका वर्णन कौन कर सकता है! मिथिलेश्वर! वे सब गोप नेत्रोंसे आँसू बहाते हुए फूट-फूटकर रोने लगे। श्रीकृष्णके वियोगसे वे इतने विह्वल हो गये थे कि मिल जानेपर भी सहसा उनसे कुछ कहनेमें समर्थ न हो सके। तब साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीहरिने उन प्रेमानन्दसे विह्वल सखाओंको मधुर वाणीसे आश्वासन दिया। श्रीकृष्णने ग्वाल-बालोंके साथ उद्धवको अपने आनेका समाचार देनेके लिये भेजा। उद्धवने नन्द-नगरमें जाकर बताया कि ‘श्रीकृष्ण पधारे हैं’ ॥ १२-१७॥

गोपवल्लभ नन्दनन्दन श्रीकृष्ण का आगमन सुन- कर समस्त गोप परिपूर्णमनोरथ होकर उन्हें लिवा लानेके लिये निकले। भेरी, मृदङ्ग, पटह आदि बाजे मधुरस्वरमें बजने लगे। भरे हुए कलश लिये ब्राह्मण- लोग वेदमन्त्रोंका उच्चारण करने लगे। लाजा (खील) आदि माङ्गलिक वस्तुओंसे मिश्रित गन्ध और अक्षत साथ ले यशोदाके साथ श्रीनन्दराज अगवानीके लिये गये। तत्पश्चात् सिन्दूर-रञ्जित सूँडमें सोनेकी साँकल धारण किये मदोन्मत्त हाथीको आगे रखकर भानुतुल्य तेजस्वी श्रीवृषभानुवर अपनी रानी कलावतीके साथ वहाँ आये। नन्द, उपनन्द, वृषभानु, बूढ़े, जवान और बालक गोप पूर्णमनोरथ हो, फूलोंके हार, बाँसुरी, गुञ्जा और मोरपंख लिये नगरसे बाहर निकले। नरेश्वर ! गोप-बालक श्रीकृष्णके दर्शनकी बड़ी भारी लालसा लिये, हाथोंमें वंशी, बेंत और विषाण (सींग) धारण किये, बड़े हर्षके साथ नन्दनन्दनके गुण गाते और पीले वस्त्र हिला हिलाकर नाचते थे ॥ १८-२२॥

सखियोंके मुखसे श्रीहरिके शुभागमनका शुभ संवाद सुनकर श्रीराधा शयनसे उठ खड़ी हुई और महान् हर्षसे युक्त हो उन्होंने उन सबको अपने भूषण उसी प्रकार लुटा दिये, जैसे प्रसन्न हुई नूतन पद्मिनी अपनी सुगन्ध लुटाया करती है। मिथिलेश्वर ! गोपाङ्गनाओंके आठ, सोलह, बत्तीस और दो यूथोंके साथ श्रीराधा मनोहर शिविकापर आरूढ़ हो श्रीधरके दर्शनके लिये आयीं। नृपेश्वर। इसी प्रकार करोड़ों गोपियाँ अपने घरका सारा काम-काज छोड़कर, उलटे-सीधे वस्त्र और आभूषण धारण किये वहाँ आर्यों। प्रेमके कारण वे मनके समान तीव्र गतिसे चल रही थीं। ऐसा लगता था कि वृक्ष, गौ, मृग और पक्षियोंसहित सारा व्रजमण्डल श्रीकृष्णको आया हुआ देख प्रेमसे आतुर हो उठा है।॥ २३-२५॥

श्रीकृष्णने मस्तकपर अञ्जलि बाँधे पिता श्रीनन्द- राजको और मैया यशोदाको प्रणाम किया। बहुत दिनोंके बाद आये हुए अपने पुत्रको दोनों भुजाओंमें भरकर और हृदयसे लगाकर श्रीनन्दराजने अपने नेत्र जलसे उनको नहला दिया। यशोदासहित श्रीनन्दका मनोरथ आज चिरकालके बाद पूर्ण हुआ था। नन्द, उपनन्द और वृषभानु आदि सम्पूर्ण बड़े-बूढ़े गोपोंको प्रणाम करके, उनके आशीर्वाद ले श्रीकृष्ण समवयस्क मित्रोंसे परस्पर गले मिले और अपनेसे छोटे सखाओं- का हाथ पकड़कर उनके साथ बैठे ॥ २६-२८ ॥(Mathurakhand Chapter 16 to 20)

तदनन्तर श्रीहरि यशोदासहित नन्दको हाथीपर चढ़ाकर स्वयं रथपर बैठे और नन्द-उपनन्द तथा गो- समुदायके साथ श्रीनन्दराजके नगरमें प्रविष्ट हुए। उसी समय देवताओंने उनपर फूलोंकी वर्षा की और पुरवासिनी गोपाङ्गनाओंने आचार-प्राप्त लावा (खील) बिखेरे। श्रीहरिके घर पधारनेपर गोपोंने वहाँ ‘जय हो, जय हो’- ऐसे माङ्गलिक शब्दका बारंबार उच्चारण किया। उस समय आर्त हुए गोपगण गद्गद वाणीमें कहने लगे- ‘लाला! तुम्हारा यह सखा उद्धव परम धन्य है; क्योंकि इसने गोपजनोंके जीवनभूत साक्षात् तुम्हारा दर्शन करा दिया’ ॥ २९-३१ ॥

नृपेश्वर! इस प्रकार मैंने श्रीहरिके व्रजमें पुनरागमनका वृत्तान्त तुमसे कह सुनाया, अब और क्या सुनना चाहते हो? श्रीहरिका यह विचित्र चरित्र देवताओं और असुरोंके लिये भी परम कल्याणप्रद है॥ ३२ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीमथुराखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवादमें ‘श्रीकृष्णका व्रजमें आगमनोत्सव’ नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १९ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमहाभारतम् आदिपर्व प्रथमोऽध्यायः

बीसवाँ अध्याय

श्रीकृष्णका कदली-वनमें श्रीराधा और गोपियोंके साथ मिलन; रासोत्सव तथा उसी प्रसङ्गमें रोहिताचलपर महामुनि ऋभुका मोक्ष

बहुलाश्वने पूछा- मुने ! साक्षात् भगवान्ने व्रजमण्डलमें पधारकर आगे कौन-सा कार्य किया? श्रीराधा तथा गोपाङ्गनाओंको किस प्रकार दर्शन दिया ! गोपियोंके मनोरथ पूर्ण करके वे पुनः मथुरामें कैसे आये ? विप्रेन्द्र ! आप परापरवेत्ताओंमें सर्वश्रेष्ठ हैं, अतः ये सब बातें मुझे बताइये ? ॥१-२ ॥

श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! संध्याकालमें श्रीराधाका बुलावा पाकर स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण सदा- शीतल कदली-वनके एकान्त प्रदेशमें गये। वहाँ, जिसमें फुहारे चलते थे, ऐसा मेघमहल था, रम्भाद्वारा चन्दन छिड़का जाता था, यमुनाजीको छूकर प्रवाहित होनेवाली मन्द वायु ठंडे जलके कण बिखेरती थी और सुधाकर चन्द्रमाकी रश्मियोंसे निरन्तर अमृत झरता रहता था। ऐसा शीतल कदली-वन भी श्रीराधाके विरहानलकी आँचसे भस्मीभूत हो गया था। श्रीकृष्णसे मिलनकी आशा ही श्रीराधाकी निरन्तर रक्षा कर रही थी। वहीं गोपियोंके सारे-के-सारे यूथ आ जुटे, जो सैकड़ोंकी संख्यामें थे। उन्होंने श्रीराधासे निवेदन किया कि ‘माधव पधारे हैं।’ यह सुनकर साक्षात् वृषभानुवरकी पुत्री श्रीराधा सहसा उठीं और सखियोंसे घिरी हुई वे श्रीकृष्णको लिवा लानेके लिये आयीं। उन्होंने श्रीहरिको आसन दिया। पाद्य, अर्घ्य और आचमन आदि मनोहर उपचार प्रस्तुत किये। साथ ही कुशल पूछनेमें अत्यन्त चतुर श्रीराधा श्रीहरिसे आदरपूर्वक कुशल भी पूछती जा रही थीं। कोटि-कोटि तरुण कंदर्पोके माधुर्यको हर लेनेवाले श्रीहरिका दर्शन करके राधाने सम्पूर्ण दुःखको उसी प्रकार त्याग दिया, जैसे ब्रह्मका बोध प्राप्त होनेपर ज्ञानी गुणोंके प्रति तादात्म्यका भाव छोड़ देता है। कीर्तिकुमारीने प्रसत्र होकर शृङ्गार धारण किया। श्रीकृष्ण जब परदेशके पथिक होकर गये थे, तबसे उन्होंने अपने शरीरपर शृङ्गार धारण नहीं किया था। न कभी चन्दन लगाया, न पान खाया, न सुधासदृश स्वादिष्ट भोजन ही ग्रहण किया। न दिव्य सेजकी रचना की और न कभी किसीके साथ हास- परिहास ही किया। परिपूर्णतम भगवान्‌की प्रियतमा आनन्दके आँसू बहाती हुई अपने परिपूर्णतम प्रियतम श्रीकृष्णसे गद्गद वाणीमें बोलीं ॥ ३-१२॥(Mathurakhand Chapter 16 to 20)

श्रीराधाने कहा- प्यारे ! यादवपुरी मथुरा कितनी दूर है, जो अबतक नहीं आये? वहाँ तुम क्या करते रहे? मैं अपने एकान्त दुःखको कैसे बताऊँ? तुम तो सबके साक्षी हो, अतः सब जानते हो। राजा सौदासकी रानी मदयन्ती, नलकी प्यारी रानी दमयन्ती तथा मिथिलेशनन्दिनी सीता- इन तीनोंमेंसे कोई यहाँ नहीं है। फिर किसको सामने रखकर इस वैरी विरहके दुःखका मैं वर्णन करूँ? ये गोपाङ्गनाएँ भी मेरी-जैसी परिस्थितिमें ही हैं, अतः वे भी कभी इस दुःखका निरूपण करनेमें समर्थ नहीं हैं। जैसे चकोरी शरत्कालके चन्द्रमाको और मयूरी नूतन मेघको देखना चाहती है, उसी प्रकार मैं तुम श्रीवृन्दावनचन्द्र तथा घनश्यामको देखनेके लिये उत्कण्ठित रहती हूँ। तुम्हारे सखा उद्धव धन्य हैं, जिन्होंने शीघ्र ही तुम्हारा दर्शन करा दिया। इस व्रजमें दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जिसके प्रेमसे तुम यहाँ आते ॥ १३-१६ ॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार कहती
और निरन्तर रोती हुई श्रेष्ठ लक्ष्मीरूपा श्रीराधाको देखकर श्यामसुन्दरका अङ्ग अङ्ग करुणासे विह्वल हो गया। उनके नेत्रोंसे भी अश्रु झरने लगे। उन्होंने तत्काल दोनों हाथोंसे खींचकर प्रियतमाको हृदयसे लगा लिया और नीतियुक्त वचनोंसे उन्हें धीरज बँधाया ॥ १७ ॥

श्रीभगवान् बोले- राधे! शोक न करो, मैं तुम्हारे प्रेमसे ही यहाँ आया हूँ। हम दोनोंका तेज भेदरहित एवं एक है। लोगोंने इसे दो मान रखा है। शुभे! जैसे दूध और उसकी धवलता एक है, उसी प्रकार सदा हम दोनों एक हैं। जहाँ मैं हूँ, वहाँ तुम सदा विराजमान हो। हम दोनोंका वियोग कभी होता ही नहीं। मैं पूर्ण परब्रह्म हूँ और तुम जगन्माता तटस्था शक्ति हो। हम दोनोंके बीचमें वियोगकी कल्पना मिथ्या ज्ञानके कारण है, तुम इसे समझो। वरानने ! जैसे आकाशमें नित्य विराजमान महान् वायु सर्वत्र व्यापक है, जैसे जल सूक्ष्मरूपसे सर्वत्र व्याप्त है, जैसे काष्ठमें अग्नि व्याप्त रहती है और जैसे भीतर और बाहर स्थित यह पृथग्भूता पृथ्वी परमाणुरूपसे सर्वत्र व्याप्त है, उसी प्रकार मैं निर्विकारभावसे सर्वत्र विद्यमान हूँ। जैसे जल विविध रंगोंसे युक्त होनेपर भी उनसे पृथक् है, उसी प्रकार मैं त्रिगुणात्मक भावोंके सम्पर्कमें रहकर भी उनसे सर्वथा असम्पृक्त हूँ। इसी प्रकार तुम मेरे स्वरूपको देखो और समझो; इससे सदा आनन्द बना रहेगा। सुमुखि ! ‘मैं’ और ‘मेरा’ इन दो भावोंके कारण द्वैतकी कल्पना होती है। जबतक सूर्यसे ही उत्पन्न हुआ मेघ सूर्य और दृष्टिके बीचमें विद्यमान है, तबतक दृष्टि अपने ही स्वरूपभूत सूर्यका दर्शन नहीं कर पाती। इसी प्रकार जबतक प्राकृत गुण व्यवधान बनकर खड़े हैं, तबतक जीवात्मा अपने ही स्वरूपभूत परमात्माको नहीं देख पाता। इन तीनों गुणोंका आवरण दूर होनेपर ही वह परमात्माका साक्षात्कार कर पाता है। यदि मन गुणों (विषयों) में आसक्त है तो वह बन्धनकारक होता है, और यदि परम पुरुष परमात्मामें संलग्न है तो मोक्षकी प्राप्ति करानेवाला हो जाता है। इस प्रकार मनको बन्धन और मोक्ष दोनोंका कारण बताया गया है। उस मनको जीतकर पृथ्वीपर असङ्ग होकर विचरे। भामिनि ! लोकमें मनका सम्पूर्णभाव (सम्बन्ध) दोनों ओरसे परस्परकी अपेक्षा रखकर होता है, एक ओरसे नहीं होता। किंतु प्रेम स्वयं ही किया जाता है, अतः मुझमें अपनी ओरसे ही प्रेम करना चाहिये। प्रेमके समान इस भूतलपर दूसरा कोई भी मेरी प्राप्तिका साधन नहीं है॥ १८-२६ ॥(Mathurakhand Chapter 16 to 20)

नारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीहरिका यह वचन सुनकर कीर्तिनन्दिनी श्रीराधाने गोपियोंके साथ उन माधव श्रीकृष्णका पूजन किया। तदनन्तर कार्तिक पूर्णिमाकी रातमें गोपियों और श्रीराधिकाके साथ रासमण्डलमें उपस्थित हो साक्षात् श्रीहरिने मुरली बजायी। राजन् ! यमुनाके निकट रासकी रङ्गभूमिमें श्रीराधा तथा अन्य सुन्दरी व्रजरमणियोंके साथ राधावल्लभ श्रीकृष्ण शोभा पाने लगे। रासमें जितनी गोपाङ्गनाएँ थीं, उतने ही रूप धारण करके वृन्दावन- अधीश्वर श्रीहरि दिव्य वृन्दावनमें विहार करने लगे। उनके चरणोंके नूपुर और मञ्जीर बज रहे थे। वनमाला उनकी शोभा बढ़ा रही थी। पीताम्बर पहिने, एक हाथमें कमल लिये, प्रातः कालिक सूर्यके समान कान्तिमान् मुकुट धारण किये, विद्युल्लताके तुल्य जगमगाते हुए सुवर्णमय कुण्डलोंसे मण्डित हो, बेंतकी छड़ी लिये, वंशी बजाते हुए, मेघकी-सी कान्तिवाले श्रीहरि नटवर-वेषमें सुशोभित हुए। अत्यन्त प्रकाशमान कौस्तुभरत्न उनके वक्षःस्थलपर दिव्य प्रभा बिखेर रहा था। कानोंमें चिकने और चमकीले कुण्डल हिल रहे थे। रासमण्डलमें श्रीराधाके साथ वे उसी प्रकार सुशोभित हुए, जैसे रतिके साथ रतिपति। जैसे स्वर्गमें शचीके साथ इन्द्र तथा आकाशमें चपलाके साथ मेघ शोभा पाते हैं, वृन्दावनमें वृन्दाके साथ वृन्दावनेश्वरकी वैसी ही शोभा हो रही थी। वे वृन्दावन, यमुना-पुलिन, वन और उपवनकी शोभा निहारते हुए गोपी-समुदायके साथ गोवर्धन पर्वतपर गये। भगवान् व्रजेश्वरने देखा सौ यूथवाली गोपाङ्गनाओं को अपने सौभाग्यपर अभिमान हो उठा है, तब वे श्रीराधाके साथ वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ २७-३६ ॥

अब वे गोवर्धनसे तीन योजन दूर चन्दनकी गन्धसे सुवासित सुन्दर रोहिताचलको चले गये। श्रीराधाके साथ वहाँके लता-कुञ्जओं और निकुञ्जओंको देखते तथा वार्तालाप करते हुए सुनहरी लताओंके आश्रयभूत उस पर्वतपर विचरने लगे। वहाँ बदरीनाथके द्वारा निर्मित रमणीय देवसरोवर है, जो बड़े-बड़े मत्स्यों, कछुओं और मगर आदि जल-जन्तुओं तथा हंस-सारस आदि पक्षियोंसे व्याप्त था। सहस्त्रदल कमल उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। इधर-उधर मँड़ाते हुए भ्रमरोंकी मधुर ध्वनिसे युक्त नर-कोकिलोंकी काकली वहाँ सब ओर व्याप्त थी। उसके तटपर मन्द-मन्द वायु चल रही थी और प्रफुल्ल कमलोंकी सुगन्ध छायी हुई थी। रमास्वरूपा राधाके साथ माधव उस सरोवरके किनारे बैठ गये। उसी सरोवरके कूलपर महामुनि ऋभु एक पैरसे खड़े होकर तपस्या कर रहे थे और निरन्तर श्रीकृष्णके चिन्तनमें तत्पर थे। साठ हजार साठ सौ वर्षोंसे वे निराहार और निर्जल रहकर शान्तभावसे तपस्यामें लगे थे। श्रीकृष्णने उन्हें देखा। राधाने उन्हें देखकर मुस्कराते हुए पूछा- ‘ये कौन हैं?’ माधव बोले- ‘प्रिये! इनका माहात्म्य बढ़ाओ। ये भक्त हैं।इन महामुनिकी भक्ति देखो।’ कहकर श्रीकृष्णने ‘हे ऋभो!’ यह नाम लेकर उच्चस्वरसे पुकारा। किंतु उन्होंने उनका वह शुभ वचन नहीं सुना; क्योंकि वे ध्यानकी चरमावस्था (समाधि) में पहुँच गये थे। तब श्रीहरि उस समय मुनिके हृदयसे तत्काल तिरोहित हो गये। श्रीहरिको ध्यानसे निर्गत होनेके कारण न देखकर मुनीन्द्र ऋभु अत्यन्त विस्मित हो गये। फिर तो उन्होंने आँखें खोल दीं और अपने सामने चपलाके साथ मेघकी भाँति राधाके साथ श्रीकृष्णको देखा, जो अपनी प्रभावसे दसों दिशाओंको अनुरञ्जित- प्रकाशित कर रहे थे। यह देख वे हरिभक्तिपरायण महात्मा शीघ्र उठे और राधासहित श्रीहरिकी परिक्रमा करके, मस्तक झुकाकर प्रणाम करते हुए उनके चरणोंमें गिर पड़े। फिर अत्यन्त गद्गद वाणीमें श्रीकृष्णसे बोले ॥ ३७-४८ ॥

श्रीऋभुने कहा- श्रीकृष्ण और कृष्णाको नमस्कार। श्रीराधा और माधवको नमस्कार। परिपूर्णतमा और परिपूर्णतमको नमस्कार। देव घनश्याम और श्यामाको सदा नमस्कार है। रासेश्वर तथा रासेश्वरीको नित्य- निरन्तर बारंबार नमस्कार है। गोलोकातीत लीलावाले श्रीकृष्णको तथा लीलावती श्रीराधाको बारंबार नमस्कार है। असंख्य ब्रह्माण्डोंकी अधिदेवी तथा असंख्य ब्रह्माण्डोंकी निधिको नमस्कार है। आप दोनों भूभार-हरण करनेके लिये इस भूतलपर अवतीर्ण हुए हैं और मुझे शान्ति प्रदान करनेके लिये यहाँ पधारे हैं। परस्पर संयुक्त विग्रहवाले आप दोनों श्रीराधा और श्रीहरिको मेरा नमस्कार है* ॥ ४९-५२॥(Mathurakhand Chapter 16 to 20)

नारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर श्रीकृष्णके चरणारविन्दों में नेत्रोंसे प्रेमाश्रुकी वर्षा करते हुए प्रेमानन्दनिमग्न महामुनि ऋभुने अपने प्राण त्याग दिये। उसी समय उनके शरीरसे दस सूर्योके समान दीप्तिमती ज्योति निकली और दसों दिशाओंमें घूमती हुई श्रीकृष्णमें लीन हो गयी। अपने भक्तकी यह प्रेमलक्षणा-भक्ति देखकर श्रीकृष्णने अपने नेत्रोंसे आनन्दके अश्रु बहाते हुए बड़े प्रेमसे उनका नाम लेकर पुकारा। तब श्रीकृष्णका-सा रूप धारण किये वे मुनि श्रीकृष्णके चरण-कमलसे पुनः प्रकट हुए। उस समय उनका सौन्दर्य कोटि-कोटि कंदर्पोको तिरस्कृत कर रहा था और वे विनयसे सिर झुकाये हुए खड़े थे। करुणा निधि श्रीकृष्णने उन्हें भुजाओंमें भरकर हृदयसे लगा लिया और आश्वासन दे, अपना दिव्य कल्याणकारी हाथ उनके मस्तकपर रखा। मिथिलेश्वर। तत्पश्चात् श्रीकृष्ण और श्रीराधाकी परिक्रमा करके, उन्हें प्रणाम- कर, मुनिवर ऋभु एक मनोहर विमानपर आरूढ़ हो, अपने तेजसे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशित करते हुए, गोलोकधामको चले गये। महामुनि ऋभुकी यह परा मुक्ति देखकर वृषभानुनन्दिनी श्रीराधिकाको बड़ा विस्मय हुआ। वे बहुत देरतक आनन्दके आँसू बहाती रहीं। फिर श्रीकृष्णसे बोलीं ॥ ५३-५९॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीमथुराखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें रासोत्सवके प्रसङ्गमें ‘ऋभुका मोक्ष’ नामक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २० ॥

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