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Garga Samhita Mathurakhand Chapter 21 to 25

Garga Samhita
Garga Samhita Mathurakhand Chapter 21 to 25

॥ श्रीहरिः ॥

ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते

श्रीगणेशाय नमः

Garga Samhita Mathurakhand Chapter 21 to 25
श्री गर्ग संहिता के श्रीमथुराखण्ड अध्याय 21 से 25 तक

श्री गर्ग संहिता के श्रीमथुराखण्ड (Mathurakhand Chapter 21 to 25) इक्कीसवाँ अध्याय में श्रीकृष्ण की द्रवरूप ताकि प्रसंग में नारदजी का उपाख्यान दिया गया है। बाईसवाँ अध्याय में नारद का अनेक लोकों में होते हुए गोलोक में पहुँचकर भगवान श्रीकृष्ण के समक्ष अपनी कलाका प्रदर्शन करना तथा श्रीकृष्ण का द्रवरूप होने का वर्णन है। तेईसवाँ अध्याय में श्रीकृष्ण के ब्रज से लौटकर मथुरा में आगमन का वर्णन कहा गया है। चौबीसवाँ अध्याय में बलदेवजी के द्वारा कोल दैत्यका वध; उनकी गङ्गातटवर्ती तीर्थों में यात्रा; माण्डूकदेव को वरदान और भावी वृत्तान्त की सूचना देना; फिर गङ्गा के अन्यान्य तीर्थों में स्त्रान-दान करके मथुरा में लौट जाना और पच्चीसवाँ अध्याय में मथुरापुर का माहात्म्य एवं मथुराखण्ड का उपसंहार दिया गया है।

यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक

इक्कीसवाँ अध्याय

श्रीकृष्ण की द्रवरूप ताकि प्रसंग में नारदजी का उपाख्यान

राधाने कहा- माधव ! ये मुनिश्रेष्ठ धन्य हैं, जो तुम्हारे इतने बड़े भक्त और महान् प्रेमी थे। इन्होंने तुम्हारा सारूप्य प्राप्त कर लिया और तुम भी इनके लिये आँसू बहाते रहे। पापनाशन। अब तुम्हें इनके शरीरका दाहसंस्कार भी करना चाहिये। इनका यह शरीर तपस्याके प्रभावसे अभीतक निर्मल आकारमें प्रकाशित हो रहा है॥१-२॥

नारदजी कहते हैं- राजन्। वहाँ श्रीराधा इस प्रकार कह ही रही थीं कि मुनिका शरीर एक नदीके रूपमें परिणत हो गया। रोहिताचलपर बहती हुई वह पापनाशिनी नदी आज भी देखी जाती है। उनके शरीरको नदीके रूपमें परिणत देख राधाको और भी अधिक विस्मय हुआ। तब वे वृषभानुवरनन्दिनी नन्दराजकुमारसे इस प्रकार बोलीं ॥ ३-४ ॥
राधाने कहा- श्यामसुन्दर। इन महामुनिका यह शरीर जलरूपमें कैसे परिणत हो गया? देव! मेरे इस संशयको तुम पूर्णरूपसे मिटा दो ॥ ५॥

श्रीभगवान ने कहा- रम्भोरु ! ये मुनीश्वर प्रेम-लक्षणा-भक्तिसे संयुक्त थे, इसीलिये इनका यह शरीर द्रवभावको प्राप्त हुआ है। तुम्हारे साथ मुझे वर देनेके लिये आया देख महामुनि ऋभु अत्यन्त हर्षित हुए थे, इसीलिये इनका कलेवर उसी प्रकार जलरूपमें परिणत हो गया, जैसे मैं पहले द्रवभावको प्राप्त हुआ था ॥ ६-७ ॥

श्रीराधाने पूछा- देवदेव! दयानिधे! तुम कैसे द्रवभावको प्राप्त हुए थे। यह बात मुझे बड़ी विचित्र लग रही है, तुम विस्तारसे सब बात बताओ ॥ ८ ॥(Mathurakhand Chapter 21 to 25)

श्रीभगवान्ने कहा- इस विषयमें जानकार लोग इस प्राचीन इतिहासको सुनाया करते हैं, जिसके श्रवणमात्रसे पापोंका पूर्णतया नाश हो जाता है॥९॥

पूर्वकालमें प्रजापति ब्रह्मा मेरे नाभि-कमलसे प्रकट हो प्राकृत जगत्‌की सृष्टि करने लगे। वे अपनी तपस्या और मेरे वरदानसे शक्तिशाली रहे। एक समय सृष्टिकर्ता ब्रह्माकी गोदसे सुन्दर पुत्र नारदजीका जन्म हुआ। वे मेरी भक्तिसे उन्मत्त होकर भूमण्डलपर भ्रमण करते हुए मेरे नाम-पदोंका कीर्तन करने लगे। एक दिन प्रजापति ब्रह्मदेवने नारदजीसे कहा-‘महामते! यह व्यर्थ घूमना छोड़ो और प्रजाकी सृष्टि करो।’ उनकी बात सुनकर ज्ञानमार्गपरायण नारदने इस प्रकार कहा- ‘पिताजी! मैं सृष्टि नहीं करूंगा; क्योंकि वह शोक-मोह पैदा करनेवाली है। मैं तो श्रीहरिके नामोंका कीर्तन और उनकी भक्ति करूँगा। आप भी इस सृष्टि व्यापारमें लगकर दुःखसे अत्यन्त आतुर रहते हैं, अतः आप भी सृष्टि-रचना छोड़ दीजिये ‘ ॥ १०-१४॥

यह सुनकर ब्रह्माजीके अधर क्रोधसे फड़कने लगे। उन्होंने कुपित हो शाप देते हुए कहा- ‘दुर्मते ! तुम एक कल्पतक सदा गाने-बजानेमें ही लगे रहने- वाले गन्धर्व हो जाओ।’ श्रीराधे! इस प्रकार ब्रह्माके शापसे नारदजी उपबर्हण नामक गन्धर्व हो गये। वे एक कल्पतक देवलोकमें गन्धर्वराजके पदपर प्रतिष्ठित रहे। एक दिन स्त्रियोंसे घिरे हुए वे ब्रह्माजीके लोकमें गये। वहाँ सुन्दरियोंमें मन लगा रहनेके कारण उन्होंने बेताला गीत गाया। तब ब्रह्माने पुनः शाप दे दिया ‘दुर्मते! तू शूद्र हो जा।’ इस प्रकार ब्रह्माजीके शापसे वे दासीपुत्र हो गये। राधे! फिर सत्सङ्गके प्रभावसे नारदजी ब्रह्मपुत्रताको प्राप्त हुए। तदनन्तर पुनः भक्तिभावसे उन्मत्त हो भूतलपर विचरते हुए वे मेरे पदोंका गान एवं कीर्तन करने लगे। मुनीन्द्र नारद वैष्णवोंमें श्रेष्ठ, मेरे प्रिय तथा ज्ञानके सूर्य हैं। वे परम भागवत हैं और सदा मुझमें ही मन लगाये रहते हैं॥ १५-२० ॥(Mathurakhand Chapter 21 to 25)

एक दिन विभिन्न लोकोंका दर्शन करते हुए गान- तत्पर नारद, जिनकी सर्वत्र गति है, इलावृतखण्डमें गये, जहाँ प्रिये! जम्बूफलके रससे प्रकट हुई श्यामवर्णा जम्बूनदी प्रवाहित होती है तथा जाम्बूनद नामक सुवर्ण उत्पन्न होता है। उस देशमें रत्नमय प्रासादोंसे युक्त तथा दिव्य नर-नारियोंसे भरा हुआ एक ‘वेदनगर’ नामक नगर है, जिसे योगी नारदने देखा। वहाँ कितने ही लोगोंके पैर नहीं थे, गुल्फ नहीं थे और घुटने भी नहीं थे। जङ्घा अथवा जघनभागका भी कितने ही लोगोंके पास अभाव था। वे विकलाङ्ग और कृशोदर थे और कितनोंके पीठके मध्यभागमें कूबर निकल आयी थी, दाँत गिर गये थे या ढीले हो गये थे, कंधे ऊँचे थे, मुख झुका हुआ था और कितनोंके गर्दन ही नहीं थी। इस प्रकार नारदजीने वहाँकी स्त्रियों और पुरुषोंका अङ्ग-भङ्ग देखा। उन सबको देखकर मुनिने कहा- ‘अहो! यह क्या बात है? यह सब तो विचित्र ही दिखायी देता है। आप सब लोगोंके मुँह कमलके समान हैं, शरीर दिव्य हैं और वस्त्र भी अच्छे हैं। आपलोग देवता हैं या उपदेवता अथवा कोई ऋषिश्रेष्ठ हैं। आप सब लोग बाजोंके साथ हैं तथा रमणीय गीत गानेमें संलग्न हैं। आपके अङ्ग-भङ्ग कैसे हो गये, यह बात शीघ्र मुझे बताइये।’ उनके इस प्रकार पूछनेपर वे सब दीनचित्त होकर बोले ॥ २१-२८ ॥

रागोंने कहा- मुने ! हमारे शरीरमें स्वतः बड़ा भारी दुःख पैदा हो गया है। परंतु यह सब उसके आगे कहना चाहिये, जो उसे दूर कर सके। महर्षे! हमलोग राग हैं और वेदपुरमें निवास करते हैं। मानद! हम अङ्ग-भङ्ग कैसे हो गये, इसका कारण बताते हैं, सुनिये; हिरण्यगर्भ ब्रह्माजीके एक पुत्र पैदा हुआ है, जिसका नाम है, नारद। वह महामुनि प्रेमसे उन्मत्त होकर बेसमय ध्रुवपद गाता हुआ इस पृथ्वीपर विचरा करता है। उसके ताल-स्वरसे रहित असामयिक गानों-विगानोंसे हम सबके अङ्ग-भङ्ग हो गये हैं॥ २९-३२॥

उनकी यह बात सुनकर नारदजीको बड़ा विस्मय हुआ। उनका गर्व गल गया और वे रागोंसे हँसते हुए-से बोले ॥ ३३ ॥

मुनिने कहा- रागगण! मुझे शीघ्र बताओ। नारदमुनिको किस प्रकारसे काल और तालका ज्ञान हो सकता है, जिससे वे स्वरयुक्त गीत गा सकें ॥ ३४ ॥

रागोंने कहा- साक्षात् वैकुण्ठनाथकी प्रिय भार्याओंमें मुख्य सरस्वती देवी यदि नारदको संगीतकी शिक्षा दे सकें तो वे मुनि कौन-सा राग किस समय, किस तालस्वरसे गाना चाहिये, इसे जान सकते हैं ॥ ३५ ॥

उनकी यह बात सुनकर दीनवत्सल नारद सरस्वतीका कृपा-प्रसाद प्राप्त करनेके लिये तुरंत ही शुभ्रगिरिपर चले गये। वहाँ उन्होंने सौ दिव्य वर्षोंतक निरन्तर अत्यन्त दुष्कर तपस्या की। व्रजेश्वरि! उन्होंने अन्न-जल छोड़कर केवल सरस्वतीके ध्यानमें मन लगा लिया था। नारदजीकी तपस्यासे वह पर्वत अपना ‘शुभ्र’ नाम छोड़कर ‘नारदगिरि’ के नामसे प्रख्यात हो गया। वह सारा पर्वत उनकी तपस्यासे पवित्र हो गया। तपस्याका पर्यवसान होनेपर साक्षात् वाग्देवता विष्णुप्रिया श्रीसरस्वती वहाँ आयीं। नारदजीने उन दिव्यवर्णा देवीको देखा। देखकर वे सहसा उठ खड़े हुए और उन्हें नमस्कार करके परिक्रमापूर्वक नतमस्तक हो, वे मुनीश्वर सरस्वती देवीके रूप, गुण और माधुर्यकी स्तुति करने लगे ॥ ३६-४० ॥

नारदजी बोले- नवीन सूर्यके बिम्बकी द्युतिको उगलने और हिलनेवाले रत्नमय कर्णफूल, केयूर, किरीट और कङ्कण जिनकी शोभा बढ़ाते हैं तथा जो चमकते और झनकारते हुए नूपुरोंके शिञ्जन-रवसे रञ्जित होती हैं, उन कोटि चन्द्रमाओंसे अधिक उज्ज्वल मुखवाली सरस्वती देवीको मैं नमस्कार करता हूँ। जो चञ्चल चरण और चझुपुटवाले उड़ते हुए कलहंसपर विराजमान होती तथा निर्मल मुक्ताफलोंके अनेक हार धारण करती हैं, उन सौभाग्यशालिनी सरस्वती देवीको मैं प्रणाम करता हूँ। जो अपने दोनों पाश्र्श्वक दो-दो निर्मल हाथोंमें क्रमशः वर, अभय, पुस्तक और उत्तम वीणा धारण करती हैं, उन जगन्मयी, ब्रह्ममयी, शुभदा एवं मनोहरा सरस्वती देवीको मैं नमस्कार करता हूँ। श्वेतवर्णकी लहरदार रेशमी साड़ी पहननेवाली अतीव मङ्गलस्वरूपे सरस्वति। मुझे स्वर- तालका ज्ञान प्रदान कीजिये, जिससे मैं अविनाशी एवं सर्वोत्कृष्ट रासमण्डलमें सर्वोपरि और अद्वितीय संगीतज्ञ हो जाऊँ ॥ ४१-४४ ॥(Mathurakhand Chapter 21 to 25)

श्रीभगवान् कहते हैं- श्रीराधे! सरस्वतीका यह नारदोक्त दिव्य स्तोत्र जडताका नाश करनेवाला है। जो प्रातःकाल उठकर इसका पाठ करेगा, वह इस लोकमें विद्यावान् होगा। तब प्रसन्न हुई वाग्देवताने महात्मा नारदको भगवत्प्रदत्त स्वरब्रह्मसे विभूषित एक वीणा प्रदान की। साथ ही राग-रागिनी, उनके पुत्र, देशकालादिकृत भेद तथा ताल, लय और स्वरोंका ज्ञान भी दिया। ग्रामोंके छप्पन कोटि भेद और असंख्य अवान्तर-भेद, नृत्य, वादित्र तथा सुन्दर मूच्र्छना इन सबका ज्ञान नारदजीको प्राप्त हुआ। वैकुण्ठपतिकी प्रियाओंमें मुख्य सरस्वती देवीने स्वरगम्य सिद्धपदोंद्वारा नारदजीको संगीतकी शिक्षा दी। राधे! नारदको रासमण्डलके उपयुक्त अद्वितीय रागोद्भावक बनाकर विष्णुवल्लभा वाग्देवी वैकुण्ठधामको चली गयीं ॥ ४५-५०॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीमथुराखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘नारदोपाख्यान’ नामक इकीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२१॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ मीमांसा दर्शन (शास्त्र) हिंदी में

बाईसवाँ अध्याय

नारदका अनेक लोकोंमें होते हुए गोलोकमें पहुँचकर भगवान् श्रीकृष्णके समक्ष अपनी कलाका प्रदर्शन करना तथा श्रीकृष्णका द्रवरूप होना

श्रीभगवान् कहते हैं- श्रीराधे! इस रागरूप मनोहर एवं गुह्य ज्ञानका उपदेश किसको देना चाहिये, इसका बुद्धिपूर्वक विचार करके नारदजी गन्धर्वनगरमें गये। वहाँ तुम्बुरु नामक गन्धर्वको अपना शिष्य बनाकर नारदजी मधुरस्वरसे वीणा बजाते हुए मेरे गुणोंका गान करने लगे। तदनन्तर उनके हृदयमें यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि ‘किन लोगोंके सामने इस मनोहर रागरूप गीतका गान करना चाहिये? इसको सुननेका पात्र कौन है?’ इसकी खोज करते हुए नारद इन्द्रके पास आये। उनको इस विषयका आनन्द लेते न देख मुनिश्रेष्ठ नारद सखा तुम्बुरुके साथ राग- रागिनियोंका निरूपण करनेके लिये सूर्यलोकमें गये। वहाँ सूर्यदेवको रथके द्वारा भागे जाते देख देवर्षि- शिरोमणि महामुनि नारद वहाँसे तत्काल शिवजीके पास चले गये। राधे! ज्ञानतत्त्वज्ञ भूतनाथ शिवके नेत्र ध्यानमें निश्चल हैं, यह देख नारदजी ब्रह्मलोकमें गये। सृष्टिकर्ता ब्रह्माको सृष्टि-रचनामें व्यग्र देख, वे वहाँ भी न ठहर सके; उस स्थानसे विष्णुके सर्वलोकवन्दित वैकुण्ठधाममें चले गये। भक्तोंके स्वामी भक्तवत्सल भगवान् विष्णुको किसी भक्तपर कृपा करनेके लिये कहीं जाते देख योगीन्द्र नारद तुम्बुरुके साथ अन्यत्र चल दिये ॥ १-८॥

वृषभानुनन्दिनि ! योगीश्वर संतोंकी गति त्रिलोकीके भीतर और बाहर भी बतायी गयी है। जो केवल कर्मी हैं, उन्हें वैसी गति नहीं प्राप्त होती। मुनीश्वर नारद करोड़ों ब्रह्माण्ड समूहोंको लाँधकर प्रकृतिसे परे गोलोकधाममें जा पहुँचे। उत्ताल तरंगोंसे सुशोभित विरजा नदीको पार करके वे शीघ्र ही भ्रमरोंकी ध्वनिसे निनादित रमणीय वृन्दावनमें गये, जो सदा वसन्त ऋतुसे युक्त है और जहाँके लताभवन मन्द मारुतके झोंकेसे कम्पायमान रहते हैं। वृन्दावनसे गोवर्धन पर्वतका दर्शन करते हुए नारदजी मेरे निकुञ्जमें आये। निकुञ्जद्वारपर सखियोंने पूछा- आप दोनों कौन हैं? कहाँसे आये हैं और यहाँ क्या कार्य है?’ ऐसा प्रश्न होनेपर मुनि और तुम्बुरु दोनों बोले- ‘सुन्दरियो ! हम दोनों गान-विद्यार्मे कुशल गायक हैं और अपनी वीणाकी मधुर ध्वनि साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् राधावल्लभ श्रीकृष्णको सुनानेके लिये आये हैं। हम वन्दीजनोंमें उत्तम हैं। हमारी यह बात महात्मा श्रीकृष्णसे निवेदित कर देनी चाहिये’॥ ९-१५॥(Mathurakhand Chapter 21 to 25)

यह सुनकर सखियोंने उनका संदेश मेरे पास पहुँचाया और मेरी आज्ञासे लौटकर मधुरवाणीमें उन वन्दियोंको भीतर चलनेका आदेश दिया। करोड़ों सूर्योकी ज्योतिसे व्याप्त मेरे निकुञ्जके आँगनमें, जहाँ सब ओर कौस्तुभमणि जड़ी थी, मनोहर चैवर डुलाये जा रहे थे, हिलते हुए मोतियोंकी झालरोंसे युक्त छत्र तने थे और करोड़ों सखियाँ विराजमान थीं, आकर महापद्ममय आसनपर तुम्हारे साथ बैठे हुए मुझ श्रीकृष्णका उन दोनोंने दर्शन किया। फिर प्रणाम और परिक्रमा करके वे मेरी आज्ञासे वहाँ बैठे और मेरी स्तुति करके मेरे गुणोंका गान करनेके लिये उद्यत हुए। आतोद्य (वाद्य विशेष) को दबाते और देवदत्त स्वरामृतमयी वीणाको झंकृत करते हुए तुम्बुरुसहित नारदने वीणावादनकी अद्वितीय कलाको प्रस्तुत किया। मैं उससे बहुत संतुष्ट हुआ और सिर हिलाता हुआ उस वीणाकी प्रशंसनीय स्वर-लहरीकी सराहना करने लगा। अन्ततोगत्वा प्रेमके वशीभूत हो अपने-आपको देकर मैं जलरूप हो गया। मेरे दिव्य शरीरसे जो जल प्रकट हुआ, उसे ‘ब्रह्मद्रव’ के नामसे लोग जानते हैं। उसके भीतर कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड राशियाँ लुढ़कती रहती हैं। उस उन्नत एवं शुभ जलराशिमें लुढ़कते हुए वे ब्रह्माण्ड इन्द्रायणके फलके समान प्रतीत होते हैं॥ १६-२२ ॥

राधे! यह ब्रह्माण्ड ‘पृश्निगर्भ’ नामसे प्रसिद्ध है, जो मेरे त्रिविक्रम रूपके पदाघातसे फूट गया था। उसका भेदन करके जो साक्षात् ब्रह्मद्रवका जल यहाँ आया, उसे इस शुभ मन्वन्तरमें पूर्ववर्ती लोगोंने पापहारिणी स्वर्धनी ‘गङ्गा’ के नामसे जाना था। उस गङ्गाको द्युलोकमें ‘मन्दाकिनी’, पृथ्वीपर ‘भागीरथी’ और अधोलोक-पातालमें ‘भोगवती’ कहा गया है। इस प्रकार एक ही गङ्गा त्रिपथगामिनी होकर तीन नार्मोसे विख्यात हुईं। इसमें स्नान करनेके लिये प्रणतभावसे जाते हुए मनुष्यके लिये पग-पगपर राजसूय और अश्वमेध यज्ञोंका फल दुर्लभ नहीं रह जाता। जो सैकड़ों योजन दूरसे भी ‘गङ्गा गङ्गा ‘का उच्चारण करता है, वह सब पापोंसे छूट जाता और विष्णुलोकमें जाता है। कलियुगमें गङ्गाका दर्शन करनेसे सौ जन्मोंका, जल पीनेसे दौ सौ जन्मोंका और स्नान करनेसे एक सहस्र जन्मोंका पाप नष्ट कर देती हैं। जो जाह्नवी गङ्गाका दर्शन करते हैं, उनका जन्म सफल है। जो उनके दर्शनसे वञ्चित रह जाते हैं, उनका जन्म व्यर्थ चला गया ॥ २३-२९ ॥

रम्भोरु राधे! जैसे विरजा तुम्हारे भयसे द्रवरूपताको प्राप्त हो गयी, जैसे विरजाके सातों पुत्र सात समुद्रोंके रूपमें द्रवभावको प्राप्त हो गये, जैसे विष्णु ‘कृष्णा’ नदी हुए, जैसे शिवदेव ‘वेणी’ नदी हुए, जैसे ब्रह्मा ‘ककुद्मिनी गङ्गा’ हुए और जैसे अप्सरा ‘गण्डकी’ नदी हो गयी, उसी प्रकार ये ऋभु नामक मुनि भी ब्रह्मभावको प्राप्त हुए हैं। यह ऋभुकी प्रेमलक्षणा-भक्तिसे सम्भव हुआ है, इसमें संशय नहीं है। जो इस पापहारिणी पवित्र कथाका श्रवण करता है, वह मनुष्य सब लोकोंको लाँधकर मेरे गोलोकधाममें चला जाता है॥ ३०-३३॥(Mathurakhand Chapter 21 to 25)

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार अपनी प्रिया श्रीराधासे कहकर श्रीहरि ऋभुके आश्रमसे श्रीराधाके साथ ही मालती-वनमें चले आये। फिर गोपियोंकी विरह-व्यथाको जान भक्त- वत्सल भगवान् श्रीकृष्ण श्रीराधाके साथ यमुनाके मङ्गलमय पुलिनपर चले आये। उस समय समस्त गोपीगणोंका मान और व्यथा-भार दूर हो गया। उन्होंने, जैसे चपलाएँ मेघका आलिङ्गन करती हैं, उसी प्रकार घनश्यामको अपनी भुजाओंमें भर लिया। तब श्रीहरि वृन्दावनमें यमुनाके मनोहर तटपर गोपाङ्गनाओंके साथ मधुरस्वरमें वंशी बजाने लगे। भगवान्के उस मधुर रागसे गोपकन्याएँ मूच्छित हो गयीं, नदियोंका वेग रुक गया, पक्षी अचल हो गये। समस्त देवताओंने मौन धारण कर लिया, देवनायक स्तब्ध हो गये, वृक्षोंसे जल बहने लगा तथा सारा जगत् मानो निद्रामें निमग्न हो गया। रात्रिकालमें रास रचाकर श्रीराधिका और गोपियोंके मनोरथ पूर्ण करके ब्राह्ममुहूर्तमें भगवान् श्रीकृष्ण नन्दभवनको लौट आये। गोपिकाओंके साथ श्रीराधिका भी अपना आनन्दमय मनोरथ प्राप्त करके वृषभानुवरके सुन्दर मन्दिरमें चली गयीं ॥ ३४-४१ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीमधुराखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘नारदोपाख्यान’ नामक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२२॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ सनातन धर्म में कितने शास्त्र-षड्दर्शन हैं।

तेईसवाँ अध्याय

श्रीकृष्ण के ब्रज से लौटकर मथुरा में आगमन

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण व्रजमें कई दिनोंतक रहकर सबको अपना दर्शन दे मथुरा जानेको उद्यत हुए। नौ नन्दों, नौ उपनन्दों, छः वृषभानुओं तथा वृषभानुवर और व्रजेश्वर नन्दराजसे मिलकर, कलावती, यशोदा, अन्यान्य गोपियों तथा गौओंके गणोंसे भी भेंट करके, आश्वासन और ज्ञान दे, सबसे विदा लेकर माधव चञ्चल अश्वोंसे जुते हुए अपने दिव्य रथपर आरूढ़ हो मथुरा जानेकी इच्छासे नन्दगाँवसे बाहर निकले। उनके पीछे-पीछे समस्त मोहित व्रजवासी बहुत दूरतक गये। वे माधव- के अत्यन्त कष्टमय विरहको नहीं सह सके। जिन्हें भूमण्डलपर कभी एक बार भी श्रीविष्णुका दर्शन हुआ हो, उन्हें भी उनका विरह दुस्सह हो जाता है; फिर जिन्हें प्रतिदिन उनका दर्शन होता रहा हो, उनको उनके विरहसे कितना दुःख होता होगा, इसका वर्णन कैसे किया जा सकता है। नरेश्वर। अपलक नेत्रोंसे श्रीधरके मुँहकी ओर देखते हुए समस्त व्रजवासी गोप स्नेह- सम्बन्धके कारण प्रेमविह्वल हो उनसे बोले ॥ १-७॥(Mathurakhand Chapter 21 to 25)

गोपोंने कहा- श्रीकृष्ण। तुम फिर जल्दी आना और हम समस्त व्रजवासियोंकी रक्षा करना। जैसे पूर्वकालमें तुमने देवताओंको अमृत प्रदान किया था, उसी प्रकार अब हमें अपने दर्शनकी सुधाका पान कराते रहना। देव! केवल तुम्हीं सदा यशोदाके आनन्ददायक हो, तुम्हीं श्रीनन्दराजको आनन्द प्रदान करनेवाले हो और तुम्हीं व्रजवासियोंके जीवन हो। प्रभो! तुम्हीं इस व्रजके धन हो, गोपकुलके दीपक हो और महापुरुषोंके भी मनको मोहनेवाले हो। जैसे निदाघसे जले हुए प्राणीको शीतल जल प्राप्त हो जाय, सर्दीसे पीड़ित मनुष्यको जैसे आग मिल जाय, ज्वरसे आर्त पुरुषको उपयुक्त औषध प्राप्त हो जाय और मरे हुए मानवको भी जैसे मङ्गलमय अमृत मिल जाय, तो वे जी उठते हैं, उसी प्रकार समस्त व्रजके लिये तुम्हारा दर्शन ही जीवन है; इसलिये तुम यहीं निवास करो। इस विषयमें बहुत कहनेसे क्या लाभ। हमारे इस जन्म अथवा पूर्वजन्ममें जो कुछ भी पुण्य हुआ हो, उसके फलस्वरूप हमारा चित्त सदा तुम्हारे चरणारविन्दोंमें लगा रहे। जिनका चित्त तुम्हारे चरण- कमलमें लगा हुआ है, वे भक्तजन तुम्हें सदा ही प्रिय हैं। तुम प्रकृतिसे परे निर्गुण हो, तथापि अपने भक्तों- के लिये सगुण हो जाते हो। तुम्हें अपने भक्तसे अधिक प्रिय शिव, ब्रह्मा और लक्ष्मी भी नहीं हैं। जो ब्रह्मपद आदिकी अभिलाषाको छोड़कर तुझ भगवान का निष्कामभावसे भजन करते हैं, वे युक्तचित्त पुरुष ही शान्त एवं निरपेक्ष सुखका अनुभव करते हैं ॥ ८-१५ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर वे सब गोप प्रेमसे विह्वल हो श्रीकृष्णके देखते-देखते आनन्दके आँसू बहाते हुए रोने लगे। भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्णके मुखपर भी अश्रुकी धारा बह चली। वे प्रसन्नचेता परमेश्वर उन विरह-विह्नल – गोपोंसे बोले ॥ १६-१७ ॥

श्रीभगवान्ने कहा- व्रजवासियो। तुम सब मेरे प्राण हो और मेरे परम प्रिय हो। मेरा हृदय तुमलोगोंमें ही स्थित है, केवल शरीर अन्यत्र दिखायी देता है। मैं प्रतिमास तुम सबको देखने और दर्शन देनेके लिये आऊँगा, यह वचन देता हूँ। मनसे मैं दूर नहीं हूँ। मन ही सबका कारण है। हे गोपगण ! यादवोंसे युद्ध करनेके लिये जरासंध आया है, अतः यदुवंशियोंकी सहायताके लिये मैं जाता हूँ, तुम्हें शोक नहीं होना चाहिये ॥ १८-२० ॥(Mathurakhand Chapter 21 to 25)

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार उन गोपोंको बार-बार आश्वासन दे, फिर लौटकर यशोदा- सहित नन्दराजको दूसरे रथपर बिठाया और श्रीदामा आदि सखाओंको साथ ले, उद्धवसहित रथपर आरूढ़ हो, वे – सर्वकारण-कारण भगवान् मथुराको गये। वीर! जबतक रथ, उसमें जुते हुए सौ वेगशाली घोड़े और फहराती पताकासे युक्त तिरंगा ध्वज तथा उड़ती हुई धूल दिखायी देती रही, तबतक अन्य व्रजवासी वहीं खड़े रहे। फिर वे अपने घरको लौट आये ॥ २१-२३॥

श्रीकृष्णचन्द्र का यह परम उत्तम विचित्र चरित्र मनुष्योंके महान् पापोंको हर लेनेवाला है। जो भक्तप्रवर पृथ्वीपर इस चरित्रको सुनता है, वह उत्तमोत्तम गोलोकधाममें जाता है॥ २४ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीमथुराखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें व्रजयात्राके प्रसङ्गमें ‘श्रीकृष्णका आगमन’ नामक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २३ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ स्तोत्ररत्नावली

चौबीसवाँ अध्याय

बलदेवजीके द्वारा कोल दैत्यका वध; उनकी गङ्गातटवर्ती तीर्थोंमें यात्रा; माण्डूकदेवको वरदान और भावी वृत्तान्तकी सूचना देना; फिर गङ्गाके अन्यान्य तीर्थोंमें स्त्रान-दान करके मथुरामें लौट जाना

बहुलाश्वने पूछा- मुने! गोपाङ्गनाओं और गोपोंको उत्तम दर्शन देकर मथुरामें लौटनेके पश्चात् श्रीकृष्ण तथा बलरामने क्या किया? श्रीकृष्ण और बलदेवका चरित्र बड़ा मधुर है। यह समस्त पापोंको हर लेनेवाला, पुण्यप्रद तथा चतुर्वर्गरूप फल प्रदान करनेवाला है॥ १-२॥

श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! अब श्रीकृष्ण और बलदेवजीका दूसरा चरित्र सुनो, जो सर्वपापहारी, पुण्यदायक तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्षको देने- वाला है। नरेश्वर। कोल नामक दैत्यसे पीड़ित हुए बहुत-से लोग दीनचित्त हो ब्राह्मणोंके साथ कौशारविपुरसे मथुरामें आये। उस समय रोहिणीनन्दन बलराम शीघ्रगामी अश्वपर आरूढ़ हो थोड़े-से अग्रगामी लोगोंके साथ शिकार खेलनेके लिये मथुरासे निकले थे। मार्गमें ही उन्हें प्रणाम करके उनकी विधिवत् पूजा करनेके पश्चात् सब लोग उनके चरणों में प्रणत हो गये और हाथ जोड़ हर्ष-गद्गद वाणीमें बोले ॥ ३-६ ॥(Mathurakhand Chapter 21 to 25)

प्रजाजनोंने कहा- राम ! महाबाहु राम ! महाबली देवदेव! हम सब लोग कोल नामक दैत्यसे पीड़ित हो आपकी शरणमें आये हैं। कोल दैत्य कंसका सखा है। वह महाबली दैत्य राजा कौशारविको जीतकर उन्हींके नगरमें राज्य करता है। राजा कौशारवि उसके भयसे गङ्गातटपर चले गये हैं और वहाँ पुनः अपने राज्यकी प्राप्तिके लिये अत्यन्त जितेन्द्रिय हो आपके चरण कमलोंका भजन कर रहे हैं। विभो। आप उनकी सहायता कीजिये। हम उन्हींकी शुभ प्रजा हैं, जिनका उन्होंने पुत्रकी भाँति पालन किया है। उनके संरक्षणमें हमलोग बड़े सुखी थे। प्रभो! अब दुष्ट कोल हमें निरन्तर पीड़ा दे रहा है। यद्यपि आपने त्रिभुवनविजयी वीर कंसको मार डाला है, तथापि देवेन्द्र । जबतक कोल जीवित है, तबतक कंसको भी मरा हुआ नहीं मानना चाहिये। आप प्रकृतिसे परे होकर भी भक्तोंकी रक्षाके लिये ही सगुणरूपसे अवतीर्ण हुए हैं॥७-१२॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उनका वचन सुनकर भक्तवत्सल श्रीबलराम गङ्गा-यमुनाके बीचमें बसी हुई कौशाम्बीनगरीको गये। बलरामजीको युद्धके लिये आया हुआ सुनकर प्रचण्ड-पराक्रमी कोल भी दस अक्षौहिणी सेनासे सुसज्जित हो कौशाम्बीसे बाहर निकला। प्रलय कालके समुद्रकी भाँति गर्जना करनेवाली वह सेना एक नदीके समान आयी। चञ्चल घोड़े उसकी उठती हुई तरङ्गमाला थे। रथ और हाथी आदि उसमें तिमिङ्गिल (मगर मत्स्य) के समान प्रतीत होते थे। वीर योद्धारूपी भँवर उठ रहे थे। उसे देखकर बलरामजीने हलका सेतु बाँध दिया और हलाग्रभागसे उस सेनाको खींच खींचकर मुसलके सुदृढ़ प्रहारसे मारना आरम्भ किया। उनके प्रहारसे एक साथ ही पैदल वीर, घोड़े, रथ और हाथी रणभूमिमें फलोंकी भाँति पिस उठे और करोड़ोंकी संख्यामें सब ओर धराशायी हो गये। शेष योद्धा भयसे पीड़ित हो युद्ध- मण्डलसे भाग निकले। शस्त्रधारी दैत्य कोल बलरामजीके साथ अकेला ही युद्ध करने लगा ॥ १३-१८॥

उस दैत्यराजने बलदेवजीकी ओर अपना हाथी बढ़ाया। उस हाथीके कुम्भस्थलपर गोमूत्रमें घोले हुए सिन्दूर और कस्तूरीके द्वारा पत्र-रचना की गयी थी। सोनेकी साँकलसे युक्त कटिबन्ध रत्नखचित था। उसके गण्डस्थलसे मद झर रहा था। उसके चार दाँत थे। घंटेकी ध्वनिसे वह और भीषण प्रतीत होता था। उसका कद ऊँचा था और वह दिग्गजके समान चिग्घाड़ता था। उसके शरीरका रंग प्रलयकालके मेघके समान काला था। कोल तीखा अङ्कुश लेकर उसके कानकी ओरसे उस हाथीपर चढ़ गया था। कोलके द्वारा प्रेरित उस मतवाले हाथीको अपनी ओर आता देख बलदेवजीने उसके ऊपर मुसलसे उसी प्रकार प्रहार किया, जैसे इन्द्रने वज्रसे किसी पर्वतपर आघात किया हो। मिथिलेश्वर! मुसलकी मारसे उस महान् गजराजका मस्तक उसी प्रकार छिन्न-भिन्न हो गया, जैसे डंडेकी मारसे कोई मिट्टीका घड़ा टूक-टूक हो गया हो ॥ १९-२३ ॥(Mathurakhand Chapter 21 to 25)

कोलका मुँह सूअरके समान था। लाल नेत्रोंवाला वह दैत्य हाथीसे गिर पड़ा। उसने महात्मा माधव- बलदेवके ऊपर तीखा शूल चलाया। विदेहराज ! तब बलरामने मुसलसे मारकर उसके शूलके उसी प्रकार सैकड़ों टुकड़े कर दिये, जैसे किसी बालकने लाठीके प्रहारसे काँचके बर्तन तोड़ डाले हों। तब उस दुष्टने सहस्र भार (लगभग ३००० मन) लोहेकी बनी हुई एक भारी गदा हाथमें लेकर बलरामजीकी छातीपर चोट की और वह मेघके समान गर्ज उठा। उस गदाके प्रहारको सहकर महाबली बलदेवने काजलके समान काले शरीरवाले कोलके मस्तकपर मुसलसे प्रहार किया। मुसलके प्रहारसे उसका सिर फट गया और वह रणभूमिमें गिर पड़ा; तो भी उठकर बलदेवजीको मुक्के से भारी चोट पहुंचाकर वह वहीं अन्तर्धान हो गया। फिर उस मायावी दैत्यने अत्यन्त भयंकर दैत्य- सम्बन्धिनी माया प्रकट की। तुरंत ही बड़ी भारी आँधीसे प्रेरित प्रलय कालके मेघोंसे, जो अन्धकार फैला रहे थे, आकाश आच्छादित हो गया। जपाके पुष्पोंके समान रक्तके बिन्दुओंकी निरन्तर वर्षा होने लगी। उसके बाद घनीभूत काले मेघोंने घृणित वस्तुओंकी वर्षा प्रारम्भ की। पीब, मेद, विष्ठा, मूत्र, मदिरा और मांससे युक्त अमेध्य जलकी वर्षा होने लगी। उस वृष्टिसे सब ओर हाहाकार होने लगा। दैत्यद्वारा रची गयी मायाको जानकर महाप्रभु बलदेवने शत्रुसेनाको विदीर्ण करनेवाले विशाल मुसलको चलाया। वह समस्त अस्त्रोंका घातक, स्वच्छ और सुदृढ़ अस्त्र अष्टधातुओंका बना हुआ था। उसकी लंबाई सौ योजनकी थी तथा वह प्रलयाग्रिके समान प्रज्वलित हो रहा था। बलदेवजीका अस्त्र मुसल दसों दिशाओंमें घूमता हुआ बड़ी शोभा पा रहा था। उसने आकाशके बादलोंको उसी प्रकार विदीर्ण कर दिया, जैसे सूर्य कुहरेको मिटा देता है। उस मुसलको आकाशमें गया हुआ देख भगवान् बलभद्रने स्वतः ‘हल’ नामक अस्त्र उठाया और अपने वैभवसे सबको खींच खींचकर बलपूर्वक बीचमें ही विदीर्ण – कर दिया ॥ २४-३६ ॥(Mathurakhand Chapter 21 to 25)

उस दैत्यकी मायाका नाश हो जानेपर महाबली बलदेवने अपने बाहुदण्डोंसे उसके मदोत्कट भुजदण्ड पकड़ लिये और जैसे बालक रुईकी राशिको घुमाये, उसी प्रकार इधर-उधर घुमाते हुए उसे पृथ्वी पर इस प्रकार दे मारा, मानो किसी बालकने कमण्डलु पटक दिया हो। उस दैत्यके पतनसे पर्वत, समुद्र और वनके साथ सारा भूमण्डल एक नाड़ी (घड़ी) तक काँपता रहा। दैत्यके दाँत टूट गये, नेत्र बाहर निकल आये और वह मूच्छित होकर मृत्युका ग्रास बन गया। इस प्रकार महादैत्य कोल वज्रके मारे हुए वृत्रासुरकी भाँति प्राणशून्य हो गया। उस समय स्वर्गमें और धरतीपर जय-जयकार होने लगा। देवताओंकी दुन्दुभियाँ बज उठीं और वे फूलोंकी वर्षा करने लगे। इस प्रकार कोलका वध करके श्रीकृष्णके बड़े भाई बलदेवने कौशाम्बीपुरी राजा कौशारविको दे दी और स्वयं गर्गाचार्य आदिके साथ वे भागीरथीमें स्नान करनेके लिये गये। उनका यह कार्य समस्त दोषोंके निवारण एवं लोकसंग्रहके लिये था ॥ ३७-४३ ॥

गर्ग आदि ब्राह्मण आचार्यों ने मङ्गलमय वेद- मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए माधव- बलरामको गङ्गामें स्नान करवाया। विदेहराज ! बलरामजी ब्राह्मणोंको एक लाख हाथी, दो लाख रथ, एक करोड़ घोड़े, दस अरब दुधारू गायें, सौ अरब रत्न और जाम्बूनद सुवर्णके भार दानमें देकर मथुरापुरीको चले गये। मिथिलेश्वर । बलरामने गङ्गाजीमें जहाँ स्नान किया, उस महापुण्यमय तीर्थको विद्वान लोग ‘रामतीर्थ’ के नामसे जानते हैं। जो मनुष्य कार्तिकी पूर्णिमा एवं कार्तिकमासमें रामतीर्थकी गङ्गामें स्नान करता है, वह हरिद्वारकी अपेक्षा सौगुने पुण्यका भागी होता है॥ ४४-४८ ॥

बहुलाश्वने पूछा- महामुने। कौशाम्बीसे कितनी दूर और किस स्थानपर महापुण्यमय ‘रामतीर्थ’ विद्यमान है, यह मुझे बतानेकी कृपा करें ॥ ४९ ॥(Mathurakhand Chapter 21 to 25)

नारदजीने कहा- राजन् ! राजेन्द्र ! कौशाम्बीसे ईशानकोणमें चार योजनकी दूरीपर और वायव्यकोणमें शूकरक्षेत्रसे चार योजनकी दूरीपर, कर्णक्षेत्रसे छः कोस और नलक्षेत्रसे पाँच कोस आग्नेय दिशामें रामतीर्थकी स्थिति बताते हैं। वृद्धकेशी सिद्धपीठसे और बिल्वकेश-वनसे पूर्व दिशामें तीन कोसकी दूरीपर विद्वानोंने रामतीर्थकी स्थिति मानी है॥५०-५२॥

वङ्गदेशमें दृढ़ाश्व नामक एक राजा थे। वे लोमश मुनिको कुरूप देखकर सदा उनकी हँसी उड़ाया करते थे। इससे उस महामुनिने उन्हें शाप दे दिया ‘ओ महादुष्ट! तू विकराल शूकरमुख असुर हो जा।’ इस प्रकार मुनिके शापसे राजा कोल नामक क्रोडमुख असुर हो गया। फिर बलदेवजीके प्रहारसे आसुर शरीरको छोड़कर महादैत्य कोलने परम मोक्ष प्राप्त कर लिया। तब बलराम उद्धव आदि तीन मन्त्रियोंके साथ वहाँसे तत्काल ‘जह्वतीर्थ’ को चले गये, जहाँ जहुके दाहिने कानसे गङ्गाजीका प्रादुर्भाव हुआ था। उस ब्राह्मण-शिरोमणि जहुके नामपर ही गङ्गाको ‘जाह्नवी’ कहा जाता है। वहाँ ब्राह्मणोंको दान दे रातभर सब लोग वहीं रहे। तदनन्तर वहाँसे पश्चिम भागमें पाण्डवोंका अत्यन्त प्रिय ‘आहारस्थान’ नामक स्थान है, जहाँ पहुँचकर उन लोगोंने रात्रिमें निवास किया। वहाँ ब्राह्मणोंको दान तथा उत्तम गुणकारक भोजन देकर वे वहाँसे एक योजन दूर माण्डूकदेवके पास गये ॥ ५३-५९ ॥(Mathurakhand Chapter 21 to 25)

माण्डूकदेवने अनन्तदेवकी कृपा प्राप्त करनेके लिये बड़ी भारी तपस्या की थी। उसीके लिये अपने समाजके साथ बलदेवजी वहाँ गये। वह मुँह ऊपर किये एक पैरके बलपर खड़ा था। उसके नेत्र ध्यानमें निश्चल थे। वह हृदयमें बलदेवजीके स्वरूपका दर्शन करते हुए उन्हींके साक्षात् दर्शनके लिये लोलुप था। बलदेवजीने उसके हृदयसे अपने उस स्वरूपको हटा लिया। तब उसने नेत्र खोलकर अपने आराध्यदेवको बाहर देखा। अनन्तदेवके उस परम सुन्दर रूपको उसने देखा। वे वनमालासे सुशोभित थे और एक कानमें कुण्डल धारण किये हुए थे। उनकी अङ्ग- कान्ति गौर थी तथा वे तालचिह्नसे अङ्कित ध्वजावाले रथपर बैठे थे। अनन्तदेवके उस परम सुन्दर रूपको देखकर उसने बड़ी भक्तिसे उनकी स्तुति की। फिर वह अपने आराध्यके चरणोंमें गिर पड़ा। बलदेवजीने उसके मस्तकपर हाथ रखा और कहा- ‘वर माँगो।’ तब वह बोला- ‘स्वामिन् ! यदि आप साक्षात् भगवान् मुझपर प्रसन्न हैं, अथवा यदि मैं आपके अनुग्रहका पात्र हूँ, तो शुकदेवजीके मुखसे निकली हुई उस सर्वोत्तम भागवतसंहिताको मुझे दीजिये, जो समस्त कलिदोषोंका विनाश करनेवाली एवं श्रेष्ठ है’ ॥ ६०-६५ ॥

बलदेवजीने कहा- अनघ । तुम्हें उद्धवजीके द्वारा श्रीमद्भागवतसंहिताकी प्राप्ति होगी, जिसका कीर्तन कलियुगमें सर्वाधिक महत्त्व रखनेवाला है॥ ६६ ॥

माण्डूकने पूछा- स्वामिन् ! भगवान्ने उद्धवजी को भागवतसंहिता सुनानेका मुख्य अधिकार क्यों दिया है? और उनके साथ मेरा संयोग कब होगा? आप इस मेरे संदेहका निवारण कीजिये ॥ ६७ ॥(Mathurakhand Chapter 21 to 25)

बलदेवजी बोले- मैं परम गोपनीय एवं परम अद्भुत रहस्यकी बात बताता हूँ। आज भी मेरे निकट ये उद्धवजी विराजते हैं। तुम इनका दर्शन कर लो। यह उत्तम दर्शन तुम्हें परमार्थ प्रदान करनेवाला है; परंतु आज तीर्थयात्राके अवसरपर तुम्हें इनका उपदेश नहीं प्राप्त हो सकता। जिस प्रकार ये भागवतके उपदेशक होंगे, वह मैं तुम्हें बता रहा हूँ। मैंने उद्धवको श्रीमान् आचार्यके पदपर इसलिये स्थापित किया है कि ये संहिताज्ञानस्वरूप हैं। नन्द आदि व्रजवासियों तथा गोपाङ्गनाओंकी प्रीतिके लिये भगवान् श्रीकृष्णने उद्धवको अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजा था। अपना स्वरूप, परिकरका पद और जो कुछ भी पूर्ण भगवत्ता है, वह सब, अपने स्वभाव और गुणके साथ परमात्मा श्रीकृष्णने उद्धवको अर्पित की है। उन्होंने उद्धवको और अपनेको एक ही मानकर आचरण किया है। श्रीकृष्णने अपना आन्तरिक रहस्य पहिले उद्धवके सिवा और किसीपर नहीं प्रकट किया था। उन्होंने इनमें अपनी अभिन्नताका साक्षात्कार किया है। ब्रजवासियोंने इन्हें साक्षात् श्रीकृष्ण ही जानकर बड़े आदरसे इनका पूजन किया था। वसन्त और ग्रीष्म, दोनों ऋतुओंमें इन्होंने ब्रजभूमिमें विचरण किया और श्रीराधा तथा राधाकुण्डके आस-पासके लोगोंका शोक शान्त किया। उद्धव व्रजवासी अनुगामियोंके साथ वहाँकी भूमिमें यत्र-तत्र सर्वत्र विचरे हैं। इन्हें गौओं तथा नन्द आदि गोपों और गोपाङ्गनाओंका ‘वियोगार्तिहारी’ कहा गया है। ये मन्त्रीके अधिकारमें कुशल तथा समस्त पार्षदोंके अग्रगामी हैं। जब भगवान के अन्तर्धानकी वेला आयेगी, उस समय धर्मपालक-देहधारी भगवान् उद्भवको अपना परम अद्भुत तेज भी दे देंगे। इनका मुद्राधिकार (भगवान की ओरसे कुछ भी कहने और उनकी मुद्रिका या मोहरकी छाप लगाकर कोई आदेश जारी करनेका अधिकार) तो सर्वत्र और सदा ही विराजता है। अन्तर्धानकालमें इन्हें भगवान की ओरसे विशेष अधिकार दिया जायगा। ये बदरिकाश्रम-तीर्थमें विराजमान परिकरॉसहित धर्म- नन्दनको भगवद्रहस्यका बोध करायेंगे। अर्जुन आदिको भगवान के वियोगसे जो बड़ी भारी पीड़ा होगी, उसका निवारण उद्धव ही करेंगे। मथुरामें यादवोंका उत्तराधिकारी वज्रनाभ होगा। श्रीकृष्णके पौत्रों तथा महारानियोंके समुदायमें जो भगवद्वियोग- की वेदना होगी, उसे दूर करने के लिये साक्षात् श्रीहरिके द्वारा उद्धव ही नियुक्त किये जायेंगे ॥ ६८-८० ॥

कौरवोंके कुलमें परीक्षित् नामसे विख्यात राजा होगा। उसका अत्यन्त तेजस्वी पुत्र जनमेजय नामसे प्रसिद्ध होगा। वह अपने पिताके शत्रु तक्षक नागके कुलका नाशक सर्पयज्ञ करेगा, इसमें संशय नहीं है। उसको भी सारी यज्ञसामग्री उद्धवके द्वारा ही प्राप्त होगी। उस समय दिव्य श्रीमद्भागवतपुराणकी कथा होगी, जिसमें उज्ज्वल (सात्त्विक) प्रकृतिके लोग समवेत होंगे, इसमें संशय नहीं है। महान् भगवद्भक्तों- में उत्तम ब्रह्मर्षि (आस्तीक) के प्रसादसे जनमेजय- द्वारा होनेवाले सर्पयज्ञकी समाप्ति हो जायगी। महाराज जनमेजय यज्ञ-संस्कार करानेवाले ब्राह्मणोंका पूजन करके उन्हें सौ ग्राम अग्रहारके रूपमें देंगे ॥ ८१-८५ ॥

तदनन्तर आचार्यप्रवर श्रीप्रसादजीकी आज्ञासे राजा जनमेजय शूकरक्षेत्र (सोरों) में जायेंगे और वहाँ एक मास ठहरेंगे। उस तीर्थमें अनेक प्रकारके दान- गौ, बड़े-बड़े हाथी, घोड़े, रत्न, वस्त्र तथा इच्छानुसार – भोजन – ब्राह्मणोंको देकर वे अपने आचार्यके साथ उस स्थानसे लौटकर गङ्गातटके तीर्थस्थानोंका दर्शन करते हुए सत्पुरुषोंसे घिरे शयाननगरमें आकर सेवकोंसहित डेरा डालेंगे। वहाँ श्रीगुरुकी आज्ञासे सामग्री और साधन जुटाकर अश्वमेध यज्ञ करेंगे और सर्वजेता (दिग्विजयी) होंगे। इस प्रकार एकच्छत्र राज्यके स्वामी होकर श्रीगुरुदेवकी शरण ले शयान- नगरसे पूर्व दिशामें रमणीय गङ्गाके तटपर अत्यन्त एकान्तवासीके रूपमें तीर्थ सेवन करेंगे। वहाँ धार्मिकोंके समाजमें बड़े आनन्दके साथ भवरोग- विनाशिनी भागवत कथा होगी। उस पूर्ण समाजमें एक तुम भी रहोगे और भागवतकी कथा सुनोगे। उसे सुनकर तुम्हें निर्मल पदकी प्राप्ति होगी। तुमने मेरे लिये तपस्या की है, इसलिये तुम्हारे सामने मैंने इस रहस्यको प्रकाशित किया है। इस प्रकार माण्डूक- देवको वर देकर सेवकोंसहित बलरामजी वहाँसे चले गये ॥ ८६-९४ ॥

शुद्ध शयाननगरसे ईशानकोणमें गङ्गातटपर स्थित एक रमणीय स्थान है, जो कण्टकतीर्थसे उत्तर है और पुष्पवती नदीसे दक्षिण दिशामें विद्यमान है। उसका विस्तार एक कोसमें है। वहीं ठहरकर संकर्षणदेव दान- पुण्यमें लग गये। बलरामजीने बड़ी प्रसन्नताके साथ वहाँ दस हजार घोड़ों, सौ रथों, एक हजार हाथियों और दस हजार गौओंका दान किया। वहाँ समस्त देवता तथा तपस्याके धनी ऋषि-मुनि आये। उन सबने बड़े आदरसे संकर्षणदेवका पूजन किया। फिर इस प्रकार स्तुति की- ‘प्रभो! आप कोलेश दैत्यके हन्ता तथा गर्दभासुर (धेनुक) का विनाश करनेवाले हैं, आपको नमस्कार है। हलायुध । आपको प्रणाम है। मुसलास्त्र धारण करनेवाले आपको नमस्कार है। सौन्दर्यस्वरूप आपको प्रणाम है। तालचिह्नित ध्वजा धारण करनेवाले आपको बारंबार नमस्कार है। उन सबके द्वारा की गयी इस स्तुतिको सुनकर संकर्षण बोले- ‘आप सब लोगोंको जो अभीष्ट हो, वह वर मुझसे माँगिये ‘ ॥ ९५-१०० ॥

ब्रह्मर्षि और देवता बोले- भगवन् ! जब- जब आपत्तिमें पड़कर हम आपके चरणोंका चिन्तन करें, तब-तब आपकी आज्ञासे समस्त बाधाओंसे मुक्त हो जायँ ॥ १०१ ॥

बलरामने कहा- जब-जब आपलोग मेरी शरणमें आकर मेरा स्मरण करेंगे, तब-तब कलियुगमें निश्चय ही मैं आपलोगोंकी रक्षा करूँगा, यह मेरा सत्य वचन है। इस स्थानपर मुनि पुंगवों ने मेरा पूजन करके वर प्राप्त किया, इसलिये कलियुगमें यह तीर्थ ‘संकर्षण स्थान ‘के नामसे विख्यात होगा। जो लोग इस तीर्थमें गङ्गा-ज्ञान और देवताओं का पूजन करेंगे, ब्राह्मणोंको दान देंगे, उन्हें भोजन करायेंगे और विष्णु भगवान् की पूजा करेंगे, इस भूतलपर उनका जीवन सफल होगा। वे देवताओंके लोकमें जायेंगे। अथवा यदि उनके मनमें कोई अभीष्ट होगा तो उस अभीष्टको ही प्राप्त कर लेंगे ॥ १०२-१०५ ॥

तदनन्तर बलराम सबके साथ अपनी पुरी मथुराको चले गये। कोल राक्षसका वध और गङ्गाके जलमें स्नान करके उन्होंने लोकसंग्रहके लिये प्रायश्चित्त किया था। जो मनुष्य बलके देवता बलरामकी इस कथाको सुनेंगे, वे सब पापोंसे मुक्त होकर परमगतिको प्राप्त होंगे ॥ १०६-१०७ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीमथुराखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘कोलदैत्यका वध’ नामक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २४॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ महामृत्युंजय मंत्र जप विधि

पच्चीसवाँ अध्याय

मथुरापुर का माहात्म्य एवं मथुराखण्ड का उपसंहार

बहुलाश्वने पूछा- मुने ! जहाँ बलरामजी अकस्मात् पहुँच गये, वहाँ ऐसा उत्तम तीर्थ सुना गया। अहो! मथुरापुरी धन्य है, जहाँ वे नित्य निवास करते हैं। मथुराका देवता कौन है? क्षत्ता (द्वारपाल) कौन है? उसकी रक्षा कौन करता है? चार कौन है? मन्त्रिप्रवर कौन है? और किन-किन लोगोंके द्वारा वहाँकी भूमिका सेवन किया गया है?॥१-२॥

श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! साक्षात् परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण हरि स्वयं ही मथुराके स्वामी या देवता हैं। भगवान् केशवदेव वहाँके क्लेशनाशक हैं। साक्षात् भगवान्ने कपिल नामक ब्राह्मणको अपनी वाराहमूर्ति प्रदान की थी। कपिलने प्रसन्न होकर वह मूर्तिदेवराज इन्द्रको दे दी। फिर समस्त लोकोंको रुलानेवाला राक्षसराज रावण देवताओंको जीतकर उस मूर्तिका स्तवन करके उसे पुष्पकविमानपर रखकर लङ्कामें ले आया और उसकी पूजा करने लगा। मिथिलेश्वर ! तदनन्तर राघवेन्द्र श्रीराम लङ्कापर विजय प्राप्त करके भगवान् वाराहको प्रयत्नपूर्वक अयोध्या- पुरीमें ले आये और वहाँ उनकी अर्चना करते रहे। तत्पश्चात् शत्रुघ्न श्रीरामकी स्तुति करके उनकी आज्ञासे उस वाराह-विग्रहको प्रयत्नपूर्वक महापुरी मथुरामें ले आये और वहाँ वाराहभगवान की स्थापना करके उनको प्रणाम किया। फिर समस्त मथुरावासियोंने उन वरदायक भगवान की सेवा-पूजा प्रारम्भ की। वे ही ये साक्षात् कपिल-वाराह मथुरापुरीमें श्रेष्ठ मन्त्री माने गये हैं। ‘भूतेश्वर’ नामसे प्रसिद्ध भगवान् शिव मथुराके द्वारपाल या क्षेत्रपाल हैं। वे पापियोंको दण्ड देकर भक्तिके लिये उन्हें मन्त्रोपदेश करते हैं। महाविद्या- स्वरूपा दुर्गम कष्ट दूर करनेवाली चण्डिकादेवी दुर्गा सिंहपर आरूढ़ हो सदा मथुरापुरीकी रक्षा करती हैं। मैं (नारद) ही मथुराका चार (गुप्तचर) हूँ और इधर-उधर लोगोंपर दृष्टि रखकर सबकी बात महात्मा श्रीकृष्णको बताता हूँ। विदेहराज ! नगरके मध्य- भागमें स्थित शुभदायिनी करुणामयी मथुरादेवी समस्त भूखे लोगोंको अन्न प्रदान करती हैं। मथुरामें मरे हुए लोगोंको विमानोंद्वारा ले जानेके लिये श्याम अङ्गवाले, चार भुजाधारी श्रीकृष्णपार्षद आते-जाते रहते हैं॥ ३-१३ ॥

महापुरी मथुरा, जिसके दर्शनमात्रसे मनुष्य कृतार्थ हो जाता है, श्रीकृष्णके अङ्गसे प्रकट हुई है। पूर्व- कालमें ब्रह्माजीने मथुरामें आकर निराहार रहते हुए सौ दिव्य वर्षांतक तपस्या की। उस समय वे परब्रह्म श्रीहरिके नामका जप करते थे, इससे उन्हें स्वायम्भुव- मनु-जैसे प्रवीण पुत्रकी प्राप्ति हुई। नृपराज! सतीपति देववर भूतेश मधुवनमें एक सौ दिव्य वर्षतक तप करके श्रीकृष्णकी कृपासे तत्काल मथुरापुरी और माथुर-मण्डलके क्षेत्रपाल हो गये। श्रीकृष्णके कृपा- प्रसादसे ही मैं मथुरा-मण्डलका चार बना हूँ और सदा भ्रमण करता रहता हूँ। इसी प्रकार ‘दुर्गा’ मथुरामें जाती हैं और निश्चय ही श्रीकृष्णकी सेवा करती हैं। इन्द्रने मथुरामें तप करके इन्द्रपद, सूर्यने तप करके वैवस्वत मनु-जैसा पुत्र, कुबेरने अक्षयनिधि, वरुणने पाश और ध्रुवने मधुवनमें तप करके सम्यक् ध्रुवपद प्राप्त किया था। यहीं तपस्या करके अम्बरीषने मोक्ष पाया, रामने अक्षय शक्ति एवं लवणासुरसे विजय प्राप्त की। राजा रघुने सिद्धि पायी तथा इसी मधुवनमें तप करके चित्रकेतुने भी अभीष्ट फल प्राप्त किया। यहींके सुन्दर मधुवनमें तप करके अत्यन्त बलिष्ठ हुए महासुर मधुने माधवमासमें मधुसूदन माधवके साथ युद्ध- भूमिमें जाकर युद्ध किया। सप्तर्षियोंने मथुरामें आकर यहीं तपस्या करके योगसिद्धि प्राप्त की। पूर्वकालमें अन्य ऋषियोंने भी यहाँ तप करके सर्वतोमुखी सफलता पायी थी और गोकर्ण नामक वैश्यने भी यहाँ तप करके महानिधि उपलब्ध की थी। इसी शुभ मधुवनमें लोकरावण रावणने तपस्या करके स्वर्गके देवताओंपर विजय पायी तथा राक्षसोंको अधिकारी बनाकर मन्दिर-निर्माण करके लङ्कामें प्रतिष्ठित हो बड़ी शोभा प्राप्त की। मिथिलेश्वर! यहीं सुन्दर मधुवनमें तपस्या करके हस्तिनापुरके राजा शंतनुने अत्यन्त साधु- शिरोमणि तथा तत्त्वार्थसागरके कर्णधार भीष्मको पुत्र- रूपमें प्राप्त किया ॥ १४-२३ ॥

बहुलाश्वने पूछा- देवर्षि-शिरोमणे-मथुराका माहात्म्य बताइये। वहाँ निवास करनेवाले सज्जनोंको किस फलकी प्राप्ति बतायी गयी है? ॥ २४ ॥

श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! आदियुगमें भगवान् वराहने महासागरके जलमें, जहाँ बड़ी ऊँची लहरें उठ रही थीं, डूबी हुई पृथ्वीको, जैसे हाथी सूँड़से कमलको उठा ले, उसी प्रकार स्वयं अपनी दाढ़से उठाकर जब जलके ऊपर स्थापित किया, तब मथुराके माहात्म्यका इस प्रकार वर्णन किया था। यदि मनुष्य ‘मथुरा’ का नाम ले ले तो उसे भगवन्नामोच्चारणका फल मिलता है। यदि वह मथुराका नाम सुन ले तो श्रीकृष्णके कथा-श्रवणका फल पाता है। मथुराका स्पर्श प्राप्त करके मनुष्य साधु-संतोंके स्पर्शका फल पाता है। मधुरामें रहकर किसी भी गन्धको ग्रहण करनेवाला मानव भगवच्चरणोंपर चढ़ी हुई तुलसीके पत्रकी सुगन्ध लेनेका फल प्राप्त करता है। मथुराका दर्शन करनेवाला मानव श्रीहरिके दर्शनका फल पाता है। स्वतः किया हुआ आहार भी यहाँ भगवान् लक्ष्मीपतिके नैवेद्य-प्रसादभक्षणका फल देता है। दोनों बाँहोंसे वहाँ कोई भी कार्य करके श्रीहरिकी सेवा करनेका फल पाता है और वहाँ घूमने-फिरनेवाला भी पग- पगपर तीर्थयात्राके फलका भागी होता है॥ २५-२७॥

राजन् ! सुनो। जो राजाधिराजोंका हनन करनेवाला, अपने सगोत्रका घातक तथा तीनों लोकोंको नष्ट करनेके लिये प्रयत्नशील होता है, ऐसा महापापी भी मथुरामें निवास करनेसे योगीश्वरोंकी गतिको प्रास होता है। उन पैरोंको धिक्कार है, जो कभी मधुवनमें नहीं गये। उन नेत्रोंको धिक्कार है, जो कभी मधुराका दर्शन नहीं कर सके। मिथिलेश्वर। उन कानोंको धिक्कार है, जो मथुराका नाम नहीं सुन पाते और उस वाणीको भी धिक्कार है, जो कभी थोड़ा-सा भी मधुराका नाम नहीं ले सकी। विदेहराज। मथुरामें चौदह करोड़ वन हैं, जहाँ तीर्थोंका निवास है। इन तीर्थोमेंसे प्रत्येक मोक्षदायक है। मैं मथुराका नामोच्चारण करता हूँ और साक्षात् मथुराको प्रणाम करता हूँ। जिसमें असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति परिपूर्णतम देवता गोलोकनाथ साक्षात् श्रीकृष्णचन्द्रने स्वयं अवतार लिया, उस मथुरापुरीको नमस्कार है। दूसरी पुरियोंमें क्या रखा है? जिस मथुराका नाम तत्काल पापोंका नाश कर देता है, जिसके नामोच्चारण करनेवालेको सब प्रकारकी मुक्तियाँ सुलभ हैं तथा जिसकी गली- गलीमें मुक्ति मिलती है, उस मथुराको इन्हीं विशेषताओंके कारण विद्वान् पुरुष श्रेष्ठतम मानते हैं। यद्यपि संसारमें काशी आदि पुरियाँ भी मोक्षदायिनी हैं, तथापि उन सबमें मथुरा ही धन्य है, जो जन्म, मौञ्जीव्रत, मृत्यु और दाह-संस्कारोंद्वारा मनुष्योंको चार प्रकारकी मुक्ति प्रदान करती है। जो सब पुरियोंकी ईश्वरी, व्रजेश्वरी, तीर्थेश्वरी, यज्ञ तथा तपकी निधीश्वरी, मोक्षदायिनी तथा परम धर्म-धुरंधरा है, मधुवनमें उस श्रीकृष्णपुरी मथुराको मैं नमस्कार करता हूँ। वैदेहराजेन्द्र ! जो लोग एकमात्र भगवान् श्रीकृष्णमें चित्त लगाकर संयम और नियमपूर्वक जहाँ-कहीं भी रहते हुए मधुपुरीके इस माहात्म्यको सुनते हैं, वे मधुराकी परिक्रमाके फलको प्राप्त करते हैं- इसमें संशय नहीं है॥ २८-३५॥(Mathurakhand Chapter 21 to 25)

विदेहराज ! जो लोग इस मथुराखण्डको सब ओर सुनते, गाते और पढ़ते हैं, उनको यहीं सब प्रकारकी समृद्धि और सिद्धियाँ सदा स्वभावसे ही प्राप्त होती रहती हैं। जो बहुत वैभवकी इच्छा करनेवाले लोग नियमपूर्वक रहकर इस मथुराखण्डका इक्कीस बार श्रवण करते हैं, उनके घर और द्वारको हाथीके कर्णतालोंसे प्रताड़ित भ्रमरावली अलंकृत करती है। इसको पढ़ने और सुननेवाला ब्राह्मण विद्वान् होता है, राजकुमार युद्धमें विजयी होता है, वैश्य निधियोंका स्वामी होता है तथा शूद्र भी शुद्ध-निर्मल हो जाता है। स्त्रियाँ हों या पुरुष- इसे निकटसे सुननेवालोंके अत्यन्त दुर्लभ मनोरथ भी पूर्ण हो जाते हैं। जो बिना किसी कामनाके भगवान्में मन लगाकर इस भूतलपर भक्ति-भावसे इस मथुरा-माहात्म्य अथवा मथुरा- खण्डको सुनता है, वह विघ्नोंपर विजय पाकर, स्वर्गलोकके अधिपतियोंको लाँधकर सीधे गोलोक- धाममें चला जाता है॥ ३६-३९॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीमथुराखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘श्रीमथुरामाहात्म्य’ नामक पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २५॥

॥ श्रीमथुराखण्ड सम्पूर्ण ॥

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