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Garga Samhita Vishwajitkhand chapter 1 to 5

Garga Samhita
Garga Samhita Vishwajitkhand chapter 1 to 5

॥ श्रीहरिः ॥

ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते

श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः

Garga Samhita Vishwajitkhand Chapter 1 to 5 |
श्री गर्ग संहिता के विश्वजीतखण्ड अध्याय 1 से 5 तक

श्री गर्ग संहिता में विश्वजीतखण्ड (Vishwajitkhand chapter 1 to 5) के पहला अध्याय में राजा मरुत्तका उपाख्यान कहा गया है। दूसरे अध्याय में राजा उग्रसेनके राजसूय यज्ञका उपक्रम; प्रद्युम्नका दिग्विजयके लिये बीड़ा उठाना और उनका विजयाभिषेक कहा गया है। तीसरे अध्याय में प्रद्युम्नके नेतृत्वमें दिग्विजयके लिये प्रस्थित हुई यादवोंकी गजसेना, अश्वसेना तथा योद्धाओंका वर्णन किया है। चौथे अध्याय में सेना सहित यादव वीरों की दिग्विजय के लिए यात्रा का वर्णन किया है, और पांचवे अध्याय में यादव सेना की कच्छ और कलिङ्गदेशपर विजय वर्णन कहा गया है।

यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक

विश्वजीतखण्ड

पहला अध्याय

राजा मरुत्तका उपाख्यान

नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय साक्षिणे।
प्रद्युम्रायानिरुद्धाय नमः संकर्षणाय च ॥ १ ॥
सबके हृदयमें वास करनेवाले सर्वसाक्षी वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध-चतुव्यूहस्वरूप आप भगवान को नमस्कार है॥१॥

अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ २ ॥
मैं अज्ञानरूपी रतौंधीके रोगसे अंधा हो रहा था। जिन्होंने ज्ञानाञ्जनकी शलाकासे मेरी दिव्य दृष्टि खोल दी है, उन श्रीगुरुदेवको मेरा नमस्कार है॥ २॥

श्रीगर्गजीने कहा- मुने! इस प्रकार भगवान्श्री कृष्णका चरित्र मैंने तुमसे कह सुनाया, जो मनुष्योंको धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थोंका देने- वाला है। अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ३॥

शौनकने कहा- तपोधन! श्रीकृष्णके प्रिय भक्त तथा श्रीहरिमें प्रगाढ़ प्रीति रखनेवाले मैथिलराज बहुलाश्वने फिर देवर्षि नारदसे क्या पूछा, वही प्रसङ्ग मुझे सुनाइये ॥ ४ ॥
श्रीगर्गजी बोले- मुने ! भगवान् श्रीकृष्णने (मरुत्तके अवतार) उग्रसेनको यादवोंका राजा बनाया, यह सुनकर मिथिलानरेश बहुलाश्वको बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने नारदजीसे प्रश्न किया ॥ ५॥

बहुलाश्व बोले- देवर्षे। ये मरुत्त कौन थे? ये किस पुण्यसे भूतलपर यदुवंशियोंके राजा उग्रसेन हो गये? जिनके स्वयं भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र भी सहायक हुए, उनकी महिमा अद्भुत है। देवर्षि-शिरोमणे ! उनकी महत्ता क्या थी? यह मुझे बताइये ॥ ६-७ ॥

श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! सत्ययुगमें सूर्यवंशी राजा मरुत्त चक्रवर्ती सम्राट् थे। उन्होंने विधिपूर्वक विश्वजित्-यज्ञका अनुष्ठान किया था। वे हिमालयके उत्तर भागमें बहुत बड़ी सामग्री एकत्र करके, मुनिश्रेष्ठ संवर्तको आचार्य बनाकर यज्ञके लिये दीक्षित हुए। उनके यज्ञमें पाँच योजन विस्तृत कुण्ड बना था। एक योजनका तो ब्रह्मकुण्ड था और दो-दो कोसके पाँच कुण्ड और बने थे। कुण्डके गर्तका जो विस्तार था, तदनुसार वेदियोंसे दस मेखलाएँ बनी थीं। उस यज्ञमण्डपमें जो स्तम्भ बना था, उसकी ऊँचाई एक हजार हाथकी थी। वह महान् यज्ञस्तम्भ बड़ी शोभा पाता था। उसमें सोनेका यज्ञमण्डप बना था, जिसका विस्तार बीस योजन था। चंदोवों, बंदनवारों और कदलीखण्डसे वह यज्ञमण्डप मण्डित था। उस यज्ञमें ब्रह्मा-रुद्र आदि देवता अपने गणोंके साथ पधारे थे। समस्त ऋषि-मुनि स्वयं उस यज्ञमें आये थे। उस यज्ञमें दस लाख होता, – दस लाख दीक्षित, पाँच लाख अध्वर्यु और उद्गाता – अलग थे। वहाँ चारों वेदोंके विद्वान् ब्राह्मण बुलाये गये – थे, जो सम्पूर्ण शास्त्रोंके अर्थतत्त्वके ज्ञाता थे। और भी करोड़ों ब्राह्मण उसमें पूजित हुए थे। उस यज्ञमें हाथीकी सूँड़के समान घीकी मोटी घृत-धाराओंकी आहुति दी गयी थी, जिसको खाकर अग्निदेवको अजीर्णका रोग हो गया। मिथिलेश्वर ! उस यज्ञके विषयमें ऐसा होना कोई विचित्र बात न जानो ॥ ८-१६ ॥(Vishwajitkhand chapter 1 to 5)

उस यज्ञमें विश्वेदेवगण सभासद् थे। वे जिन- जिनके लिये भाग देना आवश्यक बताते थे, उन- – उनके लिये भागका परिवेषण (परोसनेका कार्य) – स्वयं मरुद्गण करते थे। उस यज्ञके समय त्रिलोकीमें कोई भी ऐसे जीव नहीं थे, जो भूखे रह गये हों। सम्पूर्ण देवताओंको सोमरस पीते-पीते अजीर्ण हो गया था। यजमान राजा मरुत्तने उस यज्ञमें आचार्य संवर्त को जम्बूद्वीपका राज्य दे दिया। इसके सिवा चौदह लाख हाथी, चौदह लाख भार सुवर्ण, सौ अरबी घोड़े तथा नौ करोड़ बहुमूल्य रत्न भी यज्ञान्तमें महात्मा आचार्यको दक्षिणाके रूपमें दिये। प्रत्येक ब्राह्मणको उन्होंने पाँच-पाँच हजार घोड़े, सौ-सौ हाथी और सौ- सौ भार सुवर्ण प्रदान किया। जलपात्र और भोजनपात्र सब सुवर्णके बने हुए थे, जो अत्यन्त उद्दीत दिखायी देते थे। उनमें भोजन करके सब ब्राह्मण संतुष्ट होकर विदा हुए। ब्राह्मणोंके फेंके हुए उच्छिष्ट स्वर्णपात्रोंसे हिमालयके पार्श्वमें सौ योजनका सुवर्णमय पर्वत बन गया था, जो आज भी देखा जा सकता है॥ १७-२३ ॥

राजा मरुत्तका जैसा यज्ञ हुआ, वैसा दूसरे किसी राजाका कभी नहीं हुआ। राजेन्द्र ! सुनो, त्रिलोकीमें वैसा यज्ञ न हुआ है न होगा। उस यज्ञकुण्डमें साक्षात्प रिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णने प्रकट होकर महात्मा राजा मरुत्तको अपने स्वरूपका दर्शन कराया था। उन श्रीहरिका दर्शन करके, उनके चरणोंमें माथा नवाकर, राजा मरुत्त दोनों हाथ जोड़े खड़े रहे; कुछ बोल न सके। उनके शरीरमें रोमाञ्च हो आया और वे प्रेमसे विह्वल हो गये। इस तरह उन प्रेमपूरित नरेशको अपने चरणोंमें प्रणत हुआ देख साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण मेघके समान गम्भीर वाणीमें बोले ॥ २४-२७ ॥

श्रीभगवान्ने कहा- राजन् ! तुमने अपने विनयसे मुझे संतुष्ट किया है। निष्कामभावसे सम्पादित उत्तम यज्ञोंद्वारा मेरी पूजा की है। महामते! तुम मुझसे कोई उत्तम वर माँग लो। मैं तुम्हें वह वरदान दूँगा, जो स्वर्गके देवताओंके लिये भी दुर्लभ है॥ २८ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन्। राजा मरुत्तने भगवान का उपर्युक्त वचन सुनकर, हाथ जोड़ परिक्रमा करके, उन परमेश्वर हरिका परम भक्तिभावसे विशद उपचारोंद्वारा पूजन किया और प्रणाम करके अत्यन्त गद्गद वाणीमें कहा ॥ २९ ॥

मरुत्त बोले- श्रीपुरुषोत्तमोत्तम ! आपके चरणारविन्दोंसे बढ़कर दूसरा कोई उत्तम वर मैं नहीं जानता। जैसे प्यास लगनेपर दुर्बुद्धि नरपशु गङ्गाजीके तटपर पहुँचकर भी प्यास बुझानेके लिये कुआँ खोदते हैं (उसी प्रकार आपके चरणारविन्दोंको पाकर दूसरे किसी वरकी इच्छा करना दुर्बुद्धिका ही परिचय देना है) तथापि हे व्रजेश्वर! आपकी आज्ञाका गौरव रखनेके लिये मैं यही वर माँगता हूँ कि मेरे हृदय- कमलसे आपका चरणारविन्द कदापि दूर न जाय; क्योंकि वही चारों पुरुषार्थों तथा अर्थ-सम्पदाओंका मूल कहा गया है॥ ३०-३१ ॥

श्रीभगवान् बोले- राजन् ! तुम्हारी निर्मल मति धन्य है। तुम्हें वरदानका लोभ दिये जानेपर भी तुम्हारी बुद्धिमें किसी कामनाका उदय नहीं हुआ है। तथापि तुम मुझसे कोई अभीष्ट वर माँग लो; क्योंकि फल देकर भक्तको सुखी किये बिना मुझे सुख नहीं मिलता ॥ ३२ ॥

मरुत्तने कहा- प्रभो! यदि मुझे अभीष्ट वर देना ही है तो इस भूतलपर वैकुण्ठलोकको स्थापित कर दीजिये और भक्तवत्सल! उसी पुरमें श्रेष्ठ भक्तजनोंके साथ मैं निवास करूँ और आप मेरी रक्षा करते रहें ॥ ३३ ॥(Vishwajitkhand chapter 1 to 5)

श्रीभगवान बोले- राजन् ! जबतक मन्वन्तरके अट्ठाईस युग बीतेंगे, तबतक तुम स्वर्गका सुख भोगकर अट्ठाईसवें द्वापरमें मेरे साथ पृथ्वीपर आकर अपने मनोरथके समुद्रको गोवत्सकी खुरीके समान बना लोगे। अर्थात् उस समय तुम्हारा यह सारा मनोरथ अनायास ही पूर्ण हो जायगा ॥ ३४॥

श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर! यों कहकर साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण वहीं अन्तर्धान हो गये। वे ही ये राजा मरुत्त उग्रसेन हुए। श्रीहरिने स्वयं उनसे राजसूय यज्ञ करवाया। मैथिलेश्वर ! त्रिलोकीमें कौन-सी ऐसी वस्तु है, जो भगवद्भक्तोंके लिये दुर्लभ हो ? नृपोत्तम! जो मनुष्य मरुत्तके इस चरित्रको सुनता है, उसे भक्तियुक्त ज्ञान और वैराग्यकी प्राप्ति होती है॥ ३५-३७ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व-संवादमें ‘श्रीमरुत्तका उपाख्यान’ नामक पहला अध्याय पूरा हुआ ॥ १ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ रघुवंशम् महाकाव्य प्रथमः सर्गः

दूसरा अध्याय

राजा उग्रसेनके राजसूय यज्ञका उपक्रम; प्रद्युम्नका दिग्विजयके लिये बीड़ा उठाना और उनका विजयाभिषेक

बहुलाश्वने पूछा- मुने ! राजा उग्रसेनने श्रीकृष्णकी सहायतासे राजसूय यज्ञका किस प्रकार विधिवत् अनुष्ठान किया, यह मुझे बताइये ॥ १ ॥

श्रीनारदजीने कहा- एक समयकी बात है- सुधर्मा सभामें श्रीकृष्णकी पूजा करके, उन्हें शीश नवाकर प्रसन्नचेता राजा उग्रसेनने दोनों हाथ जोड़कर धीरेसे कहा ॥ २ ॥

उग्रसेन बोले- भगवन् ! नारदजीके मुखसे जिसका महान् फल सुना गया है, उस राजसूय नामक यज्ञका यदि आपकी आज्ञा हो तो अनुष्ठान करूँगा। पुरुषोत्तम ! आपके चरणोंकी सेवासे पहलेके राजालोग निर्भय होकर, जगत्‌को तिनकेके तुल्य समझकर अपने मनोरथके महासागरको पार कर गये थे ॥ ३-४ ॥

श्रीभगवान्ने कहा- राजन् ! यादवेश्वर ! आपने बड़ा उत्तम निश्चय किया है। उस यज्ञसे आपकी कीर्ति तीनों लोकोंमें फैल जायगी। प्रभो! सभामें समस्त यादवोंको सब ओरसे बुलाकर पानका बीड़ा रख दीजिये और प्रतिज्ञा करवाइये। समस्त यादव मेरे अंशसे प्रकट हुए हैं। वे लोक, परलोक दोनोंको जीतनेकी इच्छा करते हैं। वे दिग्विजयके लिये यात्रा करके, शत्रुओंको जीतकर लौट आयेंगे और सम्पूर्ण दिशाओंसे आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे ॥ ५-७॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर इन्द्रके दिये सिंहासनपर विराजमान राजा उग्रसेनने अन्धक आदि यादवोंको सुधर्मा सभामें बुलवाया और पानका बीड़ा रखकर कहा ॥ ८॥

उग्रसेन बोले- जो समराङ्गणमें जम्बूद्वीपनिवासी समस्त नरेशोंको जीत सके, वह इन्द्रके समान धनुर्धर मनस्वी वीर यह पानका बीड़ा चबाये ॥ ९॥

श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर! यह सुनकर अन्य सब राजा तो चुपचाप बैठे रह गये, किंतु शम्बर- शत्रु रुक्मिणीनन्दन महात्मा प्रद्युम्रने ही सबसे पहले राजाको प्रणाम करके वह पानका बीड़ा उठा लिया ॥ १० ॥

प्रद्युम्न बोले- मैं समरभूमिमें जम्बूद्वीपनिवासी समस्त राजाओंको जीतकर और उनसे बलपूर्वक भेंट लेकर लौट आऊँगा। यदि मैं यह कार्य न कर सकूँ तो मुझे अगम्या स्त्रीके साथ गमनका, कपिला गौ, ब्राह्मण, गुरु तथा गर्भस्थ शिशुके वधका पाप लगे ॥ ११-१२॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! शम्बरारि प्रद्युम्नका यह वचन सुनकर समस्त यूथपति ‘बहुत अच्छा, बहुत अच्छा’ कहकर साधुवाद देने लगे और उन सबके सामने ही यदु-कुल-तिलक प्रद्युम्रने ही दिग्विजयका बीड़ा उठाया। यदुकुलके आचार्य गर्गजीसे यत्नपूर्वक मुहूर्त पूछकर मुनियोंद्वारा वैदिक मन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक राजाने प्रद्युम्नको स्नान करवाया। स्वयं उग्रसेनने प्रद्युम्नके भालमें तिलक लगाया तथा भेंट देकर समस्त यादवयूथपतियोंने उनको नमस्कार किया। उग्रसेनने महात्मा प्रद्युम्नको खड्ग दिया। साक्षात् महाबली बलदेवजीने कवच प्रदान किया। श्रीहरिने अपने तूणीरमेंसे खींचकर अक्षय बाणोंसे भरे हुए दो तरक्स दिये तथा अपने र्शाङ्ग- धनुषसे धनुष उत्पन्न करके उनके हाथमें दिया। वृद्ध शूरसेनने किरीट, दो दिव्य कुण्डल, मनोहर पीताम्बर तथा छत्र और चंवर दिये। महामनस्वी वसुदेवने उन्हें शतचन्द्र नामक ढाल दी। साक्षात् उद्धवने सुन्दर किञ्जल्किनी (केसरयुक्त) माला भेंट की। अक्रूरने विजय नामक दक्षिणावर्त शङ्ख दिया और मुनिवर गर्गाचार्यने श्रीकृष्ण-कवच नामक यन्त्र बाँध दिया ॥ १३-२०॥

उसी समय लोकपालों सहित देवराज इन्द्र मनमें कौतुक लिये आ गये। ब्रह्मा, शिव तथा देवर्षिगण भी वहाँ पधारे। शूलधारी शिवने प्रद्युम्रको अग्निके समान तेजस्वी त्रिशूल दिया। महाराज! ब्रह्माजीने पद्मराग नामक मस्तकमें धारण करनेयोग्य मणि दी। वरुणने पाश, शक्तिधारी स्कन्दने शत्रु-विनाशिनी शक्ति, वायुने दो दिव्य व्यजन और यमराजने यमदण्ड दिये। सूर्यने बड़ी भारी गदा, कुबेरने रत्नोंकी माला, चन्द्रमाने चन्द्र कान्तमणि तथा अग्निदेवने परिघ प्रदान किये। पृथ्वीने दो योगमयी दिव्य पादुकाएँ दीं तथा वेगशालिनी भद्रकालीने प्रद्युम्नको माला भेंट की। इन्द्रने महात्मा प्रद्युम्नको सहस्रों ध्वजोंसे सुशोभित महादिव्य रत्नमय विजय दिलानेवाला रथ प्रदान किया ॥ २१-२८ ॥(Vishwajitkhand chapter 1 to 5)

उस समय शङ्ख और दुन्दुभियाँ बजने लगीं। ताल और वीणा आदिके शब्द होने लगे। जय- जयकारकी ध्वनिसे युक्त मृदङ्ग और वेणुओंके उत्तम नादसे तथा वेद-मन्त्रोंके घोषसे वहाँका स्थान गूँज उठा। मोतियोंकी वर्षाके साथ खील और फूलोंकी वृष्टि होने लगी। देवताओंने प्रद्युम्नके ऊपर पुष्पोंकी झड़ी लगा दी ॥ २९-३० ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व-संवादमें ‘प्रद्युम्नका विजयाभिषेक’ नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ २ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री काल भैरव अष्टकम

तीसरा अध्याय

प्रद्युम्नके नेतृत्वमें दिग्विजयके लिये प्रस्थित हुई यादवोंकी गजसेना, अश्वसेना तथा योद्धाओंका वर्णन

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण, राजा उग्रसेन, बलरामजी तथा गुरु गर्गाचार्यको नमस्कार करके, उनकी आज्ञा ले, प्रद्युम्र रथपर आरुढ़ हो कुशस्थली पुरीसे बाहर निकले। फिर उनके पीछे समस्त उद्धव आदि यादव, भोजवंशी, वृष्णिवंशी, अन्धकवंशी, मधुवंशी, शूरवंशी और दशार्हवंशमें उत्पन्न वीर चले। फिर श्रीकृष्णके भाई गद आदि सब वीर श्रीकृष्णकी अनुमति ले पुत्रों और सेनाओंके साथ चल दिये। साम्ब आदि महारथी भी प्रद्युम्नके साथ गये ॥१-३॥

वे सभी यादव-वीर किरीट, कुण्डल तथा लोहेके बने हुए कवचसे अलंकृत थे। उनके साथ करोड़ोंकी संख्यामें चतुरङ्गिणी सेना थी। वे सब द्वारकापुरीसे बाहर निकले। उनके रथ मोर, हंस, गरुड, मीन और तालके चिह्नसे युक्त ध्वजोंसे सुशोभित थे, सूर्यमण्डलके समान तेजोमय थे और चञ्चल अश्व उनमें जोते गये थे। उन रथोंके कलश और शिखर सोनेके बने थे, मोतियोंकी बन्दनवारें उनकी शोभा बढ़ाती थीं। वे सभी रथ वायुवेगका अनुकरण करते थे। उनमें दिव्य चंवर डुलाये जा रहे थे। वे वीरोंके समुदायसे सुशोभित तथा सुनहरे देव-विमानोंके समान प्रकाशमान थे, ऐसे रथोंद्वारा उन मनोहर वीरोंकी बड़ी शोभा हो रही थी। उस सेनामें अत्यन्त उद्भट ऊँचे- ऊँचे गजराज थे, जिनके गण्डस्थलसे मद झर रहे थे। उनके मुखमण्डलपर चित्र-विचित्र पत्र-रचना की गयी थी। वे सुनहरे कवचसे सुशोभित थे। उनकी पीठपर लाल रंगकी झूल पड़ी थी और उनके उभय पार्श्वमें लटकाये गये घंटे बज रहे थे। नरेश्वर! उस राजसेनाके हाथी गिरिराजके शिखर जैसे जान पड़ते थे। वे भद्रजातीय गजेन्द्र विभिन्न दिशाओं में विद्यमान गजराजों-दिग्गजोंकी नकल करते दिखायी देते थे। कोई भद्र-जातीय थे, जिनकी चर्चा की गयी है। दूसरी भद्रमूग जातिके थे। कुछ हाथी विन्ध्याचल पर्वतमें उत्पन्न हुए थे और कुछ कश्मीरी थे। कितने ही मलयाचलमें उत्पन्न थे। बहुत से हिमालयमें पैदा हुए थे। कुछ मुरण्ड देशमें उत्पन्न हुए थे और कितने ही कैलास पर्वतके जंगलोंमें पैदा हुए थे। कितनोंके जन्म ऐरावत-कुलमें हुए थे, जिनके चार दाँत थे और उनकी गर्दनोंमें जंजीर (गरदनी या गिराँव) सुशोभित थीं। उनके ऊर्ध्वभागमें तीन-तीन सूँड़ें थीं और वे भूतलपर तथा आकाशमें भी चल सकते थे ॥ ४-१२॥

करोड़ों हाथी ध्वजा-पताकाओंसे सुशोभित थे। उनपर करोड़ों दुन्दुभियाँ रखी गयी थीं। उस सेनाके भीतर करोड़ोंकी संख्यामें विद्यमान वे हाथी रत्न- समूहसे मण्डित थे और महावतोंसे प्रेरित होकर चलते थे। गर्जना करते हुए, मेघोंकी घटाके समान काले तथा नीले रंगकी झुलसे आच्छादित वे गजराज उस सैन्य-सागरमें इधर-उधर मगरमच्छोंके समान शोभा पाते थे। वे अपनी सूँड़ोंसे लता झाड़ियोंको उखाड़कर सूर्यमण्डलकी ओर फेंकते, पैरोंके आघातसे धरतीको कम्पित करते और मदकी वर्षासे पर्वतोंको आर्द्र किये देते थे। वे अपने कुम्भस्थलोंकी टक्करसे दुर्ग, शैल और शिलाखण्डोंको भी गिराने तथा शत्रुसेनाको खण्डित करनेकी शक्ति रखते थे। उस यादव सेनामें ऐसे-ऐसे हाथी विद्यमान थे ॥ १३-१६ ॥(Vishwajitkhand chapter 1 to 5)

राजन् ! गजसेनाके पीछे घोड़ोंकी सेना निकली। उन घोड़ोंमें कुछ मत्स्यदेशके, कुछ कलिन्दपर्वतके, कुछ उशीनर देशके, कुछ कोसल, विदर्भ और कुरुजाङ्गल देशके थे। कोई काम्बोजीय (काबुली), कोई सृञ्जयदेशीय, कोई केकय और कुन्ति देशोंके पैदा हुए थे। कोई दरद, केरल, अङ्ग, वङ्ग और विकट जनपदोंमें पैदा हुए थे। कितने ही कोङ्कण, कोटक, कर्नाटक तथा गुजरातमें पैदा हुए घोड़े थे। कोई सौवीर देशके और कोई सिंधी थे। कितने ही पञ्चाल (पंजाब) और आबूमें उत्पन्न हुए थे। कितने ही कच्छी घोड़े थे। कुछ आनर्त, गन्धार और मालव देशके अश्व थे। कुछ महाराष्ट्रमें उत्पन्न, कुछ तैलंग देशमें पैदा हुए और कुछ दरियाई घोड़े थे ॥ १७-२० ॥

परिपूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्णकी अश्वशालाओं में जो घोड़े विद्यमान थे, वे भी सब के सब उस दिग्विजय-यात्रामें निकल पड़े। कुछ श्वेतद्वीपसे आये थे। कुछ जो वैकुण्ठ, अजितपद तथा रमावैकुण्ठ- लोकसे प्राप्त हुए अश्व थे, वे भी उस सेनाके साथ निकल गये। वे सोनेके हारोंसे सुशोभित और मोतियोंकी मालाओंसे मनोहर दिखायी देते थे। उनकी शिखामें मणि पहिनायी गयी थी, जिसकी सुदूरतक फैली हुई किरणें उन अश्वोंकी शोभा बढ़ाती थीं और उनके साज-सामान भी बहुत सुन्दर थे। चामर (कलँगी) से अलंकृत हुए उन घोड़ोंकी पूँछ, मुख और पैरोंसे प्रभा-सी छिटक रही थी। यादवोंकी उस विशाल सेनामें ऐसे-ऐसे घोड़े दृष्टिगोचर होते थे, जो वायु और मनके समान वेगशाली थे। वे अपने पैरोंसे धरतीका तो स्पर्श ही नहीं करते थे उड़ते से चलते थे। मिथिलेश्वर ! उनकी गति ऐसी हलकी थी कि वे कच्चे सूतोंपर और बुद्बुदोंपर भी चल सकते थे। पारे पर, मकड़ीके जालोंपर और पानीके फुहारोंपर भी वे निराधार चलते दिखायी देते थे। वे चञ्चल अश्व पर्वतोंकी घाटियों, नदियों, दुर्गमस्थानों, गड्ढों और ऊँचे-ऊँचे प्रासादोंको भी निरन्तर लाँघते जा रहे थे। मैथिलेन्द्र । वे इधर-उधर मोर, तीतर, क्रौञ्च (सारस), हंस और खञ्जरीटकी गतिका अनुकरण करते हुए पृथ्वीपर नाचते चलते थे। कई अश्व पाँखवाले थे। उनके शरीर दिव्य थे, कान श्यामवर्णके थे, आकृति मनोहर थी। पूँछके बाल पीले रंगके थे और शरीरकी कान्ति चन्द्रमाके समान श्वेत थी। वे भी श्रीकृष्णकी अश्वशालासे निकले थे। कुछ घोड़े उच्चैःश्रवाके कुलमें उत्पन्न हुए थे, कुछ सूर्यदेवके घोड़ोंसे पैदा हुए थे। कितने ही अश्व अश्विनीकुमारोंकी पढ़ायी हुई विद्या (चलनेकी कला) से सम्पन्न थे। कितनोंको वरुण देवताने अच्छी चालकी शिक्षा दी थी। किन्हींकी कान्ति मन्दार-पुष्पके समान थी। कुछ मनोहर अश्व चितकबरे थे। कितनोंके रंग अश्विनी- पुष्प (कनेर) के समान पीले थे। बहुत से अश्व सुनहरी तथा हरी कान्तिसे उद्भासित थे। कितने ही अश्व पद्मराग-मणिकी-सी कान्तिवाले थे। वे सभी समस्त शुभ लक्षणोंसे युक्त दिखायी देते थे। राजन् ! इनके सिवा और भी कोटि-कोटि अश्व कुशस्थली पुरीसे बाहर निकले ॥ २१-३२ ॥(Vishwajitkhand chapter 1 to 5)

सेनाके धनुर्धर वीर ऐसे थे, जिन्हें कई युद्धोंमें अपने शौर्यके लिये कीर्ति प्राप्त हो चुकी थी। उन सबने शक्ति, त्रिशूल, तलवार, गदा, कवच और पाश धारण कर रखे थे। नरेश्वर! वे शस्त्र धाराओंकी वर्षा करते हुए प्रलयकालके महासागरके समान प्रतीत होते थे। रणभूमिमें दिग्गजोंकी भाँति शत्रुओंको रौंदते और कुचलते दिखायी देते थे। राजन् ! इस प्रकार यादवोंकी वह विशाल सेना निकली, जो अत्यन्त अद्भुत थी। उसे देखकर देवता और असुर-सभी विस्मित हो उठे ॥ ३३-३५॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘यादवसेनाका प्रयाण’ नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ ३ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ रामोपासना अगस्त्य संहिता

चौथा अध्याय

सेना सहित यादव वीरों की दिग्विजय के लिए यात्रा

नारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार सेनासे घिरे हुए धनुर्धारियोंमें श्रेष्ठ वीर प्रद्युम्नसे श्रीकृष्ण- बलदेवसहित उग्रसेनने कहा ॥ १॥

उग्रसेन बोले- हे महाप्राज्ञ प्रद्युम्र ! तुम श्रीकृष्णकी कृपासे समस्त राजाओंपर विजय प्रास करके शीघ्र ही द्वारकामें लौट आओगे। इस बातको ध्यानमें रखो कि धर्मज्ञ पुरुष मतवाले, असावधान, उन्मत्त (पागल), सोये हुए, बालक, जड, नारी, शरणागत, रथहीन और भयभीत शत्रुको नहीं मारते। संकटमें पड़े हुए प्राणियोंकी पीड़ाका निवारण तथा कुमार्गमें चलनेवालोंका वध राजाके लिये परम धर्म है। इस प्रकार जो आततायी है (अर्थात् दूसरोंको विष देनेवाला, पराये घरोंमें आग लगानेवाला, क्षेत्र और नारीका अपहरण करनेवाला है), वह अवश्य वधके योग्य है। स्त्री, पुरुष या नपुंसक कोई भी क्यों न हो, जो अपने-आपको ही महत्त्व देनेवाले, अधम तथा समस्त प्राणियोंके प्रति निर्दय हैं, ऐसे लोगोंका वध करना राजाओंके लिये वध न करनेके ही बराबर है। अर्थात् दुष्टोंके वधसे राजाओंको दोष नहीं लगता। धर्मयुद्धमें शत्रुओंका वध करना प्रजापालक राजाके लिये पाप नहीं है। आदिराजा स्वायम्भुव मनुने पूर्वकालमें राजाओंसे कहा था कि ‘जो रणमें निर्भय होकर आगे पाँव बढ़ाते हुए प्राण त्याग देता है, वह सूर्य-मण्डलका भेदन करके परमधाममें जाता है। जो योद्धा क्षत्रिय होकर भी भयके कारण युद्धसे पीठ दिखाकर रणभूमिमें स्वामीको अकेला छोड़कर पलायन कर जाता है, वह महारौरव नरकमें पड़ता है। राजाका कर्तव्य है कि वह सेनाकी रक्षा करे और सेनाका कर्तव्य है कि वह राजाकी ही रक्षा करे। सूतको चाहिये कि वह संकटमें पड़े हुए रथीका प्राण बचाये और रथी सारथिकी रक्षा करे। तुम समस्त यादव सामर्थ्यशाली सेना और वाहनसे सम्पन्न हो; अतः तुम सब मिलकर प्रद्युम्नकी ही रक्षा करना और प्रद्युम्न तुमलोगोंकी रक्षा करें। गौ, ब्राह्मण, देवता, धर्म, वेद और साधुपुरुष- इस भूतलपर मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले सभी मनुष्योंके लिये सदा पूजनीय हैं। वेद भगवान् विष्णुकी वाणी हैं, ब्राह्मण उनका मुख हैं, गौएँ श्रीहरिका शरीर हैं, देवता अङ्ग हैं और साधुपुरुष साक्षात् उनके प्राण माने गये हैं। ये साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण हरि भक्तिके वशीभूत हो जिनके चित्तमें निवास करते हैं, उन वीरोंकी सदा विजय होती है* ॥ २-१३॥(Vishwajitkhand chapter 1 to 5)

श्रीनारदजी कहते हैं- नरेश्वर! समस्त यादवोंने राजा उग्रसेनके इस आदेशको सिर झुकाकर स्वीकार किया और हाथ जोड़कर प्रणाम किया। तत्पश्चात् प्रद्युम्रने मस्तक झुकाकर राजा उग्रसेन, शूर, वसुदेव, बलभद्र, श्रीकृष्ण तथा महामुनि गर्गाचार्यको प्रणाम किया। नृपेश्वर! तदनन्तर श्रीकृष्ण और बलदेवके साथ राजा उग्रसेन यदुपुरीमें चले गये और दिग्विजयकी इच्छावाले श्रीकृष्णपुत्र प्रद्युम्रने यादव-सेनाके साथ आगेके लिये प्रस्थान किया ॥ १४-१६ ॥

मैथिलेश्वर ! उस सेनाके समस्त सुवर्णमय शिविरोंसे चार योजन लम्बा राजमार्ग भी आच्छादित एवं सुशोभित होता था। सेनाके आगे विशाल वाहिनीसे युक्त महाबली कृतवर्मा थे और उनके पीछे धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ अक्रूर अपने सैन्यदलके साथ चल रहे थे। तत्पश्चात् मन्त्री उद्धव पाँच प्रतिमाओंके साथ जा रहे थे। राजन् ! उनके पीछे अठारह महारथी सौ अक्षौहिणी सेनाके साथ यात्रा कर रहे थे। उनके नाम इस प्रकार हैं- प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, दीप्तिमान्, भानु, साम्ब, मधु, बृहद्भानु, चित्रभानु, वृक, अरुण, पुष्कर, देवबाहु, श्रुतदेव, सुनन्दन, चित्रभानु, विरूप, कवि और न्यग्रोध। तत्पश्चात् श्रीकृष्णप्रेरित गद आदि समस्त वीर चल रहे थे। भोज, वृष्णि, अन्धक, मधु, शूरसेन तथा दशार्हके वंशज वीर उस सेनामें सम्मिलित थे। समस्त यादवोंकी संख्या छप्पन कोटि बतायी जाती है। नरेश्वर! उस यादव-सेनाकी गणना भला, इस भूतलपर कौन करेगा ॥ १७-२१ ॥

इस प्रकार विशाल सेनाको साथ लिये जाते हुए यादव नरेशोंके धनुषके टंकारके साथ पीटे जाते हुए नगारोंका महान् घोष भूमण्डलमें व्याप्त हो रहा था। गजेन्द्रोंका चीत्कार, हयेन्द्रोंकी हिनहिनाहट, दगती हुई भुशुण्डी (तोप) की आवाज, दृढ़ता रखनेवाले वीरोंकी गर्जना और डंकोंकी गम्भीर ध्वनियोंसे वे यादव-वीर बिजलीकी गड़गड़ाहटसे युक्त प्रचण्ड मेघोंका-सा दृश्य उपस्थित करते थे। सारा भूमण्डल ही उस सेनासे शोभित हो रहा था। पृथ्वीपर चलते हुए उन महात्मा वीरोंके तुमुलनादसे दिग्गजोंके कान भी बहरे से हो गये थे तथा शत्रुगण साहस छोड़कर तत्काल अपने दुर्गकी ओर भागने लगे थे। पानीमें रहनेवाले कच्छप ‘पृथ्वीपर यह क्या हो रहा है?’- यों कहते तथा ‘हम कहाँसे कहाँ जायें!’ यों बोलते हुए भागने लगे। वे मन-ही-मन सोचते थे- ‘हे विधाता ! यह उपद्रव कहाँ जा रहा है, जिससे समस्त लोकोंसहित यह अचला पृथ्वी भी विचलित हो गयी है?’ ॥ २२-२७ ॥(Vishwajitkhand chapter 1 to 5)

विदेहराज ! यज्ञ तो एक बहाना था। उसकी आड़ लेकर परमेश्वर श्रीहरि भूतलका भार उतार रहे थे। जो यदुकुलमें चतुर्व्यहरूप धारण करके विराजमान हैं, उन अनन्त-गुणशाली पृथ्वीपालक भगवान को नमस्कार है ॥ २८ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘प्रद्युम्नकी दिग्विजयार्थ यात्रा’ नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ ॥४॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री गायत्री कवचम्

पाँचवाँ अध्याय

यादव-सेनाकी कच्छ और कलिङ्गदेशपर विजय

श्रीबहुलाश्वने पूछा- देवर्षिशिरोमणे ! श्रीहरि- के पुत्र प्रद्युम्र क्रमशः किन किन देशोंको जीतनेके लिये गये, उनके उदार कर्मोंका मेरे समक्ष वर्णन कीजिये। अहो! भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी अपने भक्तोंपर ऐसी कृपा है, जो श्रवण और चिन्तन किये जानेपर पापीजनोंको उनके कुलसहित पवित्र कर देती है॥१-२॥

श्री नारदजी ने कहा- राजन् ! तुमने बहुत अच्छी बात पूछी है। तुम्हारी विमल बुद्धिको साधुवाद ! श्रीकृष्णके भक्तोंका चरित्र तीनों लोकोंको पवित्र कर देता है। राजन् ! वर्षाकालमें बादलोंसे बरसती हुई जलधाराओंको तथा भूमिके समस्त धूलिकणोंको कोई विद्वान् पुरुष भले ही गिन डाले, किंतु महान् श्रीहरिके गुणोंको कोई नहीं गिन सकता। रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न उस श्वेत छत्रसे सुशोभित थे, जिसकी छाया चार योजनतक दिखायी देती थी। वे इन्द्रके दिये हुए रथपर आरूढ़ हो अपनी सेनाके साथ पहले कच्छ देशोंको जीतनेके लिये उसी प्रकार गये, जैसे पूर्वकालमें भगवान् शंकरने त्रिपुरोंको जीतनेके लिये रथसे यात्रा की थी। कच्छ देशका राजा शुभ्र शिकार खेलनेके लिये निकला था। वह यादवोंकी सेनाको आयी हुई जान अपनी राजधानी हालापुरीको लौट गया ॥ ३-७॥(Vishwajitkhand chapter 1 to 5)

प्रद्युम्नकी आयी हुई सेना हाथियोंके पदाघातसे वृक्षोंको चूर-चूर करती और विभिन्न देशोंके भवनोंको गिराती हुई चल रही थी। उससे उठे हुए धूलिसमूहोंसे आकाश अन्धकाराच्छन्न हो गया और कच्छ देशके सभी निवासी भयभीत हो गये। उस समय राजा शुभ्र अत्यन्त हर्षित हो तत्काल सोनेकी मालाओंसे अलंकृत पाँच सौ हाथी, दस हजार घोड़े और बीस भार सुवर्ण लेकर सामने आया। उसने भेंट देकर पुष्पहारसे अपने दोनों हाथ बाँधकर प्रद्युम्नको प्रणाम किया। इससे प्रसन्न होकर शम्बरारि प्रद्युम्नने राजा शुभ्रको रत्नोंकी बनी हुई एक माला पुरस्कारके रूपमें दी और उसके राज्यपर पुनः उसीको प्रतिष्ठित कर दिया। राजन् ! साधुपुरुषोंका ऐसा ही स्वभाव होता है॥८-१२॥

तदनन्तर बलवान् रुक्मिणीनन्दन कलिङ्ग देशको जीतनेके लिये गये। उनके साथ फहराती पताकाओंसे सुशोभित उत्तम सेनाएँ थीं। उन्हें देखकर ऐसा लगता था, मानो मेघोंकी मण्डलीके साथ देवराज इन्द्र यात्रा कर रहे हों। कलिङ्गराज अपनी सेना तथा शक्तिशाली हाथी-सवारोंके साथ महात्मा प्रद्युम्नके सामने युद्ध करनेके लिये निकला। कलिङ्गको आया देख धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ अनिरुद्ध एकमात्र रथ लेकर यादव- सेनाके आगे खड़े हो उसकी सेनाओंके साथ युद्ध करने लगे। अपने धनुषकी बार-बार टंकार करते हुए वीर अनरुद्धिने सौ बाणोंसे कलिङ्गराजको, दस-दस बाणोंसे उसके रथियों और हाथियोंको घायल कर दिया। यह देख उनके अपने और शत्रुपक्षके सभी योद्धाओंने ‘साधु-साधु’ कहकर उन्हें शाबाशी दी। प्रद्युम्नके देखते हुए ही अनिरुद्ध युद्ध करने लगे। नरेश्वर ! उनके बाण-समूहोंसे कितने ही वीरोंके दो टुकड़े हो गये, हाथियोंके मस्तक विदीर्ण हो गये और घोड़ोंके पैर कट गये। रथोंके पहिये चूर-चूर हो गये, घोड़े और उनके साथ-साथ चलनेवाले कालके गालमें चले गये, रथी और सारथि आँधीके उखाड़े हुए वृक्षोंके समान धराशायी हो गये। मैथिल ! शत्रुकी सेना भागने लगी। अपनी सेनाको भागती देख हाथीपर बैठा हुआ कलिङ्गराज बड़े रोषसे आगे बढ़ा। उसका कवच छिन्न-भिन्न हो गया था। उसने तुरंत ही बहत्तर भार लोहेकी बनी हुई भारी गदा चलायी और अपने हाथीके द्वारा बड़े-बड़े वीरोंको गिराता हुआ बलवान् कलिङ्गराज मेघके समान गर्जना करने लगा। उस गदाके प्रहारसे किंचित् व्याकुलचित्त होकर अनिरुद्ध युद्धस्थलमें ही रथपर गिर पड़े। यह देख यादवोंके क्रोधकी सीमा न रही। उन्होंने तत्काल तीखे और चमकीले बाणोंद्वारा कलिङ्गराजको उसी प्रकार चोट पहुँचाना आरम्भ किया, जैसे मांसयुक्त बाजको कुरर पक्षी अपनी चोंचोंसे पीड़ा देते हों। कलिङ्गराजने भी उस समय कुपित हो अपने धनुषपर प्रत्यञ्चा चढ़ायी और बार-बार उसकी टंकार करते हुए अपने बाणोंसे शत्रुओंके बाणोंको चूर-चूर कर दिया ॥ १३-२४॥(Vishwajitkhand chapter 1 to 5)

मैथिलेश्वर ! तब बलदेवके छोटे भाई बलवान् गदने गदा लेकर बायें हाथसे उसके हाथीपर प्रहार किया, फिर अर्धचन्द्राकार बाणसे उसको चोट पहुँचायी। नरेश्वर। उस प्रहारसे वह हाथी छिन्न-भिन्त्र होकर इस प्रकार बिखर गया, मानो इन्द्रके वज्रकी चोटसे कोई शैलखण्ड बिखर गया हो। कलिङ्गराज हाथीसे गिर पड़ा और विशाल गदा लेकर उसने गदको मारा और गदने भी तत्काल कलिङ्गराजपर गदासे आघात किया। कलिङ्गराज और गदमें वहाँ घोर युद्ध होने लगा। उनकी दोनों गदाएँ आगकी चिनगारियाँ बिखेरती हुई चूर-चूर हो गयीं। तत्पश्चात् गदने कलिङ्गराजको पकड़कर समरभूमिमें दे मारा। जैसे गरुड़ किसी साँपको पटककर खींचता हो, उसी प्रकार गद तुरंत ही अपने हाथसे कलिङ्गराजको घसीटने लगे। गदाके प्रहारसे पीड़ित कलिङ्गराज की हड्डियाँ चूर-चूर हो रही थीं। वह महात्मा प्रद्युम्रकी शरणमें आ गया। उसने भेंट देकर कहा-‘ आप देवताओंके भी देवता परमेश्वर हैं। कुपित हुए दण्डधर यमराजकी भाँति आपके आक्रमणको पृथ्वीपर कौन सह सकता है? आपको नमस्कार है॥ २५-३१ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘कच्छ और कलिङ्गदेशपर विजय’ नामक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५॥

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