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Garga Samhit Vishwajitkhand chapter 21 to 25

Garga Samhita
Garga Samhit Vishwajitkhand chapter 21 to 25

॥ श्रीहरिः ॥

ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते

श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः

Garga Samhita Vishwajitkhand Chapter 21 to 25 |
श्री गर्ग संहिता के विश्वजीतखण्ड अध्याय 21 से 25 तक

श्री गर्ग संहिता में विश्वजीतखण्ड (Vishwajitkhand chapter 21 to 25) के इक्कीसवाँ अध्याय में कौरव तथा यादव वीरों का घमासान युद्ध; बलराम और श्रीकृष्ण का प्रकट होकर उनमें मेल कराने का वर्णन है। बाईसवाँ अध्याय में अर्जुनसहित प्रद्युम्न का कालयवन पुत्र चण्ड को जीतकर भारतवर्ष के बाहर पूर्वोत्तर दिशा की ओर प्रस्थान करने का वर्णन कहा गया है। तेईसवाँ अध्याय में यादव सेना का बाणासुर से भेंट लेकर अलकापुरी को प्रस्थान तथा यादवों और यक्षों का युद्ध वर्णन है। चौबीसवाँ अध्याय में यादव सेना और यक्ष सेना का घोर युद्ध और पचीसवाँ अध्याय में प्रद्युम्न का एक युक्ति के द्वारा गणेशजी को रणभूमि से हटाकर गुह्यकसेना पर विजय प्राप्त करना और कुबेर का उनके लिये बहुत सी भेंट सामग्री देकर उनकी स्तुति करना; फिर प्राग्ज्योतिषपुर में भेंट लेकर प्रद्युम्न का विरोधी वानर द्विविद को किष्किन्धा में फेंक देने का वर्णन कहा गया है।

यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक

इक्कीसवाँ अध्याय

कौरव तथा यादव वीरोंका घमासान युद्ध; बलराम और
श्रीकृष्णका प्रकट होकर उनमें मेल कराना

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! दुर्योधनके चले जानेपर वहाँ बड़ा भारी हाहाकार मचा। तब गङ्गानन्दन देवव्रत भीष्म तुरंत वहाँ आ पहुँचे और उन यादवोंके देखते-देखते बारंबार धनुष टंकारते हुए यादव-सेनाको उसी प्रकार भस्म करने लगे, जैसे प्रज्वलित दावानल किसी वनको दग्ध कर देता है॥१-२॥

भीष्मजी समस्त धर्मधारियोंमें श्रेष्ठ, महान् भगवद्भक्त, विद्वान् और वीर-समुदायके अग्रगण्य थे। उन्होंने युद्धमें परशुरामजीके भी छक्के छुड़ा दिये थे। उनके मस्तकपर शिरस्त्राण एवं मुकुट शोभा पाता था। उनकी अङ्ग-कान्ति गौर थी। दाढ़ी-मूँछके बाल सफेद हो गये थे। वे कैरवोंके पितामह थे तो भी बलपूर्वक युद्धभूमिमें विचरते हुए सोलह वर्षके नवयुवकके समान जान पड़ते थे। उन्होंने अपने बाणोंसे अनिरुद्ध- की विशाल सेनाको मार गिराया। हाथियोंके मस्तक कट गये, घोड़ोंकी गर्दनें उतर गयीं। हाथमें तलवार लिये पैदल योद्धा बाणोंकी मार खाकर दो-दो टुकड़ोंमें विभक्त हो गये। रथोंके सारथि, घोड़ों और रथियोंको मारकर उन रथोंको भी भीष्मने चूर्ण कर दिया। जिन राजकुमारोंके पैर कट गये थे, वे ऊर्ध्वमुख होनेपर भी अधोमुख हो गये। हाथमें खड्ग और धनुष लिये योद्धा बाँहें कट जानेके कारण धराशायी हो गये। कुछ सैनिकोंके कवच छिन्न-भिन्न हो गये और वे प्राणशून्य होकर भूमिपर गिर पड़े। वहाँ गिरे हुए स्वर्णभूषित वीरों, घोड़ों, रथों और हाथियोंसे वह युद्धमण्डल कटे हुए वृक्षोंसे वनकी भाँति शोभा पा रहा था। राजन् । वह रणभूमि मूर्तिमती महामारीके समान प्रतीत होती थो। अस्त्र-शस्त्र उसके दाँत, बाण केश, ध्वजा- पताका उसके वस्त्र और हाथी उसके स्तन जान पड़ते थे। रथोंके पहिये उसके कानोंके कुण्डल से प्रतीत होते थे ॥ ३-९ ॥(Vishwajitkhand chapter 21 to 25)

वहाँ रक्त स्रावसे प्रकट हुई नदी तीव्र वेगसे प्रवाहित होने लगी। उसमें रथ, घोड़े और मनुष्य भी वह चले। वह रक्त-सरिता वैतरणीके समान मनुष्योंके लिये अत्यन्त दुर्गम हो गयी थी। कूष्माण्ड, उन्माद और बैतालगण भैरवनाद करते हुए आये और रुद्रकी माला बनानेके लिये वहाँसे नरमुण्डोंका संग्रह करने लगे। अपनी सेनाको रणभूमिमें गिरी देख महान् धनुर्धर शिरोमणि अनिरुद्ध बहुत बड़ी पताकावाले रथपर आरूढ़ हो, भीष्मका सामना करनेके लिये आगे बढ़े। राजन् ! प्रलयकालके महासागरसे उठी हुई ऊँची-ऊँची भँवरों और तरंगोंके भयानक घातप्रतिघात- से प्रकट हुई ध्वनिके समान गम्भीर नाद करनेवाली भीष्मके धनुषकी प्रत्यञ्चाको प्रद्युग्रनन्दन अनिरुद्धने एक ही बाणसे काट डाला ठीक उसी तरह, जैसे गरुडने अपनी तीखी चोंचसे किसी नागिनके दो टुकड़े कर दिये हों। तब मनस्वी भीष्मने दूसरा धनुष लेकर उसपर प्रत्यञ्ज्ञा चढ़ायी और युद्धभूमिमें सबके देखते- देखते उसपर ब्रह्मास्त्रका संधान किया। उससे बड़ा प्रचण्ड तेज प्रकट हुआ। यह देख माधव अनिरुद्धने भी अपनी सेनाकी रक्षाके लिये स्वयं भी ब्रह्मास्त्रका संधान किया। वे दोनों ब्रह्मास्त्र बारह सूर्योके समान तेजस्वी होकर परस्पर युद्ध करने लगे। तब अनिरुद्धने तीनों लोकोंका दहन करनेमें समर्थ उन दोनों अस्त्रोंका उपसंहार कर दिया। साथ ही उन यदुकुलतिलक अनिरुद्धने गङ्गानन्दन भीष्मके विद्युत् के समान दीप्तिमान् धनुषको भी सायकोंद्वारा उसी तरह काट डाला, जैसे सूर्य अपनी किरणोंसे कुहासेको नष्ट कर देता है। तब भीष्मने लाख भारकी बनी हुई सुदृढ़ गदा हाथमें लेकर उसे अनिरुद्धपर चलाया और सिंहके समान गर्जना की। जैसे गरुड किसी नागिनको पंजेसे पकड़ ले, उसी प्रकार साक्षात् भगवान् अनिरुद्धने भीष्मकी गदाको बायें हाथसे पकड़ लिया और दाहिने हाथसे अपनी गदा उनकी छातीपर दे मारी। उस गदाके प्रहारसे व्यथित हो गङ्गानन्दन भीष्म मूच्छित होकर रथसे गिर पड़े। उस युद्धमण्डलमें वे आकाशसे गिरे हुए सूर्यके समान जान पड़ते थे। तब वहीं खड़े हुए महात्मा अनिरुद्धपर कृपाचार्यने सहसा शक्तिका प्रहार किया। उस समय रोषसे उनके अधर फड़क रहे थे। नरेश्वर! उस शक्तिको कृष्णपुत्र दीप्तिमान्ने (अनिरुद्धतक पहुँचनेसे पहले) मार्गमें ही अपनी तीखी धारवाली तलवारसे उसी प्रकार काट दिया, जैसे किसीने कटु वचनसे मित्रता खण्डित कर दी हो। तदनन्तर रोषसे भरे हुए महाबाहु द्रोणाचार्यने बारंबार धनुषकी टंकार करके भानुके ऊपर पर्वतास्त्रका प्रयोग किया। शत्रुकी सेनाको चूर्ण करते हुए बड़े-बड़े पर्वत आकाशसे गिरने लगे। राजेन्द्र ! उन पर्वतोंके गिरनेसे यादव सेनामें महान् हाहाकार मच गया ॥ १०-२५ ॥

तब श्रीकृष्णपुत्र भानुने वायव्यास्त्रका प्रयोग किया। उससे प्रचण्ड आँधी प्रकट हुई, जिससे सारे पर्वत रणभूमिसे उड़ गये। उसी अवसरपर कुपित हुए बाह्रीकने आग्नेयास्त्रका प्रयोग किया, जिससे दावानलसे विशाल वनकी भाँति शत्रुकी सेना भस्मसात् होने लगी। यह देख उस रणभूमिमें जाम्बवतीनन्दन साम्बने पर्जन्यास्त्रका प्रयोग किया, जिसके द्वारा ज्ञानसे अहंकारकी भाँति वह अग्नि शान्त हो गयी। तब रोषसे भरे हुए कर्णने मधुको छोड़कर साम्बके ऊपर बीस बाण मारे। फिर वह बलवान् वीर मेघके समान गर्जना करने लगा। उसके बाणोंसे आहत हो रथसहित साम्ब दो घड़ीतक चक्कर काटते रहे। फिर मन-ही-मन कुछ व्याकुल हो एक कोस दूर जा गिरे। फिर तो उन्होंने रथ छोड़ दिया और गदा लेकर वे रणभूमिमें आ पहुँचे। उस गदाके द्वारा जाम्बवतीकुमार साम्बने कर्णको गहरी चोट पहुँचायी। राजन्। उस चोटसे पीड़ित हो महाबली वीर कर्ण पृथ्वीपर गिर पड़ा और समराङ्गणमें मूच्छित हो गया। साम्ब भी अपना धनुष लेकर दूसरे रथपर बड़े वेगसे जा चढ़े। उन्होंने बीस बाणोंसे शूलको और पाँच बाणोंसे सोमदत्तको घायल कर दिया। राजन् ! इतना ही नहीं, उन्होंने दस बाणोंसे द्रोणपुत्र अश्वत्थामाको, सोलह बाणोंसे धौम्यको, दस बाणोंसे लक्ष्मणको, पाँचसे शकुनिको, बीस सायकोंसे दुश्शासनको, बीससे ही संजयको, सौ बाणोंसे भूरिश्रवाको तथा सौ तीखे वाणोंसे यज्ञकेतुको भी समराङ्गणमें घायल कर दिया। फिर बलवान् वीर साम्ब मेघके समान गर्जना करने लगे। तदनन्तर साम्बने दस-दस बाणोंसे सारथियोंको, एक एकसे हाथियों और घोड़ोंको और पाँच-पाँच बाणोंसे अन्य वीरोंको चोट पहुँचायी। जाम्बवतीकुमार साम्बका वह हस्तलाघव देखकर अपने एवं शत्रुपक्ष के सभी सैनिक अत्यन्त विस्मित हो गये। इसी समय भीष्मने उठकर अपना उत्तम धनुष हाथमें लिया और दस बाण मारकर साम्बके श्रेष्ठ कोदण्डको खण्डित कर दिया। तदनन्तर महाबली वीर भीष्म, द्रोणाचार्य तथा कर्ण- तीनोंने यादव सेनाको तत्काल सायकोंद्वारा घायल करना उसी प्रकार आरम्भ किया, जैसे तीनों गुण उद्रिक्त होनेपर ज्ञानको नष्ट कर देते हैं॥ २६-३९ ॥

मानद । दुर्योधन रथपर आरूढ़ हो पुनः युद्धके लिये आया। उसके साथ दस अक्षौहिणी सेना थी, जिसका महान् कोलाहल छा रहा था। मिथिलेश्वर ! उस समय पुराणपुरुष देवेश्वर बलराम और श्रीकृष्ण वहाँ प्रकट हो गये। बलरामके रथपर तालध्वज और श्रीकृष्णके रथपर गरुडध्वज शोभा दे रहे थे। वे दोनों भाई अपनी दिव्यकान्तिसे सम्पूर्ण दिशाओंको देदीप्यमान कर रहे थे। उस समय देवता जय-जयकार कर उठे। मुख्य मुख्य गन्धर्व मनोहर गान करने लगे। देवताओंके आनक और दुन्दुभियोंकी ध्वनि होने लगी तथा देवाङ्गनाएँ खोल (लावा) और फूल बरसाने लगीं। उसी समय यदुवंशी वीर परमेश्वर बलराम और श्रीकृष्णके चरणोंमें प्रणाम करने लगे। दुर्योधन आदि कौरव सब ओर अस्त्र-शस्त्र रखकर उन्हें उत्तम बलि अर्पित करने लगे। सभी प्रसन्न थे और सबके हाथ जुड़े हुए थे। परमेश्वर श्रीहरिने अपने मदोन्मत्त प्रद्युम्न आदि पुत्रोंको डाँट बतायी और भीष्म आदि कौरवोंको प्रणाम करके, दुर्योधनसे मिलकर वे दोनों इस प्रकार बोले ॥ ४०-४५ ॥(Vishwajitkhand chapter 21 to 25)

श्रीबलराम और श्रीकृष्णने कहा- राजन् ! इन बालबुद्धिवाले यादवोंने जो कुछ किया है, उसके लिये क्षमा कर दो; अपने मनमें दुःख न मानो। नृपेश्वर । इन लोगोंने जो भी कठोर बात कही है, वह हम दोनोंके प्रति कही गयी मान लो। राजन् ! इस भूतलपर यादव और कौरवोंमें कदापि किंचिन्मात्र भी कलह नहीं होना चाहिये। ये सब परस्पर सम्बन्धी और ज्ञाति हैं। हमलोग धोती और उत्तरीयकी भाँति परस्पर एक- दूसरेका प्रिय करनेवाले हैं ॥ ४६-४७ ॥

नारदजी कहते हैं- मैथिलेश्वर! कौरवोंसे निरन्तर पूजित और सेवित हो देवेश्वर बलराम और श्रीकृष्ण प्रद्युम्न आदि यादवोंके साथ वहाँ अत्यन्त सुशोभित हुए ॥ ४८ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘यादव और कौरवोंमें मेल’ नामक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२१॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री राम चालीसा

बाईसवाँ अध्याय

अर्जुनसहित प्रद्युम्नका कालयवन-पुत्र चण्डको जीतकर भारतवर्षके
बाहर पूर्वोत्तर दिशाकी ओर प्रस्थान

नारदजी कहते हैं- राजन् ! भाइयों तथा अन्यान्य कुरुवंशियोंके साथ दुर्योधनको शान्त करके यदुकुलतिलक बलराम और श्रीकृष्ण पाण्डवॉसे मिलनेके लिये इन्द्रप्रस्थको गये। तब अजातशत्रु राजा युधिष्ठिर अपने भाइयों तथा स्वजनोंके साथ श्रीकृष्णकी अगवानीके लिये इन्द्रप्रस्थसे बाहर आये। उनके साथ इन्द्रप्रस्थके अन्यान्य निवासी भी शङ्खध्वनि, दुन्दुभिनाद, वेदमन्त्रोंका घोष तथा वेणुवादनपूर्वक पुष्पवर्षा करते हुए आये। बलराम और श्रीकृष्णको राजा युधिष्ठिरने दोनों भुजाओंसे खींचकर हृदयसे लगा लिया और परमानन्दका अनुभव किया। वे योगीकी भाँति आनन्दमें डूब गये। प्रद्युम्न आदि श्रीकृष्णकुमारोंने भी श्रीयुधिष्ठिरको प्रणाम किया। युधिष्ठिरने उन सबको दोनों हाथोंसे पकड़कर आशीर्वाद दिया। श्रीहरिने स्वयं अर्जुन और भीमसेनको हृदयसे लगाकर उनका कुशल-समाचार पूछा तथा नकुल और सहदेवने उनके चरणोंमें वन्दना की ॥१-५॥

श्रीकृष्ण और बलराम साक्षात् परिपूर्णतम श्रीहरि हैं, असंख्य ब्रह्माण्डोंके पालक हैं। भगवद्भक्त युधिष्ठिरने उन दोनों भाइयोंका पूर्णतर समादर किया। उन्होंने यदुकुलके मुख्य वीर प्रद्युम्न आदिको सैनिकोंसहित दिग्विजयके लिये विधिपूर्वक भेजा और सारी पृथ्वीको जीतनेके लिये आज्ञा दी। फिर वे दोनों भक्तवत्सल सर्वेश्वर बन्धु भाइयोंसहित धर्मराज युधिष्ठिर से मिलकर द्वारकाको चले गये। राजन् ! गौर और श्याम वर्णवाले दोनों भाई, बलराम और श्रीकृष्ण सबके मनको हर लेनेवाले हैं। नरेश्वर। इस प्रकार मैंने तुमसे श्रीकृष्णका चरित्र कहा। यह मनुष्योंको चारों पदार्थ देनेवाला है। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ६-९३ ॥ ॥

बहुलाश्वने पूछा- मुने ! बलरामसहित पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण जब कुशस्थलीको चले गये, तब साक्षात् भगवान् प्रद्युम्र हरिने क्या किया ? उनका अद्भुत चरित्र श्रवण करनेयोग्य तथा मनोहर है। जो जीवन्मुक्त ज्ञानी भक्त हैं, उनके लिये भी भगवच्चरित्र सदा श्रवणीय है, फिर जिज्ञासु भक्तोंके लिये तो कहना ही क्या। भगवान का चरित्र अर्थार्थी भक्तोंको सदा अर्थ देनेवाला और आर्त्त भक्तोंकी पीड़ाको शान्त करनेवाला है। इतना ही नहीं, स्थावर आदि चार प्रकारके जो जीव- समुदाय हैं, उन सबके पापोंका वह नाश करनेवाला है। दिग्विजयके इच्छुक श्रीहरिकुमार प्रद्युम्न किस प्रकार सम्पूर्ण दिशाओंपर विजय प्राप्त करके पुनः सेनासहित द्वारकामें लौटे, यह सारा वृत्तान्त आप मुझे ठीक-ठीक बतलाइये। देवर्षे! आप ब्रह्माजीके पुत्र और साक्षात् सर्वदर्शी भगवान् हैं, भगवान् श्रीकृष्णके मन हैं; अतः पहले श्रीहरिके मनस्वरूप आपको मेरा प्रणाम है॥ १०-१४ ॥(Vishwajitkhand chapter 21 to 25)

नारदजीने कहा- राजन् ! तुमने बहुत अच्छी बात पूछी। तुम भगवत्प्रभावके ज्ञाता होनेके कारण धन्य हो। इस भूतलपर श्रीकृष्णचरित्रको सुननेके पात्र (सुयोग्य अधिकारी) तुम्हीं हो। नरेश्वर! श्रीकृष्णके चले जानेपर अजातशत्रु राजा युधिष्ठिरने शत्रुओंसे प्रद्युम्नकी रक्षा करनेके लिये स्नेहवश उनके साथ शीघ्र ही अपने भाई अर्जुनको भी जानेकी आज्ञा दे दी; क्योंकि उनके मनमें बाहरी शत्रुओंसे प्रद्युम्न आदिपर भय आनेको आशङ्का हो गयी थी ॥ १५-१६ ॥

मिथिलेश्वर ! तदनन्तर अर्जुनके साथ यदुश्रेष्ठ प्रद्युम्न विशाल सेनाको अपने साथ लिये तत्काल त्रिगर्त जनपदमें जा पहुँचे। त्रिगर्तके राजा धनुर्धर सुशर्माने शङ्कित होकर महामना प्रद्युम्रको भेंट दी। फिर मत्स्य देशके राजा विराटसे पूजित होकर, यादवेश्वर प्रद्युम्रने सरस्वती नदीमें स्नान करके कुरुक्षेत्र तीर्थका दर्शन किया। फिर पृथूदक बिन्दु सरोवर त्रितकूप और सुदर्शन आदि तीर्थोंमें होते हुए, सरस्वतीमें स्त्रान करके, वहाँ अनेक प्रकारके दान दे वे आगे बढ़ गये। कौशाम्बी नगरीमें पहुँचनेपर सारस्वत प्रदेशके राजा कुशाम्बने प्रद्युम्रको भेंट नहीं दो; क्योंकि वे दुर्योधनके वशीभूत होनेके कारण उसीके पिछलग्गू थे। तब प्रद्युम्नकी आज्ञा पाकर चारुदेष्ण, सुदेष्णपराक्रमी चारुदेह, सुचारु, चारुगुप्त, भद्रचारु, चारुचन्द्र, विचारु और दसवें चारु-इन दसों रुक्मिणीपुत्रोंने सिंधी घोड़ोंपर सवार हो, सबके देखते-देखते कौशाम्बी नगरीको चारों ओरसे घेर लिया। उनके बाणोंसे राजधानीके महलोंके शिखर, ध्वज, कलश और तोलिका आदि चूर-चूर होकर उसी प्रकार गिरने लगे, जैसे वानरोंके प्रहारसे लङ्काकी अट्टालिकाएँ टूट टूटकर गिरने लगी थीं। रुक्मिणीकुमारोंने जब इस प्रकार बाणोंद्वारा अन्धकार फैला दिया, तब राजा कुशाम्ब हाथमें बहुत-सी भेंट-सामग्री लिये नगरसे बाहर निकले। उन्होंने हाथ जोड़कर शम्बरारिको नमस्कार किया और बहुत-सी भेंट-सामग्री देकर भयार्त एवं भयविह्वल राजाने नगरीकी रक्षा की। उसी समय सौवीरराज सुदेव, आभीरराज विचित्र, सिन्धुपति चित्राङ्गद, कश्मीरराज महौजा, जाङ्गलदेशाधिपति सुमेरु, लाक्षेश्वर धर्मपति और गन्धर्वराज विड़ौजा- इन सबने भी, जो दुर्योधनके वशवर्ती थे, भयके कारण बलि अर्पित करके अत्यन्त विनीत होकर कृष्ण-कुमार प्रद्युम्नको प्रणाम किया। तदनन्तर अपनी सेनासे घिरे हुए महाबाहु प्रद्युम्न उद्भट वीर कल्किके समान अर्बुद और म्लेच्छ देशोंपर विजय पानेके लिये प्रस्तुत हुए ॥ १७-३०॥(Vishwajitkhand chapter 21 to 25)

कालयवनका महाबली पुत्र यवनेन्द्र चण्ड प्रद्युम्नका आगमन सुनकर अत्यन्त क्रोधसे भर गया। ‘आज मैं अपने पिताकी हत्या करनेवाले शत्रुके पुत्रका वध करके बापका बदला चुका लूँगा’ मन-ही-मन ऐसा विचार करके दस करोड़ म्लेच्छोंकी सेना लिये, मदकी धारा बहाने और गर्जनेवाले ऊँचे गजराजपर आरूढ़ हो, आँखें लाल करके, वह महात्मा प्रद्युम्नके सामने निकला। चण्डकी प्रेरणासे तीखे बाणोंकी वर्षा करनेवाली उस विशाल सेनाको आयी देख प्रद्युम्न अपने सैनिकोंसे बोले ॥ ३१-३४ ॥

प्रद्युम्नने कहा- जो शत्रुसेनाका संहार करके शिरस्त्राणसहित चण्डका मस्तक काटकर यहाँ ला देगा, उस वीरको मैं अपनी सेनाका सेनापति बनाऊँगा ॥ ३५ ॥

नारदजी कहते हैं- राजन् । जब प्रद्युम्न पास ही इस प्रकार कह रहे थे, तब गाण्डीवधारी कपिध्वज अर्जुनने बारंबार धनुषकी टंकार करते हुए अकेले ही शत्रुकी सेनामें प्रवेश किया। रणदुर्मद गाण्डीवधारीने गाण्डीव धनुषसे छूटे हुए विशिखोंद्वारा सामने खड़े हुए वीरों, रथों, हाथियों और घोड़ोंके दो-दो टुकड़े कर डाले। हाथोंमें शक्ति, खड्ग तथा ऋष्टि (दुधारा खाँड़ा) लिये कितने ही शत्रु-सैनिक भुजाएँ कट जानेके कारण पृथ्वीपर गिर पड़े। कितने ही कवचधारी वीरोंके पैर कट गये और नख विदीर्ण हो गये। जिनके हौदे छिन्न-भिन्न हो गये और शरीर घायल हो गये थे, ऐसे हाथी युद्धभूमिमें इधर-उधर भागने लगे। उनके घंटे कहीं गिर गये और हौदे कहीं जा पड़े। वे अपनी सूँड़ोंसे हाथियोंको भी गिराते हुए भाग चले। अर्जुनके बाणोंसे दो-दो टूक हुए हाथियों और घोड़ोंसे भरा हुआ वह समराङ्गण हँसुओंसे काटे गये कुम्हड़ोंके टुकड़ोंसे व्याप्त हुए खेत-सा जान पड़ता था। फिर तो म्लेच्छ सैनिक अपने-अपने हथियार फेंक, समराङ्गण छोड़कर जोर-जोरसे भागने लगे ठीक उसी तरह जैसे सूर्यकी किरणोंसे विदीर्ण हुए कुहासोंके समुदाय नष्ट हो जाते हैं॥ ३६-४१ ॥

मैथिलेन्द्र । हाथीपर बैठे हुए म्लेच्छराज चण्डने एक शक्ति घुमाकर अर्जुनके ऊपर फेंकी और सिंहके समान गर्जना की। राजेन्द्र ! बलवान् श्रीकृष्ण-सखा अर्जुनने विद्युल्लताके समान अपने ऊपर आती हुई उस शक्तिके गाण्डीव-मुक्त बाणोंद्वारा खेल-खेलमें ही सौ टुकड़े कर डाले। महाम्लेच्छ चण्ड रोषसे भरकर जबतक धनुष उठाये, तबतक ही गाण्डीवधारीने लीलापूर्वक एक बाण मारकर उसके उस धनुषको काट दिया। तब प्रचण्ड-पराक्रमी चण्डने दूसरा धनुष हाथमें लेकर प्रलयकालके महासागरकी बड़ी-बड़ी भँवरोंके टकरानेकी भाँति गम्भीर नाद करनेवाली अर्जुनकी प्रत्यञ्चाको उसी तरह काट दिया, जैसे गरुड किसी सर्पिणीके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। तब अर्जुनने ढालके साथ चमकती हुई अपनी तलवार ले ली और उससे चण्डके गजराजकी कुम्भस्थलीपर इस प्रकार प्रहार किया, मानो इन्द्रने पर्वतपर वज्र मार दिया हो। अग्निदेवके दिये हुए उस खड्गसे उस हाथीका कुम्भ- स्थल फट गया। उसने चिग्धाड़ करते हुए धरतीपर घुटने टेक दिये। फिर वह अत्यन्त मूच्छित हो गया। तब चण्डने भी तलवार लेकर पाण्डुनन्दन अर्जुनपर प्रहार किया; परंतु कुरुकुल-तिलक अर्जुनने उसके खड्गको ढालपर रोककर उसके ऊपर अपनी तलवार- से वार किया। इससे चण्डका शिरस्त्राणसहित मस्तक धड़से अलग हो गया। तदनन्तर अर्जुनने अपने धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ायी और चण्डके मस्तकको बाणपर रखकर उसे धनुषपर खींचकर चलाया और प्रद्युम्नकी सेनामें उसे फेंक दिया ॥ ४२-५० ॥(Vishwajitkhand chapter 21 to 25)

उस समय जय-जय कारके साथ दुन्दुभि बजने लगी और देवतालोग अर्जुनके ऊपर फूलोंकी वर्षा करने लगे। फिर श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्नने उसी क्षण विजयध्वजसे विभूषित अपनी सेनाका अर्जुन- को सेनापति बना दिया। उस समय यादव-सेनाके मुख्य वीरोंने हाथमें श्वेत चैवर आदि लेकर कपिध्वज अर्जुनके ऊपर हवा की। फिर तो वेगशाली अर्बुदाधीशने प्रद्युग्रकी शरण ली। उसने डरते हुए हाथ जोड़कर नमस्कार किया और भेंट अर्पित की। मोरङ्गके राजा मन्दहासने भयभीत हो महात्मा प्रद्युम्नको दस लाख घोड़े देकर नमस्कार किया। इस प्रकार भरतखण्डपर विजय पाकर यदुकुल-तिलक श्रीकृष्णकुमारने हिमालयको दक्षिण दिशामें करके पूर्वोत्तर दिशाकी और प्रस्थान किया ॥ ५१-५५॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘बहुदिग्विजय’ नामक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २२॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री बटुक भैरव स्तोत्र

तेईसवाँ अध्याय

यादव-सेनाका बाणासुरसे भेंट लेकर अलकापुरीको प्रस्थान
तथा यादवों और यक्षोंका युद्ध

नारदजी कहते हैं- राजन् ! नदों, नदियों और समुद्रोंने भी सेनासहित महात्मा प्रद्युम्नको उनके तेजसे धर्षित हो रथ निकलनेके लिये मार्ग दे दिया ॥ १ ॥

कैलास पर्वतके पार्श्वभागमें बाणासुरका निवास- स्थान शोणितपुर था। वहाँ श्रेष्ठ मानव-वीर यादवेश्वर प्रद्युम्न गये। यदुवंशियोंको पुनः आया देख, बाणासुरको बड़ा क्रोध हुआ। उसने बारह अक्षौहिणी सेनाके द्वारा उनके साथ युद्ध करनेका विचार किया। इसी समय त्रिशूलधारी साक्षात् पुराणपुरुष महेश्वरदेव नन्दी वृषभपर आरूढ़ हो हिमाचलपुत्री उमाके साथ बाणासुरके पास आये और बोले ॥ २-४॥

शिवने कहा- असुरराज ! साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति, गोलोकके स्वामी तथा परात्पर परमात्मा हैं। हम तीनों ब्रह्मा, विष्णु और शिव उन्हींकी कला हैं और उनकी आज्ञाको सदा अपने मस्तकपर धारण करते हैं; फिर तुम-जैसे सामान्य कोटिके जीवोंकी तो बात ही क्या। उन्हींके पौत्र अनिरुद्धको तुमने बाँध लिया था, जिसके कारण उन्होंने अपने प्रभावसे संग्राममें तुम्हारी भुजाएँ काट डाली थीं। क्या उन श्रीहरिको तुम नहीं जानते? (उन्हें इतनी जल्दी भूल गये ?) अतः तुम दानवोंके लिये श्रीहरिके पुत्र पूजनीय हैं। अनिरुद्ध तो तुम्हारे दामाद ही हैं; अतः तुम्हारे लिये उनके पूजनीय होनेमें तो कोई संशय नहीं है। असुरपुंगव! मैं तुम्हें युद्धके लिये आज्ञा नहीं देता। यदि नहीं मानोगे तो अपने बलसे युद्ध करो; परंतु तुम्हारे मनका युद्ध-विषयक संकल्प मुझे तो व्यर्थ ही दिखायी देता है॥५-९॥

नारदजी कहते हैं- राजन् । भगवान् शिवके समझानेपर बाणासुरने अनिरुद्धको बुलाकर उनका पूजन किया और दहेज दिया। फिर सेनासहित प्रद्युम्र- का बन्धुके समान सादर पूजन करके महाबाहु बाणने उन महात्माको दस हजार हाथी, पाँच लाख रथ तथा एक करोड़ घोड़े भेंटमें दिये ॥ १०-११ ॥(Vishwajitkhand chapter 21 to 25)

महाराज ! तदनन्तर धनुर्धर श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्र अपने यादव सैनिकोंके साथ गुह्यकों (यक्षों) से मण्डित अलकापुरीको गये। नन्दा और अलक नन्दा-ये दो गङ्गाएँ परिखा (खाई) की भाँति उस पुरीको घेरे हुए हैं। वहाँ वे दोनों नदियाँ रत्नोंकी बनी हुई सीढ़ियोंसे युक्त हैं। वह पुरी यक्षवधुओंसे सुशोभित है। विद्याधरों और किंनरोंकी सुन्दरियाँ सब ओरसे उसकी मनोहरताको बढ़ाती हैं। दिव्य नागकन्याओंसे सुशोभित भोगवती पुरीकी भाँति गुह्यककन्याओंसे अलकापुरीकी शोभा हो रही थी। नरेश्वर। कुबेरने प्रद्युम्नको भेंट नहीं दी। यद्यपि वे श्रीहरिके प्रभावको जानते थे, तथापि उन्होंने भेंट देना स्वीकार नहीं किया। अहो! मायाका बल कितना अद्भुत है। ‘मैं लोकपाल हूँ’, इस अज्ञानसे वे सदा मोहित रहते थे। अतः बलवान् यक्षोंसे प्रेरित होकर उन्होंने युद्ध करनेका ही विचार किया; क्योंकि निर्धनको यदि धन मिल जाता है तो वह सारे जगत्को तृणवत् मानने लगता है। फिर जो भूतलपर नवनिधियोंके अधिपति हों, उनके अहंकारका क्या वर्णन हो सकता है? मानद! उसी समय कुबेरका भेजा हुआ दूत हेममुकुट प्रद्युम्नके पास आकर सभामें मस्तक झुकाकर उनसे इस प्रकार बोला ॥ १२-१८३ ॥

हेममुकुटने कहा- राजन् । यदुकुल-तिलक ! अलकापुरीके स्वामी धनके अधीश्वर लोकपाल राजराज कुबेरने जो संदेश दिया है, उसे आप सुनिये – “जैसे स्वर्गलोकमें प्रभु इन्द्र देवताओंके राजा कहे गये हैं, उसी प्रकार भूतलपर एकमात्र मैं ही राजाओंका महान् अधिराज होनेके कारण ‘राजराज’ कहा गया हूँ। यद्यपि मेरा धर्म (शील स्वभाव) मनुष्योंके ही समान है, तथापि भूतलपर राजाधिराोंने सदा मेरा पूजन किया है। इसलिये उग्रसेनको ही मुझे उत्तम भेंट देनी चाहिये (मैं भेंट लेनेका अधिकारी हूँ, देनेका नहीं)। इसलिये मैं यदुराज उग्रसेनको कदापि भेंट नहीं दूँगा। यदि तुम नहीं मानोगे तो युद्ध करूँगा, इसमें संशय नहीं ” ॥१९-२२॥

नारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! दूतकी यह बात सुनकर भगवान् प्रद्युम्न हरि कुपित हो उठे। रोषसे उनकी आँखें लाल हो गयीं और होठ फड़कने लगे ॥ २३ ॥(Vishwajitkhand chapter 21 to 25)

प्रद्युम्न बोले- वृष्णिवंशियोंके स्वामी उग्रसेन राजराजोंके भी इन्द्र हैं। तुम्हारे स्वामी राजराज कुबेर उन्हें अच्छी तरह नहीं जानते; साक्षात् इन्द्रादि देवता भी उनकी चरण पादुकाओंपर अपने मुकुट रगड़ते हैं। इन्द्रने भयसे ही उनकी सेवामें अपनी सुधर्मा सभा और पारिजात वृक्ष अर्पित कर दिये हैं। वरुणने श्यामकर्ण घोड़े देकर उन्हें प्रणाम किया है। इन्हीं डरपोक राजराजने उनके पास नवों निधियाँ पहुँचायी हैं। फिर भी उन महाबली महाराजको ये राजराज नहीं जानते। उन यादवराजकी सभामें असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं विराजते हैं। यह सारा भूमण्डल जिनके एक मस्तकपर तिलकके समान दिखायी देता है, वे सहस्र मस्तकवाले अनन्तदेव भी उग्रसेनकी सभामें नित्य विराजमान रहते हैं। महाराज उग्रसेनने मुझे महात्मा कुबेरके लिये नाराचों (बाणों) की भेंट देनेके निमित्त यहाँ भेजा है, अतः इस समय मैं यही करूँगा ॥ २४-२९ ॥

नारदजी कहते हैं- राजन् । यों कहकर प्रचण्ड- पराक्रमी प्रद्युम्नने अपना कोदण्ड उठाया और भुज- दण्डोंसे धनुषकी डोरी खींचते हुए टंकार-ध्वनि की। प्रत्यञ्चाके आस्फोटनसे ही विद्युत् की गड़गड़ाहटके समान भयंकर शब्द प्रकट हुआ। उससे सात लोकों तथा पातालोंसहित सारा ब्रह्माण्ड गूंज उठा। राजन् ! दिग्गज विचलित हो गये, तारे टूटने लगे और भूखण्ड- मण्डल हिल उठा। धनुर्धारियोंमें श्रेष्ठ प्रद्युम्नने तरकससे एक बाण खींचकर उसे अपने धनुषकी प्रत्यञ्चापर रखा और उसे छोड़ दिया। बारह सूर्योके समान तेजस्वी उस बाणने सम्पूर्ण दिङ्मण्डलको प्रकाशित करते हुए गुह्यकराजके छत्र और चैवरको काट दिया। यह अत्यन्त विचित्र काण्ड देखकर राजराज कुबेरके क्रोधकी सीमा न रही। वे पुष्पकविमानपर आरूढ़ हो सैनिकोंके साथ युद्धकी कामनासे पुरीके बाहर निकले। उनके साथ घण्टानाद और पार्श्वमौलि नामक यक्ष- मन्त्री भी थे। कुबेरके नलकूबर और मणिग्रीव नामक दोनों पुत्र ध्वजके अग्रभागमें सुशोभित हो रहे थे। उनकी सेनाके कुछ यक्ष अश्वमुख थे, कितने ही यक्षोंके मुख सिंहके समान थे। कुछ सूँस और मगरके समान मुखवाले थे, कोई आधे पीले और आधे काले थे, किन्हींके केश ऊपरकी ओर उठे थे। वे सब-के-सब मदसे उन्मत्त थे। टेढ़े-मेढ़े दाँत, लपलपाती हुई जीभ और विशाल दंष्ट्रावाले महाबली यक्षोंके मुख विकराल दिखायी देते थे। वे कवच तथा ढाल तलवार धारण किये हुए थे। शक्ति, ऋष्टि, भुशुण्डि और परिघ ये आयुध उनके हाथोंमें देखे जाते थे। कुछ यक्षोंने धनुष और बाण ले रखे थे और किन्होंके हाथोंमें फरसे चमक रहे थे। युद्धके लिये निकले हुए हाथीसवार, रथारोही और घुड़सवार यक्षोंके सहस्रों मण्डल शोभा पाते थे। शङ्ख और दुन्दुभियोंकी ध्वनिसे तथा सूत, मागध और वन्दीजनोंके स्तुति-पाठसे भूतलपर कुबेरके वीर सैनिक आकाशमें विद्युत्गर्जनासे युक्त मेघोंके समान जान पड़ते थे ॥ ३०-४१ ॥(Vishwajitkhand chapter 21 to 25)

विदेहराज! इस प्रकार दिव्य महायोगमय सिद्ध- क्षेत्रसे करोड़ों मतवाले यक्ष निकल पड़े। उनके आ जानेपर प्रमथोंकी विशाल सेना उनकी सहायताके लिये आ पहुँची। कितने ही भूत और प्रमथ विकराल वदन और मदोन्मत्त दिखायी देते थे। उनके साथ डाकिनियोंके समुदाय, यातुधान, बैताल, विनायक, कूष्माण्ड, उन्माद, प्रेत, मातृकागण, निशाचर, पिशाच, ब्रह्मराक्षस और भैरव भी थे, जो भीषण गर्जना करते हुए ‘मारो, काटो, फाड़ो’ की रट लगा रहे थे। इस प्रकार वहाँ करोड़ों भूतावलियाँ आ पहुँचीं, जो सांवर्तक मेघोंकी भाँति पृथ्वी और आकाशको आच्छादित किये हुए थीं। मोरपर बैठे हुए स्वामी कार्तिकेय तथा चूहेपर चढ़े हुए गणेशजी डमरूको ध्वनिके साथ वीरभद्रको लिये सबसे आगे आ पहुँचे। प्रमथगण उन दोनोंके यशका गान कर रहे थे। इस प्रकार पुण्यजनोंका यादवोंके साथ तुमुल युद्ध आरम्भ हुआ, जो अद्भुत और रोमाञ्चकारी था। रथी रधियोंसे, पैदल पैदलोंसे, घोड़े घोड़ोंसे और हाथी हाथियोंसे परस्पर जूझने लगे। राजेन्द्र! रथ, हाथी, घोड़े और पैदलोंके पैरोंसे उठी हुई धूलने सूर्यसहित आकाशमण्डलको ढक दिया ॥ ४२-५१ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाच संवादमें ‘यादव सेनाकी यक्षदेशपर चढ़ाई’ नामक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २३ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री शनि स्तोत्र

चौबीसवाँ अध्याय

यादव-सेना और यक्ष-सेना का घोर युद्ध

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षासे वहाँ अन्धकार छा जानेपर महाबली मणिग्रीवने बाणोंद्वारा वैरीवाहिनीका उसी प्रकार विध्वंस आरम्भ किया, जैसे कोई कटुवचनोंद्वारा मित्रताका नाश करे। मणिग्रीवके बाण-समूहोंसे क्षतविक्षत हो, हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सैनिक आँधीके उखाड़े हुए वृक्षोंकी भौति धराशायी होने लगे। उस समय श्रीकृष्ण और सत्यभामाके बलवान् पुत्र चन्द्रभानुने पाँच बाण मारकर मणिग्रीवके कोदण्डको खण्डित कर दिया तथा दस बाणोंसे उसके रथका छेदन करके बलवान् चन्द्रभानु घनके समान गर्जना करने लगे। यह देख मणिग्रीवने भी चन्द्रभानुपर अपनी शक्ति चलायी। मैथिल ! वह शक्ति सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशित करती हुई बड़ी भारी उल्काके समान गिरी; परंतु चन्द्रभानुने खेल सा करते हुए उसे बाँयें हाथसे पकड़ लिया। उन्होंने उसी शक्तिके द्वारा समराङ्गणमें महाबली मणिग्रीवको घायल कर दिया। तत्पश्चात् महाबली चन्द्रभानु उस रणभूमि- में पुनः गर्जना करने लगे। उस प्रहारसे मणिग्रीव मूच्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़े। तब नलकूबरकी प्रेरणासे असुरोंने बाणोंका जाल-सा बिछाकर चन्द्रभानुको उसी प्रकार आच्छादित कर दिया, जैसे बादल वर्षाकालके सूर्यको ढक देते हैं ॥१-७॥

तब श्रीकृष्णपुत्र दीप्तिमान् खड्ग हाथमें लेकर बड़े वेगसे यक्षोंकी सेनामें इस प्रकार घुस गये मानो सूर्यने कुहासेके भीतर प्रवेश किया हो। उनके खड्ग प्रहारसे कितने ही यक्षोंके दो-दो टुकड़े हो गये; कितने ही मस्तक, पैर, कंधे, बाँहें, हाथ, कान और ओठ छिन्न-भिन्न हो जानेके कारण युद्धमें पृथ्वीपर गिर पड़े। किरीट, कुण्डल और शिरस्त्राणॉसहित उनके कटे हुए बीभत्स मस्तक रक्तकी धारा बहा रहे थे और उनसे ढकी हुई रणभूमि महामारी-सी जान पड़ती थी। मरनेसे बचे हुए घायल यक्ष भयसे विह्वल होकर भाग गये। मिथिलेश्वर! उस समय यक्ष-सैनिकोंमें हाहाकारमच गया ॥ ८-१२॥(Vishwajitkhand chapter 21 to 25)

तब कवचधारी नलकूबर धनुषकी टंकार करते हुए बहुत ऊँची पताकावाले रथपर आरूढ़ हो वहाँ आ पहुँचे और ‘डरो मत’ यों कहकर अपने सैनिकोंको अभयदान देने लगे। नलकूबरने पाँच बाणोंसे कृतवर्मापर, दस बाणोंसे अर्जुनपर और बीस बाणोंसे दीप्तिमान्पर प्रहार किया। राजन्। तब महाबाहु कृतवर्मान अपने सिंहनादसे सम्पूर्ण दिशाओंको निनादित करते हुए पाँच विशिखोंद्वारा नलकूबरको करारी चोट पहुँचायी। वे बाण नलकूबरका कवच फाड़कर शरीरको छेदते हुए सबके देखते-देखते धरातलमें उसी प्रकार समा गये, जैसे सर्प बाँबीमें घुस जाते हैं। कृतवर्माके बाणसे अङ्ग विदीर्ण हो जानेके कारण नलकूबरको मूच्छित हुआ देख सारथि हेममाली उन्हें रणभूमिसे दूर हटा ले गया। घण्टानाद और पार्श्वमौलि, कुबेरके ये दोनों मन्त्री अपने बाण-समूहोंसे यादवोंकी उद्भट सेनाको घायल करने लगे। गृध्रपक्षसे युक्त सुनहले पंख और तीखे मुखवाले, मनके समान वेगशाली उन दोनोंके बाण सूर्यकी किरणोंके समान सम्पूर्ण दिशाओंको उद्भासित कर रहे थे ॥ १३-१९ ॥

तदनन्तर महावीर अर्जुनने उन मन्त्रियोंके बाणोंके उत्तरमें बहुत से बाण चलाना आरम्भ किया। दोनों और चलनेवाले बाणोंके संघर्षसे युद्धभूमिमें हजारों विस्फुलिङ्ग (अग्निकण) प्रकट होने लगे। नरेश्वर ! आकाशमें खद्योतोंकी भाँति चमकनेवाले वे चञ्चल विस्फुलिङ्ग अलात-चक्रकी भाँति शोभा पाने लगे। रण-दुर्मद वीर गाण्डीवधारी अर्जुनने गाण्डीव धनुषसे छूटे हुए विशिखोंद्वारा उस समस्त बाण-समूहको क्षणमात्रमें काट गिराया। उन्होंने बाणोंके समुदायसे दो योजनके घेरेमें पिंजरा-सा बना दिया और बलपूर्वक उन दोनों मन्त्रियोंके ध्वजसहित रथोंको उस घेरेके अंदर कर लिया। वे दोनों मारे गये यह जानकर समस्त पुण्यजन (यक्ष) तत्काल युद्ध छोड़कर हाहाकार करते हुए भाग चले ॥ २०-२३ ॥

उसी समय करोड़ों भूतवृन्द युद्धभूमिमें आ गये। राजन् ! कोटि-कोटि डाकिनियाँ रणभूमिमें हाथियोंको उठा-उठाकर फेंकने लगीं। मनुष्यों, घोड़ों तथा रथियोंको पृथ्क् पृथक् मुँहमें डालकर चबाने लगीं। एक-एक मानवके पीछे एक एक भूत लगा था। दसके साथ दस भूत दौड़ते दिखायी देते थे। प्रमथगणोंने खट्वाङ्गसे बारंबार लोगोंको मारा और गिराया। यातुधानियाँ रणमण्डलमें नरमुण्डोंको चबा रही थीं। वेतालगण खप्परमें बहुत-सा रक्त ले-लेकर पी रहे थे, विनायक नाचते और प्रेत गाते थे। कूष्माण्ड और उन्माद उस युद्ध भूमिमें गिरे हुए मस्तकोंका संग्रह करते थे। स्वर्गगामी वीरोंके मस्तकोंका उनके द्वारा किया जानेवाला वह संग्रह भगवान् शिवको मुण्डमाला बनानेके लिये था। मातृगण, ब्रह्मराक्षस और भैरव उस युद्धमें कटकर गिरे हुए मस्तकोंको गेंदकी तरह बारंबार उछालते-फेंकते हुए हँसते, खिलखिलाते और अट्टहास करते थे। विकराल मुख- वाले पिशाच बुरी तरह कूद-फाँद रहे थे। पिशाचिनियाँ युद्धमें बच्चोंको गरम-गरम रक्त पिलाती थीं और बच्चोंको आश्वासन देते हुए कहती थीं ‘बेटा! मत रोओ। हम तुम्हें इन लोगोंकी आँखें भी निकाल निकालकर देंगी ॥ २४-३१॥(Vishwajitkhand chapter 21 to 25)

इस प्रकार भूतगणोंका बल बढ़ता देख बलदेवके छोटे भाई बलवान् गद हाथमें गदा लेकर मेघोंके समान गर्जना करने लगे। लाख भारकी उस मौर्वी गदासे गदने उस विशाल भूत-सेनाको उसी प्रकार मार गिराया, जैसे इन्द्र वज्रसे पर्वतोंको धराशायी कर देते हैं। गदाकी मारसे मस्तक फट जानेके कारण बहुत-से कूष्माण्ड, उन्माद, वेताल, पिशाच और ब्रह्मराक्षस मूच्छित होकर भूमिपर गिर पड़े। गदने समराङ्गणमें डाकिनियोंके दाँत तोड़ डाले, प्रमथोंके कंधे विदीर्ण कर दिये और यातुधानोंके मुख छिन्न-भिन्न कर डाले। राजन् ! गदासे रौंदे गये प्रेत दसों दिशाओंमें उसी तरह भाग चले, जैसे प्रलयकालके समुद्रमें भगवान् वाराहकी दाढ़से अङ्गभङ्ग होनेके कारण दैत्य पलायन कर गये थे ॥ ३२-३६॥

भूतगणोंके भाग जानेपर वीरभद्र सामने आया। उस बलवान् भूतनाथने बलदेवके छोटे भाई गदको गदासे मारा। गदने उसकी गदाको अपनी गदापर रोक लिया और फिर अपनी गदा उसके ऊपर चलायी। मैथिलेश्वर! वीरभद्र और गदमें बड़ा भयंकर गदायुद्ध हुआ। वे दोनों ही गदाएँ आगकी चिनगारियाँ छोड़ती हुई परस्पर टकराकर चूर-चूर हो गयीं। फिर एक-दूसरेको ललकारते हुए उन दोनोंमें मल्लयुद्ध छिड़ गया। वे भुजाओं, घुटनों और पैरोंके आघातसे पर्वतोंको गिराते हुए लड़ने लगे। वीरभद्रने बलपूर्वक करवीर पर्वतको उखाड़कर अट्टहास करते हुए उसको गदके ऊपर फेंका। गदने उस पर्वतको पकड़ लिया और फिर उसीके ऊपर उसे दे मारा। तब बलवान् वीरभद्रने वीरवर गदको पकड़कर बड़े वेगसे आकाशमें लाख योजन दूर फेंक दिया। वहाँसे भूमिपर गिरनेपर गदके मनमें कुछ व्याकुलता हो गयी। फिर महाबली गदने वीरभद्रको भी उठा लिया और वेगसे घुमाकर शीघ्र ही उसे भी लाख योजन दूर फेंक दिया। वीरभद्र कैलास पर्वतके शिखरपर गिरा। गदाके प्रहारसे तो वह पीड़ित था ही, अतः दो घड़ीतक मूर्च्छामें पड़ा रहा ॥ ३७-४५ ॥

तदनन्तर शक्ति उठाये स्वामिकार्तिकेय बड़े वेगसे युद्धभूमिमें पहुँचे। उन्होंने अनिरुद्ध और साम्बको लक्ष्य करके शीघ्र ही अपनी शक्ति चलायी। अनिरुद्ध- के रथका भेदन कर, साम्बको घायल करके, उनके रथको भी तोड़ती हुई वह शक्ति उस युद्धभूमिमें सहस्रों हाथियों, रथों और लाखों वीरोंको मारकर दसों दिशाओंमें चमकती और कड़कती हुई बिजली की तरह फुफकारती सर्पिणीके समान भूमिमें समा गयी। तब क्रोधसे भरे महाबाहु जाम्बवतीकुमार साम्बने प्रत्यञ्चाका घोष करते हुए तरकससे एक बाण निकाला। वह बाण एक होता हुआ भी तरकससे बाहर निकलते ही दस हो गया। धनुषपर रखते समय सौ और खींचते समय उसने सहस्र रूप धारण कर लिये। छूटते समय उस बाणके लाख रूप हो गये और लक्ष्योंतक पहुँचते-पहुँचते उसने कोटि रूप धारण कर लिये। इस प्रकार उस अनेक रूपधारी विशिखने शिखी (मोर) और शिखि वाहन स्वामिकार्तिकेयको घायल करके समराङ्गणमें कोटि-कोटि वीरोंको विदीर्ण कर डाला ॥ ४६-५१॥(Vishwajitkhand chapter 21 to 25)

कार्तिकेयके क्षत-विक्षत होने और कुछ व्याकुल- चित्त हो जानेपर चूहेपर चढ़े हुए गणेश्वर गजानन वहाँ आ पहुँचे। उनके कुम्भस्थलपर गोमूत्र, सिन्दूर और कस्तूरीके द्वारा विचित्र पत्र-रचना की गयी थी। उनका सुन्दर वक्रतुण्ड कुङ्कुमसे आलिप्त था। सिन्दूरपूर्ण कपोलों के कारण उनकी बड़ी मनोहर आभा दिखायी देती थी। कानोंका उज्ज्वल वर्ण मानो कपूरकी धूलसे धवलित किया गया था। उनके कपोलोंपर बहती हुई मदधारासे जिनके अङ्ग विह्वल हो रहे थे, वे मतवाले भ्रमर उनके चञ्चल कर्णतालोंसे आहत हो, गुञ्जारव करते हुए मानो संगीत, ताल और वासन्तिक रागकौ सृष्टि कर रहे थे। उन मधुपोंसे सेवित भाल-चन्द्रधारी गणपति अनुपम शोभा पा रहे थे। उनकी अङ्ग-कान्ति बालरविके समान अरुणोज्ज्वल थी। उनकी बाँहोंमें निर्मल अङ्गद, गलेमें हेमनिर्मित हार और हँसुली थी तथा मस्तकपर धारण किये हुए मुकुटकी किरणोंके द्वारा वे सब ओरसे दीतिमान् दिखायी देते थे। वे चूहेपर विराजमान थे। उनके मुखमें एक ही दाँत था। गजाकार भव्य मूर्ति शोभा पा रही थी। उन्होंने हाथोंमें पाश, अङ्कुश, कमल और कुठार-समूह धारण कर रखे थे। उनका कद ऊँचा था। उनके चार भुजाएँ थीं। वे घोर संग्राममें प्रवृत्त थे। किन्हीं शस्त्रधारियोंको सूँड़में लपेटकर अपने अङ्कुशकी मारसे उनका कचूमर निकाल देते थे। अनेक धारवाले फरसेसे समस्त शस्त्रधारियोंका संहार करते हुए वे श्रीपरशुरामजीके समान जान पड़ते थे। पैदल वीरों, हाथियों, घोड़ों तथा रथ-समूहसे युक्त चतुरङ्गिणी सेनाको धराशायी करके, रथसहित साम्बको पकड़कर, वे युद्धस्थलसे दूर फेंक रहे थे। उन्हें देखकर यादवगणों- सहित प्रद्युम्नके मनमें बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने अपने परम बुद्धिमान् पुत्र अनिरुद्धसे यह उत्तम बात कही ॥ ५२-५७ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘यक्ष-युद्धका वर्णन’ नामक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२४॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ मीमांसा दर्शन (शास्त्र) हिंदी में

पचीसवाँ अध्याय

प्रद्युम्नका एक युक्तिके द्वारा गणेशजीको रणभूमिसे हटाकर गुह्यकसेनापर विजय
प्राप्त करना और कुबेरका उनके लिये बहुत-सी भेंट-सामग्री देकर उनकी
स्तुति करना; फिर प्राग्ज्योतिषपुरमें भेंट लेकर प्रद्युम्नका विरोधी
वानर द्विविदको किष्किन्धामें फेंक देना

प्रद्युम्न बोले- वेटा! ये महाबली गणेश साक्षात भगवान् श्रीकृष्णकी कला हैं। इन्हें देवता भी नहीं जीत सकते, फिर भूतलके मनुष्योंकी तो बात ही क्या है? जिनके निकट इनका वास है, उनके पक्षकी पराजय नहीं होती। पूर्वकालमें भगवान् श्रीकृष्णने शिवलोकमें इन्हें ऐसा ही वर दिया था। यदि ये यहाँ रहेंगे तो हमलोगोंकी कदापि विजय नहीं हो सकती। भगवान् श्रीकृष्णके वरदानसे इनका बल बहुत बढ़ा- चढ़ा है और ये शत्रुपक्षमें चले गये हैं। इसलिये तुम प्रचण्ड मार्जार (बड़ा भारी बिलाव) होकर हुंकार करते हुए युद्धभूमिसे बलपूर्वक इनके चूहेको मार भगाओ। इस महायुद्धमें अपने फूत्कारोंके द्वारा दसों दिशाओंमें उसे खदेड़ो। जबतक मैं शत्रुसेनापर विजय पाता हूँ, तबतक तुम इसे शीघ्र ही दूर भगानेका प्रयास करो ॥१-४॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् । तब भगवान अनिरुद्धने प्रचण्ड मार्जारका रूप धारण किया। वे गणेशजीसे अलक्षित ही रहे। वैष्णवी मायाके प्रभावसे गणेशजी उन्हें पहचान न सके। वह प्रचण्ड मार्जार विकट फूत्कार करता हुआ चूहेके सामने कूद पड़ा। राजन् ! वह मुँह फाड़-फाड़कर निरन्तर उसे देखने और तीखे नखोंसे विशेष चोट पहुँचाने लगा। चूहा उस बिलावको देखते ही भयसे विह्वल हो गया और तुरंत काँपता हुआ रणभूमिसे भाग चला। क्रोधसे भरा हुआ मार्जार स्थूल रूप धारण करके उसका पीछा करने लगा। गणेशजी बारंबार उस चूहेको युद्धभूमिकी ओर लौटानेका प्रयत्न करने लगे; किंतु प्रचण्ड मार्जारसे पीड़ित चूहा युद्धभूमिकी और नहीं लौटा, नहीं लौटा। मैथिल ! वह सात द्वीपों, सात समुद्रों, दिशाओं और विदिशाओंमें तथा ऊपरके सातों लोकोंमें भागता फिरा; किंतु उसे कहीं भी शान्ति नहीं मिली ॥५-१०॥(Vishwajitkhand chapter 21 to 25)

राजन् ! गणेशजीको पीठपर लिये वह चूहा जहाँ- जहाँ गया, वहाँ-वहाँ प्रचण्ड-पराक्रमी मार्जार भी उसका पीछा करता रहा। इस प्रकार चूहेसहित गणेशजी जब सुदूर दिशाओंमें चले गये और अपने पक्षके सभी प्रमथगण विस्मित हो गये, तब पुष्पक- विमानपर बैठे हुए कुबेरने अपनी गुह्यक सम्बन्धिनी माया फैलायी। अपना दिव्य धनुष लेकर, महेश्वरको नमस्कार करके उन्होंने मन्त्रसहित कवच धारण किया और बाण-समूहोंका संधान किया। उसी समय आकाशमें प्रलय-कालिक मेघ छा गये। बिजलियोंकी गड़गड़ाहट और महाभयंकर मेघोंकी घटासे अन्धकार फैल गया। हाथीके समान मोटे-मोटे जलविन्दु और ओले गिरने लगे। बादल अत्यन्त भयंकर जल- धाराओंकी वृष्टि करने लगे। क्षणभरमें समस्त समुद्रोंने भूतलको आप्लावित कर लिया। रणमण्डलमें सजीव पर्वत दिखायी पड़ने लगे। प्राकृत प्रलय हुआ जान यादव भयसे विह्वल हो गये। वे अस्त्र-शस्त्र त्यागकर बारंबार ‘श्रीकृष्ण-श्रीकृष्ण’ पुकारने लगे। गुहाकोंकी उस मायाको जानकर भगवान् श्रीप्रद्युम्न हरिने अपनी सत्त्वात्मिका विद्याको, जो समस्त मायाओंको नष्ट करनेवाली है, जपकर बाणके बीचमें कामबीज (क्लीं) की स्थापना की। फिर उसके मुखपर प्रणव तथा श्रीबीज (ॐ श्रीं) का आधान करके उसे कानतक खींचा और चतुर्भुज श्रीकृष्णका स्मरण करके विद्युत्के समान टंकार-ध्वनि करनेवाले धनुषसे भुजदण्डोंद्वारा उस विशिखको चलाया। कोदण्ड-दण्डसे छूटे हुए उस विशिखने दिङ्मण्डलको उद्योतित करते हुए उस गुह्यक-सम्बन्धिनी मायाको उसी तरह नष्ट कर दिया, जैसे सूर्यदेव अन्धकारका ध्वंस कर देते हैं ॥ ११-२१॥

यह देख पुष्पकपर बैठे हुए राजराज कुबेर भयभीत हो काँप उठे और यक्षोंके साथ समराङ्गणसे भागकर अपनी पुरीको चले गये। देवतालोग प्रद्युम्नके ऊपर फूलोंकी वर्षा करने लगे। समस्त यादव जय-जयकार करते हुए हर्षके साथ हँसने लगे। राजन् ! उस समय अत्यन्त हर्षित हो राजराज कुबेर हाथ जोड़, भेंट लेकर शीघ्र ही प्रद्युम्नके सामने गये। राजन् ! दो सूँड़ोंसे सुशोभित और चार दाँतोंसे युक्त, ऊँचाईमें पर्वतोंसे भी होड़ लेनेवाले दो लाख मदवर्षी हाथी, मोतीकी बंदनवारोंसे सुशोभित, सुवर्णनिर्मित, सूर्यतुल्य तेजस्वी एवं सौ घोड़ोंसे खिंचे हुए दस लाख रथ, चन्द्रमाके समान श्वेत कान्तिवाले दस अरब घोड़े, माणिक्य- जटित चार लाख चमकीली शिबिकाएँ तथा पिंजरोंमें बंद दो लाख सिंह कुबेरने प्रद्युम्नको भेंट किये। विदेहराज ! चीते, मृग, गवय और शिकारी कुत्ते एक-एक करोड़की संख्या में दिये। नृपेश्वर ! पिंजरोंमें विराजमान तोता, मैना, कोकिल, सुनहरे हंस और अन्यान्य विचित्र पक्षी राजराजने लाख-लाखकी संख्यामें अर्पित किये ॥ २२-३०॥

कुबेरने विश्वकर्माका बनाया हुआ विष्णुदत्त नामक एक विमान भी दिया, जिसमें मोतीकी झालरें लटक रही थीं। उसकी ऊँचाई आठ योजन और लंबाई- चौड़ाई नौ योजनकी थी। उसमें लाख-लाख ध्वज और कलश लगे हुए थे। वह इच्छानुसार चलनेवाला विमान सुवर्णमय शिखरोंसे सुशोभित तथा सहस्रों सूर्योक समान तेजस्वी था। मैथिल। उसके अतिरिक्त सहस्रों कल्पवृक्ष, सैकड़ों कामधेनुएँ, सौ चिन्तामणियाँ तथा सौ दिव्य पारस पत्थर भी कुबेरने दिये, जिनके स्पर्शसे लोहा भी सोना हो जाता है। छत्र, चैवर और सोनेके सिंहासन भी सौ-सौकी संख्यामें भेंट किये। दिव्य पद्मोंकी सुन्दर केसरोंसे युक्त माला दी। सौ द्रोण अमृत, नाना प्रकारके फल, रत्नजटित सोनेके आभूषण, दिव्य वस्त्र, दिव्य कालीन, सोने-चाँदीके करोड़ों सुन्दर पात्र, अमोघ शस्त्र तथा कोटि सुवर्णमुद्राएँ भी भेंट कीं। बोझ ढोनेवाले हाथियों और मनुष्योंद्वारा सब सामान भेजकर कुबेरने नौ निधियाँ प्रदान कीं। इस प्रकार महात्मा प्रद्युम्नको भेंट-सामग्री अर्पित करके राजराजने उनकी परिक्रमा की और हर्षसे भरकर प्रणामपूर्वक उनसे कहा ॥ ३१-३८॥(Vishwajitkhand chapter 21 to 25)

कुबेर बोले- आप भगवान् महात्मा पुरुष हैं; आपको नमस्कार है। आप अनादि, सर्वज्ञ, निर्गुण एवं परमात्मा हैं। प्रधान और पुरुष दोनोंके नियन्ता और प्रत्यक्-चैतन्यधाम हैं; आपको बारंबार नमस्कार है। स्वयंज्योतिः स्वरूप और श्यामल अङ्गवाले आपको नमस्कार है। आप वासुदेवको नमस्कार, संकर्षणको नमस्कार, प्रद्युम्र, अनिरुद्ध एवं सात्वत-भक्तोंके प्रतिपालक आपको नमस्कार है। आप ही ‘मदन’, ‘मार’, और ‘कंदर्प’ आदि नामोंसे प्रसिद्ध हैं; आपको बारंबार नमस्कार है। दर्पक, काम, पञ्चबाण, अनङ्ग तथा शम्बरासुरके शत्रु भी आप ही हैं; आपको नमस्कार है। हे मन्मथ! आपको नमस्कार है। हे मीनकेतन ! आपको नमस्कार है। आप मनोभव देव तथा कुसुमेषु (फूलोंके बाण धारण करनेवाले) हैं; आपको नमस्कार है। अनन्यज! आपको नमस्कार है। रतिपते ! आपको बारंबार नमस्कार है। आप पुष्पधन्वा और मकरध्वजको नमस्कार है। प्रभु स्मर! आपको नित्य नमस्कार है। जगद्विजयी आप कामदेवको सादर प्रणाम है। रुक्मवतीके भर्ता तथा सुन्दरीके पति आपको नमस्कार है। भूमन्! ‘मैं यह करूँगा, यह करता हूँ’, ‘यह मेरा है, यह तुम्हारा है’, ‘मैं सुखी हूँ, दुखी हूँ’, ‘ये मेरे सुहृद् लोग हैं’- इत्यादि बातें कहता हुआ यह सारा जगत् अहंकारसे मोहित हो रहा है। प्रधान, काल, अन्तःकरण और शरीरजनित गुणोंद्वारा शास्त्रविरुद्ध कर्म करनेवाला जनसमुदाय बन्धनमें पड़ता है। वह काँचमें बालकको, वालुका-राशिमें जलको और रस्सीमें सर्पको अपनी आँखोंसे देखता है, भ्रमको ही सत्य मानता है। यही दशा मेरी है। आज मैंने मूढ़तावश आपकी अवहेलना की है। प्रभो। आपकी मायासे मेरा चित्त मोहित था, इसीलिये मुझसे ऐसा अपराध बन गया। परंतु जैसे पिता बालकके अपराधको अपने मनमें स्थान नहीं देता, उसी प्रकार आप भी मेरे अपराधको भुला देंगे। आपकी कृपासे फिर मेरी ऐसी बुद्धि कभी न हो। आपके चरणारविन्दोंमें सदा मेरी पराभक्ति बनी रहे, जिसे सर्वोत्कृष्ट माना गया है। आप मुझे वैराग्ययुक्त ज्ञान, जो परम कल्याणका आधार है, प्रदान करें और अपने भक्तजनोंके प्रशस्त सत्सङ्गका अवसर देते रहें ॥ ३९-५० ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! जो प्रातः काल उठकर प्रद्युम्नके कल्याणमय स्तोत्रका पाठ करेगा, उसके संकटकालमें साक्षात् श्रीहरि सदा सहायक होंगे। राजन् ! इस प्रकार स्तुति करनेवाले यक्षराज कुबेरसे भगवान् प्रद्युम्न हरिने कहा- ‘बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा।’ फिर उन्होंने सिरपर धारण करने योग्य पद्मराग मणि दी। ‘डरो मत’ यों कहकर, अभयदान दे, यादवेश्वर प्रद्युम्नने कुबेरको लीला-छत्र, चैवर और मणिमय सिंहासन प्रीति-पुरस्कारके रूपमें प्रदान किये। तदनन्तर प्रद्युम्नकी परिक्रमा करके धनेश्वर राजराज चले गये। महात्मा प्रद्युम्नके द्वारा राजराज कुबेरकी पराजय हुई सुनकर किन्हीं राजाओंने भी उनके साथ युद्ध नहीं किया। सबने सादर भेंट अर्पित की ॥ ५१-५४॥

तत्पश्चात् महाबाहु प्रद्युम्न बहुत-सी दुन्दुभियोंका घोष फैलाते हुए सारी सेनाके साथ प्राग्ज्योतिषपुरको गये। वहाँ भौमासुरके पुत्र नीलने उनके तेजसे तिरस्कृत हो तत्काल उन महात्मा प्रद्युम्रके लिये उपहार-सामग्री अर्पित कर दी ॥ ५५-५६॥(Vishwajitkhand chapter 21 to 25)

प्राग्ज्योतिषपुरके द्वारपर द्विविद नामक महाबली वानर रहता था, जिसे पहले प्रद्युम्नने बाण मारा था। उसने रोषके आवेशमें उठकर अपने दाँतों और तीखे नखाँसे बहुत-से वीरों और घोड़ोंको विदीर्ण कर दिया और भौहें टेढ़ी करके वह जोर-जोरसे गर्जना करने लगा। उसने बहुत-से रथोंको अपनी पूँछमें बाँधकर खारे पानीके समुद्रमें फेंक दिया और दोनों हाथोंसे हाथियोंको पकड़कर बलपूर्वक आकाशमें उछाल दिया। श्री कृष्ण कुमार प्रद्युम्र ने उस वानरको शत्रुताके भावसे युक्त जानकर उसके विरुद्ध र्शाङ्गधनुषद्वारा एक बाण चलाया। उस बाणने उसे सहसा उठाकर बलपूर्वक आकाशमें घुमाया और पूर्ववत् उस महाकपिको किष्किन्धामें ले जाकर पटक दिया। फिर वह प्रकाशमान बाण प्रद्युम्नके तरकसमें लौट आया ॥ ५७-६२ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘यक्ष-देशपर विजय’ नामक पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २५ ॥

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