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Garga Samhita Vishwajitkhand chapter 16 to 20

Garga Samhita
Garga Samhita Vishwajitkhand chapter 16 to 20

॥ श्रीहरिः ॥

ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते

श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः

Garga Samhita Vishwajitkhand Chapter 16 to 20 |
श्री गर्ग संहिता के विश्वजीतखण्ड अध्याय 16 से 20 तक

श्री गर्ग संहिता में विश्वजीतखण्ड (Vishwajitkhand chapter 16 to 20) के सोलहवाँ अध्याय में मिथिला के राजा धृतिद्वारा ब्रह्मचारी के रूप में पधारे हुए प्रद्युम्न का पूजन; उन दोनों का शुभ संवाद; प्रद्युम्न का राजा को प्रत्यक्ष दर्शन दे, उनसे पूजित हो शिविर में जाने का वर्णन कहा गया है। सत्रहवाँ अध्याय में मगध देश पर यादवों की विजय तथा मगधराज जरासंध की पराजय का वर्णन है। अठारहवाँ अध्याय में गया, गोमती, सरयू एवं गंगा के तटवर्ती प्रदेश, काशी, प्रयाग एवं विन्ध्यदेश में यादव सेना की यात्रा; श्रीकृष्ण के अठारह महारथी पुत्रों का हस्तलाघव तथा विवाह; मथुरा, शूरसेन जनपदों एवं नन्द गोकुल में प्रद्युम्न आदिका समादर कहा गया है। उन्नीसवाँ अध्याय में यादव सेना का विस्तार; कौरवों के पास उद्धव का दूत के रूप में जाकर प्रद्युम्न का संदेश सुनाना; कौरवों के कटु उत्तर से रुष्ट यादवों की हस्तिनापुरपर चढ़ाई और बीसवाँ अध्याय में कौरवों की सेना का युद्धभूमि में आना; दोनों ओर के सैनिकों का तुमुल युद्ध और प्रद्युम्न के द्वारा दुर्योधन की पराजय का वर्णन है।

यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक

सोलहवाँ अध्याय

मिथिलाके राजा धृतिद्वारा ब्रह्मचारीके रूपमें पधारे हुए प्रद्युम्नका पूजन;
उन दोनोंका शुभ संवाद; प्रद्युम्नका राजाको प्रत्यक्ष दर्शन दे,
उनसे पूजित हो शिविरमें जाना

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! वहाँसे विजय दुन्दुभि बजवाते हुए यदुनन्दन प्रद्युम्न तुम्हारे सुख- सम्पन्न मिथिला देशमें आये। कलश-शोभित अत्यन्त ऊँचे स्वर्णमय सौधशिखरोंसे युक्त मिथिलापुरीको दूरसे देखकर प्रद्युम्नने उद्धवसे पूछा ॥१-२॥

प्रद्युम्न बोले- मन्त्रिप्रवर! इस समय यह किसकी राजधानी मेरी दृष्टिमें आ रही है, जो बहु- संख्यक महलोंसे भोगवती पुरीकी भाँति शोभा पाती है?॥ ३ ॥

उद्धवने कहा- मानद! यह राजा जनककी पुरी मिथिला है। इस समय यहाँ मिथिलानरेश महाभागवत विद्वान् धृति रहते हैं। वे समस्त धर्मात्माओं में श्रेष्ठ हैं। श्रीकृष्ण उनके इष्टदेव हैं और वे स्वयं भी श्रीहरिको बहुत प्रिय हैं। उनके पुत्रका नाम बहुलाश्व है, जो बचपनसे ही भगवान की भक्ति करनेवाला है। उसे दर्शन देनेके लिये साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ पधारेंगे। राजकुमार बहुलाश्व तथा ब्राह्मण श्रुतदेवको द्वारकामें भगवान् श्रीकृष्ण बहुत ही याद किया करते हैं। प्रभो! इन्हें देवेन्द्र भी नहीं जीत सकते, फिर मनुष्योंकी तो बात ही क्या; क्योंकि धृतिने अपनी परा- भक्तिसे श्रीकृष्णको वशमें कर लिया है॥ ४-७॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यह सुनकर भगवान् श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न उद्धवजीको अपना शिष्य बनाकर उनके साथ राजा धृतिका दर्शन करनेके लिये आये। उद्धवसहित प्रद्युम्नने राजाकी भक्तिकी परीक्षा करनेके लिये ही मिथिलापुरीको देखा। वहाँके सभी वीर कवच और शस्त्र धारण करके माला और तिलकसे सुशोभित थे। वे सब के सब मालाद्वारा श्रीकृष्ण-नामका जप करते थे। मिथिलाके लोगोंके द्वार-द्वारपर श्रीहरिके नाम लिखे थे और श्रीकृष्णके सुन्दर-सुन्दर चित्र अङ्कित थे। मानद ! वहाँ घरोंकी प्रत्येक दीवारपर गदा, पद्म, दसों अवतारके चित्र और शङ्ख, चक्र अङ्कित थे। घर-घरके आँगनमें तुलसीके मन्दिर दिखायी देते थे ॥८-१२॥(Vishwajitkhand chapter 16 to 20)

इस तरह मिथिलाके महलोंको देखते हुए उन्होंने वहाँके लोगोंपर भी दृष्टिपात किया, जो सब-के-सब माला-तिलकधारी भगवद्भक्त थे। उन्होंने केसर अथवा कुङ्कुमके बारह-बारह तिलक लगा रखे थे। वहाँके ब्राह्मण गोपीचन्दनकी मुद्राओंसे चर्चित, शान्तस्वरूप तथा ऊर्ध्वपुण्ड्रधारी थे। उनके अङ्गॉपर हरिमन्दिरके चित्र अङ्कित थे। ललाटमें गदाकी मुद्रा, सिरपर हरिनाम और दोनों भुजाओंमें चक्र, शङ्ख, पद्म, कूर्म और मत्स्य अङ्कित थे। कितने ही लोगोंने मस्तकपर धनुष और बाणके चित्र तथा हृदयमें नन्दक नामक खड्ग, मुसल और हलके चिह्न धारण कर रखे थे ॥ १३-१७ ॥(Vishwajitkhand chapter 16 to 20)

राजन् ! तदनन्तर प्रद्युम्नने देखा वहाँकी गली- गलीमें कुछ मनुष्य भागवत सुन रहे हैं। दूसरे लोग हरिवंश और महाभारत नामक इतिहास श्रवण कर रहे हैं। कुछ लोग सनत्कुमारसंहिता, वासिष्ठसंहिता, याज्ञवल्क्यसंहिता, पराशरसंहिता, गर्गसंहिता, पौलस्त्यसंहिता और धर्मसंहिता आदिका पाठ कर रहे हैं। ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, विष्णुपुराण, शिवपुराण, लिङ्गपुराण, गरुडपुराण, नारदीयपुराण, भागवतपुराण, अग्निपुराण, स्कन्दपुराण, भविष्णपुराण, ब्रह्मवैवर्त- पुराण, वामनपुराण, मार्कण्डेयपुराण, वाराहपुराण, मत्स्यपुराण, कूर्मपुराण तथा ब्रह्माण्डपुराण-इन सब पुराणोंको गली-गलीमें, घर-घरमें वहाँके सब लोग सुनते थे। कुछ लोग श्रीरामचरणामृतसे पूर्ण वाल्मीकिके महाकाव्य रामायणका पाठ करते थे। कुछ लोग स्मृतियोंके और कुछ ब्राह्मण वेदत्रयीके स्वाध्यायमें लगे थे। कुछ लोग मङ्गलधाम वैष्णव यज्ञका अनुष्ठान करते थे। कितने ही मनुष्य राधाकृष्ण, कृष्ण-कृष्ण आदि नामोंका बारंबार कीर्तन करते थे। कुछ लोग हरिकीर्तनमें तत्पर रहकर नाचते और गाते थे। वहाँके प्रत्येक मन्दिरमें मृदङ्ग, ताल, झाँझ और वीणा आदि मनोहर वाद्योंके साथ लोगोंद्वारा किया जानेवाला हरिकीर्तन सुनायी पड़ता था। राजन् ! मिथिलाके घर-घरमें वहाँके निवासी प्रेमलक्षणा नवधाभक्ति करते थे ॥ १८-२६ ॥

इस प्रकार नगरीका दर्शन करके भगवान् प्रद्युम्न हरिने राजद्वारपर पहुँचकर शीघ्र ही मैथिलनरेशका दर्शन किया। मैथिलेशकी सभामें वेदव्यास, शुकमुनि, याज्ञवल्क्य, वसिष्ठ, गौतम, मैं और बृहस्पति बैठे थे। दूसरे भी धर्मके वक्ता तथा हरिनिष्ठ मुनि वहाँ मूर्तिमान् वेदकी भाँति इधर-उधर बैठे दिखायी देते थे। नरेश्वर मैथिलेन्द्र धृति वहाँ भक्तिभावसे नतमस्तक होकर बलदेवजीकी चरणपादुकाकी विधिवत् पूजा कर रहे थे। वे श्रीकृष्ण और बलदेवके मुक्तिदायक नामोंका जप भी करते जाते थे। शिष्यसहित ब्रह्मचारीको आया देख राजाने उठकर नमस्कार किया। उनकी पाद्य आदि उपचारोंसे विधिवत् पूजा करके मैथिलेश्वर राजा धृति दोनों हाथ जोड़कर उनके आगे खड़े हो गये ॥ २७-३२ ॥

जनकने कहा- भगवन्! आपके पदार्पणसे आज मेरा जन्म सफल हो गया, मेरा राजभवन शुद्ध एवं परमोज्ज्वल हो गया, देवता, ऋषि और पितर- सब संतुष्ट हो गये। भगवन्! आप जैसे निर्भान्त और समदर्शी साधु भूतलपर दीनजनोंका कल्याण करनेके लिये ही विचरते हैं ॥ ३३-३४॥(Vishwajitkhand chapter 16 to 20)

ब्रह्मचारी बोले- राजसिंह ! आप धन्य हैं, आपकी यह मिथिलापुरी धन्य है तथा विष्णु-भक्तिसे भरपूर आपकी सारी प्रजा भी धन्य है॥ ३५ ॥

जनकने कहा- प्रभो! न तो यह नगरी मेरी है, न प्रजा मेरी है और न गृह तथा धन-धान्य मेरे हैं। स्त्री, पुत्र और पौत्रादि मेरे पास जो कुछ है, वह सब भगवान् श्रीकृष्णका ही है। साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति होकर गोलोक- धाममें विराजते हैं। वे पुरुषोत्तम एक होकर भी स्वयं ही वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध-इन चार व्यूहोंके रूपमें भूतलपर प्रकट हुए हैं। महामुने ब्रह्मन् ! शरीर, मन, वाणी, बुद्धि अथवा समस्त इन्द्रियोंद्वारा मैंने जो भी पुण्यकर्म किया है, वह सब भगवान् श्रीकृष्णको समर्पित है॥ ३६-३९ ॥

ब्रह्मचारीने कहा- महाभाग, विष्णुभक्त- शिरोमणे, विदेहराज ! तुम्हारी भक्तिसे संतुष्ट हो भगवान् श्रीकृष्ण तुम्हें सायुज्य मोक्ष प्रदान करेंगे ॥ ४० ॥(Vishwajitkhand chapter 16 to 20)

जनक बोले- ब्रह्मन् ! मैं आप-जैसे श्रीकृष्ण भक्त महात्माओंका दास हूँ। मैंने अपने मनमें किसी हेतु अथवा कामनाको स्थान नहीं दिया है; अतः मैं एकत्व या सायुज्यरूपा मुक्ति नहीं पाना चाहता ॥ ४१ ॥

ब्रह्मचारीने कहा- राजन् ! तुम हेतुरहित होकर अहैतुकी भक्ति करते हो, अतः निर्गुण भक्ति-भावके कारण तुम प्रेमके लक्षणोंसे सम्पन्न हो। साक्षात् भगवान् प्रद्युम्न दिग्विजयके लिये निकले हैं। वे आपके घरपर क्यों नहीं आये इस बातको लेकर मेरे मनमें महान् संदेह हो गया है॥ ४२-४३ ॥

जनक बोले- भगवान् प्रद्युम्न साक्षात् अन्तर्यामी स्वयं श्रीहरि हैं। वे सदा, सर्वज्ञ और सर्वव्यापी हैं। फिर बताइये तो सही, क्या वे यहाँ नहीं हैं? ॥४४॥

ब्रह्मचारीने कहा- यदि ज्ञानदृष्टिसे भी तुम श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्नको यहाँ निरन्तर स्थित मानते हो तो दिव्यदृष्टिवाले प्रह्लादकी भाँति तुम उनका यहाँ प्रत्यक्ष दर्शन कराओ ॥ ४५ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- बहुलाश्व! यह सुनकर महाभागवत राजा धृतिने अपने मुखपर अश्रुधारा बहाते हुए गद्गद वाणीमें कहा ॥ ४६ ॥

जनक बोले- यदि मेरेद्वारा भगवान् श्रीहरिकी इस भूतलपर अहैतुकी भक्ति की गयी है तो श्रीहरिके पुत्र प्रद्युम्न मेरे सामने प्रकट हो जायँ। यदि मैं श्रीकृष्णभक्तोंका दास होऊँ, यदि मुझपर उनकी कृपा हो और यदि सर्वत्र मेरी श्रीकृष्णबुद्धि हो तो मेरा यह मनोरथ पूर्ण हो जाय ॥ ४७-४८ ॥(Vishwajitkhand chapter 16 to 20)

नारदजी कहते हैं- बहुलाश्व ! उनके इतना कहते ही श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न तत्काल ब्रह्मचारीका रूप छोड़कर सबके देखते-देखते अपने साक्षात् स्वरूपसे प्रकट हो गये। हरिभक्तिनिष्ठ शिष्य उद्धव भी गद्गद हो गये। मेघोंके समान श्याम कान्ति, प्रफुल्ल कमलदलके समान विशाल नेत्र, लंबी-लंबी भुजाएँ, जगत्के लोगोंका मन हर लेनेवाला रूप सबके सामने प्रकट हो गया। उनके श्रीअङ्गोंपर पीताम्बर शोभा दे रहा था। उनका शोभासम्पन्न मुखारविन्दमण्डल नीली घुँघराली अलकावलियोंसे अलंकृत था। शिशिर ऋतुके बालरविके समान कान्तिमान् किरीट, दिव्य कुण्डल, करधनी और बाजूबंद आदिसे उनका दिव्य विग्रह उद्भासित हो रहा था। श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्नको इस प्रकार देखकर राजा धृतिने उनको हाथ जोड़कर साष्टाङ्ग प्रणाम किया ॥ ४९-५१ ॥

जनक बोले- भूमन् ! मेरा सौभाग्य महान् एवं अत्यन्त धन्य है। अहो! आज आपने मुझे अपने स्वरूपका साक्षात् दर्शन कराया। आज मेरी महिमा कयाधूकुमार प्रह्लादके समान बढ़ गयी। आज मैं अपने कुलसहित कृतार्थ हो गया ॥ ५२॥

श्रीप्रद्युम्नने कहा- नृपश्रेष्ठ ! तुम धन्य हो, मेरे प्रभावको जाननेवाले भक्त हो। मैं इस समय तुम्हारे भक्तिभावकी परीक्षाके लिये ही यहाँ आया था। मैथिलेश्वर ! आज ही तुम्हें मेरा सारूप्य प्राप्त हो जाय और इस लोकमें तुम्हारे बल, आयु और कीर्तिका अत्यन्त विस्तार हो ॥ ५३-५४ ॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! तुम्हारे पिता धृतिसे पूजित हो भक्तवत्सल भगवान् प्रद्युम्न वहाँ आये हुए संतोंके सामने ही अपने शिविरकी ओर चले गये ॥ ५५ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘जनकका उपाख्यान’ नामक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥१६॥

वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस में क्या अंतर है?

सत्रहवाँ अध्याय

मगध देश पर यादवों की विजय तथा मगधराज जरासंध की पराजय

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् । तदनन्तर मत्स्यके चिह्नसे सुशोभित ध्वजा फहरते हुए प्रद्युम्न मगधदेशपर विजय पानेके लिये अपनी सेनाके साथ तुरंत गिरिव्रजकी ओर चल दिये। श्रीहरिके पुत्र प्रद्युम्न- को, विशेषतः दिग्विजयके लिये, आया सुनकर मगधराज जरासंधको बड़ा क्रोध हुआ ॥ १-२ ॥

जरासंध बोला- समस्त यादव अत्यन्त तुच्छ और युद्धसे डरनेवाले कायर हैं। वे ही आज पृथ्वीपर विजय पानेके लिये निकले हैं। जान पड़ता है, उनकी बुद्धि मारी गयी है। इस दुरात्मा प्रद्युम्नका पिता माधव स्वयं मेरे भयसे अपनी पूरी मथुरा छोड़कर समुद्रकी शरणमें जा छिपा है। प्रवर्षणगिरिपर मैंने बलराम और कृष्णको बलपूर्वक भस्म कर दिया था, किंतु ये छलपूर्वक वहाँसे भाग निकले और द्वारकामें जाकर रहने लगे। अब मैं स्वयं कुशलस्थलीपर चढ़ाई करूँगा और उन दोनों भाइयोंको उग्रसेनसहित बाँध लाऊँगा। समुद्रसे घिरी हुई इस पृथ्वीको यादवोंसे शून्य कर दूँगा ॥ ३-६ ॥(Vishwajitkhand chapter 16 to 20)

नारदजी कहते हैं- राजन् । यों कहकर बलवान् राजा जरासंध तेईस अक्षौहिणी सेनाके साथ गिरिव्रज नगरसे बाहर निकला। मगधराजके साथ हाथियोंकी विशाल सेना थी। उन हाथियोंके मुखपर गोमूत्र, सिन्दूरराशि, एवं कस्तूरीद्वारा पत्र-रचना की गयी थी। उनके गण्डस्थलोंसे मदकी धारा बह रही थी। वे हाथी ऐरावत-कुलमें उत्पन्न होनेके कारण चार दाँतोंसे सुशोभित थे और सूँड़की फुफकारोंसे बहुसंख्यक वृक्षोंको तोड़कर फेंकते चलते थे। उन गजराजोंसे मगधराजकी वैसी ही शोभा हो रही थी, जैसे मेघोंसे भगवान् इन्द्रकी होती है। राजन् ! देवताओंके विमानोंके समान आकारवाले अगणित रथ उसके साथ चल रहे थे, जिनके ऊपर ध्वज फहराते थे, सारस बैठे थे, चंवर डुल रहे थे और चञ्चल पहियोंसे घर्र-घर्र ध्वनि प्रकट हो रही थी। वायुके समान वेगशाली तथा विचित्र-विचित्र वर्णवाले मदमत्त अश्व सुनहरे पट्टे और हार आदिसे सुशोभित थे। उनकी शिखाओं एवं बागडोरोंके ऊपरी भागमें चंवर (कलँगी) सुशोभित थे। कवच धारण किये तथा हाथोंमें ढाल तलवार एवं धनुष लिये वीरजन विद्याधरोंके समान शोभा पाते थे। उन सबके साथ महाबली मगधराज युद्धके लिये निकला। दुन्दुभियोंकी धुंकारों और धनुषोंकी टंकारोंसे दिशाएँ निनादित हो रही थीं। धरती डोलने लगी और सैनिकोंद्वारा उड़ायी गयी धूलसे आकाश छा गया। मैथिल ! जरासंधकी वह सेना उमड़ते हुए प्रलय- सागरके समान भयंकर थी। उसे देखकर समस्त यादव विस्मित हो गये ॥ ७-१४॥

मगधराजके उस सैन्य-सागरको देखकर भगवान् प्रद्युम्रने दक्षिणावर्त शङ्ख बजाया और उसीके द्वारा मानो अपने योद्धाओंको अभयदान देते हुए कहा- ‘डरो मत।’ तदनन्तर महाबाहु साम्ब प्रद्युम्नके सामने ही दस अक्षौहिणी सेना लेकर मगधराजके साथ युद्ध करने लगे। उस रणभूमिमें हाथी हाथियोंसे और रथी रथियोंसे जूझने लगे। मैथिलेश्वर ! घोड़े घोड़ोंसे और पैदल पैदलोंसे भिड़ गये। मागधों और यादवोंमें देवताओं और दानवोंके समान अद्भुत, रोमाञ्चकारी एवं भयंकर युद्ध होने लगा। कुछ घुड़सवार वीर हाथोंमें भाले लिये इधर-उधर मारकाट मचाते हुए गजारोहियों तथा हाथियोंके कुम्भस्थलॉपर बैठे हुए महावतोंको भी मार गिराते थे। कुछ योद्धा विद्युत्के समान दीप्तिमती शक्तियोंको लेकर बलपूर्वक शत्रुओंपर फेंकते थे। वे शक्तियाँ कवचधारी शत्रुओंको भी विदीर्ण करके धरतीमें समा जाती थीं। कितने ही वीर रणभूमिमें गरजते हुए रथोंके चक्के उठा-उठाकर फेंकते थे और सैनिकोंके समूहोंको उसी प्रकार छिन्न- भित्र कर देते थे, जैसे सूर्य कुहासेको नष्ट कर देते हैं। कुछ लोग भिन्दिपालों, मुगरों, कुल्हाड़ियों, तलवारों, पट्टिशों, छुरों, कटारों, रिष्टियों तथा तीखे निस्त्रिंशों (खड्गों) से युद्ध करते थे। तोमरों, गदाओं और बाणोंसे कटकर वीरों, हाथियों और घोड़ोंके मस्तक पृथ्वीपर गिर रहे थे। वहाँ केवल धड़ हाथमें खड्ग लिये संग्राममें दौड़ते हुए बड़े भयंकर प्रतीत होते थे और घोड़ों तथा मनुष्योंको धराशायी करते हुए उछलते थे। वीरोंके ऊपर वीर गिर रहे थे। उनकी भुजाएँ छिन्न-भिन्न हो गयी थीं। कितने ही घोड़े बाणोंसे गर्दन कट जानेके कारण घोड़ोंपर ही गिर पड़ते थे। विद्याधर और गन्धर्वके जातिकी स्त्रियाँ वीरगतिको प्राप्त हुए योद्धाओंको दिव्य रूपसे आकाशमें पहुँचनेपर उन्हें अपना पति बना लेना चाहती थीं। इसके लिये उन सबोंमें परस्पर महान् कलह होने लगता था। नरेश्वर! कितने ही क्षत्रिय धर्मपरायण और सदा ही संग्राममें शोभा पानेवाले योद्धा युद्धमें प्राण दे देते थे, किंतु एक पग भी पीछे नहीं हटते थे। वे सूर्यमण्डलका भेदन करके परमपदको प्राप्त हो जाते थे और शिशुमारचक्रमें उसी प्रकार नाचते थे, जैसे मण्डलाकार भूमिपर नट ॥ १५-२८ ॥

इस प्रकार साम्बके महावीर सैनिकोंने मगध- सेनाको रौंद डाला। वह सेना उनके देखते-देखते उसी प्रकार भाग चली, जैसे भगवान् श्रीकृष्णकी भक्तिसे अशुभ नष्ट हो जाता है। किन्हींके कवच कट गये थे तो किन्हींके धनुष; कितने ही सैनिक खड्ग और रिष्टियोंको हाथसे फेंककर पीठ दिखाते हुए भाग रहे थे। अपनी सेनाको पलायन करती देख मगधराज धनुषकी टंकार करता हुआ वहाँ आया और सबको अभयदान देते हुए बोला ‘डरो मत।’ जरासंधने धनुषकी प्रत्यञ्चाद्वारा अपनी सेनाको आगे बढ़नेकी उसी प्रकार प्रेरणा दी, जैसे कोई महावत अङ्कुशसे हाथीको हाँक रहा हो। इसी समय साम्ब भी वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने धनुषसे छूटे हुए दस बाणोंद्वारा महाबली मगधराजको समरभूमिमें घायल कर दिया। फिर जाम्बवतीकुमार साम्बने उसके धनुषकी प्रत्यञ्चाको, जो सागरके उत्ताल तरंगोंके भयानक संघर्षकी भाँति शब्द करनेवाली थी, दस बाणोंसे छिन्न-भिन्न कर डाला। तदनन्तर महाबली जरासंधने दूसरा धनुष हाथमें लेकर दस अग्रगामी बाणोंद्वारा साम्बके धनुषको काट डाला। जरापुत्र मगधेन्द्रने चार बाणोंसे चारों घोड़ोंको, दोसे ध्वजको, तीनसे रथको और एकसे सारथिको मार डाला। धनुषके कट जानेपर तथा घोड़ों और सारथिके मारे जानेपर रथहीन हुए महाबली साम्ब दूसरे रथपर चढ़ गये और अत्यन्त उग्र धनुषपर विधिपूर्वक प्रत्यञ्चा चढ़ाकर उन्होंने सौ बाणोंद्वारा जरासंधके रथको चूर- चूर कर दिया। उस समय जरासंध रथ छोड़कर बड़े वेगसे हाथीपर चढ़ गया। उस हाथीपर मागधेन्द्रको वैसी ही शोभा हुई, जैसे ऐरावतपर चढ़े हुए इन्द्रकी होती है॥ २९-३९ ॥

जरासंधके मनमें अत्यन्त क्रोध भरा हुआ था। उसने साम्बपर एक मतवाले हाथीको बढ़ाया, जिसके अङ्ग अङ्गमें विचित्र पत्र-रचना की गयी थी तथा जो देखनेमें काल, अन्तक और यमके समान भयंकर था। उस नागराजने अपनी सूँड़से रथसहित साम्बको उठाकर चीत्कार करते हुए नौ योजन दूर फेंक दिया। मैथिल ! उस समय साम्बकी सेनामें बड़ा भारी कोलाहल मच गया। फिर तो प्रद्युम्नके पाससे गद वेगपूर्वक उसी प्रकार उसकी सेनाके सामने आये। जैसे सूर्य अन्धकारका नाश करते हुए उदयाचलसे उदित हुए हों। जरासंधके उस हाथीको वसुदेवनन्दन गदने मुक्कसे इस प्रकार मारा, जैसे इन्द्रने ऊँचे पर्वतपर वज्रसे प्रहार किया हो। उनके मुष्टिकप्रहारसे व्याकुल होकर वह हाथी धरतीपर गिर पड़ा। राजन् ! वह उसी समय मृत्युका ग्रास बन गया। वह अद्भुत-सी बात हुई। तब जरासंधने उठकर बड़े वेगसे गदा उठायी और उसे सहसा गदपर दे मारी। उस समय उस बलवान् वीरने घनके समान गर्जना की, किंतु उसके प्रहारसे गद समराङ्गणसे तनिक भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने तुरंत ही लाख भारकी बनी हुई गदा लेकर जरासंधपर प्रहार किया और सिंहके समान गर्जना की। राजन् ! उनके उस प्रहारसे व्यथित हो बलवान् बृहद्रथकुमार जरासंधने उठकर गदासहित गदको पकड़ लिया और बड़े रोषके साथ आकाशमें सौ योजन दूर फेंक दिया। तब महाबली गदने भी जरासंधको उठाकर घुमाया और उसे आकाशमें एक सहस्र योजन दूर फेंक दिया। राजा मगध आकाशसे विन्ध्यपर्वतपर गिर पड़ा ॥ ४०-५०॥(Vishwajitkhand chapter 16 to 20)

महाबली जरासंधने पुनः उठकर गदके साथ युद्ध आरम्भ किया। उसी समय साम्ब आ पहुँचे। उन्होंने मगधेश्वर जरासंधको पकड़कर पृथ्वीपर उसी प्रकार पटक दिया, जैसे एक सिंह दूसरे सिंहको बलपूर्वक पछाड़ दे। तब मगधके राजाने एक मुक्केसे साम्बको और दूसरे मुक्केसे गदको मारा और समराङ्गणमें बड़े जोरसे गर्जना की। उसके मुक्केकी मारसे व्यथित हो गद और साम्ब दोनों मूच्छित हो गये। उस समय युद्धभूमि में तत्काल ही महान् हाहाकार मच गया। फिर तो यादवराज प्रद्युम्न ऊँची पताकावाले रथके द्वारा एक अक्षौहिणी सेनाके साथ वहाँ पहुँचे और ‘डरो मत’ यों कहकर सबको अभयदान दिया। उन्हें देख जरासंधने लाख भारकी बनी हुई गदा हाथमें ली और जैसे जंगलमें दावानल फैल जाता है, उसी प्रकार उसने यादवसेनामें प्रवेश किया। राजेन्द्र ! उसने वीरोंसहित रथों, हाथियों तथा बहुत-से सिंधी घोड़ोंको इस तरह मार गिराया, मानो किसी महान् गजराजने बहुत-से कमलोंको उखाड़ फेंका हो। जरासंधकी जो सेना भाग गयी थी, वह भी सारी-की-सारी लौट आयी। उसने यादव-सेनाको चारों ओरसे घेरकर तीखे बाणोंसे मारना आरम्भ किया। यादवराज प्रद्युम्र उस युद्धमें निर्भय होकर लड़ने लगे। उन्होंने बारंबार धनुषकी टंकार करते हुए बाणोंद्वारा शत्रुओंको गिराना आरम्भ किया ॥ ५१-५८३ ॥

उसी समय यदुपुरीसे बलदेवजी आ पहुँचे। वे समस्त सत्पुरुषोंके देखते-देखते वहीं प्रकट हो गये। महाबली बलदेवने कुपित होकर मगधराजकी विशाल सेनाको हलके अग्रभागसे खींचकर मुसलसे मारना आरम्भ किया। उनके द्वारा मारे गये रथ, घोड़े, हाथी और पैदल मस्तक विदीर्ण हो जानेसे सौ योजनतक धराशायी हो गये। वे सब के सब कालके गालमें चले गये। उस समय देवताओं और मनुष्योंकी दुन्दुभियाँ एक साथ बजने लगीं। देवतालोग बलदेवजीके ऊपर फूलोंकी वर्षा करने लगे। यादवोंकी अपनी सेनामें तत्काल जोर-जोरसे जय-जयकार होने लगी। तदनन्तर प्रद्युम्न आदिने निश्चिन्त होकर भगवान् कामपाल (बलदेव) को नमस्कार किया। राजन् । इस प्रकार भक्तवत्सल महाबली भगवान् बलदेव मगधराजको जीतकर द्वारकाको चले गये। जरासंधका बुद्धिमान् पुत्र सहदेव भेंट-सामग्री लेकर गिरिदुर्गसे निकला और शम्बरारि प्रद्युम्नजीके सामने उपस्थित हुआ। एक अरब घोड़े, दो लाख रथ और साठ हजार हाथी उसने प्रद्युम्रको नमस्कार करके दिये; क्योंकि वह प्रद्युम्नजीके प्रभावको जानता था ॥ ५९-६७॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘मगध-विजय’ नामक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १७ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ रघुवंशम् महाकाव्य प्रथमः सर्गः

अठारहवाँ अध्याय

गया, गोमती, सरयू एवं गङ्गाके तटवर्ती प्रदेश, काशी, प्रयाग एवं विन्ध्यदेशमें
यादव-सेनाकी यात्रा; श्रीकृष्णके अठारह महारथी पुत्रोंका हस्तलाघव तथा
विवाह; मथुरा, शूरसेन जनपदों एवं नन्द-गोकुलमें प्रद्युम्न आदिका समादर

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्नने सैनिकोंसहित गयामें जाकर फल्गुनदीमें स्नान किया। फिर अन्य दोशोंको जीतनेके लिये वहाँसे आगेको प्रस्थान किया। जरासंधको पराजित हुआ सुनकर उस समय अन्य राजा आतङ्क- वश भयार्त हो प्रद्युम्नकी शरणमें आये और उन सबने उन्हें भेंट दी ॥ १-२॥

गोमती तथा पुण्यसलिला सरयूके तटपर होते हुए प्रद्युम्रजी गङ्गाके किनारे काशीपुरीमें आये। वहाँ पाणिग्राह (विरोधी) काशिराज शिकार खेलनेके लिये गये थे, जो वहीं पकड़ लिये गये। काशिराजने भी यह सुनकर कि प्रद्युम्रकी सेना विशाल है, उन्हें भेंट अर्पित की ॥ ३-४ ॥

राजन् ! तत्पश्चात् बलवान् प्रद्युम्न अपने सैनिकोंके साथ कोसल जनपदमें गये और अयोध्याके निकट नन्दिग्राममें उन्होंने अपनी सेनाकी छावनी डाल दी। कोसलराज नग्ग्र जित्ने, जो तत्त्वज्ञानी थे, बहुत-से घोड़े, हाथी, रथ और महान् धन देकर शम्बरारि प्रद्युम्न- का पूजन किया। उत्तर दिशाके स्वामी दीपतम, नेपाल- के राजा गज तथा विशाला नगरीके स्वामी बर्हिण- इन सबने उन्हें भेंट दी। नैमिषारण्यके स्वामी बड़े भगवद्भक्त और श्रीकृष्णके प्रभावको जाननेवाले थे। उन्होंने हाथ जोड़कर प्रद्युम्रको बलि अर्पित की। इसके बाद श्रीकृष्णकुमार प्रयाग गये और वहाँ पापनाशिनी त्रिवेणीमें स्नान करके उन्होंने महान् दान किया; क्योंकि वे तीर्थराजके प्रभावको जानते थे। बीस हजार हाथी, दस लाख घोड़े, चार लाख रथ, सोनेकी माला तथा सुनहरे वस्त्रोंसे विभूषित दस अरब गौएँ, दस भार स्वर्ण, एक लाख मोती, दो लाख नवरत्न, दस लाख वस्त्र तथा दो लाख कश्मीरी शाल एवं नये कम्बल हरिप्रिय तीर्थराजमें प्रद्युम्नने ब्राह्मणोंको दिये ॥ ५-१२॥(Vishwajitkhand chapter 16 to 20)

मिथिलेश्वर ! कारूष देशका राजा पौण्ड्रक भगवान् श्रीकृष्णका शत्रु था, तथापि उसने भी शङ्कित होनेके कारण श्रीकृष्णकुमार का पूजन किया। पञ्चाल और कान्यकुब्ज देशमें प्रद्युम्रके आगमनकी बात सुनकर वहाँके समस्त नरेश भयभीत हो गये। सबने अपने- अपने दुर्गके दरवाजे बंद कर लिये। सब लोग यादवराजसे भयातुर हो दुर्गका आश्रय लेकर रहने लगे। कितने ही लोग भाग चले। विन्ध्यदेशके अधिपति महाबली राजा दीर्घबाहु उत्तम संधि करनेके लिये शम्बरारि प्रद्युम्रकी सेनामें आये ॥ १३-१६ ॥

दीर्घबाहु बोले- आप सब यादवेन्द्र दिग्विजयके लिये आये हैं; अतः मेरा मनोरथ पूर्ण कीजिये। इससे मेरे चित्तमें संतोष होगा। जलसे भरे हुए काँचके बर्तनको बाणसे बेधा जाय, किंतु एक बूँद भी पानी न गिरे और बाण उसमें खड़ा रहे, बर्तन फूटे नहीं, ऐसी जिसके हाथमें स्फूर्ति हो, वह अपने इस हस्तलाघवका परिचय दे। जो मेरी इस प्रतिज्ञाको पूर्ण करेंगे, उन्हें मैं अपनी कन्याएँ ब्याह दूँगा। आप समस्त यादवेन्द्रगण धनुर्वेदमें कुशल हैं। मैंने भी नारदजीके मुखसे पहले सुना था कि यादवलोग बड़े बलवान् हैं॥ १७-२० ॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! राजा दीर्घबाहुकी बात सुनकर सब लोग विस्मित हो गये। उनमेंसे धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ प्रद्युम्नजीने भरी सभामें विन्दुदेशके नरेशको आश्वासन देते हुए कहा- ‘तथास्तु (ऐसा ही होगा)।’ प्रद्युम्रजीने पृथ्वीपर दो जगह बड़ा-सा बाँस गाड़ दिया और उन दोनोंके बीचमें (अरगनीकी भाँति) एकरस्सी तान दी। फिर उस रस्सीमें समस्त सत्पुरुषोंके देखते-देखते जलसे भरा एक काँचका घड़ा लटका दिया। फिर उन श्रीकृष्णकुमारने धनुष उठाया और उसे भलीभाँति देखकर उसकी डोरीपर बाणका संधान किया। वह बाण छूटा और काँचके पात्रको छेदकर बीचमें आधा निकला हुआ स्थित हो गया। एक ही ओर मुख और पङ्ख दोनों दृष्टिगोचर होते थे। काँचके घड़ेमें भैंसा हुआ वह बाण बादलमें प्रविष्ट सूर्यकी किरणके समान सुशोभित होता था। वह एक अद्भुत-सा दृश्य था। त्रिकुशके फलकी भाँति उस पात्रके न तो टुकड़े हुए, न वह अपने स्थानसे विचलित हुआ; न उसमें कम्पन हुआ और न उससे एक बूंद पानी ही गिरा। विदेहराज ! भगवान् प्रद्युम्नने फिर दूसरे बाणका संधान किया। वह भी पहले बाणका स्थान छोड़कर उस घड़ेमें उसीकी भाँति स्थित हो गया ॥ २१-२६॥

तदनन्तर साम्बने भी धनुष लेकर पाँच बाण छोड़े। वे भी काँच पात्रका भेदन करके उसमें आधे निकले हुए स्थित हो गये। तदनन्तर सात्यकिने भी धनुष लेकर एक ही बाण मारा, किंतु सबके देखते-देखते वह काँचका पात्र चूर-चूर हो गया। यह देख समस्त यादव तथा दूसरे दूसरे सैनिक जोर-जोरसे हँसने लगे और बोले- ‘बस-बस, तुम्हीं इस भूतलपर कार्तवीर्य अर्जुनके समान महान् बाणधारी हो; तुम्हारे सामने अर्जुन, भरत तथा श्रीरामचन्द्रजी भी मात हैं। अथवा तुम त्रिपुरहन्ता रुद्र हो। द्रोण, भीष्म, कर्ण तथा परशुरामजी भी तुमसे हार मान लेंगे’॥ २७-३० ॥

तदनन्तर दूसरा पात्र लटकाकर धनुर्धारियोंमें श्रेष्ठ अनिरुद्धने उसके नीचे जाकर उसे गौरसे देखकर हलके हाथसे बाण मारा। वह बाण भी उस पात्रका भेदन करके आधा निकला हुआ उसमें स्थित हो गया। उस पात्रसे पाँच हाथ ऊपर आकाशमें एक पत्थर लटकाकर दीप्तिमान्ने धनुष उठाया और उसपर एक बाणका संधान किया। वह बाण भी पात्रके भी निचले भागको भेदकर अनिरुद्धवाले बाणको आगे छोड़ता हुआ ऊपरवाले पत्थरसे जा टकराया और फिर वेगसे उस पात्रमें ही आकर स्थित हो गया। तथापि बाणवेग- के कारण उस पात्रसे एक बूँद भी पानी नीचे नहीं गिरा। बाण जबतक गया-आया, तबतक भी जब पानीकी एक बूँद नहीं गिरी, तब यह चमत्कार देखकर सब वीर उन्हें बार-बार साधुवाद देने लगे ॥ ३१-३५॥

तत्पश्चात् भानुने पात्रको अच्छी तरह देखा-भाला। फिर सबके देखते-देखते नेत्र बंद करके धनुष लेकर दूरसे बाण चलाया। उस बाणने भी उस समय पात्रका भेदन करके उसे अधोमुख कर दिया और फिर तत्काल ही उसका मुख ऊपरकी ओर करके वह उसमें आधा निकला हुआ स्थित हो गया; तब भी बाणके वेगसे एक बूँद भी जल नहीं गिरा और पात्र भी नहीं फूट सका। यह अद्भुत-सी बात हुई। इस प्रकार श्रीकृष्णके जो अठारह महारथी पुत्र थे, उन सबने पात्रका भेदन किया, किंतु जलका स्त्राव नहीं हुआ ॥ ३६-३९ ॥(Vishwajitkhand chapter 16 to 20)

यह हस्तलाघव देखकर बिन्दुदेशके राजा दीर्घबाहु बड़े विस्मित हुए। उन्होंने उनके हाथमें अपनी अठारह सुलोचना कन्याएँ प्रदान कीं। उनके विवाहकालमें शङ्ख, भेरी और आनक आदि बाजे बजे, गन्धर्वोने गीत गाये तथा अप्सराओंने नृत्य किया। देवताओंने उन सबके ऊपर जयध्वनिके साथ फूल बरसाये और स्वर्गवासियोंने उन सबकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। राजा दीर्घबाहुने साठ हजार हाथी, एक अरब घोड़े, दस लाख रथ, एक लाख दासियाँ तथा चार लाख शिबिकाएँ दहेजमें दीं। यदुकुलतिलक प्रद्युम्नने वह सारा दहेज द्वारकापुरीको भेज दिया ॥ ४०-४४॥

तत्पश्चात् दीर्घबाहुकी अनुमति ले प्रद्युम्न निषध देशको गये। मैथिल ! निषधके राजाका नाम वीरसेन था। उन्होंने भी महात्मा प्रद्युम्नको भेंट दी। इसी प्रकार भद्रदेशके अधिपति वृहत्सेनने, जो श्रीकृष्णको इष्टदेव माननेवाले तथा श्रीहरिके प्रिय भक्त थे, सेनासहित प्रद्युम्नका सादर पूजन किया। तब वे सैनिकोंसहित माथुर, शूरसेन तथा मधु नामक जनपदोंमें गये। वहाँ स्वागतपूर्वक पूजित हो, वे पुनः मथुरामें आये। तदनन्तर वनोंसहित मथुराकी परिक्रमा करके वे व्रजमें गये। राजन् ! वहाँ उन्होंने गोप-गोपी, यशोदा, व्रजेश्वर नन्दराज, वृषभानु तथा उपनन्दोंको नमस्कार करके बड़ी शोभा पायी। नन्दराजको बारंबार भेंट-उपहार अर्पित करके, उन सबके द्वारा सम्मानित हो वे कई दिनोंतक नन्द-गोकुलमें टिके रहे ॥ ४५-५०॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘मथुरा तथा शूरसेन जनपदोंपर विजय’ नामक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १८ ॥

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उन्नीसवाँ अध्याय

यादव-सेनाका विस्तार; कौरवोंके पास उद्धवका दूतके रूपमें जाकर प्रद्युम्नका संदेश
सुनाना; कौरवोंके कटु उत्तरसे रुष्ट यादवोंकी हस्तिनापुरपर चढ़ाई

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इसके बाद महाबाहु प्रद्युम्न अपनी सेनाओंके साथ उच्चस्वरसे दुन्दुभिनाद करते हुए बड़े वेगसे कुरुदेशमें गये। बीस योजन लंबी भूमिपर उनकी सेनाके शिविर लगे थे। उस छावनीका विस्तार भी दस योजनसे कम नहीं था। उस सेनाकी विस्तृत छावनीमें आने-जानेके लिये पाँच योजन लंबी सड़क थी। वहाँ धनाढच वैश्योंने सहस्रों दूकानें लगा रखी थीं। रत्नोंके पारखी (जौहरी), वस्त्रोंके व्यवसायी, काँचकी वस्तुओंके निर्माता, वायक (कपड़ा बुनने और सीनेवाले), रंगरेज, कुम्हार, कंदकार (मिश्री आदि बनानेवाले हलवाई), तुलकार (कपासमेंसे रूई निकालनेवाले), पटकार (वस्त्र- निर्माता), टङ्ककार (तार आदि टाँकनेका काम करने- वाले) अथवा ‘टङ्क’ (नामक औजार बनानेवाले), चित्रकार, पत्रकार (कागज बनानेवाले), नाई, पटुवे, शस्त्रकार, पर्णकार (दोने बनानेवाले), शिल्पी, लाक्षाकार (लखारे), माली, रजक, (धोबी), तेली, तमोली, पत्थरोंपर खुदाई करने या चित्र बनानेवाले, भड़भूज, काँचभेदी, स्थूल सूक्ष्म मोती आदि रत्नोंका भेदन करनेवाले ये सभी कारीगर वहाँकी सड़कपर दृष्टिगोचर होते थे। कहीं भानुमतीका खेल दिखाने- वाले बाजीगर थे, कहीं इन्द्रजाल फैलानेवाले जादूगर। कहीं नट नृत्य करते थे तो कहीं दो भालुओंका युद्ध होता था। कहीं डमरू बजा-बजाकर वानरोंके खेल दिखाये जाते थे, कहीं बारह प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित वाराङ्गनाओंके नृत्यका कार्यक्रम चल रहा था। वे वार-वधुएँ अपने दिव्य सोलह शृङ्गारोंसे अप्सराओंका भी मन हर लेती थीं। यद्यपि कौरवोंके लिये यादवों की सेना अपने भाई-बन्धुओंकी ही सेना थी, तथापि हस्तिनापुरमें उसका बड़ा भारी आतङ्क फैल गया। वहाँके लोग बड़े वेगसे इधर-उधर खिसकने लगे वे घबराकर कहीं अन्यन्त्र चले जानेकी चेष्टामें लग गये। सब लोग अपने घरोंमें अरगला (बिलाई, साँकल एवं ताले) लगाकर भागने लगे। घर-घरमें और जन-जनमें बड़ा भारी कोलाहल होने लगा सर्वत्र हलचल मच गयी। शौर्य, पराक्रम और बलसे सम्पन्न कौरव चक्रवर्ती राजा थे। वे समुद्र- तककी पृथ्वीके अधिपति थे, तथापि यादवोंकी विशाल सेना देखकर वे भी अत्यन्त शङ्कित हो गये ॥ १-१४॥(Vishwajitkhand chapter 16 to 20)

प्रद्युम्रने बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ उद्धवको दूत बनाकर भेजा। वे कौरवेन्द्र नगर हस्तिनापुरमें जाकर धृतराष्ट्रसे मिले। महाराज धृतराष्ट्रके राजमहलका आँगन मदकी धारा बहानेवाले तथा कस्तूरी और कुङ्कुमसे विभूषित गण्डस्थलोंसे सुशोभित हाथियोंकी सिन्दूर-रञ्जित सूँड़पर बैठने और उनके कानोंसे प्रताड़ित होनेवाले भ्रमरोंसे मण्डित था। हस्तिनापुरके स्वामी राजाधिराज धृतराष्ट्रकी सेवामें भीष्म, कर्ण, द्रोण, शल्य, कृपाचार्य, भूरिश्रवा, बालीक, धौम्य, शकुनि, संजय, दुश्शासन, विदुर, लक्ष्मण, दुर्योधन, अश्वत्थामा, सोमदत्त तथा श्रीयज्ञकेतु उपस्थित थे। वे सब-के-सब सोनेके सिंहासनपर श्वेत छत्र और चैवरसे सुशोभित होकर बैठे थे। उसी समय वहाँ पहुँचकर उद्धवने महाराजको प्रणाम किया और हाथ जोड़कर उनसे कहा ॥ १५-१८ ॥

उद्धव बोले- राजेन्द्र शिरोमणे! प्रद्युम्रने आपके पास मेरे द्वारा जो संदेश कहलाया है, उसे सुनिये- ‘महाबली यादवराज उग्रसेन समस्त भूपतियोंके भी स्वामी हैं। वे समस्त राजाओंको जीतकर राजसूय यज्ञ करेंगे। उन्हींके भेजे हुए रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न सेनाके साथ जम्बूद्वीपके अत्यन्त उद्भट वीर नरेशोंको जीतने- के लिये निकले हैं। वे चेदिराज शिशुपाल, शाल्व, जरासंध तथा दन्तवक्र आदि भूपालोंपर विजय पाकर यहाँतक आ पहुँचे हैं। आप उन्हें भेंट दीजिये। यादव और कौरव एक-दूसरेके भाई बन्धु हैं। इन बन्धुओंमें एकता बनी रहे, इसके लिये आपको भेंट और उपहार- सामग्री देनी ही चाहिये। ऐसा करनेसे कौरवों-वृष्णि- वंशियोंमें कलह नहीं होगा। यदि आप भेंट नहीं देंगे तो युद्ध अनिवार्य हो जायगा।’ यह उनकी कही हुई बात है, जिसे मैंने आपके सम्मुख प्रस्तुत किया है। महाराज! यदि मुझसे कोई धृष्टता हुई हो तो उसे क्षमा कीजिये, दूत सर्वथा निर्दोष होता है। अब आप जो उत्तर दें, उसे मैं वहाँ जाकर सुना दूँगा ॥ १९-२३३॥
नारदजी कहते हैं- राजन् ! उद्धवका वह कथन सुनकर समस्त कौरव क्रोधसे तमतमा उठे। वे अपने शौर्य और पराक्रमके मदसे उन्मत्त थे। उनके होठ फड़कने लगे और वे बोले ॥ २४ ॥

कौरवोंने कहा- अहो! कालकी गति दुर्लङ्घय है, यह जगत् विचित्र है, दुर्बल सियार भी वनमें सिंहके ऊपर धावा बोलने लगे हैं। जिन्हें हमारे सम्बन्धसे ही प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है, जिनको हमलोगोंने ही राज्य- सिंहासन दिया है, वे ही यादव अपने दाताओंके प्रतिकूल उसी प्रकार सिर उठा रहे हैं, जैसे साँप दूध पिलानेवाले दाताओंको ही काट लेते हैं। समस्त वृष्णिवंशी सदाके डरपोक हैं, वे युद्धका अवसर आते ही व्याकुलचित्त हो जाते हैं; तथापि वे निर्लज्ज आज हमलोगोंपर हुकूमत करने चले हैं। उग्रसेनमें बल ही कितना है। वह अल्पवीर्य होकर भी, जम्बूद्वीपमें निवास करनेवाले समस्त राजाओंको जीतकर, उनसे भेंट लेकर राजसूय यज्ञ करेगा-यह कितने आश्चर्य- की बात है! जहाँ भीष्म, कर्ण, द्रोण, दुर्योधन आदि महापराक्रमी वीर बैठे हैं, वहाँ उस दुर्बुद्धि प्रद्युम्नने तुमको मन्त्री बनाकर भेजा है। अतः हमारा यह कहना है कि यदि तुमलोगोंकी जीवित रहनेकी इच्छा हो तो अपनी द्वारकापुरीको लौट जाओ। यदि नहीं जाओगे, तो तुम सब लोगोंको आज हम यमलोक भेज देंगे ॥ २५-३० ॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीकृष्णविरोधी कौरवोंका इस प्रकार भाषण सुनकर उद्धवने प्रद्युम्नके पास जा, सब कुछ कह सुनाया। कौरवोंकी बात सुनकर धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ प्रद्युम्न के होठ रोषके मारे फड़कने लगे। वे र्शाङ्गधनुष हाथमें लेकर बोले ॥ ३१-३२॥

प्रद्युम्नने कहा- कौरव यद्यपि हमारे बन्धु हैं, तथापि ये मदसे उन्मत्त हो गये हैं। इसलिये उनको अपने तीखे बाणोंसे उसी प्रकार नष्ट कर डालूँगा, जैसे योगी कठोर नियमोंद्वारा अपने दैहिक रोगोंको नष्ट कर डालता है। यादवों के सैन्य-समूहमें जो कोई भी वीर कौरवोंसे भेंट दिलवानेका प्रयास नहीं करेगा, वह अपने माता-पिताका औरस पुत्र नहीं माना जायगा ॥ ३३-३४ ॥(Vishwajitkhand chapter 16 to 20)

नारदजी कहते हैं- राजन् ! उसी क्षण भोज, वृष्णि और अन्धक आदि समस्त यादव कुपित हो अपनी सेनाओंके साथ हस्तिनापुर जा चढ़े ॥ ३५ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवादमें ‘कौरवोंके लिये दूत-प्रेषण’ नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १९॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री बटुक भैरव स्तोत्र

बीसवाँ अध्याय

कौरवोंकी सेनाका युद्धभूमिमें आना; दोनों ओरके सैनिकोंका तुमुल
युद्ध और प्रद्युम्नके द्वारा दुर्योधनकी पराजय

नारदजी कहते हैं- राजन् ! उसी समय जिनकी क्रोधाग्रि भड़क उठी थी, वे समस्त कौरव भी अपनी अपनी सेनाओंके साथ प्रद्युम्नका सामना करनेके लिये निकले। रत्नजटित कम्बल (कालीन या झूल) से अलंकृत और सोनेकी साँकलोंसे सुशोभित साठ हजार हाथी विजयध्वज फहराते हुए निकले। प्रलय पयोधि के महान् आवर्ती (भँवरों एवं तरंगों) के टकरानेके समान गगनभेदिनी ध्वनि करनेवाली साठ हजार दुन्दुभियोंका गम्भीर घोष फैलानेवाले वे गजराज क्रमशः आगे बढ़ने लगे। लोहेके कवच बाँधे तथा शिरस्त्राण धारण किये दो लाख महामल्ल भी युद्धके लिये निकले। उनके साथ बहुत-से हाथी और साँड भी थे। तदनन्तर सोनेके कंगन, बाजूबंद, किरीट और सुन्दर कुण्डल पहने, स्वर्णमय कवच धारण किये दो लाख गजारोही योद्धा निकले। तत्पश्चात् पीले कवच और टेढ़ी पगड़ीसे सुशोभित दो लाख वीर योद्धा, जो अनेक संग्रामोंमें विजयकीर्ति पा चुके थे, युद्धके लिये निकले। वे भी हाथियोंपर ही बैठे थे। कोई लाल रंगके वस्त्र पहने और लाल रंगके ही आभूषणोंसे विभूषित थे। वे लाल रंगकी ही झूलसे सज्जित ऊँचे गजराजोंपर चढ़कर युद्धके लिये निकले थे। कुछ हाथीसवार योद्धा काले रंगके कपड़े पहिने हुए थे। कुछ हरे वस्त्रोंसे सुसज्जित थे। कुछ लोग श्वेत वस्त्र धारण किये हुए और कुछ गुलाबी कपड़ोंसे सजे हुए युद्धके लिये आये थे। करोड़ों राजन्यकुमार देवविमानोंके समान रथोंपर बैठकर आये थे, जो अत्यन्त ऊँचे और सिंहध्वजसे सुशोभित थे। उन रथोंपर पताकाएँ फहरा रही थीं। अङ्ग-वङ्ग तथा सिन्धु देशोंमें उत्पन्न हुए चञ्चल घोड़ोंपर, जो मनके समान वेगशाली तथा सोनेके आभूषणोंसे विभूषित थे, सवार हो बहुतसे क्षत्रिय योद्धा शस्त्र लिये नगरसे बाहर निकले ॥ १-१०॥

राजन् ! लोहेके कवचोंसे अलंकृत तथा विद्याधरों- के समान युद्धकुशल बहुसंख्यक वीर चारों ओरसे झुंड-के-झुंड निकलने लगे। भेरी, मृदङ्ग, पटह और आनक आदि युद्धके बाजे बजने लगे। सूत, मागध और वंदीजन कौरवोंका यश गा रहे थे। धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन अपनी विशाल सेनाके बीच बहुत बड़े रथपर बैठा शोभा पा रहा था। वह रथ चन्द्रमण्डल के समान उज्ज्वल तथा चार योजनके घेरेवाले छत्रसे अलंकृत हो, अत्यन्त मनोहर प्रतीत होता था। वह छत्र उसे राजाओंकी ओरसे भेंटके रूपमें प्राप्त हुआ था। हीरेके बने हुए दण्डवाले बहुत-से व्यजन चॅवर डुलानेवालों के हाथोंमें सुशोभित हो उस रथकी शोभा बढ़ाते थे। उसमें श्वेत रंगके घोड़े जुते हुए थे और उसके ऊपर सिंहध्वज फहरा रहा था। दुर्योधनके अतिरिक्त अन्य धृतराष्ट्र-पुत्र भी अलग-अलग रथपर बैठे थे। उनके रथोंपर भी चार-चार योजनके घेरेवाले छत्र, जिनमें मोतीकी झालरें लटक रही थीं, शोभा दे रहे थे। भीष्म, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, बाह्रीक, कर्ण, शल्य, बुद्धिमान् सोमदत्त, अश्वत्थामा, धौम्य, धनुर्धर वीर लक्ष्मण, शकुनि, दुश्शासन, संजय, भूरिश्रवा तथा यज्ञकेतुके साथ सुन्दर रथपर बैठकर आता हुआ राजा दुर्योधन मरुद्रणोंके साथ इन्द्रकी भाँति शोभा पा रहा था॥ ११-१८॥(Vishwajitkhand chapter 16 to 20)

राजन् ! उसी समय इन्द्रप्रस्थसे पाण्डवोंकी भेजी हुई दो ‘पृतना’ सेना कौरवोंकी सहायताके लिये आयी। कौरवोंकी सोलह अक्षौहिणी सेनाओंके चलनेसे पृथ्वी हिलने लगी, दिशाओंमें कोलाहल व्याप्त हो गया और उड़ती हुई धूलसे आकाशमें अन्धकार छा गया। घोड़े, हाथी तथा रथोंकी रेणुसे व्याप्त आकाशमें सूर्य एक तारेके समान प्रतीत होता था। भूतलपर अन्धकार फैल गया। समस्त देवता शङ्कित हो गये। यत्र-तत्र हाथियोंकी टक्करसे वृक्ष टूट-टूटकर गिरने लगे। घुड़सवार वीरोंके अश्वचालनसे भूखण्डमण्डल खुद गया। कौरव और वृष्णिवंशियोंकी सेनाएँ परस्पर जूझने लगीं। जैसे प्रलयकालमें सातों समुद्र अपनी तरंगोंसे टकराने लगते हैं, उसी प्रकार उभय पक्षकी सेनाएँ तीखे शस्त्रोंसे परस्पर प्रहार करने लगीं। जैसे बाज पक्षी मांसके लिये आपसमें जूझते हैं, उसी प्रकार उस युद्ध- भूमिमें घोड़े घोड़ोंसे, हाथी हाथियोंसे, रथी रथियोंसे और पैदल पैदलोंसे भिड़ गये। महावत महावतोंसे, सारथि सारथियोंसे तथा राजा राजाओंसे रोषपूर्वक इस प्रकार युद्ध करने लगे, मानो सिंह सिंहोंसे पूरी शक्ति लगाकर युद्ध कर रहे हों। तलवार, भाले, शक्ति, बछे, पट्टिश, मुगर, गदा, मुसल, चक्र, तोमर, भिन्दिपाल, शतघ्नी, भुशुण्डी तथा कुठार आदि चमकीले अस्त्र- शस्त्रों एवं बाण-समूहोंद्वारा रोषावेशसे भरे हुए योद्धा एक-दूसरेके मस्तक काटने लगे ॥ १९-२७ ॥

रणभूमिमें बाणोंद्वारा अन्धकार फैल जानेपर धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ प्रद्युम्न वारंवार धनुषकी टंकार करते हुए दुर्योधनके साथ युद्ध करने लगे। नृपेश्वर! अनिरुद्ध भीष्मके साथ, दीप्तिमान् कृपाचार्यके साथ, भानु द्रोणाचार्यके साथ, साम्ब बाह्रीकके साथ, मधु कर्णके साथ तथा बृहद्भानु शल्यके साथ भिड़ गये। मैथिल ! श्रीकृष्णके पुत्र चित्रभानु बुद्धिमान् सोमदत्तके साथ, वृक अश्वत्थामाके साथ, अरुण धौम्यके साथ, पुष्कर दुर्योधनपुत्र लक्ष्मणके साथ, कृष्णकुमार वेदबाहु उस महायुद्धमें शकुनिके साथ, श्रीहरिके पुत्र श्रुतदेव समराङ्गणमें दुश्शासनके साथ तथा सुनन्दन संजयके साथ युद्ध करने लगे। राजन् ! गद विदुरके साथ, कृतवर्मा भूरिश्रवाके साथ तथा अक्रूर यज्ञकेतुके साथ संग्राम-भूमिमें लड़ने लगे ॥ २८-३४॥

इस प्रकार दोनों सेनाओंमें परस्पर अत्यन्त भयंकर युद्ध छिड़ गया। श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्नने दुर्योधनकी विशाल सेनाको अपने बाण-समूहोंद्वारा उसी प्रकार मथ डाला, जैसे वाराह अवतारधारी भगवान्ने प्रलय- कालके महासागरको अपनी दाढ़से विक्षुब्ध कर दिया था। बाणसे विदीर्ण मस्तकवाले हाथियोंके मुक्ताफल आकाशसे गिरते समय ऐसी शोभा पा रहे थे, मानो रातमें भूतलपर तारे बिखर रहे हों। मैथिलेन्द्र ! प्रद्युम्रने अपने बाणोंसे उस महासमरमें सारथि, रथी एवं रथोंको उसी तरह मार गिराया, जैसे वायु अपने वेगसे बड़े-बड़े वृक्षोंको धराशायी कर देती है॥ ३५-३७॥

उस समय दुर्योधन बार-बार अपने धनुषको टंकारता हुआ वहाँ आ पहुँचा। उसने उस युद्धमें दस बाणोंको प्रद्युम्रपर छोड़ा, किंतु यादवेश्वर भगवान् प्रद्युम्रने उन बाणोंको अपने ऊपर पहुँचनेके पहले ही काट गिराया। तब दुर्योधनने पुनः प्रद्युम्नके कवचको अपना निशाना बनाकर सोनेके पंखवाले दस सायक चलाये। वे सायक प्रद्युम्नके कवचको विदीर्ण करके उनके शरीरमें समा गये। तत्पश्चात् सहस्र बाण- समूहोंद्वारा प्रहार करके धृतराष्ट्रके बलवान् पुत्र महावीर दुर्योधनने प्रद्युम्नके रथके सहस्र घोड़ोंको मार डाला। फिर सौ बाणोंसे प्रत्यञ्चासहित उनके उत्तम धनुषको भी खण्डित कर दिया ॥ ३८-४१॥(Vishwajitkhand chapter 16 to 20)

प्रद्युम्न उस रथको त्यागकर तत्काल दूसरे रथपर जा बैठे। इसके बाद उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णके दिये हुए धनुषको हाथमें लेकर उसपर विधिपूर्वक प्रत्यञ्चा चढ़ायी और एक बाणका संधान करके उसे अपने कानतक खींचा। फिर बाहुदण्डके वेगसे उस वाणको दुर्योधनके रथके नीचे भैंसा दिया। वह बाण दुर्योधनके रथको ले उड़ा और दो घड़ीतक उसे आकाशमें घुमाता रहा। तत्पश्चात् जैसे छोटा बालक कमण्डलुको फेंक देता है, उसी प्रकार उस बाणने दुर्योधनके रथको आकाशसे नीचे गिरा दिया। नीचे गिरनेसे वह रथ तत्काल चूर-चूर हो गया। उसके सभी घोड़े सारथिसहित मृत्युके ग्रास बन गये। महाबली धृतराष्ट्रपुत्र तत्काल दूसरे रथपर जा बैठा। उसने दस सायकोंद्वारा युद्धभूमिमें प्रद्युम्नको घायल कर दिया। उन सायकोंसे आहत होनेपर भी श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न फूलकी मालासे मारे गये हाथीकी भाँति तनिक भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने श्रीकृष्णके दिये हुए कोदण्डपर एक बाण रखा और उसे चला दिया। वह बाण रथसहित दुर्योधन को लेकर ज्यों ही महाकाशमें पहुँचा, त्यों ही प्रद्युम्नका छोड़ा हुआ दूसरा बाण भी शीघ्र उसे लेकर और भी आगे बढ़ गया। तबतक तीसरा बाण भी वहाँ पहुँचा। उसने अश्व तथा सारथि सहित उस रथको लेकर राजमन्दिरके आँगनमें आकाशसे धृतराष्ट्रके समीप इस प्रकार ला पटका, मानो वायुने कमलकोषको उड़ाकर नीचे डाल दिया हो। उस रथको वहाँ गिराकर वह बाण रणभूमिमें प्रद्युम्नके पास लौट आया। नीचे गिरते ही वह रथ अङ्गारकी भाँति बिखर गया। दुर्योधन मुखसे रक्त वमन करता हुआ मूच्छित हो गया ॥ ४२-५२ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्च संवादमें ‘यादव-कौरव-युद्धका वर्णन’ नामक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२०॥

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