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Garga Samhita Vishwajitkhand chapter 31 to 35

Garga Samhita
Garga Samhita Vishwajitkhand chapter 31 to 35

॥ श्रीहरिः ॥

ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते

श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः

Garga Samhita Vishwajitkhand Chapter 31 to 35 |
श्री गर्ग संहिता के विश्वजीतखण्ड अध्याय 31 से 35 तक

श्री गर्ग संहिता में विश्वजीतखण्ड (Vishwajitkhand chapter 31 to 35) के इकतीसवाँ अध्याय में रम्यकवर्ष में मन्मथशालिनी पुरी के लोगों द्वारा श्री कृष्णलीला का गान; प्रजापति व्यति संवत्सर द्वारा प्रद्युम्न का पूजन; कामवन में प्रद्युम्न का अपने कामदेव स्वरूप में विलय होने का वर्णन किया गया है। बत्तीसवाँ अध्याय में भद्राश्ववर्षमें भद्रश्रवाके द्वारा प्रद्युम्नका पूजन तथा स्तवन; यादव सेनाकी चन्द्रावती पुरीपर चढ़ाई; श्रीकृष्णकुमार वृकके द्वारा हिरण्याक्ष पुत्र हृष्टका वध वर्णन है। तैंतीसवाँ अध्याय में संग्राम जीत के हाथ से भूत-संताप का वध करने का वर्णन कहा है। चौंतीसवाँ अध्याय में अनिरुद्ध के हाथ से वृक दैत्य का वध वर्णन और पैंतीसवाँ अध्याय में साम्ब द्वारा कालनाभ दैत्य का वध का वर्णन कहा गया है।

यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक

इकतीसवाँ अध्याय

रम्यकवर्ष में मन्मथशालिनी पुरी के लोगों द्वारा श्री कृष्णलीला का गान; प्रजापति
व्यति संवत्सर द्वारा प्रद्युम्न का पूजन; कामवन में प्रद्युम्न का
अपने कामदेव स्वरूप में विलय

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार रम्यकवर्षपर विजय पाकर महाबली श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न सुमेरुपर्वतके पूर्वभागमें स्थित ‘केतुमाल’ वर्ष- में गये ॥ १॥

मिथिलेश्वर ! उस वर्षका सीमापर्वत ‘माल्यवान् है, जहाँसे ‘चार’ नामवाली महापातकनाशिनी गङ्गा प्रवाहित होती है। माल्यवान् गिरिके पास मन्मथ शालिनी पुरी है, जो अपने रत्नमय परकोटों और महलोंसे देवताओंकी राजधानी (अमरावती) की भाँति शोभा पाती है। राजन् ! वहाँके पुरुष कामदेवके समान कान्तिमान् हैं। उनकी अङ्ग कान्ति शरद् ऋतुके प्रफुल्ल नील-कमलके समान होती है और उनके नेत्र भी विकसित कमल-दलकी शोभाको लज्जित करते हैं। यहाँकी नव-यौवना कामिनियाँ पीताम्बर धारण करके फूलोंके हार पहनकर मनोहर वेषमें कन्दुकक्रीड़ा किया करती हैं। उनके शरीरका स्पर्श करके प्रवाहित होनेवाली वायु मतवाले भ्रमरोंकी ध्वनिसे निनादित हो चारों ओर सौ योजन विस्तृत भू-भागको सुवासित करती है। उस पुरीमें निवास करनेवाले बहुश्रुत मनुष्य नगरसे बाहर निकले और प्रद्युम्नके सुनते-सुनते श्रीमुरारिके यशका गान करने लगे ॥ २-७॥

केतुमालवासी बोले- जो जगत्की पीड़ा हर लेनेवाले साक्षात् प्रधान-पुरुषेश्वर आदिदेव शेषनागकी शय्यापर शयन करते हैं और जिन्होंने देवताओंकी प्रार्थना सुनकर भूलोककी रक्षा करनेके लिये भारत- वर्षमें अवतार लिया है, उन भगवान् पुरुषोत्तमको नमस्कार है। वे प्रकट होनेके बाद माता-पिताको बन्धनमुक्त करके शिशुरूपमें पिताके घरसे नन्दभवन- को चले गये, वहाँ दयामयी नन्दपत्नी यशोदाने बड़े प्यारसे उनका लालन-पालन किया, अनन्त मङ्गलमयी शोभासे सम्पन्न उन्होंने अपनेको मारनेके लिये आयी हुई पूतनाके प्राणोंका अपहरण कर लिया। बालक-रूपमें ही सोते हुए उन श्रीनन्दनन्दनने छकड़ेको उलट दिया और महादैत्य तृणावर्तकी पीठपर चढ़कर उसे मार गिराया। माताको अपने विश्वरूपका दर्शन कराया, गर्गाचार्यके द्वारा उनका नामकरण संस्कार हुआ और गर्गाचार्यने उनकी सुन्दर सौभाग्य-लक्ष्मीका वर्णन किया। व्रजके लोगोंने उन्हें लाड़ लड़ाया, उनके द्वारा माखनचोरीकी लीलाएँ हुई। श्याम मनोहररूपधारी कोमल बालक श्रीकृष्णने दहीके मटके फोड़कर उसमें- से खूब दही खाया और माताने जब छोटी-सी रस्सीसे उन्हें ओखलीमें बाँध दिया, तब उन्होंने वह ओखली अटकाकर दो यमल वृक्षोंको तोड़ दिया, वृन्दावनमें बछड़ों और ग्वाल-बालोंके साथ विचरते हुए श्रीहरिने कपित्थवृक्षोंद्वारा वत्सासुरको मारकर यमुना किनारे बकासुरके तीखे चञ्चपुटोंको पकड़ लिया और दोनों हाथोंसे उस दैत्यको तिनकेकी भाँति चीर डाला।ग्वाल-बालोंके साथ बहुसंख्यक बछड़ोंके समुदायको चराते तथा वेणु बजाते हुए उन मदनमोहन वेषधारी प्रभुने अघासुरके मुखमें पड़े हुए गोपों और गौओंकी रक्षा की और जब ब्रह्माजी ग्वालों और बछड़ोंको चुरा ले गये, तब वे स्वयं ही तत्काल गोप-बालक और बछड़े बनकर पूर्ववत् सारा कार्य चलाने लगे, वे ही भगवान् श्रीकृष्ण सबके शरीरमें क्षेत्रज्ञ एवं अन्तर्यामी आत्मा हैं। वे ही अनन्त, पूर्ण, प्रधान और पुरुषके ईश्वर (क्षर और अक्षरसे अतीत पुरुषोत्तम) तथा आदिदेव हैं। वे अजन्मा प्रभु ग्वाल-बाल और बछड़ोंका रूप धारण करके व्रजके अन्य बालकोंमें विहार करते और ब्रह्माजीको मोहित करते हुए सब ओर विचरने लगे ॥८-१४॥(Vishwajitkhand chapter 31 to 35)

उन्होंने बलवान् धेनुकासुरको बलपूर्वक ताड़के वृक्षपर दे मारा और ताड़-फल लेकर चले आये। फिर यमुनाके जलमें कूदकर सहसा कालियनागको जा पकड़ा और उसके फनोंपर नृत्य करके उसे जलसे बाहर निकाल दिया। तदनन्तर वे दावानलको पी गये और बलरामजीके सहयोगसे शीघ्र ही सुदृढ़ मुष्टिका- प्रहार करके उन्होंने प्रलम्बासुरको मौतके घाट उत्तार दिया। वनमें मधुर स्वरसे वेणु बजाकर उन्होंने व्रज-बधुओंको वहाँ बुला लिया और उनके मुखसे अपनी कीर्तिका गान सुना। यमुनामें नग्न स्त्रान करनेवाली गोप-किशोरियोंके दिव्य वस्त्र चुराये और वनमें ब्राह्मण-पत्नियोंके दिये हुए भातका ग्वाल- बालोंके साथ भरपेट भोजन किया। इन्द्र पूजा बंद करके गोवर्धन पूजा चालू करनेपर जब पर्जन्यदेव घोर वर्षा करने लगे, तब कृपापूर्वक उन्होंने पशुओंकी रक्षा करनेके लिये गोवर्धन पर्वतको छत्रकी भाँति उठा लिया-ठीक उसी तरह जैसे साधारण बालक गोबर- छत्ता उठा ले। जैसे गजराज अनायास कमलका फूल उठा लेता है, उसी प्रकार एक हाथपर पर्वत उठाये भगवान को देखकर शचीपति इन्द्रने इनकी स्तुति की। वरुणलोकमें जाकर वहाँसे नन्दजीको सुरक्षित ले आये तथा स्वजनोंको भगवान ने अन्धकारसे परे अपने दिव्य परमधाम गोलोकका दर्शन कराया। श्रीरास- मण्डलमें उपस्थित हो भगवान्ने व्रजसुन्दरियोंके साथ रास-क्रीड़ा की और यमुना-पुलिनपर गोपाङ्गनाओंके साथ विहार किया ॥ १५-१८ ॥

व्रजसुन्दरियोंको अपने मादक यौवनपर अभिमान करते देख उनके उस मानका अपहरण करनेके लिये भगवान् उनके बीचसे अन्तर्धान हो गये। तब उनके दर्शनके लिये व्याकुल हुई व्रजाङ्गनाएँ उन्हींकी कीर्तिका गान करने लगीं। तदनन्तर विरहसे व्याकुल हुई उन व्रजबालाओंके बीच फूलोंके हार धारण किये, मनोहर- रूपधारी साक्षात् मदनमोहन श्रीहरि पुनः प्रकट हो गये। वृन्दावनमें श्यामसुन्दरने शबरराजकी परम सुन्दरी किशोरियोंके साथ उसी प्रकार रमण किया, जैसे आदिदेव भगवान् विष्णु अपनी विभूतियोंके साथ रमण करते हैं। उस समय बड़े-बड़े देवताओंने उनकी स्तुति की। उन माधवने रास-रङ्गस्थलीमें केयूर, कुण्डल और किरीट आदि आभूषणोंसे मनोहर वेष धारण करके रमण किया। भगवान्ने अम्बिकावनमें नन्दराजको अजगरके मुखसे छुड़ाकर उस सर्पको भी मोक्ष प्रदान किया। शङ्खचूड़ यक्षसे उसकी मणि ले ली। गोपोंने उनकी स्तुति की और उन्होंने वृषभरूपधारी अरिष्टासुरका एक सींग पकड़कर उसे पृथ्वीपर पटक दिया और एक ही हाथसे उसे मार डाला। कंसको बड़ा भय हो गया था, इसलिये उसने केशीको भेजा। वह मेघके समान काला एवं प्रचण्ड शक्तिशाली दानव था। भगवान्ने उसे एकबार पकड़कर छोड़ दिया। किंतु जब पुनः बड़े वेगसे उसने आक्रमण किया, तब श्रीकृष्णने उसके मुँहके भीतर अपनी बाँह डाल दी और इस युक्तिसे उसे मार डाला ॥ १९-२२॥(Vishwajitkhand chapter 31 to 35)

भगवान् नारदने जिनकी सौभाग्य लक्ष्मी का अनेक प्रकारसे वर्णन किया है, उन परमात्मा श्रीहरिने व्योमासुरको भी प्राणहीन कर दिया। अक्रूरके द्वारा उन आदिदेवके महान् ऐश्वर्यका वर्णन किया गया। वे गोपीजनोंके अत्यन्त विरहातुर चित्तको भी चुरानेवाले हैं। उन्होंने अपने हितकारी श्वफल्कपुत्र अक्रूरको जलके भीतर अपना दिव्य रूप दिखाकर फिर समेट लिया। उनके साथ वे परमेश्वर मथुराके उपवनमें पहुँचे और ग्वाल-बालों तथा बलरामजीके साथ उन्होंने मथुरापुरीका दर्शन किया। स्वच्छन्दतापूर्वक मधुपुरीमें विचरते हुए श्रीहरिने कटुवादी रजकको मौतके घाट उतार दिया। अपने प्रेमी दर्जीको उत्तम वर दिये, फूलोंकी माला अर्पित करनेवाले मालीपर कृपा की, कुब्जाको सीधी करके सुन्दरी बनाया और कंसकी यज्ञशालामें रखे हुए धनुषको नवाते हुए सहसा उसे तोड़ डाला। रङ्गशालाके द्वारपर कुवलयापीड हाथीका वध करके दो राजकीय पहलवानोंको रङ्गभूमिमें पछाड़कर कंसको भी जा पकड़ा और उसे अखाड़ेमें गिराकर प्राणशून्य कर दिया। फिर माता-पिताको कैदसे छुड़ाकर महान् शक्तिशाली उग्रसेनको मथुरापुरीका राजा बना दिया। नन्दजीको प्रसन्न करके बहुत भेंट दी; गोपोंको बुलाकर उन सबको धनसे तृप्त करके बहुत कुछ निवेदन किया और उन्हें व्रजको लौटाकर वे गुरुके घरमें विद्या पढ़नेके लिये गये। वहाँ अध्ययन समाप्त करके श्रीकृष्णने समुद्रवासी पञ्चजन नामक दानवका वध करनेके पश्चात् गुरुके मरे हुए पुत्रको यमलोकसे लाकर दक्षिणाके रूपमें उन्हें अर्पित किया। उद्धवको भेजकर अपने प्रेम-संदेशसे गोपीजनोंको अनुगृहीत किया और अक्रूरको हस्तिनापुर भेजकर पाण्डवोंका समाचार जाना। तदनन्तर श्रीकृष्णने बलवान् जरासंधको पराजित करके मुचुकुन्दकी दृष्टिसे प्रकट हुई अग्निके द्वारा कालयवनको भस्म कर दिया ॥ २३-२८ ॥

इसके बाद अपने रहनेके लिये श्रीहरिने अद्भुत पुरी कुशस्थलीका निर्माण कराके कुण्डिनपुरसे भीष्मक कन्या रुक्मिणीका अपहरण किया। अपने पुत्रके द्वारा शत्रु शम्बरासुरका वध कराया तथा युद्धमें ऋक्षराज जाम्बवान को जीतकर उनसे प्राप्त हुई मणि राजा उग्रसेनको दे दी। तत्पश्चात् परमेश्वर श्रीकृष्ण सत्यभामाके पति हुए। उन्होंने अपने श्वशुर सत्राजितका वध करनेवाले शतधन्वाका सिर काट लिया और कुछ कालके बाद सूर्यपुत्री यमुनाके साथ विवाह किया। इसके बाद उन्होंने अवन्ति-राजकुमारी मित्रवृन्दाका हरण किया तथा स्वयंवर-गृहमें सात वृषभोंका दमन करके श्रीकृष्णने कोसलराज नग्नजित की पुत्री सत्याका पाणिग्रहण किया। तत्पश्चात् केकयराज-कन्या भद्राका हरण किया और सम्पूर्ण मद्रदेशके राजाकी पुत्री लक्ष्मणाको स्वयंवरमें जीता। युद्ध भूमिमें शस्त्र समूहोंद्वारा सेनासहित भौमासुरको जीतकर सोलह सहस्र सुन्दरियोंको वे ब्याह लाये। सत्यभामाकी इच्छासे उन्होंने केवल पत्नीको साथ लेकर स्वर्गमें इन्द्रको परास्त किया और वहाँसे पारिजात वृक्ष तथा सुधर्मा सभाको वे उठा लाये। उन्होंने द्यूत-सभामें बलरामजीके द्वारा दुष्ट रुक्मीको मरवा डाला और बाणासुरकी सहस्त्र भुजाओंमेंसे दोको छोड़कर शेष सबके सौ-सौ टुकड़े कर डाले। उन परमात्माने राजा उग्रसेनके राजसूय यज्ञकी सिद्धिके निमित्त सम्पूर्ण जगत को जीतनेके लिये अपने पुत्र शम्बरशत्रु प्रद्युम्नको भेजा, जो भूमण्डलके समस्त राजाओंको जीतकर यहाँ केतुमालपतिपर विजय पानेके लिये आये हैं। उनको हमारा नमस्कार है॥ २९-३३॥(Vishwajitkhand chapter 31 to 35)

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यह सब सुनकर प्रसन्न हो महामनस्वी श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न हरिने उन लोगोंको कुण्डल, कड़े, हीरा, मणि, हाथी और घोड़े पुरस्कारके रूपमें दिये। उस मन्मथशालिनी पुरीमें महान् प्रजापति व्यति संवत्सरने प्रद्युम्नको नमस्कार करके भेंट अर्पित की ॥ ३४-३५ ॥

तदनन्तर महाबाहु प्रद्युम्न दिव्य कामवनमें गये, जो अन्य साधारण लोगोंके लिये अगम्य था; केवल प्रजापतिकी पुत्रियाँ उसमें जा सकती थीं। वह सुन्दर वन साक्षात् कामदेवका क्रीड़ास्थल था और कामास्त्रके तेजसे चारों ओरसे सुरक्षित था। वहाँ नारियोंका गर्भ प्राणशून्य होकर गिर पड़ता था, वर्षभर भी टिक नहीं पाता था ॥ ३६-३७॥

राजन् ! उस समय उस उत्कृष्ट कामवनसे फूलोंके पाँच बाण लिये पुष्पधन्वा कामदेव निकले। उनके श्याम शरीरपर पीताम्बर शोभा पा रहा था। उनका रूप अत्यन्त मनोहर था। उन्होंने अपने धनुषकी प्रत्यञ्चाका गम्भीर घोष फैलाया। उनके बाणका स्पर्श होते ही यादव-वीर अपने सैनिकों, घोड़ों, हाथियों और पैदलोंके साथ स्वतः काममोहित होकर गिर पड़े। उनके बाणके वेगका वर्णन नहीं हो सकता। तदनन्तर जगदीश्वरोंके भी ईश्वर श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न उसी समय कामदेवके स्वरूपमें विलीन हो गये, जैसे पानी पानीमें मिल जाता है। नरेश्वर! सैनिकोंसहित समस्त यादव रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्नको कामदेवका पूर्णस्वरूप जानकर तत्काल चकित हो गये ॥ ३८-४० ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘मन्मथदेशपर विजय’ नामक इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३१ ॥

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बत्तीसवाँ अध्याय

भद्राश्ववर्षमें भद्रश्रवाके द्वारा प्रद्युम्नका पूजन तथा स्तवन; यादव सेनाकी चन्द्रावती
पुरीपर चढ़ाई; श्रीकृष्णकुमार वृकके द्वारा हिरण्याक्ष पुत्र हृष्टका वध

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर महाबाहु श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न समूचे केतुमालवर्षपर विजय पाकर, धनुष धारण किये, योग-समृद्धियोंसे युक्त ‘भद्राश्ववर्ष’ में गये, जिसकी सीमाका पर्वत साक्षात् ‘गन्धमादन’ बड़ी शोभा पाता है, जहाँसे पापनाशिनी गङ्गा ‘सीता’ नामसे प्रवाहित होती हैं। वहाँ सर्वपापनाशक ‘वेदक्षेत्र’ नामक महातीर्थ है, जहाँ महाबाहु हयग्रीव हरिका निवास है। धर्मपुत्र भद्रश्रवा उनकी सेवा करते हैं॥१-३॥

सीता-गङ्गाके पुलिनपर महात्मा प्रद्युम्नकी सेनाके शिविर पड़ गये, जो सुनहरे वस्त्रोंके कारण बड़े मनोहर जान पड़ते थे। भद्राश्व देशके अधिपति धर्मपुत्र महाबली महात्मा भद्रश्रवाने भक्तिभावसे परिक्रमा करके श्रीकृष्णकुमारको प्रणाम किया और उन्हें भेंट अर्पित की। फिर वे उनसे बोले ॥ ४-५ ॥

भद्रश्रवाने कहा- प्रभो! आप साक्षात् पूर्ण परिपूर्णतम भगवान् हैं। साधुपुरुषोंकी रक्षाके निमित्त ही दिग्विजयके लिये निकले हैं। भगवन्! आपने पूर्वकालमें शम्बर नामक दैत्यको परास्त किया था। उसका छोटा भाई उत्कच बड़ा दुष्ट था, जो गोकुलमें छकड़ेपर जा बैठा था। वह भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके द्वारा मारा गया; परंतु उसका बड़ा भाई महादुष्ट बलवान् शकुनि अभी जीवित है। देव! वह आपसे ही परास्त होनेयोग्य है, दूसरा कोई कदापि उसे जीत नहीं सकता ॥ ६-८॥(Vishwajitkhand chapter 31 to 35)

प्रद्युम्नने पूछा- धर्मनन्दन ! दैत्यराज शकुनि किसके वंशमें उत्पन्न हुआ है, उसका निवास किस नगरमें है और उसका बल क्या है- यह बताइये ॥९॥

भद्रश्रवाने कहा- भगवन्! कश्यप मुनिके द्वारा दितिके गर्भसे दो आदिदैत्य उत्पन्न हुए, जिनमें बड़ेका नाम हिरण्यकशिपु और छोटेका नाम हिरण्याक्ष था। हिरण्याक्षके भी नौ पुत्र हुए, जिनके नाम इस प्रकार हैं-शकुनि, शम्बर, हृष्ट, भूत-संतापन, वृक, कालनाभ, महानाभ, हरिश्मश्रु तथा उत्कच। देवकूटसे दक्षिण दिशामें जठरगिरिकी तराईमें चन्द्रावती नामक पुरी है, जो दैत्योंके दुर्गसे सुशोभित है। वहाँ छः भाइयोंसे घिरा हुआ शकुनि निवास करता है। यदूत्तम ! ऋषिलोग जब-जब यज्ञका आरम्भ करते हैं, तब-तब वह उनके यज्ञको भङ्ग कर देता है। भक्तजनपालक ! उससे इन्द्र आदि देवता भी उद्विग्न हो उठे हैं। देव! वह देवद्रोही दैत्यराज आपसे ही जीते जानेयोग्य है; क्योंकि आपने भक्तोंकी शान्तिके लिये सम्पूर्ण जगत्‌को जीता है। आप भगवान् प्रद्युम्नको नमस्कार है। चतुर्व्यहरूप आपको प्रणाम है। गौ, ब्राह्मण, देवता, साधु तथा वेदोंके प्रतिपालक आपको नमस्कार है॥१०-१७॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार प्रार्थना करनेपर साक्षात् भगवान् प्रद्युम्न हरिने राजा भद्रश्रवाको ‘डरिये मत’- यों कहकर अभयदान दिया। तदनन्तर महाबाहु प्रद्युम्नने अपनी सेनाके साथ चद्रावतीपुरीमें पहुँचनेके लिये वहाँसे तत्काल प्रस्थान किया। शकुनिको मेरे मुँहसे यह समाचार मिल गया कि ‘तुम्हें मारनेके लिये यदुकुलतिलक प्रद्युम्न आ रहे हैं।’ यह सुनकर उस दैत्यराजने दैत्योंकी सभामें शूल उठाकर कहा ॥ १८-२० ॥

शकुनि बोला- बड़े सौभाग्य और प्रसन्नताको बात है कि मेरा शत्रु प्रद्युम्न स्वयं यहाँ आ रहा है। दैत्यो! मुझे उसे परास्त करना है; क्योंकि मुझपर मेरे भाईका ऋण पहलेसे ही चढ़ा हुआ है। जिसने पूर्व- कालमें मेरे भाई शम्बरको मारा था, उसी अपराधके कारण मैं यादवोंसहित उस प्रद्युम्नको मार डालूँगा। इसलिये असुरो ! तुमलोग जाओ और उसकी सेनाका विध्वंस करो। तत्पश्चात् मैं उसका, देवराज इन्द्रका और देवताओंका भी वध करूँगा ॥ २१-२३॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! शकुनिकी आवाज सुनकर महाबली दैत्य हृष्ट एक करोड़ दैत्योंकी सेना साथ लिये यादव-सेनाके सम्मुख युद्धके लिये आया। लीलासे ही मानव शरीर धारण करनेवाले भगवान् प्रद्युम्नने अपनी सम्पूर्ण सेनाका गृध्रव्यूह बनाया, अर्थात् गृध्रकी आकृतिमें अपनी सेनाको खड़ा किया। गृध्र- व्यूहमें चोंचके स्थानपर धनुर्धर शिरोमणि अनिरुद्ध खड़े हुए, ग्रीवा-भागमें अर्जुन तथा पृष्ठभागमें जाम्बवती कुमार साम्ब विराजमान हुए। राजन् ! दोनों पैरोंकी जगह दीप्तिमान् और गद खड़े हुए, उदरभागमें पार्षिण और पुच्छभागमें श्रीकृष्णकुमार भानु थे ॥ २४-२७ ॥(Vishwajitkhand chapter 31 to 35)

नरेश्वर! सीता गङ्गाके तटपर यादवोंके साथ दैत्योंका उसी प्रकार घोर युद्ध हुआ, जैसे समुद्र समुद्रोंसे टकरा रहे हों। जैसे बादल जलकी धारा बरसाते हैं, उसी प्रकार दानव यादवोंपर बाण, त्रिशूल, मुसल, मुगर, तोमर तथा ऋष्टियोंकी वृष्टि करने लगे। राजन् ! सेनाओंके पैरोंसे उड़ी हुई अपार धूलने सूर्य और आकाशको आच्छादित कर दिया। किसीको अपना बाण भी नहीं दिखायी देता था। जैसे वर्षाके बादल सूर्यको आच्छादित करके अन्धकार फैला देते हैं, वही दशा उस समय हुई थी ॥ २८-३० ॥

वृक, हर्ष, अनिल, गृध्र, वर्धन, उन्नाद, महाश, पावन, वह्नि और दसवें क्षुधि-मित्रवृन्दाके ये दस पुत्र दानवोंके साथ युद्ध करने लगे। जब बाणोंसे अन्धकार छा गया, तब श्री हरि कुमार वृक बारंबार धनुषकी टंकार करते हुए सबसे आगे आ गये। वे बाण-समूहोंसे दैत्योंको विदीर्ण करने लगे, जैसे कोई कटुवचनोंसे मित्रताको खण्डित करे। उन्होंने दैत्य-सेनाके हाथियों, रथों और पैदल वीरोंको धराशायी कर दिया। वे कवच और धनुष कट जानेके कारण समराङ्गणमें गिर पड़े ॥ ३१-३४॥

वृकके बाणोंसे जिनके पैर कट गये थे, वे आँधीके उखाड़े हुए वृक्षोंकी भाँति धरतीपर गिर गये। किन्हींके मुँह नीचेकी ओर थे और किन्हींके ऊपरकी ओर। राजन् ! बाण-समूहोंसे भुजाओंके छिन्न-भिन्न हो जाने- के कारण वे रणभूमिमें फूटे हुए बर्तनोंके ढेर से शोभित होते थे। उस रणमण्डलमें हाथी बाणोंकी मारसे दो टूक होकर पड़े थे और छुरीसे काटे गये कूष्माण्डके टुकड़ोंके समान प्रतीत होते थे ॥ ३५-३६॥

इसी समय महाबली इष्ट सिंहपर चढ़कर आया। उसने दस बाण मारकर वृकके कवच और धनुषकी प्रत्यञ्चाको काट डाला। फिर चार बाणोंसे चारों घोड़े, दो बाणोंसे सारथि और तीन बाणोंसे ध्वज खण्डित कर दिये। फिर बीस बाण मारकर उस दानवराजने वृकके रथको नष्ट कर दिया। धनुष कट गया, घोड़े और सारथि मार डाले गये, तब वृक दूसरे रथपर जा चढ़े तथा रोषपूर्वक धनुष हाथमें लिया। इतनेमें ही असुर हृष्टने वृकके उस धनुषको भी काट डाला! तब यादवपुंगव वृकने गदा हाथमें लेकर सिंहके मस्तकपर तथा उसकी पीठपर बैठे हुए दैत्यपर भी प्रहार किया। तब क्रोधसे भरे हुए सिंहने समराङ्गणमें उछलकर अपने नखों, दाँतों और पंजोंसे अनेक योधाओंको मार गिराया। उसकी जीभ लपलपा रही थी, अयाल चमक रहे थे। उसने भीषण हुंकार करके वृकको उसी भाँति गिरा दिया, जैसे हाथी केलेके तनेको धराशायी कर दे ॥ ३७-४३ ॥(Vishwajitkhand chapter 31 to 35)

नरेश्वर! वृकने उस सिंहको दोनों हाथोंसे पकड़कर पृथ्वीपर दे मारा। फिर वे उसके ऊपर चढ़कर वैसे ही गर्जने लगे, जैसे एक पहलवान दूसरे पहलवानको पटककर उसकी छातीपर चढ़ बैठे और गर्जने लगे। जब वह सिंह पुनः उछलने और उनके शरीरको बलपूर्वक चबाने लगा, तब बलवान् मित्रवृन्दाकुमारने उसके ऊपर एक मुक्का मारा। उनके मुक्केकी मारसे सिंहने दम तोड़ दिया। तब कुपित हुए दैत्यप्रवर हृष्टने उनके ऊपर शीघ्र ही शूल फेंका। किंतु बड़ी भारी उल्काके समान तेजस्वी उस शूलको वृकने तलवारसे उसी प्रकार टूक-टूक कर दिया, जैसे गरुड़ अपनी तीखी चोंचके प्रहारसे किसी सर्पके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। हृष्टने भी अपनी तलवार लेकर गर्जना की और भूतलको कँपाते हुए उसने महाबली वृकके मस्तकपर उसके द्वारा प्रहार किया। तब बलवान् वृकने तलवारकी म्यानपर दैत्यके वारको रोका तथा अपने खड्गके द्वारा दैत्यके कंधेपर चोट पहुँचायी। उस खड्गसे दैत्यका सिर कटकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। किरीट और कुण्डलॉसे युक्त वह मस्तक गिरे हुए कमण्डलुके समान शोभा पाता था ॥ ४४-५० ॥

महाराज! हृष्टके मारे जानेपर शेष दैत्य भयसे व्याकुल हो भागकर चन्द्रावतीपुरीको चले गये। उस समय देवताओं और मनुष्योंकी दुन्दुभियाँ बज उठीं और देवतालोग वृकके ऊपर फूलोंकी वर्षा करने लगे ॥ ५१-५२॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘हृष्ट दैत्यका वध’ नामक बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३२॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ महामृत्युंजय मंत्र जप विधि

तैंतीसवाँ अध्याय

संग्राम जीत के हाथ से भूत-संताप का वध

नारदजी कहते हैं- राजन् ! हृष्टको मारा गया सुनकर शकुनिके क्रोधकी सीमा न रही। उसने देवताओंको भी भय देनेवाले अपने भाइयोंको भेजा। भूत-संतापन नामक दैत्य हाथीपर चढ़कर निकला। वृक दैत्य गधेपर और कालनाभ सूअरपर चढ़कर आया। महानाभ मतवाले ऊँटपर तथा हरिश्मश्रु तिमिगिल (अतिकाय मगरमच्छ) पर बैठकर निकला ॥ १-२॥

मयासुरका बनाया हुआ एक विजयशील रथ था, जिसपर वैजयन्ती पताका फहराती थी। इसीलिये वह ‘वैजयन्त’ और ‘जैत्र’ कहलाता था। उसका विस्तार पाँच योजनका था और उसमें एक हजार घोड़े जुते हुए थे। वह मायामय रथ इच्छानुसार चलनेवाला तथा सैकड़ों पताकाओंसे सुशोभित था। उसमें एक हजार कलश लगे थे और मोतीकी झालरें लटक रही थीं। वह रत्नमय आभूषणोंसे विभूषित तथा सौ चन्द्रमाओंके समान उज्ज्वल था। उसमें एक हजार पहिये लगे थे तथा उसमें लटकाये गये बहुत-से घंटे उसकी शोभा बढ़ाते थे। शकुनि उसी रथपर आरूढ़ हो सबसे पीछे युद्धकी इच्छासे निकला ॥ ३-६ ॥(Vishwajitkhand chapter 31 to 35)

मैथिलेश्वर! उसके साथ बारह अक्षौहिणी दैत्योंकी सेना थी। धनुषोंकी टंकार, वीरोंके सिंहनाद, घोड़ोंकी हिनहिनाहट, रथोंकी घरघराहट तथा हाथियोंकी चीत्कारोंसे मानो समस्त दिङ्मण्डल गर्जना कर रहा था। दैत्यसेनाके अभियानसे समस्त भूमण्डल काँपने लगा। नरेश्वर! अनेकानेक पर्वत धराशायी हो गये। समुद्र विक्षुब्ध हो उठे और अपनी मर्यादाको लाँघ गये। देवताओंने तुरंत ही अमरावतीपुरीके दरवाजे बंद कर लिये और वहाँ अर्गला डाल दी। उस भीषण सेनाको देखकर धनुर्धारियोंमें श्रेष्ठ, बलवान् तथा धैर्यशाली वीर श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न यदुकुलके श्रेष्ठ वीरोंसे इस प्रकार बोले ॥७-१०॥

प्रद्युम्नने कहा- वीरो ! भूतलपर जो हमारा यह शरीर है, पाँच भूतोंका बना हुआ है, फेनके समान क्षणभङ्गुर है, कर्म और गुण आदिसे इसका निर्माण हुआ है। इसका आना-जाना लगा रहता है तथा यह कालके अधीन है। यह जगत् बालकोंके रचे हुए खिलवाड़के समान है। विद्वान् पुरुष इसके लिये कभी शोक नहीं करते। सात्त्विक पुरुष ऊर्ध्वलोकमें गमन करते हैं, राजस मनुष्य मध्यलोकमें स्थित होते हैं और तामस जीव नीचेके नरकलोकोंमें जाते हैं। इन तीनोंसे जो भिन्न हैं, वे बारंबार कर्मानुसार विचरते हुए नाना योनियों में जन्मते-मरते रहते हैं। यह लोक सब ओरसे भयग्रस्त है; जैसे नेत्रोंके घूमनेसे धरती व्यर्थ ही घूमती-सी प्रतीत होती है, उसी प्रकार यह मनःकल्पित सम्पूर्ण जगत् भ्रान्त होता है। जैसे काँच (दर्पण आदि) में प्रतिबिम्बित अपने ही स्वरूपको देखकर बालक मुग्ध होता है, उसी प्रकार यहाँ सब कुछ भ्रान्तिपूर्ण है। जैसे मण्डलवर्ती जनोंका सुख अस्थिर होता है, उसी प्रकार पातालनिवासियोंका भी सुख अचल नहीं है। यज्ञोंद्वारा उपलब्ध देवताओंके सुखको भी इसी प्रकर चञ्चल समझना चाहिये। श्रेष्ठ पुरुष यही सोचकर समस्त सांसारिक सुखको तिनकेके समान त्याग देते हैं। ऋतुके गुण, देहके गुण और स्वभाव प्रतिदिन जाते-परिवर्तित होते रहते हैं; उसी प्रकार मनुष्योंका भी आवागमन लगा रहता है। यहाँ जो-जो दृश्यमान वस्तु है, वह कोई भी सत्य नहीं है। जैसे यात्रामें राहगीरोंका समागम होता है और फिर सब-के- सब जहाँ-तहाँ चले जाते हैं, उसी प्रकार यहाँ सब आगमापायी है, कुछ भी स्थिर नहीं है। जैसे इस लोकमें देखी हुई वस्तु उल्का या विद्युद्विलासके समान अस्थिर है, उसी प्रकार पारलौकिक वस्तुके विषयमें भी समझना चाहिये। उन दोनोंसे क्या प्रयोजन सिद्ध होता है? अतः सर्वत्र परमेश्वर श्रीहरिको देखते हुए कल्याणमार्गका निश्चय करके सदा उसीपर चलना चाहिये। जैसे जलपात्रोंके समूहमें सर्वत्र एक ही चन्द्रमा प्रतिबिम्बित होता है तथा जैसे समिधाओंके समुदायमें एक ही अग्नितत्त्वका बोध होता है, उसी प्रकार एक ही परमात्मा भगवान् स्वयं निर्मित देह- धारियोंके भीतर और बाहर अनेक सा जान पड़ता है। जो ज्ञाननिष्ठ है, अत्यन्त वैराग्यका आश्रय ले चुका है, भगवान् श्रीकृष्णका भक्त है और किसी भी वस्तुकी अपेक्षा नहीं रखता, वह तपोवनमें निवास करे या घरमें, उसे तीनों गुण सर्वथा स्पर्श नहीं करते। इसीलिये संन्यासी, जिसने परात्पर ब्रह्मका साक्षात्कार कर लिया है, सदा सुखी एवं आनन्दमय हो बालककी तरह विचरता है। जैसे मदिराके मदसे अन्धा हुआ मनुष्य यह नहीं देखता कि मेरे द्वारा पहना हुआ वस्त्र शरीरपर है या गिर गया, उसी प्रकार सिद्ध पुरुष समस्त सिद्धियोंके कारणभूत शरीरके विषयमें यह नहीं देखता कि वह प्रारब्धवश है या गिर गया अथवा कहीं आता है या जाता है। जैसे सूर्योदय होनेपर सारा अन्धकार नष्ट हो जाता है और घरमें रखी हुई वस्तु लोगोंको यथावस्थित रूपसे दिखायी देने लगती है, उसी प्रकार ज्ञानोदय होनेपर अज्ञानान्धकार मिट जाता है और अपने शरीरके भीतर ही परब्रह्म प्रकाशित होने लगता है। जैसे इन्द्रियोंके पृथक् पृथक् मार्गसे तीनों गुणोंके आश्रयभूत परमार्थ वस्तुका उन्नयन (सम्यग्ज्ञान) नहीं हो सकता, उसी प्रकार अनन्त परमात्माका एकमात्र अद्वितीय धाम मुनियोंके बताये विभिन्न शास्त्रमार्गों द्वारा पूर्णतः नहीं जाना जा सकता। कुछ लोग वैष्णव- धामको ‘परमपद’ कहते हैं, कोई वैकुण्ठको परमेश्वर- का ‘परमधाम’ बताते हैं, कोई अज्ञानान्धकारसे परे जो शान्तस्वरूप परमब्रह्म है, उसे ‘परमपद’ मानते हैं और कुछ लोग कैवल्य मोक्षको ही ‘परमधाम’ की संज्ञा देते हैं। कोई अक्षरतत्त्वकी उत्कृष्टताका प्रतिपादन करते हैं, कोई गोलोक धामको ही सबका आदिकारण कहते हैं तथा कुछ लोग भगवान की निज लीलाओंसे परिपूर्ण निकुञ्जको ही ‘सर्वोत्कृष्ट पद’ बताते हैं। मननशील मुनि इन सबके रूपमें श्रीकृष्णपदको ही प्राप्त करता है॥ ११-२३॥(Vishwajitkhand chapter 31 to 35)

नारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्नकी यह बात सुनकर, धैर्यवर्धक ज्ञान प्राप्त करके, हर्ष और उत्साहसे भरे हुए समस्त यादव श्रेष्ठ वीरोंने शस्त्र ग्रहण कर लिये। फिर तो सीता-गङ्गाके तटपर यादवोंके साथ दैत्योंका तुमुल युद्ध हुआ-वैसे ही, जैसे समुद्रके तटपर वानरोंके साथ राक्षसोंका हुआ था। रथी रथियोंसे, पैदल पैदलोंसे, घुड़सवार घुड़सवारोंसे और गजारोही गजारोहियोंसे जूझने लगे। महावतोंसे प्रेरित हुए, हौदोंसे सुशोभित कुछ उन्मत्त गजराज मेघाडम्बरसे युक्त गिरिराजोंके समान दिखायी देते थे। राजन् । वे समराङ्गणमें फुफकारते-चिग्घाड़ते तथा साँकलोंसे युक्त सूँड़ोंद्वारा रथियों, घुड़सवारों तथा पैदल वीरोंको धराशायी करते हुए विचर रहे थे। वे घोड़ों और सारथियोंसहित रथोंको सूँड़में लपेटकर भूमिपर पटक देते और बलपूर्वक पुनः उठाकर आकाशमें फेंक देते थे। राजन्। उस युद्धभूमिमें सब ओर दौड़ते हुए क्षत-विक्षत गजराज कुछ लोगोंको सुदृढ़ सूँड़ोंद्वारा विदीर्ण करके उन्हें पैरोंसे मसल देते थे। महाराज! घुड़सवारोंद्वारा प्रेरित पंखयुक्त घोड़े रथोंको लाँधकर हाथियोंके कुम्भस्थलपर चढ़ जाते थे। कुछ महावीर घुड़सवार युद्धके मदसे उन्मत्त हो, हाथमें शक्ति लिये घोड़ोंके द्वारा हाथियोंके कुम्भस्थल- पर पहुँचकर गजारोही नरेशोंको उसी प्रकार मार डालते थे, जैसे सिंह यूथपति गजराजोंको मार गिराते हैं। कुछ घुड़सवार योद्धा तलवारोंके वेगसे सामनेकी सेनाको विदीर्ण करते हुए उसी प्रकार सकुशल आगे निकल जाते थे, जैसे वायु अपने वेगसे लीलापूर्वक कमल- वनको रौंदकर आगे बढ़ जाती है। कुछ घुड़सवार समराङ्गणमें उछलते हुए खड् गोंद्वारा उसी प्रकार आपसमें ही आघात प्रत्याघात करने लगते थे, जैसे आकाशमें पक्षी किसी मांसके टुकड़ेके लिये एक दूसरेको चोंचसे मारने लगते हैं। कुछ पैदल योद्धा खड्गोंसे, कुछ फरसों और चक्रोंसे तथा कुछ योद्धा तीखे भालोंसे फलोंकी तरह विपक्षियोंके मस्तक काट लेते थे ॥ २४-३५ ॥

संग्रामजित्, बृहत्सेन, शूर, प्रहरण, विजित्, जय, सुभद्र, वाम, सत्यक तथा अश्वयु-भद्राके गर्भसे उत्पन्न हुए ये श्रीकृष्णके दस औरस पुत्र सबसे आगे आकर दैत्यपुंगवोंके साथ युद्ध करने लगे। महाराज! हाथीपर चढ़े हुए महान् असुर भूत-संतापनने अपने नाराचोंकी वर्षासे दुर्दिनका दृश्य उपस्थित कर दिया। भूत-संतापनके बाणोंद्वारा अन्धकार फैला दिये जानेपर श्रीकृष्णके बलवान् पुत्र संग्रामजित् उसका सामना करनेके लिये आये। उन्होंने रणभूमिमें सैकड़ों बाण मारकर भूत-संतापनको घायल कर दिया। तब बलवान् भूत-संतापनने प्रलयकालके समुद्रोंके संघर्षसे प्रकट होनेवाले भयंकर घोषके समान टंकार-ध्वनि करनेवाली संग्रामजित्के धनुषकी प्रत्यञ्जको काट दिया। तब संग्रामजित्ने विद्युत्के समान दीप्तिमान् अपना दूसरा धनुष लेकर उसपर विधिपूर्वक प्रत्यञ्चा चढ़ायी, फिर सौ बाण छोड़े। वे बाण भूत-संतापनके धनुषकी प्रत्यञ्चा, लोहनिर्मित कवच, शरीर और हाथीका छेदन-भेदन करते हुए धरतीमें समा गये। बाणोंके उस प्रहारसे पीड़ित हो भूत-संतापन मन-ही-मन कुछ घबराया, फिर उस बलवान् वीरने अपने हाथीको आगे बढ़ाया। काल और यमके समान भयानक उस हाथीको आक्रमण करते देख, बलवान् संग्रामजित्ने अपना दिव्य खड्ग लेकर रणभूमिमें उसके ऊपर प्रहार किया। उस खड्ग- प्रहारसे उसकी सूँड़के दो टुकड़े हो गये और वह भयानक चीत्कार करता तथा गण्डस्थलसे मद बहाता हुआ भूत-संतापनको छोड़कर जगत् को कम्पित करता हुआ भागा। बड़े-बड़े वीरोंको धराशायी करता हुआ और बारबार घंटे बजाता हुआ सीधे दैत्यपुरी चन्द्रावतीको चला गया। कोई भी बलपूर्वक उसे रोक न सका ॥ ३६-४७ ॥

इस प्रकार हाथीके संग्रामभूमिसे भाग जानेपर वहाँ महान् कोलाहल मच गया। तब भूत-संतापनने श्रीकृष्ण-पुत्रके ऊपर तीखी धारवाला चक्र चलाया, जो ग्रीष्मऋतुके सूर्यकी भाँति उद्भासित हो रहा था। महाराज ! उस घूमते चक्रको अपने ऊपर आया देख बलवान् भद्राकुमारने अपने चक्रद्वारा लीलापूर्वक उसके सौ टुकड़े कर डाले। तब उस महान् असुरने जठरगिरिका एक शिखर उखाड़कर आकाशमण्डलको निनादित करते हुए श्रीकृष्ण-पुत्रपर फेंका। राजेन्द्र ! संग्रामजित्ने उस शिखरको बलपूर्वक दोनों हाथोंसे पकड़ लिया और उसीके द्वारा रणभूमिमें भूत-संतापन- पर प्रहार किया। तब दैत्यपुंगव भूत-संतापन समूचे जठरगिरिको उखाड़ कर उसे हाथमें ले, संग्रामभूमिमें खड़ा हुआ ‘अब मैं इसी पर्वतसे संग्राममें तुम्हारा काम तमाम कर दूँगा’- इस प्रकार मुखसे कहने लगा। यह देख श्रीहरिके पुत्र संग्रामजित्ने भी देवकूट नामक पहाड़ उखाड़ लिया और मुखसे कहा-‘मैं भी इसीसे युद्धभूमिमें तेरे प्राण ले लूँगा’ ॥ ४८-५४॥(Vishwajitkhand chapter 31 to 35)

राजन् ! यों कहकर वे उसके सामने खड़े हो गये। वह अद्भुत-सी घटना हुई। नरेश्वर। पर्वत फेंकते हुए भूत-संतापनपर बलवान् संग्रामजित ने संग्राममें अपने हाथके पर्वतसे प्रहार किया। भारी बोझसे युक्त जठर और देवकूट दोनों पर्वत दैत्यके मस्तकपर गिरे। उनसे दो वज्रोंके टकरानेका-सा भयानक शब्द हुआ। विदेहराज ! दोनोंकी चोटसे गिरकर भूत-संतापन मृत्युका ग्रास बन गया और उसकी ज्योति संग्रामजित्में विलीन हो गयी। संग्रामजित् की सेनामें विजयसूचक दुन्दुभियाँ बजने लगीं और देवता उन भद्राकुमारके ऊपर फूल बरसाने लगे ॥ ५५-५९॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्-खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्च संवादमें ‘भूत-संतापन दैत्यका वध’ नामक तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३३ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ मीमांसा दर्शन (शास्त्र) हिंदी में

चौंतीसवाँ अध्याय

अनिरुद्ध के हाथ से वृक दैत्य का वध

श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! संग्रामजित्के द्वारा उस महायुद्धमें भूत-संतापनके मारे जानेपर दैत्यसेनाओंमें महान् हाहाकार मच गया। तब शकुनि, वृक, कालनाभ और महानाभ तथा हरिश्मश्रु- ये पाँच वीर रणभूमिमें उतरे ॥ १-२ ॥

श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न शकुनिके साथ युद्ध करने लगे और अनिरुद्ध वृकके साथ। साम्ब कालनाभसे और दीप्तिमान् महानाभसे भिड़ गये। बलवान् वीर श्रीकृष्णकुमार भानु हरिश्मश्रु नामक असुरके साथ लड़ने लगे। सबके आगे थे धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ अनिरुद्ध। वे अपने बाणोंद्वारा दैत्योंको उसी प्रकार विदीर्ण करने लगे, जैसे इन्द्र वज्रसे पर्वतोंका भेदन करते हैं। अनिरुद्धके बाणोंसे दैत्योंके पैर, कंधे और घुटने कट गये। वे सब-के-सब मूच्छित हो तेज हवाके उखाड़े हुए वृक्षोंकी भाँति पृथ्वीपर गिर पड़े। अनिरुद्धके तीखे बाणोंसे जिनके मेघडम्बर (हौदे), कुम्भस्थल और सूँड़ें छिन्न-भिन्न हो गयी थीं, दाँत टूट गये और कक्ष कट गये थे, वे हाथी रणभूमिमें उसी प्रकार गिरे, जैसे वज्रके आघातसे पर्वत ढह जाते हैं। हाथियोंके दो टुकड़े होकर पड़े थे और उनके ऊपर कश्मीरी झूल चमक रही थी। हाथियोंके विदीर्ण कुम्भस्थलोंसे इधर-उधर बिखरे हुए मोती चमक रहे थे। राजेन्द्र ! वे बाणजन्य अन्धकारमें उसी प्रकार उद्दीप्त हो रहे थे, जैसे रातमें तारे चमचमाते हैं। अनिरुद्धके बाणोंसे प्रधर्षित कितने ही वीर मूच्छित होकर भूमिपर पड़े थे। वह दृश्य अद्भुत सा प्रतीत होता था। कितने ही रथी भूमिपर गिरे थे और उनके रथ सूने खड़े थे। कुछ योद्धाओंके कटे हुए मस्तक ऐसे दिखायी देते थे जैसे हाथीके पेटमें कैथके फल ॥ ३-१०॥(Vishwajitkhand chapter 31 to 35)

राजेन्द्र ! एक ही क्षणमें उस संग्रामके भीतर दैत्योंकी सेनाओंमें इतना अधिक रक्त गिरा कि उसकी भयानक नदी बह चली। हाथी उसमें ग्राहके समान जान पड़ते थे; ऊँटों एवं गधोंके धड़ एवं मुख आदि कच्छप जान पड़ते थे; रथ सूँसके समान प्रतीत होते थे, केश सेवारका भ्रम उत्पन्न करते थे और कटी हुई भुजाएँ सर्पिणी-सी जान पड़ती थीं। कटे हाथ उसमें मछलियाँ थे और मुकुट, रत्नहार एवं कुण्डल कंकड़- पत्थरका स्थान ले रहे थे। शस्त्र, शक्ति, छत्र, शङ्ख, चॅवर और ध्वज वालुका-राशिके समान थे, रथोंके चक्के भँवरका भ्रम पैदा करते थे। दोनों ओरकी सेनाएँ ही उस रक्त-सरिताके दोनों तट थीं। नृपेश्वर ! सौ योजनतक फैली हुई वह खूनकी नदी वैतरणीके समान भयंकर जान पड़ती थी। प्रमथ, भैरव, भूत, बेताल और योगिनीगण उस रण-मण्डलमें अट्टहास करते, नाचते और निरन्तर खप्परमें खून लेकर पीते थे। वे भगवान् रुद्रकी मुण्डमाला बनानेके लिये नरमुण्डोंका संग्रह भी करते थे। सिंहपर चढ़ी हुई भद्रकाली सैकड़ों डाकिनियोंके साथ आकर उस समराङ्गणमें दैत्योंको अपना ग्रास बनाती और अट्टहास करती थीं। विमानपर बैठी हुई विद्याधरियाँ, गन्धर्वकन्याएँ और अप्सराएँ क्षत्रियधर्ममें स्थित रहकर वीरगतिको प्राप्त हुए देवस्वरूप वीरोंका पतिरूपमें वरण करती थीं। आकाशमें उन वीरोंको पतिरूपमें चुनते समय वे सुन्दरियाँ परस्पर कलह कर बैठती थीं। कोई कहतीं- ‘ये मेरे योग्य हैं, तुमलोगोंके योग्य नहीं।’ इस तरह वे विह्वल चित्त हो विवाद कर रही थीं। कुछ वीर धर्ममें तत्पर रहकर समरकी रङ्गभूमिसे तनिक भी विचलित नहीं हुए, इसलिये वे सूर्यमण्डलका भेदन करके दिव्य विष्णुपदको जा पहुँचे। कुछ दैत्य अनिरुद्धको अपने शत्रुके रूपमें देखकर भाग खड़े हुए। कुछ असुर अपना-अपना युद्ध छोड़कर दसों दिशाओंमें पलायन कर गये ॥ ११-२१॥

उसी समय गधेपर चढ़ा हुआ भयंकर महादैत्य वृक गर्जना करता तथा बार-बार धनुष टंकारता हुआ युद्ध करने आया। उस रणदुर्मद दैत्यने भी दस वाण मारकर अनिरुद्धके प्रत्यञ्चासहित धनुषको काट दिया। धनुष कट जानेपर महाबली अनिरुद्धने दूसरा धनुष हाथ लिया और दस बाण मारकर वृकके कोदण्डको भी खण्डित कर दिया। इसपर वृकके होठ रोषसे फड़क उठे। उसने त्रिशूल उठाकर जीभ लपलपाते हुए धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ अनिरुद्धसे कहा ॥ २२-२५॥

दैत्य बोला- तू पराक्रमी क्षत्रिय है और तूने आज मेरी सेनाका विनाश किया है, इसलिये मैं अभी तुझे मारे डालता हूँ। तू मेरा अद्भुत पराक्रम देख ले ॥ २६ ॥

अनिरुद्धने कहा- दैत्य ! जो लोग मुँहसे बढ़-बढ़ कर बातें बनाते हैं, वे यहाँ कुछ नहीं कर पाते। मैं अभी तुम्हें मार डालूँगा। तुम मेरा उत्तम पराक्रम देखो। यदि मैं युद्धमें तुम्हें नहीं मार सकूँ तो मेरी शपथ सुन लो-मुझे ब्राह्मण, गौ, गर्भस्थ शिशु और बालकोंकी हत्याका सदा ही पाप लगे ॥ २७-२८ ॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! गधेपर बैठे हुए महादुष्ट वृकने भी शपथ खाकर धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ अनिरुद्धपर त्रिशूलसे प्रहार किया। परंतु राजन् ! प्रद्युम्ननन्दन अनिरुद्धने उस त्रिशूलको बायें हाथसे पकड़ लिया और सहसा उसीसे महाबली दैत्य वृकको घायल कर दिया। तब तो वह असुर क्रोधसे भर गया। उसने एक भारी गदा चलाकर सहसा अनिरुद्धके रथको बलपूर्वक चूर-चूर कर डाला। तब प्रद्युम्नकुमारने तीखी धारवाली तलवारसे शत्रुकी दोनों भुजाएँ उसी तरह काट डालीं, जैसे इन्द्रने वज्रसे शीघ्र ही पर्वतोंकी दोनों पाँखें काट दी थीं। तब वह बाहुविहीन दैत्य पैरोंसे पृथ्वीको कँपाता हुआ लपलपाती जीभसे युक्त भयंकर मुँह फैलाकर ऐसा दिखायी देने लगा, मानो वह सारे आकाशको ही पी जायगा। फिर विकराल दाढ़ोंवाले उस दैत्यराजने, जैसे मगरमच्छ किसी बड़े मत्स्यको निगल जाय, उसी प्रकार प्रद्युम्नकुमार अनिरुद्धको अपना ग्रास बना लिया ॥ २९-३४॥(Vishwajitkhand chapter 31 to 35)

महाराज! वे श्रीकृष्णके पौत्र थे, इसलिये दैत्यके पेटमें जानेपर भी श्रीकृष्णकी कृपासे मरे नहीं, मछलीके पेटमें पड़े हुए प्रद्युम्नकी भाँति बच गये। जैसे अघासुरके पेटमें जाकर भी श्रीकृष्ण और ग्वाल-बाल बच गये थे, जैसे वकासुरके उदरमें स्वयं श्रीकृष्ण नहीं मरे थे और जैसे वृत्रासुरके उदरमें जाकर भी इन्द्र बच गये थे, उसी प्रकार वृकासुरके पेटमें अनिरुद्धकी प्राण-रक्षा हो गयी ॥ ३५-३६॥

विदेहराज ! उस समय यादवोंकी सेनामें हाहाकार मच गया। तब बलदेवके छोटे भाई बलवान् गदने गदा लेकर उसे महाबली वृक दैत्यके मस्तकपर मारा। दैत्यका सिर फट गया और उससे रक्तकी बूँदें टपकने लगीं। रक्तकी धारासे उस विशालकाय दैत्यकी उसी तरह शोभा हुई, जैसे गेरुमिश्रित जलकी धारासे विन्ध्याचल सुशोभित होता है॥ ३७-३९॥

तदनन्तर अर्जुनने अपनी तलवार लेकर अनायास ही उसके दोनों पैर काट डाले। पैर कट जानेपर वह पंख-कटे पर्वतकी भाँति धरतीपर गिर पड़ा। अनिरुद्ध अपनी तलवारसे उसका पेट फाड़कर बाहर निकल आये। जैसे इन्द्रने वज्रसे वृत्रासुरको मारा था, उसी प्रकार अनिरुद्धने अपनी तलवारसे उसका मस्तक काट डाला। उस समय यादव-सेनामें जय-जयकार होने लगी तथा देवताओं और मनुष्योंकी दुन्दुभियाँ बज उठीं। देवतालोग अनिरुद्धके ऊपर फूलोंकी वर्षा करने लगे। राजन् ! यह अद्भुत वृत्तान्त मैंने तुमसे कह सुनाया; अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ४०-४३ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘वृक दैत्यका वध’ नामक चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३४ ॥

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पैंतीसवाँ अध्याय

साम्ब द्वारा कालनाभ दैत्य का वध

बहुलाश्च बोले- मुने । आश्चर्य है, प्रद्युम्नकुमारने बड़ा अद्भुत युद्ध किया। महादैत्य वृकके मारे जानेपर फिर उस समराङ्गणमें क्या हुआ ? ॥१॥

नारदजीने कहा- राजन् । वृकको मारा गया देख महान् असुर कालनाभ बार-बार धनुष टंकारता हुआ सूअरपर चढ़कर रणभूमिमें आया। उस असुरने समराङ्गणमें अक्रूरको बीस, गदको दस, अर्जुनको दस, सात्यकिको पाँच, कृतवर्माको दस, प्रद्युम्नको सौ, अनिरुद्धको बीस, दीप्तिमान् को पाँच और साम्बको सौ बाण मारकर उन सबको घायल कर दिया। उसके बाणोंकी चोटसे दो घड़ीके लिये वे सभी वीर व्याकुल हो गये। उन सबके घोड़े भी मारे गये तथा रथ रणभूमिमें चूर-चूर हो गये। उसके हाथकी फुर्ती देखकर रुक्मिणीनन्दन प्रसन्न हो गये। उन्होंने कालनाभको समराङ्गणमें साधुवाद देकर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की ॥ २-६॥

तत्पश्चात् प्रद्युम्रने अपना धनुष लेकर उसपर एक बाण रखा। कोदण्डसे छूटे हुए उस बाणने उस दैत्यके विशालकाय सूअरको ऊपर उठाकर लाख योजन दूर स्वर्गलोककी सीमातक ले जाकर घुमाते हुए आकाशसे भयंकर गर्जना करनेवाले समुद्रमें गिरा दिया। तत्पश्चात् साक्षात् भगवान् प्रद्युम्नने दूसरे बाणका संधान किया। उस बाणने भी महाबली कालनाभको ऊपर ले जाकर घुमाते हुए बलपूर्वक चन्द्रावतीपुरीमें पटक दिया। वहाँ गिरनेपर कालनाभके मनमें कुछ घबराहट हुई। वह दैत्यराज लाख भारकी बनी हुई भारी गदा हाथमें लेकर पुनः रणभूमिमें आ पहुँचा और यादव-सेनाका विनाश करने लगा ॥७-११॥(Vishwajitkhand chapter 31 to 35)

वज्र-सदृश गदासे हाथी, रथ, घोड़े और पैदल वीरोंको वह बड़े वेगसे उसी प्रकार धराशायी करने लगा, जैसे आँधी वृक्षोंको गिरा देती है; किन्हींको दोनों हाथोंसे उठाकर वह बलपूर्वक आकाशमें फेंक देता था। राजन् । वे आकाशसे पृथ्वीपर वर्षाके ओलोंकी भाँति गिरते थे। तब जाम्बवतीकुमार साम्बने गदा लेकर महान् असुर कालनाभके मस्तकपर गहरी चोट पहुँचायी। रणमण्डलके भीतर गदाओंद्वारा उन दोनों वीरोंमें घोर युद्ध होने लगा। वे दोनों ही गदाएँ आगकी चिनगारियाँ छोड़ती हुई परस्पर टकराकर चूर-चूर हो गयीं। फिर वे दोनों वीर दूसरी गदाएँ लेकर युद्धके लिये खड़े हुए। उस समय कालनाभने जाम्बवतीकुमार साम्बसे कहा- ‘मैं एक प्रहारसे ही तुम्हारा काम तमाम कर सकता हूँ, इसमें संशय नहीं है।’ तब उस रणभूमिमें साम्ब बोले- ‘पहले तुम मेरे ऊपर प्रहार करो।’ तब कालनाभने साम्बके मस्तकपर गदासे चोट की, किंतु जाम्बवतीनन्दन साम्बने गदाके ऊपर गदा रोक ली और अपनी गदासे कालनाभ दैत्यकी छातीमें आघात किया। उस गदाकी चोटसे दैत्यकी छाती फट गयी और वह मुँहसे रक्त वमन करता हुआ प्राणशून्य हो वज्रके मारे हुए पर्वतकी भाँति पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ १२-२० ॥(Vishwajitkhand chapter 31 to 35)

नरेश्वर ! तब तो जय-जयकार होने लगी और सत्पुरुष साम्बको साधुवाद देने लगे। देवताओं और मनुष्योंकी दुन्दुभियाँ एक साथ ही बज उठीं। देवतालोग साम्बकी सेनाके ऊपर फूल बरसाने लगे, विद्याधरियाँ नाचने लगीं और गन्धर्वगण सानन्द गीत गाने लगे ॥ २१-२२॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्च संवादमें ‘कालनाभ दैत्यका वध’ नामक पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३५ ॥

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