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Garga Samhita Vishwajitkhand chapter 26 to 30

Garga Samhita
Garga Samhita Vishwajitkhand chapter 26 to 30

॥ श्रीहरिः ॥

ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते

श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः

Garga Samhita Vishwajitkhand Chapter 26 to 30 |
श्री गर्ग संहिता के विश्वजीतखण्ड अध्याय 26 से 30 तक

श्री गर्ग संहिता में विश्वजीतखण्ड (Vishwajitkhand chapter 26 to 30) के छब्बीसवाँ अध्याय में किम्पुरुषवर्ष के रङ्गवल्लीपुर में किम्पुरुषों द्वारा हरि चरित्र का गान; वहाँ के राजा द्वारा भेंट पाकर यादव-सेनाका आगे जाना; मार्ग में अजगर रूप धारी शापभ्रष्ट गन्धर्व का उद्धार; वसन्ततिलका पुरीके राजा शृङ्गार-तिलक को पराजित करके प्रद्युम्न का हरिवर्ष के लिये प्रस्थान करने का वर्णन है। सत्ताईसवाँ अध्याय में प्रद्युम्न द्वारा गरुडास्त्र का प्रयोग होने पर गीधों के आक्रमण से यादव सेना की रक्षा; दशार्णदेश पर विजय तथा दशार्णमोचन तीर्थ में स्त्रान करने का वर्णन कहा है। अट्ठाईसवाँ अध्याय में उत्तर कुरुवर्ष पर यादवों की विजय; वाराहीपुरी में राजा गुणाकर द्वारा प्रद्युम्न का समादर कहा है। उन्तीसवाँ अध्याय में प्रद्युम्न की हिरण्मय वर्ष पर विजय; मधुमक्खियों और वानरों के आक्रमण से छुटकारा; राजा देवसखसे भेंटकी प्राप्ति तथा चन्द्रकान्ता नदी में स्नान और तीसवाँ अध्याय में रम्यकवर्ष में कलङ्क राक्षस पर विजय; नैःश्रेयसवन, मानवी नगरी तथा मानव गिरि का दर्शन; श्राद्धदेव मनु द्वारा प्रद्युम्न की स्तुति करने का वर्णन कहा गया है।

यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक

छब्बीसवाँ अध्याय

किम्पुरुषवर्षके रङ्गवल्लीपुरमें किम्पुरुषोंद्वारा हरिचरित्रका गान; वहाँके राजाद्वारा
भेंट पाकर यादव-सेनाका आगे जाना; मार्गमें अजगररूपधारी शापभ्रष्ट
गन्धर्वका उद्धार; वसन्ततिलका पुरीके राजा शृङ्गार-तिलकको
पराजित करके प्रद्युम्नका हरिवर्षके लिये प्रस्थान

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् । तदनन्तर प्रद्युम्न दिव्य वृक्षों और दिव्य लताओंसे व्याप्त तथा सहस्त्रदल कमलोंसे अलंकृत सरोवरोंद्वारा सुशोभित दूसरे-दूसरे देशोंकी ओर गये। प्रचण्ड-पराक्रमी प्रद्युम्र सौ अक्षौहिणी सेनाके साथ यक्षोंद्वारा बताये हुए मार्गसे किम्पुरुषवर्षमें गये। वहाँ हेमकूट गिरिकी तराईमें रङ्गवल्लीपुर है। वहाँके निवासी किम्पुरुष शम्बरारि प्रद्युम्नके सुनते हुए कह रहे थे ॥१-३॥

किम्पुरुष कहते थे- अहो! पुरियोंमें श्रेष्ठ मथुरापुरी अत्यन्त धन्य है, जिसमें साक्षात् परमेश्वर हरिने अवतार लिया है। अहो! यदुकुल सदा ही परम धन्य है, जिसमें समस्त ब्रह्माण्डके पालक श्रीहरिका प्रादुर्भाव हुआ है। शूरपुत्र वसुदेवका वह निवास- मन्दिर भी धन्य है, जिसे गोलोकनाथने अपनी उपस्थितिसे अत्यन्त मनोहर बना दिया है। देवताओंके लिये भी परम दुर्लभ वह माथुर-मण्डल धन्य है, जहाँ माधव विचरते हैं। वह मनोहर महावन धन्यातिधन्य है, जहाँ शिशुरूपधारी श्रीहरि अपने जन्मस्थानको छोड़कर गये, जहाँ शिशु बलरामके साथ श्रीकृष्ण विचरे हैं और उनके दुधमुँहे बालकरूपका माता यशोदाने सुन्दर ढंगसे लालन-पालन किया है। परात्पर परमात्मा श्रीकृष्णके चरणारविन्दोंके पावन परागसे विराजित श्रीवृन्दावन अत्यन्त पुण्यतम तीर्थ है, जहाँ गोप-बालों और बलरामजीके साथ गौएँ चराते हुए साक्षात् श्रीहरि विचरे हैं। जिस वृन्दावनमें भगवान् श्रीकृष्ण व्रजसुन्दरियोंके साथ दानलीला, मानलीला तथा रासलीला करते हुए विचरे हैं, उसके भी पवित्र यशका तीनों लोकोंके लोग गान करते हैं। अहो! वृषभानुनन्दिनी लीलावती श्रीराधा, जो अपने गोलोक- धाममें शोभा पाती हैं, परम धन्य हैं, जिन्होंने भ्रमरोंके गुञ्जारवसे व्याप्त कालिन्दीतटवर्ती वनमें श्रीकृष्णके साथ विहार किया है। अहो! कलिन्दनन्दिनी यमुना भी धन्य हैं, जो भगवान् श्रीकृष्णके बायें कंधेसे प्रकट हुई हैं। उनके तटपर भ्रमरोंकी ध्वनिसे व्याप्त जो वंशीवट है, उसके तथा उसके निकटवर्ती यमुनाजलके स्पर्शसे मनुष्य कृतार्थ हो जाता है। जिसका प्रादुर्भाव भगवान् श्रीकृष्णके वक्षःस्थलसे हुआ है तथा जिसके दर्शनसे पुनर्जन्म नहीं होता, वह उत्कृष्ट गिरीन्द्र- राजराज गोवर्धन व्रजमण्डलमें विराजमान है। अहो! वैकुण्ठ-लीलाकी अधिकारिणी कुशस्थली नामवाली मनोहर पुरी धन्यातिधन्य है, जो आकाशमें विद्युन्मण्डलसे मेघमालाकी भाँति भूतलपर यादव- मण्डलीसे विराजमान है। उस कुशस्थलीमें ही साक्षात् परमपुरुष परमेश्वर चतुव्यूँहरूप धारण करके अत्यन्त शोभा पा रहे हैं। जिन्होंने राजा उग्रसेनको राजाधिराज- की पदवी दे दी, उन श्रीकृष्ण हरिको बारंबार नमस्कार है। उन बुद्धिमान् राजा उग्रसेनसे प्रेरित हो महान् वीर मकरध्वज प्रद्युम्र सम्पूर्ण जगत्पर विजय पानेके लिये निकले हैं, जिनका दुर्लभ दर्शन पाकर आज हमलोग सब ओरसे कृतार्थ हो जायेंगे ॥ ४-१४॥(Vishwajitkhand chapter 26 to 30)

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन्। इस प्रकार उज्ज्वल यशोवर्धक चरित्रोंद्वारा श्रीहरिने निर्मल त्रिलोकको उसी प्रकार और भी निर्मल बना दिया, जैसे पूर्ण चन्द्रमाकी किरणोंसे मिलकर ऊँची उठती हुई चमकीली तरंगोंद्वारा स्वर्गीय गजराज ऐरावत क्षीर- सिन्धुके दुग्धको और भी उज्ज्वल बना देता है। नरेश्वर! इस प्रकार शम्बरारि प्रद्युम्नने अपने निर्मल यशका गान सुनकर अत्यन्त हर्षसे रोमाञ्चित-शरीर होकर उन किम्पुरुषोंको केयूर, हार, नवरत्न, मनोहर किरीट, मणिमय कुण्डल और कंगन आदि बहुत धन दिया। रङ्गवल्लीपुरके स्वामी चन्द्रवंशी राजा सुबाहुने नमस्कार करके महात्मा प्रद्युम्नको बलि (भेंट) अर्पित की। उनपर प्रसन्न होकर महामना मीनकेतन भगवान् प्रद्युम्नने उन्हें दिव्य चूड़ामणि देकर इस प्रकार पूछा ॥ १५-१८ ॥

प्रद्युम्न बोले- राजन् सुबाहु ! इस नगरका ‘रङ्गवल्लीपुर’ नाम किसने रखा है? यह नाम तो मैं पहले-पहल आपके ही मुँहसे सुन रहा हूँ, अतः इस विषयमें आप सब कुछ मुझे बताइये ॥ १९ ॥

सुबाहुने कहा- राजन् ! पूर्वकालमें देवताओं और असुरोंने मिलकर क्षीरसागरका मन्थन किया। उससे चौदह रत्न निकले। फिर उस सागरसे अमृत- पूर्ण मनोहर कलश निकला। उस कलशको साक्षात् कमलनयन श्रीहरिने दोनों नेत्रोंसे देखा। उनके नेत्रोंसे हर्षके आँसूकी एक बूँद उस कलशमें गिर पड़ी। उससे एक वृक्ष उत्पन्न हुआ, जिसे, ‘तुलसी’ कहते हैं। भगवान् विष्णुने उस वृक्षका नाम रखा- ‘रङ्गवल्ली’। उन्होंने किम्पुरुषवर्षके हेमकूट पर्वतकी उपत्यकामें भूमिपर उस रङ्गवल्लीकी स्थापना की; अतः वह रङ्गवल्ली नामक वृक्ष सदा यहीं विराजता है। उसी वृक्षके नामपर यह नगर ‘रङ्गवल्लीपुर’ नामसे प्रसिद्ध हुआ। यहाँ प्रतिदिन रामपूजक महात्मा हनुमान्जी संगीतकुशल आर्टिषेणके साथ दर्शनके लिये आया करते हैं॥ २०-२५ ॥(Vishwajitkhand chapter 26 to 30)

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन्। यह सुनकर प्रद्युम्रजीने मनोहारिणी रङ्गवल्लीजीका दर्शन किया और उसकी परिक्रमा करके वे अन्य देशोंको गये ॥ २६॥

हेमकूटकी तलहटीमें एक बड़ा भयंकर वन प्राप्त हुआ, जो झिल्लियोंकी झनकारसे युक्त और सिंह तथा चीतोंके दहाड़नेकी आवाजसे व्याप्त था। जंगली गजराजोंसे भरे हुए उस वनमें गीदड़ों और उल्लुओंकी आवाज सुनायी देती थी। बाँस, पीपल, मदार, बरगद, भोजपत्र, काली हरैंकी बेलों और बेरके वृक्षोंसे वह वन अत्यन्त घना जान पड़ता था। उस वनसे एक अजगर साँप निकला, जो दस योजन लंबा था। वह बारंबार फुफकारता हुआ झुंड-के-झुंड हाथियोंको निगलने लगा। मिथिलेश्वर ! उस समय सेनामें हाहाकार मच गया। उसके प्रचण्ड विषसे मिली हुई वायुसे विभिन्न दिशाओंकी सारी वस्तुएँ भस्म हो जाती थीं। तब भानु, सुभानु, स्वर्भानु, प्रभानु, भानुमान, चन्द्रभानु, बृहद्भानु, अतिभानु, श्रीभानु और प्रतिभानु – सत्यभामाके इन दस पुत्रोंने तीखे बाणोंसे उस भयंकर एवं मदमत्त सर्पको बींधना आरम्भ किया। बाणोंसे सारे अङ्ग छिन्न-भिन्न हो जानेके कारण वह पृथ्वीपर गिर पड़ा और सर्पका रूप छोड़कर एक तेजस्वी एवं दीप्तिमान् गन्धर्व हो गया। उसने समस्त श्रीकृष्ण-पुत्रोंको नमस्कार किया। देवता फूल बरसाने लगे और वह समस्त दिङ्मण्डलको उद्भासित करता हुआ विमानके द्वारा स्वर्गलोकको चला गया ॥ २७-३५॥

बहुलाश्वने पूछा- मुने ! यह गन्धर्व कौन था और पहलेके किस पापसे सर्प हुआ था, यह बताइये; क्योंकि आप भूत, वर्तमान और भविष्यकी बातें जाननेवालोंमें सबसे श्रेष्ठ हैं॥ ३६ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! आर्टिषेण गन्धर्वका जो सुन्दर भ्राता सुमति था, वह हनुमान्जीसे रामायण पढ़नेके लिये आया। हनुमान्जी हेमकूट पर्वतपर श्रीरामकी सेवामें प्रातः कालसे लेकर चौदह घड़ीतक लगे रहते थे। वे लक्ष्मणसहित जानकीपति श्रीरामचन्द्रजीका ध्यान कर रहे थे। इसी समय उसने साँपकी भाँति फुफकार करके हनुमान जीका ध्यान भङ्ग कर दिया। तब वानरराज महावीर हनुमान्जीने कुपित होकर सुमतिको शाप दे दिया- ‘दुर्बुद्धे ! तू सर्प हो जा।’ सुमतिने उसी समय उनके चरणोंमें प्रणाम करके हाथ जोड़कर कहा- ‘देव! आप अपनी शरणमें आये हुए मुझ दीनकी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ‘ ॥ ३७-४१ ॥

तब प्रसन्न होकर धर्मज्ञ भगवान् हनुमान्ने सुमतिसे कहा-‘द्वापरके अन्तमें भगवान् श्रीकृष्णके पुत्रोंके धनुषसे छूटे हुए तीखे बाणोंद्वारा जब तुम्हारा शरीर विदीर्ण हो जायगा, तब तुम अपने गन्धर्व शरीरको प्राप्त कर लोगे इसमें संशय नहीं है।’ विदेहराज । वही सुमति नामक गन्धर्व शापसे मुक्त हुआ। सत्पुरुषोंका शाप भी वरदानके तुल्य है फिर उनका वरदान मोक्ष देनेवाला हो जाय, इसके लिये तो कहना ही क्या है॥४२-४३ ॥(Vishwajitkhand chapter 26 to 30)

तदनन्तर श्रीकृष्णकुमार महाबाहु प्रद्युम्न मनोहर चैत्र-देशोंको गये, जो वासन्ती और माधवी लताओंसे सुशोभित थे। यहाँ भ्रमरोंकी ध्वनिसे शोभा पानेवाले सहस्रदल कमलोंका पराग सरोवरोंमें अबीर-चूर्णकी भौति गिरता था। रास्तेमें इलायची और लौंगकी लताएँ लहलहाती थीं, जो सैनिकोंके पाँवोंसे कुचलकर धूलमें मिल जाती थीं। झुंड-के-झुंड भ्रमर हाथियोंके कर्णतालोंसे ताड़ित हो आस-पास मँडराते हुए शोभा पाते थे ॥ ४४-४६ ॥

राजन् ! वहाँके पुरुष दस हजार हाथियोंके समान बलवान् होते हैं। उनके शरीरपर झुर्रियाँ नहीं दिखायी देतीं। उनके बाल नहीं पकते और शरीरमें पसीना, थकावट एवं दुर्गन्ध नहीं होती। वहाँ प्रतिदिन त्रेतायुग- के समान समय रहता है। दिव्य ओषधियों तथा नदियोंके गुणकारी प्रभावसे वहाँके लोगोंकी आयु दस हजार वर्षकी हुआ करती है। वहाँ अमृतके समान जल और स्वर्णमयी भूमि शोभा पाती है। उस भूमिसे मोती, मूँगे, वैदूर्य आदि रत्नोंकी उत्पत्ति होती है। वहाँकी मदमत्त रमणियाँ बड़ी सुन्दरी और अक्षय यौवनसे विभूषित होती हैं। वे वहाँके उपवनोंमें दूरसे ऐसी चमकती हैं, जैसे बादलोंमें बिजलियाँ ॥ ४७-५० ॥

वहाँ वसन्ततिलका नामकी एक सुन्दर सुरम्य नगरी है, जहाँ शृङ्गार-तिलक नामके महावली राजा राज्य करते हैं। विजयी वीरोंको एकत्र करके, स्वयं भी कवच धारण किये, हाथीपर सवार हो, वे राजा श्रृङ्गार- तिलक प्रद्युम्रके सामने युद्धके लिये निकले। उस समय साम्ब, सुमित्र, पुरुजित्, शतजित्, सहस्त्रजित्, विजय, चित्रकेतु, वसुमान्, द्रविड़ और क्रतु जाम्बवतीके इन दस पुत्रोंने वहाँ नाराचोंसे दुर्दिन उपस्थित कर दिया। मैथिल ! उन बाणोंसे विदीर्ण होकर विपक्षी योद्धा भागने लगे। बाणोंसे अन्धकार छा जानेपर वहाँ महान् कोलाहल मच गया। तब महाबली श्रृङ्गार-तिलकने हाथीपर बैठे- बैठे ही त्रिशूलसे रोषपूर्वक साम्बकी छातीपर चोट पहुँचायी तथा अन्य योद्धाओंको अपने धनुषसे छूटे हुए बाणोंद्वारा धराशायी कर दिया। वे युद्धभूमिमें अकेले इस प्रकार विचरने लगे, जैसे वनमें दावानल फैल रहा हो। उस समय गदने आकर उनके मदमत्त हाथीको उसकी सूँड़ पकड़कर पृथ्वीपर पटक दिया। राजा शृङ्गार-तिलक भी तत्काल दूर जा गिरे। फिर तो भयसे व्याकुल हो उन्होंने युद्धमें उसी क्षण दोनों हाथ जोड़ लिये और एक अरब घोड़े, एक लाख रथ और दस हजार हाथी प्रद्युम्नको भेंटमें दिये ॥ ५१-६० ॥

इस प्रकार किम्पुरुषवर्षपर विजय पाकर महाबली श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न निषादोंके दिखाये हुए मार्गसे हरिवर्षकी ओर प्रस्थित हुए ॥ ६१ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘किम्पुरुषखण्डपर विजय’ नामक छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २६ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री शनि चालीसा

सत्ताईसवाँ अध्याय

प्रद्युम्नद्वारा गरुडास्त्रका प्रयोग होनेपर गीधोंके आक्रमणसे यादव-सेनाकी रक्षा;
दशार्णदेशपर विजय तथा दशार्णमोचन तीर्थमें स्त्रान

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! हरिवर्ष नामक खण्ड सम्पूर्ण सम्पदाओंसे सम्पन्न है। मिथिलेश्वर ! उसकी सीमा साक्षात् निषध पर्वत है। वीरोंके कोदण्डोंकी टंकार-ध्वनिसे वहाँका वन्यप्रान्त व्याप्त हो जानेपर, वहाँसे एक-एक कोसके लंबे शरीर और तीखी चोंचवाले महागृध्र तथा गरुड पक्षी उड़े। नरेश्वर ! वे सब-के-सब दीर्घायु और भूखे थे। उन्होंने यादव- सैनिकों, हाथियों और घोड़ोंको भी अपना ग्रास बनाना आरम्भ किया। आकाश पक्षियोंसे व्याप्त हो गया। उनकी पाँखोंकी हवासे आँधी-सी उठने लगी। सेनामें अन्धकार छा गया और महान् हाहाकार होने लगा ॥१-४॥

तव महाबाहु श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्नने गरुडास्त्रका संधान किया। उस अस्त्रसे साक्षात् विनतानन्दन पक्षिराज गरुड प्रकट हो गये। अन्धकारसे भरी हुई उस सेनामें पहुँचकर पक्षिराजने अपनी चोंच और चमकीले पंखोंकी मारसे कितने ही गीधों, कुलिङ्गों और गरुडोंको धराशायी कर दिया। उन सबका घमंड चूर हो गया, पंख कट गये और वे सब पक्षी क्षत- विक्षत हो गरुडके भयसे घबराकर दसों दिशाओंमें भाग गये ॥ ५-७॥(Vishwajitkhand chapter 26 to 30)

तदनन्तर महाबाहु श्रीकृष्णकुमार दशार्ण जनपदमें गये। दशार्ण देशके राजा शुभाङ्ग सूर्यवंशी क्षत्रिय थे। युद्धमें उनका बल दस हजार हाथियोंके समान हो जाता था। वे निष्कौशाम्बीपुरीके अधिपति थे। वेदव्यासके मुखसे प्रद्युम्नका प्रचण्ड पौरुष सुनकर वे दशार्णा नदी पार करके आ गये थे। शुभाङ्गने हाथ जोड़कर किरीटसहित अपना मस्तक झुका दिया और महात्मा प्रद्युम्नको उत्तम रत्नोंकी भेंट दी। सर्वत्र व्यापक और सर्वदर्शी साक्षात् भगवान् प्रद्युम्नने शुभाङ्गसे लोकसंग्रहकी इच्छासे इस प्रकार पूछा ॥ ८-१२॥

प्रद्युम्नने कहा- निष्कौशाम्बीपुरीके अधीश्वर राजन् ! यह देश ‘दशार्ण’ क्यों कहलाता है? किसके नामपर इसका ऐसा नाम हुआ है, यह मुझे बताइये ॥ १३ ॥

शुभाङ्गने कहा- पूर्वकालमें भगवान् नृसिंह हिरण्यकशिपुको मारकर प्रह्लादके साथ यहाँ आये और हरिवर्षमें ही बस गये। भक्तवत्सल भगवान् नृसिंहने प्रह्लादसे कहा ॥ १४३॥

नृसिंह बोले- पुत्र ! तुम मेरे शान्त-भक्त हो, तथापि तुम्हारे पिताका मेरे द्वारा वध हुआ है; अतः महामते। मैं तुम्हारे वंशमें अब और किसीको नहीं मारूँगा ॥ १५ ॥

शुभाङ्ग कहते हैं- रुक्मिणीनन्दन ! इस प्रकार कहते हुए भगवान् नृसिंहके दोनों नेत्रोंसे आनन्दजनित जलबिन्दु पृथ्वीपर गिरे। उन बिन्दुओंसे ‘मङ्गलायन सरोवर’ प्रकट हो गया। तब वरप्राप्त धर्मात्मा प्रह्लाद हर्षविह्वल हो दोनों हाथ जोड़कर भगवान् नृसिंहसे बोले ॥ १६-१७ ॥

प्रह्लादने कहा- भक्तजनप्रतिपालक परमेश्वर ! मैंने माता-पिताकी सेवा नहीं की; अतः मैं उनके ऋणसे कैसे मुक्त होऊँगा ? ॥ १८ ॥

नृसिंह बोले- महाभाग ! तुम मेरे नेत्र-जलसे प्रकट हुए इस मङ्गलायन तीर्थमें स्रान करो। इससे तुम दस प्रकारके ऋणोंसे छुटकारा पा जाओगे। माता, पिता, पत्नी, पुत्र, गुरु, देवता, ब्राह्मण, शरणागत, ऋषि तथा पितरोंका ऋण ‘दशार्ण’ कहलाता है। जो इस महातीर्थमें स्नान कर लेगा, वह सबकी अवहेलनामें तत्पर हो तो भी दस प्रकारके ऋणोंसे छुटकारा पा जायगा इसमें संशय नहीं है॥ १९-२१ ॥

शुभाङ्ग कहते हैं- कयाधू-कुमार प्रह्लाद इस ‘दशार्णमोचन तीर्थ’ में स्नान करके सब ऋणोंसे मुक्त हो गये। वे आज भी निषधगिरिसे यहाँ इस तीर्थमें नहानेके लिये आया करते हैं। दशार्णमोचन तीर्थके निकटका देश ‘दशार्ण’ कहलाता है। उसीके स्रोतसे प्रकट हुई यह नदी ‘दशार्णा’ कहलाती है ॥ २२-२३ ॥(Vishwajitkhand chapter 26 to 30)

नारदजी कहते हैं- राजन् ! यह सुनकर भगवान् प्रद्युम्नने समस्त परिकरोंके साथ दशार्णमोचन तीर्थमें स्नान और दान किया। नरेश्वर! जो दशार्ण- मोचनकी कथा भी सुन लेगा, वह दस ऋणोंसे मुक्त हो जायगा और मोक्षका भागी होगा ॥ २४-२५॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘दशार्ण देशपर विजय’ नामक सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २७ ॥

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अट्ठाईसवाँ अध्याय

उत्तरकुरुवर्षपर यादवोंकी विजय; वाराहीपुरीमें राजा
गुणाकरद्वारा प्रद्युम्नका समादर

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इसके बाद महाबाहु प्रद्युम्न सुमेरुके उत्तरवर्ती और शृङ्गवान् पर्वत- के पास बसे हुए विचित्र समृद्धिशाली ‘उत्तरकुरु’ नामक देशमें गये। वहाँ ‘भद्रा’ नामकी गङ्गामें स्नान करके वे वाराहीनगरीमें जा पहुँचे, जहाँ कुरुवर्षके अधिपति चक्रवर्ती सम्राट् गुणाकर राज्य करते थे ॥१-२॥

राजा गुणाकरने बड़ी भारी सामग्रीका संचय करके देवर्षिगणोंसे घिरे रहकर दसर्वे अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान आरम्भ किया था। उन्होंने एक मनोहर श्वेतवर्ण श्यामकर्ण अश्व छोड़ा था और उनके पुत्र वीरधन्वा उस अश्वकी रक्षाके लिये निकले थे। प्रचण्ड-पराक्रमी महावीर वीरधन्वा उस घोड़ेकी देख-भाल करते हुए दस अक्षौहिणी सेनाके साथ विचर रहे थे। वीर, चन्द्र, सेन, चित्रगु, वेगवान्, आम, शङ्कु, वसु, श्रीमान् और कुन्ति नाग्ग्रजितीके इन दस पुत्रोंने सब ओरसे शुभ्र घोड़ेको घेरकर पकड़ लिया और हर्षसे भरे हुए वे ‘यह किसका छोड़ा हुआ घोड़ा है?’-यों कहते हुए प्रद्युम्नकी सेनाके पास आये उसके ललाटमें बँधे हुए पत्रको पढ़कर प्रद्युम्र को बड़ा विस्मय हुआ। समस्त यादव हाथोंमें उत्तम आयुध लिये विस्मयमें पड़े हुए थे ॥३-८॥

नरेश्वर! इतनेमें ही उस घोड़ेको खोजती हुई वीरधन्वाकी सेना वहाँ आ पहुँची। उसकी सेनाके लोग यादववाहिनीसे उड़ती हुई धूलको देखकर आश्चर्यचकित हो दूर ही खड़े रह गये। वे मन-ही-मन सोचने लगे- ‘प्रचण्डपराक्रमी राजा गुणाकरके शासन-कालमें कुरुखण्ड-मण्डलमें दस्यु किंवा लुटेरे कहीं नहीं हैं। गौओंके चरकर लौटनेका भी समय नहीं हुआ है। कहींसे बवण्डर उठा हो, यह भी नहीं जान पड़ता। फिर यह सूर्यमण्डलको आच्छादित कर लेने- वाला धूल-समूह कहाँसे आया?’ दूसरी सेनाके लोग जब इस प्रकार बातें कर रहे थे, उसी समय धनुषकी टंकार, हाथियोंकी चिग्धाड़, गजराजोंकी चीत्कार, घोड़ोंकी हिनहिनाहट तथा रणवाद्योंकी ध्वनि-इन सबकी मिली-जुली आवाज सुनायी दी ॥ ९-११॥(Vishwajitkhand chapter 26 to 30)

तब श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्नकी प्रेरणासे उद्धवजी तुरंत ही वीरधन्वाकी सेनामें पहुँचकर, रथपर बैठे हुए गुणाकरके औरस पुत्र सूर्यतुल्य तेजस्वी वीरधन्वाको प्रणाम करके उनसे इस प्रकार बोले- ‘राजन् ! भूपालोंके इन्द्र द्वारकाधीश, यदुकुल भूषण महाराज उग्रसेन जम्बूद्वीपके राजाओंको जीतकर राजसूय यज्ञ करेंगे। उनकी प्रेरणासे धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ वीर प्रद्युम्न भारतवर्ष, किम्पुरुषवर्ष तथा हरिवर्षको जीतकर उत्तर- कुरुवर्षमें पधारे हैं। उत्तरकुरुवर्षके स्वामी भी महात्मा प्रद्युम्नको अवश्य भेंट देंगे। दस अक्षौहिणी सेनाके साथ आये हुए प्रद्युम्नका कुबेरने भी पूजन किया है, अतः तुम्हें भी महात्मा प्रद्युम्नको उपहार देना चाहिये। उनके द्वारा बाँधे गये यज्ञपशुको लौटा लेनेकी शक्ति इस भूतलपर और किसमें है? साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उनके सहायक हैं। यदि उपहार दान और सम्मान करो, तब तो भला होगा; अन्यथा युद्ध होना अनिवार्य है’ ॥ १२-१७॥

वीरधन्वाने कहा- राजाधिराज गुणाकरका पूजन तो देवराज इन्द्रने भी किया है, अतः वे महात्मा प्रद्युम्नको भेंट नहीं देंगे। रमणीय शृङ्गवान् पर्वतपर भगवान् वराह विद्यमान हैं, जिनकी सेवा भूमिदेवी सदा अत्यन्त आदरके साथ करती हैं। उन्हींके क्षेत्रमें राजा गुणाकरने भगवान् वराहके ध्यानपूर्वक तपस्या की है। दस हजार वर्ष पूर्ण होनेपर वाराहरूपधारी भगवान् हरिने संतुष्ट होकर अपने भक्त राजासे कहा- ‘वर माँगो।’ राजाने श्रीहरिको नमस्कार करके पुलकित और प्रेमसे विह्वल होकर कहा-‘भगवन् ! आपको छोड़कर दूसरा कोई देवता, असुर अथवा मनुष्य मुझे भूतलपर जीतनेवाला न हो, यही मेरा अभीष्ट वर है।’ तब ‘तथास्तु’ कहकर भगवान् वहीं अन्तर्धान हो गये। इसलिये महाराज गुणाकरके यशः स्वरूप अश्वको आपलोग स्वतः छोड़ दें। नहीं तो, मैं आपलोगोंके साथ युद्ध करूँगा, इसमें संशय नहीं है॥१८-२४॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! वीरधन्वाके यों कहनेपर उद्धवने वहाँसे शीघ्र अपनी सेनामें आकर वहाँ जो बात हुई थी, वह सब यादवोंकी सभामें सुना दी। तब श्रुतकर्मा, वृष, वीर, सुबाहु, भद्र, एकल, शान्ति, दर्श, पूर्णमास और सोमक- कालिन्दीके ये दस पुत्र प्रद्युम्नके देखते-देखते दस अक्षौहिणी सेनाके साथ युद्धके लिये आगे आ गये। फिर तो प्रचण्ड- पराक्रमी उत्तरकुरुवासियोंके साथ यादव-वीरोंका इस प्रकार तुमुल युद्ध होने लगा, जैसे दो समुद्र आपसमें टकरा गये हों। चमकते हुए तीखे अस्त्र-शस्त्रोंसे वीर- शिरोमणियोंकी बड़ी शोभा होने लगी। क्षणमात्रमें रक्तकी बड़ी भयंकर नदी बह चली। राजेन्द्र ! वह रुधिरकी नदी सौ योजनतक फैल गयी। तब मरनेसे बचे हुए उत्तरकुरुके लोग भाग चले ठीक उसी तरह जैसे शरत् काल आनेपर बादलोंके समूह छिन्न- भिन्न हो जाते हैं॥ २५-३०॥

कालिन्दीके बलवान् पुत्र महावीर पूर्णमासने अपने बाण-समूहोंद्वारा वीरधन्वाके रथको चूर-चूर कर दिया। वीरधन्वाने रथहीन हो जानेपर भी बारंबार धनुषकी टंकार करते हुए महाबली पूर्णमासपर बीस बाणोंसे प्रहार किया, परंतु पूर्णमासने स्वयं भी बाण मारकर उन बीसों बाणोंके बीचसे दो-दो टुकड़े कर दिये। राजेन्द्र ! वौरधन्वाने भी एक बाण मारकर पूर्णमासकी गम्भीर ध्वनि करनेवाली प्रत्यञ्चाको उसी तरह काट दिया, जैसे कोई कटुवचनसे मित्रताको खण्डित कर देता है। तब महाबली पूर्णमासने लाख भारकी बनी हुई भारी गदा हाथमें ले तुरंत ही वीरधन्वापर दे मारी। गदाके प्रहारसे व्यथित हो मदोत्कट योद्धा वीरधन्वाने श्रीकृष्णपुत्र पूर्णमासपर परिघसे प्रहार किया। तब पूर्णमासने उठकर पवन नामक पर्वतको उखाड़ लिया। फिर उन श्रीहरिकुमारने दोनों हाथोंसे उस पर्वतको घुमाकर वाराहीपुरीमें वेगपूर्वक फेंक दिया। वीरधन्वा उस पर्वतपर ही थे, अतः वे भी उसके साथ गुणाकरके यज्ञस्थलमें जा गिरे और मुँहसे रक्त वमन करते हुए मूच्छित हो गये। उनका युद्धविषयक वेग नष्ट हो गया था ॥ ३१-३९ ॥

उस समय वाराहीपुरीमें महान् हाहाकार मच गया। देवताओं और मनुष्योंकी दुन्दुभियाँ बज उठीं। देवताओंने पूर्णमासके ऊपर फूलोंकी वर्षा की। अपने पुत्रको मूच्छित हुआ देख राजा गुणाकर यज्ञस्थलसे उठकर खड़े हो गये और उन्होंने अपना दिव्य कोदण्ड लेकर युद्ध करनेका विचार किया। धर्मज्ञों में श्रेष्ठ और सर्वज्ञ विद्वान् मुनीन्द्र वामदेव उस यज्ञमें होता थे। उन्हें युद्धमें जानेके लिये उद्यत देख वामदेवजीने उनसे कहा ॥ ४०-४२ ॥

वामदेवजी बोले- राजन् ! तुम नहीं जानते कि परिपूर्णतम परमात्मा श्रीहरि देवताओंका महान् कार्य सिद्ध करनेके लिये यदुकुलमें अवतीर्ण हुए हैं। पृथ्वीका भार उतारने और भक्तोंकी रक्षा करनेके लिये यदुकुलमें अवतीर्ण हो वे साक्षात् भगवान् द्वारकापुरीमें विराजते हैं। उन्हीं श्रीकृष्णने उग्रसेनके यज्ञकी सिद्धिके लिये सम्पूर्ण जगत्को जीतनेके निमित्त अपने पुत्र यादवेश्वर प्रद्युम्नको भेजा है॥ ४३-४४॥

गुणाकरने कहा- ब्रह्मन् । आप परावर वेत्ताओंमें श्रेष्ठ हैं; अतः मुझे परिपूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्णका लक्षण बताइये ॥ ४५ ॥(Vishwajitkhand chapter 26 to 30)

वामदेवजी बोले- जिनके अपने तेजमें अन्य सारे तेज लीन हो जाते हैं, उन्हें साक्षात् परिपूर्णतम परमात्मा श्रीहरि कहते हैं। अंशांश, अंश, आवेश, कला तथा पूर्ण-अवतारके ये पाँच भेद हैं। व्यास आदि महर्षियोंने छठा परिपूर्णतम तत्त्व कहा है। परिपूर्णतम तो साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं, दूसरा नहीं; क्योंकि उन्होंने एक कार्यके लिये आकर करोड़ों कार्य सिद्ध किये हैं॥ ४६-४८ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीकृष्णका माहात्म्य सुनकर राजा गुणाकरने वैर छोड़ दिया और भेंट-उपहार लेकर वे प्रद्युम्नका दर्शन करनेके लिये आये। श्रीकृष्णकुमारकी परिक्रमा करके राजाने उन्हें नमस्कार किया और भेंट देकर नेत्रोंसे अश्नु बहाते हुए वे गद्गद वाणीमें बोले ॥ ४९-५०॥

गुणाकरने कहा- प्रभो। आज मेरा जन्म सफल हो गया। आजके दिन मेरा कुल पवित्र हुआ। आज मेरे सारे क्रतु और सम्पूर्ण क्रियाएँ आपके दर्शन से सफल हो गयीं। परेश। भूमन् ! आपके चरणोंकी भक्ति ही परमार्थरूपा है। साधुपुरुषोंके सङ्गसे आपकी वह परा भक्ति हमें सदा प्राप्त हो। आप ही अपने भक्तों पर कृपा करनेवाले साक्षात् भक्त-वत्सल भगवान् हैं। आप मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ॥ ५१-५२॥

प्रद्युम्नने कहा- राजन् ! आपको ज्ञान और वैराग्यसे युक्त प्रेमलक्षणा-भक्ति तो प्राप्त ही है, मेरे भक्तोंका सङ्ग भी आपको मिलता रहे। आपके यहाँ भागवती श्री सदा बनी रहे ॥ ५३ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर प्रसन्न हुए भक्तवत्सल श्रीकृष्णकुमार भगवान् प्रद्युम्नने राजाको अश्वमेध यज्ञका घोड़ा लौटा दिया ॥ ५४॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवादमें ‘उत्तरकुरुवर्षपर यादवोंकी विजय’ नामक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २८ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ महामृत्युंजय मंत्र जप विधि

उन्तीसवाँ अध्याय

प्रद्युम्नकी हिरण्मयवर्षपर विजय; मधुमक्खियों और वानरोंके आक्रमणसे छुटकारा;
राजा देवसखसे भेंटकी प्राप्ति तथा चन्द्रकान्ता नदीमें स्नान

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् । महाबाहु श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न उत्तरकुरुवर्षपर विजय पाकर ‘हिरण्मय’ नामक वर्षको जीतनेके लिये गये, जहाँ ‘स्स्रोत’ नामका विशाल एवं दीप्तिमान् सीमापर्वत शोभा पाता है। वहाँ कूर्मावतारधारी साक्षात् भगवान् श्रीहरि विराजते हैं और अर्यमा उनकी आराधनामें रहते हैं। हिरण्मयवर्षमें ‘पुष्पमाला’ नदीके तटपर ‘चित्रवन’ नामसे प्रसिद्ध एक विशाल वन है, जो फूलों और फलोंके भारसे लदा रहता है। कंद और मूलकी तो वह स्वतः निधि ही है। मैथिलेश्वर। वहाँ नल और नीलके वंशज वानर रहते हैं, जिन्हें त्रेतायुगमें भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने स्थापित किया था ॥ १-४॥

सेनाका कोलाहल सुनकर वे युद्धकी कामनासे बाहर निकले और भौंहें टेढ़ी किये, क्रोधके वशीभूत हो, उछलते हुए प्रद्युम्नकी सेनापर टूट पड़े। नरेश्वर। वे नखों, दाँतों और पूँछोंसे घोड़ों, हाथियों और मनुष्योंको घायल करने लगे। रथोंको अपनी पूँछोंमें बाँधकर वे बलपूर्वक आकाशमें फेंक देते थे। कुछ वानर विजय- ध्वजनाथके विजयरथको और अर्जुनके कपिध्वज रथको लाङ्गुलमें बाँधकर आकाशमें उड़ गये। कपिध्वज अर्जुनकी ध्वजापर साक्षात् भगवान् कपीन्द्र हनुमान् निवास करते थे। वे अर्जुनके सखा थे। उन्होंने कुपित हो सम्पूर्ण दिशाओंमें अपनी पूँछ घुमाकर उन आक्रमणकारी वानरोंको बाँध बाँधकर पृथ्वीपर पटकना आरम्भ किया। तब उन्हें पहचानकर समस्त श्रीरामकिंकर वानर हर्षसे भर गये ॥ ५-९॥(Vishwajitkhand chapter 26 to 30)

राजन् ! उन वानरोंने हाथ जोड़कर धीरे-धीरे सब ओरसे आकर पवनपुत्रको प्रणाम किया। कुछ आलिङ्गन करने लगे, कुछ वेगसे उछलने लगे और कुछ वानर उनकी पूँछ और पैरोंको चूमने लगे। महावीर अञ्जनीकुमारने उन्हें हृदयसे लगाकर उनके शरीरपर हाथ फेरा और उन्हें आशीर्वाद देकर उनका कुशल-समाचार पूछा। नरेश्वर। उन्हें प्रणाम करके सब वानर चित्रवनमें चले गये और हनुमान्जी अर्जुनके ध्वजामें अन्तर्धान हो गये ॥ १०-१२॥

तदनन्तर मीनध्वज प्रद्युम्र मकर नामक देशसे होते हुए वृष्णिवंशियोंके साथ बार-बार दुन्दुभि बजवाते हुए आगे बढ़े। मकरगिरिके पास उनकी दुन्दुभियोंकी ध्वनि सुनकर मधु भक्षण करनेवाली करोड़ों मधु- मक्खियाँ उड़कर आ गयीं। उन्होंने सारी सेनाको हँसना आरम्भ किया। उस समय हाथी भी चीत्कार कर उठे। तब महाबाहु श्रीकृष्णकुमारने वायव्यास्त्रका संधान किया। राजन् ! उस अस्त्रसे उठी हुई वायुसे प्रताड़ित हो वे सब मधुमक्खियाँ दसों दिशाओंमें उड़ गयीं। मिथिलेश्वर ! उस देशके सभी मनुष्योंके मुख मगर-से थे ॥ १३-१६॥

उसके बाद डिण्डिभ देश आया, जहाँ हाथियों- के समान मुखवाले लोग दिखायी दिये। इस प्रकार अनेक देशोंका दर्शन करते हुए श्रीकृष्णकुमार त्रिशृङ्ग देशमें गये। वहाँ भी उन्होंने शृङ्गधारी मनुष्य देखे। त्रिशृङ्गगिरिके पास स्वर्णचर्चिका नामकी नगरी थी। जिसमें सोनेके महल शोभा पाते थे। वह दिव्य पुरी रत्ननिर्मित परकोटोंसे सुशोभित थी। मङ्गलकी निवासभूता वह नगरी चन्द्रकान्ता नदीके तटपर विराजमान थी। राजन् ! जैसे इन्द्र अमरावतीपुरीमें प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार प्रद्युम्नने उस पुरीमें पदार्पण किया। जैसे नागों और नागकन्याओं से भोगवतीपुरीकी शोभा होती है, उसी प्रकार विद्युत्की-सी दीप्तिवाले सुवर्णसदृश गौरवर्णके स्त्री- पुरुषोंसे वह स्वर्णचर्चिका नगरी सुशोभित थी। वहाँके बलवान् राजा महावीर देवसख नामसे प्रसिद्ध थे। उन्होंने मेरे मुँहसे यादव-सेनाके बलका वृत्तान्त सुनकर भेंटकी सुवर्णमय सामग्री ले, बड़े भक्तिभावसे प्रद्युम्रका पूजन किया। महाबाहु भगवान् प्रद्युम्न हरिने उनसे पूछा- ‘आप सब लोगोंकी शोभा चन्द्रमाके समान कैसे है? यह मुझे शीघ्र बताइये ‘ ॥ १७-२३॥(Vishwajitkhand chapter 26 to 30)

देवसख बोले- यदूत्तम! पितरोंके स्वामी अर्यमाने कूर्मरूपधारी भगवान् लक्ष्मीपतिके दोनों चरणोंका जिस जलसे प्रक्षालन किया, उस चरणोदकसे एक महानदी प्रकट हो गयी, जो श्वेत-पर्वतके शिखरसे नीचेको उतरती है। एक समयकी बात है-मनुके पुत्र प्रमेधाको उनके गुरुने गौओंकी रक्षाका कार्य सौंपा था। उन्होंने रात्रिके समय सिंहकी आशङ्कासे तलवार चलाकर बिना जाने एक कपिला गौका वध कर दिया। तब गुरुवर वसिष्ठके शापसे वे शूद्रत्वको प्राप्त हो गये और उनका शरीर कुष्ठरोगसे पीड़ित हो गया। तब वे तीर्थोंमें विचरने लगे। इस नदीमें स्नान करके वे मनुपुत्र गलितकुष्ठ रोगसे मुक्त हो गये और उनके शरीरकी कान्ति चन्द्रमाके समान हो गयी। तभीसे हिरण्मयवर्षके भीतर यह नदी ‘चन्द्रकान्ता’ नामसे प्रसिद्ध हुई। जबसे मनुकुमार प्रमेधा चन्द्रकान्ता नदीमें स्रान करके गलित-कुष्ठसे मुक्त हुए, तबसे हम सब लोग नियमपूर्वक इस नदीमें स्नान करने लगे। नृपोत्तम ! यही कारण है कि इस पृथ्वीपर हमलोग चन्द्रमाके तुल्य रूपवाले हैं, इसमें संशय नहीं है॥ २४-३० ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यह सुनकर महाबाहु प्रद्युम्नने यादवोंके साथ चन्द्रकान्ता नदीमें स्नान करके अनेक प्रकारके दान दिये ॥ ॥३१॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘हिरण्मयवर्षपर विजय’ नामक उन्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२९॥

यहां एक क्लिक में पढ़िए ~ अध्यात्म रामायण

तीसवाँ अध्याय

रम्यकवर्षमें कलङ्क राक्षसपर विजय; नैःश्रेयसवन, मानवी नगरी तथा
मानवगिरि का दर्शन; श्राद्धदेव मनु द्वारा प्रद्युम्न की स्तुति

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार हिरण्मयखण्डपर विजय पाकर महाबली प्रद्युम्न देव- लोककी भाँति प्रकाशित होनेवाले रम्यकवर्षमें गये। उसका सीमा-पर्वत साक्षात् गिरिराज ‘नील’ है। उसके उत्तरवर्ती काले देशमें भयंकर नादसे परिपूर्ण ‘भीमनादिनी’ नामकी नगरी है। वहाँ कालनेमिका पुत्र कलङ्क नामका राक्षस रहता था, जो त्रेतायुगमें श्रीरामचन्द्रजीसे डरकर युद्धभूमिसे भाग आया था। वह लङ्कापुरीसे यहाँ आकर राक्षसोंके साथ निवास करता था। उसने दस हजार राक्षसोंके साथ यादवोंसे युद्ध करनेका निश्चय किया। काले रंगका वह राक्षसराज गधेपर आरूढ़ हो यादव सेनाके सामने आया। यादवों और राक्षसोंमें घोर युद्ध होने लगा। प्रघोष, गात्रवान्, सिंह, बल, प्रबल, ऊर्ध्वग, सह, ओज, महाशक्ति तथा अपराजित- लक्ष्मणाके गर्भसे उत्पन्न हुए श्रीकृष्णके ये दस कल्याणस्वरूप पुत्र तीखे और चमकीले बाणोंकी वर्षा करते हुए सबसे आगे आ गये। जैसे वायुके वेगसे बादल छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, उसी प्रकार उन्होंने बाणसमूहोंद्वारा राक्षस-सेनाको तहस-नहस कर दिया। उनके बाणोंसे अङ्ग छिन्न-भिन्न हो जानेपर वे रणदुर्मद राक्षस मदमत्त हो यादव-सेनापर त्रिशूलों और मुगरोंकी वर्षा करने लगे। उस समय राक्षसराज कलङ्क हाथियों तथा रथियोंको चबाता हुआ आगे बढ़ा। वह घोड़ों और अस्त्र-शस्त्रोंसहित मनुष्योंको तत्काल मुँहमें डाल लेता था। हौदों, रत्नजटित झूलों तथा घण्टा- नादसे युक्त हाथियोंको पैरोंकी ओरसे उठाकर बलपूर्वक आकाशमें फेंक देता था। तब श्रीहरिके पुत्र प्रघोषने कपीन्द्रास्त्रका संधान किया। उस बाणसे साक्षात् वायुपुत्र बलवान् हनुमान् प्रकट हुए। उन्होंने जैसे वायु रूईको उड़ा देती है, उसी प्रकार उस राक्षसको आकाशमें सौ योजन दूर फेंक दिया ॥ १-१२ ॥(Vishwajitkhand chapter 26 to 30)

तब हनुमान्जीको पहचानकर राक्षसराज कलङ्कने गर्जना करते हुए लाख भारकी बनी हुई भारी गदा उनके ऊपर फेंकी। हनुमान्जी वेगसे उछले और वह गदा भूमिपर गिर पड़ी। उछलते हुए वानरराजने, बार-बार भौंहें टेढ़ी करते हुए कलङ्कको एक मुक्का मारा और उसका किरीट ले लिया। तब कलङ्कने भी उस समय उन्हें मारनेके लिये अपना त्रिशूल हाथमें लिया; किंतु वे कपीन्द्र हनुमान् वेगसे उछलकर उसकी पीठपर कूद पड़े और दोनों हाथोंसे पकड़कर उसे भूमिपर गिरा दिया। फिर वैदूर्य पर्वतको ले जाकर उसके ऊपर डाल दिया। पर्वतके गिरनेसे उसका कचूमर निकल गया, उसके सारे अङ्ग चूर-चूर हो गये और वह मृत्युका ग्रास बन गया ॥ १३-१७॥

उस समय शङ्खध्वनिके साथ जय-जयकार होने लगी और साक्षात् भगवान् हनुमान् वहीं अन्तर्धान हो गये। देवताओंने प्रद्युम्नपर फूलोंकी वर्षा की। फिर अपनी सेनासे घिरे हुए महाबाहु प्रद्युम्न मनुकी स्वर्णमयीमनोहारिणी नगरीमें गये। वहाँ नैः श्रेयस नामक वन था, जो कल्पवृक्षों तथा कल्पलताओंसे घिरा हुआ था। हरिचन्दन, मन्दार और पारिजात उस वनकी शोभा बढ़ाते थे। संतानवृक्षके पुष्पोंकी सुगन्धसे मिश्रित वायु उस वनमें सुवास फैला रही थी। केतकी, चम्पालता और कुटज पुष्पोंसे परिसेवित वह वन माधवी लताओं के पुष्प-फल-समन्वित समूहसे व्याप्त था। कलरव करते हुए विहंगमोंके वृन्दसे वह वन वैकुण्ठलोक-सा सुन्दर प्रतीत होता था। वहाँ चारुधि नामसे प्रसिद्ध एक पर्वत था, जिसकी लंबाई पाँच सी योजन थी। राजन् ! उस पर्वतके निचले भागका विस्तार सौ योजनका था। नरकोकिल, कोकिलाएँ, मोर, सारस, तोते, चकवे, चकोर, हंस और दात्यूह (पपीहा) नामक पक्षी वहाँ कलरव करते थे। सभी ऋतुओंके फूलोंकी शोभासे सम्पन्न वह नैःश्रेयसवन नन्दनवनको तिरस्कृत करता था। मिथिलेश्वर ! वहाँ मृगोंके बच्चे सिहोंके साथ खेलते थे। नेवले सर्पोंके साथ वैरविहीन होकर रहते थे। वहाँ भ्रमरों के गुञ्जारवसे युक्त दस हजार सरोवर थे, जिनमें दीप्तिमान् शतदल और सहस्रदल कमल शोभा दे रहे थे। इधर-उधर सब ओर वर्तमान वह सुन्दर वन मूर्तिमान् आनन्द-सा जान पड़ता था। सर्वज्ञ विद्वान प्रद्युम्नने उस वनकी शोभा देखकर निकले हुए नागरिकोंसे यह अभीष्ट प्रश्न पूछा ॥ १८-२८॥(Vishwajitkhand chapter 26 to 30)

प्रद्युम्न बोले- हे पवित्र शासनमें रहनेवाले लोगो! यह रमणीय नगरी किसकी है और यह अद्भुत वन भी किसका है? आपलोग विस्तारपूर्वक सब बात बतायें ॥ २९ ॥

उन लोगोंने कहा- नरेश्वर ! वैवस्वत मनु, जो इस समय रमणीय मानव पर्वतपर मत्स्यावतार धारी भगवान् नारायण हरिकी आराधनामें लगे हैं और यहाँ सदा निवास करने वाले मत्स्यभगवान्‌की वन्दनापूर्वक बड़ी भारी तपस्या करते हैं, उन्हींकी यह रमणीय नगरी है और उन्हींका यह नैःश्रेयसवन है। यहाँकी भूमि और यह पर्वत दोनों वैकुण्ठलोकसे लाये गये हैं। आप सब राजा, जो इस पृथ्वीपर विराजमान हैं, इन्हीं वैवस्वत मनुके वंशज हैं, चाहे वे सूर्यवंशके हों या चन्द्रवंशके ॥ ३०-३२॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! समस्त क्षत्रियों के उन वृद्ध प्रपितामह श्राद्धदेव मनुका परिचय पाकर श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न बड़े विस्मित हुए। लोगोंकी बात सुनकर तत्काल भाइयोंसे तथा अन्य यादवोंसे घिरे हुए प्रद्युम्नने मानवगिरिपर चढ़कर भगवान् श्राद्धदेवका दर्शन किया। वे सौ सूर्योके समान तेजस्वी जान पड़ते थे और अपनी कान्तिसे दसों दिशाओंको प्रकाशित कर रहे थे। वे महायोगमय राजेन्द्र शान्तरूप थे। महाराज! वे वेदव्यास और शुक आदिसे तथा वसिष्ठ और बृहस्पति आदिसे परस्पर श्रीहरिका यश सुनते थे। यादवोंके साथ प्रद्युमने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और वे उनके सामने खड़े हो गये। श्रीहरिके प्रभावको जाननेवाले मनुने उन्हें उठकर आसन दिया और गद्द वाणीमें इस प्रकार कहा ॥ ३३-३७॥

मनु बोले- वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्र और अनिरुद्धरूपसे प्रकट आप भक्तजन-प्रतिपालक प्रभुको नमस्कार है। आप ही अनादि, आत्मा तथा अन्तर्यामी पुरुष हैं। आप प्रकृतिसे परे होनेके कारण सत्त्वादि तीनों गुणोंसे अतीत हैं। प्रकृतिको अपनी शक्तिसे वशमें करके गुणोंद्वारा श्रेष्ठ विश्वकी सृष्टि, पालन और संहार करते हैं। अतः अज्ञानकल्पित इस प्रपञ्चको सब ओरसे छोड़कर इस सम्पूर्ण जगत्को मनका संकल्पमात्र जानकर मायासे परे जो निर्गुण आदिपुरुष, सर्वज्ञ, सबके आदिकारण, अन्तर्यामी एवं सनातन परमात्मा हैं, उन्हीं आपका मैं आश्रय लेता हूँ। जो इस विश्वके सो जानेपर भी जागते हैं; जिन्हें जगत्के लोग नहीं जानते; जो सत्से परे, सर्वद्रष्टा एवं आदिपुरुष हैं; जिन्हें अज्ञानीजन नहीं देख पाते; जो सर्वथा स्वच्छ- शुद्ध-बुद्ध-स्वरूप हैं, उन आप परमात्माका मैं भजन करता हूँ। जैसे आकाश घटसे, अग्रि काष्ठसे तथा वायु अपने ऊपर छाये हुए धूल- कणोंसे लिप्त नहीं होते, उसी प्रकार आप समस्त गुणों- से निर्लिप्त हैं। जैसे स्फटिक मणि दूसरे दूसरे रंगोंके सम्पर्कसे उस रंगकी दिखायी देनेपर भी स्वरूपतः परम उज्ज्वल है, उसी प्रकार आप भी परम विशुद्ध हैं। व्यञ्जना, लक्षणा अथवा अभिधा शक्तिसे, वाणीके विभिन्न मार्गोंसे तथा स्फोटपरायण वैयाकरणोंद्वारा भी परमार्थ-पदका सम्यग्ज्ञान नहीं प्राप्त किया जाता। साधु वाच्यार्थ एवं उत्तम ध्वनिके द्वारा भी जिसका बोध नहीं हो पाता, वही ब्रह्म लौकिक वाक्योंद्वारा कैसे जाना जा सकता है। जिसे इस पृथ्वीपर कुछ लोग (मीमांसक) ‘कर्म’ कहते हैं, कुछ लोग (नैयायिक) ‘कर्ता’ कहते हैं, कोई ‘काल’, कोई ‘परम योग’ और कोई ‘विचार’ बताते हैं, उसे ही वेदान्तवेत्ता ज्ञानी पुरुष ‘ब्रह्म’ कहते हैं। जिसे इस लोकमें कालज गुण, ज्ञानेन्द्रियाँ, चित्त, मन और बुद्धि नहीं छू पाती हैं, जहाँ अहंकार और महत्तत्त्वकी भी पहुँच नहीं है तथा वेद भी जिसका वर्णन नहीं कर पाते, वह ‘परब्रह्म’ है। जैसे चिनगारियाँ अग्रिमें प्रवेश करती हैं, उसी प्रकार सारे तत्त्व उस परब्रह्ममें ही विलीन होते हैं। जिसे संतलोग ‘हिरण्यगर्भ’, ‘परमात्मतत्त्व’ और ‘वासुदेव’ कहते हैं, ऐसे ब्रह्मस्वरूप आप ही ‘पुरुषोत्तमोत्तम’ हैं- यह जानकर मैं सदा असङ्गभावसे विचरण करता हूँ ॥ ३८-४६ ॥(Vishwajitkhand chapter 26 to 30)

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! मनुका यह वचन सुनकर उस समय भगवान् प्रद्युम्न हरि मन्द-मन्द मुसकुराते हुए गम्भीर वाणीद्वारा उन्हें मोहित करते हुए-से बोले ॥ ४७ ॥

प्रद्युम्नने कहा- महाराज! आप हम क्षत्रियोंके आदिराजा, पितामह, वृद्ध, श्लाघनीय तथा धर्म- धुरंधर हैं। राजन् ! हमलोग आपके द्वारा रक्षणीय तथा सर्वतः पालनीय प्रजा हैं। आप जो दिव्य तप करते हैं, उससे जगत् को सुख मिलता है। आप-जैसे साधुपुरुष परमात्मा श्रीहरिके स्वरूप हैं; अतः वे ही सदा ढूँढने-योग्य हैं। साधुपुरुष ही मनुष्यों के अन्तःकरणमें छाये हुए मोहान्धकारका हरण करते हैं, सूर्यदेव नहीं ॥ ४८-५० ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यो कहकर मनुको प्रणाम करके, उनकी अनुमति ले, परिक्रमा करके, भगवान् श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न स्वयं नीचेकी भूमिपर उतर गये ॥ ५१ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘मानवदेशपर विजय’ नामक तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३० ॥

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