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Rudra Samhita Pratham Khand Chapter 11 to 20

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Rudra Samhita Pratham Khand Chapter 11 to 20

श्रीरुद्र संहिता प्रथम खण्ड अध्याय 11 से 20

Rudra Samhita Pratham Khand Chapter 11 to 20

श्रीरुद्र संहिता प्रथम खंड अध्याय 11 से अध्याय 20 (Rudra Samhita Chapter 11 to 20) में शिव पूजन की विधि तथा फल प्राप्ति वर्णन, देवताओं को उपदेश देना, शिव-पूजन की श्रेष्ठ विधि, पुष्पों द्वारा शिव पूजा का माहात्म्य, सृष्टि की उत्पत्ति और सृष्टि का वर्णन, पापी गुणनिधि की कथा, गुणनिधि को मोक्ष की प्राप्ति और गुणनिधि को कुबेर पद की प्राप्ति का वर्णन, और भगवान शिव का कैलाश पर्वत पर जाने का वर्णन किया गया है।

सम्पूर्ण शिव महापुराण हिंदी में

ग्यारहवां अध्याय

शिव पूजन की विधि तथा फल प्राप्ति

ऋषि बोले- हे सूत जी! अब आप हम पर कृपा कर हमें ब्रह्माजी व नारद के संवादों के अनुसार शिव पूजन की विधि बताइए, जिससे भगवान शिव प्रसन्न होते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आदि चारों वर्णों को शिव पूजन किस प्रकार करना चाहिए? आपने व्यास जी के मुख से जो सुना हो, कृपया हमें भी बताइए।

महर्षियों के ये वचन सुनकर सूत जी ने ऋषियों द्वारा पूछे गए प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहना आरंभ किया।

सूत जी बोले- हे मुनिश्वर ! जैसा आपने पूछा है, वह बड़े रहस्य की बात है। मैंने इसे जैसा सुना है, उसे मैं अपनी बुद्धि के अनुसार आपको सुना रहा हूं। पूर्वकाल में व्यास जी ने सनत्कुमार जी से यही प्रश्न किया था। फिर उपमन्यु जी ने भी इसे सुना था और इसे भगवान श्रीकृष्ण को सुनाया था। वही सब मैं अब ब्रह्मा-नारद संवाद के रूप में आपको बता रहा हूं।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ महामृत्युंजय मंत्र जप विधि

ब्रह्माजी ने कहा- भगवान शिव की भक्ति सुखमय, निर्मल एवं सनातन रूप है तथा समस्त मनोवांछित फलों को देने वाली है। यह दरिद्रता, रोग, दुख तथा शत्रु द्वारा दी गई पीड़ा का नाश करने वाली है। जब तक मनुष्य भगवान शिव का पूजन नहीं करता और उनकी शरण में नहीं जाता, तब तक ही उसे दरिद्रता, दुख, रोग और शत्रुजनित पीड़ा, ये चारों प्रकार के पाप दुखी करते हैं। भगवान शिव की पूजा करते ही ये दुख समाप्त हो जाते हैं और अक्षय सुखों की प्राप्ति होती है। वह सभी भोगों को प्राप्त कर अंत में मोक्ष प्राप्त करता है। शिवजी का पूजन करने वालों को धन, संतान और सुख की प्राप्ति होती है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों को सभी कामनाओं तथा प्रयोजनों की सिद्धि के लिए विधि अनुसार पूजा-उपासना करनी चाहिए।

ब्रह्ममुहूर्त में उठकर गुरु तथा शिव का स्मरण करके तीर्थों का चिंतन एवं भगवान विष्णु का ध्यान करें। फिर मेरा स्मरण-चिंतन करके स्तोत्र पाठ पूर्वक शंकरजी का विधिपूर्वक नाम लें। तत्पश्चात उठकर शौचक्रिया करने के लिए दक्षिण दिशा में जाएं तथा मल-मूत्र त्याग करें। ब्राह्मण गुदा की शुद्धि के लिए उसमें पांच बार शुद्ध मिट्टी का लेप करें और धोएं। क्षत्रिय चार बार, वैश्य तीन बार और शूद्र दो बार यही क्रम करें। तत्पश्चात बाएं हाथ में दस बार और दोनों हाथों में सात बार मिट्टी लगाकर धोएं। प्रत्येक पैर में तीन-तीन बार मिट्टी लगाएं। स्त्रियों को भी इसी प्रकार क्रम करते हुए शुद्ध मिट्टी से हाथ-पैर धोने चाहिए। ब्राह्मण को बारह अंगुल, क्षत्रिय को ग्यारह, वैश्य को दस और शूद्र को नौ अंगुल की दातुन करनी चाहिए। षष्ठी, अमावस्या, नवमी, व्रत के दिन, सूर्यास्त के समय, रविवार और श्राद्ध के दिन दातुन न करें। दातुन के पश्चात जलाशय में जाकर स्नान करें तथा विशेष देश-काल आने पर मंत्रोच्चारपूर्वक स्नान करें। फिर एकांत स्थान पर बैठकर विधिपूर्वक संध्या करें तथा इसके उपरांत विधि-विधान से शिवपूजन का कार्य आरंभ करें। तदुपरांत मन को सुस्थिर करके पूजा ग्रह में प्रवेश करें तथा आसन पर बैठें। (Rudra Samhita Chapter 11 to 20)

सर्वप्रथम गणेश जी का पूजन करें। उसके उपरांत शिवजी की स्थापना करें। तीन बार आचमन कर तीन प्राणायाम करते समय त्रिनेत्रधारी शिव का ध्यान करें। महादेव जी के पांच मुख, दस भुजाएं और जिनकी स्फटिक के समान उज्ज्वल कांति है। सब प्रकार के आभूषण उनके श्रीअंगों को विभूषित करते हैं तथा वे बाधंबर बांधे हुए हैं। फिर प्रणव-मंत्र अर्थात ओंकार से शिवजी की पूजा आरंभ करें। पाद्य, अर्घ्य और आचमन के लिए पात्रों को तैयार करें। नौ कलश स्थापित करें तथा उन्हें कुशाओं से ढककर रखें। कुशाओं से जल लेकर ही सबका प्रक्षालन करें। तत्पश्चात सभी कलशों में शीतल जल डालें। खस और चंदन को पाद्यपात्र में रखें। चमेली के फूल, शीतल चीनी, कपूर, बड़ की जड़ तथा तमाल का चूर्ण बना लें और आचमनीय के पात्र में डालें। इलायची और चंदन को तो सभी पात्रों में डालें। देवाधिदेव महादेव जी के सामने नंदीश्वर का पूजन करें। गंध, धूप तथा दीपों द्वारा भगवान शिव की आराधना आरंभ करें।

‘सद्योजातं प्रपद्यामि’ मंत्र से शिवजी का आवाहन करें। ‘ॐ वामदेवाय नमः’ मंत्र द्वारा भगवान महेश्वर को आसन पर स्थापित करें। फिर ‘ईशानः सर्वविद्यानाम्’ मंत्र से आराध्य देव का पूजन करें। पाद्य और आचमनीय अर्पित कर अर्घ्य दें। तत्पश्चात गंध और चंदन मिले हुए जल से भगवान शिव को विधिपूर्वक स्नान कराएं। तत्पश्चात पंचामृत से भगवान शिव को स्नान कराएं। पंचामृत के पांचों तत्वों-दूध, दही, शहद, गन्ने का रस तथा घी से नहलाकर महादेव जी के प्रणव मंत्र को बोलते हुए उनका अभिषेक करें। जलपात्रों में शुद्ध व शीतल जल लें। सर्वप्रथम महादेव जी के लिंग पर कुश, अपामार्ग, कपूर, चमेली, चंपा, गुलाब, सफेद कनेर, बेला, कमल और उत्पल पुष्पों एवं चंदन को चढ़ाकर पूजा करें। उन पर अनवरत जल की धारा गिरने की भी व्यवस्था करें। जल से भरे पात्रों से महेश्वर को नहलाएं। मंत्रों से भी पूजा करनी चाहिए। ऐसी पूजा समस्त अभीष्ट फलों को देने वाली है।

पावमान मंत्र, रुद्र मंत्र, नीलरुद्र मंत्र, पुरुष सूक्त, श्री सूक्त, अथर्वशीर्ष मंत्र, शांति मंत्र, भारुण्ड मंत्र, स्थंतरसाम, मृत्युंजय मंत्र एवं पंचाक्षर मंत्रों से पूजन करें। शिवलिंग पर एक सहस्र या एक सौ जलधाराएं गिराने की व्यवस्था करें। स्फटिक के समान निर्मल, अविनाशी, सर्वलोकमय परमदेव, जो आरंभ और अंत से हीन तथा रोगियों के औषधि के समान हैं, जिन्हें शिव के नाम से पहचाना जाता है एवं जो शिवलिंग के रूप में विख्यात हैं, उन भगवान शिव के मस्तक पर धूप, दीप, नैवेद्य और तांबूल आदि मंत्रों द्वारा अर्पित करें। अर्घ्य देकर भगवान शिव के चरणों में फूल अर्पित करें। फिर महेश्वर को प्रणाम कर आत्मा से शिवजी की आराधना करें और प्रार्थना करते समय हाथ में फूल लें। भगवान शिव से क्षमायाचना करते हुए कहें- हे कल्याणकारी शिव! मैंने अनजाने में अथवा जानबूझकर जो जप-तप पूजा आदि सत्कर्म किए हों, आपकी कृपा से वे सफल हों। हर्षित मन से शिवजी को फूल अर्पित करें। स्वस्ति वाचन कर, अनेक आशीर्वाद ग्रहण करें। भगवान शिव से प्रार्थना करें कि ‘प्रत्येक जन्म में मेरी शिव में भक्ति हो तथा शिव ही मेरे शरणदाता हों।’ इस प्रकार परम भक्ति से उनका पूजन करें। फिर सपरिवार भगवान को नमस्कार करें। (Rudra Samhita Chapter 11 to 20)

जो मनुष्य भक्तिपूर्वक प्रतिदिन भगवान शिव की पूजा करता है, उसे सब सिद्धियां प्राप्त होती हैं। उसे मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है। उसके सभी रोग, दुख, दर्द और कष्ट समाप्त हो जाते हैं। भगवान शिव की कृपा से उपासक का कल्याण होता है। भगवान शंकर की पूजा से मनुष्य में सद्गुणों की वृद्धि होती है।

यह सब जानकर नारद अत्यंत प्रसन्न होते हुए अपने पिता ब्रह्माजी को धन्यवाद देते हुए बोले कि आपने मुझ पर कृपा कर मुझे शिव पूजन की अमृत विधि बताई है। शिव भक्ति समस्त भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली है।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ विद्येश्वर संहिता प्रथम अध्याय से दसवें अध्याय तक

बारहवां अध्याय

देवताओं को उपदेश देना

नारद जी बोले- ब्रह्माजी! आप धन्य हैं क्योंकि आपने अपनी बुद्धि को शिव चरणों में लगा रखा है। कृपा कर इस आनंदमय विषय का वर्णन सविस्तार पुनः कीजिए।

ब्रह्माजी ने कहा- हे नारद! एक समय की बात है। मैंने सब ओर से देवताओं और ऋषियों को बुलाया और क्षीरसागर के तट पर भगवान विष्णु की स्तुति कर उन्हें प्रसन्न किया। भगवान विष्णु प्रसन्न होकर बोले- हे ब्रह्माजी! एवं अन्य देवगणो। आप यहां क्यों पधारे हैं? आपके मन में क्या इच्छा है? आप अपनी समस्या बताइए। मैं निश्चय ही उसे दूर करने का प्रयत्न करूंगा। (Rudra Samhita Chapter 11 to 20)

यह सुनकर, ब्रह्माजी बोले- हे भगवन्! दुखों को दूर करने के लिए किस देवता की सेवा करनी चाहिए? तब भगवान विष्णु ने उनके प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा- हे ब्रह्मन् ! भगवान शिव शंकर ही सब दुखों को दूर करने वाले हैं। सुख की कामना करने वाले मनुष्य को उनकी भक्ति में सदैव लगे रहना चाहिए। उन्हीं में मन लगाए और उन्हीं का चिंतन करे। जो मनुष्य शिव भक्ति में लीन रहता है, जिसके मन में वे विराजमान हैं, वह मनुष्य कभी दुखी नहीं हो सकता। पूर्व जन्म में किए गए पुण्यों एवं शिवभक्ति से ही पुरुषों को को सुंदर भवन, आभूषणों से विभूषित स्त्रियां, मन का संतोष, धन-संपदा, स्वस्थ शरीर, पुत्र-पौत्र, अलौकिक प्रतिष्ठा, स्वर्ग के सुख एवं मोक्ष प्राप्त होता है। जो स्त्री या पुरुष प्रतिदिन भक्तिपूर्वक शिवलिंग की पूजा करता है उसको हर जगह सफलता प्राप्त होती है। वह पापों के बंधन से छूट जाता है।

ब्रह्माजी एवं अन्य गणों ने भगवान विष्णु के उपदेश को ध्यानपूर्वक सुना। भगवान विष्णु को प्रणाम कर, कामनाओं की पूर्ति हेतु उन्होंने शिवलिंग की प्रार्थना की। तब श्री विष्णु ने विश्वकर्मा को बुलाकर कहा- हे मुने! तुम मेरी आज्ञा से देवताओं के लिए शिवलिगों का निर्माण करो।’ तब विश्वकर्मा ने मेरी और श्रीहरि की आज्ञा को मानते हुए, देवताओं के लिए उनके अनुसार लिंगों का निर्माण कर उन्हें प्रदान किया।

मुनिश्रेष्ठ नारद ! सभी देवताओं को प्राप्त शिवलिंगों के विषय में सुनो। सभी देवता अपने द्वारा प्राप्त लिंग की पूजा उपासना करते हैं। पद्मपराग मणि का लिंग इंद्र को, सोने का कुबेर को, पुखराज का धर्मराज को, श्याम-वर्ण का वरुण को, इंद्रनीलमणि का विष्णु को और ब्रह्माजी हेमलय लिंग को प्राप्त कर उसका भक्तिपूर्वक पूजन करते हैं। इसी प्रकार विश्वदेव चांदी के लिंग की और वसुगण पीतल के बने लिंग की भक्ति करते हैं। पीतल का अश्विनी कुमारों को, स्फटिक का लक्ष्मी को, तांबे का आदित्यों को और मोती का लिंग चंद्रमा को प्रदान किया गया है। व्रज-लिंग ब्राह्मणों के लिए व मिट्टी का लिंग ब्राह्मणों की स्त्रियों के लिए है। मयासुर चंदन द्वारा बने लिंग का और नागों द्वारा मूंगे के बने शिवलिंग का आदरपूर्वक पूजन किया जाता है। देवी मक्खन के बने लिंग की अर्चना करती हैं। योगीजन भस्म-मय लिंग की, यक्षगण दधि से निर्मित लिंग की, छायादेवी आटे के लिंग और ब्रह्मपत्नी रत्नमय शिव लिंग की पूजा करती हैं। बाणासुर पार्थिव लिंग की पूजा करता है। भगवान विष्णु ने देवताओं को उनके हित के लिए शिवलिंग के साथ पूजन विधि भी बताई। देवताओं के वचनों को सुनकर मेरे हृदय में हर्ष की अनुभूति हुई। मैंने लोकों का कल्याण करने वाली शिव पूजा की उत्तम विधि बताई। यह शिव भक्ति समस्त अभीष्ट फलों को प्रदान करने वाली है।

इस प्रकार लिंगों के विषय में बताकर ब्रह्माजी ने शिवलिंग व शिवभक्ति की महिमा का वर्णन किया। शिवपूजन भोग और मोक्ष प्रदान करता है। मनुष्य जन्म, उच्च कुल में प्राप्त करना अत्यंत दुर्लभ है। इसलिए मनुष्य रूप में जन्म लेकर मनुष्य को शिव भक्ति में लीन रहना चाहिए। शास्त्रों द्वारा बताए गए मार्ग का अनुसरण करते हुए, जाति के नियमों का पालन करते हुए कर्म करें। संपत्ति के अनुसार दान आदि दें। जप, तप, यज्ञ और ध्यान करें। ध्यान के द्वारा ही परमात्मा का साक्षात्कार होता है। भगवान शंकर अपने भक्तों के लिए सदा उपलब्ध रहते हैं। (Rudra Samhita Chapter 11 to 20)

जब तक ज्ञान की प्राप्ति न हो, तब तक कर्मों से ही आराधना करें। इस संसार में जो-जो वस्तु सत-असत रूप में दिखती है अथवा सुनाई देती है, वह परब्रह्म शिव रूप है। तत्वज्ञान न होने तक देव की मूर्ति का पूजन करें। अपनी जाति के लिए अपनाए गए कर्म का प्रयत्नपूर्वक पालन करें। आराध्य देव का पूजन श्रद्धापूर्वक करें क्योंकि पूजन और दान से ही हमारी सभी विघ्न व बाधाएं दूर होती हैं। जिस प्रकार मैले कपड़े पर रंग अच्छे से नहीं चढ़ता, परंतु साफ कपड़े पर अच्छी तरह से रंग चढ़ता है, उसी प्रकार देवताओं की पूजा-अर्चना से मनुष्य का शरीर पूर्णतया निर्मल हो जाता है। उस पर ज्ञान का रंग चढ़ता है और वह भेदभाव आदि बंधनों से छूट जाता है। बंधनों से छूटने पर उसके सभी दुख-दर्द समाप्त हो जाते हैं और मोह-माया से मुक्त मनुष्य शिवपद प्राप्त कर लेता है। मनुष्य जब तक गृहस्थ आश्रम में रहे, तब तक सभी देवताओं में श्रेष्ठ भगवान शंकर की मूर्ति का प्रेमपूर्वक पूजन करे। भगवान शंकर ही सभी देवों के मूल हैं। उनकी पूजा से बढ़कर कुछ भी नहीं है। जिस प्रकार वृक्ष की जड़ में पानी से सींचने पर जड़ एवं शाखाएं सभी तृप्त हो जाती हैं उसी प्रकार भगवान शिव की भक्ति है। अतः मनोवांछित फलों की प्राप्ति के लिए शिवजी की पूजा करनी चाहिए। अभीष्ट फलों की प्राप्ति तथा सिद्धि के लिए समस्त प्राणियों को सदैव लोक कल्याणकारी भगवान शिव का पूजन करना चाहिए।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ गीतावली हिंदी में

तेरहवां अध्याय

शिव-पूजन की श्रेष्ठ विधि

ब्रह्माजी कहते हैं- हे नारद! अब मैं शिव पूजन की सर्वोत्तम विधि बताता हूं। यह विधि समस्त अभीष्ट तथा सुखों को प्रदान करने वाली है। उपासक ब्रह्ममुहूर्त में उठकर जगदंबा पार्वती और भगवान शिव का स्मरण करे। दोनों हाथ जोड़कर उनके सामने सिर झुकाकर भक्तिपूर्वक प्रार्थना करे – हे देवेश! उठिए, हे त्रिलोकीनाथ! उठिए, मेरे हृदय में निवास करने वाले देव उठिए और पूरे ब्रह्माण्ड का मंगल करिए। हे प्रभु! मैं धर्म-अधर्म को नहीं जानता हूं। आपकी प्रेरणा से ही में कार्य करता हूं। फिर गुरु चरणों का ध्यान करते हुए कमरे से निकलकर शौच आदि से निवृत्त हों। मिट्टी और जल से देह को शुद्ध करें। दोनों हाथों और पैरों को धोकर दातुन करें तथा सोलह बार जल की अंजलियों से मुंह को धोएं। ये कार्य सूर्योदय से पूर्व ही करें। हे देवताओ और ऋषियो ! षष्ठी, प्रतिपदा, अमावस्या, नवमी और रविवार के दिन दातुन न करें। नदी अथवा घर में समय से स्नान करें। मनुष्य को देश और काल के विरुद्ध स्नान नहीं करना चाहिए। रविवार, श्राद्ध, संक्रांति, ग्रहण, महादान और उपवास वाले दिन गरम जल में स्नान न करें। क्रम से वारों को देखकर ही तेल लगाएं। जो मनुष्य नियमपूर्वक रोज तेल लगाता है, उसके लिए तेल लगाना किसी भी दिन दूषित नहीं है। सरसों के तेल को ग्रहण के दिन प्रयोग में न लाएं। इसके उपरांत स्नान पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके करें। (Rudra Samhita Chapter 11 to 20)

स्नान के उपरांत स्वच्छ अर्थात धुले हुए वस्त्र को धारण करें। दूसरों के पहने हुए अथवा रात में सोते समय पहने वस्त्रों को बिना धुले धारण न करें। स्नान के बाद पितरों एवं एवं देवताओं को प्रसन्न करने हेतु तर्पण करें। उसके बाद धुले हुए वस्त्र धारण करें और आचमन करें। पूजा हेतु स्थान को गोबर आदि से लीपकर शुद्ध करें। वहां लकड़ी के आसन की व्यवस्था करें। ऐसा आसन अभीष्ट फल देने वाला होता है। उस आसन पर बिछाने के लिए मृग अर्थात हिरन की खाल की व्यवस्था करें। उस पर बैठकर भस्म से त्रिपुण्ड लगाएं। त्रिपुण्ड से जप-तप तथा दान सफल होता है। त्रिपुण्ड लगाकर रुद्राक्ष धारण करें। तत्पश्चात मंत्रों का उच्चारण करते हुए आचमन करें। पूजा सामग्री को एकत्र करें। फिर जल, गंध और अक्षत के पात्र को दाहिने भाग में रखें। फिर गुरु की आज्ञा लेकर और उनका ध्यान करते हुए सपरिवार शिव का पूजन करें। विघ्न विनाशक गणेश जी का बुद्धि-सिद्धि सहित पूजन करें। ‘ॐ गणपतये नमः’ का जाप करके उन्हें नमस्कार करें तथा क्षमा याचना करें। कार्तिकेय एवं गणेश जी का एक साथ पूजन करें तथा उन्हें बारंबार नमस्कार करें। फिर द्वार पर स्थित लंबोदर नामक द्वारपाल की पूजा करें। तत्पश्चात भगवती देवी की पूजा करें। चंदन, कुमकुम, धूप, दीप और नैवेद्य से शिवजी का पूजन करें। प्रेमपूर्वक नमस्कार करें। अपने घर में मिट्टी, सोना, चांदी, धातु या अन्य किसी धातु की शिव प्रतिमा बनाएं। भक्तिपूर्वक शिवजी की पूजा कर उन्हें नमस्कार करे।

मिट्टी का शिवलिंग बनाकर विधिपूर्वक उसकी स्थापना करें तथा उसकी प्राण प्रतिष्ठा करें। घर में भी मंत्रोच्चार करते हुए पूजा करनी चाहिए। पूजा उत्तर की ओर मुख करके करनी चाहिए। आसन पर बैठकर गुरु को नमस्कार करें। अर्घ्यपात्र से शिवलिंग पर जल चढ़ाएं। शांत मन से, पूर्ण श्रद्धावनत होकर महादेव जी का आवाहन इस प्रकार करें।

जो कैलाश के शिखर पर निवास करते हैं और पार्वती देवी के पति हैं। जिनके स्वरूप का वर्णन शास्त्रों में है। जो समस्त देवताओं के लिए पूजित हैं। जिनके पांच मुख, दस हाथ तथा प्रत्येक मुख पर तीन-तीन नेत्र हैं। जो सिर पर चंद्रमा का मुकुट और जटा धारण किए हुए हैं, जिनका रंग कपूर के समान है, जो बाघ की खाल बांधते हैं। जिनके गले में वासुकि नामक नाग लिपटा है, जो सभी मनुष्यों को शरण देते हैं और सभी भक्तगण जिनकी जय-जयकार करते हैं। जिनका सभी वेद और शास्त्रों में गुणगान किया गया है। ब्रह्मा, विष्णु जिनकी स्तुति करते हैं। जो परम आनंद देने वाले तथा भक्तवत्सल हैं, ऐसे देवों के देव महादेव भगवान शिवजी का मैं आवाहन करता हूं। (Rudra Samhita Chapter 11 to 20)

इस प्रकार आवाहन करने के पश्चात उनका आसन स्थापित करें। आसन के बाद शिवजी को पाद्य और अर्घ्य दें। पंचामृत के द्रव्यों द्वारा शिवलिंग को स्नान कराएं तथा मंत्रों सहित द्रव्य अर्पित करें। स्नान के पश्चात सुगंधित चंदन का लेप करें तथा सुगंधित जलधारा से उनका अभिषेक करें। फिर आचमन कर जल दें और वस्त्र अर्पित करें। मंत्रों द्वारा भगवान शिव को तिल, जौ, गेहूं, मूंग और उड़द अर्पित करें। पुष्प चढ़ाएं। शिवजी के प्रत्येक मुख पर कमल, शतपत्र, शंख-पुष्प, कुश पुष्प, धतूरा, मंदार, द्रोण पुष्प, तुलसीदल तथा बेलपत्र चढ़ाकर पराभक्ति से महेश्वर की विशेष पूजा करें। बेलपत्र समर्पित करने से शिवजी की पूजा सफल होती है। तत्पश्चात सुगंधित चूर्ण तथा सुवासित तेल बड़े हर्ष के साथ भगवान शिव को अर्पित करें। गुग्गुल और अगरु की धूप दें। घी का दीपक जलाएं। प्रभो शंकर! आपको हम नमस्कार करते हैं। आप अर्घ्य को स्वीकार करके मुझे रूप दीजिए, यश दीजिए और भोग व मोक्ष रूपी फल प्रदान कीजिए। यह कहकर अर्घ्य अर्पित करें। नैवेद्य व तांबूल अर्पित करें। पांच बत्ती की आरती करें। चार बार पैरों में, दो बार नाभि के सामने, एक बार मुख के सामने तथा संपूर्ण शरीर में सात बार आरती दिखाएं। तत्पश्चात शिवजी की परिक्रमा करें।

हे प्रभु शिव शंकर! मैंने अज्ञान से अथवा जान-बूझकर जो पूजन किया है, वह आपकी कृपा से सफल हो। हे भगवन मेरे प्राण आप में लगे हैं। मेरा मन सदा आपका ही चिंतन करता है। हे गौरीनाथ! भूतनाथ! आप मुझ पर प्रसन्न होइए। प्रभो! जिनके पैर लड़खड़ाते हैं, उनका आप ही एकमात्र सहारा हैं। जिन्होंने कोई भी अपराध किया है, उनके लिए आप ही शरणदाता हैं। यह प्रार्थना करके पुष्पांजलि अर्पित करें तथा पुनः भगवान शिव को नमस्कार करें।

देवेश्वर प्रभो! अब आप परिवार सहित अपने स्थान को पधारें तथा जब पूजा का समय हो, तब पुनः यहां पधारें। इस प्रकार भगवान शंकर की प्रार्थना करते हुए उनका विसर्जन करें और उस जल को अपने हृदय में लगाकर मस्तक पर लगाएं।

हे महर्षियो! इस प्रकार मैंने आपको शिवपूजन की सर्वोत्तम विधि बता दी है, जो भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली है। (Rudra Samhita Chapter 11 to 20)

ऋषिगण बोले- हे ब्रह्माजी! आप सर्वश्रेष्ठ हैं। आपने हम पर कृपा कर शिवपूजन की सर्वोत्तम विधि का वर्णन हमसे किया, जिसे सुनकर हम सब कृतार्थ हो गए।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ सुश्रुत संहिता

चौदहवां अध्याय

पुष्पों द्वारा शिव पूजा का माहात्म्य

ऋषियों ने पूछा- हे महाभाग ! अब आप यह बताइए कि भगवान शिवजी की किन-किन फूलों से पूजा करनी चाहिए? विभिन्न फूलों से पूजा करने पर क्या-क्या फल प्राप्त होते हैं? सूत जी बोले- हे ऋषियो! यही प्रश्न नारद जी ने ब्रह्माजी से किया था। ब्रह्माजी ने उन्हें पुष्पों द्वारा शिवजी की पूजा के माहात्म्य को बताया।

ब्रह्माजी ने कहा- नारद ! लक्ष्मी अर्थात धन की कामना करने वाले मनुष्य को कमल के फूल, बेल पत्र, शतपत्र और शंख पुष्प से भगवान शिव का पूजन करना चाहिए। एक लाख पुष्पों द्वारा भगवान शिव की पूजा होने पर सभी पापों का नाश हो जाता है और लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। एक लाख फूलों से शिवजी की पूजा करने से मनुष्य को संपूर्ण अभीष्ट फलों की प्राप्ति होती है। जिसके मन में कोई कामना न हो, वह उपासक इस पूजन से शिव स्वरूप हो जाता है।

मृत्युंजय मंत्र के पांच लाख जाप पूरे होने पर महादेव के स्वरूप के दर्शन हो जाते हैं। एक लाख जाप से शरीर की शुद्धि। होती है। है। दूसरे लाख के जाप से पहले जन्म की बातें याद आ जाती हैं। तीसरे लाख जाप के पूर्ण होने पर इच्छा की गई सभी वस्तुओं की प्राप्ति हो जाती है। चौथे लाख जाप पूर्ण होने। पर भगवान शिव सपनों में दर्शन देते हैं। पांचवां लाख जाप पूरा होने पर वे प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं। मृत्युंजय मंत्र के दस लाख जाप करने से संपूर्ण फलों की सिद्धि होती है। मोक्ष की कामना करने वाले मनुष्य को एक लाख दभों (दूर्वा) से शिव पूजन करना चाहिए। आयु वृद्धि की इच्छा करने वाले मनुष्य को एक लाख दुर्वाओं द्वारा पूजन करना चाहिए। पुत्र प्राप्ति की इच्छा रखने वाले मनुष्य को एक लाख धतूरे के फूलों से पूजा करनी चाहिए। पूजन में लाल डंठल वाले धतूरे को शुभदायक माना जाता है। यश प्राप्ति के लिए एक लाख अगस्त्य के फूलों से पूजा करनी चाहिए। तुलसीदल द्वारा शिवजी की पूजा करने से भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है। अड़हुल (जवा कुसुम) के एक लाख फूलों से पूजा करने पर शत्रुओं की मृत्यु होती है। एक लाख करवीर के फूलों से शिव पूजन करने पर समस्त रोगों का नाश हो जाता है। दुपहरिया के फूलों के पूजन से आभूषण तथा चमेली के फूलों से पूजन करने से वाहन की प्राप्ति होती है। अलसी के फूलों से शिव पूजन करने से विष्णुजी भी प्रसन्न होते हैं। बेलों के फूलों से अर्घ्य देने पर अच्छे जीवन साथी की प्राप्ति होती है। जूही के फूलों से पूजन करने पर घर में धन-संपदा का वास होता है तथा अन्न के भंडार भर जाते हैं। कनेर के फूलों से पूजा करने पर वस्त्रों की प्राप्ति होती है। सेदुआरि और शेफालिका के फूलों से पूजन करने पर मन निर्मल हो जाता है। हारसिंगार के फूलों से पूजन करने पर सुख-संपत्ति की वृद्धि होती है। राई के एक लाख फूलों से पूजन करने पर शत्रु मृत्यु को प्राप्त होते हैं। चंपा और केवड़े के फूलों से शिव पूजन नहीं करना चाहिए। ये दोनों फूल महादेव के पूजन के लिए अयोग्य होते हैं। इसके अलावा सभी फूलों का पूजा में उपयोग किया जा सकता है।

महादेवी जी पर चावल चढ़ाने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। ये चावल अखण्डित होने चाहिए। उन्हें विधिपूर्वक अर्पित करें। रुद्रप्रधान मंत्र से पूजन करते हुए, शिवलिंग पर वस्त्र अर्पित करें। गंध, पुष्प और श्रीफल चढ़ाकर धूप-दीप से पूजन करने से पूजा का पूरा फल प्राप्त होता है। उसी प्रांगण में बारह ब्राह्मणों को भोजन कराएं। इससे सांगोपांग पूजा संपन्न होती है। एक लाख तिलों से शिवजी का पूजन करने पर समस्त दुखों और क्लेर्शों का नाश होता है। जौ के दाने चढ़ाने पर स्वर्गीय सुख की प्राप्ति होती है। गेहूं के बने भोजन से लाख बार शिव पूजन करने से संतान की प्राप्त होती है। मूंग से पूजन करने पर उपासक को धर्म, अर्थ और काम-भोग की प्राप्ति होती है तथा वह पूजा समस्त सुखों को देने वाली है। (Rudra Samhita Chapter 11 to 20)

उपासक को निष्काम होकर मोक्ष की प्राप्ति के लिए भगवान शिव की पूजा करनी चाहिए। भक्तिभाव से विधिपूर्वक शिव की पूजा करके जलधारा समर्पित करनी चाहिए। शत रुद्रीय मंत्र से एकादश रुद्र जप, सूक्त, षडंग, महामृत्युंजय और गायत्री मंत्र में नमः लगाकर नामों से अथवा प्रणव ‘ॐ’ मंत्र द्वारा शास्त्रोक्त मंत्र से जलधारा शिवलिंग पर चढ़ाएं।

धारा पूजन से संतान की प्राप्ति होती है। सुख और संतान की वृद्धि के लिए जलधारा का पूजन उत्तम होता है। उपासक को भस्म धारण प्रेमपूर्वक शुभ एवं दिव्य द्रवों द्वारा शिव पूजन कर उनके सहस्र नामों का जाप करते हुए शिवलिंग पर घी की धारा चढ़ानी चाहिए। इससे वंश का विस्तार होता है। दस हजार मंत्रों द्वारा इस प्रकार किया गया पूजन रोगों को समाप्त करता है तथा मनोवांछित फल की प्राप्त होती है। नपुंसक पुरुष को शिवजी का पूजन घी से करना चाहिए। ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए और प्राजापत्य का व्रत रखना चाहिए।

बुद्धिहीन मनुष्य को दूध में शक्कर मिलाकर इसकी धारा शिवलिंग पर चढ़ानी चाहिए। इससे भगवान प्रसन्न होकर उत्तम बुद्धि प्रदान करते हैं। यदि मनुष्य का मन उदास रहता हो, जी उचट जाए, कहीं भी प्रेम न रहे, दुख बढ़ जाए तथा घर में सदैव लड़ाई रहती हो तो मनुष्यों को शक्कर मिश्रित दूध दस हजार मंत्रों का जाप करते हुए शिवलिंग को अर्पित करना चाहिए। खुशबू वाला तेल चढ़ाने पर भोगों की वृद्धि होती है। य यदि शिवजी पर शहद चढ़ाया जाए तो टी. बी. जैसा रोग भी समाप्त हो जाता है। शिवजी को गन्ने का रस चढ़ाने से आनंद की प्राप्ति होती है। गंगाजल को चढ़ाने से भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है।

उपरोक्त वस्तुओं को अर्पित करते समय मृत्युंजय मंत्र के दस हजार जाप करने चाहिए और ग्यारह ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। इस प्रकार शिवजी की विधि सहित पूजा करने से पुत्र-पौत्रादि सहित सब सुखों को भोगकर अंत में शिवलोक की प्राप्ति होती है।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ अगस्त्य संहिता

पंद्रहवां अध्याय

सृष्टि का वर्णन

नारद जी ने पूछा- हे पितामह! आपने बहुत सी ज्ञान बढ़ाने वाली उत्तम बातों को सुनाया। कृपया इसके अलावा और भी जो आप सृष्टि एवं उससे संबंधित लोगों के बारे में जानते हैं, हमें बताने की कृपा करें। (Rudra Samhita Chapter 11 to 20)

ब्रह्माजी बोले- मुने ! हमें आदेश देकर जब महादेव जी अंतर्धान हो गए तो मैं उनकी आज्ञा का पालन करते हुए ध्यानमग्न होकर अपने कर्तव्यों के विषय में सोचने लगा। उस समय भगवान श्रीहरि विष्णु से ज्ञान प्राप्त कर मैंने सृष्टि की रचना करने का निश्चय किया। भगवान विष्णु मुझे आवश्यक उपदेश देकर वहां से चले गए। भगवान शिव की कृपा से ब्रह्माण्ड से बाहर बैकुण्ठ धाम में जा पहुंचे और वहीं निवास करने लगे। सृष्टि की रचना करने के उद्देश्य से मैंने भगवान शिव और विष्णु का स्मरण करके, जल को हाथ में लेकर ऊपर की ओर उछाला। इससे वहां एक अण्ड प्रकट हुआ, जो चौबीस तत्वों का समूह कहा जाता है। वह विराट आकार वाला अण्ड जड़ रूप में था। उसे चेतनता प्रदान करने हेतु मैं कठोर तप करने लगा और बारह वर्षों तक तप करता रहा। तब श्रीहरि विष्णु स्वयं प्रकट हुए और प्रसन्नतापूर्वक बोले।

श्रीविष्णु ने कहा- ब्रह्मन् ! मैं तुम पर प्रसन्न हूं। जो इच्छा हो वह वर मांग लो। भगवान शिव की कृपा से मैं सबकुछ देने में समर्थ हूं।

ब्रह्मा बोले- महाभाग! आपने मुझ पर बड़ी कृपा की है। भगवान शंकर ने मुझे आपके हाथों में सौंप दिया है। आपको मैं नमस्कार करता हूं। कृपा कर इस विराट चौबीस तत्वों से बने अण्ड को चेतना प्रदान कीजिए। मेरे ऐसा कहने पर श्रीविष्णु ने अनंतरूप धारण कर अण्ड में प्रवेश किया। उस समय उनके सहस्रों मस्तक, सहस्र आंखें और सहस्र पैर थे। उनके अण्ड में प्रवेश करते ही वह चेतन हो गया। पाताल से सत्य लोक तक अण्ड के रूप में वहां विष्णु भगवान विराजने लगे। अण्ड में विराजमान होने के कारण विष्णुजी ‘वैराज पुरुष’ कहलाए। पंचमुख महादेव ने अपने निवास हेतु कैलाश नगर का निर्माण किया। देवर्षि! संपूर्ण ब्रह्माण्ड का नाश होने पर भी बैकुण्ठ और कैलाश अमर रहेंगे अर्थात इनका नाश नहीं हो सकता। महादेव की आज्ञा से ही मुझमें सृष्टि की रचना करने की इच्छा उत्पन्न हुई है।

अनजाने में ही मुझसे तमोगुणी सृष्टि की उत्पत्ति हुई, जिसे अविद्या पंचक कहते हैं। उसके पश्चात भगवान शिव की आज्ञा से स्थावरसंज्ञक वृक्ष, जिसे पहला सर्ग कहते हैं, का निर्माण हुआ परंतु पुरुषार्थ का साधक नहीं था। अतः दूसरा सर्ग ‘तिर्यक्स्रोता’ प्रकट हुआ। यह दुखों से भरा हुआ था। तब ब्रह्माजी द्वारा ‘ऊर्ध्वस्रोता’ नामक तीसरे सर्ग की रचना की गई। यह सात्विक सर्ग देव सर्ग के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह सर्ग सत्यवादी तथा परम सुखदायक है। इसकी रचना के उपरांत मैंने पुनः शिव चिंतन आरंभ कर दिया। तब एक रजोगुणी सृष्टि का आरंभ हुआ जो ‘अर्वाकस्रोता’ नाम से विख्यात हुआ। इसके बाद मैंने पांच विकृत सृष्टि और तीन प्राकृत सर्गों को जन्म दिया। पहला ‘महत्तत्व’, दूसरा ‘भूतो’ और तीसरा ‘वैकारिक’ सर्ग है। इसके अलावा पांच विकृत सर्ग हैं। दोनों को मिलाकर कुल आठ सर्ग होते हैं। नवां ‘कौमार’ सर्ग है जिससे सनत सनंदन कुमारों की रचना हुई है। सनत आदि मेरे चार मानस पुत्र हैं, जो ब्रह्मा के समान हैं। वे महान व्रत का पालन करने वाले हैं। वे संसार से विमुख एवं ज्ञानी हैं। उनका मन शिव चिंतन में लगा रहता है। मुनि नारद! मेरी आज्ञा पाकर भी उन्होंने सृष्टि के कार्य में मन नहीं लगाया। इससे मुझमें क्रोध प्रवेश कर गया। तब भगवान विष्णु ने मुझे समझाया और भगवान शिव की तपस्या करने के लिए कहा। मेरी घोर तपस्या से मेरी भौंहों और नाक के मध्य भाग से महेश्वर की तीन मूर्तियां प्रकट हुईं, जो पूर्णांश, सर्वेश्वर एवं दया सागर थीं और भगवान शिव का अर्धनारीश्वर रूप प्रकट हुआ।

जन्म-मरण से रहित, परम तेजस्वी, सर्वज्ञ, नीलकंठ, साक्षात उमावल्लभ भगवान महादेव के साक्षात दर्शन कर मैं धन्य हो गया। मैंने भक्तिभाव से उन्हें प्रणाम किया और उन्हें प्रसन्न करने के लिए उनकी स्तुति करने लगा। तब मैंने उनसे जीवों की रचना करने की प्रार्थना की। मेरी प्रार्थना स्वीकारते हुए देवाधिदेव भगवान शिव ने रुद्र गणों की रचना की। तब मैंने उनसे पुनः कहा- देवेश्वर शिव शंकर! अब आप संसार की मोह-माया में लिप्त ऐसे जीवों की रचना करें, जो मृत्यु और जन्म के बंधन में बंधे हों। यह सुनकर महादेव जी हंसते हुए कहने लगे। (Rudra Samhita Chapter 11 to 20)

शिवर्जी ने कहा- हे ब्रह्मा! मैं जन्म और मृत्यु के भय में लिप्त जीवों की रचना नहीं करूंगा क्योंकि वे जीव संसार रूपी बंधन में बंधे होने के कारण दुखों से युक्त होंगे। मैं सिर्फ उनका उद्धार करूंगा। उन्हें परम ज्ञान प्रदान कर उनके ज्ञान का विकास करूंगा। हे प्रजापते! इन जीवों की रचना आप करें। मोह-माया के बंधनों में बंधे इस प्रकार के जीवों की सृष्टि करने पर भी आप इस माया में नहीं बंधेंगे। मुझसे इस प्रकार कहकर महादेव शिव शंकर अपने पार्षदों के साथ वहां से अंतर्धान हो गए।

 

सोलहवां अध्याय

सृष्टि की उत्पत्ति

ब्रह्माजी बोले- नारद! शब्द आदि पंचभूतों द्वारा पंचकरण करके उनके स्थूल, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी, पर्वत, समुद्र, वृक्ष और कला आदि से युगों और कालों की मैंने रचना की तथा और भी कई पदार्थ मैंने बनाए। उत्पत्ति और विनाश वाले पदार्थों का भी मैंने निर्माण किया है परंतु जब इससे भी मुझे संतोष नहीं हुआ तो मैंने मां अंबा सहित भगवान शिव का ध्यान करके सृष्टि के अन्य पदार्थों की रचना की और अपने नेत्रों से मरीच को, हृदय से भृगु को, सिर से अंगिरा को, कान से मुनिश्रेष्ठ पुलह को, उदान से पुलस्त्य को, समान से वशिष्ठ को, अपान से कृतु को, दोनों कानों से अत्री को, प्राण से दक्ष को और गोद से तुमको, छाया से कर्दम मुनि को उत्पन्न किया। सब साधनाओं के साधन धर्म को भी मैंने अपने संकल्प से प्रकट किया। मुनिश्रेष्ठ! इस तरह साधकों की रचना करके, महादेव जी की कृपा से मैंने अपने को कृतार्थ माना। मेरे संकल्प से उत्पन्न धर्म मेरी आज्ञा से मानव का रूप धारण कर साधन में लग गए। इसके उपरांत मैंने अपने शरीर के विभिन्न अंगों से देवता व असुरों के रूप में अनेक पुत्रों की रचना करके उन्हें विभिन्न शरीर प्रदान किए। तत्पश्चात भगवान शिव की प्रेरणा से मैं अपने शरीर को दो भागों में विभक्त कर दो रूपों वाला हो गया। मैं आधे शरीर से पुरुष व आधे से नारी हो गया। पुरुष स्वयंभुव मनु नाम से प्रसिद्ध हुए एवं उच्चकोटि के साधक कहलाए। नारी रूप से शतरूपा नाम वाली योगिनी एवं परम तपस्विनी स्त्री उत्पन्न हुई। मनु ने वैवाहिक विधि से अत्यंत सुंदरी, शतरूपा का पाणिग्रहण किया और मैथुन द्वारा सृष्टि को उत्पन्न करने लगे। उन्होंने शतरूपा से प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक दो पुत्र तथा आकृति, देवहूति और प्रसूति नामक तीन पुत्रियां प्राप्त कीं। आकृति का ‘रुचि’ मुनि से, देवहूति का ‘कर्दम’ मुनि से तथा प्रसूति का ‘दक्ष प्रजापति’ के साथ विवाह कर दिया गया। इनकी संतानों से पूरा जगत चराचर हो गया।

रुचि और आकूति के वैवाहिक संबंध में यज्ञ और दक्षिणा नामक स्त्री-पुरुष का जोड़ा उत्पन्न हुआ। यज्ञ की दक्षिणा से बारह पुत्र हुए। मुने! कर्दम और देवहूति के संबंध से बहुत सी पुत्रियां पैदा हुईं। दक्ष और प्रसूति से चौबीस कन्याएं हुईं। दक्ष ने तेरह कन्याओं का विवाह धर्म से कर दिया। ये तेरह कन्याएं – श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वसु, शांति, सिद्धि और कीर्ति हैं। अन्य ग्यारह कन्याओं- ख्याति, सती, संभूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, संनति, अनसूया, ऊर्जा, स्वाहा और स्वधा का विवाह भृगु, शिव, मरीचि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, अत्रि, वशिष्ठ, अग्नि और पितर नामक मुनियों से संपन्न हुआ। इनकी संतानों से पूरा त्रिलोक भर गया। (Rudra Samhita Chapter 11 to 20)

अंबिका पति महादेव जी की आज्ञा से बहुत से प्राणी श्रेष्ठ मुनियों के रूप में उत्पन्न हुए। कल्पभेद से दक्ष की साठ कन्याएं हुईं। उनमें से दस कन्याओं का विवाह धर्म से, सत्ताईस का चंद्रमा से, तेरह कन्याओं का विवाह कश्यप ऋषि से संपन्न हुआ। नारद! उन्होंने चार कन्याएं अरिष्टनेमि को ब्याह दीं। भृगु, अंगिरा और कुशाश्व से दो-दो कन्याओं का विवाह कर दिया। कश्यप ऋषि की संतानों से संपूर्ण त्रिलोक आलोकित है। देवता, ऋषि, दैत्य, वृक्ष, पक्षी, पर्वत तथा लताएं आदि कश्यप पत्नियों से पैदा हुए हैं। इस तरह भगवान शंकर की आज्ञा से ब्रह्माजी ने पूरी सृष्टि की रचना की। सर्वव्यापी शिवजी द्वारा तपस्या के लिए प्रकट देवी, जिन्हें रुद्रदेव ने त्रिशूल के अग्रभाग पर रखकर उनकी रक्षा की वे सती देवी ही दक्ष से प्रकट हुई थीं। उन्होंने भक्तों का उद्धार करने के लिए अनेक लीलाएं कीं। इस प्रकार देवी शिवा ही सती के रूप में भगवान शंकर की अर्धांगिनी बनीं। परंतु अपने पिता के यज्ञ में अपने पति का अपमान देखकर उन्होंने अपने शरीर को यज्ञ की अग्नि में भस्म कर दिया। देवताओं की प्रार्थना पर ही वे मां सती पार्वती के रूप में प्रकट हुईं और कठिन तपस्या करके उन्होंने पुनः भगवान भोलेनाथ को प्राप्त कर लिया। वे इस संसार में कालिका, चण्डिका, भद्रा, चामुण्डा, विजया, जया, जयंती, भद्रकाली, दुर्गा, भगवती, कामाख्या, कामदा, अंबा, मृडानी और सर्वमंगला आदि अनेक नामों से पूजी जाती हैं। देवी के ये नाम भोग और मोक्ष को देने वाले हैं।

मुनि नारद! इस प्रकार मैंने तुम्हें सृष्टि की उत्पत्ति की कथा सुनाई है। पूरा ब्रह्माण्ड भगवान शिव की आज्ञा से मेरे द्वारा रचा गया है। ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र आदि तीनों देवता उन्हीं महादेव के अंश हैं। भगवान शिव निर्गुण और सगुण हैं। वे शिवलोक में शिवा के साथ निवास करते हैं।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ सनातन धर्म में कितने शास्त्र-षड्दर्शन हैं।

सत्रहवां अध्याय

पापी गुणनिधि की कथा

सूत जी कहते हैं- हे ऋषियो! तत्पश्चात नारद जी ने विनयपूर्वक प्रणाम किया और उनसे पूछा- भगवन् ! भगवान शंकर कैलाश पर कब गए और महात्मा कुबेर से उनकी मित्रता कहां और कैसे हुई? प्रभु शिवजी कैलाश पर क्या करते हैं? कृपा कर मुझे बताइए। इसे सुनने के लिए मैं बहुत उत्सुक हूं।

ब्रह्माजी बोले- हे नारद! मैं तुम्हें चंद्रमौलि भगवान शिव के विषय में बताता हूं। कांपिल्य नगर में यज्ञ दत्त दीक्षित नामक एक ब्राह्मण रहते थे। जो अत्यंत प्रसिद्ध थे। वे यज्ञ विद्या में बड़े पारंगत थे। उनका गुणनिधि नामक एक आठ वर्षीय पुत्र था। उसका यज्ञोपवीत हो चुका था और वह भी बहुत सी विद्याएं जानता था। परंतु वह दुराचारी और जुआरी हो गया। वह हर वक्त खेलता-कूदता रहता था तथा गाने बजाने वालों का साथी हो गया था। माता के बहुत कहने पर भी वह पिता के समीप नहीं जाता था और उनकी किसी आज्ञा को नहीं मानता था। उसके पिता घर के कार्यों तथा दीक्षा आदि देने में लगे रहते थे। जब घर पर आकर अपनी पत्नी से गुणनिधि के बारे में पूछते तो वह झूठ कह देती कि वह कहीं स्नान करने या देवताओं का पूजन करने गया है। केवल एक ही पुत्र होने के कारण वह अपने पुत्र की कमियों को छुपाती रहती थी। उन्होंने अपने पुत्र का विवाह भी करा दिया। माता नित्य अपने पुत्र को समझाती थी। वह उसे यह भी समझाती थी कि तुम्हारी बुरी आदतों के बारे में तुम्हारे पिता को पता चल गया तो वे क्रोध के आवेश में हम दोनों को मार देंगे। परंतु गुणनिधि पर मां के समझाने का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। (Rudra Samhita Chapter 11 to 20)

एक दिन उसने अपने पिता की अंगूठी चुरा ली और उसे जुए में हार आया। दैवयोग से उसके पिता को अंगूठी के विषय में पता चल गया। जब उन्होंने अंगूठी जुआरी के हाथ में देखी और उससे पूछा तो जुआरी ने कहा- मैंने कोई चोरी नहीं की है। अंगूठी मुझे तुम्हारे पुत्र ने ही दी है। यही नहीं, बल्कि उसने और जुआरियों को भी बहुत सारा धन घर से लाकर दिया है। परंतु आश्चर्य तो यह है कि तुम जैसे पण्डित भी अपने पुत्र के लक्षणों को नहीं जान पाए। यह सारी बातें सुनकर पंडित दीक्षित का सिर शर्म से झुक गया। वे सिर झुकाकर और अपना मुंह ढककर अपने घर की ओर चल दिए। घर पहुंचकर, गुस्से से उन्होंने अपनी पत्नी को पुकारा। अपनी पत्नी से उन्होंने पूछा, तेरा लाडला पुत्र कहां गया है? मेरी अंगूठी जो मैंने सुबह तुम्हें दी थी, वह कहां है? मुझे जल्दी से दो। पंडित की पत्नी ने फिर झूठ बोल दिया, मुझे स्मरण नहीं है कि वह कहां है। अब तो दीक्षित जी को और भी क्रोध आ गया। वे अपनी पत्नी से बोले-तू बड़ी सत्यवादिनी है। इसलिए मैं जब भी गुणनिधि के बारे में पूछता हूं, तब मुझे अपनी बातों से बहला देती है। यह कहकर दीक्षित जी घर के अन्य सामानों को ढूंढ़ने लगे किंतु उन्हें कोई वस्तु न मिली, क्योंकि वे सब वस्तुएं गुणनिधि जुए में हार चुका था। क्रोध में आकर पंडित ने अपनी पत्नी और पुत्र को घर से निकाल दिया और दूसरा विवाह कर लिया। (Rudra Samhita Chapter 11 to 20)

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ सूर्य सिद्धांत हिंदी में

अठारहवां अध्याय

गुणनिधि को मोक्ष की प्राप्ति

ब्रह्माजी बोले- हे नारद ! जब यह समाचार गुणनिधि को मिला तो उसे अपने भविष्य की चिंता हुई। वह कई दिनों तक भूखा-प्यासा भटकता रहा। एक दिन भूख-प्यास से व्याकुल वह एक शिव मंदिर के पास बैठ गया। एक शिवभक्त अपने परिवार सहित, शिव पूजन के लिए विविध सामग्री लेकर वहां आया था। उसने परिवार सहित भगवान शिव का विधि- विधान से पूजन किया और नाना प्रकार के पकवान शिवलिंग पर चढ़ाए।

पूजन के बाद वे लोग वहां से चले गए तो गुणनिधि ने भूख से मजबूर होकर उस भोग को चोरी करने का विचार किया और मंदिर में चला गया। उस समय अंधेरा हो चुका था इसलिए उसने अपने वस्त्र को जलाकर उजाला किया। यह मानो उसने भगवान शिव के सम्मुख दीप जलाकर दीपदान किया था। जैसे ही वह सब भोग उठाकर भागने लगा उसके पैरों की धमक से लोगों को पता चल गया कि उसने मंदिर में चोरी की है। सभी उसे पकड़ने के लिए दौड़े और उसका पीछा करने लगे। नगर के लोगों ने उसे खूब मारा। उनकी मार को उसका भूखा शरीर सहन नहीं कर सका। उसके प्राण-पखेरू उड़ गए।

उसके कुकर्मों के कारण यमदूत उसको बांधकर ले जा रहे थे। तभी भगवान शिव के पार्षद वहां आ गए और गुणनिधि को यमदूतों के बंधनों से मुक्त करा दिया। यमदूतों ने शिवगणों को नमस्कार किया और बताया कि यह बड़ा पापी और धर्म-कर्म से हीन है। यह अपने पिता का भी शत्रु है। इसने शिवजी के भोग की भी चोरी की है। इसने बहुत पाप किए हैं। इसलिए यह यमलोक का अधिकारी है। इसे हमारे साथ जाने दें ताकि विभिन्न नरकों को यह भोग सके। तब शिव गणों ने उत्तर दिया कि निश्चय ही गुणनिधि ने बहुत से पाप कर्म किए हैं परंतु इसने कुछ पुण्य कर्म भी किए हैं। जो संख्या में कम होने पर भी पापकर्मों को नष्ट करने वाले हैं। इसने रात्रि में अपने वस्त्र को फाड़कर शिवलिंग के समक्ष दीपक में बत्ती डालकर उसे जलाया और दीपदान किया। (Rudra Samhita Chapter 11 to 20)

इसने अपने पिता के श्रीमुख से एवं मंदिर के बाहर बैठकर शिवगुणों को सुना है और ऐसे ही और भी अनेक धर्म-कर्म इसने किए हैं। इतने दिनों तक भूखा रहकर इसने व्रत किया और शिवदर्शन तथा शिव पूजन भी अनेकों बार किया है। इसलिए यह हमारे साथ शिवलोक को जाएगा। वहां कुछ दिनों तक निवास करेगा। जब इसके संपूर्ण पापों का नाश हो जाएगा तो भगवान शिव की कृपा से यह कलिंग देश का राजा बनेगा। अतः यमदूतो, तुम अपने लोक को लौट जाओ। यह सुनकर यमदूत यमलोक को चले गए। उन्होंने यमराज को इस विषय में सूचना दे दी और यमराज ने इसको प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लिया।

तत्पश्चात गुणनिधि नामक ब्राह्मण को लेकर शिवगण शिवलोक को चल दिए। कैलाश पर भगवान शिव और देवी उमा विराजमान थे। उसे उनके सामने लाया गया। गुणनिधि ने भगवान शिव-उमा की चरण वंदना की और उनकी स्तुति की। उसने महादेव से अपने किए कर्मों के बारे में क्षमा याचना की। भगवान ने उसे क्षमा प्रदान कर दी। वहां शिवलोक में कुछ दिन निवास करने के बाद गुणनिधि कलिंग देश के राजा ‘अरिंदम’ के पुत्र दम के रूप में विख्यात हुआ।

हे नारद! शिवजी की थोड़ी सी सेवा भी उसके लिए अत्यंत फलदायक हुई। इस गुणनिधि के चरित्र को जो कोई पढ़ता अथवा सुनता है, उसकी सभी कामनाएं पूरी होती हैं तथा वह मनुष्य सुख-शांति प्राप्त करता है।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमहाभारतम् आदिपर्व प्रथमोऽध्यायः

उन्नीसवां अध्याय

गुणनिधि को कुबेर पद की प्राप्ति

नारद जी ने प्रश्न किया- हे ब्रह्माजी! अब आप मुझे यह बताइए कि गुणनिधि जैसे महापापी मनुष्य को भगवान शिव द्वारा कुबेर पद क्यों और कैसे प्रदान किया गया? हे प्रभु! कृपा कर इस कथा को भी बताइए। ब्रह्माजी बोले-नारद! शिवलोक में सारे दिव्य भोगों का उपभोग तथा उमा महेश्वर का सेवन कर, वह अगले जन्म में कलिंग के राजा अरिंदम का पुत्र हुआ। उसका नाम दम था। बालक दम की भगवान शंकर में असीम भक्ति थी। वह सदैव शिवजी की सेवा में लगा रहता था। वह अन्य बालकों के साथ मिलकर शिव भजन करता। युवा होने पर उसके पिता अरिंदम की मृत्यु के पश्चात दम को राजसिंहासन पर बैठाया गया। (Rudra Samhita Chapter 11 to 20)

राजा दम सब ओर शिवधर्म का प्रचार और प्रसार करने लगे। वे सभी शिवालयों में दीप दान करते थे। उनकी शिवजी में अनन्य भक्ति थी। उन्होंने अपने राज्य में रहने वाले सभी ग्रामाध्यक्षों को यह आज्ञा दी थी कि ‘शिव मंदिर’ में दीपदान करना सबके लिए अनिवार्य है। अपने गांव के आस-पास जितने शिवालय हैं, वहां सदा दीप जलाना चाहिए। राजा दम ने आजीवन शिव धर्म का पालन किया। इस तरह वे बड़े धर्मात्मा कहलाए। उन्होंने शिवालयों में बहुत से दीप जलवाए। इसके फलस्वरूप वे दीपों की प्रभा के आश्रय हो मृत्योपरांत अलकापुरी के स्वामी बने।

ब्रह्माजी बोले- हे नारद! भगवान शिव का पूजन व उपासना महान फल देने वाली है। दीक्षित के पुत्र गुणनिधि ने, जो पूर्ण अधर्मी था, भगवान शिव की कृपा पाकर दिक्पाल का पद पा लिया था। अब मैं तुम्हें उसकी भगवान शिव के साथ मित्रता के विषय में बताता हूं।

नारद! बहुत पहले की बात है। मेरे मानस पुत्र पुलस्त्य से विश्रवा का जन्म हुआ और विश्रवा के पुत्र कुबेर हुए। उन्होंने पूर्वकाल में बहुत कठोर तप किया। उन्होंने विश्वकर्मा द्वारा रचित अलकापुरी का उपभोग किया। मेघवाहन कल्प के आरंभ होने पर वे कुबेर के रूप में घोर तप करने लगे। वे भगवान शिव द्वारा प्रकाशित काशी पुरी में गए और अपने मन के रत्नमय दीपों से ग्यारह रुद्रों को उद्बोधित कर वे तन्मयता से शिवजी के ध्यान में मग्न होकर निश्चल भाव से उनकी उपासना करने लगे। वहां उन्होंने शिवलिंग की प्रतिष्ठा की। उत्तम पुष्पों द्वारा शिवलिंग का पूजन किया। कुबेर पूरे मन से तप में लगे थे। उनके पूरे शरीर में केवल हड्डियों का ढांचा और चमड़ी ही बची थी। इस प्रकार उन्होंने दस हजार वर्षों तक तपस्या की। तत्पश्चात भगवान शिव अपनी दिव्य शक्ति उमा के भव्य रूप के साथ कुबेर के पास गए। अलकापति कुबेर मन को एकाग्र कर शिवलिंग के सामने तपस्या में लीन थे। भगवान शिव ने कहा- अलकापते! मैं तुम्हारी भक्ति और तपस्या से प्रसन्न हूं। तुम मुझसे अपनी इच्छानुसार वर मांग सकते हो। यह सुनकर जैसे ही कुबेर ने आंखें खोलीं तो उन्हें अपने सामने भगवान नीलकंठ खड़े दिखाई दिए। उनका तेज सूर्य के समान था। उनके मस्तक पर चंद्रमा अपनी चांदनी बिखेर रहा था। उनके तेज से कुबेर की आंखें चौंधिया गईं। तत्काल उन्होंने अपनी आंखें बंद कर लीं। वे भगवान शिव से बोले- भगवन्! मेरे नेत्रों को वह शक्ति दीजिए, जिससे मैं आपके चरणारविंदों का दर्शन कर सकूं। (Rudra Samhita Chapter 11 to 20)

कुबेर की बात सुनकर भगवान शिव ने अपनी हथेली से कुबेर को स्पर्श कर देखने की शक्ति प्रदान की। दिव्य दृष्टि प्राप्त होने पर वे आंखें फाड़-फाड़कर देवी उमा की ओर देखने लगे। वे सोचने लगे कि भगवान शिव के साथ यह सर्वांग सुंदरी कौन है? इसने ऐसा कौन सा तप किया है जो इसे भगवान शिव की कृपा से उनका सामीप्य, रूप और सौभाग्य प्राप्त हुआ है। वे देवी उमा को निरंतर देखते जा रहे थे। देवी को घूरने के कारण उनकी बायीं आंख फूट गई। शिवजी ने उमा से कहा- उमे! यह तुम्हारा पुत्र है। यह तुम्हें क्रूर दृष्टि से नहीं देख रहा है। यह तुम्हारे तप बल को जानने की कोशिश कर रहा है, फिर भगवान शिव ने कुबेर से कहा – मैं तुम्हारी तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। मैं तुम्हें वर देता हूं कि तुम समस्त निधियों और गुह्य शक्तियों के स्वामी हो जाओ। सुव्रतों, यक्षों और किन्नरों के अधिपति होकर धन के दाता बनो। मेरी तुमसे सदा मित्रता रहेगी और मैं तुम्हारे पास सदा निवास करूंगा अर्थात तुम्हारे स्थान अलकापुरी के पास ही में निवास करूंगा। कुबेर अब तुम अपनी माता उमा के चरणों में प्रणाम करो। ये ही तुम्हारी माता हैं। ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! इस प्रकार भगवान शिव ने देवी से कहा- हे देवी! यह आपके पुत्र के समान है। इस पर अपनी कृपा करो।’ यह सुनकर उमा देवी बोली-वत्स! तुम्हारी, भगवान शिव में सदैव निर्मल भक्ति बनी रहे। बायीं आंख फूट जाने पर तुम एक ही पिंगल नेत्र से युक्त रहो। महादेव जी ने जो वर तुम्हें प्रदान किए हैं, वे सुलभ हैं। मेरै रूप से ईर्ष्या के कारण तुम कुबेर नाम से प्रसिद्ध होगे। कुबेर को वर देकर भगवान शिव और देवी उमा अपने धाम को चले गए। इस प्रकार भगवान शिव और कुबेर में मित्रता हुई और वे अलकापुरी के निकट कैलाश पर्वत पर निवास करने लगे।

नारद जी ने कहा- ब्रह्माजी! आप धन्य हैं। आपने मुझ पर कृपा कर मुझे इस अमृत कथा के बारे में बताया है। निश्चय ही, शिव भक्ति दुखों को दूर कर समस्त सुख प्रदान करने वाली है।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ रघुवंशम् महाकाव्य प्रथमः सर्गः

बीसवां अध्याय

भगवान शिव का कैलाश पर्वत पर गमन

ब्रह्माजी बोले- हे नारद मुनि! कुबेर के कैलाश पर्वत पर तप करने से वहां पर भगवान शिव का शुभ आगमन हुआ। कुबेर को वर देने वाले विश्वेश्वर शिव जब निधिपति होने का वर देकर अंतर्धान हो गए, तब उनके मन में विचार आया कि मैं अपने रुद्र रूप में, जिसका जन्म ब्रह्माजी के ललाट से हुआ है और जो संहारक है, कैलाश पर्वत पर निवास करूंगा। शिव की इच्छा से कैलाश जाने के इच्छुक रुद्र देव ने बड़े जोर-जोर से अपना डमरू बजाना शुरू कर दिया।

वह ध्वनि उत्साह बढ़ाने वाली थी। डमरू की ध्वनि तीनों लोकों में गूंज रही थी। उस ध्वनि में सुनने वालों को अपने पास आने का आग्रह था। उस डमरू ध्वनि को सुनकर ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देवता, ऋषि-मुनि, वेद-शास्त्रों को जानने वाले सिद्ध लोग, बड़े उत्साहित होकर कैलाश पर्वत पर पहुंचे। भगवान शिव के सारे पार्षद और गणपाल जहां भी थे वे कैलाश पर्वत पर पहुंचे। साथ ही असंख्य गणों सहित अपनी लाखों-करोड़ों भयावनी भूत-प्रेतों की सेना के साथ स्वयं शिवजी भी वहां पहुंचे। सभी गणपाल सहस्रों भुजाओं से युक्त थे। उनके मस्तक पर जटाएं थीं। सभी चंद्रचूड़, नौलकण्ठ और त्रिलोचन थे। हार, कुण्डल, केयूर तथा मुकुट से वे अलंकृत थे। (Rudra Samhita Chapter 11 to 20)

भगवान शिव ने विश्वकर्मा को कैलाश पर्वत पर निवास बनाने की आज्ञा दी। अपने व अपने भक्तों के रहने के लिए योग्य आवास तैयार करने का आदेश दिया। विश्वकर्मा ने आज्ञा पाते ही अनेकों प्रकार के सुंदर निवास स्थान वहां बना दिए। उत्तम मुहूर्त में उन्होंने वहां प्रवेश किया। इस मधुर बेला पर सभी देवताओं, ऋषि-मुनियों और सिद्धों सहित ब्रह्मा और विष्णुजी ने शिवजी व उमा का अभिषेक किया। विभिन्न प्रकार से उनकी पूजा-अर्चना और स्तुति की। प्रभु की आरती उतारी। उस समय आकाश में फूलों की वर्षा हुई। इस समय चारों और भगवान शिव तथा देवी उमा की जय-जयकार हो रही थी। सभी की स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें उनकी इच्छा के अनुसार वरदान दिया तथा उन्हें अभीष्ट और मनोवांछित वस्तुएं भेंट की।

तत्पश्चात भगवान शंकर की आज्ञा लेकर सभी देवता अपने-अपने निवास को चले गए। कुबेर भी भगवान शिव की आज्ञा पाकर अपने स्थान अलकापुरी को चले गए। तत्पश्चात भगवान शंभु वहां निवास करने लगे। वे योग साधना में लीन होकर ध्यान में मग्न रहते। कुछ समय तक वहां अकेले निवास करने के बाद उन्होंने दक्षकन्या देवी सती को पत्नी रूप में प्राप्त कर लिया। देवर्षि! अब रुद्र भगवान देवी सती के साथ वहां सुखपूर्वक विहार करने लगे।

हे नारद! इस प्रकार मैंने तुम्हें भगवान शिव के रुद्र अवतार का वर्णन और उनके कैलाश पर आगमन की उत्तम कथा सुनाई है। तुम्हें शिवजी व कुबेर की मित्रता और भगवान शिव की विभिन्न लीलाओं के विषय में बताया है। उनकी भक्ति तीनों लोकों का सुख प्रदान करने वाली तथा मनोवांछित फलों को देने वाली है। इस लोक में ही नहीं परलोक में भी सद्गति प्राप्त होती है। (Rudra Samhita Chapter 11 to 20)

इस कथा को जो भी मनुष्य एकाग्र होकर सुनता या पढ़ता है, वह इस लोक में सुख और भोगों को पाकर मोक्ष को प्राप्त होता है।

नारद जी ने ब्रह्माजी का धन्यवाद किया और उनकी स्तुति की। वे बोले कि प्रभु, आपने मुझे इस अमृत कथा को सुनाया है। आप महाज्ञानी हैं। आप सभी की इच्छाओं को पूर्ण करते हैं। मैं आपका आभारी हूं। शिव चरित्र जैसा श्रेष्ठ ज्ञान आपने मुझे दिया है। हे प्रभो! मैं आपको बारंबार नमन करता हूं।

।। श्रीरुद्र संहिता प्रथम खण्ड संपूर्ण ।।

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