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Garga Samhita Vrindavan Khand Chapter 11 to 15

Garga Samhita
Garga Samhita Vrindavan Khand Chapter 11 to 15

॥ श्रीहरिः ॥

ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते॥

श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः

श्री गर्ग संहिता वृन्दावनखण्ड | Garga Samhita Vrindavan Khand Chapter 11 to 15

श्री गर्ग संहिता में वृन्दावनखण्ड के ग्यारहवां अध्याय से पंद्रहवाँ अध्याय (Vrindavan Khand Chapter 11 to 15) में धेनुकासुरका उद्धार, श्री कृष्ण द्वारा कालिया दमन तथा दावानल-पान का वर्णन, मुनिवर वेदशिरा और अश्वशिराका परस्पर के शाप से क्रमशः कालियनाग और काकभुशुण्ड होना तथा शेषनाग का भूमण्डल को धारण करना, कालियका गरुड के भय से बचने के लिये यमुना जल में निवास का रहस्य, और श्री राधा का गवाक्षमार्ग से श्रीकृष्ण के रूप का दर्शन करके प्रेम-विह्वल होना; ललिता का श्रीकृष्ण से राधाकी दशाका वर्णन करना और उनकी आज्ञाके अनुसार लौटकर श्रीराधा को श्रीकृष्ण प्रीत्यर्थ सत्कर्म करने की प्रेरणा देना का वर्णन कहा गया है।

यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता पहले अध्याय से पांचवे अध्याय तक

ग्यारहवाँ अध्याय

धेनुकासुरका उद्धार

श्री नारदजी कहते हैं- राजन् ! एक दिन श्री कृष्ण बलरामजीके साथ मनोहर गौएँ चराते हुए नूतन तालवनके पास चले गये। उस समय समस्त गोपाल उनके साथ थे। वहाँ धेनुकासुर रहा करता था। उसके भयसे गोपगण वनके भीतर नहीं गये। श्रीकृष्ण भी नहीं गये। अकेले बलरामजीने उसमें प्रवेश किया। अपने नीले वस्त्रको कमरमें बाँधकर महाबली बलदेव परिपक्व फल लेनेके लिये उस वनमें विचरने लगे। बलरामजी साक्षात् अनन्तदेवके अवतार हैं। उनका पराक्रम भी अनन्त है। अतः दोनों हाथोंसे ताड़के वृक्षोंको हिलाते और फल-समूहोंको गिराते हुए वहाँ निर्भय गर्जना करने लगे। गिरते हुए फलोंकी आवाज सुनकर वह गर्दभाकार असुर रोषसे आग-बबूला हो गया। वह दोपहर में सोया करता था, किंतु आज विघ्न पड़ जानेसे वह दुष्ट क्रोधसे भयंकर हो उठा घेनुकासुर कंस का सखा होने के साथ ही बड़ा बलवान था। वह बलदेवजीके सम्मुख युद्ध करनेके लिये आया और उसने अपने पिछले पैरोंसे उनकी छातीमें तुरंत आघात किया। आघात करके वह बारंबार दौड़ लगाता हुआ गधेकी भाँति रेंकने लगा। तब बलरामजीने धेनुकके दोनों पिछले पैर पकड़कर शीघ्र ही उसे ताड़के वृक्षपर दे मारा। यह कार्य उन्होंने एक ही हाथसे खेल खेलमें कर डाला। इससे वह तालवृक्ष स्वयं तो टूट ही गया, गिरते-गिरते उसने अपने पार्श्ववर्ती दूसरे बहुत-से ताड़ोंको भी धराशायी कर दिया। राजेन्द्र ! वह एक अद्भुत-सी बात हुई। दैत्यराज धेनुकने पुनः उठकर रोषपूर्वक बलरामजीको पकड़ लिया और जैसे एक हाथी अपना सामना करनेवाले दूसरे हाथीको दूरतक ठेल ले जाता है, उसी प्रकार उन्हें धक्का देकर एक योजन पीछे हटा दिया। तब बलरामजीने तत्काल घेनुकको पकड़कर घुमाना आरम्भ किया और घुमाकर उसे धरतीकी पीठपर दे मारा। तब उसे मूर्च्छा आ गयी और उसका मस्तक फट गया। तो भी वह क्षणभरमें उठकर खड़ा हो गया। उसके शरीरसे भयानक क्रोध टपक रहा था इसके बाद उस दैत्यने अपने मस्तकमें चार सींग प्रकट करके, भयानक रूप धारण कर उन तीखे और भयंकर सींगोंसे गोपोंको खदेड़ना आरम्भ किया। गोपोंको आगे-आगे भागते देख वह मदमत्त असुर तुरंत ही उनके पीछे दौड़ा ॥ १-१२॥(Vrindavan Khand Chapter 11 to 15)

उस समय श्रीदामा ने उसपर डंडेसे प्रहार किया, सुबलने उसको मुक्केसे मारा, स्तोककृष्ण ने उस महाबली दैत्यपर पाशसे प्रहार किया, अर्जुनने क्षेपणसे और अंशुने उस गर्दभाकार दैत्यपर लातसे आघात किया। इसके बाद विशालर्षभने आकर शीघ्रतापूर्वक अपने पैरसे और बलसे भी उस दैत्यको दबाया। तेजस्वीने अर्द्धचन्द्र (गर्दनियाँ) देकर उसे पीछे हटाया और देवप्रस्थने उस असुरके कई तमाचे जड़ दिये। वरूथपने उस विशालकाय गधेको गेंदसे मारा। तदनन्तर श्रीकृष्णने भी घेनुकासुरको दोनों हाथोंसे उठाकर घुमाया और तुरंत ही गोवर्धन पर्वतके ऊपर फेंक दिया। श्रीकृष्णके उस प्रहारसे घेनुक दो घड़ीतक मूर्च्छित पड़ा रहा। फिर उठकर अपने शरीरको कैपाता हुआ मुँह फाड़कर आगे बढ़ा और दोनों सींगोंसे श्रीहरिको उठाकर वह दैत्य दौड़कर आकाशमें चला गया। आकाशमें एक लाख योजन ऊँचे जाकर उनके साथ युद्ध करने लगा। भगवान् श्रीकृष्णने धेनुकासुर- को पकड़कर नीचे भूमिकी ओर फेंका। इससे उसकी हड्डियाँ चूर-चूर हो गयीं और वह मूच्छित हो गया। तथापि पुनः उठकर अत्यन्त भयंकर सिंहनाद करते हुए उसने दोनों सींगोंसे गोवर्धन पर्वतको उखाड़ लिया और श्रीकृष्णके ऊपर चलाया। श्रीकृष्णने पर्वतको हाथसे पकड़कर पुनः उसीके मस्तकपर दे मारा। तदनन्तर उस बलवान् दैत्यने फिर पर्वतको हाथमें ले लिया और श्रीकृष्णके ऊपर फेंका। किंतु श्रीकृष्णने गोवर्धनको ले जाकर उसके पूर्व स्थानपर रख दिया। तदनन्तर फिर धावा करके महादैत्य धेनुकने दोनों सींगोंसे पृथ्वीको विदीर्ण कर दिया और पिछले पैरोंसे पुनः बलरामपर प्रहार करके बड़े जोरसे गर्जना की। उसकी उस गर्जनासे समस्त ब्रह्माण्ड गूँज उठा और भूमण्डल काँपने लगा। तब महाबली बलदेवने दोनों हाथोंसे उसको पकड़ लिया और उसे पृथ्वीपर दे मारा। इससे उसका मस्तक फूट गया और होश-हवास जाता रहा। इसके बाद श्रीकृष्णके बड़े भाईने पुनः उस दैत्यपर मुक्केसे प्रहार किया। उस प्रहारसे घेनुकासुरकी तत्काल मृत्यु हो गयी। उसी समय देवताओंने वहाँ नन्दनवनके फूल बरसाये ॥ १३ – २६ ॥

देहसे पृथक् होकर धेनुक श्यामसुन्दर-विग्रह धारणकर पुष्पमाला, पीताम्बर तथा वनमालासे समलंकृत देवता हो गया। लाख-लाख पार्षद उसकी सेवामें जुट आये। सहस्त्रों ध्वज उसके रथकी शोभा बढ़ाने लगे। सहस्रों पहियोंकी घर्घरध्वनिसे युक्त उस रथमें दस हजार घोड़े जुते थे। लाखों चैवरोंकी वहाँ शोभा हो रही थी। वह रथ अरुणवर्ण का था और अत्यधिक रनोंसे जटित था। उसका विस्तार एक दिव्य योजनका था। वह मनके समान तीव्रगतिसे चलनेवाला विमान या रथ बड़ा ही मनोहर था। राजन्। उसमें घुँघुरुओंकी जाली लगी थी। घंटे और मञ्जीर बजते थे। दिव्यरूपधारी दैत्य घेनुक बलराम सहित श्री कृष्ण की परिक्रमा करके, उक्त दिव्य रथपर आरूढ़ हो, दिशामण्डल को देदीप्यमान करता हुआ, प्रकृतिसे परे विद्यमान गोलोकधाममें चला गया। इस प्रकार घेनुक- का वध करके बलरामसहित श्रीकृष्ण अपना यशोगान करते हुए ग्वाल-बालोंक साथ व्रजको लौटे। उनके साथ गौओंका समुदाय भी था ॥ २७-३२ ॥

राजाने पूछा- मुने। घेनुकासुर पूर्वजन्ममें कौन था ? उसे मुक्ति कैसे प्राप्त हुई ? तथा उसे गधेका शरीर क्यों मिला ? यह सब मुझे ठीक-ठीक बताइये ॥ ३३ ॥ श्रीनारदजीने कहा – विरोचनकुमार बलिका एक बलवान् पुत्र था, जिसका नाम था- साहसिक । वह दस हजार स्त्रियोंके साथ गन्धमादन पर्वतपर विहार कर रहा था। वहाँ वनमें नाना प्रकारके वाद्यों तथा रमणियोंके नूपुरोंका महान् शब्द होने लगा, जिससे उस पर्वतकी कन्दरामें रहकर श्रीकृष्णका चिन्तन करनेवाले दुर्वासा मुनिका ध्यान भङ्ग हो गया। वे खड़ाऊँ पहनकर बाहर निकले। उस समय मुनिवर दुर्वासाका शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया था। दाढ़ी-मूँछ बहुत बढ़ गयी थीं। वे लाठीके सहारे चलते थे। क्रोधकी तो वे मूर्तिमान् राशि ही थे और अनिके समान तेजस्वी जान पड़ते थे। दुर्वासा उन ऋषियोंमेंसे हैं, जिनके शापके भयसे यह सारा विश्व काँपता रहता है। वे बोले ॥ ३४-३७ ॥

दुर्वासाने कहा- दुर्बुद्धि असुर ! तू गदहेके समान भोगासक्त है, इसलिये गदहा हो जा। आजसे ” चार लाख वर्ष बीतनेपर भारतमें दिव्य माथुर मण्डलके- अन्तर्गत पवित्र तालवनमें बलदेवजीके हाथसे तेरी मुक्ति होगी ॥ ३८-३९ ॥(Vrindavan Khand Chapter 11 to 15)

नारदजी कहते हैं- राजन् ! उस शापके कारण ही भगवान् श्रीकृष्णने बलरामजीके हाथसे उसका वध करवाया; क्योंकि उन्होंने प्रह्लादजीको यह वर दे रखा है कि तुम्हारे वंशका कोई दैत्य मेरे हाथसे नहीं मारा जायगा ॥ ४० ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत ‘घेनुकासुरका उद्धार’ नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ११ ॥

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बारहवां अध्याय

श्री कृष्ण द्वारा कालिया दमन तथा दावानल-पान

श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! एक दिनबलरामजीको साथमें लिये बिना ही श्रीहरि स्वयं ग्वाल- बालोंके साथ गाय चराने चले आये। यमुनाके तटपर आकर उन्होंने उस विषाक्त जलको पी लिया, जिसे नागराज कालियने अपने विषसे दूषित कर दिया था उस जलको पीकर बहुत-सी गायें और गोपगण प्राणहीन होकर पानीके निकंट ही गिर पड़े। यह देख सर्वपापहारी साक्षात् भगवान् श्रीहरिका चित्त दयासे द्रवित हो उठा। उन्होंने अपनी पीयूषपूर्ण दृष्टिसे देखकर उन सबको जीवित कर दिया। इसके बाद पीताम्बर को कमर में कसकर बाँध लिया। फिर वे माधव तटवतीं कदम्ब वृक्षपर चढ़ गये और उसकी ऊँची डालसे उस विष-दूषित जलमें कूद पड़े। भगवान् श्री कृष्ण के कूदने से वह दूषित जल चक्कर काटकर ऊपर को उछला । यमुना के उस भागमें कालियनाग रहता था। भँवर उठनेसे उस सर्पका भवन इस तरह चक्कर काटने लगा, जैसे जलमें पानीके भौरे घूमते हैं। नरेश्वर । उस समय सौ फणोंसे युक्त फणिराज कालिय क्रुद्ध हो उठा और माधवको दाँतोंसे हँसते हुए उसने अपने शरीरसे उन्हें आच्छादित कर लिया। तब श्री कृष्ण अपने शरीर को बड़ा करके उसके बन्धनसे छूट गये और उस सर्पराज की पूँछ पकड़कर उसे इधर-उधर घुमाने लगे। घुमाते- घुमाते उन्होंने उसे पानीमें गिराकर पुनः दोनों हाथोंसे उठा लिया और तुरंत उसे सौ धनुष दूर फेंक दिया। उस भयानक नागराज ने पुनः उठकर जीभ लपलपाते हुए रोषपूर्वक माधव श्रीहरिका बायाँ हाथ पकड़ लिया। तब श्रीहरिने उस महादुष्टको दाहिने हाथसे पकड़कर उस जलमें उसी प्रकार दबा दिया, जैसे गरुड किसी नागको रगड़ दे। फिर अपने सौ मुखोंको बहुत अधिक फैलाकर वह सर्प उनके पास आ गया। तब उसकी पूँछ पकड़कर श्रीकृष्ण उसे सौ धनुष दूर खींच ले गये। श्रीकृष्णके हाथसे सहसा निकलकर उसने पुनः उन्हें डस लिया। यह देख अपनेमें त्रिभुवनका बल धारण करनेवाले श्रीहरिने उस सर्पको एक मुक्का मारा। श्रीकृष्णके मुक्केकी चोट खाकर वह सर्प मूर्च्छित हो अपनी सुध-बुध खो बैठा। तदनन्तर अपने सौ मुखोंको आनत करके वह श्रीकृष्णके सामने स्थित हुआ। उसके सौ फन सौ मणियोंके प्रकाशसे अत्यन्त मनोहर जान पड़ते थे। श्रीकृष्ण उन फनोंपर चढ़ गये और मनोहर नट-वेष धारण करके नटकी भाँति नृत्य करने लगे। साथ ही वे सातों स्वरोंसे किसी रागका अलाप करते हुए तालके साथ संगीत प्रस्तुत करने लगे। उस समय नटराजकी भाँति सुन्दर ताण्डव करनेवाले श्रीकृष्णके ऊपर देवतालोग फूल बरसाने लगे और प्रसन्नतापूर्वक वीणा, ढोल, नगारे तथा बाँसुरी बजाने लगे। तालके साथ पदविन्यास करनेसे श्रीकृष्णने लंबी साँस खींचते हुए महाकाय कालियके बहुत-से उज्ज्वल फनोंको भग्न कर दिया। उसी समय भयसे विह्वल हुई नागपत्नियाँ आ पहुँचीं और भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें नमस्कार करके गद्गद वाणीद्वारा इस प्रकार स्तुति करने लगीं ॥ १-१७ ॥

नापपल्लियाँ बोलीं- भगवन ! आप परिपूर्णतम परमात्मा तथा असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति है। आप गोलोकनाथ श्रीकृष्णचन्द्रको हमारा बारंबार नमस्कार है। व्रजके अधीश्वर आप श्रीराधावल्लभको नमस्कार है। नन्दके लाला एवं यशोदानन्दनको नमस्कार है। परमदेव ! आप इस नागकी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। तीनों लोकोंमें आपके सिवा दूसरा कोई इसे शरण देनेवाला नहीं है। आप स्वयं साक्षात् परात्पर श्रीहरि हैं और लीलासे ही स्वच्छन्दतापूर्वक नाना प्रकारके श्रीविग्रहोंका विस्तार करते हैं ॥ १८-२० ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- अबतक कालियनागका गर्व चूर्ण हो गया था। नागपत्नियोंद्वारा किये गये इस स्तवनके पश्चात् वह श्रीकृष्णसे बोला- ‘भगवन् ! पूर्णकाम परमेश्वर ! मेरी रक्षा कीजिये।’ ‘पाहि-पाहि’ कहता हुआ कालियनाग भगवान् श्रीहरिके सम्मुख आकर उनके चरणोंमें गिर पड़ा। तब उन जनार्दनदेवने उससे कहा ॥ २१-२२ ॥

श्रीभगवान् बोले- तुम अपनी पत्नियों और सुहृदोंके साथ रमणकद्वीपमें चले जाओ। तुम्हारे मस्तकपर मेरे चरणोंके चिह्न बन गये हैं, इसलिये अब गरुड तुम्हें अपना आहार नहीं बनायेगा ॥ २३ ॥(Vrindavan Khand Chapter 11 to 15)

नारदजी कहते हैं- राजन् ! तब उस सर्पने श्रीकृष्णकी पूजा और परिक्रमा करके, उन्हें प्रणाम करनेके अनन्तर, स्त्री-पुत्रोंके साथ रमणकद्वीपको प्रस्थान किया। इधर ‘नन्दनन्दन को कालियनागने अपना ग्रास बना लिया है’ – यह समाचार सुनकर नन्द आदि समस्त गोपगण वहाँ आ गये थे। श्रीकृष्ण- को जलसे निकलते देख उन सब लोगोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। अपने बेटेको छातीसे लगाकर नन्दजी परमानन्दमें निमग्न हो गये। यशोदाने अपने खोये हुए पुत्रको पाकर उसके कल्याणकी कामनासे ब्राह्मणोंको धनका दान किया। उस समय उनके स्तनोंसे स्नेहाधिक्यके कारण दूध झर रहा था। राजन् ! उस दिन रातमें अधिक श्रमके कारण गोपाङ्गनाओं और ग्वाल-बालोंके साथ समस्त गोप यमुनाके निकट उसी स्थानपर सो गये। निशीथकालमें बाँसोंकी रगड़से प्रलयाग्निके समान दावानल प्रकट हो गया, जो सब ओरसे मानो गोपोंको दग्ध करनेके लिये उधर फैलता आ रहा था। उस समय मित्रकोटिके गोप बलराम- सहित श्रीकृष्णकी शरणमें गये और भयसे कातर हो दोनों हाथ जोड़कर बोले ॥ २४-३० ॥

गोपोंने कहा- शरणागतवत्सल महाबाहु कृष्ण ! कृष्ण ! प्रभो ! वनके भीतर दावाग्निके कष्टमें पड़े हुए स्वजनोंको बचाओ ! बचाओ !! ॥ ३१ ॥

नारदजी कहते हैं- तब योगेश्वरेश्वर देव माधव उनसे बोले – ‘डरो मत। अपनी-अपनी आँखें मूँद लो।’ यों कहकर वे सारा दावानल स्वयं ही पी गये। फिर – प्रातःकाल विस्मित हुए गोपगणों तथा गौओंके साथ नन्दनन्दन शोभाशाली व्रजमण्डलमें आये ॥ ३२-३३ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत ‘कालियदमन तथा दावानल-पान’ नामक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १२ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़िए ~ कालिदासकृत रघुवंशम् महाकाव्य प्रथमः सर्गः

तेरहवाँ अध्याय

मुनिवर वेदशिरा और अश्वशिराका परस्पर के शाप से क्रमशः कालियनाग और काकभुशुण्ड होना तथा शेषनाग का भूमण्डल को धारण करना

विदेहराज बहुलाश्वने पूछा- देवर्षे ! संसारमें जिनकी धूलि अनेक जन्मोंमें योगियोंके लिये भी दुर्लभ है, भगवान्के साक्षात् वे ही चरणारविन्द कालियके मस्तकोंपर सुशोभित हुए। नागोंमें श्रेष्ठ यह कालिय पूर्वजन्ममें कौन-सा पुण्य-कर्म कर चुका था, जिससे इसको यह सौभाग्य प्राप्त हुआ-यह मैं जानना चाहता हूँ। देवर्षिशिरोमणे ! यह बात मुझे बताइये ॥ १-२ ॥

नारदजीने कहा- राजन् ! पूर्वकालकी बात है। स्वायम्भुव मन्वन्तरमें वेदशिरा नामक मुनि, जिनकी उत्पत्ति भृगुवंशमें हुई थी, विन्ध्य पर्वतपर तपस्या करते थे। उन्हींके आश्रमपर तपस्या करनेके लिये अश्वशिरा मुनि आये। उन्हें देखकर वेदशिरा मुनिके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये और वे रोषपूर्वक बोले ॥ ३-४ ॥

वेद‌शिराने कहा- ब्रह्मन् । मेरे आश्रममें तुम तपस्या न करो; क्योंकि वह सुखद नहीं होगी। तपोधन ! क्या और कहीं तुम्हारे तपके योग्य भूमि नहीं है ? ॥ ५॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! वेदशिराकी यह बात सुनकर अश्वशिरा मुनिके भी नेत्र क्रोधसे लाल हो गये और वे मुनिपुंगवसे बोले ॥ ६ ॥(Vrindavan Khand Chapter 11 to 15)

अश्वशिराने कहा- मुनिश्रेष्ठ । यह भूमि तो महाविष्णुकी है; न तुम्हारी है न मेरी। यहाँ कितने मुनियोंने उत्तम तपका अनुष्ठान नहीं किया है ? तुम व्यर्थ ही सर्पकी तरह फुफकारते हुए क्रोध प्रकट करते हो, इसलिये सदाके लिये सर्प हो जाओ और तुम्हें गरुडसे भय प्राप्त हो ॥ ७-८ ॥

वेदशिरा बोले- दुर्मते ! तुम्हारा भाव बड़ा ही दूषित है। तुम छोटे-से द्रोह या अपराधपर भी महान् दण्ड देनेके लिये उद्यत रहते हो और अपना काम बनानेके लिये कौएकी तरह इस पृथ्वीपर डोलते-फिरते हो; अतः तुम भी कौआ हो जाओ ॥ ९ ॥

नारदजी कहते हैं- इसी समय भगवान् विष्णु परस्पर शाप देते हुए दोनों ऋषियोंके बीच प्रकट हो गये। वे दोनों अपने-अपने शापसे बहुत दुखी थे। भगवान्ने अपनी वाणीद्वारा उन दोनोंको सान्त्वना दी ॥ १० ॥

श्रीभगवान् बोले – मुनियो ! जैसे शरीरमें दोनों भुजाएँ समान हैं, उसी प्रकार तुम दोनों समानरूपसे मेरे भक्त हो। मुनीश्वरो ! मैं अपनी बात तो झूठी कर सकता हूँ, परंतु भक्तकी बातको मिथ्या करना नहीं चाहता- यह मेरी प्रतिज्ञा है। वेदशिरा ! सर्पकी अवस्थामें तुम्हारे मस्तकपर मेरे दोनों चरण अङ्कित होंगे। उस समयसे तुम्हें गरुडसे कदापि भय नहीं होगा। अश्वशिरा ! अब तुम मेरी बात सुनो। सोच न करो, सोच न करो। काकरूपमें रहनेपर भी तुम्हें निश्चय ही उत्तम ज्ञान प्राप्त होगा। योगसिद्धियोंसे युक्त उच्चकोटिका त्रिकालदर्शी ज्ञान सुलभ होगा ॥ ११- १४ ॥

नारदजी कहते हैं- नरेश्वर ! यों कहकर भगवान् विष्णु जब चले गये, तब अश्वशिरा मुनि साक्षात् योगीन्द्र काकभुशुण्ड हो गये और नीलपर्वतपर रहने लगे। वे सम्पूर्ण शास्त्रोंके अर्थको प्रकाशित करनेवाले महातेजस्वी रामभक्त हो गये। उन्होंने ही महात्मा गरुडको रामायण की कथा सुनायी थी ॥ १५-१६ ॥

मिथिलानरेश ! चाक्षुष मन्वन्तरके प्रारम्भमें प्रचेताओंके पुत्र प्रजापति दक्षने महर्षि कश्यपको अपनी परम मनोहर ग्यारह कन्याएँ पत्नीरूपमें प्रदान कीं। उन कन्याओंमें जो श्रेष्ठ कडू थी, वही इस समय वसुदेवप्रिया रोहिणी होकर प्रकट हुई हैं, जिनके पुत्र बलदेवजी है। उस कद्रूने करोड़ों महासर्पोको जन्म दिया। वे सभी सर्प अत्यन्त उद्भट, विषरूपी बलसे सम्पन्न, उग्र तथा पाँच सौ फनोंसे युक्त थे। वे महान् मणिरल धारण किये रहते थे। उनमेंसे कोई-कोई सौ मुखोंवाले एवं दुस्सह विषधर थे। उन्होंमें वेदशिरा ‘कालिय’ नामसे प्रसिद्ध महानाग हुए। उन सबमें प्रथम राजा फणिराज शेष हुए, जो अनन्त एवं परात्पर परमेश्वर हैं। वे ही आजकल ‘बलदेव’ के नामसे प्रसिद्ध हैं। वे ही राम, अनन्त और अच्युताग्रज आदि नाम धारण करते हैं ॥ १७-२१ ॥

एक दिनकी बात है। प्रकृतिसे परे साक्षात् भगवान् श्रीहरिने प्रसन्नचित्त होकर मेघके समान गम्भीर वाणीमें शेषसे कहा ॥ २२ ॥

श्रीभगवान बोले- इस भूमण्डलको अपने ऊपर धारण करनेकी शक्ति दूसरे किसीमें नहीं है, इसलिये इस भूगोलको तुम्हीं अपने मस्तकपर धारण करो। तुम्हारा पराक्रम अनन्त है, इसीलिये तुम्हें ‘अनन्त’ कहा गया है। जन-कल्याणके हेतु तुम्हें यह कार्य अवश्य करना चाहिये ॥ २३-२४ ॥

शेषने कहा- प्रभो ! पृथ्वीका भार उठानेके लिये आप कोई अवधि निश्चित कर दीजिये। जितने दिनकी अवधि होगी, उतने समयतक मैं आपकी आज्ञासे भूमिका भार अपने सिरपर धारण करूँगा ॥ २५ ॥

श्रीभगवान बोले- नागराज ! तुम अपने सहस्र मुखोंसे प्रतिदिन पृथक् पृथक् मेरे गुणोंसे स्फुरित होनेवाले नूतन नामोंका सब ओर उच्चारण किया करो। जब मेरे दिव्य नाम समाप्त हो जायें, तब तुम अपने सिरसे पृथ्वीका भार उतारकर सुखी हो जाना ॥ २६-२७ ॥(Vrindavan Khand Chapter 11 to 15)

शेषने कहा- प्रभो ! पृथ्वीका आधार तो मैं हो जाऊँगा, किंतु मेरा आधार कौन होगा ? बिना किसी आधारके मैं जलके ऊपर कैसे स्थित रहूँगा ? ॥ २८ ॥

श्रीभगवान बोले- मेरे मित्र ! इसकी चिन्ता मत करो। मैं ‘कच्छप’ बनकर महान् भारसे युक्त तुम्हारे विशाल शरीरको धारण करूँगा ॥ २९ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- नरेश्वर । तब शेषने उठकर भगवान् श्रीगरुडध्वजको नमस्कार किया। फिर वे पातालसे लाख योजन नीचे चले गये। वहाँ अपने हाथसे इस अत्यन्त गुरुतर भूमण्डलको पकड़कर प्रचण्ड पराक्रमी शेषने अपने एक ही फनपर धारण कर लिया। परात्पर अनन्तदेव संकर्षणके पाताल चले जानेपर ब्रह्माजीकी प्रेरणासे अन्यान्य नागराज भी उनके पीछे-पीछे चले गये। कोई अतलमें, कोई वितलमें, कोई सुतल और महातलमें तथा कितने ही तलातल एवं रसातलमें जाकर रहने लगे। ब्रह्माजीने उन सर्पोक लिये पृथ्वीपर ‘रमणकद्वीप’ प्रदान किया था। कालिय आदि नाग उसीमें सुख पूर्वक निवास करने लगे। राजन् ! इस प्रकार मैंने तुमसे कालियका कथानक कह सुनाया, जो सारभूत तथा भोग और मोक्ष देनेवाला है। अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ३०-३५ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत ‘शेषके उपाख्यानका वर्णन’ नामक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३ ॥

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चौदहवाँ अध्याय

कालियका गरुड के भय से बचने के लिये यमुना जल में निवास का रहस्य

राजा बहुलाश्वने पूछा – ब्रह्मन् ! रमणकद्वीपमें रहनेवाले अन्य सर्पोंको छोड़कर केवल कालियनाग- को ही गरुडसे भय क्यों हुआ ? यह सारी बात आप मुझे बताइये ॥ १ ॥

श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! रमणकद्वीपमें नागोंका विनाश करनेवाले गरुड प्रतिदिन जाकर बहुत-से नागोंका संहार करते थे। अतः एक दिन भयसे व्याकुल हुए वहाँके सपेनि उस द्वीपमें पहुँचे हुए क्षुब्ध गरुडसे इस प्रकार कहा ॥ २ ॥

नाग बोले- हे गरुत्मन् ! तुम्हें नमस्कार है। तुम साक्षात् भगवान् विष्णुके वाहन हो। जब इस प्रकार हम सर्पोको खाते रहोगे तो हमारा जीवन कैसे सुरक्षित रहेगा। इसलिये प्रत्येक मासमें एक बार पृथक् पृथक् एक-एक घरसे एक सर्पकी बलि ले लिया करो। उसके साथ वनस्पति तथा अमृतके समान मधुर अन्नकी सेवा भी प्रस्तुत की जायगी। यह सब विधानके अनुसार तुम शीघ्र स्वीकार करो ॥ ३-४ ॥

गरुडजी बोले- आपलोग एक-एक घरसे एक-एक नागकी बलि प्रतिदिन दिया करें; अन्यथा सर्पके बिना दूसरी वस्तुओंकी बलिसे मैं कैसे पेट भर सकूँगा ? होगी ॥ ५ ॥

वह तो मेरे लिये पानके बीड़ेके तुल्य नारदजी कहते हैं-राजन् ! उनके यों कहनेपर सब सर्पोन आत्मरक्षाके लिये एक-एक करके उन महात्मा गरुडके लिये नित्य दिव्य बलि देना आरम्भ किया ॥ ६ ॥(Vrindavan Khand Chapter 11 to 15)

नरेश्वर ! जब कालियके घरसे बलि मिलनेका अवसर आया, तब उसने गरुडको दी जानेवाली बलिकी सारी वस्तुएँ बलपूर्वक स्वयं ही भक्षण कर लीं। उस समय प्रचण्ड पराक्रमी गरुड बड़े रोषमें भरकर आये। आते ही उन्होंने कालियनागके ऊपर अपने पंजेसे प्रहार किया। गरुडके उस पाद-प्रहारसे कालिय मूर्च्छित हो गया। फिर उठकर लंबी साँस लेते और जिह्वाओंसे मुँह चाटते हुए नागोंमें श्रेष्ठ बलवान् कालियने अपने सौ फण फैलाकर विषैले दाँतोंसे गरुडको वेगपूर्वक डस लिया। तब दिव्य वाहन गरुड- ने उसे चोंचमें पकड़कर पृथ्वीपर दे मारा और पाँखोंसे बारंबार पीटना आरम्भ किया। गरुडकी चोंचसे निकल- कर सर्पने उनके दोनों पंजोंको आवेष्टित कर लिया और बारंबार फुंकार करते हुए उनकी पाँखोंको खींचना आरम्भ किया। उस समय उनकी पाँखसे दो पक्षी उत्पन्न हुए-नीलकण्ठ और मयूर। मिथिलेश्वर ! आश्विन शुक्ला दशमीको उन पक्षियोंका दर्शन पवित्र एवं सम्पूर्ण मनोवाञ्छित फलोंका देनेवाला माना गया है। रोषसे भरे हुए गरुडने पुनः कालियको चोंचसे पकड़कर पृथ्वीपर पटक दिया और सहसा वे उसके शरीरको घसीटने लगे। तब भयसे विह्वल हुआ कालिय गरुडकी चोंचसे छूटकर भागा। प्रचण्ड पराक्रमी पक्षिराज गरुड भी सहसा उसका पीछा करने लगे। सात द्वीपों, सात खण्डों और सात समुद्रोंतक वह जहाँ-जहाँ गया, वहाँ-वहाँ उसने गरुडको पीछा करते देखा। वह नाग भूलोंक, भुवलोंक, स्वलोंक और महलोंकमें क्रमशः जा पहुँचा और वहाँसे भागता हुआ जनलोकमें पहुँच गया। जहाँ जाता, वहीं गरुड भी पहुँच जाते। इसलिये वह पुनः नीचे-नीचेके लोकोंमें क्रमशः गया; किंतु श्रीकृष्ण (भगवान् विष्णु) के भयसे किसीने उसकी रक्षा नहीं की। जब उसे कहीं भी चैन नहीं मिली, तब भयसे व्याकुल कालिय देवाधिदेव शेषके चरणोंके निकट गया और भगवान् शेषको प्रणाम करके परिक्रमापूर्वक हाथ जोड़ विशाल पृष्ठवाला कालिय दीन, भयातुर और कम्पित होकर बोला ॥ ७-२० ॥

कालियने कहा – भूमिभर्ता भुवनेश्वर ! भूमन् ! भूमि-भारहारी प्रभो ! आपकी लीलाएँ अपार हैं, आप सर्वसमर्थ पूर्ण परात्पर पुराणपुरुष हैं; मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ॥ २१ ॥

नारदजी कहते हैं- कालियको दीन और भयातुर देख फणीश्वरदेव जनार्दनने मधुर वाणीसे उसको प्रसन्न करते हुए कहा ॥ २२ ॥

शेष बोले- महामते कालिय ! मेरी उत्तम बात सुनो। इसमें संदेह नहीं कि संसारमें कहीं भी तुम्हारी रक्षा नहीं होगी। (रक्षाका एक ही उपाय है; उसे बताता हूँ, सुनो) पूर्वकालमें सौभरि नामसे प्रसिद्ध एक सिद्ध मुनि थे। उन्होंने वृन्दावनमें यमुनाके जलमें रहकर दस हजार वर्षोंतक तपस्या की। उस जलमें मीनराजका विहार देखकर उनके मनमें भी घर बसानेकी इच्छा हुई। तब उन महाबुद्धि महर्षिने राजा मान्धाताकी सौ पुत्रियोंके साथ विवाह किया। श्रीहरिने उन्हें परम ऐश्वर्यशालिनी वैष्णवी सम्पत्ति प्रदान की, जिसे देखकर राजा मान्धाता आश्चर्यचकित हो गये और उनका धनविषयक सारा अभिमान जाता रहा। यमुनाके जलमें जब सौभरि मुनिकी दीर्घकालिक तपस्या चल रही थी, उन्हीं दिनों उनके देखते-देखते गरुडने मीनराजको मार डाला। मीन-परिवारको अत्यन्त दुःखी देखकर दूसरोंका दुःख दूर करनेवाले दीनवत्सल मुनिश्रेष्ठ सौभरिने कुपित हो गरुडको शाप दे दिया ॥ २३-२८ ॥

सौभरि बोले- पक्षिराज ! आजके दिनसे लेकर भविष्यमें यदि तुम इस कुण्डके भीतर बलपूर्वक मछलियोंको खाओगे तो मेरे शापसे उसी क्षण तुरंत तुम्हारे प्राणोंका अन्त हो जायगा ॥ २९ ॥

शेषजी कहते हैं- उस दिनसे मुनिके शापसे भयभीत हुए गरुड वहाँ कभी नहीं आते। इसलिये कालिय । तुम मेरे कहनेसे शीघ्र ही श्रीहरिके विपिन – वृन्दावनमें चले जाओ। वहाँ यमुनामें निर्भय होकर अपना निवास नियत कर लो। वहाँ कभी तुम्हें गरुडसे भय नहीं होगा ॥ ३०-३१ ॥(Vrindavan Khand Chapter 11 to 15)

नारदजी कहते हैं- राजन् ! शेषनागके यों कहनेपर भयभीत कालिय अपने स्त्री-बालकोंके साथ कालिन्दीमें निवास करने लगा। फिर श्रीकृष्णने ही उसे यमुनाजलसे निकालकर बाहर भेजा ॥ ३२ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामे वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत ‘कालियके उपाख्यानका वर्णन’ नामक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १४ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ सुश्रुत संहिता

पंद्रहवाँ अध्याय

श्री राधा का गवाक्षमार्ग से श्रीकृष्ण के रूप का दर्शन करके प्रेम-विह्वल होना; ललिता का श्रीकृष्ण से राधाकी दशाका वर्णन करना और उनकी आज्ञाके अनुसार लौटकर श्रीराधा को श्रीकृष्ण प्रीत्यर्थ सत्कर्म करने की प्रेरणा देना

नारदजी कहते हैं- राजन् ! यह मैंने तुमसे कालिय-मर्दनरूप पवित्र श्रीकृष्ण चरित्र कहा। अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ १ ॥

बहुलाश्व बोले- देवर्षे ! जैसे देवता अमृत पीकर तथा भ्रमर कमल-कर्णिकाका रस लेकर तृप्त नहीं होते, उसी प्रकार श्रीकृष्णकी कथा सुनकर कोई भी भक्त तृप्त नहीं होता (वह उसे अधिकाधिक सुनना चाहता है) । जब शिशुरूपधारी परमात्मा श्रीकृष्ण रास करनेके लिये भाण्डीरवनमें गये और उनका यह लघुरूप देखकर श्रीराधा मन-ही-मन खेद करने लगी, तब देववाणीने कहा- ‘कल्याणि । सोच न करो। मनोहर वृन्दावनमें महात्मा श्री कृष्ण के द्वारा तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा।’ देववाणीद्वारा इस प्रकार कहा गया वह मनोरथ का महासागर किस तरह पूर्ण हुआ और उस मनोहर वृन्दावनमें भगवान श्री कृष्ण किस रूपमें प्रकट हुए? उस वृन्दा-विपिनमें साक्षात् परिपूर्णतम भगवान्ने श्रीराधा के साथ मनोहर रास- क्रीड़ा किस प्रकार की ? ॥ २-६ ॥

नारदजीने कहा- राजन् ! तुमने बहुत अच्छा प्रश्न किया। मैं उस मङ्गलमय भगवच्चरित्रका, उस मनोहर लीलाख्यानका, जो देवताओंको भी पूर्णतया ज्ञात नहीं है, वर्णन करता हूँ। एक दिनकी बात है, श्रीराधाकी दो प्रधान सखियाँ, शुभस्वरूपा ललिता और विशाखा, वृषभानुके घर पहुँचकर एकान्तमें श्रीराधासे मिलीं ॥ ७-८ ॥

सखियाँ बोलीं- राधे ! तुम जिनका चिन्तन करती हो और स्वतः जिनके गुण गाती रहती हो, वे भी प्रतिदिन ग्वाल-बालोंके साथ वृषभानुपुरमें आते हैं। राधे ! तुम्हें रातके पिछले पहरमें, जब वे गो-चारणके लिये निकलते हैं, उनका दर्शन करना चाहिये। वे बड़े सुन्दर हैं ॥ ९-१० ॥

राधा बोलीं- पहले उनका मनोहर चित्र बनाकर तुम शीघ्र मुझे दिखाओ, उसके बाद मैं उनका दर्शन करूँगी – इसमें संशय नहीं है ॥ ११ ॥(Vrindavan Khand Chapter 11 to 15)

नारदजी कहते हैं- तब दोनों सखियोंने नन्द नन्दनका सुन्दर चित्र बनाया, जिसमें नूतन यौवनका माधुर्य भरा था। वह चित्र उन्होंने तुरंत श्रीराधाके हाथमें दिया। वह चित्र देखकर श्रीराधा हर्षसे खिल उठीं और उनके हृदयमें श्रीकृष्णदर्शनकी लालसा जाग उठी। हाथमें रखे हुए चित्रको निहारती हुई वे आनन्दमग्न होकर सो गयीं। भवनमें सोती हुई श्रीराधाने स्वप्रमें देखा – ‘यमुनाके किनारे भाण्डीरवनके एक देशमें नीलमेघकी-सी कान्तिवाले पीतपटधारी श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण मेरे निकट ही नृत्य कर रहे हैं।’ विदेहराज ! उसी समय श्रीराधाकी नींद टूट गयी और वे शय्यासे उठकर, परमात्मा श्रीकृष्णके वियोगसे विह्वल हो, उन्होंके कमनीय रूपका चिन्तन करती हुई त्रिलोकीको तृणवत् मानने लगीं। इतनेमें ही व्रजेश श्रीनन्दनन्दन अपने भवनसे चलकर वृषभानुनगरकी साँकरी गलीमें आ गये। सखीने तत्काल खिड़कीके पास आकर श्रीराधाको उनका दर्शन कराया। उन्हें देखते ही सुन्दरी श्रीराधा मूच्छित हो गयीं। लीलासे मानव शरीर धारण करनेवाले माधव श्रीकृष्ण भी सुन्दर रूप और वैदग्ध्यसे युक्त गुणनिधि श्री वृषभानुनन्दिनी का दर्शन करके मन-ही- मन उनके साथ विहारकी अत्यधिक कामना करते हुए अपने भवनको लौटे। वृषभानुनन्दिनी श्रीराधाको इस प्रकार श्रीकृष्ण-वियोगसे विह्वल तथा अतिशय कामज्वरसे संतप्तचित्त देखकर सखियोंमें श्रेष्ठ ललिताने उनसे इस प्रकार कहा ॥ १२-१८ ॥

ललिताने पूछा- राधे ! तुम क्यों इतनी विह्वल, मूच्छित (बेसुध) और अत्यन्त व्यथित हो ? सुन्दरी ! यदि श्रीहरिको प्राप्त करना चाहती हो तो उनके प्रति अपना स्नेह दृढ़ करो। वे इस समय त्रिलोकीके भी सम्पूर्ण सुखपर अधिकार किये बैठे हैं। शुभे । वे ही दुःखानिकी ज्वालाको बुझा सकते हैं। उनकी उपेक्षा पैरोंसे ठुकरायी हुई कुम्हारके आँर्वेकी अग्निके समान दाहक होगी ॥ १९-२० ॥

नारदजी कहते हैं- राजन् । ललिताकी यह ललित बात सुनकर व्रजेश्वरी श्रीराधाने आँखें खोलीं और अपनी उस प्रिय सखीसे वे गद्द वाणीमें यों बोलीं ॥ २१ ॥

राधाने कहा- सखी । यदि मुझे ब्रजभूषण श्यामसुन्दरके चरणारविन्द नहीं प्राप्त हुए तो मैं कदापि अपने शरीरको नहीं धारण करूँगी यह मेरा निश्चय है ॥ २२ ॥

नारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! श्रीराधाकी यह बात सुनकर ललिता भयसे विह्वल हो, यमुनाके मनोहर तटपर श्रीकृष्णके पास गयी। वे माधवीलताके जालसे आच्छन्न और भ्रमरोंकी गुंजारोंसे व्याप्त एकान्त प्रदेशमें कदम्बकी जड़के पास अकेले बैठे थे। वहाँ ललिताने श्रीहरिसे कहा ॥ २३-२४ ॥

ललिता बोली – श्यामसुन्दर ! जिस दिनसे श्रीराधाने तुम्हारे अद्भुत मोहनरूपको देखा है, उसी दिनसे वह स्तम्भनरूप सात्त्विकभावके अधीन हो गयी है। काठकी पुतलीकी भाँति किसीसे कुछ बोलती नहीं। अलंकार उसे अग्निकी ज्वालाकी भाँति दाहक प्रतीत होते हैं। सुन्दर वस्त्र ‘भाड़की तपी हुई बालूके समान जान पड़ते हैं। उसके लिये हर प्रकारकी सुगन्ध कड़वी तथा परिचारिकाओंसे भरा हुआ भवन भी निर्जन वन हो गया है। हे प्यारे ! तुम यह जान लो कि तुम्हारे विरहमें मेरी सखीको फूल बाण-सा तथा चन्द्र-बिम्ब विषकंद-सा प्रतीत होता है। अतः श्रीराधाको तुम शीघ्र दर्शन दो। तुम्हारा दर्शन ही उसके दुःखोंको दूर कर सकता है। तुम सबके साक्षी हो। भूतलपर कौन-सी ऐसी बात है, जो तुम्हें विदित न हो। तुम्हीं इस जगत्‌की सृष्टि, पालन और संहार करते हो। यद्यपि परमेश्वर होनेके कारण तुम सब लोगोंके प्रति समानभाव रखते हो, तथापि अपने भक्तोंका भजन करते हो (उनके प्रति अधिक प्रेम- भाव रखते हो) ॥ २५-२८ ॥

नारदजी कहते हैं – राजन् ! ललिताकी यह ललित, बात सुनकर व्रजके साक्षात् देवता भगवान् श्रीकृष्ण मेघगर्जनके समान गम्भीर वाणीमें बोले ॥ २९ ॥

श्रीभगवान ने कहा- भामिनि ! मनका सारा भाव स्वतः एकमात्र मुझ परात्पर पुरुषोत्तमकी ओर नहीं प्रवाहित होता; अतः सबको अपनी ओरसे मेरे प्रति प्रेम ही करना चाहिये। इस भूतलपर प्रेमके समान दूसरा कोई साधन नहीं है (मैं प्रेमसे ही सुलभ होता हूँ) । भाण्डीरवनमें श्रीराधाके हृदयमें जैसे मनोरथका उदय हुआ था, वह उसी रूपमें पूर्ण होगा। सत्पुरुष अहैतुक प्रेमका आश्रय लेते हैं। संत, महात्मा उस निर्हेतुक प्रेमको निश्चय ही निर्गुण (तीनों गुणोंसे अतीत) मानते हैं। जो मुझ केशवमें और श्रीराधिकामें थोड़ा-सा भी भेद नहीं देखते, बल्कि दूध और उसकी शुक्लताके समान हम दोनोंको सर्वथा अभिन्न मानते हैं, उन्हींक अन्तःकरणमें अर्हतुकी भक्तिके लक्षण प्रकट होते हैं तथा वे ही मेरे ब्रह्मपद (गोलोकधाम) में प्रवेश पाते हैं। रम्भोरु ! इस भूतलपर जो कुबुद्धि मानव मुझ केशव हरिमें तथा श्रीराधिकामें भेदभाव रखते हैं, वे जबतक चन्द्रमा और सूर्यकी सत्ता है, तबतक निश्चय ही कालसूत्र नामक नरकमें पड़कर दुःख भोगते हैं ॥ ३०-३३ ॥(Vrindavan Khand Chapter 11 to 15)

नारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीकृष्णकी यह सारी बात सुनकर ललिता सखी उन्हें प्रणाम करके श्रीराधाके पास गयी और एकान्तमें बोली। बोलते समय उसके मुखपर मधुर हासको छटा छा रही थी ॥ ३४ ॥

ललिताने कहा – सखी ! जैसे तुम श्रीकृष्णको चाहती हो, उसी तरह वे मधुसूदन श्रीकृष्ण भी तुम्हारी अभिलाषा रखते हैं। तुम दोनोंका तेज भेद-भावसे रहित, एक है। लोग अज्ञानवश ही उसे दो मानते हैं। तथापि सती-साध्वी देवि ! तुम श्रीकृष्णके लिये निष्काम कर्म करो, जिससे पराभक्तिके द्वारा तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो। ॥ ३५-३६ ॥

नारदजी कहते हैं- नरेश्वर ! ललिता सखीकी यह बात सुनकर रासेश्वरी श्रीराधाने सम्पूर्ण धर्म- वेत्ताओंमें श्रेष्ठ चन्द्रानना सखीसे कहा ॥ ३७ ॥

श्रीराधा बोलीं – सखी । तुम श्रीकृष्णकी प्रसन्नताके लिये किसी देवताकी ऐसी पूजा बताओ, जो परम सौभाग्यवर्द्धक, महान् पुण्यजनक तथा मनोवाञ्छित वस्तु देनेवाली हो। भद्रे ! महामते ! तुमने गर्गाचार्यजीके मुखसे शास्त्रचर्चा सुनी है। इसलिये तुम मुझे कोई व्रत या पूजन बताओ ॥ ३८-३९ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामे वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत ‘श्रीराधाकृष्णके प्रेमोद्योगका वर्णन ‘नामक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १५ ॥

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