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Garga Samhita Vrindavan Khand Chapter 16 to 20

Garga Samhita
Garga Samhita Vrindavan Khand Chapter 16 to 20

॥ श्रीहरिः ॥

ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते

श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः

श्री गर्ग संहिता वृन्दावनखण्ड अध्याय 16 से 20
Garga Samhita Vrindavan Khand Chapter 16 to 20

श्री गर्ग संहिता में वृन्दावनखण्ड के सोलहवें अध्याय से बीसवां अध्याय (Vrindavan Khand Chapter 16 to 20) में तुलसीका माहात्म्य, श्रीराधाद्वारा तुलसी-सेवन-व्रतका अनुष्ठान तथा दिव्य तुलसीदेवीका प्रत्यक्ष प्रकट हो श्रीराधाको वरदान देना, श्रीकृष्णका गोपदेवीके रूपसे वृषभानु भवनमें जाकर श्रीराधासे मिलना, श्रीकृष्णके द्वारा गोपदेवीरूपसे श्रीराधाके प्रेमकी परीक्षा तथा श्रीराधाको श्रीकृष्णका दर्शन, रासक्रीडा का वर्णन और श्रीराधा और श्रीकृष्णके परस्पर शृङ्गार-धारण, रास, जलविहार एवं वनविहारका वर्णन किया गया है।

यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक

सोलहवाँ अध्याय

तुलसीका माहात्म्य, श्रीराधाद्वारा तुलसी-सेवन-व्रतका अनुष्ठान तथा दिव्य तुलसीदेवीका प्रत्यक्ष प्रकट हो श्रीराधाको वरदान देना

श्रीनारदजी कहते हैं – राजन् ! श्रीराधाकी बात सुनकर समस्त सखियोंमें श्रेष्ठ चन्द्राननाने अपने हृदयमें एक क्षणतक कुछ विचार किया फिर इस प्रकार उत्तर दिया ।। १॥

चन्द्रानना बोलीं- राधे ! परमसौभाग्यदायक, महान् पुण्यजनक तथा श्रीकृष्णकी भी प्राप्तिके लिये वरदायक व्रत है-तुलसीकी सेवा । मेरी रायमें तुलसी-सेवनका ही नियम तुम्हें लेना चाहिये; क्योंकि तुलसीका यदि स्पर्श अथवा ध्यान, नाम-कीर्तन, स्तवन, आरोपण, सेचन और तुलसीदलसे ही नित्य पूजन किया जाय तो वह महान् पुण्यप्रद होता है। शुभे ! जो प्रतिदिन तुलसीकी नौ प्रकारसे भक्ति करते हैं, वे कोटि सहस्र युगोंतक अपने उस सुकृत्यका उत्तम फल भोगते हैं। मनुष्योंकी लगायी हुई तुलसी जबतक शाखा, प्रशाखा, बीज, पुष्प और सुन्दर दलोंके साथ पृथ्वीपर बढ़ती रहती है, तबतक उनके वंशमें जो-जो जन्म लेते हैं, वे सब उन आरोपण करनेवाले मनुष्योंके साथ दो हजार कल्पोंतक श्रीहरिके धाममें निवास करते हैं। राधिके ! सम्पूर्ण पत्रों और पुष्पोंको भगवान्के चरणोंमें चढ़ानेसे जो फल मिलता है, वह सदा एकमात्र तुलसीदलके अर्पणसे प्राप्त हो जाता है। जो मनुष्य तुलसीदलोंसे श्रीहरिकी पूजा करता है, वह जलमें पद्मपत्रकी भाँति पापसे कभी लिप्त नहीं होता। सौ भार सुवर्ण तथा चार सौ भार रजतके दानका जो फल है, वही तुलसीवनके पालनसे मनुष्यको प्राप्त हो जाता है। राधे ! जिसके घरमें तुलसी का वन या बगीचा होता है, उसका वह घर तीर्थरूप है। वहाँ यमराजके दूत कभी नहीं जाते। जो श्रेष्ठ मानव सर्वपापहारी, पुण्यजनक तथा मनोवाञ्छित वस्तु देनेवाले तुलसीवन का रोपण करते हैं, वे कभी सूर्यपुत्र यमको नहीं देखते। रोपण, पालन, सेचन, दर्शन और स्पर्श करनेसे तुलसी मनुष्योंके मन, वाणी और शरीरद्वारा संचित समस्त पापोंको दग्ध कर देती है। पुष्कर आदि तीर्थ, गङ्गा आदि नदियाँ तथा वासुदेव आदि देवता तुलसीदलमें सदा निवास करते हैं। जो तुलसीकी मञ्जरी सिरपर रखकर प्राण त्याग करता है, वह सैकड़ों पापोंसे युक्त क्यों न हो, यमराज उसकी ओर देख भी नहीं सकते। जो मनुष्य तुलसी-काष्ठका घिसा हुआ चन्दन लगाता है, उसके शरीरको यहाँ क्रियमाण पाप भी नहीं छूता। शुभे ! जहाँ-जहाँ तुलसीवनकी छाया हो, वहाँ-वहाँ पितरों का श्राद्ध करना चाहिये। वहाँ दिया हुआ श्राद्ध-सम्बन्धी दान अक्षय होता है। सखी! आदिदेव चतुर्भुज ब्रह्माजी भी शार्ङ्गधन्वा श्रीहरिके माहात्म्यकी भाँति तुलसीके माहात्म्य को भी कहनेमें समर्थ नहीं हैं। अतः गोप- नन्दिनि ! तुम भी प्रतिदिन तुलसीका सेवन करो, जिससे श्रीकृष्ण सदा ही तुम्हारे वशमें रहें ॥ २-१८ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- नरेश्वर! इस प्रकार चन्द्राननाकी कही हुई बात सुनकर रासेश्वरी श्रीराधाने साक्षात् श्रीहरिको संतुष्ट करनेवाले तुलसी-सेवनका व्रत आरम्भ किया केतकी वन में सौ हाथ गोलाकार भूमिपर बहुत ऊँचा और अत्यन्त मनोहर श्री तुलसी का मन्दिर बनवाया, जिसकी दीवार सोनेसे जड़ी थी और किनारे-किनारे पद्मरागमणि लगी थी। वह सुन्दर मन्दिर पन्ने, हीरे और मोतियोंके परकोटेसे अत्यन्त सुशोभित था तथा उसके चारों ओर परिक्रमाके लिये गली बनायी गयी थी, जिसकी भूमि चिन्तामणिसे मण्डित थी। बहुत ऊँचा तोरण (मुख्यद्वार या गोपुर) उस मन्दिरकी शोभा बढ़ाता था। वहाँ सुवर्णमय ध्वजदण्डसे युक्त पताका फहरा रही थी। चारों ओर ताने हुए सुनहले वितानों (चंदोवों) के कारण वह तुलसी-मन्दिर वैजयन्ती पताकासे युक्त इन्द्रभवन-सा देदीप्यमान था। ऐसे तुलसी-मन्दिरके मध्यभागमें हरे पल्लवोंसे सुशोभित तुलसीकी स्थापना करके श्रीराधाने अभिजित् मुहूर्तमें उनकी सेवा प्रारम्भ की। श्रीगर्गजीको बुलाकर उनकी बतायी हुई विधिसे सती श्रीराधाने बड़े भक्तिभावसे श्रीकृष्णको संतुष्ट करनेके लिये आश्विन शुक्ला पूर्णिमासे लेकर चैत्र पूर्णिमातक तुलसी-सेवन-व्रतका अनुष्ठान किया ॥ १९-२५॥(Vrindavan Khand Chapter 16 to 20)

व्रत आरम्भ करके उन्होंने प्रतिमास पृथक् पृथक् रससे तुलसीको सींचा। कार्तिकमें दूधसे, मार्गशीर्षमें ईखके रससे, पौषमें द्राक्षारससे, माघमें बारहमासी आमके रससे, फाल्गुन मासमें अनेक वस्तुओंसे मिश्रित मिश्रीके रससे और चैत्र मासमें पञ्चामृतसे उसका सेचन किया। नरेश्वर! इस प्रकार व्रत पूरा करके वृषभानुनन्दिनी श्रीराधाने गर्गजीकी बतायी हुई विधिसे वैशाख कृष्णा प्रतिपदाके दिन उद्यापनका उत्सव किया। उन्होंने दो लाख ब्राह्मणोंको छप्पन भोगोंसे तृप्त करके वस्त्र और आभूषणोंके साथ दक्षिणा दी। विदेहराज ! मोटे-मोटे दिव्य मोतियोंका एक लाख भार और सुवर्णका एक कोटि भार श्रीगर्गाचार्यजीको दिया। उस समय आकाशमें देवताओंकी दुन्दुभियाँ बजने लगीं, अप्सराओंका नृत्य होने लगा और देवतालोग उस तुलसी-मन्दिरके ऊपर दिव्य पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ॥ २६-३० ॥

उसी समय सुवर्णमय सिंहासनपर विराजमान हरिप्रिया तुलसीदेवी प्रकट हुईं। उनके चार भुजाएँ थीं। कमलदलके समान विशाल नेत्र थे। सोलह वर्षकी-सी अवस्था एवं श्याम कान्ति थी। मस्तकपर हेममय किरीट प्रकाशित था और कानोंमें काञ्चनमय कुण्डल झलमला रहे थे। पीताम्बरसे आच्छादित केशोंकी बैधी हुई नागिन-जैसी वेणीमें वैजयन्ती माला धारण किये, गरुडसे उतरकर तुलसीदेवीने रङ्गवल्ली-जैसी श्रीराधाको अपनी भुजाओंसे अङ्कमें भर लिया और उनके मुखचन्द्रका चुम्बन किया * ॥ ३१-३२ ॥

तुलसी बोलीं- कलावती-कुमारी राधे ! मैं तुम्हारे भक्ति-भावसे वशीभूत हो निरन्तर प्रसन्न हूँ। भामिनि ! तुमने केवल लोकसंग्रहकी भावनासे इस सर्वतोमुखी व्रतका अनुष्ठान किया है (वास्तवमें तो तुम पूर्णकाम हो)। यहाँ इन्द्रिय, मन, बुद्धि और चित्तद्वारा जो-जो मनोरथ तुमने किया है, वह सब तुम्हारे सम्मुख सफल हो। पति सदा तुम्हारे अनुकूल हों और इसी प्रकार कीर्तनीय परम सौभाग्य बना रहे ।। ३३-३४ ।।(Vrindavan Khand Chapter 16 to 20)

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहती हुई हरिप्रिया तुलसीको प्रणाम करके वृषभानुनन्दिनी राधा ने उनसे कहा- ‘देवि । गोविन्दके युगल चरणारविन्दोंमें मेरी अहैतुकी भक्ति बनी रहे।’ मैथिलराजशिरोमणे ! तब हरिप्रिया तुलसी ‘तथास्तु’ कहकर अन्तर्धान हो गयीं। तबसे वृषभानुनन्दिनी राधा अपने नगरमें प्रसन्न-चित्त रहने लगीं। राजन् ! इस पृथ्वीपर जो मनुष्य भक्तिपरायण हो श्रीराधिकाके इस विचित्र उपाख्यानको सुनता है, वह मन-ही-मन त्रिवर्ग-सुखका अनुभव करके अन्तमें भगवान्को पाकर कृतकृत्य हो जाता है ।। ३५-३७ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत ‘तुलसीपूजन’ नामक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १६ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय

सत्रहवाँ अध्याय

श्रीकृष्णका गोपदेवीके रूपसे वृषभानु भवनमें जाकर श्रीराधासे मिलना

राजा बहुलाश्व बोले- मुने ! श्रीराधाकृष्णके चरित्रको सुनते-सुनते मेरा मन अघाता नहीं ठीक उसी तरह जैसे शरद‌ऋतुके प्रफुल्ल कमलका रसपान करते समय भ्रमरोंको तृप्ति नहीं होती। ब्रह्मन् । तपोधन । श्रीकृष्णपत्नी रासेश्वरीद्वारा तुलसी-सेवनका व्रत पूर्ण कर लिये जानेके बाद जो वृत्तान्त घटित हुआ, वह मुझे सुनाइये ॥ १-२ ॥

श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! श्रीराधिकाकी तुलसी-सेवाके निमित्त की गयी तपस्याको जानकर, उनकी प्रीतिकी परीक्षा लेनेके लिये एक दिन भगवान् श्रीकृष्ण वृषभानुपुरमैं गये। उस समय उन्होंने अद्भुत गोपाङ्गनाका रूप धारण कर लिया था। चलते समय उनके पैरोंसे नूपुरोंकी मधुर झनकार हो रही थी। कटिकी करधनीमें लगी हुई क्षुद्रघण्टि काओंकी भी मधुर खनखनाहट सुनायी पड़ती थी। अङ्गुलियोंमें मुद्रिकाओंकी अपूर्व शोभा थी। कलाइयोंमें रनजटित कंगन, बाँहोंमें भुजबंद तथा कण्ठ एवं वक्षःस्थलमें मोतियोंके हार शोभा दे रहे थे। बालरविके समान दीप्तिमान् शीशफूलसे सुशोभित केश-पाशोंकी वेणी-रचनामें अपूर्व कुशलताका परिचय मिलता था। नासिकामें मोतीकी बुलाक हिल रही थी। शरीरको दिव्य आभा स्निग्ध अलकोंके समान ही श्याम थी। ऐसा रूप धारण करके श्रीहरिने वृषभानुके मन्दिरको देखा। खाई और परकोटोंसे युक्त वह वृषभानु-भवन चार दरवाजोंसे सुशोभित था तथा प्रत्येक द्वारपर काजल वर्णक समान वाले गजराज झूमते थे, जिससे उस राजभवनकी मनोहरता बढ़ गयी थी। उस मण्डपका प्राङ्गण वायु तथा मनके समान वेगशाली एवं हार और चैवरोंसे सुसज्जित विचिन्त्र वर्णवाले अश्वोंसे शोभा पा रहा था ।। ३-८ ॥

नरेश्वर ! सवत्सा गौओंके समुदाय तथा धर्मधुरंधर वृषभवृन्दसे भी उस भवनकी बड़ी शोभा हो रही थी। बहुत-से गोपाल वहाँ वंशी और बेंत धारण किये गीत गा रहे थे। मायामयी युवतीका वेष धारण किये श्यामसुन्दर उस प्राङ्गणसे अन्तःपुरमें प्रविष्ट हुए, जहाँ कोटि सूर्यकि समान कान्तिमान् कपाटों और खंभोंकी पंक्तियाँ प्रकाश फैला रही थीं। वहाँकै रल-मण्डित आँगनोंमें बहुत-सी रत्नस्वरूपा ललनाएँ सुशोभित हो रही थीं। वीणा, ताल और मृदङ्ग आदि बाजे बजाती हुई वे मनोहारिणी गोप-सुन्दरियाँ फूलोंकी छड़ी लिये श्रीराधिकाके गुण गा रही थीं। उस अन्तःपुरमें दिव्य एवं विशाल उपबनकी छटा छा रही थी। उसके भीतर अनार, कुन्द, मन्दार, नींबू तथा अन्य ऊँचे-ऊँचे वृक्ष लहलहा रहे थे। केतकी, मालती और माधवी लताएँ उस उपवनको सुशोभित करती थीं। वहीं श्रीराधाका निकुञ्ज था, जिसमें कल्पवृक्षके पुष्पोंकी सुगन्ध भरी थी। नृपेश्वर ! उस उपवनमें मधु पोकर मतवाले हुए भौरे टूट पड़ते थे। वहाँ शीतल मन्द-सुगन्ध वायु चल रही थी, जो सहस्त्रदल कमलोंक परागको बारंबार बिखेरा करती थी। उस उद्यानमें निकुञ्ज शिखरोंपर बैठे हुए नर-कोकिल, मादा-कोकिल, मोर, सारस और शुक पक्षी मीठी आवाजमें कूज रहे थे। वहाँ फूलोंकी सहस्त्रों शय्याएँ सज्जित थीं और पानीकी हजारों नहीं बह रही थीं। वहाँके मेघ मन्दिरमें सैकड़ों फुहारे छूट रहे थे। बालसूर्यके समान कान्तिमान् कुण्डल तथा विचित्र वर्णवाले वस्त्र धारण किये करोड़ों सुन्दरमुखी सखियाँ वहाँ श्रीराधाके सेवा कार्यमें अपनी कुशलता का परिचय देती थीं। उनके बीचमें श्रीराधिका रानी उस राजमन्दिरमें टहल रही थीं। वह राजमन्दिर केसरिया रंगके सूक्ष्म वस्त्रोंसे सजाया गया था। वहाँकी भूमिपर पर्वतीय पुष्प, जलज पुष्प तथा स्थलपर होने वाले बहुत-से पुष्प और कोमल पल्लव इतनी अधिक संख्यामें बिछाये गये थे कि वहाँ पाँव रखनेपर गुल्फ (घुट्ठी) तकका भाग ढक जाता था। मालतीके मकरन्दोंकी बूँदें वहाँ झरती रहती थीं। ऐसे आँगनमें करोड़ों चन्द्रोंके समान कान्तिमती, कोमलाङ्गी एवं कृशाङ्गी श्रीराधा धीरे-धीरे अपने कोमल चरणारविन्दोंका संचालन करती हुई घूम रही थीं। मणि-मन्दिरके आँगनमें आयी हुई उस नवीना गोप- सुन्दरीको वृषभानुनन्दिनी श्रीराधाने देखा। उसके तेजसे नहाँकी समस्त ललनाएँ हतप्रभ हो गयीं, जैसे चन्द्रमाके उदय होनेसे ताराओंकी कान्ति फीकी पड़ जाती है। उसके उत्तम एवं महान् गौरवका अनुभव करके श्रीराधाने अभ्युत्थान दिया (अगवानी की) और दोनों बाँहोंसे उसका गाढ़ आलिङ्गन करके उसे दिव्य सिंहासनपर बिठाया। फिर लोकरीतिके अनुसार जल आदि उपचार अर्पित करके उसका सुन्दर पूजन (आदर-सत्कार) आरम्भ किया ॥ ९-२३ ॥(Vrindavan Khand Chapter 16 to 20)

श्रीराधा बोलीं – सुन्दरी सखी ! तुम्हारा स्वागत है। मुझे शीघ्र ही अपना नाम बताओ। तुम स्वतः आज यहाँ आ गयीं, यह मेरे लिये ही महान् सौभाग्यकी बात है। इस भूतलपर तुम्हारे समान दिव्य रूपका कहीं दर्शन नहीं होता। शुनु । जहाँ तुम जैसी सुन्दरी निवास करती है, वह नगर निश्चय ही धन्य है। देवि ! अपने आगमनका कारण विस्तारपूर्वक बताओ। मेरे योग्य जो कार्य हो, वह तुम्हें अवश्य कहना चाहिये । तुम अपनी बाँकी चितवन, सुन्दर दीप्ति, मधुर वाणी, मनोहर मुसकाने, चाल-ढाल और आकृतिसे इस समय मुझे श्रीपतिके सदृश दिखायी देती हो। शुभे । तुम प्रतिदिन मुझसे मिलनेके लिये आया करो। यदि न आ सको तो मुझे ही अपने निवासस्थानका संकेत प्रदान करो। जिस विधिसे हमारा तुम्हारे साथ मिलना सम्भव हो, वह विधि तुम्हें सदा उपयोगमें लानी चाहिये है हे सखी! तुम्हारा यह शरीर मुझे बहुत प्यारा लगता है; क्योंकि मेरे प्रियतम श्रीव्रजराजनन्दनकी आकृति तुम्हारी ही जैसी है, जिन्होंने मेरे मनको हर लिया है। अतः तुम मेरे पास रहो। जैसे भौजाई अपनी ननदको प्यार करती है, उसी प्रकार मैं तुम्हारा आदर करूँगी ॥ २४-२९ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन्। यह सुनकर मायासे युवतीका वेष धारण करनेवाले भगवान श्रीकृष्णने कमलनयनी राधासे इस प्रकार कहा ।। ३० ।।

नन्दभवनसे उत्तर दिशामें मेरा निवास है। मेरा नाम श्रीभगवान् बोले- रम्भोरु ! नन्दनगर गोकुलमें ‘गोपदेवी’ है। मैंने ललिताके मुखसे तुम्हारी रूप माधुरी और गुण-माधुरीका वर्णन सुना है; अतः हे चञ्चल लोचनोंवाली सुन्दरी। मैं तुम्हें देखनेके लिये यहाँ तुम्हारे घरमें चली आयी हूँ। कमललोचने ! जहाँ ललित लक्ङ्गलताकी सुस्पष्ट सुगन्ध छा रही है, जहाँक गुञ्जा-निकुञ्जमें मधुपोंकी मधुर ध्वनिसे युक्त कंजपुष्प खिल रहे हैं, वह श्रुतिपथमें आया हुआ तुम्हारा नित्य- नूतन दिव्य नगर आज अपनी आँखों देख लिया। इसके समान सुन्दर तो देवराज इन्द्रकी पुरी अमरावती भी नहीं होगी ।। ३१-३३ ।।

श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! इस प्रकार दोनों प्रिया-प्रियतमका मिलन हुआ। वे परस्पर प्रीतिका परिचय देते हुए वहाँ उपवनमें शोभा पाने लगे। पुष्पमय कन्दुक (गेंद) के खेल खेलते हुए वे दोनों हँसते और गीत गाते थे। वनके वृक्षोंको देखते हुए वे इधर-उधर विचरने लगे। राजन् । कला- कौशलसे सम्पन्न कमललोचना राधाको सम्बोधित करके गोपदेवीने मधुर वाणीसे कहा ।। ३४ – ३६ ।।

गोपदेवी बोली – व्रजेश्वरि । नन्दनगर यहाँसे दूर है और अब संध्या हो गयी है, अतः जाती हूँ। कल प्रातःकाल तुम्हारे पास आऊँगी, इसमें संशय नहीं है ॥ ३७ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! गोपदेवीकी यह बात सुनकर ब्रजेश्वरी श्रीराधाके नयनोंसे तत्काल आँसुओंकी धारा बह चली। वे रोमाञ्च तथा हर्षोद्दूमके भावसे आवृत हो कटे हुए कदलीवृक्षकी भाँति पृथ्वीपर गिर पड़ीं। यह देख वहाँ सखियाँ सशङ्क हो गयीं और तुरंत व्यजन लेकर, पास खड़ी हो, हवा करने लगीं। उनके वस्त्रोंपर चन्दन-पुष्पोंक इत्र छिड़के गये। उस समय गोपदेवीने श्रीराधासे कहा ।। ३८-३९ ॥(Vrindavan Khand Chapter 16 to 20)

गोपदेवी बोली- राधिके ! मैं प्रातःकाल अवश्य आऊँगी तुम चिन्ता न करो। यदि ऐसा न हो तो मुझे गाय, गोरस और अपने भाईकी सौगन्ध है ॥ ४० ॥

नारदजी कहते हैं- नृपेश्वर ! यों कहकर मायासे युवतीका वेष धारण करनेवाले श्रीहरि राधाको धीरज बँधा- कर श्रीनन्दगोकुल (नन्दगाँव) में चले गये ।। ४१ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत ‘श्रीराधा-कृष्ण-संगम’ नामक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १७ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ गीतावली हिंदी में

अठारहवाँ अध्याय

श्रीकृष्णके द्वारा गोपदेवीरूपसे श्रीराधाके प्रेमकी परीक्षा तथा श्रीराधाको श्रीकृष्णका दर्शन

श्रीनारदजी कहते हैं – मिथिलेश्वर । तदनन्तर रात व्यतीत होनेपर मायासे नारीका रूप धारण करनेवाले श्रीहरि श्रीराधाका दुःख शान्त करनेके लिये वृषभानु-भवनमें गये। उन्हें आया देखकर श्रीराधा उठकर बड़े हर्षके साथ भीतर लिवा ले गयीं और आसन देकर विधि विधानके साथ उनका पूजन किया ॥ १-२ ॥

श्रीराधा बोलीं – सखी ! तुम्हारे बिना मैं रातभर बहुत दुःखी रही और तुम्हारे आ जानेसे मुझे इतनी प्रसन्नता हुई है, मानो कोई खोयी हुई वस्तु मिल गयी हो। जैसे कुपथ्य-सेवनसे पहले तो सुख मालूम होता है, किंतु पीछे दुःख भोगना पड़ता है, इसी तरह सत्सङ्गसे भी पहले सुख होता है और पीछे वियोगका दुःख उठाना पड़ता है ॥ ३॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीराधाकी यह बात सुनकर गोपदेवी अनमनी हो गयीं। वे श्रीराधासे कुछ भी नहीं बोलीं। किसी दुःखिनीकी भाँति चुपचाप बैठी रहीं। गोपदेवीको खिन्न जानकर श्रीराधिकाने सखियोंके साथ विचार करके, स्नेहतत्पर हो, इस प्रकार कहा ।। ४-५॥(Vrindavan Khand Chapter 16 to 20)

श्रीराधा बोलीं- गोपदेवि ! तुम अनमनी क्यों हो गयीं ? कल्याणि ! मुझे इसका कारण बताओ। माता, पति, ननद अथवा सासने कुपित होकर तुम्हें फटकारा तो नहीं है ? मनोहरे ! किसी सौतके दोषसे या अपने पतिके वियोगसे अथवा अन्यत्र चित्त लग जानेसे तो तुम्हारा मन खिन्न नहीं हुआ है ? क्या कारण है ? महाभागे ! रास्ता चलनेकी थकावटसे या शरीरमें कोई रोग हो जानेसे तो तुम्हें खेद नहीं हुआ है ? अपने दुःखका कारण शीघ्र बताओ। रम्भोरु ! किसी कृष्ण- भक्त या ब्राह्मणको छोड़कर दूसरे जिस-किसीने भी तुमसे कोई कुत्सित बात कह दी हो तो मैं उसकी चिकित्सा करूँगी (उसे दण्ड दूँगी)। यदि तुम्हारी इच्छा हो तो हाथी, घोड़े आदि वाहन, नाना प्रकारके रत्न, वस्त्र, धन और विचित्र भवन मुझसे ग्रहण करो। धन देकर शरीरकी रक्षा करे, शरीरका भी उत्सर्ग करके लाजकी रक्षा करे तथा मित्रके कार्यकी सिद्धिके लिये तन, धन और लज्जाको भी अर्पित कर दे। धन देकर निरन्तर प्राणोंकी रक्षा करे। जो बिना किसी कारण या कामनाके निश्छलभावसे मित्रताका निर्वाह करता है, वही मनुष्य परम धन्य है। जो मैत्री स्थापित करके कपट करता है, उस स्वार्थ साधनमें पटु लम्पट नटको धिक्कार है। राजेन्द्र ! उनका यह प्रेमपूर्ण वचन सुनकर गोपदेवीके रूपमें आये हुए भगवान् उन कीर्तिनन्दिनी श्रीराधासे हँसते हुए बोले ॥ ६- १३ ।।

गोपदेवीने कहा- राधे ! वरसानुगिरिकी घाटियोंमें जो मनोहर साँकरी गली है, उसीसे होकर मैं स्वयं दही बेचने जा रही थी। इतनेमें नन्दजीके नवतरुण कुमार श्यामसुन्दरने मुझे मार्गमें रोक लिया। उनके हाथमें वंशी और बेंतकी छड़ी थी। उन रसिकशेखरने लाजको तिलाञ्जलि दे, तुरंत मेरा हाथ पकड़ लिया और जोर-जोरसे हँसते हुए, उस एकान्त वनमें वे इस प्रकार कहने लगे – ‘सुन्दरी ! मैं कर लेनेवाला हूँ। अतः तू मुझे करके रूपमें दहीका दान दे। मैंने कहा- ‘चलो, हटो। अपने-आप कर लेनेवाले बने हुए तुम-जैसे गोरस-लम्पटको मैं कदापि दान नहीं दूँगी।’ मेरे इतना कहते ही उन्होंने सिरपरसे दहीका मटका उतार लिया और उसे फोड़ डाला। मटका फोड़कर थोड़ी-सी दही पीकर मेरी चादर उतार ली और नन्दीश्वर गिरिकी ईशानकोणवाली दिशाकी ओर वे चल दिये। इससे मैं बहुत अनमनी हो रही हूँ। जातका ग्वाला, काला-कलूटा रंग, न धनवान् न वीर, न सुशील और न सुरूप ? सुशीले ! ऐसे पुरुषके प्रति तुमने प्रेम किया, यह ठीक नहीं। मैं कहती हूँ, तुम आजसे शीघ्र ही उस निर्मोही कृष्णको मनसे निकाल दो (उसे सर्वथा त्याग दो)। इस प्रकार वैरभावसे युक्त कठोर वचन सुनकर वृषभानुनन्दिनी श्रीराधाको बड़ा विस्मय हुआ। वे वाक्य और पदोंक प्रयोगके सम्बन्धमें सरस्वतीके चरणोंका स्मरण करती हुई उनसे बोलीं ॥ १४-१९ ॥

श्रीराधाने कहा – सखी! जिनकी प्राप्तिके लिये ब्रह्मा और शिव आदि देवता अपनी उत्कृष्ट योगरीतिसे पञ्चाग्निसेवनपूर्वक तप करते हैं; दत्तात्रेय, शुक, कपिल, आसुरि और अङ्गिरा आदि भी जिनके चरणारविन्दोंके मकरन्द और परागका सादर स्पर्श करते हैं; उन्हीं अजन्मा, परिपूर्ण देवता, लीलावतारधारी, सर्वजन- दुःखहारी, भूतल-भूरि-भार-हरणकारी तथा सत्पुरुषों के कल्याणके लिये यहाँ प्रकट हुए आदिपुरुष श्रीकृष्णकी निन्दा कैसे करती हो ? तुम तो बड़ी ढीठ जान पड़ती हो। ग्वाले सदा गौओंका पालन करते हैं, गोरजकी गङ्गामें नहाते हैं, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओंके उत्तम नामोंका जप करते हैं। इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओंके सुन्दर मुखका दर्शन होता है। मेरी समझमें तो इस भूतलपर गोप-जातिसे बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है। तुम उसे काला-कलूटा बताती हो; किंतु उन श्यामसुन्दर श्रीकृष्णकी श्याम-विभासे विलसित सुन्दर कलाका दर्शन करके उन्हींमें मन लग जानेके कारण भगवान् नीलकण्ठ औरोंके सुन्दर मुखको छोड़कर जटाजूट, हालाहल विष, भस्म, कपाल और सर्प धारण किये उस काले-कलूटेके लिये ही पागलोंकी भाँति ब्रजमें दौड़ते फिरते हैं स्वर्गलोक, सिद्ध, मुनि, यक्ष और मरुद्रणोंके पालक तथा समस्त नरों, किंनरों और नागोंके स्वामी भी निरन्तर भक्तिभावसे जिनके चरणारविन्दोंमें प्रणिपात करके उत्कृष्ट लक्ष्मी एवं ऐश्वर्यको पाकर निश्चय ही उन्हें बलि (कर) समर्पित किया करते हैं, उनको तुम निर्धन कहती हो ? वत्सासुर, अघासुर, कालियनाग, बकासुर, यमलार्जुन वृक्ष, तृणावर्त, शकटासुर और पूतना आदिका वध (सम्भवतः तुम्हारी दृष्टिमें उनकी वीरताका परिचायक नहीं है। मेरा भी ऐसा ही मत है।) उन मुरारिके लिये क्या यश देनेवाला हो सकता है, जो कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड समूहोंके एकमात्र स्रष्टा और संहारक हैं ? उन पुरुषोत्तमके लिये भक्तसे बढ़कर कोई प्रिय हो, ऐसा ज्ञात नहीं होता। शंकर, ब्रह्मा, लक्ष्मी तथा रोहिणीनन्दन बलरामजी भी उनके लिये भक्तोंसे अधिक प्रिय नहीं हैं। वे भक्तिसे बद्धचित्त होकर भक्तोंके पीछे-पीछे चलते हैं। अतः श्रीकृष्ण केवल सुशील ही नहीं, समस्त लोकोंक सुजन-समुदायके चूडामणि हैं। वे भक्तोंके पीछे चलते हुए अपने रोम-रोममें स्थित लोकोंको पवित्र करते रहते हैं। वे परमात्मा अपने भक्तजनोंक प्रति सदा ही अभिरुचि सूचित करते रहते हैं। अतः अत्यन्त भजन करनेवालोंको भगवान् मुकुन्द मुक्ति तो अनायास दे देते है, किंतु उत्तम भक्तियोग कदापि नहीं देते; क्योंकि उन्हें भक्तिके बन्धनमें बँधे रहना पड़ता है ॥ २०- २७ ॥(Vrindavan Khand Chapter 16 to 20)

गोपदेवी बोली – श्रीराधे ! तुम्हारी बुद्धि बृहस्पतिका भी उपहास करती है और वाणी अपने प्रवचन-कौशलसे वेदवाणीका अनुकरण करती है। किंतु देवि ! तुम्हारे बुलानेसे यदि परमेश्वर श्रीकृष्ण सचमुच यहाँ आ जायें और तुम्हारी बातका उत्तर दें, तब मैं मान लूंगी कि तुम्हारा कथन सच है ॥ २८ ॥

श्रीराधा बोलीं- शुभु ! यदि परमेश्वर श्रीकृष्ण मेरे बुलानेसे यहाँ आ जायें, तब मैं तुम्हारे प्रति क्या करूँ, यह तुम्हीं बताओ। परंतु अपनी ओरसे इतना ही कह सकती हूँ कि यदि मेरे स्मरण करनेसे वनमालीका शुभागमन नहीं हुआ तो मैं अपना सारा धन और यह भवन तुम्हें दे दूँगी ॥ २९ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् । तदनन्तर श्रीराधा उठकर श्रीनन्दनन्दनको नमस्कार करके आसनपर बैठ गयीं और उनका ध्यान करने लगीं। उस समय उनके नेत्र ध्यानरत होनेके कारण निश्चल हो गये थे। श्रीहरिने देखा- ‘प्रियतमा श्रीराधा मेरे दर्शनके लिये उत्कण्ठित हैं। इनके अङ्ग अङ्गमें स्वेद (पसीना) हो आया है और मुखपर आँसुओंकी धारा बह चली है।’ यह देख अपना पुरुषरूप धारण करके भक्तवत्सल श्रीकृष्ण सखियोंके देखते-देखते सहसा वहाँ प्रकट हो गये और प्रसन्नचित्त हो घनगर्जनके समान गम्भीर वाणीमें श्रीराधासे बोले ॥ ३०-३२ ॥

श्रीकृष्णने कहा- रम्भोरु । चन्द्रवदने । व्रज-सुन्दरी-शिरोमणे 1! ! नूतनयौवनशालिनि ! मानशीले ! प्रिये राधे ! तुमने अपनी मधुरवाणीसे मुझे बुलाया है, इसलिये मैं तुरंत यहाँ आ गया हूँ। अब आँख खोलकर मुझे देखो। ललने । ‘प्रियतम कृष्ण ! धारण करानेकी कलामें कुशल थीं, तो कोई द्वारपालिका थीं। कुछ गोपियाँ ‘पार्षद’ नामधारिणी थीं, कुछ छत्र-चैवर धारण करनेवाली सखियाँ थीं और कुछ श्रीवृन्दावनकी रक्षामें नियुक्त थीं। कुछ गोवर्धनवासिनी, कुछ कुञ्जविधायिनी और कुछ निकुञ्जनिवासिनी थीं। कोई नृत्यमें निपुण और कोई वाद्य-वादनमें प्रवीण थीं। नरेश्वर ! उन सबके मुख अपने सौन्दर्य-माधुर्यसे चन्द्रमाको भी लज्जित करते थे। वे सब-की-सब किशोरावस्थावाली तरुणियाँ थीं। इन सबके बारह यूथ श्रीकृष्णके समीप आये। इसी प्रकार साक्षात् यमुना भी अपना यूथ लिये आयीं। उनके अङ्गोंपर नीलवस्त्र शोभा पा रहे थे। वे रत्नमय आभूषणोंसे विभूषित तथा श्यामा (सोलह वर्षकी अवस्था अथवा श्याम कान्तिसे युक्त) थीं। उनके नेत्र प्रफुल्ल कमलदलको तिरस्कृत कर रहे थे। उन्हींकी तरह जह्नुनन्दिनी गङ्गा भी यूथ बाँधकर वहाँ आ पहुँची। उनकी अङ्ग-कान्ति श्वेतगौर थी। वे श्वेत वस्त्र तथा मोतीके आभूषणोंसे विभूषित थीं। वैसे ही साक्षात् रमा भी अपना यूथ लिये आयीं। उनके श्रीअङ्गोंपर अरुण वस्त्र सुशोभित थे। चन्द्रमाकी-सी अङ्ग-कान्ति, अधरोंपर मन्द मन्द हासकी छटा तथा विभिन्न अङ्गोंमें पद्मरागमणिके बने हुए अलंकार शोभा दे रहे थे ॥ १४-२० ।।

इसी तरह कृष्णपत्नीके नामसे अपना परिचय देने- वाली मधुमाधवी (वसन्त-लक्ष्मी) भी वहाँ आयीं। उनके साथ भी सखियोंका समूह था। वे सब-की-सब प्रफुल्ल कमलकी-सी अङ्ग-कान्तिवाली, पुष्पहारसे अलंकृत तथा सुन्दर वस्त्रोंसे सुशोभित थीं। इसी रीतिसे साक्षात् विरजा भी सखियोंका यूथ लिये वहाँ आयीं। उनके अङ्गोंपर हरे रंगके वस्त्र शोभा दे रहे थे। वे गौरवर्णा तथा रलमय अलंकारोंसे अलंकृत थीं। ललिता, विशाखा और लक्ष्मीके भी यूथ वहाँ आये। इसी प्रकार अष्टसखियोंके, षोडश सखियोंके तथा बत्तीस सखियोंके सम्पूर्ण यूथ भी वहाँ आ पहुँचे। राजन् ! भगवान् श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण उन युवतीजनों- के साथ रासमण्डलकी रङ्गभूमिमें बड़ी शोभा पाने लगे ॥ २१-२४ ॥

जैसे आकाशमें चन्द्रमा ताराओंके साथ सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार श्रीवृन्दावनमें उन सुन्दरियोंके साथ श्रीकृष्णचन्द्रकी शोभा हो रही थी। उनकी कमरमें पीताम्बर कसा हुआ था। वे नटवेषमें सबका मन मोहे लेते थे। उनके हाथमें बेंतकी छड़ी थी। वे वंशी बजाकर उन गोप-सुन्दरियोंकी प्रीति बढ़ा रहे थे। माथेपर मोरपंखका मुकुट, वक्षःस्थलपर पुष्पहार एवं वनमाला तथा कानोंमें कुण्डल – ये ही उनके अलंकार थे। रतिके साथ रतिनाथ की जैसी शोभा होती है, उसी प्रकार रासमण्डलमें श्रीराधाके साथ राधावल्लभ की हो रही थी। इस प्रकार सुन्दरियोंके अलापसे संयुक्त होकर साक्षात् श्रीहरि अपनी प्रिया राधाके साथ यमुनाके पुण्य-पुलिनपर आये। उन्होंने अपनी प्राणवल्लभाका हाथ अपने करकमलमें ले रखा था। यमुनाके मनोहर तीरपर उन सुन्दरियोंके साथ श्यामसुन्दर थोड़ी देर बैठे रहे। फिर मधुर मधुर बातें करते हुए अपने प्रिय वृन्दाविपिनकी शोभा निहारने लगे ॥ २५-२९ ॥(Vrindavan Khand Chapter 16 to 20)

वे श्रीराधाके साथ चलते और हास-विनोद करते हुए कुञ्जवनमें विचरने लगे। एक कुनमें प्रियाका हाथ छोड़कर वे तुरंत कहीं छिप गये। किंतु एक शाखाकी ओटमें उन्हें खड़ा देख श्रीराधाने माधवको अविलम्ब जा पकड़ा। फिर श्रीराधा उनके हाथसे छूटकर पग- पगपर नूपुरोंका झंकार प्रकट करती हुई भागीं और माधवके देखते-देखते कुञ्जोंमें छिपने लगीं। माधव हरि ज्यों-ही दौड़कर उनके स्थानपर पहुँचे, त्यों-ही राधा वहाँसे अन्यत्र चली गयीं। वृक्षोंके पास हाथ- भरकी दूरीपर इधर-उधर वे भागने लगीं। उस समय आओ’ – यह वाक्य यहाँसे प्रकट हुआ और मैंने सुना। फिर उसी क्षण अपने गोकुल और गोपवृन्दको छोड़कर, वंशीवट और यमुनाके तटसे वेगपूर्वक दौड़ता हुआ तुम्हारी प्रसन्नताके लिये यहाँ आ पहुँचा हूँ। मेरे आते ही कोई सखीरूपधारिणी यक्षी, आसुरी, देवाङ्गना अथवा किंनरी, जो कोई भी मायाविनी तुम्हें छलनेके लिये आयी थी, यहाँसे चल दी। अतः तुम्हें ऐसी नागिनपर विश्वास ही नहीं करना चाहिये ।। ३३-३५॥

श्रीनारदजी कहते हैं – तदनन्तर श्रीराधा श्रीहरिको देखकर उनके चरण कमलोंमें प्रणत हो परमानन्दमें निमग्न हो गयीं। उनका मनोरथ तत्काल पूर्ण हो गया। श्रीकृष्णचन्द्रके ऐसे अद्भुत चरित्रोंका जो भक्तिभावसे श्रवण करता है, वह मनुष्य कृतार्थ हो जाता है ।। ३६-३७ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत ‘श्रीराधाको श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन’ नामक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।॥ १८ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ सुश्रुत संहिता

उन्नीसवाँ अध्याय

रासक्रीडा का वर्णन

राजा बहुलाश्वने पूछा- देवर्षे ! श्रीराधा को दर्शन दे, उसके प्रेमकी परीक्षा करके, भगवान् श्रीकृष्णने अपनी लीलाशक्तिके द्वारा आगे चलकर कौन-सी लीला प्रकट की ? ॥ १ ॥

श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! माधव (वैशाख) मासमें माधवी लताओंसे व्याप्त वृन्दावनमें रासेश्वर माधवने स्वयं रासका आरम्भ किया। वैशाख मासकी कृष्णपक्षीया पञ्चमीको जब सुन्दर चन्द्रोदय हुआ, उस समय मनोहर श्यामसुन्दरने यमुनाके तटवर्ती उपवनमें रासेश्वरी श्रीराधाके साथ रास बिहार किया। मिथिलेश्वर ! इसके पूर्व गोलोकसे जिस भूमिका पृथ्वीपर अवतरण हो चुका था, वह सब-की-सब तत्काल सुवर्ण तथा पद्मरागमणिसे मण्डित हो गयी। वृन्दावन भी दिव्यरूप धारण करके, कामपूरक कल्पवृक्षों तथा माधवी लताओंसे समलंकृत हो, अपनी शोभासे नन्दनवनको भी तिरस्कृत करने लगा। राजन् ! रत्नोंक सोपानों और सुवर्ण-निर्मित तोलिकाओं (गुमटियों) से मण्डित तथा हंसों और कमल आदिके पुष्पोंसे व्याप्त यमुना नदीकी अपूर्व शोभा हो रही थी। गिरिराज गोवर्धन गजराजके समान शोभा पाता था। जैसे गजराजके गण्डस्थलसे मदकी धाराएँ झरती हैं और उस पर भ्रमरोंकी भीड़ लगी रहती है, उसी प्रकार गिरिराजकी घाटियोंसे जलके निर्झर प्रवाहित होते थे और सुन्दरी दरियों (कन्दराओं) तथा भ्रमरियोंसे वह पर्वत व्याप्त था। वहाँ विभिन्न धातुओंकी जगह नाना प्रकारके रत्न उद्भासित होते थे। उसके रलमय शिखरोंकी दिव्य दीप्ति सब ओर प्रकाशित हो रही थी। वह पक्षियोंके कलरवसे मुखरित तथा लता-पुष्पोंसे मनोहर जान पड़ता था। गिरिराजके चारों ओर समस्त निकुञ्ज दिव्यरूप धारण करके सुशोभित होने लगे। सभा-मण्डपोंसे मण्डित वीथियाँ, प्राङ्गण और खंभोंकी पक्कियाँ उनकी शोभा बढ़ाने लगीं। नरेश्वर। फहराती हुई दिव्य पताकाएँ, सुवर्णमय कलश तथा पुष्पमय मन्दिरोंमें विद्यमान श्वेतारुण पुष्पदल उन निकुञ्जोंको विभूषित कर रहे थे। उन सबमें वसन्त ऋतुकी माधुरी भरी थी। वहाँ कोकिल और सारस अपने मीठे बोल सुना रहे थे। जहाँ-तहाँ सब ओर कबूतर और मोर आदि पक्षी कलरव करते थे। श्रीराधा-कृष्णकी पुण्यमयी गाथाका गान करते हुए टूट पड़नेवाले मधुमत्त भ्रमरोंसे सभी कुञ्ज विशेष शोभा पाते थे। यमुना-पुलिनपर सहस्त्रदल कमलोंक पुष्प-परागको बारंबार बिखेरता हुआ शीतल-मन्द-सुगन्ध समीर प्रवाहित हो रहा था ॥ २-१३ ॥

इसी समय बहुत सी गोपाङ्गनाएँ श्रीकृष्णकी सेवामें उपस्थित हुई। कोई गोलोकनिवासिनी थीं, कोई शय्या सजानेमें सहयोग करनेवाली थीं। कोई शृङ्गार श्रीराधा के साथ श्यामसुन्दर हरिकी उसी तरह शोभा हो रही थी, जैसे सुवर्णलतासे श्याम तमालकी, चपलासे घनमण्डलकी तथा सोनेकी खानसे नीलाचलकी होती है। वृन्दावनमें रासकी रङ्गस्थलीमें रतिके साथ कामदेवकी भाँति विश्वमोहिनी श्रीराधाके साथ मदनमोहन श्रीकृष्ण सुशोभित हो रहे थे। जितनी ब्रजसुन्दरियाँ वहाँ विद्यमान थीं, उतने ही रूप धारण करके रङ्गभूमिमें नटके समान नटवर श्रीकृष्ण रासरङ्गमें नृत्य करने लगे। उनके साथ सम्पूर्ण मनोहर गोप- सुन्दरियाँ भी गाने और नृत्य करने लगीं। अनेक कृष्णचन्द्रों के साथ वे गोपसुन्दरियाँ ऐसी जान पड़ती थीं, मानो बहुसंख्यक इन्द्रोंके साथ देवाङ्गनाएँ नृत्य कर रही हों। तदनन्तर मधुसूदन श्रीकृष्ण समस्त गोप- सुन्दरियोंके साथ यमुनाजलमें विहार करने लगे- ठीक उसी तरह जैसे यक्षसुन्दरियोंके साथ यक्षराज कुबेर विहार करते हैं। उन सुन्दरियोंके केशपाश तथा कबरी (बँधी हुई चोटी) से खिसककर गिरे हुए सुन्दर चित्र-विचित्र पुष्पोंसे यमुनाजीकी ऐसी शोभा हो रही थी, जैसे किसी नीलपटपर विभिन्न रंगके फूल छाप दिये गये हों। मृदङ्ग और खड़तालोंकी मधुर ध्वनिके साथ वे व्रजाङ्गनाएँ मधुसूदनका यश गाती थीं। उनका मनोरथ पूर्ण हो गया। श्रीहरिने उनकी सारी व्यथा हर ली थी। उनके पुष्पहार चञ्चल हो रहे थे और वे परमानन्दमें निमग्र हो गयी थीं। जिनके सुन्दर हाथोंसे ताडित हो उछलते हुए वारि-बिन्दु, जो फुहारोंसे छूटते हुए असंख्य अनुपम जलकणोंकी छवि धारण कर रहे थे, उन ब्रज-सुन्दरियोंक साथ वृन्दावनाधीश्वर श्रीकृष्ण ऐसी शोभा पा रहे थे, मानो बहुत-सी हथिनियोंके साथ यूथपति गजराज सुशोभित हो रहा हो। आकाशमें खड़ी हुई विद्याधरियाँ, देवाङ्गनाएँ तथा गन्धर्वपत्नियाँ उस रास-रङ्गको देखती हुई वहाँ देवताओंके साथ पुष्पवर्षा कर रही थीं। वे सब-की-सब मोहको प्राप्त हो गयी थीं। उनके वस्त्रकि नीवी-बन्ध ढीले पड़कर खिसक रहे थे ॥ ३०-४१ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनस्खण्डके अन्तर्गत ‘रासलीला’ नामक उभीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।॥ १९ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ रामोपासना अगस्त्य संहिता

बीसवाँ अध्याय

श्रीराधा और श्रीकृष्णके परस्पर शृङ्गार-धारण, रास, जलविहार एवं वनविहारका वर्णन

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर मनोहर श्यामसुन्दर श्रीहरि जलक्रीड़ा समाप्त करके समस्त गोपाङ्गनाओंके साथ गोवर्धन पर्वतको गये। उस पर्वतकी कन्दरामें रत्नमयी भूमिपर रासेश्वरी श्रीराधाके साथ साक्षात् श्रीहरिने रासनृत्य किया। वहाँ पुष्पोंसे सुसज्जित रम्य सिंहासनपर दोनों प्रिया-प्रियतम श्रीराधा-माधव विराजमान हुए, मानो किसी पर्वतपर विद्युत्-सुन्दरी और श्याम-घन एक साथ सुशोभित हो रहे हों। वहाँ सब सखियोंने बड़ी प्रसन्नताके साथ स्वामिनी श्रीराधाका शृङ्गार किया। चन्दन, केसर, कस्तूरी आदिसे तथा महावर, इत्र, अरगजा और क़ाजल तथा सुगन्धित पुष्प-रसोंसे कीर्तिकुमारी श्रीराधाकी विधिपूर्वक अर्चना करके साक्षात् श्रीयमुनाने उन्हें नूपुर धारण कराया। जह्नुनन्दिनी गङ्गाने मञ्जीर नामक दिव्य भूषण अर्पित किया। श्रीरमाने कटिप्रदेश- में किङ्किणी-जाल पहिनाया। श्रीमधुमाधवीने कण्ठमें हार अर्पित किया। विरजाने कोटि चन्द्रमाओंके समान उज्ज्वल एवं सुन्दर चन्द्रहार धारण कराया। ललिताने मणिमण्डित कञ्जुकी पहनायी। विशाखाने कण्ठभूषण धारण कराया। चन्द्राननाने रत्नमयी मुद्रिकाएँ अर्पित कीं। एकादशीकी अधिष्ठात्री देवीने श्रीराधाको रत्न- जटित दो कंगन भेंट किये। शतचन्द्रानना सखीने रत्नमय भुजकङ्कण (बाजूबंद, बिजायठ, जोसन और झबिया आदि) दिये। साक्षात् मधुमतीने दो अङ्गद भेंट किये, जिनमें जड़े हुए रत्न उद्दीप्त हो रहे थे। बन्दीने दो ताटङ्क (तरकियाँ) और सुखदायिनीने दो कुण्डल दिये। सखियोंमें प्रधान आनन्दीने श्रीराधाको भालतोरण भेंट किया। पद्याने चन्द्रकलाके समान चमकनेवाली माथेकी बेंदी (टिकुली) दी। सती पद्मावतीने नासिकामें मोतीकी बुलाक पहना दी, जो थोड़ी-थोड़ी हिलती रहती थी। राजन् । सुन्दरी चन्द्र- कान्ता सखीने श्रीराधाको प्रातःकालिक सूर्यकी कान्ति- से युक्त मनोहर शीशफूल अर्पित किया। सुन्दरीने चूडामणि तथा प्रहर्षिणीने रलमयी वेणी प्रदान की। वृन्दावनाधीश्वरी वृन्दादेवीने श्रीराधाको करोड़ों बिजलियोंके समान विद्योतमान चन्द्र-सूर्य नामक दो आभूषण भेंट किये। इस प्रकार शृङ्गार धारण करके श्रीराधाका रूप दिव्य ज्योतिसे उद्भासित हो उठा ।। १- १४ ।।(Vrindavan Khand Chapter 16 to 20)

राजन् ! उनके साथ गिरिराजपर श्रीहरि दक्षिणाके साथ यज्ञनारायणकी भाँति सुशोभित हुए। मिथिलेश्वर । जहाँ रासमें श्रीराधाने शृङ्गार धारण किया, गोवर्धन पर्वतपर वह स्थान ‘शृङ्गार-मण्डल’ के नामसे विख्यात हो गया। तदनन्तर श्रीकृष्ण अपनी प्रिया गोपसुन्दरियों के साथ चन्द्रसरोवरपर गये। उसके जलमें उन्होंने हथिनियोंके साथ गजराजकी भाँति विहार किया। वहाँ साक्षात् चन्द्रमाने आकर स्वामिनी श्रीराधा और श्यामसुन्दर श्रीहरिको दो सुन्दर चन्द्रकान्तमणियाँ तथा दो सहस्रदल कमल भेंट किये। तत्पश्चात् साक्षात् श्रीहरि कृष्ण वृन्दावनकी शोभा निहारते हुए लता-वल्लरियोंसे व्याप्त बहुलावनमें गये । वहाँ सम्पूर्ण सखीजनोंको पसीनेसे भींगा देख वंशीधरने ‘मेघमल्लार’ नामक राग गाया। फिर तो वहाँ उसी समय बादल घिर आये और जलकी फुहारें बरसाने लगे ॥ १५-२० ॥

विदेहराज ! उसी समय अपनी सुगन्धसे सबका मन मोह लेनेवाली शीतल वायु चलने लगी। उससे समस्त गोपाङ्गनाओंको बड़ा सुख मिला। वे वहाँ एकत्र सम्मिलित हो उच्चस्वरसे श्रीमुरारिका यश गाने लगीं। वहाँसे राधावल्लभ श्रीकृष्ण तालवनको गये। उस वनमें व्रजवधूटियोंसे घिरे हुए श्रीहरिने मण्डलाकार रासनृत्य आरम्भ किया। उस नृत्यमें समस्त गोप- सुन्दरियाँ पसीना-पसीना हो गयीं और प्याससे व्याकुल हो उठीं। उन सबने हाथ जोड़कर रासमण्डलमें रासेश्वरसे कहा ॥ २१-२३ई ॥

गोपियाँ बोलीं- देव ! गङ्गाजी तो यहाँसे बहुत दूर हैं और हमलोगोंको बड़े जोरसे प्यास लगने लगी है। हरे । हम यह भी चाहती हैं कि आप यहीं दिव्य मनोहर रास करें। हम आपके साथ यहीं जलविहार और जलपान करेंगी। आप इस जगत्के सृष्टि, पालन तथा संहारके भी नायक हैं ।। २४-२५ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं – यह सुनकर श्रीकृष्णने बेंतकी छड़ीसे भूमिपर ताड़न किया। इससे वहाँ तत्काल पानीका स्रोत निकल आया, जिसे ‘वेत्रगङ्गा’ कहते हैं। उसके जलका स्पर्श करनेमात्रसे ब्रह्महत्या दूर हो जाती है। मिथिलेश्वर ! उस बेत्रगङ्गामें स्नान करके कोई भी मनुष्य गोलोकधाममें जानेका अधिकारी हो जाता है। मदनमोहनदेव भगवान् श्रीकृष्ण हरि वहाँ श्रीराधा तथा गोपाङ्गनाओंके साथ जलविहार करके कुमुदवनमें गये, जो लता-बेलोंके जालसे मनोहर जान पड़ता था। वहाँ भ्रमरोंकी ध्वनि सब ओर गूँज रही थी। उस वनमें भी सखियोंके साथ श्रीहरिने रास किया। वहीं श्रीराधाने व्रजाङ्गनाओंके सामने नाना प्रकारके दिव्य पुष्पोंद्वारा श्रीकृष्णका शृङ्गार किया। चम्पाके फूलोंसे कटिप्रदेशको अलंकृत किया। सुनहरी जूहीके पुष्पों- द्वारा निर्मित बाजूबंद धारण कराया। सहस्त्रदल कमलकी कर्णिकाओंको कुण्डलका रूप देकर उससे कानोंकी शोभा बढ़ायी गयी। मोहिनी, मालिनी, कुन्द और केतकीके फूलोंसे निर्मित हार श्रीकृष्णने धारण किया। कदम्बके फूलोंसे शोभायमान किरीट और कड़े धारण करके श्रीहरिके श्रीअङ्ग और भी उद्भासित हो उठे थे। मन्दार-पुष्पोंका उत्तरीय (दुपट्टा) और कमलके फूलोंकी छड़ी धारण किये प्रभु श्यामसुन्दर बड़ी शोभा पाते थे। तुलसी-मञ्जरीसे युक्त वनमाला उन्हें विभूषित कर रही थी। राजन् ! अपनी प्रियतमाके द्वारा इस प्रकार शृङ्गार धारण कराये जानेपर श्रीकृष्ण उस कुमुदवनमें हर्षोत्फुल्ल मूर्तिमान् वसन्तकी भाँति शोभा पाने लगे ॥ २६- ३४ ॥(Vrindavan Khand Chapter 16 to 20)

मृदङ्ग, वीणा, वंशी, मुरचंग, झाँझ और करताल आदि वाद्योंके साथ गोपियाँ ताली बजाती हुई मनोहर गीत गाने लगीं। भैरव, मेघमल्लार, दीपक, मालकोश, श्रीराग और हिन्दोल राग- इन सबको पृथक् पृथक् गाकर आठ ताल, तीन ग्राम और सात स्वरोंसे तथा हाव-भाव-समन्वित नाना प्रकारके रमणीय नृत्योंसे कटाक्ष-विक्षेपपूर्वक ब्रजगोपिकाएँ श्रीराधा और श्यामसुन्दरको रिझाने लगीं। वहाँसे मधुर गीत गाते हुए माधव उन सुन्दरियोंके साथ मधुवनमें गये। वहाँ पहुँचकर स्वयं रासेश्वर श्रीकृष्णने रासेश्वरी श्रीराधाके साथ रासक्रीड़ा की। वैशाख मासके चन्द्रमाकी चाँदनीमें प्रकाशमान सौगन्धिक कह्वार-कुसुमोंसे . झरते हुए परागोंसे पूर्ण तथा मालतीकी सुगन्धसे वासित वायु चल रही थी और चारों ओर माधवी लताओंके फूल खिल रहे थे। इन सबसे सुशोभित निर्जन वनमें गोपाङ्गनाओंके साथ श्रीकृष्ण उसी प्रकार रम रहे थे, जैसे नन्दनवनमें देवराज इन्द्र विहार करते हैं ।॥ ३५-४१ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत ‘रासक्रीड़ा’ नामक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २० ॥

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