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तैत्तिरीयोपनिषद हिंदी में

तैत्तिरीयोपनिषद (Taittiriya Upanishad in Hindi) कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा के अंतर्गत तैत्तिरीय आरण्यक का भाग है। तैत्तिरीय आरण्यक के दस अध्यायों में से सातवें, आठवें और नवें अध्यायों को ही तैत्तिरीयोपनिषद कहा जाता है।

यहां एक क्लिक में पढ़े ~ तैत्तिरीयोपनिषद अंग्रेजी में

तैत्तिरीयोपनिषद पर भगवान शंकराचार्य ने जो भाष्य लिखा है वह वहुत हो विचारपूर्ण और युक्ति-युक्त है। उसके आरम्भ में ग्रन्थ का उपोद्घात करते हुए भगवान ने यह बतलाया है कि मोक्षरूप परम- निःश्रेयस की प्राप्ति का एकमात्र हेतु ज्ञान ही है। इसके लिये कोई अन्य साधन नहीं है। मीमांसकों के मतमें ‘खर्ग’ शब्दवाच्य निरतिशय प्रीति (प्रेय) ही मोक्ष है और उसकी प्राप्तिका साधन कर्म है। इस मतका आचार्य ने अनेकों युक्तियों से खण्डन किया है और वर्ग तथा कर्म दोनोंही की अनित्यता सिद्ध की है।

तैत्तिरीयोपनिषद परिचय:

यह शिक्षावल्ली, ब्रह्मानन्दवल्ली और भृगुवल्ली इन तीन खंडों में विभक्त है – कुल 53 मंत्र हैं जो 40 अनुवाकों में दिया गया है। शिक्षावल्ली को सांहिती उपनिषद् एवं ब्रह्मानन्दवल्ली और भृगुवल्ली को वरुण के प्रवर्तक होने से वारुणी उपनिषद् या वारुणी विद्या भी कहते हैं।

तैत्तिरीयोपनिषद (Taittiriya Upanishad in Hindi) में 3 खंड शिक्षावल्ली, ब्रह्मानन्दवल्ली और भृगुवल्ली विभक्त है। इन 3 खंडो में शिक्षावल्ली में 12 अनुवाक और 25 श्लोक, ब्रह्मानंदवल्ली में 9 अनुवाक और 13 मंत्र और भृगुवल्ली में 19 अनुवाक और 15 श्लोक हैं।

ब्रह्मानंद और भृगुवल्ली उपनिषद् में ब्रह्मविद्या का विशेष महत्व है, जो मानव जीवन को ब्रह्म के साक्षात्कार और आनंद की प्राप्ति की दिशा में मार्गदर्शन करती है। इन उपनिषदों में ब्रह्म का स्वरूप सत्य, ज्ञान, और अनंत के रूप में वर्णित किया गया है, जो मानव चेतना के सर्वोत्तम और परम सत्य को सूचित करता है।

इस उपनिषद में ब्रह्म की उत्पत्ति और सृष्टि की प्रक्रिया का विस्तार से विवेचन हुआ है। यहाँ ब्रह्मा के सृष्टिकर्तृ भृगु द्वारा ब्रह्म के सगुण रूप की सृष्टि का वर्णन किया गया है, जो सत, चित्त, आनंद, और प्राण आदि सगुण प्रतीकों के माध्यम से होती है।

इन उपनिषदों के सप्तम अनुवाक में जगत् की उत्पत्ति को ‘असत्’ से बतलाने का प्रयास किया गया है, जो अव्याकृत ब्रह्म का पारिभाषिक शब्द है, जिसे ‘सत्’ नामक व्याकृत रूप में प्रकट किया गया है। यहाँ आनंद का अद्वितीय स्वरूप बताया गया है, जो समस्त सृष्टि में अत्यन्त आनंदपूर्ण है और जिससे श्रोत्रिय पूर्ण आनंद को प्राप्त करता है। इससे स्पष्ट होता है कि इन उपनिषदों में आनंद और ब्रह्म के अद्वितीय स्वरूप की महत्वपूर्ण बातें विस्तार से व्यक्त की गई हैं।

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