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Garga Samhita Vrindavan Khand Chapter 21 to 26

Garga Samhita
Garga Samhita Vrindavan Khand Chapter 21 to 26

॥ श्रीहरिः ॥

ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते

श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः

 

श्री गर्ग संहिता वृन्दावनखण्ड अध्याय 21 से 26
Garga Samhita Vrindavan Khand Chapter 21 to 26

श्री गर्ग संहिता में वृन्दावनखण्ड के इक्कीसवाँ अध्याय से छब्बीसवां अध्याय (Vrindavan Khand Chapter 21 to 26) में गोपाङ्गनाओ के साथ श्रीकृष्ण का वन-विहार, रास-क्रीड़ा; मानवती गोपियों को छोड़कर श्रीराधा के साथ एकान्त-विहार तथा मानिनी श्रीराधा को भी छोड़कर उनका अन्तर्धान होना, गोपाङ्गनाओं द्वारा श्रीकृष्ण का स्तवन; भगवान्का उनके बीचमें प्रकट होना; उनके पूछने पर हंसमुनि के उद्वार की कथा सुनाना तथा गोपियों को क्षीरसागर- श्वेतद्वीप के नारायण-स्वरूपों का दर्शन कराना, कंस और शङ्खचूड में युद्ध तथा मैत्रीका वृत्तान्तः श्रीकृष्ण द्वारा शङ्खचूडका वध, रास-विहार तथा आसुरि मुनिका उपाख्यान, शिव और आसुरि का गोपीरूप से रासमण्डल में श्रीकृष्ण का दर्शन और स्तवन करना तथा उनके वरदान से वृन्दावन में नित्य-निवास पाना, श्रीकृष्ण का विरजाके साथ विहार; श्रीराधा के भय से विरजाका नदीरूप होना, उसके सात पुत्रोंका उसी शापसे सात समुद्र होना तथा राधा के शापसे श्रीदामा का अंशतः शङ्खचूड होने का वर्णन किया गया है।

यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक

इक्कीसवाँ अध्याय

गोपाङ्गनाओंके साथ श्रीकृष्णका वन-विहार, रास-क्रीड़ा; मानवती गोपियोंको छोड़कर श्रीराधाके साथ एकान्त-विहार तथा मानिनी श्रीराधाको भी छोड़कर उनका अन्तर्धान होना

श्रीनारदजी कहते हैं- नरेश्वर । इस प्रकार रमणीय कुमुदवनमें मालती पुष्पोंके सुन्दर वनमें; आम, नारंगी तथा नींबुओंके सघन उपवनमें: अनार, दाख और बादामोंके विपिनमें; कदम्ब, श्रीफल (बेल) और कुटजोंके काननमें; बरगद, कटहल और पीपलों- के सुन्दर वनमें; तुलसी, कोविदार, केतकी, कदली, करील-कुञ्ज, बकुल (मौलिश्री) तथा मन्दारोंके मनोहर विपिनमें विचरते हुए श्यामसुन्दर व्रज- वधूटियोंके साथ कामवनमें जा पहुँचे ॥ १-४ ॥

वहीं एक पर्वतपर श्रीकृष्णने मधुर स्वरमें बाँसुरी बजायी। उसकी मोहक तान सुनकर व्रजसुन्दरियाँ मूच्छित और विह्वल हो गयीं। राजन् ! आकाशमें देवताओंके साथ विमानों पर बैठी हुई देवाङ्गनाएँ भी मोहित हो गयीं। कामदेवके बाणोंसे उनके अङ्ग अङ्ग बिंध गये तथा उनके नीबी-बन्ध ढीले होकर खिसकने लगे। स्थावरोंसहित चारों प्रकारके जीवसमुदाय मोहको प्राप्त हो गये, नदियों और नदोंका पानी स्थिर हो गया तथा पर्वत भी पिघलने लगे। कामवनकी पहाड़ी श्यामसुन्दरके चरणचिह्नोंसे युक्त हो गयी, जिसे ‘चरण-पहाड़ी’ कहते हैं। उसके दर्शनमात्रसे मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है ॥ ५-८ ॥

तदनन्तर राधावल्लभ श्रीकृष्णने नन्दीश्वर तथा बृहत्सानुगिरियोंके तट-प्रान्तमें रास-विलास किया। मिथिलेश्वर ! वहाँ गोपियोंको अपने सौभाग्यपर बड़ा अभिमान हो गया, तब श्रीहरि उन सबको वहीं छोड़ श्रीराधाके साथ अदृश्य हो गये। मिथिलानरेश ! उस निर्जन वनमें श्रीकृष्णके बिना समस्त गोपाङ्गनाएँ विरहकी आगमें जलने लगीं। उनके नेत्र आँसुओंसे भर गये और वे चकित हिरनियोंकी भाँति इधर-उधर भटकने लगीं। जैसे वनमें हाथीके बिना हथिनियाँ और कुररके बिना कुररियाँ व्यथित होकर करुण-क्रन्दन करती हैं, उसी प्रकार श्रीकृष्णको न देखकर व्यथित तथा विरहसे अत्यन्त व्याकुल हो व्रजाङ्गनाएँ फूट- फूटकर रोने लगीं। राजन् ! नरेश्वर ! वे सब-की-सब एक साथ मिलकर तथा पृथक् पृथक् दल बनाकर वन-वनमें जातीं और उन्मत्तकी तरह वृक्षों तथा लता- समूहोंसे पूछतीं- ‘तरुओ तथा वल्लरियो ! शीघ्र बताओ, हमारे प्यारे नन्दनन्दन कहाँ जा छिपे हैं ?’ अपनी वाणीसे ‘श्रीकृष्ण ! श्रीकृष्ण !’ कहकर पुकारती थीं। उनका चित्त श्रीकृष्णचरणारविन्दोंमें ही लगा हुआ था। अतः वे सब अङ्गनाएँ श्री कृष्ण स्वरूपा हो गयीं  ठीक उसी तरह जैसे भृङ्गके द्वारा बंद किया हुआ कीड़ा उसीके चिन्तनसे भृङ्गरूप हो जाता है। इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। श्रीकृष्णकी चरणपादुकासे चिह्नित स्थानपर पहुँचकर गोपियाँ श्रीपादुकाब्जकी शरणमें गयीं। तदनन्तर भगवान्की ही कृपासे उनके चरणचिह्नके अर्चन और दर्शनसे गोपियोंको भगवच्चरणचिह्नोंसे अलंकृत भूमिका विशेषरूपसे दर्शन होने लगा ॥ ९-१६ ॥(Vrindavan Khand Chapter 21 to 26)

बहुलाश्वने पूछा – प्रभो ! राधावल्लभ श्याम- सुन्दर अन्य गोपियोंको छोड़कर श्रीराधिकाके साथ कहाँ चले गये ? फिर गोपियोंको उनका दर्शन कैसे हुआ ? ॥ १७ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! भगवान् श्रीकृष्ण श्रीराधिकाके साथ संकेतवटके नीचे चले गये और वहाँ प्रियतमा श्रीराधाके केशपाशोंकी वेणीमें पुष्परचना करने लगे। श्रीकृष्णके नीले केशोंमें श्रीराधिकाने वक्रता स्थापित की अर्थात् अपने केशरचना कौशलसे उनके केशोंको घुँघराला बना दिया और उनके पूर्ण- चन्द्रोपम मुखमण्डलमें उन्होंने विचित्र पत्रावलीकी रचना की। इस प्रकार परस्पर शृङ्गार करके श्रीकृष्ण प्रियाके साथ भद्रवन, महान् खदिरवन, बिल्ववन और कोकिलावनमें गये। उधर श्रीकृष्णको खोजती हुई गोपियोंने उनके चरणचिह्न देखे। जौ, चक्र, ध्वजा, छत्र, स्वस्तिक, अङ्कुश, बिन्दु, अष्टकोण, वज्ञ, कमल, नीलशङ्ख, घट, मत्स्य, त्रिकोण, बाण, ऊध्वरेखा, धनुष, गोखुर और अर्धचन्द्रके चिह्नोंसे सुशोभित महात्मा श्रीकृष्णके पदचिह्नोंका अनुसरण करती हुई गोपाङ्गनाएँ उन चिह्नोंकी धूलि ले-लेकर अपने मस्तकपर स्वतों और आगे बढ़ती जाती थीं। फिर उन्होंने श्रीकृष्णके चरणचिह्नोंके साथ-साथ दूसरे पदचिह्न भी देखे। वे ध्वजा, पद्म, छत्र, जौ, ऊध्वरेखा, चक्र, अर्धचन्द्र, अङ्कुश और बिन्दुओंसे शोभित थे। विदेहराज । लवङ्गलता, गदा, पाठीन (मत्स्य), शङ्ख, गिरिराज, शक्ति, सिंहासन, रथ और दो बिन्दुओंके चिह्नोंसे विचित्र शोभाशाली उन चरणचिह्नोंको देखकर गोपियाँ परस्पर कहने लगीं ‘निश्चय ही नन्दनन्दन श्रीराधिकाको साथ लेकर गये है।’ श्रीकृष्ण चरण- अरविन्दोंके चिह्न निहारती हुई गोपियाँ कोकिलावनमें जा पहुँचीं ॥ १८-२७ ॥

उन गोपङ्गनाओंका कोलाहल सुनकर माधवने श्रीराधासे कहा- ‘कोटि चन्द्रमाओंको अपने सौन्दर्यसे तिरस्कृत करनेवाली प्रिये श्रीराधे। सब ओरसे गोपिकाएँ आ पहुँची। अब वे तुम्हें अपने साथ ले जायेंगी। अतः यहाँसे जल्दी निकल चलो।’ उस समय रूप, यौवन, कौशल्य (चातुरी) और शौलके गर्वसे गरबीली मानवती राधा रमापत्तिसे बोली ॥ २८-३० ॥

श्रीराधाने कहा- प्यारे ! मैं कभी राजभवनसे बाहर नहीं निकली थी, किंतु आज अधिक चलना पड़ा है; अतः अब एक पग भी चलनेमें समर्थ नहीं हूँ। देखते नहीं, मैं सुकुमारी राजकुमारी पसीना-पसीना हो गया हूँ ? फिर मुझे कैसे ले चलोगे ? ॥ ३१ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- यह वचन सुनकर राधिकावल्लभ श्रीकृष्ण श्रीराधाके ऊपर अपने दिव्य पीताम्बरसे हवा करने लगे। फिर उनका हाथ थामकर बोले- ‘श्रीराधे । अब तुम अपनी मौजसे धीर-धीरे चलो।’ उस समय श्रीकृष्णके वारंवार कहनेपर भी श्रीराधाने अपना पैर आगे नहीं बढ़ाया। वे श्रीहरिको और पीठ करके चुपचाप खड़ी रहीं। तब संतोंके प्रिय श्रीकृष्णने मानिनी प्रिया राधासे कहा ॥ ३२-३४ ॥(Vrindavan Khand Chapter 21 to 26)

श्रीभगवान बोले- मानिनि । यहाँ अन्य गोपियाँ भी मुझसे मिलनेकी हार्दिक कामना रखती हैं, तथापि उन्हें छोड़कर मैं मनसे तुम्हारी आराधना करता हूँ: तुम्हें जो प्रिय हो, वही करता हूँ। राधे ! मेरे कंधेपर चढ़कर तुम सुखपूर्वक शीघ्र यहाँसे चलो ॥ ३५ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- नरेश्वर ! उनके यों कहने- पर प्रियाने जब उनके कंधेपर चढ़ना चाहा, तभी स्वच्छन्द गतिवाले ईश्वर प्रियतम श्रीकृष्ण वहाँसे अन्तर्धान हो गये। राजेन्द्र । फिर तो कीर्तिकुमारी राधाका मान उतर गया। वे उस महान् कोकिलावनमें भगवद्-विरहसे व्याकुल हो उच्चस्वरसे रोदन करने लगीं ॥ ३६-३७ ॥

मिथिलेश्वर । उसी समय गोपियोंक यूथ वहाँ आ पहुँचे। श्रीराधाका अत्यन्त दुःखजनक रोदन सुनकर उन्हें बड़ी दया और लज्जा आयी। कोई अपनी स्वामिनीको पुष्प-मकरन्दों (इत्र आदि) से नहलाने लगीं; कुछ चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और केसरसे मिश्रित जलके छींट देने लगीं; कुछ व्यजन और चैवर डुलाकर अङ्गामें हवा देने लगीं तथा अनुनय-विनयमे कुशल नाना वचनोंद्वारा परादेवी श्रीराधाको धीरज बँधाने लगीं। मैथिलेन्द्र ! श्रीराधाके मुखसे मानी श्रीकृष्णके द्वारा दिये गये सम्मानकी बात सुनकर मानवती गोपाङ्गनाओंको बड़ा विस्मय हुआ ॥ ३८-४१ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनस्खण्डके अन्तर्गत’ रास-क्रीड़ा’ नामक इकोसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २१॥

भगवत गीता से अपनी समस्याओं का समाधान खोजें

बाईसवाँ अध्याय

गोपाङ्गनाओंद्वारा श्रीकृष्णका स्तवन; भगवान्का उनके बीचमें प्रकट होना; उनके पूछनेपर हंसमुनिके उद्वारकी कथा सुनाना तथा गोपियोंको क्षीरसागर- श्वेतद्वीपके नारायण-स्वरूपोंका दर्शन कराना

श्रीनारदजी कहते हैं – राजन् ! तदनन्तर श्रीकृष्णके शुभागमनके लिये समस्त व्रजाङ्गनाएँ मिलकर सुरम्य तालस्वरके साथ उन श्रीहरिके रमणीय गुणोंका गान करने लगीं ॥ १ ॥

गोपियाँ बोलीं- लोकसुन्दर ! जनभूषण ! विश्वदीप ! मदनमोहन ! तथा जगत्की पापराशि एवं पीड़ा हर लेनेवाले ! आनन्दकन्द यदुनन्दन ! नन्दनन्दन । तुम्हारे चरणारविन्दोंका मकरन्द भी परम स्वच्छन्द है, तुम्हें बारंबार नमस्कार है। गौओं, ब्राह्मणों और साधु-संतोंके विजयध्वजरूप ! देववन्द्य तथा कंसादि दैत्योंक वधके लिये अवतार करनेवाले ! धारण श्रीनन्दराज-कुल-कमल- दिवाकर ! देवाधिदेवोंके भी आदिकारण ! मुक्त- जनदर्पण ! तुम्हारी जय हो। गोपवंशरूपी सागरमें परम उज्ज्वल मोतीके समान रूप धारण करने- वाले ! गोपालकुलरूपी गिरिराजके नीलरल ! परमात्मन् ! गोपालमण्डल रूपी सरोवरके प्रफुल्ल कमल ! तथा गोपवृन्दरूपी चन्दनवनके प्रधान कलहंस ! तुम्हारी जय हो। प्यारे श्यामसुन्दर ! तुम श्रीराधिकाके मुखारविन्दका मकरन्द पान करनेवाले मधुप हो; श्रीराधाके मुखचन्द्रकी सुधामयी चन्द्रिका- के आस्वादक चकोर हो; श्रीराधाके वक्षःस्थलपर विद्योतमान चन्द्रहार हो तथा श्रीराधिकारूपिणी माधवीलताके लिये कुसुमाकर (ऋतुराज वसन्त) हो। जो रास-रङ्गस्थलीमें अपने वैभव (लीला- शक्ति) से भूरि-भूरि लीलाएँ प्रकट करते हैं, जो गोपाङ्गनाओंके नेत्रों और जीवनके मूलाधार एवं हारस्वरूप हैं तथा श्रीराधाके मान करनेपर जिन्होंने स्वयं मान कर लिया है, वे श्याम सुन्दर श्रीहरि हमारे नेत्रोंके समक्ष प्रकट हों। जिन्होंने गोपिकाओंके समस्त यूथोंको, श्रीवृन्दावन की भूमिको तथा गिरिराज गोंवर्धनको अपनी चरण-धूलिसे अलंकृत किया है, जो सम्पूर्ण जगत्के उद्भव तथा पालनके लिये भूतलपर प्रकट हुए हैं; जिनकी कान्ति अत्यन्त श्याम है और भुजाएँ नागराजके शरीरकी भाँति सुशोभित होती हैं, उन नन्दनन्दन माधवकी हम आराधना करती हैं। प्राणनाथ। तुम्हारे बिना वियोग-व्यथासे पीड़ित हुई हम सब गोपियोंको चन्द्रमा सूर्यकी किरणोंके समान दाहक प्रतीत होता है। यह सम्पूर्ण वनान्त-भाग जो पहले प्रसन्नताका केन्द्र था, अब इसमें आनेपर ऐसा जान पड़ता है, मानो हमलोग असिपत्रवनमें प्रविष्ट हो गयी हैं और अत्यन्त मन्द मन्द गतिसे प्रवाहित होनेवाली वायु हमें बाण-सी लगती है। हरे ! राजा सौदासकी रानी मदयन्तीको अपने पतिके विरहसे जो दुःख हुआ था, उससे हजारगुना दुःख नलकी महारानी दमयन्ती को पति-वियोगके कारण प्राप्त हुआ था। उनसे भी कोटिगुना अधिक दुःख पतिविरहिणी जनकनन्दिनी सीताको हुआ था और उनसे भी अनन्तगुना अधिक दुःख आज हम सबको हो रहा है ॥ २-९ ॥(Vrindavan Khand Chapter 21 to 26)

श्रीनारदजी कहते हैं – राजन् ! इस प्रकार रोती हुई गोपाङ्गनाओंके बीचमें कमलनयन श्रीकृष्ण सहसा प्रकट हो गये, मानो अपना अभीष्ट मनोरथ स्वयं आकर मिल गया हो। उनके मस्तकपर किरीट, भुजाओंमें केयूर और अङ्गद तथा कानोंमें कुण्डल नामक भूषण अपनी दीप्ति फैला रहे थे। स्निग्ध, निर्मल, सुगन्धपूर्ण, नीले, घुँघराले केश-कलाप मनको मोहे लेते थे। उन्हें आया हुआ देख समस्त व्रजाङ्गनाएँ एक साथ उठकर खड़ी हो गयीं, जैसे शब्दादि सूक्ष्म- भूतोंके समूहको देखकर ज्ञानेन्द्रियाँ सहसा सचेष्ट हो जाती हैं राजन् ! उन गोपसुन्दरियोंके मध्यभागमें राधाके साथ श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण बाँसुरी बजाते हुए इस प्रकार नृत्य करने लगे, मानो रतिके साथ मूर्तिमान् काम नाच रहा हो। जितनी संख्यामें समस्त गोपियाँ थीं, उतने ही रूप धारण करके श्रीहरि उनके साथ व्रजमें रास-विहार करने लगे – ठीक उसी तरह, जैसे जाग्रत् आदि अवस्थाओंके साथ मन क्रीड़ा कर रहा हो। उस समय उस वनप्रदेशमें दुःखरहित हुई व्रजाङ्गनाएँ वहाँ खड़े हुए श्यामसुन्दर श्रीकृष्णसे हाथ जोड़ गद्रद वाणीमें बोलीं ॥ १०-१५ ॥

गोपियोंने पूछा – श्यामसुन्दर ! जो सारे जगत्- को तिनकेकी भाँति त्यागकर तुम्हारे चरणारविन्दोंमें अपना तन, मन और प्राण अर्पित कर चुकी हैं, उन्हीं इन गोपियोंके इस महान् समुदायको छोड़कर तुम कहाँ चले गये थे ? ॥ १६ ॥

श्रीभगवान बोले – गोपाङ्गनाओ ! पुष्करद्वीपके दधिमण्डोद समुद्रके भीतर रहकर ‘हंस’ नामक महामुनि तपस्या कर रहे थे। वे मेरे ध्यानमें रत रहकर बिना किसी हेतु या कामनाके भजन करते थे। उन तपस्वी महामुनिको तपस्या करते हुए दो मन्वन्तरका समय इसी तरह बीत गया। उन्हें आज ही आधे योजन लंबा शरीर धारण करनेवाला एक मत्स्य निगल गया था। फिर उसे भी मत्स्यरूपधारी महान् असुर पौण्ड्र निगल गया। इस प्रकार कष्टमें पड़े हुए मुनिवर हंसके उद्धारके लिये मैं शीघ्र वहाँ गया और चक्रसे उन दोनों मत्स्यों का वध करके मुनिको संकटसे छुड़ाकर श्वेत- द्वीपमें चला गया। व्रजाङ्गनाओ ! वहाँ क्षीरसागरके भीतर शेषशय्यापर मैं सो गया था। फिर अपनी प्रियतमा तुम सब गोपियोंको दुःखी जान नींद त्यागकर सहसा यहाँ आ पहुँचा; क्योंकि मैं सदा भक्तोंके वशमें रहता हूँ। जो जितेन्द्रिय, समदर्शी तथा किसी भी वस्तुकी इच्छा न रखनेवाले महान् संत हैं, वे निरपेक्षताको ही मेरा परम सुख जानते हैं; जैसे ज्ञानेन्द्रियाँ आदि रस आदि सूक्ष्म भूतोंको ही सुख समझते हैं। ॥ १७-२३ ॥

गोपियोंने कहा- माधव ! यदि हमपर प्रसन्न हों तो क्षीरसागरमें शेषशय्यापर तुमने जो रूप धारण किया था, उसका हमें भी दर्शन कराओ ॥ २४ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- तब ‘तथास्तु’ कहकर भगवान् गोपी-समुदायके देखते-देखते आठ भुजाधारी नारायण हो गये और श्रीराधा लक्ष्मीरूपा हो गयीं। वहीं चञ्चल तरङ्गमालाओंसे मण्डित क्षीरसागर प्रकट हो गया। दिव्य रत्नमय मङ्गलरूप प्रासाद दृष्टिगोचर होने लगे। वहीं कमलनालके सदृश श्वेत शेषनाग कुण्डली बाँधे स्थित दिखायी दिये, जो बालसूर्यके समान तेजस्वी सहस्त्र फनोंके छत्रसे सुशोभित थे। उस शेषशय्यापर माधव सुखसे सो गये तथा लक्ष्मीरूप- धारिणी श्रीराधा उनके चरण दबानेकी सेवा करने लगीं। करोड़ों सूर्योक समान तेजस्वी उस सुन्दर रूपको देखकर गोपियोंने प्रणाम किया और वे सभी परम आश्चर्यमें निमग्न हो गयीं। मैथिल ! जहाँ श्रीकृष्णने गोपियोंको इस रूपमें दर्शन दिया था, वह परम पुण्यमय पापनाशक क्षेत्र बन गया ॥ २५-३० ॥(Vrindavan Khand Chapter 21 to 26)

तदनन्तर माधव गोपाङ्गनाओंके साथ यमुना-तटपर आकर कालिन्दीके वेगपूर्ण प्रवाहमें संतरण-कला- केलि करने लगे। श्रीराधाके हाथसे उनका लक्षदल कमल और चादर लेकर माधव पानीमें दौड़ते तथा हँसते हुए दूर निकल गये। तब श्रीराधा भी उनके चमकीले पीताम्बर, वंशी और बेंत लेकर हँसती हुई यमुनाजलमें चली गयीं। अब महात्मा श्रीकृष्ण उन्हें माँगते हुए बोले- ‘राधे ! मेरी बाँसुरी दे दो।’ श्रीराधा कहने लगीं- ‘माधव ! मेरा कमल और वस्त्र लौटा दो।’ श्रीकृष्णने श्रीराधाको कमल और वस्त्र दे दिये। तब श्रीराधाने भी महात्मा श्रीकृष्णको वंशी, पीताम्बर और बेंत लौटा दिये। तदनन्तर श्रीकृष्ण आजानु- लम्बिनी (घुटनेतक लटकती हुई) वैजयन्ती माला धारण किये, मधुर गीत गाते हुए भाण्डीरवनमें गये। वहाँ चतुर-चूडामणि श्यामसुन्दरने प्रियाका शृङ्गार किया। भाल तथा कपोलोंपर पत्ररचना की, पैरोंमें महावर लगाया, फूलोंकी माला धारण करायी, वेणी को भी फूलोंसे सजाया, ललाटमें कुङ्कुमकी बेंदी तथा नेत्रोंमें काजल लगाया। इसी प्रकार कीर्तिनन्दिनी श्रीराधाने भी उस शृङ्गार-स्थलमे चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और केसर आदिसे श्रीहरिके मुखपर मनोहर पत्र- रचना की ॥ ३१-३८ ॥

इस प्रकार श्रीगर्ग-संहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत ‘रास-क्रीड़ा’ नामक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २२ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ सुश्रुत संहिता

तेईसवाँ अध्याय

कंस और शङ्खचूडमें युद्ध तथा मैत्रीका वृत्तान्तः श्रीकृष्णद्वारा शङ्खचूडका वध

श्रीनारदजी कहते हैं – राजन् । तत्पश्चात्श्री कृष्ण व्रजाङ्गनाओंके साथ लोहजड्ङ्ग-वनमें गये, जो वसन्तकी माधवी तथा अन्यान्य लता-वल्लरियोंसे व्याप्त था। उस वनके सुगन्ध बिखेरनेवाले सुन्दर फूलोंके हारोंसे श्रीहरिने वहाँ समस्त गोपियोंकी वेणियाँ अलंकृत कीं। भ्रमरोंकी गुंजारसे निनादित और सुगन्धित वायुसे वासित यमुनातटपर अपनी प्रेयसियों- के साथ श्यामसुन्दर विचरने लगे। विचरते-विचरते रासेश्वर श्रीकृष्ण उस महापुण्यवनमें जा पहुँचे, जो करील, पीलू तथा श्याम तमाल और ताल आदि सघन वृक्षोंसे व्याप्त था। वहाँ रासेश्वरी श्रीराधा और गोपाङ्गनाओंके साथ उनके मुखसे अपना यशोगान सुनते हुए श्रीहरिने रास आरम्भ किया। उस समय वे यश गाती हुई अप्सराओंसे घिरे हुए देवराज इन्द्रके समान सुशोभित हो रहे थे ॥ १-५ ॥

राजन् ! वहाँ एक विचित्र घटना घटित हुई, उसे तुम मेरे मुखसे सुनो। शङ्खचूड नामसे प्रसिद्ध एक बलवान् यक्ष था, जो कुबेरका सेवक था। इस भूतल- पर उसके समान गदायुद्ध-विशारद योद्धा दूसरा कोई नहीं था। एक दिन मेरे मुँहसे उग्रसेनकुमार कंसके उत्कट बलकी बात सुनकर वह प्रचण्ड-पराक्रमी यक्षराज लाख भार लोहेकी बनी हुई भारी गदा लेकर अपने निवासस्थानसे मथुरामें आया। उस मदोन्मत्त वीरने राजसभामें पहुँचकर वहाँ सिंहासनपर बैठे हुए कंसको प्रणाम किया और कहा- राजन् ! सुना है कि तुम त्रिभुवनविजयी वीर हो; इसलिये मुझे अपने साथ गदायुद्धका अवसर दो। यदि तुम विजयी हुए तो मैं तुम्हारा दास हो जाऊँगा और यदि मैं विजयी हुआ तो तत्काल तुम्हें अपना दास बना लूंगा।’ विदेहराज !तब ‘तथास्तु’ कहकर, एक विशाल गदा हाथमें ले, कंस रङ्गभूमिमें शङ्खचूडके साथ युद्ध करने लगा। उन दोनोंमें घोर गदायुद्ध प्रारम्भ हो गया। दोनोंके परस्पर आघात प्रत्याघातसे होनेवाला चट चट शब्द प्रलय कालके मेघोंकी गर्जना और बिजलीका गड़गड़ाहटके समान जान पड़ता था। उस रङ्गभूमिमें दो मल्लों, नाट्यमण्डलीके दो नटों, विशाल अङ्गवाले दो गजराजों तथा दो उद्भट सिंहोंके समान कंस और शङ्खचूड परस्पर जूझ रहे थे। राजन् ! एक-दूसरेको जीत लेनेकी इच्छासे जूझते हुए उन दोनों वीरोंकी गदाएँ आगकी चिनगारियाँ बरसाती हुई परस्पर टकराकर चूर-चूर हो गयीं। कंसने अत्यन्त कोपसे भरे हुए यक्षको मुक्केसे मारा; तब शङ्खचूडने भी कंसपर मुक्केसे प्रहार किया। इस तरह मुक्का-मुक्की करते हुए उन दोनोंको सत्ताईस दिन बीत गये। दोनोंमेंसे किसीका बल क्षीण नहीं हुआ। दोनों ही एक-दूसरेके पराक्रम से चकित थे। तदनन्तर दैत्यराज महाबली कंसने शङ्खचूडको सहसा पकड़ कर बलपूर्वक आकाशमें फेंक दिया। वह सौ योजन ऊपर चला गया। शङ्खचूड आकाशसे जब वेगपूर्वक नीचे गिरा तो उसके मनमें किंचित् व्याकुलता आ गयी, तथापि उसने भी कंसको पकड़कर आकाश- में दस हजार योजन ऊँचे फेंक दिया। कंस भी आकाश से गिरनेपर मन-ही-मन कुछ व्याकुल हो उठा। फिर उसने यक्षको पकड़कर सहसा पृथ्वीपर दे मारा। फिर शङ्खचूडने भी कंसको पकड़कर भूमिपर पटक दिया। इस प्रकार घोर युद्ध चलते रहनेके कारण भूमण्डल काँपने लगा। इसी बीचमें सर्वज्ञ मुनिवर साक्षात् गर्गाचार्य वहाँ आ गये। दोनोंने रङ्गभूमिमें उन्हें देखकर प्रणाम किया तब गर्गने ओजस्विनी वाणीमें कंससे कहा ॥ ६- २१ ॥(Vrindavan Khand Chapter 21 to 26)

श्रीगर्गजी बोले – राजेन्द्र ! युद्ध न करो। इस युद्धसे कोई फल मिलनेवाला नहीं है। यह मह्मबली शङ्खचूड तुम्हारे समान ही वीर है। तुम्हारे मुक्केकी मार खाकर गजराज ऐरावतने धरतीपर घुटने टेक दिये थे और उसे अत्यन्त मूर्च्छा आ गयी थी। और भी बहुत-से दैत्य तुम्हारे मुक्केकी मार खाकर मृत्युके ग्रास बन गये हैं, परंतु शङ्खचूड धराशायी नहीं हो सका । इसमें संदेह नहीं कि यह तुम्हारे लिये अजेय है। इसका कारण सुनो। वे परिपूर्णतम परमात्मा जैसे तुम्हारा वध करनेवाले हैं, उसी तरह भगवान् शिवके वरसे बलशाली हुए इस शङ्खचूडको भी मारेंगे। अतः यदुनन्दन । तुम्हें शङ्खचूडपर प्रेम करना चाहिये। यक्षराज ! तुम्हें भी अवश्य ही कंसपर प्रेमभाव रखना चाहिये ॥ २२-२६ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! गर्गाचार्यजीके यों कहनेपर शङ्खचूड तथा कंस – दोनों परस्पर मिले और एक-दूसरेसे अत्यन्त प्रेम करने लगे। तदनन्तर कंससे बिदा ले शङ्खचूड अपने घरको जाने लगा। रात्रिके समय मार्गमें उसे रासमण्डल मिला। वहाँ ताल-स्वरसे युक्त मनोहर गान उसके कानमें पड़ा। फिर उसने रासमें श्रीरासेश्वरीके साथ रासेश्वर श्रीकृष्णका दर्शन किया। उनकी बायीं भुजा श्रीराधाके कंधेपर सुशोभित थी। वे स्वेच्छानुसार अपने दाहिने पैरको टेढ़ा किये खड़े थे। हाथमें वंशी लिये मुखसे सुन्दर मन्द हासकी छटा छिटका रहे थे। उनके भूमण्डलपर राशि-राशि कामदेव मोहित थे। व्रज- सुन्दरियोंके यूथपति व्रजेश्वर श्रीकृष्ण कोटि-कोटि छत्र-चैवरोंसे सुसेवित थे। उन्हें अत्यन्त कोमल शिशु जानकर शङ्खचूडने गोपियोंको हर ले जानेका विचार किया ॥ २७-३१ ॥

बहुलाश्वने पूछा – विप्रवर ! आप भूत और भविष्य – सब जानते हैं; अतः बताइये, रासमण्डलमें शङ्खचूडके आनेपर क्या हुआ ? ॥ ३२ ॥

श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! शङ्खचूडका मुँह था बाघके समान और शरीरका रंग था एकदम काला- कलूटा। वह दस ताड़के बराबर ऊँचा था और जीभ लपलपाकर जबड़े चाटता हुआ बड़ा भयंकर जान पड़ता था। उसे देखकर गोपाङ्गनाएँ भयसे थर्रा उठीं और चारों ओर भागने लगीं। इससे महान् कोलाहल होने लगा। इस प्रकार शङ्खचूडके आते ही रासमण्डल- में हाहाकार मच गया। वह कामपीड़ित दुष्ट यक्षराज शतचन्द्रानना नामवाली गोपसुन्दरीको पकड़कर बिना किसी भय और आशङ्काके उत्तर दिशाकी ओर दौड़ चला। शतचन्द्रानना भयसे व्याकुल हो ‘कृष्ण ! कृष्ण !!’ पुकारती हुई रोने लगी। यह देख श्रीकृष्ण अत्यन्त कुपित हो, शालका वृक्ष हाथमें लिये, उसके पीछे दौड़े। कालके समान दुर्जय श्रीकृष्णको पीछा करते देख यक्ष उस गोपीको छोड़कर भयसे विह्वल हो प्राण बचानेकी इच्छासे भागा। महादुष्ट शङ्खचूड भागकर जहाँ-जहाँ गया, वहाँ-वहाँ श्रीकृष्ण भी शालवृक्ष हाथमें लिये अत्यन्त रोषपूर्वक गये ॥ ३३-३८ ॥(Vrindavan Khand Chapter 21 to 26)

राजन् ! हिमालयकी घाटीमें पहुँचकर उस यक्षराजने भी एक शाल उखाड़ लिया और उनके सामने विशेषतः युद्धकी इच्छासे वह खड़ा हो गया। भगवान्ने अपने बाहुबलसे शङ्खचूडपर उस शालवृक्षको दे मारा। उसके आघातसे शङ्खचूड आँधीके उखाड़े हुए पेड़की भाँति पृथ्वीपर गिर पड़ा। शङ्खचूडने फिर उठकर भगवान् श्रीकृष्णको मुक्केसे मारा। मारकर वह दुष्ट यक्ष सम्पूर्ण दिशाओंको निनादित करता हुआ सहसा गरजने लगा। तब श्रीहरिने उसे दोनों हाथोंसे पकड़ लिया और भुजाओंके बलसे घुमाकर उसी तरह पृथ्वीपर पटक दिया जैसे वायु उखाड़े हुए कमलको फेंक देती है शङ्खचूडने भी श्रीकृष्णको पकड़कर धरतीपर दे मारा। जब इस प्रकार युद्ध चलने लगा, तब सारा भूमण्डल काँप उठा। तब माधव श्रीकृष्णने मुक्केकी मारसे उसके सिरको धड़से अलग कर दिया और उसकी चूडामणि ले ली – ठीक उसी तरह जैसे कोई पुण्यात्मा पुरुष कहींसे निधि प्राप्त कर लेता है। नरेश्वर ! शङ्खचूडके शरीरसे एक विशाल ज्योति निकली और दिङ्मण्डलको विद्योतित करती हुई व्रजमें श्रीकृष्णसखा श्रीदामाके भीतर विलीन हो गयी। इस प्रकार शङ्खचूडका वध करके भगवान मधुसूदन, हाथमें मणि लिये, फिर शीघ्र ही रास- मण्डलमें आ गये। दीनवत्सल श्रीहरिने वह मणि शतचन्द्राननाको दे दी और पुनः समस्त गोपाङ्गनाओंके साथ रास आरम्भ किया ॥ ३९-४७ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत रासक्रीड़ाके प्रसङ्गमें ‘शङ्खचूडका वध’ नामक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २३ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ रघुवंशम् महाकाव्य प्रथमः सर्गः

चौबीसवाँ अध्याय

रास-विहार तथा आसुरि मुनिका उपाख्यान

नारदजी कहते हैं- तदनन्तर गोपीगणोंके साथ यमुनातटका दृश्य देखते हुए श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण रास-विहारके लिये मनोहर वृन्दावनमें आये। श्रीहरिके वरदानसे वृन्दावनकी ओषधियाँ विलीन हो गयीं और वे सब-की-सब व्रजाङ्गना होकर, एक यूथके रूपमें संघटित हो, रासगोष्ठीमें सम्मिलित हो गयीं। मिथिलेश्वर ! लतारूपिणी गोपियोंका समूह विचित्र कान्तिसे सुशोभित था उन सबके साथ वृन्दावनेश्वर श्रीहरि वृन्दावनमें विहार करने लगे। कदम्ब-वृक्षोंसे आच्छादित कालिन्दीके सुरम्य तटपर सब ओर शीतल, मन्द, सुगन्ध वायु चलकर उस स्थानको सुगन्धपूर्ण कर रही थी। वंशीवट उस सुन्दर पुलिनकी रमणीयताको बढ़ा रहा था। रासके श्रमसे थके हुए श्रीकृष्ण वहीं श्रीराधाके साथ आकर बैठे। उस समय गोपाङ्गनाओंके साथ-साथ आकाशस्थित देवता भी वीणा, ताल, मृदङ्ग, मुरचंग आदि भाँति-भाँतिके वाद्य बजा रहे थे तथा जय-जयकार करते हुए दिव्य फूल बरसा रहे थे। गोप-सुन्दरियाँ श्रीहरिको आनन्द प्रदान करती हुई उनके उत्तम यश गाने लगीं। कुछ गोपियाँ मेघमल्लार नामक राग गातीं तो अन्य गोपियाँ दीपक राग सुनाती थीं। राजन् ! कुछ गोपियोंने क्रमशः मालकोश, भैरव, श्रीराग तथा हिन्दोल रागका सात स्वरोंके साथ गान किया। नरेश्वर । उनमेंसे कुछ गोपियाँ तो अत्यन्त भोली-भाली थीं और कुछ मुग्धाएँ थीं। कितनी ही प्रेमपरायणा गोपसुन्दरियाँ प्रौढा नायिकाकी श्रेणीमें आती थीं। उन सबके मन श्रीकृष्ण में लगे थे। कितनी ही गोपाङ्गनाएँ जारभावसे गोविन्द- की सेवा करती थीं। कोई श्रीकृष्णके साथ गेंद खेलने लगों, कुछ श्रीहरिके साथ रहकर परस्पर फूलोंसे क्रीड़ा करने लगीं। कितनी ही गोपाङ्गनाएँ पैरोंमें नूपुर धारण करके परस्पर नृत्य-क्रीड़ा करती हुई नूपुरोंकी झंकारके साथ-साथ श्रीकृष्णके अधरामृतका पान कर लेती थी। कितनी ही गोपियाँ योगियोंके लिये भी दुर्लभ श्रीकृष्णको दोनों भुजाओं से पकड़कर हँसती हुई अत्यन्त निकट आ जातीं और उनका गाढ़ आलिङ्गन करती थीं ॥ १-१३ ॥(Vrindavan Khand Chapter 21 to 26)

इस प्रकार परम मनोहर वृन्दावनाधीश्वर यदुराज भगवान् श्रीहरि केसरका तिलक धारण किये, गोपियों के साथ वृन्दावनमें विहार करने लगे। कुछ गोपाङ्गनाएँ वंशीधरकी बाँसुरीके साथ वीणा बजाती थीं और कितनी ही मृदङ्ग बजाती हुई भगवान्के गुण गाती थीं। कुछ श्रीहरिके सामने खड़ी हो मधुर स्वरसे खड़ताल बजातीं और बहुत-सी सुन्दरियाँ माधवी लताके नीचे चंग बजाती हुई श्रीकृष्णके साथ सुस्थिर- भावसे गीत गाती थीं। वे भूतलपर सांसारिक सुखको सर्वथा भुलाकर वहाँ रम रही थीं। कुछ गोपियाँ लतामण्डपोंमे श्रीकृष्णके हाथको अपने हाथमें लेकर इधर-उधर घूमती हुई वृन्दावनकी शोभा निहारती थीं। किन्हीं गोपियोंक हार लता-जालसे उलझ जाते, तब गोविन्द उनके वक्षःस्थलका स्पर्श करते हुए उन हारोंको लता-जालोंसे पृथक् कर देते थे। गोष सुन्दरियोंकी नासिकामें जो नकबेसरें थीं, उनमें मोतीकी लड़ियाँ पिरोयी गयी थी। उनको तथा उनको अलकावलियोंको श्यामसुन्दर स्वयं संभालते और धीरे-धीरे सुलझाकर सुशोभन बनाते रहते थे। माधवके चबाये हुए सुगन्धयुक्त ताम्बूलमेंसे आधा लेकर तत्काल गोपसुन्दरियाँ भी चबाने लगती थीं। अहो ! उनका कैसा महान् तप था। कितनी ही गोपियाँ हँसती हुई श्यामसुन्दरके कपोलोंपर अपनी दो अंगुलियोंसे धीर-धीरे छूतों और कोई हँसती हुई बलपूर्वक हलका-सा आघात कर बैठती थीं। कदम्ब- वृक्षोंके नीचे पृथक् पृथक् सभी गोपाङ्गनाओंके साथ उनका क्रीडा-विनोद चल रहा था ॥ १४-२१३ ॥

मिथिलेश्वर ! कुछ गोपाङ्गनाएँ पुरुष-वेष धारण- कर, मुकुट और कुण्डलोंसे मण्डित हो, स्वयं नायक बन जातीं और श्रीकृष्णके सामने उन्हींकी तरह नृत्य करने लगती थीं। जिनकी मुख-कान्ति शत-शत चन्द्रमाओं- को तिरस्कृत करती थी, ऐसी गोपसुन्दरियाँ श्रीराधाका वेष धारण करके श्रीराधा तथा उनके प्राणवल्लभको आनन्दित करती हुई उनके यश गाती थीं। कुछ व्रजाङ्गनाएँ स्तम्भ, स्वेद आदि सात्त्विक भावोंसे युक्त, प्रेम-विह्वल एवं परमानन्दमें निमग्न हो, योगिजनोंकी भाति समाधिस्थ होकर भूमिपर बैठ जाती थीं। कोई लतामि, वृक्षोंमें, भूतलमें, विभिन्न दिशाओंमें तथा अपने-आपमें भी भगवान् श्रीपतिका दर्शन करती हुई मौनभाव धारण कर लेती थीं। इस प्रकार रासमण्डलमें सर्वेश्वर, भक्तवत्सल गोविन्दको शरण ले, वे सब गोप- सुन्दरियाँ पूर्णमनोरथ हो गयीं। महामते राजन् । वहाँ गोपियोंको भगवान्का जो कृपाप्रसाद प्राप्त हुआ, वह ज्ञानियोंको भी नहीं मिलता, फिर कर्मियोंको तो मिल ही कैसे सकता है ? ॥ २२-२७ ॥

महामते । इस प्रकार राधावल्लभ प्रभु श्यामसुन्दर श्रीकृष्णचन्द्रके रासमें जो एक विचित्र घटना हुई, उसे सुनो। श्रीकृष्णके प्रिय भक्त एवं महातपस्वी एक मुनि थे, जिनका नाम ‘आसुरि’ था। वे नारदगिरिपर श्रीहरिके ध्यानमें तत्पर हो तपस्या करते थे। हृदय- कमलमें ज्योतिर्मण्डलके भीतर राधासहित मनोहर- मूर्ति श्यामसुन्दर श्रीकृष्णका वे चिन्तन किया करते थे। एक समय रातमें जब मुनि ध्यान करने लगे, तब श्रीकृष्ण उनके ध्यानमें नहीं आये। उन्होंने वारंवार ध्यान लगाया, किंतु सफलता नहीं मिली। इससे वे महामुनि स्तिन्न हो गये। फिर वे मुनि ध्यानसे उठकर श्रीकृष्णदर्शनकी लालसासे बदरीखण्डमण्डित नारायणाश्रमको गये; किंतु वहाँ उन मुनीश्वरको मर नारायणके दर्शन नहीं हुए। तब अत्यन्त विस्मित हो, वे ब्राह्मण देवता लोकालोक पर्वतपर गये; किंतु वहाँ सहस्र सिरवाले अनन्तदेवका भी उन्हें दर्शन नहीं हुआ। तब उन्होंने वहाँके पार्षदोंसे पूछा- ‘भगवान् यहाँसे कहाँ गये हैं ?’ उन्होंने उत्तर दिया- ‘हम नहीं जानते।’ उनके इस प्रकार उत्तर देनेपर उस समय मुनिके मनमें बड़ा खेद हुआ। फिर वे क्षीरसागरसे सुशोभित श्वेतद्वीपमें गये; किंतु वहाँ भी शेषशय्यापर श्रीहरिका दर्शन उन्हें नहीं हुआ। तब मुनिका चित्त और भी खिन्न हो गया। उनका मुख प्रेमसे पुलकित दिखायी देता था। उन्होंने पार्षदोंसे पूछा- ‘भगवान् यहाँस कहाँ चले गये ?’ पुनः वही उत्तर मिला- ‘हमलोग नहीं जानते।’ उनके यों कहनेपर मुनि भारी चिन्तामें पड़ गये और सोचने लगे – ‘क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? कैसे श्रीहरिका दर्शन हो ?’ ॥ २८-३८ ॥(Vrindavan Khand Chapter 21 to 26)

यों कहते हुए मनके समान गतिशील आसुरिमुनि वैकुण्ठधाममें गये; किंतु वहाँ भी लक्ष्मीके साथ निवास करनेवाले भगवान् नारायणका दर्शन उन्हें नहीं हुआ। नरेश्वर । वहाँके भक्तोंमें भी आसुरि मुनिने भगवान्को नहीं देखा। तब वे योगीन्द्र मुनीश्वर गोलोकमें गये; परंतु वहाँके वृन्दावनीय निकुञ्जमें भी परात्पर श्रीकृष्णका दर्शन उन्हें नहीं हुआ। तब मुनिका चित्त खिन्न हो गया और वे श्रीकृष्ण-विरहसे अत्यन्त व्याकुल हो गये। वहाँ उन्होंने पार्षदोंसे पूछा- ‘भगवान् यहाँसे कहाँ गये हैं?’ तब वहाँ रहनेवाले पार्षद गोपनि उनसे कहा- ‘वामनावतारके ब्रह्माण्डमें, जहाँ कभी पृश्निगर्भ अवतार हुआ था, वहाँ साक्षात् भगवान् पधारे हैं।’ उनके यों कहनेपर महामुनि आसुरि वहाँसे उस ब्रह्माण्डमें आये। श्रीहरिका दर्शन न होनेसे तीव्र गतिसे चलते हुए मुनि कैलास पर्वतपर गये। वहाँ महादेवजी श्रीकृष्णके ध्यानमें तत्पर होकर बैठे थे। उन्हें नमस्कार करके रात्रिमें खिन्न-चित्त हुए महामुनिने पूछा ॥ ३९-४४३ ॥

आसुरि बोले- भगवन् । मैंने सारा ब्रह्माण्ड इधर-उधर छान डाला, भगवद्दर्शनको इच्छासे वैकुण्ठसे लेकर गोलोकतकका चक्कर लगा आया, – किंतु कहीं भी देवाधिदेवका दर्शन मुझे नहीं हुआ। सर्वज्ञशिरोमणे । बताइये, इस समय भगवान् कहाँ है ? ॥ ४५-४६ ॥

श्रीमहादेवजी बोले- आसुरे ! तुम धन्य हो। ब्रहान् ! तुम श्रीकृष्णके निष्काम भक्त हो। महामुने । मैं जानता हूँ, तुमने श्रीकृष्णदर्शनकी लालसासे महान् क्लेश उठाया है। क्षीरसागरमें रहनेवाले हंसमुनि बड़े कष्टमें पड़ गये थे। उन्हें उस क्लेशसे मुक्त करनेके लिये जो बड़ी उतावलीके साथ वहाँ गये थे, वे हो भगवान् रसिकशेखर साक्षात् श्रीकृष्ण अभी-अभी वृन्दावनमें आकर सखियोंके साथ रास-क्रीडा कर रहे हैं। मुने। आज उन देवेश्वरने अपनी मायासे छः महीने बराबर बड़ी रात बनायी है। मैं उसी – रासोत्सवका दर्शन करनेके लिये वहाँ जाऊँगा। तुम भी शीघ्र ही चलो, जिससे तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो जाय ॥ ४७-५० ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्ड के अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व-संवादमें रासक्रीड़ा प्रसङ्गमें ‘आसुरि मुनिका उपाख्यान’ नामक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २४ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ ऐतरेयोपनिषद्

पचीसवाँ अध्याय

शिव और आसुरिका गोपीरूपसे रासमण्डलमें श्रीकृष्णका दर्शन और स्तवन करना तथा उनके वरदानसे वृन्दावनमें नित्य-निवास पाना

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! भगवान् शिव आसुरिके साथ सम्पूर्ण हृदयसे ऐसा निश्चय करके वहाँसे चले। वे दोनों श्रीकृष्णदर्शनके लिये ब्रज- मण्डलमें गये। वहाँकी भूमि दिव्य वृक्षों, लताओं, कुञ्जों और गुमटियोंसे सुशोभित थी। उस दिव्य भूमिका दर्शन करते हुए दोनों ही यमुनातटपर गये। उस समय अत्यन्त बलशालिनी गोलोकवासिनी गोप- सुन्दरियाँ हाथमें बेंतकी छड़ी लिये वहाँ पहरा दे रही थीं। उन द्वारपालिकाओंने मार्गमें स्थित होकर उन्हें बलपूर्वक रासमण्डलमें जानेसे रोका। वे दोनों बोले- ‘हम श्रीकृष्णदर्शनकी लालसासे यहाँ आये हैं।’ नृपश्रेष्ठ ! तब राह रोककर खड़ी द्वारपालिकाऑन उन दोनोंसे कहा ॥ १-४॥(Vrindavan Khand Chapter 21 to 26)

द्वारपालिकाएँ बोली- विप्रवरी। हम कोटि- कोटि गोपाङ्गनाएँ वृन्दावनको चारों ओरसे घेरकर निरन्तर ग्रसमण्डलकी रक्षा कर रही है। इस कार्यमें श्यामसुन्दर ओकृष्णने ही हमें नियुक्त किया है। इस एकान्त ग्रसमण्डलमें एकमात्र श्रीकृष्ण ही पुरुष है। उस पुरुषरहित एकान्त स्थानमें गोपीयूथक्के सिवा दूसरा कोई कभी नहीं जा सकता। मुनियो । यदि तुम दोनों उनके दर्शनके अभिलाषी हो तो इस मानसरोवर में स्नान करो। वहाँ तुम्हें शीघ्र ही गोपीस्वरूपकी प्राप्ति हो जायगी, तब तुम ग्रसमण्डलके भीतर जा सकते हो ॥ ५-७॥

श्रीनारदजी कहते हैं- द्वारपालिकाओंक यो कहनेपर वे मुनि और शिव मानसरोवरमें स्नान करके, गोपीभावको प्राप्त हो, सहसा ग्रसमण्डलमें गये ॥ ८॥

सुवर्णजटित पद्मरागमयी भूमि उस रासमण्डलकी मनोहरता बढ़ा रही थी। वह सुन्दर प्रदेश माधवीलता- समूहोंसे व्याप्त और कदम्बवृक्षोंसे आच्छादित था। बसन्त ऋतु तथा चन्द्रमाको चाँदनीने उसको प्रदीप्त कर रखा था। सब प्रकारकी कौशलपूर्ण सजावट यहाँ दृष्टिगोचर होती थी। यमुनाजीकी रत्नमयी सीढ़ियों तथा तोलिकाओंसे रासमण्डलकी अपूर्व शोभा हो रही थी। मोर, हंस, चातक और कोकिल वहाँ अपनी मोठी बोली सुना रहे थे। वह उत्कृष्ट प्रदेश यमुनाजीके जालस्पर्शस शीतल-मन्द वायुके बहनेसे हिलते हुए तरुपल्लवोंद्वारा बड़ी शोभा पा रहा था। सभामण्डपों और बीधियोंसे, प्राङ्गणों और खंभोंकी पंक्तियोंसे, फहराती हुई दिव्य पताकाओंसे और सुवर्णमय कलशोंसे सुशोभित तथा चेतारुण पुष्पसमूहोंसे सज्जित तथा पुष्पमन्दिर और मार्गसि एवं भ्रमरोकी गुंजारों और वाद्योंकी मधुर ध्वनियोंसे व्याप्त रासमण्डलकी शोभा देखते ही बनती थी। सहस्रदलकमलोंकी सुगन्धसे पूरित्त शीतल, मन्द एवं परम पुण्यमय समीर सब ओरसे उस स्थानको सुवासित कर रहा था। रास- मण्डलके निकुञ्जमें कोटि-कोटि चन्द्रमाओंके समान प्रकाशित होनेवाली पद्मिनी-नायिका हंसगामिनी श्रीराधासे सुशोभित श्रीकृष्ण विराजमान थे। रास- मण्डलके भीतर निरन्तर स्त्रीरलोंसे घिरे हुए श्यामसुन्दर बिग्रष्ठ श्रीकृष्णका लावण्य करोड़ों कामदेवोंको लज्जित करनेवाला था। हाथमें वंशी और बेत लिये तथा श्रीअङ्गपर पीताम्बर धारण किये वे बड़े मनोहर जान पड़ते थे। उनके वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न, कौस्तुभमणि तथा वनमाला शोभा दे रही थी। झंकारते हुए नूपुर, पायजेब, करधनी और बाजूबंदसे वे विभूषित थे। हार, कङ्कण तथा बालरविके समान कान्तिमान् दो कुण्डलोंसे वे मण्डित थे। करोड़ों चन्द्रमाओंकी कान्ति उनके आगे फीकी जान पड़ती थी। मस्तकपर मोरमुकुट धारण किये वे नन्द-नन्दन मनोरथदान दक्ष कटाक्षोंद्वारा युवतियोंका मन हर लेते थे ॥ ९- १९ ॥(Vrindavan Khand Chapter 21 to 26)

राजन् आसुरि और शिव-दोनोंने दूरसे ही जब श्रीकृष्णको देखा तो हाथ जोड़ लिये। नृपश्रेष्ठ । समस्त गोपसुन्दरियोंक देखते-देखते श्रीकृष्ण- चरणारविन्दमें मस्तक झुकाकर, आनन्दविह्वल हुए उन दोनोंने कहा ॥ १० ॥

दोनों बोले – कृष्ण । महायोगी कृष्ण । देवाधि- देव जगदीश्वर । पुण्डरीकाक्ष । गोविन्द । गरुडध्वज । आपको नमस्कार है। जनार्दन। जगन्नाथ। पद्मनाभ । त्रिविक्रम । दामोदर । हषीकेश । वासुदेव । आपको नमस्कार है। देव ! आप परिपूर्णत्तम साक्षात् भगवान् हैं। इन दिनों भूतलका भारी भार हरने और सत्पुरुषोंका कल्याण करनेके लिये अपने समस्त लोकोंको पूर्णतया शून्य करके यहाँ नन्दभवनमें प्रकट हुए हैं। वास्तवमें तो आप परात्पर परमात्मा ही है। अंशांश, अंश, कला, आवेश तथा पूर्ण- समस्त अवतारसमूहोंसे संयुक्त हो, आप परिपूर्णतम परमेश्वर सम्पूर्ण विश्वकी रक्षा करते हैं तथा वृन्दावनमें सरस रासमण्डलको भी अलंकृत करते हैं। गोलोकनाथ। गिरिराजपते । परमेश्वर । वृन्दावनाधीश्वर । नित्यविहार-लोल्लाका विस्तार करनेवाले राधावल्लभ । व्रजसुन्दरियोंक मुखसे अपना यशोगान सुननेवाले गोबिन्द । गोकुलपते । सर्वथा आपकी जय हो। शोभाशालिनी निकुञ्जलताओंके विकासके लिये आप ऋतुराज वसन्त है। श्रीराधिकाके वक्ष और कण्ठको विभूषित करने- वाले रत्नहार हैं। श्रीरासमण्डलके पालक, व्रज- मण्डलके अधीश्वर तथा ब्रह्माण्ड-मण्डलकी भूमिके संरक्षक हैं * ॥ २१-२६ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तब श्रीराधा- सहित भगवान् श्रीकृष्ण प्रसन्न हो मन्द मन्द मुसकराते हुए मेघगर्जनकी-सी गम्भीर वाणीमें मुनिसे बोले ॥ २७ ॥

श्रीभगवान्ने कहा- तुम दोनोंने साठ हजार वर्षोंतक निरपेक्षभावसे तप किया है, इसीसे तुम्हें मेरा दर्शन प्राप्त हुआ है। जो अकिंचन, शान्त तथा सर्वत्र शत्रुभावनासे रहित है, वही मेरा सखा है। अतः तुम दोनों अपने मनके अनुसार अभीष्ट वर माँगो ॥ २८-२९ ॥

शिव और आसुरि बोले – भूमन् ! आपको नमस्कार है। आप दोनों प्रिया-प्रियतमके चरण- कमलोंकी संनिधिमें सदा ही वृन्दावनके भीतर हमारा निवास हो। आपके चरणसे भिन्न और कोई वर हमें नहीं रुचता है; अतः आप दोनों – श्रीहरि एवं श्रीराधिकाको हमारा सादर नमस्कार है ॥ ३० ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तब भगवान्ने ‘तथास्तु’ कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। तभीसे शिव और आसुरिमुनि मनोहर वृन्दावनमें वंशीवटके समीप रासमण्डलसे मण्डित कालिन्दीके निकटवर्ती पुलिनपर निकुञ्जके पास ही नित्य निवास करने लगे ॥ ३१-३२ ॥

तदनन्तर श्रीकृष्णने जहाँ कमलपुष्पोंके सौरभयुक्त पराग उड़ रहे थे और भ्रमर मँडरा रहे थे, उस पद्माकर वनमें गोपाङ्गनाओंके साथ रासक्रीड़ा प्रारम्भ की। मिथिलेश्वर ! उस समय श्रीकृष्णने छः महीनेकी रात बनायी। परंतु उस रासलीलामें सम्मिलित हुई गोपियों- के लिये वह सुख और आमोदसे पूर्ण रात्रि एक क्षणके समान बीत गयी। राजन् ! उन सबके मनोरथ पूर्ण हो गये। अरुणोदयकी वेलामें वे सभी व्रजसुन्दरियाँ झुंड-की-झुंड एक साथ होकर अपने घरको लौटीं। श्रीनन्दनन्दन साक्षात् नन्दमन्दिरमें चले गये और श्रीवृषभानुनन्दिनी तुरंत ही वृषभानुपुरमें जा पहुँचीं ॥ ३३-३६ ॥

इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रका यह मनोहर रासोपाख्यान सुनाया गया, जो समस्त पापोंको हर लेनेवाला, पुण्यप्रद, मनोरथपूरक तथा मङ्गलका धाम है। साधारण लोगोंको यह धर्म, अर्थ और काम प्रदान करता है तथा मुमुक्षुओंको मोक्ष देनेवाला है। राजन् ! यह प्रसङ्ग मैंने तुम्हारे सामने कहा। अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ३७-३८ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘रासक्रीडाका वर्णन’ नामक पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २५ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें- श्रावण मास में शिव के प्रिय बिल्व पत्र

छब्बीसवाँ अध्याय

श्रीकृष्ण का विरजाके साथ विहार; श्रीराधाके भयसे विरजाका नदीरूप होना, उसके सात पुत्रोंका उसी शापसे सात समुद्र होना तथा राधाके शापसे श्रीदामाका अंशतः शङ्खचूड होना

बहुलाश्वने पूछा- महामते देवर्षे ! आप परावरवेत्ताओंमें श्रेष्ठ हैं। अतः यह बताइये कि अघासुर आदि दैत्योंको ज्योति तो भगवान् श्रीकृष्णमें प्रविष्ट हुई थी, परंतु शङ्खचूडका तेज श्रीदामामें लीन हुआ; इसका क्या कारण है ? अहो ! श्रीकृष्णचन्द्रका चरित्र अत्यन्त अद्भुत है ॥ १-२ ॥

श्रीनारदजी बोले – महामते नरेश ! यह पूर्वकालमें घटित गोलोकका वृत्तान्त है, जिसे मैंन भगवान् नारायणके मुखसे सुना था। यह सर्वपाप- हारी पुण्य-प्रसङ्ग तुम मुझसे सुनो। श्रीहरिके तीन पलियाँ हुई- श्रीराधा, विजया (विरजा) और भूदेवी। इन तीनोंमें महात्मा श्रीकृष्णको श्रीराधा ही अधिक प्रिय हैं। राजन् । एक दिन भगवान् श्रीकृष्ण एकान्त कुझमें कोटि चन्द्रमाओंकी सी कान्तिवाली तथा श्रीराधिका-सदृश सुन्दरी विरजाके साथ विहार कर रहे थे। सखीके मुखसे यह सुनकर कि श्रीकृष्ण मेरी सौतके साथ है, श्रीराधा मन-ही-मन अत्यन्त खिन्न हो उठीं। सपलीके सौख्यसे उनको दुःख हुआ, तब भगवत्-प्रिया श्रीराधा सौ योजन विस्तृत, सौ योजन ऊँचे और करोड़ों अश्विनियोंसे जुते सूर्यतुल्य- कान्तिमान् स्थपर – जो करोड़ों पताकाओं और सुवर्ण- कलशोंसे मण्डित था तथा जिसमें विचित्र रंगके रनों, सुवर्ण और मोतियोंकी लड़ियाँ लटक रही थीं- आरूढ़ हो, दस अरब वेत्रधारिणी सखियोंके साथ तत्काल श्रीहरिको देखनेके लिये गयीं। उस निकुञ्जके द्वारपर श्रीहरिके द्वारा नियुक्त महाबली श्रीदामा पहरा दे रहा था। उसे देखकर श्रीराधाने बहुत फटकारा और सखीजनोंद्वारा बेंतसे पिटवाकर सहसा कुञ्जद्वारके भीतर जानेको उद्यत हुई सखियोंका कोलाहल सुनकर श्रीहरि वहाँसे अन्तर्धान हो गये ॥ ३-११ ॥

श्रीराधा के भयसे विरजा सहसा नदीके रूपमें परिणत हो, कोटियोजन विस्तृत गोलोकमें उसके चारों ओर प्रवाहित होने लगीं। जैसे समुद्र इस भूतलको घेरे हुए है, उसी प्रकार विरजा नदी सहसा गोलोकको – अपने घेरेमें लेकर बहने लगीं। रलमय पुष्पोंसे विचित्र अङ्गोंवाली वह नदी विविध प्रकारके फूलोंकी छापसे अङ्कित उष्णीष वस्त्रकी भाँति शोभा पाने लगीं ‘श्रीहरि चले गये और विरजा नदीरूपमें परिणत हो गयी’- यह देख श्रीराधिका अपने कुञ्जको लौट गयीं। नृपेश्वर । तदनन्तर नदीरूपमें परिणत हुई विरजाको श्रीकृष्णने शीघ्र ही अपने वरके प्रभावसे मूर्तिमती एवं विमल वस्त्राभूषणोंसे विभूषित दिव्य नारी बना दिया। इसके बाद वे विरजा-तटवर्ती वनमें वृन्दावनके निकुञ्जमें विरजाके साथ स्वयं रास करने लगे। श्रीकृष्णके तेजसे विरजाके गर्भसे सात पुत्र हुए। वे सातों शिशु अपनी बालक्रीड़ासे निकुञ्जकी शोभा बढ़ाने लगे। एक दिन उन बालकोंमें झगड़ा हुआ। उनमें जो बड़े थे, उन सबने मिलकर छोटेको मारा। छोटा भयभीत होकर भागा और माताकी गोदमें चला गया। सती विरजा पुत्रको आश्वासन दे उसे दुलारने लगीं। उस समय साक्षात् भगवान् वहाँसे अन्तर्धान हो गये। तब श्रीकृष्णके विरहसे व्याकुल हो, रोषसे अपने पुत्रको शाप देते हुए विरजाने कहा- ‘दुर्बुद्धे ! तू श्रीकृष्णसे वियोग करानेवाला है, अतः जल हो जा; तेरा जल मनुष्य कभी न पीयें।’ फिर उसने बड़ोंको शाप देते हुए कहा- ‘तुम सब-के-सब झगड़ालू हो; अतः पृथ्वीपर जाओ और वहाँ जल होकर रहो। तुम सबको पृथक् पृथक् गति होगी। एक-दूसरेसे कभी मिल न सकोगे। सदा ही प्रलयकालमें तुम्हारा नैमित्तिक मिलन होगा’ ॥ १२-२२ ॥(Vrindavan Khand Chapter 21 to 26)

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन्। इस प्रकार माताके शापसे वे सब पृथ्वीपर आ गये और राजा प्रियव्रतके रथके पहियोंसे बनी हुई परिखाओंमें समाविष्ट हो गये। खारा जल, इक्षुरस, मदिरा, घृत, दधि, क्षीर तथा शुद्ध जलके वे सात सागर हो गये। राजन् ! वे सातों समुद्र अक्षोभ्य तथा दुर्लङ्घय है। उनके भीतर प्रवेश करना अत्यन्त कठिन है। वे बहुत ही गहरे तथा लाख योजनसे लेकर क्रमशः द्विगुण विस्तारवाले होकर पृथक् पृथक् द्वीपोंमें स्थित है। पुत्रोंके चले जानेपर विरजा उनके स्नेहसे अत्यन्त व्याकुल हो उठी। तब अपनी उस विरहिणो प्रियाके पास आकर श्रीकृष्णने वर दिया- ‘भीरु ! तुम्हारा कभी मुझसे वियोग नहीं होगा। तुम अपने तेजसे सदैव पुत्रोंकी रक्षा करती रहोगी।’ विदेहराज । तदनन्तर श्रीराधाको विरह-दुःखसे व्यथित जान श्यामसुन्दर श्रीहरि स्वयं श्रीदामाके साथ उनके निकुञ्जमें आये। निकुञ्जके द्वारपर सखाके साथ आये हुए प्राणवल्लभकी ओर देखकर राधा मानवती हो उनसे इस प्रकार बोलीं ॥ २३-२९ ॥

श्रीराधाने कहा- हरे। वहीं चले जाओ, जहाँ तुम्हारा नया नेह जुड़ा है। विरजा तो नदी हो गयी, अब तुम्हें उसके साथ नद हो जाना चाहिये। जाओ, उसीके कुञ्जमें रहो। मुझसे तुम्हारा क्या मतलब है ? ॥ ३० ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यह सुनकर भगवान् विरजाके निकुञ्जमें चले गये। तब श्रीकृष्णके मित्र श्रीदामाने राधासे रोषपूर्वक कहा ॥ ३१ ॥

श्रीदामा बोला – राधे । श्रीकृष्ण साक्षात परिपूर्णतम भगवान् हैं। वे स्वयं असंख्य ब्रह्माण्डोंक अधिपति और गोलोकके स्वामीके रूपमें विराजमान हैं। परात्पर श्रीकृष्ण तुम-जैसी करोड़ों शक्तियोंको बना सकते हैं। उनकी तुम निन्दा करती हो ? ऐसा मान न करो, न करो ॥ ३२-३३ ॥

राधा बोली – ओ मूर्ख । तू बापकी स्तुति करके मुझ माताकी निन्दा करता है ! अतः दुर्बुद्धे । राक्षस हो जा और गोलोकसे बाहर चला जा ॥ ३४ ॥

श्रीदामा बोला – शुभे । श्रीकृष्ण सदा तुम्हारे अनुकूल रहते हैं, इसीलिये तुम्हें इतना मान हो गया है। अतः परिपूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्णसे भूतलपर तुम्हारा सौ वर्षोंक लिये वियोग हो जायगा, इसमें संशय नहीं है ॥ ३५-३६ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं – राजन् । इस प्रकार परस्पर शाप देकर अपनी ही करनीसे भयभीत हो, जब राधा और श्रीदामा अत्यन्त चिन्तामें डूब गये, तब स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ प्रकट हुए ॥ ३७ ॥

श्रीभगवान्ने कहा- राधे। मैं अपने निगम- स्वरूप वचनको तो छोड़ सकता हूँ, किंतु भक्तोंकी बात अन्यथा करनेमें सर्वथा असमर्थ हैं। कल्याणि राधिके । शोक मत करो, मेरी बात सुनो। वियोग- कालमें भी प्रतिमास एक बार तुम्हें मेरा दर्शन हुआ करेगा। वाराहकल्पमें भूतलका भार उतारने और भक्तजनोंको दर्शन देनेके लिये मैं तुम्हारे साथ पृथ्वीपर चलूँगा। श्रीदामन् । तुम भी मेरी बात सुनो। तुम अपने एक अंशसे असुर हो जाओ। वैवस्वत मन्वन्तर- में रासमण्डलमें आकर जब तुम मेरी अवहेलना करोगे, तब मेरे हाथसे तुम्हारा वध होगा, इसमें संशय नहीं है। तत्पश्चात् फिर मेरे वरदानसे तुम अपना पूर्व शरीर प्राप्त कर लोगे ॥ ३८-४२ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार शापवश महातपस्वी श्रीदामाने पूर्वकालमें यक्षलोकमे सुधनके घर जन्म लिया। वह शङ्खचूड नामसे विख्यात हो यक्षराज कुबेरका सेवक हो गया। यही कारण है कि शङ्खचूडकी ज्योति श्रीदामामें लीन हुई ॥ ४३-४४ ॥(Vrindavan Khand Chapter 21 to 26)

भगवान श्रीकृष्ण स्वात्माराम हैं, एकमात्र अद्वितीय परमात्मा हैं। वे अपने ही धाममें लीलापूर्वक सारा कार्य करते हैं। जो सर्वेश्वर, सर्वरूप एवं महान् आत्मा है, उनके लिये यह सब कार्य अद्भुत नहीं है; मैं उन श्रीकृष्णचन्द्रको नमस्कार करता हूँ ॥ ४५ ॥

विदेहराज ! यह मनोहर वृन्दावनखण्ड मैंने तुम्हारे सामने कहा है। जो नरश्रेष्ठ इस चरित्रका श्रवण करता है, वह पुण्यतम परमपदको प्राप्त होता है ॥ ४६ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व-संवादमें ‘शङ्खचूडोपाख्यान’ नामक छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २६ ॥

॥ श्रीवृन्दावनखण्ड सम्पूर्ण ॥

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