loader image

Vidyeshwar Samhita 11 Chapter To 20 Chapter

blog
Vidyeshwar Samhita 11 Chapter To 20 Chapter

विद्येश्वर संहिता (Vidyeshwar Samhita 11 Chapter To 20 Chapter) के ग्यारहवां अध्याय से बिसवां अध्याय में शिवलिंग की स्थापना और पूजन विधि के वर्णन के साथ-साथ मोक्षदायक पुण्य क्षेत्रों का वर्णन भी किया गया है।
शिव पुराण के विद्येश्वर संहिता में सदाचार, संध्यावंदन, प्रणव, गायत्री जाप एवं अग्रिहोत्र की विधि, महिमा, अग्रियज्ञ, देवयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ का वर्णन मिलता है। इस सहित में देश, काल, पात्र और दान का विचार और देव प्रतिमा का पूजन तथा शिवलिंग के वैज्ञानिक स्वरूप का विवेचन किया गया है।

विद्येश्वर संहिता (Vidyeshwar Samhita 11 Chapter To 20 Chapter) में प्रणव का माहात्म्य, शिवलोक के वैभव, बंधन और मोक्ष का विवेचन शिव के भस्मधारण का रहस्य बताया गया है। इसमें पूजा का भेद पार्थिव लिंग पूजन की विधि भी बताई गई है।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ प्रथम अध्याय से दसवें अध्याय तक

विद्येश्वर संहिता

॥ ॐ नमः शिवाय ॥

ग्यारहवां अध्याय

शिवलिंग की स्थापना और पूजन विधि का वर्णन

ऋषियों ने पूछा— सूत जी ! शिवलिंग की स्थापना कैसे करनी चाहिए तथा उसकी पूजा कैसे, किस काल में तथा किस द्रव्य द्वारा करनी चाहिए?

सूत जी ने कहा- महर्षियो ! मैं तुम लोगों के लिए इस विषय का वर्णन करता हूं, इसे ध्यान से सुनो और समझो। अनुकूल एवं शुभ समय में किसी पवित्र तीर्थ में, नदी के तट पर, ऐसी जगह पर शिवलिंग की स्थापना करनी चाहिए जहां रोज पूजन कर सके। पार्थिव द्रव्य से, जलमय द्रव्य से अथवा तेजस द्रव्य से पूजन करने से उपासक को पूजन का पूरा फल प्राप्त होता है। शुभ लक्षणों में पूजा करने पर यह तुरंत फल देने वाला है। चल प्रतिष्ठा के लिए छोटा शिवलिंग श्रेष्ठ माना जाता है। अचल प्रतिष्ठा हेतु बड़ा शिवलिंग अच्छा रहता है। शिवलिंग की पीठ सहित स्थापना करनी चाहिए। शिवलिंग की पीठ गोल, चौकोर, त्रिकोण अथवा खाट के पाए की भांति ऊपर नीचे मोटा और बीच में पतला होना चाहिए। ऐसा लिंग- पीठ महान फल देने वाला होता है। पहले मिट्टी अथवा लोहे से शिवलिंग का निर्माण करना चाहिए। जिस द्रव्य से लिंग का निर्माण हो उसी से उसका पीठ बनाना चाहिए। यही अचल प्रतिष्ठा वाले शिवलिंग की विशेषता है। चल प्रतिष्ठा वाले शिवलिंग में लिंग व प्रतिष्ठा एक ही तत्व से बनानी चाहिए। लिंग की लंबाई स्थापना करने वाले मनुष्य के बारह अंगुल के बराबर होनी चाहिए। इससे कम होने पर फल भी कम प्राप्त होता है। परंतु बारह अंगुल से लंबाई अधिक भी हो सकती है। चल लिंग में लंबाई स्थापना करने वाले के एक अंगुल के बराबर होनी चाहिए उससे कम नहीं। यजमान को चाहिए कि पहले वह शिल्प शास्त्र के अनुसार देवालय बनवाए तथा उसमें सभी देवगणों की मूर्ति स्थापित करे । देवालय का गर्भगृह सुंदर, सुदृढ़ और स्वच्छ होना चाहिए। उसमें पूर्व और पश्चिम में दो मुख्य द्वार हों। जहां शिवलिंग की स्थापना करनी हो उस स्थान के गर्त में नीलम, लाल वैदूर्य, श्याम, मरकत, मोती, मूंगा, गोमेद और हीरा इन नौ रत्नों को वैदिक मंत्रों के साथ छोड़े। पांच वैदिक मंत्रों द्वारा पांच स्थानों से पूजन करके अग्नि में आहुति दें और परिवार सहित मेरी पूजा करके आचार्य को धन से तथा भाई-बंधुओं को मनचाही वस्तु से संतुष्ट करें। याचकों को सुवर्ण, गृह एवं भू- संपत्ति तथा गाय आदि प्रदान करें।(Vidyeshwar Samhita 11 Chapter To 20 Chapter)

स्थावर जंगम सभी जीवों को यत्नपूर्वक संतुष्ट कर एक गड्ढे में सुवर्ण तथा नौ प्रकार के रत्न भरकर वैदिक मंत्रों का उच्चारण करके परम कल्याणकारी महादेव जी का ध्यान करें। तत्पश्चात नाद घोष से युक्त महामंत्र ओंकार (ॐ) का उच्चारण करके गड्ढे में पीठयुक्त शिवलिंग की स्थापना करें। वहां परम सुंदर मूर्ति की भी स्थापना करनी चाहिए तथा भूमि- संस्कार की विधि जिस प्रकार शिवलिंग के लिए की गई है, उसी प्रकार मूर्ति की प्रतिष्ठा भी करनी चाहिए। मूर्ति की स्थापना अर्थात प्रतिष्ठा पंचाक्षर मंत्र से करनी चाहिए। मूर्ति को बाहर से भी लिया जा सकता है, परंतु वह साधु पुरुषों द्वारा पूजित हो। इस प्रकार शिवलिंग व मूर्ति द्वारा की गई महादेव जी की पूजा शिवपद प्रदान करने वाली है। स्थावर और जंगम से लिंग भी दो तरह का हो गया है। वृक्ष लता आदि को ‘स्थावर लिंग’ कहते हैं और कृमि कीट आदि को ‘जंगम लिंग’। स्थावर लिंग को सींचना चाहिए तथा जंगम लिंग को आहार एवं जल देकर तृप्त करना चाहिए । यों चराचर जीवों को भगवान शंकर का प्रतीक मानकर उनका पूजन करना चाहिए।

इस तरह महालिंग की स्थापना करके विविध उपचारों द्वारा उसका रोज पूजन करें तथा देवालय के पास ध्वजारोहण करें। शिवलिंग साक्षात शिव का पद प्रदान करने वाला है। आवाहन, आसन, अर्घ्य, पाद्य, पाद्यांग, आचमन, स्नान, वस्त्र, यज्ञोपवीत, गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, तांबूल, समर्पण, नीराजन, नमस्कार और विसर्जन ये सोलह उपचार हैं। इनके द्वारा पूजन करें। इस तरह किया गया भगवान शिव का पूजन शिवपद की प्राप्ति कराने वाला है। सभी शिवलिंगों की स्थापना के उपरांत, चाहे वे मनुष्य द्वारा स्थापित, ऋषियों या देवताओं द्वारा अथवा अपने आप प्रकट हुए हों, सभी का उपर्युक्त विधि से पूजन करना चाहिए, तभी फल प्राप्त होता है। उसकी परिक्रमा और नमस्कार करने से शिवपद की प्राप्ति होती है। शिवलिंग का नियमपूर्वक दर्शन भी कल्याणकारी होता है। मिट्टी, आटा, गाय के गोबर, फूल, कनेर पुष्प, फल, गुड़, मक्खन, भस्म अथवा अन्न से शिवलिंग बनाकर प्रतिदिन पूजन करें तथा प्रतिदिन दस हजार प्रणव-मंत्रों का जाप करें अथवा दोनों संध्याओं के समय एक सहस्र प्रणव मंत्रों का जाप करें। इससे भी शिव पद की प्राप्ति होती है।

जपकाल में प्रणव मंत्र का उच्चारण मन की शुद्धि करता है। नाद और बिंदु से युक्त ओंकार को कुछ विद्वान ‘समान प्रणव’ कहते हैं। प्रतिदिन दस हजार पंचाक्षर मंत्र का जाप अथवा दोनों संध्याओं को एक सहस्र मंत्र का जाप शिव पद की प्राप्ति कराने वाला है। सभी ब्राह्मणों के लिए प्रणव से युक्त पंचाक्षर मंत्र अति फलदायक है। कलश से किया स्नान, मंत्र की दीक्षा, मातृकाओं का न्यास, सत्य से पवित्र अंतःकरण, ब्राह्मण तथा ज्ञानी गुरु, सभी को उत्तम माना गया है। पंचाक्षर मंत्र का पांच करोड़ जाप करने से मनुष्य भगवान शिव के समान हो जाता है। एक, दो, तीन, अथवा चार करोड़ जाप करके मनुष्य क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तथा महेश्वर का पद प्राप्त कर लेता है। यदि एक हजार दिनों तक प्रतिदिन एक सहस्र जाप पंचाक्षर मंत्रों का किया जाए और प्रतिदिन ब्राह्मण को भोजन कराया जाए तो इससे अभीष्ट कार्य की सिद्धि होती है।
ब्राह्मण को प्रतिदिन प्रातःकाल एक हजार आठ बार गायत्री मंत्र का जाप करना चाहिए क्योंकि गायत्री मंत्र शिव पद की प्राप्ति कराता है। वेदमंत्रों और वैदिक सूक्तियों का भी नियम से जाप करें। अन्य मंत्रों में जितने अक्षर हैं उनके उतने लाख जाप करें। इस प्रकार यथाशक्ति जाप करने वाला मनुष्य मोक्ष प्राप्त करता है। अपनी पसंद से कोई एक मंत्र अपनाकर प्रतिदिन उसका जाप करें अथवा ॐ का नित्य एक सहस्र जाप करें। ऐसा करने से संपूर्ण मनोरथों की सिद्धि होती है।

जो मनुष्य भगवान शिव के लिए फुलवाड़ी या बगीचे लगाता है तथा शिव मंदिर में झाड़ने-बुहारने का सेवा कार्य करता है ऐसे शिवभक्त को पुण्यकर्म की प्राप्ति होती है, अंत समय में भगवान शिव उसे मोक्ष प्रदान करते हैं। काशी में निवास करने से भी योग और मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसलिए आमरण भगवान शिव के क्षेत्र में निवास करना चाहिए। उस क्षेत्र में स्थित बावड़ी, तालाब, कुंआ और पोखर को शिवलिंग समझकर वहां स्नान, दान और जाप करके मनुष्य भगवान शिव को प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य शिव के क्षेत्र में अपने किसी मृत संबंधी का दाह, दशाह, मासिक श्राद्ध अथवा वार्षिक श्राद्ध करता है अथवा अपने पितरों को पिण्ड देता है, वह तत्काल सभी पापों से मुक्त हो जाता है और अंत में शिवपद प्राप्त करता है। लोक में अपने वर्ण के अनुसार आचरण करने व सदाचार का पालन करने से शिव पद की प्राप्ति होती है। निष्काम भाव से किया गया कार्य अभीष्ट फल देने वाला एवं शिवपद प्रदान करने वाला होता है।(Vidyeshwar Samhita 11 Chapter To 20 Chapter)

दिन के प्रातः, मध्याह्न और सायं तीन विभाग होते हैं। इनमें सभी को एक-एक प्रकार के कर्म का प्रतिपादन करना चाहिए। प्रातःकाल रोजाना दैनिक शास्त्र कर्म, मध्याह्न सकाम कर्म तथा सायंकाल शांति कर्म के लिए पूजन करना चाहिए। इसी प्रकार रात्रि में चार प्रहर होते हैं, उनमें से बीच के दो प्रहर निशीथकाल कहलाते हैं- इसी काल में पूजा करनी चाहिए, क्योंकि यह पूजा अभीष्ट फल देने वाली है। कलियुग में कर्म द्वारा ही फल की सिद्धि होगी। इस प्रकार विधिपूर्वक और समयानुसार भगवान शिव का पूजन करने वाले मनुष्य को अपने कर्मों का पूरा फल मिलता है।

ऋषियों ने कहा – सूत जी! ऐसे पुण्य क्षेत्र कौन-कौन से हैं? जिनका आश्रय लेकर सभी स्त्री-पुरुष शिवपद को प्राप्त कर लें? कृपया कर हमें बताइए ।

यहां एक क्लिक में पढ़ें- “शिव तांडव स्तोत्र”

बारहवां अध्याय

मोक्षदायक पुण्य क्षेत्रों का वर्णन

सूत जी बोले- हे विद्वान और बुद्धिमान महर्षियो ! मैं मोक्ष देने वाले शिवक्षेत्रों का वर्णन कर रहा हूं। पर्वत, वन और काननों सहित इस पृथ्वी का विस्तार पचास करोड़ योजन है। भगवान शिव की इच्छा से पृथ्वी ने सभी को धारण किया है। भगवान शिव ने भूतल पर विभिन्न स्थानों पर वहां के प्राणियों को मोक्ष देने के लिए शिव क्षेत्र का निर्माण किया है। कुछ क्षेत्रों को देवताओं और ऋषियों ने अपना निवास स्थान बनाया है। इसलिए उसमें तीर्थत्व प्रकट हो गया है। बहुत से तीर्थ ऐसे हैं, जो स्वयं प्रकट हुए हैं। तीर्थ क्षेत्र में जाने पर मनुष्य को सदा स्नान, दान और जाप करना चाहिए अन्यथा मनुष्य रोग, गरीबी तथा मूकता आदि दोषों का भागी हो जाता है। जो मनुष्य अपने देश में मृत्यु को प्राप्त होता है, वह इस पुण्य के फल से दुबारा मनुष्य योनि प्राप्त करता है। परंतु पापी मनुष्य दुर्गति को ही प्राप्त करता है। है ब्राह्मणो! पुण्यक्षेत्र में किया गया पाप कर्म, अधिक दृढ़ हो जाता है। अतः पुण्य क्षेत्र में निवास करते समय पाप कर्म करने से बचना चाहिए।

सिंधु और सतलुज नदी के तट पर बहुत से पुण्य क्षेत्र हैं। सरस्वती नदी परम पवित्र और साठ मुखवाली है अर्थात उसकी साठ धाराएं हैं। इन धाराओं के तट पर निवास करने से परम पद की प्राप्ति होती है। हिमालय से निकली हुई पुण्य सलिला गंगा सौ मुख वाली नदी है। इसके तट पर काशी, प्रयाग आदि पुण्य क्षेत्र हैं। मकर राशि में सूर्य होने पर गंगा की तटभूमि अधिक प्रशस्त एवं पुण्यदायक हो जाती है। सोनभद्र नदी की दस धाराएं हैं। बृहस्पति के मकर राशि में आने पर यह अत्यंत पवित्र तथा अभीष्ट फल देने वाली है। इस समय यहां स्नान और उपवास करने से विनायक पद की प्राप्ति होती है। पुण्य सलिला महानदी नर्मदा के चौबीस मुख हैं। इसमें स्नान करके तट पर निवास करने से मनुष्य को वैष्णव पद की प्राप्ति होती है। तमसा के बारह तथा रेवा के दस मुख हैं। परम पुण्यमयी गोदावरी के इक्कीस मुख हैं। यह ब्रह्महत्या तथा गोवध पाप का नाश करने वाली एवं रुद्रलोक देने वाली है। कृष्णवेणी नदी समस्त पापों का नाश करने वाली है। इसके अठारह मुख हैं तथा यह विष्णुलोक प्रदान करने वाली है। तुंगभद्रा दस मुखी है एवं ब्रह्मलोक देने वाली है। सुवर्ण मुखरी के नौ मुख हैं। ब्रह्मलोक से लौटे जीव इसी नदी के तट पर जन्म लेते हैं। सरस्वती नदी, पंपा सरोवर, कन्याकुमारी अंतरीप तथा शुभकारक श्वेत नदी सभी पुण्य क्षेत्र हैं। इनके तट पर निवास करने से इंद्रलोक की प्राप्ति होती है। महानदी कावेरी परम पुण्यमयी है। इसके सत्ताईस मुख हैं। यह संपूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को देने वाली है। इसके तट ब्रह्मा, विष्णु का पद देने वाले हैं। कावेरी के जो तट शैव क्षेत्र के अंतर्गत हैं, वे अभीष्ट फल तथा शिवलोक प्रदान करने वाले हैं।

नैमिषारण्य तथा बदरिकाश्रम में सूर्य और बृहस्पति के मेष राशि में आने पर स्नान और पूजन करने से ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है। सिंह और कर्क राशि में सूर्य की संक्रांति होने पर सिंधु नदी में किया स्नान तथा केदार तीर्थ के जल का पान एवं स्नान ज्ञानदायक माना जाता है। बृहस्पति के सिंह राशि में स्थित होने पर भाद्रमास में गोदावरी के जल में स्नान करने से शिवलोक की प्राप्ति होती है, ऐसा स्वयं भगवान शिव ने कहा था। सूर्य और बृहस्पति के कन्या राशि में स्थित होने पर यमुना और सोनभद्र में स्नान से धर्मराज और गणेश लोक में महान भोग की प्राप्ति होती है, ऐसी महर्षियों की मान्यता है। सूर्य और बृहस्पति के तुला राशि में होने पर कावेरी नदी में स्नान करने से भगवान विष्णु के वचन की महिमा से अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। मार्गशीर्ष माह में, सूर्य और बृहस्पति के वृश्चिक राशि में आने पर, नर्मदा में स्नान करने से विष्णु पद की प्राप्ति होती है। सूर्य और बृहस्पति के धनु राशि में होने पर सुवर्ण मुखरी नदी में किया स्नान शिवलोक प्रदान करने वाला है। मकर राशि में सूर्य और बृहस्पति के माघ मास में होने पर गंगाजी में किया गया स्नान शिवलोक प्रदान कराने वाला है। शिवलोक के पश्चात ब्रह्मा और विष्णु के स्थानों में सुख भोगकर अंत में मनुष्य को ज्ञान की प्राप्ति होती है। माघ मास में सूर्य के कुंभ राशि में होने पर फाल्गुन मास में गंगा तट पर किया श्राद्ध, पिण्डदान अथवा तिलोदक दान पिता और नाना, दोनों कुलों के पितरों की अनेकों पीढ़ियों का उद्धार करने वाला है। गंगा व कावेरी नदी का आश्रय लेकर तीर्थवास करने से पाप का नाश हो जाता है।(Vidyeshwar Samhita 11 Chapter To 20 Chapter)

ताम्रपर्णी और वेगवती नदियां ब्रह्मलोक की प्राप्ति रूप फल देने वाली हैं। इनके तट पर स्वर्गदायक क्षेत्र हैं। इन नदियों के मध्य में बहुत से पुण्य क्षेत्र हैं। यहां निवास करने वाला मनुष्य अभीष्ट फल का भागी होता है। सदाचार, उत्तम वृत्ति तथा सद्भावना के साथ मन में दयाभाव रखते हुए विद्वान पुरुष को तीर्थ में निवास करना चाहिए अन्यथा उसे फल नहीं मिलता । पुण्य क्षेत्र में जीवन बिताने का निश्चय करने पर तथा वास करने पर पहले का सारा पाप तत्काल नष्ट हो जाएगा। क्योंकि पुण्य को ऐश्वर्यदायक कहा जाता है। हे ब्राह्मणो! तीर्थ में वास करने पर उत्पन्न पुण्य कायिक, वाचिक और मानसिक – सभी पापों का नाश कर देता है। तीर्थ में किया मानसिक पाप कई कल्पों तक पीछा नहीं छोड़ता, यह केवल ध्यान से ही नष्ट होता है। ‘वाचिक’ पाप जाप से तथा ‘कायिक’ पाप शरीर को सुखाने जैसे कठोर तप से नष्ट होता है। अतः सुख चाहने वाले पुरुष को देवताओं की पूजा करते हुए और ब्राह्मणों को दान देते हुए, पाप से बचकर ही तीर्थ में निवास करना चाहिए।

यहां एक क्लिक में पढ़ें- “शिव महिम्न: स्तोत्रम्”

तेरहवां अध्याय

सदाचार, संध्यावंदन, प्रणव, गायत्री जाप
एवं अग्निहोत्र की विधि तथा महिमा

ऋषियों ने कहा—सूत जी ! आप हमें वह सदाचार सुनाइए जिससे विद्वान पुरुष पुण्य लोकों पर विजय पाता है। स्वर्ग प्रदान करने वाले धर्ममय तथा नरक का कष्ट देने वाले अधर्ममय आचारों का वर्णन कीजिए।

सूत जी बोले- सदाचार का पालन करने वाला मनुष्य ही ‘ब्राह्मण’ कहलाने का अधिकारी है। वेदों के अनुसार आचार का पालन करने वाले एवं वेद के अभ्यासी ब्राह्मण को ‘विप्र’ कहते हैं। सदाचार, वेदाचार तथा विद्या गुणों से युक्त होने पर उसे ‘द्विज’ कहते हैं। वेदों का कम आचार तथा कम अध्ययन करने वाले एवं राजा के पुरोहित अथवा सेवक ब्राह्मण को ‘क्षत्रिय ब्राह्मण’ कहते हैं। जो ब्राह्मण कृषि या वाणिज्य कर्म करने वाला है तथा ब्राह्मणोचित आचार का भी पालन करता है वह ‘वैश्य ब्राह्मण’ है तथा स्वयं खेत जोतने वाला ‘शूद्र-ब्राह्मण’ कहलाता है। जो दूसरों के दोष देखने वाला तथा परद्रोही है उसे ‘चाण्डाल-द्विज’ कहते हैं। क्षत्रियों में जो पृथ्वी का पालन करता है, वह राजा है तथा अन्य मनुष्य राजत्वहीन क्षत्रिय माने जाते हैं। जो धान्य आदि वस्तुओं का क्रय-विक्रय करता है, वह ‘वैश्य’ कहलाता है। दूसरों को ‘वणिक’ कहते हैं। जो ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों की सेवा में लगा रहता है ‘शूद्र’ कहलाता है। जो शूद्र हल जोतता है, उसे ‘वृषल’ समझना चाहिए। इन सभी वर्णों के मनुष्यों को चाहिए कि वे ब्रह्ममुहूर्त में उठकर पूर्व की ओर मुख करके देवताओं का, धर्म का अर्थ का, उसकी प्राप्ति के लिए उठाए जाने वाले क्लेशों का तथा आय और व्यय का चिंतन करें।

रात के अंतिम प्रहर के मध्य भाग में मनुष्य को उठकर मल-मूत्र त्याग करना चाहिए। घर से बाहर शरीर को ढककर जाकर उत्तराभिमुख होकर मल-मूत्र का त्याग करें। जल, अग्नि, ब्राह्मण तथा देवताओं का स्थान बचाकर बैठें। उठने पर उस ओर न देखें। हाथ-पैरों की शुद्धि करके आठ बार कुल्ला करें। किसी वृक्ष के पत्ते से दातुन करें। दातुन करते समय तर्जनी अंगुली का उपयोग नहीं करें। तदंतर जल-संबंधी देवताओं को नमस्कार कर मंत्रपाठ करते हुए जलाशय में स्नान करें। यदि कंठ तक या कमर तक पानी में खड़े होने की शक्ति न हो तो घुटने तक जल में खड़े होकर ऊपर जल छिड़ककर मंत्रोच्चारण करते हुए स्नान कर तर्पण करें। इसके उपरांत वस्त्र धारण कर उत्तरीय भी धारण करें। नदी अथवा तीर्थ में स्नान करने पर उतारे हुए वस्त्र वहां न धोएं। उसे किसी कुंए, बावड़ी अथवा घर ले जाकर धोएं। कपड़ों को निचोड़ने से जो जल गिरता है, वह एक श्रेणी के पितरों की तृप्ति के लिए होता है। इसके बाद जाबालि उपनिषद में बताए गए मंत्र से भस्म लेकर लगाएं। इस विधि का पालन करने से पूर्व यदि भस्म गिर जाए तो गिराने वाला मनुष्य नरक में जाता है। ‘आपोहिष्ठा’ मंत्र से पाप शांति के लिए सिर पर जल छिड़ककर ‘यस्य क्षयाय’ मंत्र पढ़कर पैर पर जल छिड़कें। ‘आपो हिष्ठा’ में तीन ऋचाएं हैं। पहली ऋचा का पाठ कर पैर, मस्तक और हृदय में जल छिड़कें। दूसरी ऋचा का पाठ कर मस्तक, हृदय और पैर पर जल छिड़कें तथा तीसरी ऋचा का पाठ करके हृदय, मस्तक और पैर पर जल छिड़कें। इस प्रकार के स्नान को ‘मंत्र स्नान’ कहते हैं। किसी अपवित्र वस्तु से स्पर्श हो जाने पर, स्वास्थ्य ठीक न रहने पर यात्रा में या जल उपलब्ध न होने की दशा में, मंत्र स्नान करना चाहिए।(Vidyeshwar Samhita 11 Chapter To 20 Chapter)

प्रातःकाल की संध्योपासना में ‘गायत्री मंत्र’ का जाप करके तीन बार सूर्य को अर्घ्य दें। मध्यान्ह में गायत्री मंत्र का उच्चारण कर सूर्य को एक अर्घ्य देना चाहिए। सायंकाल में पश्चिम की ओर मुख करके पृथ्वी पर ही सूर्य को अर्घ्य दें। सायंकाल में सूर्यास्त से दो घड़ी पहले की गई संध्या का कोई महत्व नहीं होता। ठीक समय पर ही संध्या करनी चाहिए। यदि संध्योपासना किए बिना एक दिन बीत जाए तो उसके प्रायश्चित हेतु अगली संध्या के समय सौ गायत्री मंत्र का जाप करें। दस दिन छूटने पर एक लाख तथा एक माह छूटने पर अपना ‘उपनयन संस्कार’ कराएं।

अर्थसिद्धि के लिए ईश, गौरी, कार्तिकेय, विष्णु, ब्रह्मा, चंद्रमा और यम व अन्य देवताओं का शुद्ध जल से तर्पण करें। तीर्थ के दक्षिण में, मंत्रालय में, देवालय में अथवा घर में आसन पर बैठकर अपनी बुद्धि को स्थिर कर देवताओं को नमस्कार कर प्रणव मंत्र का जाप करने के पश्चात गायत्री मंत्र का जाप करें। प्रणव के ‘अ’, ‘उ’ और ‘म’ तीनों अक्षरों में जीव और ब्रह्मा की एकता का प्रतिपादन होता है। अतः प्रणव मंत्र का जाप करते समय मन में यह भावना होनी चाहिए कि हम तीनों लोकों की सृष्टि करने वाले ब्रह्मा, पालन करने वाले विष्णु तथा संहार करने वाले रुद्र की उपासना कर रहे हैं। यह ब्रह्मस्वरूप ओंकार हमारी कर्मेंद्रियों, ज्ञानेंद्रियों, मन की वृत्तियों तथा बुद्धिवृत्तियों को सदा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले धर्म एवं ज्ञान की ओर प्रेरित करें। जो मनुष्य प्रणव मंत्र के अर्थ का चिंतन करते हुए इसका जाप करते हैं, वे निश्चय ही ब्रह्मा को प्राप्त करते हैं तथा जो मनुष्य बिना अर्थ जाने प्रणव मंत्र का जाप करते हैं, उनको ‘ब्राह्मणत्व’ की पूर्ति होती है। इस हेतु श्रेष्ठ ब्राह्मण को प्रतिदिन प्रातःकाल एक सहस्र गायत्री मंत्र का जाप करना चाहिए । मध्याह्न में सौ बार तथा सायं अट्ठाईस बार जाप करें। अन्य वर्णों के मनुष्यों को सामर्थ्य के अनुसार जाप करना चाहिए।

हमारे शरीर के भीतर मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, आज्ञा और सहस्रार नामक छः चक्र हैं। इन चक्रों में क्रमशः विद्येश्वर, ब्रह्मा, विष्णु, ईश, जीवात्मा और परमेश्वर स्थित हैं। सद्भावनापूर्वक श्वास के साथ ‘सोऽहं’ का जाप करें। सहस्र बार किया गया जाप ब्रह्मलोक प्रदान करने वाला है। सौ बार किए जाप से इंद्र पद की प्राप्ति होती है। आत्मरक्षा के लिए जो मनुष्य अल्प मात्रा में इसका जाप करता है, वह ब्राह्मण कुल में जन्म लेता है। बारह लाख गायत्री का जाप करने वाला मनुष्य ‘ब्राह्मण’ कहा जाता है। जिस ब्राह्मण ने एक लाख गायत्री का भी जप न किया हो उसे वैदिक कार्यों में न लगाएं। यदि एक दिन उल्लंघन हो जाए तो अगले दिन उसके बदले में उतने अधिक मंत्रों का जाप करना चाहिए। ऐसा करने से दोषों की शांति होती है। धर्म से अर्थ की प्राप्ति होती है, अर्थ से भोग सुलभ होता है। भोग से वैराग्य की संभावना होती है। धर्मपूर्वक उपार्जित धन से भोग प्राप्त होता है, उससे भोगों के प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है। मनुष्य धर्म से धन पाता है एवं तपस्याओं से दिव्य रूप प्राप्त करता है। कामनाओं का त्याग करने से अंतःकरण की शुद्धि होती है, उस शुद्धि से ज्ञान का उदय होता है।

सतयुग में ‘तप’ को तथा कलियुग में ‘दान’ को धर्म का अच्छा साधन माना गया है। सतयुग में ‘ध्यान’ से, त्रेता में ‘तपस्या’ से और द्वापर में ‘यज्ञ’ करने से ज्ञान की सिद्धि होती है। परंतु कलियुग में प्रतिमा की पूजा से ज्ञान लाभ होता है। अधर्म, हिंसात्मक और दुख देने वाला है। धर्म से सुख व अभ्युदय की प्राप्ति होती है। दुराचार से दुख तथा सदाचार से सुख मिलता है। अतः भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिए धर्म का उपार्जन करना चाहिए। किसी ब्राह्मण को सौ वर्ष के जीवन निर्वाह की सामग्री देने पर ही ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है। एक सहस्र चांद्रायण व्रत का अनुष्ठान ब्रह्मलोक दायक माना जाता है। दान देने वाला पुरुष जिस देवता को सामने रखकर दान करता है अर्थात जिस देवता को वह दान द्वारा प्रसन्न करना चाहता है, उसी देवता का लोक उसे प्राप्त होता है। धनहीन पुरुष तपस्या कर अक्षय सुख को प्राप्त कर सकते हैं।
ब्राह्मण को दान ग्रहण कर तथा यज्ञ करके धन का अर्जन करना चाहिए | क्षत्रिय बाहुबल से तथा वैश्य कृषि एवं गोरक्षा से धन का उपार्जन करें। इस प्रकार न्याय से उपार्जित धन को दान करने से दाता को ज्ञान की सिद्धि प्राप्त होती है एवं ज्ञान से ही मोक्ष की प्राप्ति सुलभ होती है।

गृहस्थ मनुष्य को धन-धान्य आदि सभी वस्तुओं का दान करना चाहिए। जिसके अन्न को खाकर मनुष्य कथा श्रवण तथा सद्कर्म का पालन करता है तो उसका आधा फल दाता को मिलता है। दान लेने वाले मनुष्य को दान में प्राप्त वस्तु का दान तथा तपस्या द्वारा पाप की शुद्धि करनी चाहिए। उसे अपने धन के तीन भाग करने चाहिए – एक धर्म के लिए, दूसरा वृद्धि के लिए एवं तीसरा उपभोग के लिए। धर्म के लिए रखे धन से नित्य, नैमित्तिक और इच्छित कार्य करें। वृद्धि के लिए रखे धन से ऐसा व्यापार करें, जिससे धन की प्राप्ति हो तथा उपभोग के धन से पवित्र भोग भोगें । खेती से प्राप्त धन का दसवां भाग दान कर दें। इससे पाप की शुद्धि होती है। वृद्धि के लिए किए गए व्यापार से प्राप्त धन का छठा भाग दान देना चाहिए।

विद्वान को चाहिए कि वह दूसरों के दोषों का बखान न करे । ब्राह्मण भी दोषवश दूसरों के सुने या देखे हुए छिद्र को कभी प्रकट न करे। विद्वान पुरुष ऐसी बात न कहे, जो समस्त प्राणियों के हृदय में रोष पैदा करने वाली हो। दोनों संध्याओं के समय अग्नि को विधिपूर्वक ी हुई आहुति से संतुष्ट करे। चावल, धान्य, घी, फल, कंद तथा हविष्य के द्वारा स्थालीपाक बनाए तथा यथोचित रीति से सूर्य और अग्नि को अर्पित करे। यदि दोनों समय अग्निहोत्र करने में असमर्थ हो तो संध्या के समय जाप और सूर्य की वंदना कर ले। आत्मज्ञान की इच्छा रखने वाले तथा धनी पुरुषों को इसी प्रकार उपासना करनी चाहिए। जो मनुष्य सदा ब्रह्मयज्ञ करते हैं, देवताओं की पूजा, अग्निपूजा और गुरुपूजा प्रतिदिन करते हैं तथा ब्राह्मणों को भोजन तथा दक्षिणा देते हैं, वे स्वर्गलोक के भागी होते हैं।

यहां एक क्लिक में पढ़ें- “श्री शिव रूद्राष्टकम”

चौदहवां अध्याय

अग्नियज्ञ, देवयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ का वर्णन

ऋषियों ने कहा- प्रभो! अग्नियज्ञ, देवयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ का वर्णन करके हमें कृतार्थ करें। सूत जी बोले- महर्षियो ! गृहस्थ पुरुषों के लिए प्रातः और सायंकाल अग्नि में दो चावल और द्रव्य की आहुति ही अग्नियज्ञ है। ब्रह्मचारियों के लिए समिधा का देना ही अग्नियज्ञ है अर्थात अग्नि में सामग्री की आहुति देना उनके लिए अग्नियज्ञ है । द्विजों का जब तक विवाह न हो जाए, उनके लिए अग्नि में समिधा की आहुति, व्रत तथा जाप करना ही अग्नियज्ञ है। द्विजो ! जिसने अग्नि को विसर्जित कर उसे अपनी आत्मा में स्थापित कर लिया है, ऐसे वानप्रस्थियों और संन्यासियों के लिए यही अग्नियज्ञ है कि वे समय पर हितकर और पवित्र अन्न का भोजन कर लें। ब्राह्मणो! सायंकाल अग्नि के लिए दी आहुति से संपत्ति की प्राप्ति होती है तथा प्रातःकाल सूर्यदेव को दी आहुति से आयु की वृद्धि होती है। दिन में अग्निदेव सूर्य में हो प्रविष्ट हो जाते हैं। अतः प्रातःकाल सूर्य को दी आहुति अग्नियज्ञ के समान ही होती है।

इंद्र आदि समस्त देवताओं को प्राप्त करने के उद्देश्य से जो आहुति अग्नि में दी जाती है, वह देवयज्ञ कहलाती है। लौकिक अग्नि में प्रतिष्ठित जो संस्कार – निमित्तिक हवन कर्म है, वह देवयज्ञ है। देवताओं को प्रसन्न करने के लिए नियम से विधिपूर्वक किया गया यज्ञ ही देवयज्ञ है। वेदों के नित्य अध्ययन और स्वाध्याय को ब्रह्मयज्ञ कहते हैं। मनुष्य को देवताओं की तृप्ति के लिए प्रतिदिन ब्रह्मयज्ञ करना चाहिए। प्रातः काल और सायंकाल को ही इसे किया सकता है।

अग्नि के बिना देवयज्ञ कैसे होता है? इसे श्रद्धा और आदर से सुनो। सृष्टि के आरंभ में सर्वज्ञ और सर्वसमर्थ महादेव शिवजी ने समस्त लोकों के उपकार के लिए वारों की कल्पना की। भगवान शिव संसाररूपी रोग को दूर करने के लिए वैद्य हैं। सबके ज्ञाता तथा समस्त औषधियों के औषध हैं। भगवान शिव ने सबसे पहले अपने वार की रचना की जो आरोग्य प्रदान करने वाला है। तत्पश्चात अपनी मायाशक्ति का वार बनाया, जो संपत्ति प्रदान करने וי वाला है। जन्मकाल में दुर्गतिग्रस्त बालक की रक्षा के लिए कुमार के वार की कल्पना की । आलस्य और पाप की निवृत्ति तथा समस्त लोकों का हित करने की इच्छा से लोकरक्षक भगवान विष्णु का वार बनाया। इसके बाद शिवजी ने पुष्टि और रक्षा के लिए आयुः कर्ता त्रिलोकसृष्टा परमेष्टी ब्रह्मा का आयुष्कारक वार बनाया। तीनों लोकों की वृद्धि के लिए पहले पुण्य-पाप की रचना होने पर लोगों को शुभाशुभ फल देने वाले इंद्र और यम के वारों का निर्माण किया। ये वार भोग देने वाले तथा मृत्युभय को दूर करने वाले हैं। इसके उपरांत भगवान शिव ने सात ग्रहों को इन वारों का स्वामी निश्चित किया। ये सभी ग्रह-नक्षत्र ज्योतिर्मय मंडल में प्रतिष्ठित हैं। शिव के वार के स्वामी सूर्य हैं। शक्ति संबंधी वार के स्वामी सोम, कुमार संबंधी वार के अधिपति मंगल, विष्णुवार के स्वामी बुद्ध, ब्रह्माजी के वार के स्वामी बृहस्पति, इंद्रवार के स्वामी शुक्र व यमवार के स्वामी शनि हैं। अपने-अपने वार में की गई देवताओं की पूजा उनके फलों को देने वाली है।(Vidyeshwar Samhita 11 Chapter To 20 Chapter)

सूर्य आरोग्य और चंद्रमा संपत्ति के दाता हैं। बुद्ध व्याधियों के निवारक तथा बुद्धि प्रदाता हैं। बृहस्पति आयु की वृद्धि करते हैं। शुक्र भोग देते हैं और शनि मृत्यु का निवारण करते हैं। इन सातों वारों के फल उनके देवताओं के पूजन से प्राप्त होते हैं। अन्य देवताओं की पूजा का फल भी भगवान शिव ही देते हैं। देवताओं की प्रसन्नता के लिए पूजा की पांच पद्धतियां हैं। पहले उन देवताओं के मंत्रों का जाप, दूसरा होम, तीसरा दान, चौथा तप तथा पांचवां वेदी पर प्रतिमा में अग्नि अथवा ब्राह्मण के शरीर में विशिष्ट देव की भावना करके सोलह उपचारों से पूजा तथा आराधना करना।

दोनों नेत्रों तथा मस्तक के रोग में और कुष्ठ रोग की शांति के लिए भगवान सूर्य की पूजा करके ब्राह्मणों को भोजन कराएं। इससे यदि प्रबल प्रारब्ध का निर्माण हो जाए तो जरा एवं रोगों का नाश हो जाता है। इष्टदेव के नाम मंत्रों का जाप वार के अनुसार फल देते हैं। रविवार को सूर्य देव व अन्य देवताओं के लिए तथा अन्य ब्राह्मणों के लिए विशिष्ट वस्तु अर्पित करें। यह साधन विशिष्ट फल देने वाला होता है तथा इसके द्वारा पापों की शांति होती है। सोमवार को संपत्ति व लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए लक्ष्मी की पूजा करें तथा पत्नी के साथ ब्राह्मणों को घी में पका अन्न भोजन कराएं। मंगलवार को रोगों की शांति के लिए काली की पूजा करें। उड़द, मूंग एवं अरहर की दाल से युक्त अन्न का भोजन ब्राह्मणों को कराएं। बुधवार को दधियुक्त अन्न से भगवान विष्णु का पूजन करें। ऐसा करने से पुत्र – मित्र की प्राप्ति होती है। जो दीर्घायु होने की इच्छा रखते हैं, वे बृहस्पतिवार को देवताओं का वस्त्र, यज्ञोपवीत तथा घी मिश्रित खीर से पूजन करें। भोगों की प्राप्ति के लिए शुक्रवार को एकाग्रचित्त होकर देवताओं का पूजन करें और ब्राह्मणों की तृप्ति के लिए षड्स युक्त अन्न दें। स्त्रियों की प्रसन्नता के लिए सुंदर वस्त्र का विधान करें। शनिवार अपमृत्यु का निवारण करने वाला है। इस दिन रुद्र की पूजा करें। तिल के होम व दान से देवताओं को संतुष्ट करके, ब्राह्मणों को तिल मिश्रित भोजन कराएं। इस तरह से देवताओं की पूजा करने से आरोग्य एवं उत्तम फल की प्राप्ति होगी।(Vidyeshwar Samhita 11 Chapter To 20 Chapter)

देवताओं के नित्य विशेष पूजन, स्नान, दान, जाप, होम तथा ब्राह्मण-तर्पण एवं रवि आदि वारों में विशेष तिथि और नक्षत्रों का योग प्राप्त होने पर विभिन्न देवताओं के पूजन में जगदीश्वर भगवान शिव ही उन देवताओं के रूप में पूजित होकर, सब लोगों को आरोग्य फल प्रदान करते हैं। देश, काल, पात्र, द्रव्य, श्रद्धा एवं लोक के अनुसार उनका ध्यान रखते हुए महादेव जी आराधना करने वालों को आरोग्य आदि फल देते हैं। मंगल कार्यों के आरंभ में और अशुभ कार्यों के अंत में तथा जन्म नक्षत्रों के आने पर गृहस्थ पुरुष अपने घर में आरोग्य की समृद्धि के लिए सूर्य ग्रह का पूजन करें। इससे सिद्ध होता है कि देवताओं का पूजन संपूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को देने वाला है। पूजन वैदिक मंत्रों के अनुसार ही होना चाहिए। शुभ फल की इच्छा रखने वाले मनुष्यों को सातों दिन अपनी शक्ति के अनुसार देवपूजन करना चाहिए। निर्धन मनुष्य तपस्या व व्रत आदि से तथा धनी धन के द्वारा देवी-देवताओं की आराधना करें। जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक इस तरह के धर्म का अनुष्ठान करता है, वह पुण्यलोक में अनेक प्रकार के फल भोगकर पुनः इस पृथ्वी पर जन्म ग्रहण करता है। धनवान पुरुष सदा भोग सिद्धि के लिए मार्ग में वृक्ष लगाकर लोगों के लिए छाया की व्यवस्था करते हैं और उनके लिए कुएं, बावली बनवाकर पानी की व्यवस्था करते हैं। वेद-शास्त्रों की प्रतिष्ठा के लिए पाठशाला का निर्माण या अन्य किसी भी प्रकार से धर्म का संग्रह करते हैं और स्वर्गलोक को प्राप्त होते हैं। समयानुसार पुण्य कर्मों के परिपाक से अंतःकरण शुद्ध होने पर ज्ञान की सिद्धि होती है। द्विजो ! इस अध्याय को जो सुनता, पढ़ता अथवा सुनने की व्यवस्था करता है, उसे ‘देवयज्ञ’ का फल प्राप्त होता है।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्री महालक्ष्मी स्तोत्रम् हिंदी में

पंद्रहवां अध्याय

देश, काल, पात्र और दान का विचार

ऋषियों ने कहा – समस्त पदार्थों के ज्ञाताओं में श्रेष्ठ सूत जी हमसे देश, काल और दान का वर्णन करें।

देश का वर्णन
सूत जी बोले—अपने घर में किया देवयज्ञ शुद्ध गृह के फल को देने वाला है। गोशाला का स्थान घर में किए गए देवयज्ञ से दस गुना जबकि जलाशय का तट गोशाला से दस गुना है। एवं जहां तुलसी, बेल और पीपल वृक्ष का मूल हो, वह स्थान जलाशय तट से भी दस गुना महत्व देने वाला है। देवालय उससे भी अधिक महत्व रखता है। देवालय से दस गुना महत्व रखता है तीर्थ भूमि का तट । उससे भी श्रेष्ठ है नदी का किनारा तथा उसका दस गुना उत्कृष्ट है तीर्थ नदी का तट । इससे भी अधिक महत्व रखने वाला है सप्तगंगा का तट, जिसमें गंगा, गोदावरी, कावेरी, ताम्रपर्णी, सिंधु, सरयू और रेवा नदियां आती हैं। इससे भी दस गुना अधिक फल समुद्र का तट और उससे भी दस गुना अधिक फल पर्वत चोटी पर पूजा करने से होता है और सबसे अधिक महत्व का स्थान वह होता है, जहां मन रम जाए।(Vidyeshwar Samhita 11 Chapter To 20 Chapter)

काल का वर्णन
सतयुग में यज्ञ, दान आदि से संपूर्ण फलों की प्राप्ति होती है। त्रेता में तिहाई, द्वापर में आधा, कलियुग में इससे भी कम फल प्राप्त होता है। परंतु शुद्ध हृदय से किया गया पूजन फल देने वाला होता है। इससे दस गुना फल सूर्य संक्रांति के दिन, उससे दस गुना अधिक फल तुला और मेष की संक्रांति में तथा चंद्र ग्रहण में उससे भी दस गुना फल मिलता है। सूर्य ग्रहण में उससे भी दस गुना अधिक फल प्राप्त होता है। महापुरुषों के साथ में वह काल करोड़ों सूर्यग्रहण के समान पावन है, ऐसा ज्ञानी पुरुष मानते हैं।

पात्र वर्णन
तपोनिष्ठ योगी और ज्ञाननिष्ठ योगी पूजा के पात्र होते हैं। क्योंकि ये पापों के नाश के कारण होते हैं। जिस ब्राह्मण ने चौबीस लाख गायत्री का जाप कर लिया हो वह भी पूजा का पात्र है। वह संपूर्ण काल और भोग का दाता है। गायत्री के जाप से शुद्ध हुआ ब्राह्मण पर पवित्र है। इसलिए दान, जाप, होम और पूजा सभी कर्मों के लिए वही शुद्ध पात्र है। स्त्री या पुरुष जो भी भूखा हो वही अन्नदान का पात्र है। जिसे जिस वस्तु की इच्छा हो, उसे वह वस्तु बिना मांगे ही दे दी जाए, तो दाता को उस दान का पूरा फल प्राप्त होता है। याचना करने के बाद दिया गया दान आधा ही फल देता है। सेवक को दिया दान चौथाई फल देने वाला होता है। दीन ब्राह्मण को दिए गए धन का दान दाता को इस भूतल पर दस वर्षों तक भोग प्रदान करने वाला है। वेदवेत्ता को दान देने पर वह स्वर्गलोक में देवताओं के वर्ष से दस वर्षों तक दिव्य भोग देने वाला है। गुरुदक्षिणा में प्राप्त धन शुद्ध द्रव्य कहलाता है। इसका दान संपूर्ण फल देने वाला है। क्षत्रियों का शौर्य से कमाया हुआ, वैश्यों का व्यापार से आया हुआ और शूद्रों का सेवावृत्ति से प्राप्त किया धन उत्तम द्रव्य है।(Vidyeshwar Samhita 11 Chapter To 20 Chapter)

दान का वर्णन
गौ, भूमि, तिल, सुवर्ण, घी, वस्त्र, धान्य, गुड़, चांदी, नमक, कोहड़ा और कन्या नामक बारह वस्तुओं का दान करना चाहिए। गोदान से सभी पापों का निवारण होता है और पुण्यकर्मों की पुष्टि होती है। भूमि का दान परलोक में आश्रय देने वाला होता है। तिल का दान बल देने वाला तथा मृत्यु का निवारक होता है। सुवर्ण का दान वीर्यदायक और घी का दान पुष्टिकारक होता है। वस्त्र का दान आयु की वृद्धि करता है । धान्य का दान करने से अन्न और धन की समृद्धि होती है। गुड़ का दान मधुर भोजन की प्राप्ति कराता है। चांदी के दान से वीर्य की वृद्धि होती है। लवण के दान से षड्स भोजन की प्राप्ति होती है। कोहड़ा या कूष्माण्ड के दान को पुष्टिदायक माना जाता है। कन्या का दान आजीवन भोग देने वाला होता है।

जिन वस्तुओं से श्रवण आदि इंद्रियों की तृप्ति होती है, उनका सदा दान करें। वेद और शास्त्र को गुरुमुख ग्रहण करके कर्मों का फल अवश्य मिलता है, इसे ही उच्चकोटि की आस्तिकता कहते हैं। भाई-बंधु अथवा राजा के भय से जो आस्तिकता होती है, वह निम्न श्रेणी की होती है। जिस मनुष्य के पास धन का अभाव है, वह वाणी और कर्म द्वारा ही पूजन करे। तीर्थयात्रा और व्रत को शारीरिक पूजन माना जाता है। तपस्या और दान मनुष्य को सदा करने चाहिए। देवताओं की तृप्ति के लिए जो कुछ दान किया जाता है, वह सब प्रकार के भोग प्रदान करने वाला है। इससे इस लोक और परलोक में उत्तम जन्म और सदा सुलभ होने वाला भोग प्राप्त होता है। ईश्वर को सबकुछ समर्पित करने एवं बुद्धि से यज्ञ व दान करने से ‘मोक्ष’ की प्राप्ति होती है।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमहाभारतम् आदिपर्व द्वितीयोऽध्यायः

सोलहवां अध्याय

देव प्रतिमा का पूजन तथा शिवलिंग के वैज्ञानिक स्वरूप का विवेचन

ऋषियों ने कहा—साधु शिरोमणि सूत जी ! हमें देव प्रतिमा के पूजन की विधि बताइए, जिससे अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है।

सूत जी बोले—–हे महर्षियो ! मिट्टी से बनाई हुई प्रतिमा का पूजन करने से पुरुष-स्त्री सभी के मनोरथ सफल हो जाते हैं। इसके लिए नदी, तालाब, कुआं या जल के भीतर की मिट्टी लाकर सुगंधित द्रव्य से उसको शुद्ध करें, उसके बाद दूध डालकर अपने हाथ से सुंदर मूर्ति बनाएं। पद्मासन द्वारा प्रतिमा का आदर सहित पूजन करें। गणेश, सूर्य, विष्णु, शिव, पार्वती की मूर्ति और शिवलिंग का सदैव पूजन करें। संपूर्ण मनोरथों की सिद्धि के लिए सोलह उपचारों द्वारा पूजन करें। किसी मनुष्य द्वारा स्थापित शिवलिंग पर एक सेर नैवेद्य से पूजन करें। देवताओं द्वारा स्थापित शिवलिंग को तीन सेर नैवेद्य अर्पित करें तथा स्वयं प्रकट हुए शिवलिंग का पूजन पांच सेर नैवेद्य से करें। इससे अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। इस प्रकार सहस्र बार पूजन करने से सत्यलोक की प्राप्ति होती है। बारह अंगुल चौड़ा और पच्चीस अंगुल लंबा यह लिंग का प्रमाण है और पंद्रह अंगुल ऊंचा लोहे या लकड़ी के बनाए हुए पत्र का नाम शिव है। इसके अभिषेक से आत्मशुद्धि, गंध चढ़ाने से पुण्य, नैवेद्य चढ़ाने से आयु तथा धूप देने से धन की प्राप्ति होती है। दीप से ज्ञान और तांबूल से भोग मिलता है। अतएव स्नान आदि छः पूजन के अंगों को अर्पित करें। नमस्कार और जाप संपूर्ण अभीष्ट फलों को देने वाला है। भोग और मोक्ष की इच्छा रखने वाले लोगों को पूजा के अंत में सदा जाप और नमस्कार करना चाहिए। जो मनुष्य जिस देवता की पूजा करता है, वह उस देवता के लोक को प्राप्त करता है तथा उनके बीच के लोकों में उचित फल को भोगता है। है महर्षियो ! भू-लोक में श्रीगणेश पूजनीय हैं। शिवजी के द्वारा निर्धारित तिथि, वार, नक्षत्र में जो विधि सहित इनकी पूजा करता है उसके सभी पाप एवं शोक दूर हो जाते हैं और वह अभीष्ट फलों को पाकर मोक्ष को प्राप्त करता है।(Vidyeshwar Samhita 11 Chapter To 20 Chapter)

यदि मध्याह्न के बाद तिथि का आरंभ होता है तो रात्रि तिथि का पूर्व भाग पितरों के श्राद्ध आदि कर्म के लिए उत्तम होता है तथा बाद का भाग, दिन के समय देवकर्म के लिए अच्छा होता है। वेदों में पूजा शब्द को ठीक प्रकार से परिभाषित नहीं किया गया है—’पूः’ का अर्थ है भोग और फल की सिद्धि जिस कर्म से संपन्न होती है, उसका नाम ‘पूजा’ है। मनोवांछित वस्तु तथा ज्ञान अभीष्ट वस्तुएं हैं। लोक और वेद में पूजा शब्द का अर्थ विख्यात है। नित्य कर्म भविष्य में फल देने वाले होते हैं। लगातार पूजन करने से शुभकामनाओं की पूर्ति होती है तथा पापों का क्षय होता है।

इसी प्रकार श्रीविष्णु भगवान तथा अन्य देवताओं की पूजा उन देवताओं के वार, तिथि, नक्षत्र को ध्यान में रखते हुए तथा सोलह उपचारों से पूजन एवं भजन करने से अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। शिवजी सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाले हैं। महा आर्द्रा नक्षत्र अर्थात माघ कृष्णा चतुर्दशी को शिवजी का पूजन करने से आयु की वृद्धि होती है। ऐसे ही और भी नक्षत्रों, महीनों तथा वारों में शिवजी की पूजा व भोजन, भोग और मोक्ष देने वाला है। कार्तिक मास में देवताओं का भजन विशेष फलदायक होता है। विद्वानों के लिए यह उचित है कि इस महीने में सब देवताओं का भजन करें। संयम व नियम से जाप, तप, हवन और दान करें, क्योंकि कार्तिक मास में देवताओं का भजन सभी दुखों को दूर करने वाला है। कार्तिक मास में रविवार के दिन जो सूर्य की पूजा करता है और तेल व कपास का दान करता है, उसका कुष्ठ रोग भी दूर हो जाता है। जो अपने तन मन को जीवन पर्यंत शिव को अर्पित कर देता है, उसे शिवजी मोक्ष प्रदान करते हैं। ‘योनि’ और ‘लिंग’ इन दोनों स्वरूपों के शिव स्वरूप में समाविष्ट होने के कारण वे जगत के जन्म निरूपण हैं, और इसी नाते से जन्म की निवृत्ति के लिए शिवजी की पूजा का अलग विधान है। सारा जगत बिंदु-नादस्वरूप है। ‘बिंदु शक्ति’ है और नाद ‘शिव’ । इसलिए सारा जगत शिव-शक्ति स्वरूप ही है। नाद बिंदु का और बिंदु इस जगत का आधार है। आधार में ही आधेय का समावेश अथवा लय होता है। यही ‘सकलीकरण’ है। इस सकलीकरण की स्थिति में ही, सृष्टिकाल में जगत का आरंभ हुआ है। शिवलिंग बिंदु नादस्वरूप है। अतः इसे जगत का कारण बताया जाता है। बिंदु ‘देव’ है और नाद ‘शिव’, इनका संयुक्त रूप ही शिवलिंग कहलाता है। अतः जन्म के संकट से छुटकारा पाने के लिए शिवलिंग की पूजा करनी चाहिए। बिंदुरूपा देवी ‘उमा’ माता हैं और नादस्वरूप भगवान ‘शिव’ पिता। इन माता-पिता के पूजित होने से परमानंद की प्राप्ति होती है। देवी उमा जगत की माता हैं और शिव जगत के पिता । जो इनकी सेवा करता है, उस पुत्र पर इनकी कृपा नित्य बढ़ती रहती है। वह पूजक पर कृपा कर उसे अपना आंतरिक ऐश्वर्य प्रदान करते हैं।(Vidyeshwar Samhita 11 Chapter To 20 Chapter)

अतः शिवलिंग को माता-पिता का स्वरूप मानकर पूजा करने से, आंतरिक आनंद की प्राप्ति होती है। भर्ग (शिव) पुरुषरूप हैं और भर्गा (शक्ति) प्रकृति कहलाती है। पुरुष आदिगर्भ है, क्योंकि वही प्रकृति का जनक है। प्रकृति में पुरुष का संयोग होने से होने वाला जन्म उसका प्रथम जन्म कहलाता है। ‘जीव’ पुरुष से बारंबार जन्म और मृत्यु को प्राप्त होता है। माया द्वारा प्रकट किया जाना ही उसका जन्म कहलाता है। जीव का शरीर जन्मकाल से ही छः विकारों से युक्त होता है। इसीलिए इसे जीव की संज्ञा दी गई है।

जन्म लेकर जो प्राणी विभिन्न पाशों अर्थात बंधनों में पड़ता है, वह जीव है। जीव पशुता के पाश से जितना छूटने का प्रयास करता है, उसमें उतना ही उलझता जाता है। कोई भी साधन जीव को जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त नहीं कर पाते। शिव के अनुग्रह से ही महामाया का प्रसाद जीव को प्राप्त होता है और मुक्ति मार्ग पर अग्रसर होता है। जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त होने के लिए श्रद्धापूर्वक शिव लिंग का पूजन करना चाहिए।

गाय के दूध, दही और घी को शहद और शक्कर के साथ मिलाकर पंचामृत तैयार करें तथा इन्हें अलग-अलग भी रखें। पंचामृत से शिवलिंग का अभिषेक व स्नान करें। दूध व अन्न मिलाकर नैवेद्य तैयार कर प्रणव मंत्र का जाप करते हुए उसे भगवान शिव को अर्पित कर दें। प्रणव को ‘ध्वनिलिंग’, ‘स्वयंभूलिंग’ और नादस्वरूप होने के कारण ‘नादलिंग’ तथा बिंदुस्वरूप होने के कारण ‘बिंदुलिंग’ के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त है। अचल रूप से प्रतिष्ठित शिवलिंग को मकार स्वरूप माना जाता है। इसलिए वह ‘मकारलिंग’ कहलाता है। सवारी निकालने में ‘उकारलिंग’ का उपयोग होता है। पूजा की दीक्षा देने वाले गुरु- आचार्य विग्रह आकार का प्रतीक होने से ‘अकारलिंग’ के छः भेद हैं। इनकी नित्य पूजा करने से साधक जीवन मुक्त हो जाता है।

वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस में क्या अंतर है?

सत्रहवां अध्याय

प्रणव का माहात्म्य व शिवलोक के वैभव का वर्णन

ऋषि बोले- महामुनि ! आप हमें ‘प्रणव मंत्र’ का माहात्म्य तथा ‘शिव’ की भक्ति-पूजा का विधान सुनाइए।

प्रणव का माहात्म्य
सूत जी ने कहा- महर्षियो! आप लोग तपस्या के धनी हैं तथा आपने मनुष्यों की भलाई के लिए बहुत ही सुंदर प्रश्न किया है। मैं आपको इसका उत्तर सरल भाषा में दे रहा हूं। ‘प्र’ प्रकृति से उत्पन्न संसार रूपी महासागर का नाम है। प्रणव इससे पार करने के लिए नौका स्वरूप है। इसलिए ओंकार को प्रणव की संज्ञा दी गई है। प्र-प्रपंच, न – नहीं है, वः – तुम्हारे लिए। इसलिए ‘ओम्’ को प्रणव नाम से जाना जाता है अर्थात प्रणव वह शक्ति है, जिसमें जीव के लिए किसी प्रकार का भी प्रपंच अथवा धोखा नहीं है। यह प्रणव मंत्र सभी भक्तों को मोक्ष देता है। मंत्र का जाप तथा इसकी पूजा करने वाले उपासकों को यह नूतन ज्ञान देता है। माया रहित महेश्वर को भी नव अर्थात नूतन कहते हैं। वे परमात्मा के शुद्ध स्वरूप हैं। प्रणव साधक को नया अर्थात शिवस्वरूप देता है। इसलिए विद्वान इसे प्रणव नाम से जानते हैं, क्योंकि यह नव दिव्य परमात्म ज्ञान प्रकट करता है। इसलिए यह प्रणव है।(Vidyeshwar Samhita 11 Chapter To 20 Chapter)

प्रणव के दो भेद हैं— ‘स्थूल’ और ‘सूक्ष्म’ | ‘ॐ’ सूक्ष्म प्रणव व ‘नमः शिवाय’ यह पंचाक्षर मंत्र स्थूल प्रणव है। जीवन मुक्त पुरुष के लिए सूक्ष्म प्रणव के जाप का विधान है क्योंकि यह सभी साधनों का सार है। देह का विलय होने तक सूक्ष्म प्रणव मंत्र का जाप, अर्थभूत परमात्म-तत्व का अनुसंधान करता है। शरीर नष्ट होने पर ब्रह्मस्वरूप शिव को प्राप्त करता है। इस मंत्र का छत्तीस करोड़ बार जाप करने से, मनुष्य योगी हो जाता है। यह अकार, उकार, मकार, बिंदु और नाद सहित अर्थात ‘अ’, ‘ऊ’, ‘म’ तीन दीर्घ अक्षरों और मात्राओं सहित ‘प्रणव’ होता है, जो योगियों के हृदय में निवास करता है। यही सब पापों का नाश करने वाला है। ‘अ’ शिव है, ‘उ’ शक्ति और ‘मकार’ इनकी एकता है।

पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश – पांच भूत तथा शब्द, स्पर्श आदि पांच विषय कुल मिलाकर दस वस्तुएं मनुष्यों की कामना के विषय हैं। इनकी आशा मन में लेकर जो कर्मों का अनुष्ठान करते हैं वे प्रवृत्ति मार्गी कहलाते हैं तथा जो निष्काम भाव से शास्त्रों के अनुसार कर्मों का अनुष्ठान करते हैं वे निवृत्त मार्गी हैं। वेद के आरंभ में तथा दोनों समय की संध्या वंदना के समय सबसे पहले उकार का प्रयोग करना चाहिए। प्रणव के नौ करोड़ जाप से पुरुष शुद्ध हो जाता है। फिर नौ करोड़ जाप से पृथ्वी की, फिर इतने ही जाप से तेज की, फिर नौ करोड़ जाप से वायु की और फिर नौ-नौ करोड़ जाप से गंध की सिद्धि होती है। ब्राह्मण सहस्र ओंकार मंत्रों का रोजाना जाप करने से प्रबुद्ध व शुद्ध योगी हो जाता है। फिर जितेंद्रिय होकर पांच करोड़ का जाप करता है तथा शिवलोक को प्राप्त होता है।(Vidyeshwar Samhita 11 Chapter To 20 Chapter)

क्रिया, तप और जाप के योग से शिवयोगी तीन प्रकार के होते हैं। धन और वैभव से पूजा सामग्री एकत्र कर अंगों से नमस्कार आदि करते हुए इष्टदेव की प्राप्ति के लिए जो पूजा में लगा रहता है, वह क्रियायोगी कहलाता है। पूजा में संलग्न रहकर जो परिमित भोजन कर है एवं बाह्य इंद्रियों को जीतकर वश में करता है उसे तपोयोगी कहते हैं। सभी सद्गुणों से युक्त होकर सदा शुद्ध भाव से समस्त कार्य कर शांत हृदय से निरंतर जो जाप करता है, वह ‘जप योगी’ कहलाता है। जो मनुष्य सोलह उपचारों से शिवयोगी महात्माओं की पूजा कर है, वह शुद्ध होकर मुक्ति को प्राप्त करता है।

जपयोग का वर्णन
ऋषियो ! अब मैं तुमसे जपयोग का वर्णन करता हूं। सर्वप्रथम, मनुष्य को अपने मन को शुद्ध कर पंचाक्षर मंत्र ‘नमः शिवाय’ का जाप करना चाहिए। यह मंत्र संपूर्ण सिद्धियां प्रदान करता है। इस पंचाक्षर मंत्र के आरंभ में ‘ॐ’ (ओंकार) का जाप करना चाहिए। गुरु के मुख से पंचाक्षर मंत्र का उपदेश पाकर कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से लेकर चतुर्दशी तक साधक रोज एक बार परिमित भोजन करे, मौन रहे, इंद्रियों को वश में रखे, माता-पिता की सेवा करे, नियम से एक सहस्र पंचाक्षर मंत्र का जाप करे तभी उसका जपयोग शुद्ध होता है। भगवान शिव का निरंतर चिंतन करते हुए पंचाक्षर मंत्र का पांच लाख जाप करे। जपकाल में शिवजी के कल्याणमय स्वरूप का ध्यान करे। ऐसा ध्यान करे कि भगवान शिव कमल के आसन पर विराजमान हैं। उनका मस्तक गंगाजी और चंद्रमा की कला से सुशोभित है। उनकी बाईं ओर भगवती उमा विराजमान हैं। अनेक शिवगण वहां खड़े होकर उनकी अनुपम छवि को निहार रहे हैं। मन में सदाशिव का बारंबार स्मरण करते हुए सूर्यमंडल से पहले उनकी मानसिक पूजा करे। पूर्व की ओर मुख करके पंचाक्षर मंत्र का जाप करे। उन दिनों साधक शुद्ध कर्म करे तथा अशुद्ध कर्मों से बचा रहे। जाप की समाप्ति के दिन कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को शुद्ध होकर शुद्ध हृदय से बारह सहस्र जाप करे। तत्पश्चात ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव तथा सद्योजात के प्रतीक स्वरूप पांच शिवभक्त ब्राह्मणों का वरण कर, शिव का पूजन विधिपूर्वक कर होम प्रारंभ करे।

विधि-विधान से भूमि को शुद्ध कर वेदी पर अग्नि प्रज्वलित करे। गाय के घी से ग्यारह सौ अथवा एक हजार आहुतियां स्वयं दे या एक सौ आठ आहुतियां ब्राह्मण से दिलाए । दक्षिणा के रूप में एक गाय अथवा बैल देना चाहिए। प्रतीकरूप पांच ब्राह्मणों के चरणों को धोए तथा उस जल से मस्तक को सींचे। ऐसा करने से अगणित तीर्थों में तत्काल स्नान का फल प्राप्त होता है। इसके उपरांत ब्राह्मणों को भरपूर भोजन कराकर देवेश्वर शिव से प्रार्थना करे। फिर पांच लाख जाप करने से समस्त पापों का नाश हो जाता है। पुनः पांच लाख जाप करने पर, भूतल से सत्य लोक तक चौदह भुवनों पर अधिकार प्राप्त हो जाता है।(Vidyeshwar Samhita 11 Chapter To 20 Chapter)

कर्म माया और ज्ञान माया का तात्पर्य
मां का अर्थ है लक्ष्मी। उससे कर्मभोग प्राप्त होता है। इसलिए यह माया अथवा कर्म माया कहलाती है। इसी से ज्ञान-भोग की प्राप्ति होती है। इसलिए उसे माया या ज्ञानमाया भी कहा गया है। उपर्युक्त सीमा से नीचे नश्वर भोग है और ऊपर नित्य भोग। नश्वर भोग में जीव सकाम कर्मों का अनुसरण करता हुआ विभिन्न योनियों व लोकों के चक्कर काटता है। बिंदु पूजा में तत्पर रहने वाले उपासक नीचे के लोकों में घूमते हैं। निष्काम भाव से शिवलिंग की पूजा करने वाले ऊपर के लोक में जाते हैं। नीचे कर्मलोक है और यहां सांसारिक जीव रहते हैं। ऊपर ज्ञानलोक है जिसमें मुक्त पुरुष रहते हैं और आध्यात्मिक उपासना करते हैं।

शिवलोक के वैभव का वर्णन
जो मनुष्य सत्य अहिंसा से भगवान शिव की पूजा में तत्पर रहते हैं, कालचक्र को पार कर जाते हैं। काल चक्रेश्वर की सीमा तक महेश्वर लोक है। उससे ऊपर वृषभ के आकार में धर्म की स्थिति है। उसके सत्य, शौच, अहिंसा और दया चार पाद हैं। वह साक्षात शिवलोक के द्वार पर खड़ा है। क्षमा उसके सींग हैं, शम कान हैं। वह वेदध्वनिरूपी शब्द से विभूषित है। भक्ति उसके नेत्र व विश्वास और बुद्धि मन हैं। क्रिया आदि धर्मरूपी वृषभ हैं, जिस पर शिव आरूढ़ होते हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश की आयु को दिन कहते हैं। कारण स्वरूप ब्रह्मा के सत्यलोक पर्यंत चौदह लोक स्थित हैं, जो पांच भौतिक गंध से परे हैं। उनसे ऊपर कारणरूप विष्णु के चौदह लोक हैं तथा इससे ऊपर कारणरूपी रुद्र के अट्ठाईस लोकों की स्थिति है। फिर कारणेश शिव के छप्पन लोक विद्यमान हैं। सबसे ऊपर पांच आवरणों से युक्त ज्ञानमय कैलाश है, जहां पांच मंडलों, पांच ब्रह्मकालों और आदि शक्ति से संयुक्त आदिलिंग है, जिसे शिवालय कहा जाता है। वहीं पराशक्ति से युक्त परमेश्वर शिव निवास करते हैं। वे सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह आदि कार्यों में कुशल हैं। नित्य कर्मों द्वारा देवताओं का पूजन करने से शिव-तत्व का साक्षात्कार होता है। जिन पर शिव की कृपादृष्टि पड़ चुकी है, वे सब मुक्त हो जाते हैं। अपनी आत्मा में आनंद का अनुभव करना ही मुक्ति का साधन है। जो पुरुष क्रिया, तप, जाप, ज्ञान और ध्यान रूपी धर्मों से शिव का साक्षात्कार करके मोक्ष को प्राप्त कर लेता है, उसके अज्ञान को भगवान शिव दूर कर देते हैं।(Vidyeshwar Samhita 11 Chapter To 20 Chapter)

शिवभक्ति का सत्कार
साधक पांच लाख जाप करने के पश्चात भगवान शिव की प्रसन्नता के लिए महाभिषेक एवं नैवेद्य से शिव भक्तों का पूजन करे। भक्त की पूजा से भगवान शिव बहुत प्रसन्न होते हैं। शिव भक्त का शरीर शिवरूप ही है। जो शिव के भक्त हैं और वेद की सारी क्रियाओं को जानते हैं, वे जितना अधिक शिवमंत्र का जाप करते हैं, उतना ही शिव का सामीप्य बढ़ता है। शिवभक्त स्त्री का रूप पार्वती देवी का है तथा मंत्रों का जाप करने से देवी का सान्निध्य प्राप्त हो जाता है। साधक स्वयं शिवस्वरूप होकर पराशक्ति अर्थात पार्वती का पूजनशक्ति, बेर तथा लिंग का चित्र बनाकर अथवा मिट्टी से इनकी आकृति का निर्माण करके, प्राण प्रतिष्ठा कर इसका पूजन करे। शिवलिंग को शिव मानकर अपने को शक्ति रूप समझकर शक्ति लिंग को देवी मानकर पूजन करे। शिवभक्त शिव मंत्र रूप होने के कारण शिव के स्वरूप है। जो सोलह उपचारों से उनकी पूजा करता है, उसे अभीष्ट फलों की प्राप्ति होती है। उपासना के उपरांत शिव भक्त की सेवा से विद्वानों पर शिवजी प्रसन्न होते हैं। पांच, दस या सौ सपत्नीक शिवभक्तों को बुलाकर आदरपूर्वक भोजन कराए। शिव भावना रखते हुए निष्कपट पूजा करने से भूतल पर फिर जन्म नहीं होता।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय

अठारहवां अध्याय

बंधन और मोक्ष का विवेचन शिव के भस्मधारण का रहस्य

ऋषि बोले- सर्वज्ञों में श्रेष्ठ सूत जी ! बंधन और मोक्ष क्या है? कृपया हम पर कृपा कर हमें बताएं?

सूत जी ने कहा- महर्षियो ! मैं बंधन और मोक्ष के स्वरूप व उपाय का वर्णन तुम्हारे लिए कर रहा हूं। पृथ्वी के आठ बंधनों के कारण ही आत्मा की जीव संज्ञा है । अर्थात बंधनों में बंधा हुआ जीव ‘बद्ध’ कहलाता है और जो उन बंधनों से छूटा हुआ है उसे ‘मुक्त’ कहते हैं। प्रकृति, बुद्धि, त्रिगुणात्मक अहंकार और पांच तन्मात्राएं आदि आठ तत्वों के समूह से देह की उत्पत्ति हुई है। देह से कर्म होता है और फिर कर्म से नूतन देह की उत्पत्ति होती है। शरीर को स्थूल, सूक्ष्म और कारण के भेद से जानना चाहिए। स्थूल शरीर व्यापार कराने वाला, सूक्ष्म शरीर इंद्रिय भोग प्रदान करने वाला तथा शरीर को आत्मानंद की अनुभूति कराने वाला होता है। कर्मों के द्वारा ही जीव पाप और पुण्य भोगता है। इन्हीं से सुख-दुख की प्राप्ति होती है। अतः कर्मपाश में बंधकर जीव शुभाशुभ कर्मों द्वारा चक्र की भांति घुमाया जाता है। इससे छुटकारा पाने के लिए महाचक्र के कर्ता भगवान शिव की स्तुति और आराधना करनी चाहिए। शिव ही सर्वज्ञ, परिपूर्ण और अनंत शक्तियों को धारण किए हैं। जो मन, वचन, शरीर और धन से बेरलिंग या भक्तजनों में शिव भावना करके उनकी पूजा करते हैं, उन पर शिवजी की कृपा अवश्य होती है। शिवलिंग में शिव की प्रतिमा ने शिव भक्तजनों में शिव की भावना करके उनकी प्रसन्नता के लिए पूजा करनी चाहिए। पूजन शरीर, मन, वाणी और धन से कर सकते हैं। भगवान शिव पूजा करने वाले पर विशेष कृपा करते हैं और अपने लोक में निवास का सौभाग्य प्रदान करते हैं। जब तन्मात्राएं वश में हो जाती हैं, तब जीव जगदंबा सहित शिव का सामीप्य प्राप्त कर लेता है। भगवान का प्रसाद प्राप्त होने पर बुद्धि वश में हो जाती है। सर्वज्ञता और तृप्ति शिव के ऐश्वर्य हैं। इन्हें पाकर मनुष्य की मुक्ति हो जाती है। इसलिए शिव का कृपा प्रसाद प्राप्त करने के लिए उन्हीं का पूजन करना चाहिए। शिवक्रिया, शिव तप, शिवमंत्र जाप, शिवज्ञान और शिव ध्यान प्रतिदिन प्रातः से रात को सोते समय तक, जन्म से मृत्यु तक करना चाहिए एवं मंत्रों और विभिन्न पुष्पों से शिव की पूजा करनी चाहिए। ऐसा करने से भगवान शिव का लोक प्राप्त होता है।

ऋषि बोले-— उत्तम व्रत का पालन करने वाले सूत जी ! शिवलिंग की पूजा कैसे करनी चाहिए? कृपया हमें बताइए ?

सूत जी ने कहा- ब्राह्मणो! सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाले लिंग के स्वरूप का मैं तुमसे वर्णन कर रहा हूं। सूक्ष्मलिंग निष्कल होता है और स्थूल लिंग सकल । पंचाक्षर मंत्र को स्थूल लिंग कहते हैं। दोनों ही लिंग साक्षात मोक्ष देने वाले हैं। प्रकृति एवं पौरुष लिंग के रूपों के बारे में एकमात्र भगवान शिव ही जानते हैं और कोई नहीं जानता। पृथ्वी पर पांच लिंग हैं, जिनका विवरण मैं तुम्हें सुनाता हूं।(Vidyeshwar Samhita 11 Chapter To 20 Chapter)

पहला ‘स्वयंभू शिवलिंग’, दूसरा ‘बिंदुलिंग’, तीसरा ‘प्रतिष्ठित लिंग’, चौथा ‘चरलिंग’, और पांचवां ‘गुरुलिंग’ है। देवर्षियों की तपस्या से संतुष्ट हो उनके समीप प्रकट होने के लिए पृथ्वी के अंतर्गत बीजरूप में व्याप्त हुए भगवान शिव वृक्षों के अंकुर की भांति भूमि को भेदकर ‘नादलिंग’ के रूप में व्यक्त हो जाते हैं । स्वतः प्रकट होने के कारण ही इसका नाम ‘स्वयंभूलिंग’ है। इसकी आराधना करने से ज्ञान की वृद्धि होती है। सोने-चांदी, भूमि, वेदी पर हाथ से प्रणव मंत्र लिखकर भगवान शिव की प्रतिष्ठा और आह्वान करें तथा सोलह उपचारों से उनकी पूजा करें। ऐसा करने से साधक को ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। देवताओं और ऋषियों ने आत्मसिद्धि के लिए ‘पौरुष लिंग’ की स्थापना मंत्रों के उच्चारण द्वारा की है। यही ‘प्रतिष्ठित लिंग’ कहलाता है। किसी ब्राह्मण अथवा राजा द्वारा मंत्रपूर्वक स्थापित किया गया लिंग भी प्रतिष्ठित लिंग कहलाता है, किंतु वह ‘प्राकृत लिंग’ है। शक्तिशाली और नित्य होने वाला ‘पौरुष लिंग’ तथा दुर्बल और अनित्य होने वाला ‘प्राकृत लिंग’ कहलाता है।

लिंग, नाभि, जीभ, हृदय और मस्तक में विराजमान आध्यात्मिक लिंग को ‘चरलिंग’ कहते हैं। पर्वत को ‘पौरुष लिंग’ और भूतल को विद्वान ‘प्राकृत लिंग’ मानते हैं। पौरुष लिंग समस्त ऐश्वर्य को प्रदान करने वाला है। प्राकृत लिंग धन प्रदान करने वाला है। ‘चरलिंग’ में सबसे प्रथम ‘रसलिंग’ ब्राह्मणों को अभीष्ट वस्तु प्रदान करने वाला है। ‘सुवर्ण लिंग’ वैश्यों को धन, ‘बाणलिंग’ क्षत्रियों को राज्य, ‘सुंदर लिंग’ शूद्रों को महाशुद्धि प्रदान करने वाला है। बचपन, जवानी और बुढ़ापे में स्फटिकमय शिवलिंग का पूजन स्त्रियों को समस्त भोग प्रदान करने वाला है।

समस्त पूजा कर्म गुरु के सहयोग से करें। इष्टदेव का अभिषेक करने के पश्चात अगहनी के चावल की बनी खीर तथा नैवेद्य अर्पण करें। निवृत्त मनुष्य को ‘सूक्ष्म लिंग’ का पूजन विभूति के द्वारा करना चाहिए । विभूति लोकाग्निजनित, वेदाग्निजनित और शिवाग्निजनित तीन प्रकार की होती हैं। लोकाग्निजनित अर्थात लौकिक भस्म को शुद्धि के लिए रखें। मिट्टी, लकड़ी और लोहे के पात्रों की धान्य, तिल, वस्त्र आदि की भस्म से शुद्धि होती है। वेदों से जति भस्म को वैदिक कर्मों के अंत में धारण करना चाहिए। मूर्तिधारी शिव का मंत्र पढ़कर बेल की लकड़ी जलाएं। कपिला गाय के गोबर तथा शमी, पीपल, पलाश, बड़, अमलताश और बेर की लकड़ियों से अग्नि जलाएं, इसे शुद्ध भस्म माना जाता है। भगवान शिव ने अपने गले में विराजमान प्रपंच को जलाकर भस्मरूप से सारतत्व को ग्रहण किया है। उनके सारे अंग विभिन्न वस्तुओं के सार रूप हैं। भगवान शिव ने अपने माथे के तिलक में ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र के सारतत्व को धारण किया है। सजल भस्म को धारण करके शिवजी की पूजा करने से सारा फल मिलता है। शिव मंत्र से भस्म धारण कर श्रेष्ठ आश्रमी होता है। शिव की पूजा अर्चना करने वाले को अपवित्रता और सूतक नहीं लगता। गुरु शिष्य के राजस, तामस और तमोगुण का नाश कर शिव का बोध कराता है। ऐसे गुरु के हाथ से भस्म धारण करनी चाहिए।(Vidyeshwar Samhita 11 Chapter To 20 Chapter)

जन्म और मरण सब भगवान शिव ने ही बनाए हैं, जो इन्हें उनकी सेवा में ही अर्पित कर देता है, वह बंधनों से मुक्त हो जाता है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण को वश में कर लेने से मोक्ष प्राप्त होता है। जो शिव की पूजा में तत्पर हो, मौन रहे, सत्य तथा गुणों से युक्त हो, क्रिया, जाप, तप करता रहे, उसे दिव्य ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है तथा ज्ञान का उदय होता है। शिवभक्त यथायोग्य क्रिया एवं अनुष्ठान करें तथा धन का उपयोग कर शिव स्थान में निवास करें। भगवान शिव के माहात्म्य का सभी के सामने प्रचार करें। शिव मंत्र के रहस्य को उनके अलावा कोई नहीं जानता है, इसलिए शिवलिंग का नित्य पूजन करें।

 

उन्नीसवां अध्याय

पूजा का भेद

ऋषि बोले – हे सूत जी ! आप हम पर कृपा करके पार्थिव महेश्वर की महिमा का वर्णन, जो आपने वेद व्यास जी से सुना है, सुनाइए ।

सूत जी बोले- हे ऋषियो ! मैं भोग और मोक्ष देने वाली पार्थिव पूजा पद्धति का वर्णन कर रहा हूं। पार्थिव लिंग सभी लिंगों में सर्वश्रेष्ठ है। इसके पूजन से मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है। अनेक देवता, दैत्य, मनुष्य, गंधर्व, सर्प एवं राक्षस शिवलिंग की उपासना से अनेक सिद्धियां प्राप्त कर चुके हैं। जिस प्रकार सतयुग में रत्न का, त्रेता में स्वर्ण का व द्वापर में पारे का महत्व है, उसी प्रकार कलियुग में पार्थिव लिंग अति महत्वपूर्ण है। शिवमूर्ति का पूजन तप से भी अधिक फल प्रदान करता है। जिस प्रकार गंगा नदी सभी नदियों में श्रेष्ठ एवं पवित्र मानी जाती है, उसी प्रकार पार्थिव लिंग सभी लिंगों में सर्वश्रेष्ठ है। जैसे सब व्रतों में शिवरात्रि का व्रत श्रेष्ठ है, सब दैवीय शक्तियों में दैवी शक्ति श्रेष्ठ है, वैसे ही सब लिंगों में ‘पार्थिव लिंग’ श्रेष्ठ है।(Vidyeshwar Samhita 11 Chapter To 20 Chapter)

‘पार्थिव लिंग’ का पूजन धन, वैभव, आयु एवं लक्ष्मी देने वाला तथा संपूर्ण कार्यों को पूर्ण करने वाला है। जो मनुष्य भगवान शिव का पार्थिव लिंग बनाकर प्रतिदिन पूजा करता है, वह शिवपद एवं शिवलोक को प्राप्त करता है । निष्काम भाव से पूजन करने वाले को मुक्ति मिल जाती है। जो ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भी पूजन नहीं करता, वह घोर नरक को प्राप्त करता है।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ रघुवंशम् महाकाव्य प्रथमः सर्गः

बीसवां अध्याय

पार्थिव लिंग पूजन की विधि

पार्थिव लिंग की श्रेष्ठता तथा महिमा का वर्णन करते हुए सूत जी ने कहा- हे श्रेष्ठ महर्षियो! वैदिक कर्मों के प्रति श्रद्धाभक्ति रखने वाले मनुष्यों के लिए पार्थिव लिंग पूजा पद्धति ही परम उपयोगी एवं श्रेष्ठ है तथा भोग एवं मोक्ष प्रदान करने वाली है। सर्वप्रथम सूत्रों की विधि से स्नान करें। सांध्योपासना के उपरांत ब्रह्मयज्ञ करें। तत्पश्चात देवताओं, ऋषियों, मनुष्यों और पितरों का तर्पण करें। सब नित्य कर्मों को करके शिव भगवान का स्मरण करते हुए भस्म तथा रुद्राक्ष को धारण करें। फिर पूर्ण भक्ति भावना से पार्थिव लिंग की पूजा अर्चना करें। ऐसा करने से संपूर्ण मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है। किसी नदी या तालाब के किनारे, पर्वत पर या जंगल में या शिवालय में अथवा अन्य किसी पवित्र स्थान पर, पार्थिव पूजन करना चाहिए। पवित्र स्थान की मिट्टी से शिवलिंग का निर्माण करना चाहिए। ब्राह्मण श्वेत मिट्टी से, क्षत्रिय लाल मिट्टी से, वैश्य पीली मिट्टी से एवं शूद्र काली मिट्टी से शिवलिंग का निर्माण करें।(Vidyeshwar Samhita 11 Chapter To 20 Chapter)

शिवलिंग हेतु मिट्टी को एकत्र कर उसे गंगाजल से शुद्ध करके धीरे-धीरे उससे लिंग का निर्माण करें तथा इस संसार के सभी भोगों को तथा संसार से मोक्ष प्राप्त करने हेतु पार्थिव लिंग का पूजन भक्तिभावना से करें। सर्वप्रथम ‘ॐ नमः शिवाय’ मंत्र का उच्चारण करते हुए समस्त पूजन सामग्री को एकत्र कर उसे जल से शुद्ध करें। ‘भूरसि’ मंत्र द्वारा क्षेत्र की सिद्धि करें। फिर जल का संस्कार करें। स्फटिक शिला का घेरा बनाएं तथा क्षेत्र शुद्धि करें। तत्पश्चात शिवलिंग की प्रतिष्ठा करें तथा वैदिक रीति से पूजा-उपासना करें। भगवान शिव का आवाहन करें तथा आसन पर उन्हें स्थापित करके उनके समक्ष आसन पर स्वयं बैठ जाएं। शिवलिंग को दूध, दही और घी से स्नान कराएं, ऋचाओं से मधु (शहद) और शक्कर से स्नान कराएं। ये पांचों वस्तुएं – दूध, दही, घी, शहद और शक्कर ‘पंचामृत’ कहलाते हैं। इन्हीं वस्तुओं से लिंग को स्नान कराएं। तदोपरांत उत्तरीय धारण कराएं। चारों ऋचाओं को पढ़कर भगवान शिव को वस्त्र और यज्ञोपवीत समर्पित करें तथा सुगंधित चंदन एवं रोली चढ़ाएं तथा अक्षत, फूल और बेलपत्र अर्पित करें। नैवेद्य और फल अर्पित कर ग्यारह रुद्रों का पूजन करें तथा पूजन कर्म करने वाले पुरोहित को दक्षिणा दें। हर, महेश्वर, शंभु, शूल – पाणि, पिनाकधारी, शिव, पशुपति, महादेव, गिरिजापति आदि नामों से पार्थिव लिंग का पूजन करें तथा आरती करें। शिवलिंग की परिक्रमा करें तथा भगवान शिव को साष्टांग प्रणाम करें। पंचाक्षर मंत्र तथा सोलह उपचारों से विधिवत पूजन करें। इस प्रकार पूजन करते हुए भगवान शिव से इस प्रकार प्रार्थना करें-

सबको सुख-समृद्धि प्रदान करने वाले हे कृपानिधान, भूतनाथ शिव! आप मेरे प्राणों में बसते हैं। आपके गुण ही मेरे प्राण हैं। आप मेरे सबकुछ हैं। मेरा मन सदैव आपका ही चिंतन करता है। हे प्रभु! यदि मैंने कभी भूलवश अथवा जानबूझकर भक्तिपूर्वक आपका पूजन किया हो तो वह सफल हो जाए। मैं महापापी हूं, पतित हूं जबकि आप पतितपावन हैं। हे महादेव सदाशिव! आप वेदों, पुराणों और शास्त्रों के सिद्धांतों के परम ज्ञाता हैं। अब तक कोई भी आपको पूर्ण रूप से नहीं जानता है फिर भला मुझ जैसा पापी मनुष्य आपको कैसे सकता है ? हे महेश्वर ! मैं पूर्ण रूप से आपके अधीन हूं। हे प्रभु! कृपा कर मुझ पर प्रसन्न होइए और मेरी रक्षा कीजिए। इस प्रकार प्रार्थना करने के बाद भगवान शिव को फूल व अक्षत चढ़ाकर प्रणाम कर आदरपूर्वक विसर्जन करें। हे मुनियो ! इस प्रकार की गई भगवान शिव की पूजा, भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली एवं भक्तिभाव बढ़ाने वाली है।

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ विद्येश्वर संहिता इक्कीसवां अध्याय से पच्चीसवां अध्याय तक

यह भी पढ़े

श्री सत्यनाराण व्रत कथा

ऋग्वेद हिंदी में

लिंग पुराण हिंदी में

केनोपनिषद हिंदी में

श्री रामचरितमानस हिंदी में

Share
0

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Share
Share