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Garga Samhita Vishwajitkhand chapter 6 to 10

Garga Samhita
Garga Samhita Vishwajitkhand chapter 6 to 10

॥ श्रीहरिः ॥

ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते

श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः

Garga Samhita Vishwajitkhand Chapter 6 to 10 |
श्री गर्ग संहिता के विश्वजीतखण्ड अध्याय 6 से 10 तक

श्री गर्ग संहिता में विश्वजीतखण्ड (Vishwajitkhand chapter 6 to 10) के छठे अध्याय में प्रद्युम्न का मरुधन्व देश के राजा गयको हराकर मालवनरेश तथा माहिष्मती पुरी के राजा से बिना युद्ध किये ही भेंट प्राप्त करने का वर्णन है। सातवें अध्याय में गुजरात नरेश ऋष्यपर विजय प्राप्त करके यादव सेना का चेदिदेश के स्वामी दमघोष के यहाँ जाना; राजाका यादवों से प्रेमपूर्ण बर्ताव करने का निश्चय, किंतु शिशुपाल का माता पिता के विरुद्ध यादवों से युद्धका आग्रह करने का वर्णन कहा गया है। आठवाँ अध्याय में शिशुपाल के मित्र द्युमान् तथा शक्तका वध का वर्णन है। नवाँ अध्याय में भानुके द्वारा रङ्ग-पिङ्गका वध; प्रद्युम्न और शिशुपालका भयंकर युद्ध तथा चेदिदेशपर प्रद्युम्नकी विजय वर्णन है, और दसवाँ अध्याय में यादव सेना का कोङ्कण, कुटक, त्रिगर्त, केरल, तैलंग, महाराष्ट्र और कर्नाटक आदि देशोंपर विजय प्राप्तकर करूष देश में जाना तथा वहाँ दन्तवक्रका घोर युद्ध का वर्णन कहा गया है।

यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक

छठा अध्याय

प्रद्युम्नका मरुधन्व देशके राजा गयको हराकर मालवनरेश तथा माहिष्मती
पुरीके राजासे बिना युद्ध किये ही भेंट प्राप्त करना

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार कलिङ्गराजपर विजय पाकर यादवेश्वर प्रद्युम्न मरुधन्व (मारवाड़) देशमें इस प्रकार गये, मानो अग्निने जलपर आक्रमण किया हो। धन्वदेशका राजा गय पर्वतीय दुर्गमें रहता था। उसकी स्थिति जानकर यादवेश्वरने उसके पास उद्धवको भेजा। बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ उद्धव गिरिदुर्गमें गये और राजसभामें प्रवेश करके गयसे बोले- ‘महामते नरेश! मेरी बात सुनिये। यादवोंके स्वामी महान् राज राजेश्वर उग्रसेन जम्बूद्वीपके राजाओंको जीतकर राजसूययज्ञ करेंगे। साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण जो असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति हैं, उन महाराजके मन्त्री हुए हैं। उन्होंने ही धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ साक्षात् प्रद्युम्नको यहाँ भेजा है। आप यदि अपने कुलका कुशल क्षेम चाहें तो शीघ्र भेंट लेकर उनके पास चलें ॥१-६ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यह सुनकर शौर्य और पराक्रमके मदसे उन्मत्त रहनेवाले महाबली राजा गयने कुछ कुपित होकर उद्धवसे कहा ॥ ७ ॥(Vishwajitkhand chapter 6 to 10)

गय बोले- महामते! मैं युद्ध किये बिना उनके लिये भेंट नहीं दूँगा। आप जैसे यावदलोग अभी थोड़े ही दिनोंसे वृद्धिको प्राप्त हुए हैं-नये धनी हैं॥ ८ ॥

राजन् उसके यों कहनेपर उद्धवजीने प्रद्युम्नके पास आकर समस्त यादवोंके सामने राजा गयकी कही हुई बात दुहरा दी। फिर तो उसी समय रुक्मिणीपुत्रने गिरिदुर्गपर आक्रमण किया। गयके सैनिकोंका यादवोंके साथ घोर युद्ध हुआ। हाथियोंके पैरोंसे नागरिकों तथा भूमिपर चलनेवाले लोगोंको कुचलता और वृक्षोंको रौंदवाता हुआ राजा गय दो अक्षौहिणी सेनाके साथ युद्धके लिये निकला। रथी रथियोंके साथ, बड़े-बड़े गज गजराजोंके साथ, घुड़सवार घुड़सवारोंके साथ तथा वीर वीरोंके साथ परस्पर युद्ध करने लगे। तीखे बाण-समूहों, ढाल, तलवार, गदा, ऋष्टि, पाश, फरसे शतघ्री और भशण्डी आदि अस्त्र-शस्त्रोंकी मारसे भयातुर हो गयके सैनिक यादवोंसे परास्त हो अपना-अपना रथ छोड़कर सब- के-सब दसों दिशाओंमें भाग चले ॥ ९-१४॥

अपनी सेनाके पलायन करनेपर महाबली गय बार-बार धनुषकी टंकार करता हुआ अकेला ही युद्धके लिये आगे बढ़ा। तेजस्वी श्रीकृष्णपुत्र दीप्तिमान्ने धनुषसे छोड़े हुए बाणोंसे शत्रुके घोड़ोंको मार डाला। एक बाणसे सारथिको नष्ट करके दो बाणोंसे उसकी ऊँची ध्वजा काट डाली। बीस बाणोंसे रथको तोड़-फोड़कर पाँच बाणोंसे उसके कवचको छिन्न-भिन्न कर दिया। फिर महाबली दीप्तिमान्ने सौ बाण मारकर गयके धनुषको भी खण्डित कर दिया। गयने दूसरे धनुषको लेकर बीस बाणोंद्वारा श्रीकृष्णपुत्र दीप्तिमान को घायल कर दिया। फिर वह बलवान् वीर मेघके समान गर्जना करने लगा। समराङ्गणमें उसके प्रहारसे दीप्तिमान के हृदयमें कुछ व्याकुलता हुई, तथापि उन्होंने एक ज्योतिर्मयी सुदृढ़ शक्ति हाथमें ली और उसे घुमाकर महात्मा गयके ऊपर चलाया। उस शक्तिने राजाके हृदयको विदीर्ण करके उसका बहुत रक्त पी लिया। राजन् ! गय भी समराङ्गणमें गिरकर मूच्छित हो गया। दीप्तिमान् अपने धनुषकी कोटि शत्रुके गलेमें डालकर उसे घसीटते हुए प्रद्युम्नके सामने उसी प्रकार ले आये, जैसे गरुड़ किसी नागको खींच लाया हो। उस समय मानवों तथा देवताओंकी दुन्दुभियाँ एक साथ ही बज उठीं। देवता आकाशसे और पार्थिव नरेश भूतलसे फूलोंकी वर्षा करने लगे। राजन् ! तब गयने भी शम्बरारि श्रीकृष्णपुत्र प्रद्युम्नके चरणोंका पूजन किया॥ १५-२२ ॥(Vishwajitkhand chapter 6 to 10)

वहाँसे महात्मा प्रद्युम्न अवन्तिकापुरको गये, उसी प्रकार जैसे भ्रमर सुनहरी कर्णिकापर टूट पड़े। उनका आगमन सुनकर मालवनरेश जयसेनने उनकी भली- भाँति पूजा की। मिथिलेश्वर! वे प्रद्युम्रके प्रभावको जानते थे, अतः उनसे अपनी पराजय स्वीकार करके उन्होंने बड़े-बूढ़ोंको बुलवाया और उनके द्वारा महात्मा प्रद्युम्नको उत्तम भेंट सामग्री अर्पित की। वहाँ अपने पिताकी बुआ राजाधिदेवीको प्रणाम करके महामनस्वी प्रद्युम्रने अपने फुफेरे भाई विन्द और अनुविन्दको गलेसे लगाया और मालवदेशके योद्धाओंसे सादर घिरकर वे बड़ी शोभाको प्राप्त हुए ॥ २३-२५ ॥

वहाँसे धनुर्धारियोंमें श्रेष्ठ प्रद्युम्र माहिष्मती पुरीको गये और यादवों तथा अपने सैनिकोंके साथ वहाँ उन्होंने नर्मदा नदीका दर्शन किया। जलके कल्लोलोंसे सुशोभित नर्मदा मानो शृङ्गार-तिलक धारण किये हुए थी और छपी हुई पगड़ीकी भाँति पुष्पसमूहों को बहा रही थी। बेंत, बाँस तथा अन्य वृक्षोंसे फूले हुए माधव-तरुओंसे घिरी हुई नर्मदा मूर्तिमान् तेजस्वी देवताओंसे घिरी हुई आकाशगङ्गाकी-सी शोभा पाती थी। उसके तटपर छावनी डालकर यादवेश्वर प्रद्युम्न यादवोंके साथ इस प्रकार विराजमान हुए, मानो देवताओंके साथ देवराज इन्द्र शोभा पा रहे हों। महाराज! माहिष्मती पुरीके स्वामी इन्द्रनील बड़े ज्ञानी थे, उन्होंने महात्मा प्रद्युम्नके पास अपना दूत भेजा। दूतने प्रद्युम्रराजके शिबिरमें आकर हाथ जोड़ प्रणाम किया और सबके सुनते हुए वहाँ यह बात कही ॥ २६-३१ ॥

दूत बोला- प्रभो! हस्तिनापुरके राजा बुद्धिमान धृतराष्ट्रने इन अत्यन्त बलवान् वीर इन्द्रनीलको माहिष्मती पुरीके राज्यपर स्थापित किया है, अतः ये किसीको बलि या भेंट नहीं देंगे। दुर्योधनको स्वेच्छासे ही ये द्रव्यराशि भेंट करते हैं, बलात् नहीं। आपलोग युद्ध कर सकते हैं, परंतु यहाँ युद्धसे कोई लाभ नहीं होगा ॥ ३२-३३ ॥(Vishwajitkhand chapter 6 to 10)

श्रीप्रद्युम्रने कहा- दूत ! जैसे राजा गय और कलिङ्गराजने अपमानित होनेपर भेंट दी, उसी तरह यहाँके राजा भी पराजित होकर भेंट देंगे। माहिष्मतीके राजा बड़े राजाधिराज बने हैं; परंतु ये महाराज उग्रसेन- को नहीं जानते ॥ ३४ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहनेपर दूतने तत्काल जाकर राजसभामें माहिष्मतीपतिसे प्रद्युम्नकी कही हुई बात कह सुनायी। माहिष्मतीके राजाने देखा कि यादवोंकी सेना बड़ी उद्भट है (अतः उससे युद्ध करना ठीक न होगा); इसलिये वे पाँच हजार हाथी, एक लाख घोड़े और दस हजार विजय- शील रथ लेकर निकले और महात्मा प्रद्युम्नसे मिलकर वह सब कुछ उन्हें भेंट कर दिया ॥ ३५-३७॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व-संवादमें ‘माहिष्मतीपुरीपर विजय’ नामक छठा अध्याय पूरा हुआ ॥ ६ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ अद्भुत रामायण

सातवाँ अध्याय

गुजरात-नरेश ऋष्यपर विजय प्राप्त करके यादव-सेनाका चेदिदेशके स्वामी दमघोषके
यहाँ जाना; राजाका यादवोंसे प्रेमपूर्ण बर्ताव करनेका निश्चय, किंतु
शिशुपालका माता-पिताके विरुद्ध यादवोंसे युद्धका आग्रह

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! महापराक्रमी प्रद्युम्न माहिष्मतीके राजाको जीतकर अपनी विशाल सेना लिये गुजरातके राजाके यहाँ गये। जैसे पक्षिराज गरुड अपनी चोंचसे सर्पको पकड़ लेते हैं, उसी प्रकार श्रीकृष्ण कुमार प्रद्युम्नने गुर्जरदेशके अधिपति महाबली वीर ऋष्यको सेनाद्वारा जा पकड़ा। उनसे तत्काल भेंट वसूल करके महाबली यादवेन्द्र अपनी विशाल वाहिनी साथ लिये हुए चेदिदेशमें जा पहुँचे। चेदिराज दमघोष वसुदेवजीके बहनोई थे; किंतु उनका पुत्र शिशुपाल श्रीकृष्णका पक्का शत्रु कहा गया है। बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ महाबुद्धिमान् उद्धव महाबली दमघोषके पास गये और उनको प्रणाम करके बोले ॥१-५॥

उद्धवने कहा- राजन् ! महाराज उग्रसेनको बलि (भेंट) दीजिये। वे समस्त राजाओंको जीतकर राजसूययज्ञ करेंगे ॥ ६॥(Vishwajitkhand chapter 6 to 10)

श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! उद्धवजी- का यह वचन सुनकर दमघोषके दुष्ट पुत्र शिशुपालके ओष्ठ फड़कने लगे। वह अत्यन्त कुपित हो राजसभामें तुरंत इस प्रकार बोला ॥ ७ ॥

शिशुपालने कहा- अहो! कालकी गति दुर्लङ्घय है। यह संसार कैसा विचित्र है! कालात्मा विधाताके प्राजापत्यपर भी कलह या विवाद खड़ा हो गया है (अर्थात् लोक विधाता ब्रह्मा और घट-निर्माता कुम्भकारमें झगड़ा हो रहा है कि प्रजापति कौन हैं)। कहाँ राजहंस और कहाँ कौआ ! कहाँ पण्डित तथा कहाँ मूर्ख ! जो सेवक हैं, वे चक्रवर्ती राजाको अपने स्वामीको जीतनेकी इच्छा रखते हैं। राजा ययातिके शापसे यदुवंशी राज्य-पदसे भ्रष्ट हो चुके हैं; किंतु वे छोटा-सा राज्य पाकर उसी तरह इतरा उठे हैं, जैसे छोटी नदियाँ थोड़ा- सा जल पाकर उमँड़ने लगती हैं- उच्छलित होने लगती हैं। जो हीनवंशका होकर राजा हो जाता है, जो मूर्खका बेटा होकर पण्डित हो जाता है, अथवा जो सदाका निर्धन कभी धन पा जाता है, वह घमंडसे भरकर सारे जगत को तृणवत् मानने लगता है। उग्रसेन कितने दिनोंसे राजपदवीको प्राप्त हुआ है? वासुदेव मन्त्री बना है और उग्रसेन उसीके बलसे और केवल उसीसे पूजित होकर राजा बन बैठा है। उसके मन्त्री वासुदेवने जरासंधके भयसे भागकर अपनी पुरी मथुराको छोड़कर समुद्रकी शरण ली है। वह पहले ‘नन्द’ नामक अहीरका भी बेटा कहा जाता था। उसीको वसुदेव लाजहया छोड़कर अपना पुत्र मानने लगे हैं। वसुदेव तो गोरे रंगके हैं, उनसे उत्पन्न हुआ यह कृष्ण श्यामवर्णका कैसे हो गया ? केवल पिता ही नहीं, पितामह भी गोरे हैं। उनके कुलकी संततिमें इस वासुदेवकी गणना हो, यह बड़े दुःख और हँसीकी बात है। मैं उसके पुत्र प्रद्युम्नको यादवों तथा सेनासहित जीतकर भूमण्डलको यादवोंसे शून्य कर देनेके लिये कुशस्थलीपर चढ़ाई करूँगा ॥ ८-१६ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर धनुष और अक्षय बाणोंसे भरे दो तरकस लेकर शिशुपालको युद्धके लिये जानेको उद्यत देख चेदिराजने उससे कहा ॥ १७ ॥

दमघोष बोले- बेटा! मैं जो कहता हूँ, उसे सुनो। क्रोध न करो, न करो। जो सहसा कोई कार्य करता है, उसे सिद्धि नहीं प्राप्त होती। क्षमाके समान धर्म, अर्थ, काम और मोक्षका साधन दूसरा कोई नहीं है। इसलिये सामनीतिसे काम लेना चाहिये। सामके तुल्य दूसरा कोई सुखद उपाय नहीं है। दानसे सामकी शोभा होती है और सामकी सत्कारसे। सत्कारकी भी तभी शोभा होती है, जब वह यथायोग्य गुण देखकर किया जाय। यादव और चेदिप सगेसम्बन्धी माने गये हैं; अतः मैं वास्तवमें यही चाहता हूँ कि यादवों तथा चेदिपोंमें कलह न हो ॥ १८-२१॥(Vishwajitkhand chapter 6 to 10)

श्रीनारदजी कहते हैं- बुद्धिमान् दमघोषके समझानेपर भी शिशुपाल अनमना हो गया, कुछ बोला नहीं। वह महाखल चुपचाप बैठा रहा। राजन् ! चेदिराजकी रानी श्रुतिश्रवा शूरनन्दन वसुदेवकी बहिन थीं। वे अपने पुत्र शिशुपालके पास आकर अच्छी तरह विनययुक्त होकर बोलीं ॥ २२-२३ ॥

श्रुतिश्रवाने कहा- बेटा! खेद न करो। यादवों तथा चेदिपोंमें कभी कलह नहीं होना चाहिये। शूरनन्दन वसुदेव तुम्हारे मामा हैं और उनके पुत्र श्रीकृष्ण भी तुम्हारे भाई ही हैं। उनके जो प्रद्युम्न आदि सैकड़ों महावीर पुत्र आये हैं, वे सब मेरे और तुम्हारे द्वारा लाड़-प्यार पानेके योग्य तथा समादरणीय हैं। उनके साथ युद्ध करना उचित नहीं होगा। तात! मैं तुम्हारे साथ स्वयं स्नेहार्द्रचित्त होकर उन समागत यादवोंको लेनेके लिये चलूँगी। चिरकालसे मेरे मनमें उन सबको देखनेकी उत्कण्ठा है। मैं बड़े उत्सव एवं उत्साहके साथ उनको घर लाऊँगी। ऐसा अवसर फिर कभी नहीं आयेगा ॥ २४-२६ ॥

शिशुपाल बोला- बलराम, कृष्ण तथा समस्त यादव मेरे शत्रु हैं। जिन्होंने मेरा तिरस्कार किया है, उन सबको मैं भी अपने सैनिकोंद्वारा मरवा डालूँगा। पूर्व कालमें कुण्डिनपुरमें राम तथा कृष्ण, इन दोनों भाइयोंने मेरी अवहेलना की, मेरा विवाह रोक दिया; अतः वे मेरे भाई नहीं, शत्रु हैं। यदि तुम दोनों (मेरे माता-पिता होकर) यादवोंका समर्थन करोगे तो मैं तुम दोनों माता-पिताको मजबूत बेड़ियोंसे बाँधकर उसी तरह कारागारमें डाल दूँगा, जैसे कंसने अपने माँ-बापको कैद कर लिया था। अन्यथा तुम दोनोंका वध भी कर डालूँगा, मेरी शपथ या प्रतिज्ञा बड़ी कठोर होती है (इसे टालना कठिन है) ॥ २७-३० ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- शिशुपालकी कड़ी बातें सुनकर चेदिराज चुप हो गये। उद्धवजी अपनी सेनामें लौट आये और जो कुछ शिशुपालने कहा था, वह सब उन्होंने वहाँ कह सुनाया। तदनन्तर वाहिनी, ध्वजिनी, पृतना और अक्षौहिणी- ये चार प्रकारकी शिशुपालकी सेनाएँ सुसज्जित हुईं ॥ ३१-३२ ॥

बहुलाश्वने पूछा- प्रभो! वाहिनी आदि सेनाकी संख्या मुझे बताइये; क्योंकि ऋषिलोग भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों कालोंकी बातें जानते हैं॥ ३३॥(Vishwajitkhand chapter 6 to 10)

श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! सौ हाथी, ग्यारह सौ रथी, दस हजार घोड़े और एक लाख पैदल- यह ‘सेना’ का लक्षण है। इससे दुगुनी सेनाको ‘चतुरङ्गिणी’ कहते हैं। चार सौ हाथी, दस हजार रथ, चार लाख घोड़े तथा एक करोड़ पैदल इतने सैनिक लोहेका कवच पहने और शक्तिशाली वल-वाहनोंसे सम्पन्न, अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञाता शूरवीर जिस सेनामें विद्यमान हों, उसे विद्वानोंने ‘वाहिनी’ कहा है। वाहिनीसे दुगुनी सेनाको ‘ध्वजिनी’ नाम दिया गया है। ध्वजिनीसे दुगुनी सेनाको पूर्वकालके विद्वानोंने ‘पृतना’ माना है। पृतनासे दुगुनी सेना ‘अक्षौहिणी’ कही गयी है। जो साहसी वीर है, उसे ‘शूर’ कहा गया है। जो सौ शूरवीरोंकी रक्षा करता है, उसे ‘सामन्त’ कहते हैं। जो युद्धमें सौ सामन्तोंकी रक्षा करता है, उसे ‘गजी’ (या गजारोही) योद्धा कहते हैं। जो समराङ्गणमें सारथि और अश्वोंसहित रथकी रक्षा कर सकता है, वह ‘रथी’ कहा गया है। जो अपने बाणोंसे सेनाकी रक्षा करता है, उसे ‘महारथी’ कहते हैं। जो अपनी सेनाको रक्षा और शत्रुओंका संहार करते हुए रणक्षेत्रमें अक्षौहिणी सेनाके साथ युद्ध कर सके, उसे सदा ‘अतिरथी’ माना गया है ॥ ३४-४१ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘गुर्जर और चेदिदेशमें गमन’ नामक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ७॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ स्तोत्ररत्नावली

आठवाँ अध्याय

शिशुपाल के मित्र द्युमान् तथा शक्तका वध

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! शिशुपाल अपनी सेनाको साथ ले माता-पिताका तिरस्कार करके चन्द्रिकापुरसे बाहर निकला। दुष्टोंका ऐसा स्वभाव ही होता है। उसके सात ‘वाहिनी’ और ‘ध्वजिनी’ सेनाओंसे युक्त द्युमान् और शक्त निकले। शिशुपालके दो मन्त्रियोंके नाम थे, रङ्ग और पिङ्ग। वे दोनों क्रमशः ‘पृतना’ और ‘अक्षौहिणी’ सेना लिये युद्धके लिये नगरसे बाहर आये ॥ १-२ ॥

नरेश्वर ! शिशुपालकी महासेना प्रलयकालके महासागरके समान उमड़ती आ रही थी। उसे देखकर यदुवंशी वीर भगवान् श्रीकृष्णको ही जहाज बनाये, उस सैन्य सागरसे पार होनेके लिये सामने आये। महाबली घुमान् शिशुपालसे प्रेरित हो ‘वाहिनी’ सेनासहित आगे बढ़कर यादव योद्धाओंके साथ युद्ध करने लगा। समराङ्गणमें दोनों सेनाओंकी बाण-वर्षासे अन्धकार छा गया। घोड़ोंकी टापोंसे इतनी धूल उड़ी कि आकाश आच्छादित हो गया। नरेश्वर! दौड़ते हुए घोड़े उछलकर हाथियोंके मस्तकपर पाँव रख देते थे और घायल हुए हाथी युद्धभूमिमें पैरोंसे शत्रुओंको गिराते और सूँड़की फुफकारोंसे इधर-उधर फेंकते- कुचलते आगे बढ़ रहे थे। उनके मस्तकपर कस्तूरी और सिन्दूरसे पत्र-रचना की गयी थी और पीठपर लाल रंगकी झूल उनकी शोभा बढ़ाती थी। पैदल सैनिक बाणों, गदाओं, परिघों, तलवारों, शूलों और शक्तियोंकी मारसे अङ्ग अङ्ग कट जानेके कारण धराशायी हो रहे थे। उनके पैर, घुटने और बाहुदण्ड छिन्न-भिन्न हो गये। राजन् ! कोई अपनी तीखी तलवारसे युद्धमें घोड़ोंके दो टुकड़े कर देता था। कितने ही वीर हाथियोंके दाँत पकड़कर उनके मस्तकोंपर चढ़ जाते थे और सिंहकी भाँति महावतों तथा हाथी-सवारोंको चीर-फाड़ डालते थे। बहुत-से महावली घुड़सवार योद्धा हाथियोंके समूहको फाँदकर शत्रु-सैनिकों पर खड्गका प्रहार करते और उन्हें विदीर्ण कर डालते थे। ऐसा दिखायी देता था कि घोड़ोंकी पीठसे उनका स्पर्श ही नहीं होता है। वे नटोंकी तरह विद्युत्-वेगसे घोड़ोंपर चढ़ते-उतरते रहते थे ॥ ३-११॥

शत्रुओंकी सेनाका वेगपूर्वक आक्रमण होता देख अक्रूर सामने आये। उन्होंने बाणोंकी वर्षासे दुर्दिन (बरसात) का दृश्य उपस्थित कर दिया। द्युमान्ने भी अपने धनुषसे छूटे हुए बाण-समूहोंकी बौछारसे अक्रूरको आच्छादित कर दिया-ठीक उसी तरह, जैसे बादल वर्षाकालके सूर्यको ढक देता है। गान्दिनी- पुत्र अक्रूरने क्रोधसे मुच्छित हो द्युमान के वाण- समूहोंपर विजय पाकर उस वीरके ऊपर शक्तिसे प्रहार किया। उस प्रहारसे द्युमान का अङ्ग विदीर्ण हो गया। वह दो घड़ीके लिये अपनी चेतना खो बैठा। परंतु शिशुपालके उस बलवान् मित्रने फिर शीघ्र ही उठकर युद्ध आरम्भ कर दिया। द्युमान्ने लाख भार लोहेकी बनी हुई एक भारी गदा हाथमें ली और उसके द्वारा अक्रूरकी छातीपर चोट करके मेघके समान गर्जना की। उसके प्रहारसे अक्रूर मन-ही-मन किंचित् व्याकुल हो उठे। तब बार-बार अपने धनुषकी टंकार करते हुए युयुधान (सात्यकि) सामने आये। उन्होंने खेल-खेलमें एक ही बाण मारकर तुरंत द्युमान का मस्तक काट डाला। द्युमानके गिर जानेपर उसके वीर सैनिक युद्धका मैदान छोड़कर भाग चले ॥ १२-१७॥(Vishwajitkhand chapter 6 to 10)

उसी समय अपनी सेनाको भागती देख शक्त वहाँ आ पहुँचा। उसने बुद्धिमान् युयुधानपर सहसा शूल चलाया। युयुधानने अपने बाण-समूहोंसे उस शूलके सौ टुकड़े कर दिये। तब शक्तने परिघ उठाकर युयुधानपर दे मारा। अर्जुनके सखा युयुधान क्षणभरके लिये मूच्छित हो गये। इतनेमें ही महाबली वीर कृतवर्मा वहाँ आ पहुँचा। उसने बाण मारकर अश्वसहित शक्तके भी रथको चूर-चूर कर दिया। तब शक्तने भी गदाकी चोटसे कृतवर्माक उत्तम रथको चकनाचूर कर डाला। राजन् ! कृतवर्माने रथ छोड़कर शक्तको रोषपूर्वक पकड़ लिया और उसे गिराकर दोनों भुजाओंसे उछालकर एक योजन दूर फेंक दिया। उस युद्धभूमिमें शक्तके गिर जानेपर शिशुपालकी आज्ञासे उसके दोनों मन्त्री रङ्ग और पिङ्ग क्रमशः ‘पृतना’ और ‘अक्षौहिणी’ सेनाओंके साथ बाण-वर्षा करते और युद्धमें शत्रुओंको कुचलते हुए आये। मैथिलेश्वर! ऐसा जान पड़ता था, मानो अग्नि और वायु देवता एक साथ आ पहुँचे हैं। उन दोनोंकी उद्भट सेनाको देख पिताके समान पराक्रमी यादवेन्द्रप्रद्युम्न धनुष हाथमें लेकर भरी सभामें इस प्रकार बोले ॥ १८-२५ ॥

प्रद्युम्नने कहा- योद्धाओ ! रङ्ग और पिङ्गके साथ होनेवाले युद्धमें मैं अग्रगामी होकर जाऊँगा; क्योंकि रङ्ग और पिङ्ग महान् बल-पराक्रमसे सम्पन्न दिखायी देते हैं॥ २६ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- प्रद्युम्नकी यह बात सुन- कर श्रीकृष्णके बलवान् पुत्र नीतिवेत्ता महाबाहु भानु सबसे आगे होकर अपने बड़े भाईसे बोले ॥ २७ ॥

भानुने कहा- प्रभो! जब तीनों लोक एक साथ युद्धके लिये आपके सम्मुख उपस्थित दिखायी दें, तब आपके धनुषकी टंकार होगी, इसमें संशय नहीं है। मैं केवल तलवारसे ही रङ्ग और पिङ्गके मस्तक काटकर तरबूजके दो टुकड़ोंकी भाँति हाथमें लिये यहाँ प्रवेश करूँगा ॥ २८-२९ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व संवादमें ‘द्युमान् और शक्तका वध’ नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८ ॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ पंचदेव अथर्वशीर्ष संग्रह

नवाँ अध्याय

भानुके द्वारा रङ्ग-पिङ्गका वध; प्रद्युम्न और शिशुपालका भयंकर
युद्ध तथा चेदिदेशपर प्रद्युम्नकी विजय

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् । यों कहकर शत्रु सूदन भानु ढाल तलवार लेकर पैदल ही शत्रुसेनामें उसी प्रकार घुस गये, जैसे जंगली हाथी जंगलमें प्रवेश करता है। भानुने अपने खड्गसे शत्रु-योद्धाओंकी भुजाएँ काट डालीं। हाथी और घोड़े भी जब सामने या आस-पास मिल जाते थे, तब वे अपनी तलवारसे उनके दो टुकड़े कर डालते थे। वे उस समराङ्गणमें शत्रुओंका छेदन करते हुए अकेले ही विचरने और शोभा पाने लगे। उनका दूसरा साथी केवल खड्ग था। जैसे कुहासे और बादलोंसे आच्छादित होनेपर भी सूर्यदेव अपने तेजसे उद्भासित होते हैं, उसी प्रकार शत्रुओंसे आवृत होनेपर भी वीरवर भानु अपने विशिष्ट तेजका परिचय दे रहे थे ॥१-७॥

मिथिलेश्वर ! भानुके खड्गसे जिनके कुम्भस्थल कट गये थे, उन हाथियोंके मस्तकोंमेंसे मोती रणभूमिमें उसी प्रकार गिरते थे, जैसे पुण्यकर्मोंके क्षीण हो जानेपर स्वर्गवासी जनोंके तारे (ज्योतिर्मय रूप) द्युलोकसे भूमिपर गिर पड़ते हैं। उस समराङ्गणमें दृष्टिमात्रसे (पलक मारते) शत्रुसेनाको धराशायिनी करके महाबली वीर भानु रङ्ग और पिङ्गके ऊपर जा चढ़े। भगवान् श्रीकृष्णके दिये हुए खड्गसे रङ्ग और पिङ्गके रथोंको नष्ट करके भानुने सारथियोंके सहित उनके घोड़ोंके दो-दो टुकड़े कर डाले। तब महा उद्भट वीर रङ्ग और पिङ्गने भी खड्ग लेकर भानुपर प्रहार किया। परंतु भानुकी ढालतक पहुँचते ही वे दोनों खड्ग टूक-टूक हो गये। भानुकी तलवारकी चोटसे रङ्ग और पिङ्गके मस्तक एक साथ ही युद्धभूमिमें जा गिरे। यह अद्भुत-सी बात हुई। विजयी वीर भानु सेनापतियोंसे प्रशंसित हो रङ्ग और पिङ्गके मस्तक लेकर प्रद्युम्नके सामने आये। उस समय मानवीय दुन्दुभियोंके साथ देव-दुन्दुभियाँ भी बज उठीं। सब ओर जय-जयकार होने लगा। देवताओंने फूल बरसाये। रङ्ग और पिङ्गके मारे जानेका समाचार सुनकर शिशुपालके रोषकी सीमा न रही। वह विजयशील रथपर आरूढ़ हो यादवोंके सामने गया। उसके साथ मदकी धारा बहानेवाले, सोनेके हौदेसे युक्त और रत्नजटित कम्बल (कालीन या झूल) से अलंकृत बहुत-से विशालकाय गजराज चले, जिनके हिलते हुए घंटोंकी घनघनाहट दूर-दूरतक फैल रही थी। देवताओंके विमानोंकी भाँति शोभा पानेवाले रथों, वायुके तुल्य वेगशाली तुरंगमों तथा विद्याधरोंके सदृश पराक्रमी वीरोंके द्वारा वह पृथ्वीतलको निनादित करता हुआ चल रहा था ॥ ८-१३॥

नरेश्वर ! शिशुपालकी सेनाको आती देख धनुर्धारियोंमें श्रेष्ठ श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न इन्द्रके दिये हुए रथपर आरूढ़ हो सबके आगे होकर उसका सामना करनेके लिये चले। उन्होंने सम्पूर्ण दिशाओं और आकाशको गुँजाते हुए अपना शङ्ख बजाया। दूसरोंको मान देनेवाले नरेश ! उस शङ्खनादसे शत्रुओंके हृदयमें कँपकँपी होने लगी। शिशुपालकी विशाल सेना राज- प्रासाद या राजकीय दुर्गकी भाँति दुर्गम थी। उसमें प्रवेश करनेके लिये रुक्मिणीनन्दन प्रद्युग्नने सहसा बाणोंका सोपान बनाया। दमघोषनन्दन बुद्धिमान् शिशुपालने बारंबार धनुषकी टंकार करते हुए ब्रह्मास्त्रका संधान किया, जिसको उसने दत्तात्रेयजीसे सीखा था। उसके प्रचण्ड तेजको सब ओर फैलता देख युद्ध-भूमिमें रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्नने भी ब्रह्मास्त्रका ही प्रयोग करके लीलापूर्वक शत्रुके उस अस्त्रका संहार कर दिया। नरेश्वर ! तब महाबुद्धिमान् शिशुपालने अङ्गारास्त्रका प्रयोग किया, जिसे जमदग्निनन्दन परशुरामने महेन्द्र पर्वतपर उसको दिया था। उस अस्त्रके द्वारा अङ्गारोंकी वर्षा होनेसे प्रद्युम्नकी सेना अत्यन्त व्याकुल हो उठी। तब श्रीकृष्णकुमारने महादिव्य पर्जन्यास्त्रका प्रयोग किया। उससे मेघोंद्वारा जलकी मोटी धाराएँ गिरायी जाने लगीं, अतः सारे अङ्गार बुझ गये। तब शिशुपालने कुपित होकर गजास्त्रका संधान किया, जिसकी शिक्षा उसे अगस्त्य मुनिने मलयाचलपर दी थी। उस अस्त्रसे अत्यन्त उद्भट करोड़ों विशालकाय गजराज प्रकट होने लगे। उन्होंने महात्मा प्रद्युम्रकी सेनाको रणभूमिमें गिराना आरम्भ किया। इससे यादवोंकी सेनाओंमें महान् हाहाकार मच गया। यह देख युद्धमें होड़ लगाकर आगे बढ़नेवाले प्रद्युम्नने नृसिंहास्त्रका संधान किया। उससे नृसिंहका प्राकच हुआ, जो अपनी गर्जनासे भूतलको प्रतिध्वनित कर रहे थे। उनके अयाल चमक रहे थे। उनकी गर्दन और पूँछके बाल बड़े-बड़े थे। पंजोंके नख हलकी फालके समान बड़े-बड़े होनेके कारण उनके स्वरूपकी भयंकरताको बढ़ा रहे थे। नृसिंह उस समराङ्गणमें उन हाथियोंका भक्षण करते हुए हुंकारके साथ सिंहनाद करने लगे। उन हाथियोंके कुम्भस्थलोंको विदीर्ण करके उछलते हुए भगवान् नृसिंह समस्त गजसमूहोंका मर्दन करके वहीं अन्तर्धान हो गये। तब महाबली शिशुपालने रोषपूर्वक परिघ चलाया। परंतु माधव प्रद्युम्नने यमदण्डसे मारकर उसके दो टुकड़े कर दिये। फिर तो चेदिराज शिशुपालके रोषकी सीमा न रही। उसने ढाल और तलवार लेकर प्रद्युम्नपर इस प्रकार धावा किया, जैसे पतंग प्रज्वलित अग्निकी ओर टूटता है। श्रीकृष्ण- कुमारने वेगपूर्वक उसके खड्गपर यमदण्डसे प्रहार किया, जिससे ढालसहित उसकी वह तलवार चूर-चूर हो गयी। फिर यादवेश्वर प्रद्युम्रने सहसा वरुणके दिये हुए पाशसे दमघोषपुत्र शिशुपालको बाँधकर समराङ्गणमें घसीटना आरम्भ किया। अब उन्होंने शिशुपालका काम तमाम करनेके लिये रोषपूर्वक तलवार हाथमें ली। इतनेमें ही गदने वेगसे आगे बढ़कर उनके दोनों हाथ पकड़ लिये ॥ १४-३१ ॥

गद बोले- रुक्मिणीनन्दन ! परिपूर्णतम महात्मा श्रीकृष्णके हाथसे इसका वध होनेवाला है; इसलिये तुम इसे मारकर देवताओंकी बात झूठी न करो ॥ ३२ ॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! शिशुपालके बाँध लिये जानेपर बड़ा भारी कोलाहल मचा। उस समय चेदिराज दमघोष भेंट लेकर प्रद्युम्नके सामने आये। उन्हें आया देख शीघ्र ही अपने अस्त्र-शस्त्र फेंककर प्रद्युम्न आगे बढ़े। उन्होंने चेदिराजके चरणोंमें मस्तक रखकर उन्हें प्रणाम किया। महाराज दमघोष महात्मा प्रद्युम्नसे मिलकर उन्हें आशीर्वाद देते हुए गद्गद वाणीमें बोले ॥ ३३-३५ ॥

दमघोषने कहा- यादव-शिरोमणे प्रद्युम्न ! तुम धन्य हो। दयानिधे! मेरे पुत्रने जो अपराध किया है, उसे क्षमा कर दो ॥ ३६ ॥(Vishwajitkhand chapter 6 to 10)

श्रीप्रद्युम्न बोले- प्रभो! इसमें न मेरा दोष है, न आपका और न आपके पुत्रका ही दोष है। जो कुछ भी प्रिय अथवा अप्रिय होता है, वह सब मैं कालका किया हुआ ही मानता हूँ ॥ ३७॥

नारदजी कहते हैं- राजन् ! प्रद्युम्नके यों कहनेपर राजा दमघोष उनके द्वारा बाँधे गये शिशुपाल- को छुड़ाकर उसे साथ ले चन्द्रिकापुरीमें गये। साक्षात् श्रीकृष्णके समान तेजस्वी प्रद्युम्नके बल पराक्रमका समाचार सुनकर प्रायः कोई राजा उनके साथ युद्ध करनेको उद्यत नहीं हुए। सबने चुपचाप उनकी सेवामें भेंट अर्पित कर दी ॥ ३८-३९ ॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘रङ्ग-पिङ्गका वध, शिशुपालका युद्ध और चेदिदेशपर विजय’ नामक नवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ९॥

यहां एक क्लिक में पढ़ें ~ तैत्तिरीयोपनिषद

दसवाँ अध्याय

यादव सेना का कोङ्कण, कुटक, त्रिगर्त, केरल, तैलंग, महाराष्ट्र और कर्नाटक
आदि देशोंपर विजय प्राप्तकर करूष देश में जाना
तथा वहाँ दन्तवक्रका घोर युद्ध

नारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! तदनन्तर मनुतीर्थमें स्नान करके प्रद्युम्न बारंबार दुन्दुभि बजवाते हुए यादव सेनाके साथ कोङ्कण देशमें गये। कोङ्कण देशका राजा मेधावी गदायुद्धमें अत्यन्त कुशल था। वह मल्लयुद्ध के द्वारा विपक्षीके बलकी परीक्षा करनेके लिये अकेला ही आया। उसने सेनासहित प्रद्युम्नसे कहा- ‘यादवेश्वर ! मुझे गदायुद्ध प्रदान करो। प्रभो! मेरे बलका नाश करो’ ॥१-३॥

प्रद्युम्न बोले- हे मल्ल ! इस भूतलपर एक-से-एक बढ़कर बलवान् वीर हैं; अतः तुम अपने बलपर घमंड न करो। भगवान् विष्णुकी माया बड़ी दुर्गम है। हमलोग बहुत-से वीर यहाँ एकत्र हैं और तुम अकेले ही हमसे युद्ध करनेके लिये आये हो। महामल्ल ! यह अधर्म दिखायी देता है, अतः इस समय लौट जाओ ॥४-५ ॥

मल्ल बोला- जब आपलोग बलशाली वीर होकर भी युद्ध नहीं कर रहे हैं, तो मेरे पैरोंके नीचेसे होकर निकल जाइये; तभी अब यहाँसे लौटूंगा ॥ ६ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- मैथिल! उस मल्लके यों कहनेपर समस्त यादव-पुंगव वीर क्रोधसे भर गये। तब उसके देखते-देखते बलदेवजीके छोटे भाई बलवान् वीर गद गदा लेकर सामने खड़े हो गये। फिर वह भी सबके सम्मुख गदा उठाकर खड़ा हो गया। उस महाबली मल्लने गदके ऊपर एक बड़ी भारी गदा फेंकी। गदने उसकी गदाको हाथमें थाम लिया और अपनी गदा उसके ऊपर दे मारी। गदकी गदासे आहत होकर वह पृथ्वीपर गिर पड़ा और मुखसे रक्त वमन करने लगा। अब उसने युद्धकी इच्छा त्याग दी। तदनन्तर कोङ्कणवासी मेधावीने श्रीहरिके पुत्र प्रद्युम्नको प्रणाम करके कहा- ‘मैंने आपलोगोंकी परीक्षाके लिये यह कार्य किया था। आप तो साक्षात् भगवान् ही हैं। कहाँ आप और कहाँ मुझ जैसा प्राकृतमनुष्य! मेरा अपराध क्षमा कीजिये। मैं आपकी शरणमें आया हूँ’ ॥७-१२॥(Vishwajitkhand chapter 6 to 10)

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन्। यों कहकर, भेंट देकर और श्रीहरिके पुत्रको नमस्कार करके कोङ्कण देशका राजा क्षत्रिय शिरोमणि मेधावी अपनी पुरीको चला गया। कुटक देशका स्वामी मौलि शिकार खेलनेके लिये नगरसे बाहर निकला था। उसे जाम्बवती कुमार महाबाहु साम्बने जा पकड़ा। उससे भेंट लेकर प्रद्युम्न दण्डकारण्यको गये। वहाँ मुनियोंके आश्रम देखते हुए सेनासहित श्रीकृष्णकुमार क्रमशः निर्विन्ध्या, पयोष्णी तथा तापी नदीमें स्नान करके महाक्षेत्र शूर्पारकमें गये। वहाँसे आर्या द्वैपायनी देवीका दर्शन करके ऋष्यमूककी शोभा देखते हुए प्रवर्षण गिरिपर गये, जहाँ साक्षात् भगवान् पर्जन्य (इन्द्र) नित्य वर्षा करते हैं। वहाँसे गोकर्ण नामक शिवक्षेत्रका दर्शन करते हुए महाबली श्रीकृष्णकुमार अपने सैनिकोंके साथ त्रिगर्त और केरल देशोंपर विजय पानेके लिये गये। केरलके राजा अम्बष्ठने मेरे मुखसे महात्मा प्रद्युम्नके शुभागमनकी बात सुनकर शीघ्र ही उन्हें भेंट अर्पित कर दी। तब वे कृष्णावेणी नदीको पार करके अपने सैनिकोंकी पद-धूलिराशिसे आकाशमें अन्धकार-सा फैलाते हुए तैलंग देशमें गये। तैलंग देशके राजाका नाम विशालाक्ष था। वे अपने नगरके उपवनमें सुन्दरियोंके साथ विहार करते थे। मधुर ध्वनियोंसे व्याप्त मृदङ्ग आदि बाजे बज रहे थे तथा अप्सराएँ उत्कृष्ट रागोंद्वारा देवेन्द्रके समान उस राजाके सुयशका गान कर रही थीं। उस समय सुन्दरी रमणी रानी मन्दारमालिनीने धूलसे व्याप्त आकाशकी ओर देखकर राजासे कहा। रानीके बिम्बोपम अरुण ओष्ठ सूख गये थे ॥ १३-२३॥

मन्दारमालिनी बोली- राजन् ! आप सदा विहारमें ही रत रहनेके कारण दूसरी किसी बातको नहीं जानते हैं, दिन-रात अत्यन्त कामावेशके कारण चञ्चल बने रहते हैं। और मैं भी आपके मुखपर छिटकी हुई अलकोंकी सुगन्धपर लुभायी भ्रमरी होकर कभी यह न जान सकी कि दुःख क्या होता है। परंतु आज द्वारकाके राजा उग्रसेनके राजसूय यज्ञका बीड़ा उठाकर दिग्विजयके लिये निकले हुए वे यदुराजराज प्रद्युम्न चेदिराज आदि समस्त नरेशोंको जीतकर यहाँ आ पहुँचे हैं। दुन्दुभियोंकी धुंकार-ध्वनि सुनिये। उसके साथ हाथियोंके चीत्कार और फूत्कारकी ध्वनि भी मिली हुई है। शत्रुओंके कोदण्डकी टंकार प्रलयकालके गर्जन-तर्जनका कोलाहल प्रस्तुत कर रही है। शम्बर-शत्रु प्रद्युम्नके पास तुरंत भेंट भेज दीजिये। इन भागती हुई भूपसुन्दरियोंकी ओर देखिये, इनके बँधे हुए केशपाशोंसे फूल झड़ गये हैं। ये श्रमजल (पसीने) की वर्षा कर रही हैं और वनमें प्रवेश
करनेके कारण इनके केशोंके शृङ्गार बिगड़ गये हैं स्पष्ट प्रतीत नहीं हो रहे हैं॥ २४-२७ ॥(Vishwajitkhand chapter 6 to 10)

पत्नीकी बात सुनकर राजा विशालाक्ष अत्यन्त प्रसन्न हो, भेंट-सामग्री लेकर प्रद्युम्नके सामने आये। उनके द्वारा पूजित और सम्मानित हो धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ साक्षात् प्रद्युम्न पम्पा सरोवर तीर्थमें स्नान करके वहाँसे महाराष्ट्रकी ओर चल दिये। महाराष्ट्रके राजा विमल विष्णुभक्त थे। उन्होंने बड़े भक्तिभावसे श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्नका सब प्रकारसे पूजन किया। इसी प्रकार कर्नाटकके राजा सहस्त्रजित् स्वयं ही बहुत-सी भेंट- सामग्री लेकर आये और महात्मा प्रद्युम्नको अर्पित करके उन्होंने कल्याणके लिये उन परम प्रभु जगदीश्वर शम्बरारिका पूजन किया ॥ २८-३१ ॥

मिथिलेश्वर ! जैसे योगी देहसे होनेवाले विषय भोगोंपर विजय पानेकी चेष्टा करता है, उसी प्रकार साक्षात् भगवान् प्रद्युम्र यादवोंके साथ करूष देशको जीतनेके लिये गये। नरेश्वर। वहाँ महारङ्गपुरमें परम बुद्धिमान् राजा वृद्धशर्मा रहते थे, जो वसुदेवकी बहिन श्रुतदेवाके पति थे। उनका पुत्र दन्तवक्र श्रीकृष्णका शत्रु कहा गया है। उसने भी शिशुपालकी भाँति कुपित हो यादवोंके साथ स्वयं युद्ध करनेका विचार किया। यद्यपि माता-पिताने उसे मना किया, तथापि दैत्योंके प्रति अनुराग रखनेवाले उस दैत्यने ‘मैं यादवोंको मार डालूँगा’- इस प्रकार अपना क्रोध प्रकट किया। वह लाख भारकी बनी हुई भारी गदा लेकर प्रद्युम्रकी सेनाके सामने अकेला ही युद्ध करनेके लिये गया। दन्तवक्र के शरीरका रंग काला था। वह कोयलेके पहाड़-सा जान पड़ता था। उसकी जीभ लपलपाती रहती थी और रूप बड़ा भयंकर था। वह दस ताड़के बराबर ऊँचा था मस्तकपर किरीट, कानोंमें कुण्डल तथा वक्षपर सोनेके कवचसे विभूषित वह करूष-राजकुमार करधनीकी लड़ें पहिने हुए था। उसके चञ्चल चरणोंमें नूपुर बज रहे थे। वह अपने वेगसे पृथ्वीको कँपाता, पर्वतों तथा वृक्षोंको गिराता और अपनी गदाके प्रहारसे शत्रुओंको कालके गालमें भेजता हुआ यमराजके समान दुर्जय प्रतीत होता था। समराङ्गणमें दन्तवक्रको उपस्थित देख समस्त यादव भयसे थर्रा उठे। उसके आते ही महान् कोलाहल मच गया। प्रद्युम्नने उसके ऊपर बारंबार धनुषकी टंकार करती हुई अठारह अक्षौहिणी विशाल सेना भेजी ॥ ३२-४१ ॥(Vishwajitkhand chapter 6 to 10)

राजन् ! जैसे हाथी किसी पर्वतपर चारों ओरसे टक्कर मारते हों, उसी प्रकार समस्त यादवोंने बाणों, फरसों, शतनियों तथा भुशुण्डियोंसे दन्तवक्रपर प्रहार करना आरम्भ किया। राजेन्द्र ! दन्तवक्रने अपनी गदासे रणभूमिमें बहुत-से उत्कट गजराजोंके कुम्भ- स्थल विदीर्ण करके उन्हें मार गिराया। किन्हीं हाथियोंको, जो किङ्किणी-जालसे निनादित, साँकलोंसे सुशोभित, हौदोंसे अलंकृत और चञ्चल घंटोंके रणत्कारसे युक्त थे, उसने पाँव पकड़कर उठा लिया और जैसे हवा रूईको दूर उड़ा ले जाती है, उसी प्रकार आकाशमें सौ योजन दूर फेंक दिया। वह दैत्यराज किन्हीं-किन्हीं हाथियोंकी सूंड पकड़कर आकाशमें घुमाता और उन चिग्घाड़ते हुए गजराजोंको विभिन्न दिशाओंमें फेंक देता था। किन्हीं हाथियोंकी पीठकी हड्डियोंपर, किन्होंकी काँखों में- उभय पाश्र्थोंमें पैरोंसे आक्रमण करके वह दैत्य कालाग्निरुद्रकी भाँति शोभा पाता था। वह वीर सारथि, घोड़े, ध्वजा और महारथियोंसहित रथोंको आकाशमें उसी तरह उछाल देता था, जैसे आँधी कमलोंको उड़ा ले जाती है। उसने घोड़ों और पैदल सैनिकोंको भी बलपूर्वक उठा-उठाकर आकाशमें फेंक दिया। बहुत-से महाबली राजकुमार ऊपर या नीचे मुँह किये शस्त्रों तथा रत्नमय केयुरॉसहित आकाशसे गिरते हुए तारोंके समान प्रतीत होते थे और मुँहसे रक्त वमन कर रहे थे। मैथिल! उस दैत्यपुंगवने अपनी गदासे यादव-सेनाको उसी प्रकार मथ डाला, जैसे भगवान् श्रीवराहने प्रलयकालके समुद्रको अपनी दंष्ट्रासे विक्षुब्ध कर दिया था ॥ ४२-५०॥

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें विश्वजित्खण्डके अन्तर्गत नारद बहुलाश्व-संवादमें ‘कोङ्कण, कुटक, त्रिगर्त, केरल, तैलंग, महाराष्ट्र और कर्नाटकपर विजय पाकर यादव-सेनाका करूष देशमें गमन’ नामक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १०॥

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